साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, July 09, 2025

बहुजन समाज का संविधान बनाम सनातन-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

 
~~सूक्ष्म विश्लेषणात्मक अध्ययन~~ 

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
       पिछड़े वर्ग के लोगों ने यदि विगत 75 वर्षों में संविधान का अनुच्छेद 340 पढ़कर उसे अच्छी तरह समझ लिया होता और सरकार द्वारा इस अनुच्छेद को समझाया गया होता तो वे आज मस्ज़िद के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने का काम कदापि न करते और न ही अपनी शिक्षा और रोजगार छोड़कर कांवड़ या अन्य किसी धार्मिक यात्रा में शामिल होते,बल्कि वे अपने आरक्षण (सरकारी शिक्षा - नौकरियों और राजनीति) जैसे संवैधानिक अधिकारों के बारे में जागरूक होकर उन्हें हासिल करने और देश की राज व्यवस्था में अपना यथोचित हिस्सा लेने के लिए लड़ रहे होते! हनुमान चालीसा का पाठ राम भक्त हनुमान जी की स्तुति या भक्ति में किया जाता है। मस्जिद के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने या पढ़वाने का निहितार्थ या औचित्य क्या है,इसे गंभीरता से समझने की जरूरत है! पिछले कुछ सालों में सत्ता और समाज के एक वर्ग विशेष और कथित सांस्कृतिक संगठन से उपजी एक राजनीतिक पार्टी द्वारा हिंदुत्व की राजनीति के उद्देश्य से ओबीसी को संविधान के अनुच्छेद 370 के बारे में खूब बताया और समझाया गया और यदाकदा विशेषकर चुनावी मौसम में आज भी उसकी जानबूझकर खूब चर्चा की जाती है। संविधान का अनुच्छेद 370 अनुच्छेद 340 के बाद आता है, लेकिन ओबीसी को कभी अनुच्छेद 340 के बारे में न तो बताया गया और न ही उसमें निहित उद्देश्यों को समझाया गया और न ही आज के दौर में भी सत्ता द्वारा ओबीसी के सामाजिक और शैक्षणिक उन्नयन के लिए बनाये गए अनुच्छेद 340 की राजनीतिक मंचों पर न तो बात होती है और न ही उसकी विस्तृत व्याख्या या विश्लेषण होता है। यदि विगत और वर्तमान सरकार द्वारा ओबीसी को  अनुच्छेद 340 की विस्तृत जानकारी दी गई होती तो उसे काका कालेलकर - मंडल आयोग और उनके द्वारा ओबीसी के उन्नयन हेतु सरकार को दी गई सिफारिशों के बारे में भी जानकारी हो जाती! न तो सरकार द्वारा और न ही सामाजिक-राजनीतिक संगठनों द्वारा ओबीसी के आम आदमी को इन सभी विषयों के बारे में न तो बताया गया और न ही समझाया गया जिसकी वजह से दलित और वंचित समाज के लोग अपने अधिकारों को छोड़,धार्मिक मुद्दों से उबर नहीं पाए। वे संविधान के बजाय सनातन या धर्म को महत्व देते रहे और समाज का एक वर्ग विशेष उनका आरक्षण का हक खाकर देश की व्यवस्था में 80% पर आज भी काबिज़ हैं और धर्म के नाम पर उपजे और ओबीसी के बलबूते फलते- फूलते धंधे से सभी तरह के सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक लाभ ले रहा है। ओबीसी के लोग धर्म की अफ़ीम चाटते रहे और...........।
          1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह द्वारा ओबीसी के सामाजिक और शैक्षणिक उत्थान के लिए बने मंडल आयोग की सिफारिशों में से केवल एक सिफारिश (सरकारी नौकरियों में ओबीसी को 27% आरक्षण) लागू करने की घोषणा होते ही उसके खिलाफ देश की सड़कों पर एक खास वर्ग की अराजकता देखने को मिली और ओबीसी अपने आरक्षण के अधिकारों के लिए सड़कों पर न उतरें,हिंदुत्व और धर्म की राजनीति को धार देने के उद्देश्य से राम मंदिर के नाम पर प्रायोजित ढंग से गुजरात से रथ यात्रा निकाली गई जिससे ओबीसी अपने संवैधानिक अधिकारों को छोड़कर धर्म की ध्वजा उठाने में लग गई। इसी मुद्दे पर बीजेपी ने सरकार से अपना समर्थन वापस लेकर वीपी सिंह की सरकार गिरा दी थी। इसी बीच घोषित आरक्षण की संवैधानिक वैधता का मामला सुप्रीम कार्ट चला गया। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार द्वारा घोषित 27% आरक्षण को वैध तो ठहराया ,लेकिन मनुवादी सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस निर्णय आदेश में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तय कर दी और साथ में ओबीसी अभ्यार्थियों के लिए एक क्रीमी लेयर की एक आय सीमा तय कर दी जिसमें आने वाले ओबीसी अभ्यार्थियों को आरक्षण की परिधि से बाहर करने की साजिश रच दी, जबकि आरक्षण की वैधता संबंधी याचिका में इन बिंदुओं का कहीं जिक्र तक नहीं किया गया था। यदि यह 27% आरक्षण कुछ वर्षों तक लागू होने के बाद इस आरक्षण से जो क्रीमी लेयर वाला वर्ग तैयार हो होता,उस पर आय सीमा लगाते तो उचित कहा जा सकता था, लेकिन अभी आरक्षण लागू भी नहीं हो पाया,मनुवादियों ने अपनी बारीक बुद्धि लगाकर क्रीमी लेयर की सीमा तय कर ओबीसी को आरक्षण से पहले ही बाहर कर दिया,यह एक सोची समझी साजिश का हिस्सा था जिसे ओबीसी का सामाजिक राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग इसके निहितार्थ नहीं समझ पाया। जैसे ही ओबीसी शिक्षा में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करने की स्थिति में आया तो एनएफएस नाम की अत्याधुनिक तकनीक विकसित कर सभी आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को " नॉट फाउंड सूटेबल " घोषित कर ओबीसी और एससी-एसटी के मेरिटोरियस अभ्यर्थियों को चयन प्रक्रिया से बाहर करना शुरू कर दिया।
        शिक्षा में बढ़ती जागरूकता और भागीदारी के परिणामस्वरूप आरक्षित वर्ग के मेरिटोरियस अभ्यर्थियों के ओवरलैपिंग अर्थात अनारक्षित वर्ग में जगह हासिल करने से खीजकर उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग में 69000 शिक्षक भर्ती में ओबीसी और एससी के लगभग 20000 अभ्यर्थियों की आरक्षण से मिलने वाली नौकरी छीनकर उनकी जगह सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों को शिक्षक बना दिया गया जो विगत पांच वर्षों से अच्छी खासी तनख्वाह लेकर खुशहाल जीवन जी रहे हैं और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को ज़लालत की जिंदगी जीने के लिए यूपी सरकार द्वारा मजबूर कर दिया गया है। राष्टीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश और हाई कोर्ट (सिंगल और डबल बेंच) के निर्णय के बावजूद बीजेपी की यूपी सरकार ने उक्त भर्ती की संशोधित सूची जारी नहीं की गई जिसके फलस्वरूप सरकार ने सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों को सुप्रीम कोर्ट जाने का एक खुला अवसर दे दिया और आज की तारीख़ में यह मामला मनुवादी सुप्रीम कोर्ट में लंबित हो गया है। आरक्षित वर्ग की नौकरियां छीनकर सामान्य वर्ग के अभ्यर्थी शिक्षक बनकर हर महीने लगभग 60000रुपए वेतन लेकर एक खुशहाल जीवन जी रहे हैं और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं।
       ओबीसी और एससी-एसटी जनप्रतिनिधियों की विधानसभा और लोकसभा में पर्याप्त संख्या होने और सामाजिक न्याय के नाम पर बनी जातिगत पार्टियां जैसे ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा, अनुप्रिया पटेल (कुर्मियों) का अपना दल(एस) और डॉ. संजय निषाद की  निषाद पार्टी के सरकार में शामिल होने के बावजूद आरक्षित वर्गों के खुलेआम छीने जा रहे आरक्षण पर विधानसभा और लोकसभा में किसी जनप्रतिनिधि की जुबान तक नहीं खुलती सुनाई दी और यदि सुनाई भी दी तो "जितनी चाबी भरी राम ने, उतना चले खिलौना " जैसी स्थिति नजर आती दिखी। आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों द्वारा किए गए धरना-प्रदर्शन स्थल पर जाने और सहानुभूति जताने तक की हिम्मत किसी ओबीसी और एससी-एसटी के किसी जनप्रतिनिधि में नहीं दिखाई दी। वर्तमान में आजाद समाज पार्टी के नगीना लोक सभा सांसद चंद्रशेखर आजाद की धरना- प्रदर्शन स्थल पर उपस्थिति जरूर देखने को मिली थी।

Friday, July 04, 2025

युवा पीढ़ी की किताबों से बढ़ती दूरी और डिजिटल स्क्रीन की बढ़ती लत एक भयानक दौर-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
          कोरोना वायरस से उपजी आपात स्थिति से निपटने के लिए ऑनलाइन पढ़ने-पढ़ाने और डिजिटल बुक्स को क्लास रूम पढ़ाई के एक वैकल्पिक माध्यम के रूप में विकसित किया गया था, लेकिन अब उसने बहुत तेजी से अपने पैर पसारते हुए बहुत बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया है। आज हर जगह इंटरनेट की सुलभता के कारण विद्यार्थियों एवं पाठकों की डिजिटल किताबों तक पहुंच बहुत तेज़ी से बढ़ी है। दरअसल, छपी हुई किताबों की तुलना में इनकी कीमत बहुत सस्ती पड़ रही है। साहित्यकारों,शिक्षाविदों एवं मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि छपी पुस्तकों में कई तथ्य ऐसे पाए जाते हैं जो उन्हें  डिजिटल बुक्स से बेहतर साबित करती है।
         एक तथ्य है कि दिमागी स्वस्थता के लिए छपी किताबें पढ़ना बहुत जरूरी है। रचनात्मकता, एकाग्रता और स्मरण शक्ति (याददाश्त) जैसे गुण विकसित और समृद्ध करने में छपी हुई किताबों की बेहतर भूमिका मानी जाती है। स्मरण शक्ति एक मानसिक क्षमता है जिसके ज़रिए हम अपने अनुभवों को संग्रहीत करते हैं.ई-बुक्स पढ़ने से वह अनुभूति नहीं हो सकती है जो हाथ में किताब लेकर पढ़ने से होती है। इंटरनेट की बढ़ती खुमारी की वजह से अब पहले जैसी लाइब्रेरी विलुप्त होती जा रही हैं। तेजी से पैर पसारते व्यावसायिक रूप लेती शिक्षा व्यवस्था में पुस्तकों के बढ़ते बोझ, ट्यूशन कोचिंग और प्रतिस्पर्धा के बढ़ते दबाव की वजह से छात्रों के पास पाठ्यक्रम के अलावा समाज,साहित्य,अर्थव्यवस्था,राजव्यवस्था, राजधर्म, नैतिक शिक्षा जैसे विषयों की पुस्तकें पढ़ने के लिए वक्त नहीं बचता है। बढ़ती प्रतिद्वंदिता और माता-पिता की आकांक्षाओं और इच्छाओं के अनाबश्यक दबाव ने बच्चों को पहले से कई गुना ज्यादा व्यस्त रहने के लिए मजबूर कर दिया है। रही-सही कसर स्मार्टफोन और इंटरनेट की दुनिया ने कर दी है जिससे आज के साइंस एंड टेक्नोलॉजी के दौर में वैसी एकाग्रता,रचनात्मकता और कल्पनाशीलता नहीं पनप पा रही है जो छपी पुस्तकों से उपजती और पनपती है। 
          छपी हुई पुस्तकों से वर्तमान पीढ़ी की लगातार बढ़ती दूरी एक गंभीर सामाजिक समस्या बनती जा रही है, बल्कि यह कहें कि वह एक विकराल रूप धारण कर चुकी है। आज की युवा पीढ़ी पढ़ने के बजाय मनोरंजक रील्स और वीडियो देखना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। उपभोक्तावादी और भौतिकवादी संस्कृति की बढ़ती तेजी से बदलते सामाजिक-पारिवारिक परिदृश्य की वजह से अब जन्म दिन या किसी अन्य पारिवारिक/सामाजिक उत्सवों पर किताबों की जगह स्मार्टफोन या स्मार्टवाच उपहार देने की एक नई संस्कृति पैदा हो गई है। दो-तीन दशक पहले खाली वक्त में कॉलेज परिसरों और पुस्तकालयों में पुस्तकों के विभिन्न लेखकों एवं पुस्तकों की चर्चा होती थी,वह आज लगभग खत्म सी हो चुकी है। अब वहां इंटरनेट वीडियो और ओटीटी सीरीज की बात होती है। हर बच्चा और युवा अपने स्मार्टफोन पर व्यस्त दिखाई देता है।
         फरवरी माह में हर साल लगने वाले दिल्ली के पुस्तक मेले में अभी भी विभिन्न प्रतिष्ठित प्रकाशनों की भारी मात्रा में उपन्यास,कहानी और किस्सा कहानियों की पुस्तकें देखी और खरीदी जा रही हैं, लेकिन सवाल यह है कि कितने लोग इन किताबों को पढ़ने में रुचि रखते हैं या पढ़ते हैं। बड़े-बड़े लेखकों और साहित्यकारों की पुस्तकें खरीदने का एक नया फ़ैशन भी तेजी से उभर रहा है,लेकिन ज्यादातर ऐसी पुस्तकें लोगों की निजी लाइब्रेरी या ड्राइंग रूम में सजाकर उनके सामाजिक स्टेटस सिंबल तक सिमटती जा रही हैं। शेक्सपियर की "किताबें इंसान की सुख-दुख में सबसे बेहतर दोस्त" की कहावत की प्रासंगिकता आज भी कम नहीं हुई है,क्योंकि वे बिना किसी निर्णय या शर्त के साथ संगति, ज्ञान और भागने का साधन प्रदान करती हैं। वे आराम, मनोरंजन और ज्ञान का स्रोत हो सकती हैं, जो हमारे जीवन को अनगिनत तरीकों से समृद्ध करती हैं।यह विचार व्यक्त करता है कि किताबें एक करीबी दोस्त की तरह ही साहचर्य, ज्ञान और मनोरंजन प्रदान करती हैं। यह भावना व्यापक रूप से साझा की जाती है और अक्सर विभिन्न रूपों में व्यक्त की जाती है, जो हमारे जीवन में पुस्तकों की मूल्यवान भूमिका को उजागर करती है। किताबें आराम और मनोरंजन का स्रोत हो सकती हैं, खासकर अकेलेपन या ऊब के समय में। वे जीवन के विभिन्न पहलुओं में विशाल मात्रा में जानकारी, विभिन्न दृष्टिकोण और अंतर्दृष्टि तक पहुँच प्रदान करते हैं। किताबें हमारी कल्पना और रचनात्मकता को उत्तेजित करती हैं, जिससे हम विभिन्न दुनिया और परिदृश्यों का पता लगा सकते हैं। आज जरूरत है,अपने बच्चों को पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करने की। घर से लेकर स्कूल-कॉलेज तक एक सामाजिक एवं शैक्षणिक जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। बचपन में यदि बच्चों में किताबों से मोह भंग हुआ तो बड़ा होने पर वो पुस्तकों को हाथ भी नहीं लगाना पसंद नहीं करेंगे। 
        देश में आज भी अच्छी-अच्छी पुस्तकों से पुस्तकालय समृद्ध है, जहां विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों और साहित्यिक पुस्तकों का अपार भंडार है। पाठकों से वे आज सूनी पड़ी हुई है और ई-लाइब्रेरी में भीड़ दिखाई देती है। इस स्थिति में सुधार लाने के लिए समाज के सभी जागरूक तबकों और शैक्षणिक संस्थाओं को एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने की जरूरत है। आज साइंस एंड टेक्नोलॉजी के दौर में भी छपी पुस्तकें प्रासंगिक हैं,लेकिन अभिभावकों को अपने बच्चों में पढ़ने की आदत शुरू से ही डालना जरूरी है। स्कूल-कॉलेजों में इस कार्य के लिए एक अतिरिक्त क्लास रखा जा सकता है। युवा पीढ़ी की किताबों से लगातार बढ़ती दूरी हमारे भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता है। नियमित रूप से छपी पुस्तकें पढ़ने से याददाश्त बढ़ती,मजबूत होती है और एकाग्रता भी समृद्ध होती है।
            इंटरनेट पर देखी और पढ़ी गई विषय सामग्री लोग जल्दी भूल जाते हैं, ऐसा मनोवैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं का मानना है। इसके विपरीत छपी हुई पुस्तकों से पढ़ी गई सामग्री लंबे समय तक जहन में रहती है। किसी जमाने में इतिहास, भूगोल और साहित्य के बड़े-बड़े अध्याय तक याद कर लिए जाते थे। किताबें छात्रों में आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक रूप से समझने और सोचने की क्षमता पैदा और विकसित करती हैं और इसके साथ-साथ स्थापित रूढ़ियों, परंपराओं, मान्यताओं और धारणाओं पर सवाल करने के लिए एक जिज्ञासा भी पैदा करती हैं और प्रोत्साहित करती हैं। विषय को गहनता और गंभीरता पूर्वक समझने की क्षमता पैदा करती हैं। ब्रिटिश लेखक जॉर्ज ऑरवेल का वर्ष 1949 में प्रकाशित उपन्यास "1984" (नाइनटीन ऐटी फोर ) कल्पनाशीलता,रचनात्मकता,दूरदर्शिता,आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक सोच पैदा करने की प्रेरणा देने वाला एक बेहतरीन उदाहरण हो सकता है।
         शिक्षाविदों का मानना है कि आज के तनावयुक्त माहौल में छपी पुस्तकें एक बड़ी भूमिका अदा कर सकती हैं। किताबें भावनात्मक बुद्धिमत्ता के साथ सहानुभूति और संवेदनशीलता विकसित करने में बड़ी भूमिका निभाती है। छपी किताबें पढ़ने से मनुष्य की कल्पनाशीलता और सकारात्मक रचनात्मकता भी बढ़ती है, लेकिन ऐसा डिजिटल सिस्टम में नहीं होता है। मनोवैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं का मानना है कि बेतहाशा डिजिटल प्रभाव की वजह से पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों में संवेदनात्मक और भावनात्मक लगाव में कमी देखी जा रही है। अलग-अलग काल खंडों की पुस्तकें पढ़ने से उस परिवेश की विस्तृत जानकारी मिलती है और उनकी कल्पना शक्ति को प्रोत्साहित करती है। इसका एक अच्छा उदाहरण हैरी पॉटर सीरीज का दिया जा सकता है। इस पुस्तक के दिलचस्प पात्र उनकी जादुई दुनिया के किस्से विस्तार से पढ़कर छात्रों में उड़ान भरने की ललक पैदा कर देते हैं। आज भी दुनिया में इसके करोड़ों लोग दीवाने हैं। ऐसी किताबें पढ़ने से बच्चे सपने देखने के साथ खुद की काल्पनिक दुनिया की रचना करने की दिशा में भी प्रेरित होते हैं। छपी किताबें पढ़ने से बच्चों का शब्द भंडार बढ़ता है और मजबूत होता है। छात्र न केवल नए शब्दों से परिचित होते हैं,बल्कि उनके अनुसार उन्हें रचते भी हैं। छपी किताबों के अध्ययन से बच्चों का ज्ञान समृद्ध होता है। नए शब्द सीखने के लिए किताबों से बेहतर दूसरा कोई विकल्प या तरीका नहीं कहा जा सकता है।
           मनोवैज्ञानिक एवं शोधकर्ताओं का भी मानना है कि रात को बिस्तर पर सोने से पहले किताबें पढ़ना एक अच्छा साधन माना गया है। इससे सकून और शांति भरी नींद आती है और इसके विपरीत देर रात तक इंटरनेट या मोबाइल चलाने वाले लोगों की नींद में खलल पैदा होने की शिकायत आ रही है। मानसिक अवसाद से दूर रखने में किताबें काफी हद तक कारगर साबित हो रही है। मोबाइल की इलेक्ट्रॉनिक किरणों से एक तरीके से विकृति पैदा होने की बात को भी हमारे चिकित्सक,मनोवैज्ञानिक,शिक्षाविद और शोधकर्ता बता रहे हैं और उनका परामर्श है कि इंटरनेट और मोबाइल पर बेतहाशा बढ़ती निर्भरता और लत हमारे देश की युवा पीढ़ी को एक खोखली और अंधकारमय सुरंग की ओर धकेलती जा रही है। समय रहते यदि इस पर सामाजिक और सरकारी स्तर पर संयुक्त रूप से उचित प्रयास नहीं किए गए तो भविष्य में पैदा होने वाले संकटों की बेतहाशा मार की हम कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। इस गंभीर समस्या पर समाज के सभी तबकों और सत्ता प्रतिष्ठानों को गहन चिंतन-मनन कर कोई ठोस उपाय ढूंढ कर उसको धरातल पर साकार रूप देना होगा।

Wednesday, April 09, 2025

अछूत के सिकयित-हीरा डोम


    भोजपुरी कविता      
अछूत के सिकयित
 हीरा डोम की साहित्य जगत में उपलब्ध एकमात्र रचना 
गुगल से साभार
हमनी के रात-दिन दुखवा भोगत बानी,
हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइब।
हमनी के दुख भगवनओं न देखताजे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइब।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बनि जाइब।
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे,
बे-धरम होके कैसे मुंखवा दिखाइब।।

खम्भवा के फारि पहलाद के बंचवले जां
ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना कै भैया छोरत रहै,
परगट होकै तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवां कै पलले भभिखना के,
कानी अंगुरी पै धर के पथरा उठवले।
कहंवा सुतल बाटे सुनत न वारे अब,
डोम जानि हमनी के छुए डेरइले।।

हमनी के राति दिन मेहनत करीले जां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी,
हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे के लसकरि उतरल बानी,
जेत उहओ बेगरिया में पकरल जाइबि।
मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी,
ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।

बमने के लेखे हम भिखिया न मांगव जां,
ठकुरे के लेखे नहिं लडरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारब जां,
अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि।
भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबा जां,
पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइब।
अपने पसिनवा के पैसा कमाइब जां,
घर भर मिलि जुलि बांटि चोंटि खाइब।।

हड़वा मसुइया के देहियां है हमनी कै;
ओकारै कै देहियां बमनऊ के बानी।
ओकरा के घरे घरे पुजवा होखत बाजे
सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
हमनी के इतरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके में से भरि-भरि पिअतानी पानी।
पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमनी के एतनी काही के हलकानी।।

यह कविता महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 512-513) में प्रकाशित हुई थी।

नोट-इस कविता के लेखक (हीरा डोम) की यह एक इकलौती कविता है जिसे भोजपुरी दलित साहित्य ही नहीं अपितु हिंदी दलित साहित्य की पहली और उनकी इकलौती रचना मानी जाती है या उनकी अन्य रचनाये कूड़ा के भाव में कहीं सड़ गल गयीं. कोई अता-पता नहीं. क्या उन्होंने इसके अतिरिक्त कोई दूसरी रचना लिखी नहीं होगी, उक्त रचना को पढ़कर ऐसा प्रतीत तो नहीं होता कि कोई लेखक/कवि अपनी पहली रचना में ही तुक, छंद, लय-ताल, भाव, विमर्श, दर्शन सब समाहित कर दे. उनकी और भी रचनाएँ रही होंगी जिन्हें समकालीन रचनाकारों/संपादकों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं में स्थान नहीं दिया होगा. कुछ आज के समकालीन रचनाकार हीरा डोम को एक मिथक मानते हैं . उनका कहना है कि दलित विमर्श को उठाने के लिए महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खुद हीरा डोम के नाम से इस रचना को लिखाकर अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया था. क्या यह सच है? हमें तो नहीं लगता. फ़िलहाल आप रचना पढ़िए और उसका दर्शन समझिये.

Wednesday, March 26, 2025

मौत और महिला-अखिलेश कुमार अरुण

(कविता)

(नोट-प्रकाशित रचना इंदौर समाचार पत्र मध्य प्रदेश ११ मार्च २०२५ पृष्ठ संख्या-1 , वुमेन एक्सप्रेस पत्र दिल्ली से दिनांक ११ मार्च २०२५  पृष्ठ संख्या-5)

अखिलेश कुमार 'अरुण' 
ग्राम- हज़रतपुर जिला-लखीमपुर खीरी 
मोबाईल-8127698147


डरती है महिला-

पति के न रहने से

मौत तो उसकी अपनी सहेली है.

अपनी मन्नतों में भी-

पति की कुशलता ही मांगती है

सारे वृत्त-त्यौहार करती है

उनकी कुशलता में ही

उसकी ख़ुशी है,

सम्पन्नता है

इज्जत और सम्मान-

अभिमान है.

 

क्या होता है?

उन महिलाओं का-

जिनके पति

और उसकी बेटी

का बाप नहीं रहता?

नोच खाने को बैठा यह-

आदमी जात

‘महिला दिवस’ की

झूठी शुभकामनाएं

का दंभ भरता है.

शासन में बैठे-

जिम्मेदार भी मुहं फेर लेते हैं.

जब कोई महिला

बदहवास नोच ली जाती है-

मर्दानगी के घुप अँधेरे में’

 

पत्नी के न रहने से-

जिस दिन पति डरने लगे

मौत का भय न हो.

रात के घने अँधेरे में-

घर से निकलते हुए,

समझ लेना,

महिलाएं-

सशक्त हो चली हैं.

तुम्हारे झूठे इस दिवस की-

बधाई तुम्हे मुबारक हो

हे! महिला के पुरुष

क्या तुम-

यह कर पयोगे?

Saturday, September 07, 2024

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा) 



    एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचारों और संस्कारों से पुष्पित और पल्लवित करते हैं । शिव सिंह 'सागर' की हाल ही में रिलीज हुई एक शॉर्ट फिल्म  "झूठी" इन दिनों बेहद चर्चा में है, शॉर्ट फिल्म झूठी का कथानक भी कुछ इस तरह का है, जो शिक्षा जगत में विमर्श का विषय बना हुआ है, एक अध्यापक एक बच्चे राहुल को जब कक्षा में कमजोर पाता है, तब उसे वह एक पर्ची लिखकर देता है और वह कहता है कि यह पर्ची अपनी मां को देना‌। बच्चा वह पर्ची अपनी मां को देता है। माँ पर्ची देखती है। उस पर्ची में लिखा होता है,आपका बच्चा दुनिया का सबसे मूर्ख बालक है, इसे अगले दिन से स्कूल में न भेजें। लेकिन वह मां हिम्मत नहीं हारती है और अपने बच्चे से कहती है कि इस पर्ची में लिखा है कि मेरा बेटा बहुत होशियार है। संसार में आज भी द्रोणाचार्यों की कमी नहीं  हैं, जिनकी वजहों से अनेक एकलव्यों के अंगूठे काटे जा रहा  हैं। फिर वह हिम्मती मां अपने बेटे को खुद पढ़ाना शुरू करती है और पढ़ते-पढ़ते एक दिन वह अपने बेटे को इस काबिल बनती है कि उसका बेटा पुलिस का एक जिम्मेदार अधिकारी बन जाता है। 
     पुलिस अधिकारी बनने के बाद जब वह बेटा घर आता है। तब उसकी मां इस दुनिया में से  गुजर चुकीं होती हैं। किसी काम से वह अपनी माँ का एक पुराना बक्सा खोलता है, जिसमें से एक पर्ची निकलती है, उसे याद आया, अरे! यह तो वहीं पर्ची है, जो वर्षों पहले मेरे मास्टर जी ने मेरी मां के लिए दिया था। उस पर्ची को देखा है उसमें लिखा था "आपका बेटा दुनिया का सबसे मूर्ख लड़का है और इसे कल से स्कूल न भेजें।" वह अपनी मां को याद करता है ,भावुक हो जाता है और बुदबुदाता है-'मां तुम सचमुच मेरे लिए भगवान हो।' कहानी वाकई दिल को छूने वाली है।  निम्न मध्यम वर्गीय परिवार पर आधारित इस फिल्म में एक स्त्री के संघर्ष को दिखाया गया है। जिसका पति शराबी है, फिर भी वह अपनी सूझबूझ से द्रोणाचार्य जैसे गुरुओं का डटकर सामना करते हुए अपने बेटे को पढ़ा-लिखा कर अफसर बना देती है। यह मातृ शक्ति का ही कमाल है, जो कोयले को हीरा बना देती है। सब कलाकार  बहुत ही उम्दा तरीके से फिल्म में अभिनय करते नजर आते हैं,किरदार के रूप में आर. चंद्रा, अमित श्रीवास्तव, अनीता वर्मा, प्रियांश गुप्ता, अमन शर्मा, ओम् प्रकाश श्रीवास्तव, आदि लोग लघु फिल्म में नज़र आए हैं। इसके अलावा कैमरा मैन डी. के.,फोटोग्राफी और एडिटर के. आमिर हैं। अर्पिता फिल्म्स इंटरटेनमेंट के बैनर तले बनी, यह लघु फिल्म आजकल खासी चर्चा में है। शिव सिंह 'सागर' इस फिल्म के लेखक, निर्माता, निर्देशक हैं। छंगू भाई, कबाड़ी, पापा पिस्तौल ला दो, रक्षक, फंस गया बिल्लू, डुबकी जैसी अनेक बेहतरीन कथानकों की लघु फिल्मों का निर्देशन करने वाले 'सागर' जी फतेहपुर के युवा कवि एवं  शायर हैं।

Wednesday, July 24, 2024

हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता-सुरेश सौरभ

   पुस्तक समीक्षा  
                         


पुस्तक- हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता
संपादक- डॉ. मिथिलेश दीक्षित
प्रकाशक-शुभदा बुक्स साहिबाबाद उ.प्र.
मूल्य-300/
पृष्ठ-112 (पेपर बैक)
    
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

                डॉ. मिथिलेश दीक्षित साहित्य जगत में एक बड़ा नाम है। शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि साहित्य और समाज सेवा में भी आपका उल्लेखनीय योगदान है। हिंदी की तमाम विधाओं में आपका रचना कर्म है। विभिन्न विधाओं में आप की लगभग  अस्सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं। हाल ही में इनकी किताब हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता के नाम से सुभदा बुक्स साहिबाबाद से प्रकाशित हुई है, जो हिंदी लघुकथा के पाठकों, लेखकों और शोधार्थियों- विद्याथिर्यों  के लिए पठनीय और वंदनीय है। संपादकीय में डॉ.मिथिलेश दीक्षित लिखती हैं- हिंदी साहित्य की गद्यात्मक विधाओं में लघुकथा सबसे चर्चित विधा है। आज के विधागत परिपेक्ष्य में लघुकथा के स्वरूप को देखते हैं, तो लगता है इसके स्वरूप में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है, इसका मूल प्रयोजन भी बदल गया है। अब उपदेशात्मक या कोरी काल्पनिक लघुकथाओं में विशेष पत्रों के स्थान पर सामान्य जन का प्रतिनिधित्व करने वाले सामान्य पात्रों का समयगत परिस्थितियों में चित्रण होता है.....और वे आगे लिखतीं हैं..संक्षिप्तता गहन संवेदन, प्रभाव सृष्टि और संप्रेषण क्षमता लघुकथा की विशिष्ट गुण है। "लघुकथाकार का गहन संवेदन जब लघुकथा में समाहित हो जाता है, तब शिल्प में सघनता आ जाती है, भाषा में सहजता और पात्रों में जीवन्तता आ जाती है‌।"
      डॉ.ध्रुव कुमार, अंजू श्रीवास्तव निगम, इंदिरा किसलय, डॉ.कमल चोपड़ा, कल्पना भट्ट, कनक हरलालका, डॉ.गिरीश पंकज, निहाल चंद्र शिवहरे, बी. एल. अच्छा, डॉ,भागीरथ परिहार, मुकेश तिवारी, मीनू खरे, रजनीश दीक्षित, शील कौशिक, डॉ. शैलेश गुप्ता 'वीर' ,डॉ.शोभा जैन, सत्या  सिंह, डॉ.स्मिता मिश्रा, डॉ. सुरंगमा यादव, डॉ.सुषमा सिंह, संतोष श्रीवास्तव के बहुत ही शोधपरक लेखों  को इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया हैं।  लेखों में लघुकथा के शिल्प, संवेदना, और लघुकथा के  वर्तमान, अतीत और भविष्य पर बड़ी सहजता, सूक्ष्मता और गंभीरता से विमर्श किया गया है। पुस्तक में हिंदी लघुकथा के बारे में डॉक्टर मिथिलेश दीक्षित से डॉ.लता अग्रवाल की बातचीत भी कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर की गई है, जिसमें लघुकथा की प्रासंगिकता, उसकी उपयोगिता, उसका आकार-प्रकार व मर्म, उसमें व्यंग्य तथा शिल्पगत विविधता आदि। 

         प्रसिद्ध साहित्यकार  गिरीश पंकज पुस्तक में अपने आलेख में लिखते हैं-" कुछ लेखक लघुकथा को लघु कहानी समझ लेते हैं जिसे अंग्रेजी में 'शॉर्ट स्टोरी' कहते हैं, जबकि वह लघु नहीं पूर्ण विस्तार वाली सुदीर्घ कहानी ही होती है। लघुकथा के नाम पर 500 या 1000 शब्दों वाली भी लघुकथाएं मैंने देखी हैं और चकित हुआ हूं ।ये किसी भी कोण  से लघुकथा के मानक में फिट नहीं हो सकती। मेरा अपना मानना है कि लघुकथा 300 शब्दों तक ही सिमट जाएं तो बेहतर है। तभी सही मायने में उसे हम संप्रेषणीय में लघुकथा कहेंगे। अगर वह 500 या उससे अधिक शब्दों तक फैल जाती है तो उसे लघु कहानी के श्रेणी में रखना उचित  होगा।"
         मिथिलेश जी ने बहुत श्रमसाध्य कार्य किया है,  लघुकथा पर कालजयी विमर्श की पहल की है उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। 



Tuesday, July 16, 2024

केवल आरक्षण से ही आधे आईएएस एससी-एसटी और ओबीसी,लेकिन वे शीर्ष पदों पर क्यों नहीं पहुंच पाते-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


【अधिकारियों के लिए न्यूनतम और अधिकतम कार्यकाल/अवधि तय होनी चाहिए और शीर्ष पदों के लिए गठित पैनल को गैर-विवेकाधीन, मैट्रिक्स-आधारित और पारदर्शी बनाना होगा】
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पर लोकसभा में बोलते हुए एक महत्वपूर्ण विषय के तार छेड़ दिए,जिसे जानते तो सभी हैं,लेकिन उन पर बड़े मंचों पर चर्चा तक नहीं होती है। महिला आरक्षण के अंदर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि आज की सरकार में सचिव स्तर की नौकरशाही पर सिर्फ तीन ओबीसी अफसर हैं। यानी देश की आधी से ज्यादा उनकी आबादी और हर वर्ष 27% आरक्षण से ओबीसी अधिकारी चयनित होने के बावजूद उनकी भारत सरकार के सिर्फ 5 प्रतिशत बजट निर्धारण में ही भूमिका है। इस मुद्दे को उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस,भारत जोड़ों की पैदल यात्रा और चुनावी रैलियों में भी उठाया और आरक्षण विरोधी नरेंद्र मोदी सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया।
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इसके जवाब में भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार ने यह तो नहीं कहा कि राहुल गंधी का ओबीसी अफसरों का बताया हुआ आंकड़ा गलत है,लेकिन जवाबी राजनीतिक हमला करते हुए कहा कि जब केंद्र में कांग्रेस की सत्ता थी, तो उसने ओबीसी अफसरों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या किया? कैबिनेट मंत्री किरेन रिजीजू ने इस बारे में एक्स पर पोस्ट किया था कि इस समय वही अफसर सचिव बन रहे हैं जो 1992 के आसपास नौकरी में आए थे। इसलिए कांग्रेस को बताना चाहिए कि ओबीसी अफसरों को आगे लाने में कांग्रेस की सरकारों की भूमिका क्या रही?
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2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों तक ऐसा लगता था कि सामाजिक न्याय पर ओबीसी के मुद्दे पर काफी चर्चा होगी और नौकरशाही के शीर्ष पर ओबीसी अफसरों के यथोचित प्रतिनिधित्व न होने या कम होने पर भी काफी चर्चा होगी,लेकिन चुनावी रैलियों और चुनावी घोषणा पत्र में सामाजिक न्याय पर ओबीसी अफसरों के प्रतिनिधित्व और महिला आरक्षण बिल में ओबीसी महिलाओं का आरक्षण न होने और जातिगत जनगणना पर जिस तेजी और जोर शोर से चर्चा होनी चाहिए थी, वह नहीं होती दिखी। मोदी के अबकी बार 400पार के नारे के निहितार्थ पर बीजेपी के कतिपय नेताओं की संविधान बदलने के बयान से एससी-एसटी और ओबीसी समाज मे यह संदेश घर कर गया कि यदि इस बार बीजेपी को दो तिहाई बहुमत हासिल हो जाता है तो संविधान में महत्वपूर्ण बदलाव किया जा सकता है। यदि संविधान बदला तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण तो खत्म हो ही जाएगा। इस बार के लोकसभा चुनाव में संविधान और लोकतंत्र का मुद्दा फेज़ दर फेज़ जोर पकड़ता चला गया जिसका सर्वाधिक प्रभाव यूपी में पड़ा जहां बीजेपी इस बार राम मंदिर के नाम पर अस्सी की अस्सी सीटें जीतने का दावा कर रही थी,वहां अयोध्या की सीट पर वहां की जनता ने बीजेपी को हराकर यह संदेश दे दिया कि हिन्दू बनाम मुस्लिम की राजनीति अब चलने वाली नहीं है। मंदिर और मुस्लिम मुद्दा इस बार चुनाव में कहीं भी जोर पकड़ते नहीं दिखा जिसके चलते वह यूपी में मात्र 33 सीटें ही जीत पाई और इस चुनाव की सबसे बड़ी उपलब्धि कि अयोध्या में एक दलित समाज के व्यक्ति से बीजेपी के कथित रघुवंशी लल्लू सिंह को हार का सामना करना पड़ा जो बीजेपी के राम मंदिर निर्माण की जनस्वीकार्यता पर बड़ा सवाल खड़ा करती है। बनारस से मोदी जी की जीत की असलियत पर भी सवाल उठ रहे हैं। फ़िलहाल वह हार से बचा लिए गए।
राहुल गांधी ने ओबीसी नौकरशाही की सहभागिता का मुद्दा तो सही उठाया था,लेकिन उनका यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि इसकी सारी जिम्मेदारी वर्तमान मोदी सरकार की ही है। यह नौकरशाही की संरचना,उसके काम करने के तरीके और उसके जातिवादी चरित्र से जुड़ा मामला है और किसी भी पार्टी की सरकार के आने या जाने से इसमें बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। इस समस्या का यदि वास्तव में समाधान करना है तो वह नौकरशाही की संरचना और उसकी चयन प्रक्रिया के स्तर पर ही सम्भव हो सकता है।
तीन प्रस्तावित समाधान:
आईएएस अफसरों के नौकरी में आने की अधिकतम उम्र 29 साल हो और इसी दायरे के अंदर विभिन्न कैटेगरी को उम्र में जो भी छूट देनी हो, दी जाए या फिर सभी अफसरों की नौकरी का कार्यकाल बराबर किया जाए,ताकि सभी श्रेणी के अफसरों को सेवा के इतने वर्ष अवश्य मिल जाएं ताकि वे भी नौकरशाही के शीर्ष स्तर तक पहुंच पाएं। नौकरी के अलग-अलग स्तरों पर जब अफसरों को चुनने के लिए पैनल बनाया जाए तो यह प्रकिया पारदर्शी हो और इसमें मनमाने तरीके से किसी को चुन लेने और किसी को खारिज कर देने का वर्तमान चलन पूरी तरह से बंद होना चाहिए। अफसरों की सालाना गोपनीय रिपोर्ट(सीआर) के मामले में जातिवादी मानसिकता पर अंकुश लगे और भेदभाव को प्रक्रियागत तरीके से सीमित किया जाए।
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इन उपायों पर चर्चा करने से पहले यह ज़रूरी है कि इस विवाद के तीन पहलुओं पर आम सहमति बनाई जाए। सबसे पहले तो सरकार और नीति निर्माताओं को सहमत होना होगा कि भारतीय नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता का अभाव है और एससी-एसटी और ओबीसी के अफसर उच्च पदों पर आनुपातिक रूप से बहुत कम हैं। 2022 में संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में तत्कालीन केंद्रीय कार्मिक मंत्री डॉ.जितेंद्र सिंह ने सरकार की तरफ से जानकारी दी थी कि संयुक्त सचिव और सचिव स्तर पर केंद्र सरकार में 322 पद हैं,जिनमें से एससी,एसटी,ओबीसी और जनरल (अनारक्षित वर्ग) कटेगरी के क्रमश: 16, 13, 39 और 254 अफसर हैं। 2022 में ही पूछे गए एक अन्य सवाल के जवाब में डॉ.सिंह ने सदन को जानकारी दी थी कि भारत सरकार के 91 अतिरिक्त सचिवों में से एससी-एसटी के दस और ओबीसी के चार अफसर हैं,वहीं 245 संयुक्त सचिवों में से एससी-एसटी के 26 और ओबीसी के 29 अफसर ही हैं। आख़िर निर्धारित प्रतिशत तक आरक्षण और ओवरलैपिंग से अनारक्षित श्रेणी में अतिरिक्त जगह बनाने के बावजूद उच्च नौकरशाही के हर स्तर पर आरक्षित वर्ग के अधिकारियों का न्यूनतम आनुपातिक प्रतिनिधित्व न होना,सरकार की संविधान विरोधी सोच को दर्शाता है।
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हमें दूसरी सहमति इस बात पर बनानी चाहिए कि यह समस्या 2014 में बनी मोदी सरकार में ही पैदा नहीं हुई है,लेकिन यह तथ्य और सत्य है कि उन्होंने भी इसे ठीक करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। यह सच है कि यह समस्या 2014 से पहले से ही चली आ रही है। मिसाल के तौर पर,मनमोहन सिंह के यूपीए शासन के तुरंत बाद 2015 के आंकड़ों के मुताबिक, केंद्र सरकार के 70 सचिवों में कोई ओबीसी नहीं था और एससी-एसटी के तीन-तीन ही अधिकारी थे। 278 संयुक्त सचिवों में सिर्फ 10 एससी और 10 एसटी और 24 ओबीसी थे।
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तीसरी सहमति इस बात पर बनानी चाहिए कि राजकाज और खासकर नौकरशाही में तमाम सामाजिक समूहों, खासकर वंचित समूहों की हिस्सेदारी न सिर्फ अच्छी बात है, बल्कि संविधान और लोकतंत्र के सामाजिक न्याय के लिए यह ज़रूरी भी है। किसी भी संस्था का सार्वजनिक या सबके हित में होना इस बात से भी तय होता है कि इसमें विभिन्न समुदायों और वर्गों की समुचित हिस्सेदारी है या नहीं! ज्योतिबा फुले ने उस समय इस बात को बेहतरीन तरीके से उठाया था,जब उन्होंने पाया कि पुणे सार्वजनिक सभा में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व ही नहीं है तो उन्होंने पूछा कि फिर यह सार्वजनिक सभा कैसे हुई? ज्योतिबा फुले के इस विचार को भारतीय संविधान में मान्यता मिली और अनुच्छेद 16(4) के तहत व्यवस्था की गई है कि अगर राज्य की नज़र में किसी पिछड़े वर्ग (एससी- एसटी और ओबीसी) का सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व/हिस्सेदारी नहीं है तो सरकार उस वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है।
उपरोक्त तीन स्थापनाओं पर सहमति के बाद हम उन कारणों पर विचार कर सकते हैं जिनकी वजह से एससी-एसटी और ओबीसी के नौकरशाहों की शीर्ष निर्णायक तथा महत्वपूर्ण पदों पर हिस्सेदारी नहीं है:
नौकरी में अलग-अलग उम्र में आना और कार्यकाल में अंतर:
1️⃣
सिविल सर्विस परीक्षा के लिए यूपीएससी के मापदंडों के हिसाब से अनारक्षित और ईडब्ल्यूएस कैटेगरी के अभ्यर्थियों की अधिकतम उम्र 32 साल निर्धारित है। ओबीसी कैंडिडेट को तीन साल और एससी-एसटी कैंडिडेट इस उम्र में पांच साल की छूट है। यानी ओबीसी कैंडिडेट 35 साल तक और एससी-एसटी कैंडिडेट 37 साल की उम्र तक ऑल इंडिया सर्विस में आ सकते हैं,लेकिन इसका एक यह भी अर्थ है कि एससी-एसटी और ओबीसी के कई कैंडिडेट,अनारक्षित और ईडब्ल्यूएस कैंडिडेट्स के मुकाबले कम समय नौकरी कर पाएंगे। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है,क्योंकि सबसे लंबी अवधि तक नौकरी कर रहे कैंडिडेट्स से ही शीर्ष स्तर के अफसर चुने जाते हैं। उम्र में छूट की वजह से सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो सिविल सेवा के दो अफसरों के कार्यकाल में 16 वर्ष तक का अंतर हो सकता है,क्योंकि सभी वर्गों से एक अफसर न्यूनतम 21 साल की उम्र में और दूसरा आरक्षित वर्ग का अफसर अधिकतम 37 साल की उम्र में सर्विस में आ सकता है।
सकता है।
2️⃣
दूसरी समस्या उच्च पदों के लिए गठित एंपैनलमेंट की है। अभी व्यवस्था यह है कि सरकार का कार्मिक विभाग नियत समय की नौकरी पूरी कर चुके अफसरों से पूछता है कि क्या वे विभिन्न उच्च पदों के लिए एंपैनल होना चाहते हैं। जो सहमति देते हैं उनमें से कुछ अफसरों को उन पदों के पैनल में चुन लेती है। इसी पैनल से अफसरों को प्रमोशन के लिए चयनित किया जाता है। अभी पैनल में अफसरों को लेने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और इसमें विभाग के उच्च अधिकारियों का मंतव्य यानी उनकी राय महत्वपूर्ण होती है। चूंकि,उच्च पदों पर एससी-एसटी और ओबीसी के अफसर बहुत कम हैं तो आरक्षित वर्ग के अफसरों के प्रति एक स्वाभाविक पक्षपात हो सकता है, इस बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता। इसलिए ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया में पक्षपात की आशंका को न्यूनतम किया जाए और विभिन्न मापदंडों को स्कोर के आधार पर निर्धारित किया जाए। अगर ऐसा कोई निष्पक्ष सिस्टम बना पाना संभव न हो तो फिर जिन अफसरों ने एक निर्धारित कार्यकाल पूरा कर लिया है,उन सभी को पैनल में ले लिया जाए। दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट ने कैबिनेट सेक्रेटेरिएट के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि अनारक्षित श्रेणी के कैंडिडेट्स औसतन लगभग 25 साल की उम्र में जबकि एससी-एसटी और ओबीसी औसतन लगभग 28 साल की उम्र में सेवा में आते हैं,यानि आरक्षित श्रेणी के कैंडिडेट अनारक्षित श्रेणी के कैंडिडेट से औसतन तीन साल कम नौकरी कर पाते हैं। प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल मानता है कि, आरक्षित श्रेणी के कई अफसर इस वजह से भी नीति निर्माता के स्तर पर नहीं पहुंच पाते हैं।
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि “आरक्षित वर्ग से बहूत कम अफसर ही सचिव स्तर तक पहुंच पाते हैं।” लोक प्रशासन पर बनी कोठारी कमेटी ने तो अनारक्षित वर्ग ही नहीं,आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स के लिए भी सिर्फ दो बार परीक्षा में बैठने की सिफारिश की थी। भर्ती नीति और चयन पद्धति पर इस समिति (डी.एस.कोठारी) ने परीक्षा चक्र के डिजाइन पर सिफारिशें प्रदान कीं, जिसके परिणामस्वरूप तीन चरणों में परीक्षा की वर्तमान प्रणाली शुरू की गई: एक प्रारंभिक परीक्षा जिसके बाद एक मुख्य परीक्षा और एक साक्षात्कार। इसके अलावा,ऑल इंडिया सर्विसेज के लिए एक ही परीक्षा की योजना शुरू की गई। देश में गठित कई सुधार आयोग और समितियां इस बात पर एकमत दिखती हैं कि ज्यादा उम्र के चयनित अफसर सेवा में नहीं लिए जाने चाहिए और सुधारों में यह सुझाव बेहद उपयोगी माना जाता है। 31अगस्त 2005 को जांच आयोग के रूप में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सिफारिश की है कि सिविल सर्विस परीक्षा में बैठने के लिए अनारक्षित वर्ग हेतु उम्र 21 से 25 साल होनी चाहिए। ओबीसी के लिए इसमें तीन साल और एससी-एसटी के लिए अधिकतम चार साल की छूट हो। इस उम्र तक अगर लोग नौकरी में आ जाते हैं तो इस बात की पूरी संभावना होगी कि हर अफसर सचिव पद हेतु एंपैनल होने के अर्ह(योग्य) हो जाएगा। दूसरा सुझाव पहली नज़र में अटपटा लग सकता है,लेकिन अगर ज़िद है कि अफसर 32, 35 और 37 साल तक के हो सकते हैं तो ऐसा नियम बनाया जा सकता है कि किसी भी वर्ग से अफसर चाहे जिस उम्र में आए,सबको एक समान कार्यकाल मिलेगा।
3️⃣
एक और महत्वपूर्ण पहलू, किसी अफसर को काबिल और ईमानदार मानने या न मानने को लेकर है। हालांकि, प्रशासनिक सेवाओं में जाति आधारित पक्षपात को साबित कर पाना हमेशा संभव नहीं है,लेकिन उच्च पदों पर उनकी लगभग अनुपस्थिति को देखते हुए इस आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता। जब 22.5% एससी-एसटी तथा 27% ओबीसी अफसर केवल आरक्षण से सर्विस में आ रहे हैं और कुछ उच्च मेरिट की वजग से ओवरलैपिंग से अनारक्षित श्रेणी में जगह ले लेते हैं, तो वे बीच में कहां लटक या अटक जा रहे हैं? दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सालाना रिपोर्ट बनाने में पक्षपात कम करने के लिए यह सिफारिश की थी कि "आउट ऑफ टर्न प्रमोशन ग्रेड" किसी भी स्तर पर सिर्फ 5-10% अफसरों को ही दिया जाए यानी कि मनमाने ढंग से प्रोमोशन पर एक सीमा तक अंकुश लगाना भी न्यायसंगत होगा। साथ ही यह भी सिफारिश थी कि गोपनीय रिपोर्ट की जगह एक नया सिस्टम ईज़ाद किया जाए,जिसमें कार्यभार पूरा करने के स्पष्ट रूप से पहचाने जाने वाले मानकों के आधार पर किसी अफसर का प्रोमोशन हेतु मूल्यांकन हो।
सरकार अगर सचमुच नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता के आधार पर न्याय या हिस्सेदारी देना चाहती है, तो उसे उपरोक्त कुछ उपायों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।

Friday, July 12, 2024

सामाजिक न्याय के नाम पर सत्ता की मलाई चाटते जातीय दलों की असलियत जो एससी-एसटी और ओबीसी के लिए आस्तीन के सांप सिद्ध हो रहे हैं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग: दो.......
(भाग एक पढ़ने के लिए लिंक करें https://anviraj.blogspot.com/2024/07/blog-post_12.html
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.

वास्तविकता यह है कि एससी-एसटी और ओबीसी के जनप्रतिनिधियों को आरक्षण व्यवस्था और उसमें होने वाली साजिशों की जानकारी ही नहीं है और न ही उन्हें इसकी जरूरत महसूस होती है,क्योंकि एक विधायक या सांसद के बच्चे के लिए इन चीजों का कोई महत्व नहीं रह जाता है। सामाजिक न्याय की आरक्षण व्यवस्था और उसका सही तरीके से क्रियान्वयन एक जटिल प्रक्रिया है जिसकी सामान्य जानकारी (ज्ञान नहीं) बहुजन समाज के कुछ लोगों को तो है,लेकिन बहुजन समाज के जनप्रतिनिधियों को तो है ही नहीं और न ही वे इसकी सामान्य जानकारी और क्रियान्वयन प्रक्रिया की जटिलता को जानना और समझना चाहते हैं,भले ही उनमें से कोई सामाजिक अधिकारिता विभाग का मंत्री ही क्यों न बना दिया जाए!
✍️यूपी में 69000 प्राथमिक शिक्षकों की भर्ती में एससी और ओबीसी के लगभग 19000 अभ्यर्थियों की हकमारी की सच्चाई राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग और राज्य की हाई कोर्ट मान चुकी है। इन 19000 अभ्यर्थियों के स्थान पर अपात्र या अयोग्य नौकरी कर अच्छा खासा वेतन उठाकर अपने परिवार की परवरिश कर आर्थिक रूप से मजबूत हो रहे हैं। भर्ती की सूची के संशोधन हेतु कोर्ट द्वारा निर्धारित अवधि गुजर जाने के बावजूद न तो राज्य सरकार के कानों पर जूं रेंग रही है और न ही न्यायपालिका को उसकी दुबारा सुधि आ रही है। राज्य सरकार में शामिल अपना (दल एस) प्रमुख अनुप्रिया पटेल के विधायक और मंत्रीगण और एससी-एसटी और ओबीसी के सत्ता पक्ष और विपक्ष के जनप्रतिनिधि लंबे अरसे से लंबित इस मुद्दे पर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं? मेडिकल की नीट,शिक्षा की यूजीसी नेट और शोध की सीएसआईआर की परीक्षाओं में केवल पेपर लीक का या पेपर बिकने या उसमें हुई धांधलियों तक ही सीमित नहीं है,अपितु इसके पीछे एक बड़ा सामाजिक-आर्थिक विषय जुड़ा हुआ है। 
✍️मेडिकल की नीट,यूजीसी-नेट और सीएसआईआर जैसी परीक्षा में अयोग्य लोगों की भर्ती होने से केवल पात्र/योग्य बच्चों के वर्तमान और भविष्य के साथ ही खिलवाड़ नहीं होता है,बल्कि गलत तरीके से बनने वाले डॉक्टरों और शिक्षकों से देश की जनता के स्वास्थ्य और जीवन में लंबे समय के लिए खतरनाक स्थितियां पैदा होंगी जिससे आने वाली कई पीढ़ियों का जीवन और शिक्षा बर्बाद होने की पूरी संभावना रहती है। सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले सभी दलों (सत्ता या विपक्ष) के सांसदों को नीट जैसी राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा में अनियमितताओं के परत दर परत खुलासे किए जाने के लिए एक मंच पर दिखना चाहिए,तभी सामाजिक न्याय के नाम पर हो रही राजनीतिक गोलबंदी सार्थक और विश्वसनीय होती नजर आएगी और देश हर वर्ग के विद्यार्थियों के साथ न्याय होगा। अन्यथा किसी एक दल द्वारा सामाजिक न्याय या आरक्षण के किसी एक हिस्से को उछालने के निहितार्थ कुछ और हो सकते हैं,जहां तक आम आदमी का दिमाग और नज़र नही जा सकती है। किसी अदृश्य राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए ऐसी परिस्थितियां शीर्ष स्तर से राजनीतिक रूप से प्रेरित या संदर्भित होने की पूरी संभावना जताई जा रही है। राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों की राय में अनुप्रिया पटेल की चिट्ठी के संदर्भ में "कहीं पे निगाहें-कहीं पे निशाना" की कहावत चरितार्थ होती नज़र जा रही है। राजनीतिक गलियारों में चर्चा कि इस चिट्ठी की विषय वस्तु के जरिये योगी आदित्यनाथ की एससी-एसटी और ओबीसी विरोधी ईमेज बनाने का षड्यंत्र या साज़िश हो सकती है। लोकसभा चुनाव 2024 में एससी- एसटी और ओबीसी की नाराज़गी और भविष्य की राजनीति इस चिट्ठी के माध्यम से बीजेपी साधना चाहती है। हो सकता है कि योगी से केंद्र की नाराज़गी निकालने में यह चिट्ठी रामवाण के रूप में सहायक या कारगर साबित हो जाए! अनुप्रिया पटेल की इस चिट्ठी पर मीडिया जगत में तो यहां तक चर्चा है कि गुजराती जोड़ी का अपने गठबंधन घटक के कंधे पर बंदूक रखकर योगी के ऊपर दागने का प्रयास है।
✍️राष्ट्रव्यापी बहुचर्चित मेडिकल की नीट,शिक्षा की यूजीसी-नेट और शोध की सीएसआईआर जैसी अतिमहत्वपूर्ण परीक्षाओं में हुई धांधलियों पर अनुप्रिया पटेल की ओर से एक मौखिक वक्तव्य तक नहीं आया और अचानक एनएफएस पर लिखित चिट्ठी,वह भी प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को संबोधित! असल में एनएफएस का फॉर्मूला राज्य और केंद्र के विश्वविद्यालयों में शिक्षक भर्ती में उस स्तर पर लागू होने की ज्यादा संभावना रहती है जहां साक्षात्कार  और एकेडेमिक्स के आधार पर नियुक्तियां होती हैं। किसी भी सेवा आयोग से होने वाली भर्तियों में एनएफएस लागू कर अनारक्षित वर्ग की भर्ती करने का प्रावधान नहीं है। यूपी में स्थित राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एससी-एसटी और ओबीसी के अभ्यर्थियों के साथ एनएफएस के नाम पर घोर अन्याय होते समय यह मुद्दा किसी सामाजिक न्याय या आरक्षण की वकालत करने वाले दल द्वारा क्यों नहीं उठाया गया? बीएचयू, दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय गोरखपुर और बुंदेलखंड विश्वविद्यालयों में एनएफएस के बहाने न जाने कितने एससी-एसटी और ओबीसी अभ्यर्थियों की हकमारी हुई है,यह तथ्य सोशल मीडिया के माध्यम से जगजाहिर होने के बावजूद उस समय सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले सभी दल और उनके मुखिया कान में तेल डालकर या रुई ठूंसकर क्यों बैठे रहे? आज सरकारी कर्मचारियों का राष्ट्रव्यापी सबसे बड़ा मुद्दा पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) की बहाली का है जो बुढ़ापे का सबसे बड़ा आर्थिक सहारा और मजबूती के रूप में मानी जाती है। सामाजिक न्याय की राजनीति का नारा लगाने वाले एनडीए गठबंधन में शामिल और विपक्ष के सभी दलों को इस लंबित मामले पर संसद से लेकर सड़क तक संघर्ष करना चाहिए अन्यथा नैतिकता के आधार पर सभी विधायकों और सांसदों को भी अपनी पेंशन छोड़ देना चाहिए। असल में अनुप्रिया पटेल द्वारा अपनी चिट्ठी में एनएफएस के मुद्दे को उछालने की टाईमिंग और परिस्थिति सही नहीं चुनी गई।मोदी की पिछली सरकार में दिल्ली विश्वविद्यालय की भर्तियों में एनएफएस का मुद्दा काफी चर्चा में रहा, लेकिन तब अनुप्रिया पटेल की इस पर कोई सामाजिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया देखने और सुनने को नही मिली थी। इसलिए उनकी इस चिट्ठी की टाइमिंग को लेकर कई तरह के निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। 
✍️यूटूबर्स और सोशल मीडिया में अपना दल (एस) की अनुप्रिया पटेल की उस चिट्ठी का राजनीतिक पोस्टमार्टम अच्छी तरह से हो रहा है। बताया जा रहा है कि अनुप्रिया पटेल की चिट्ठी किसी बड़े राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने की दिशा में बीजेपी के शीर्ष राजनेताओं की साजिश का हिस्सा है।  पेपर लीक मामले में सुभासपा के एक विधायक का नाम आने और उसके एक पुराने स्टिंग ऑपरेशन का वीडियो वायरल होने से जो राजनीतिक उथल-पुथल पैदा होती नजर आ रही है,उसका ठीकरा यूपी के एक बड़े बीजेपी नेता और पीएम पद के कथित दावेदार के रास्ते में रोड़ा पैदाकर उनके सिर पर फोड़ने का षडयंत्र का हिस्सा बताया जा रहा है। वरिष्ठ और निर्भीक पत्रकार वानखेड़े के इस चिट्ठी के पोस्टमार्टम से यह बात निकलकर सामने आ रही है कि इस चिट्ठी के माध्यम से मोदी और शाह की खोपड़ी एक बड़े राजनीतिक उद्देश्य को साधने की नीयत से काम कर रही है। अनुप्रिया पटेल की चिट्ठी मोदी-शाह की एक बड़ी राजनीतिक चाल का हिस्सा बताई जा रही है। मोदी-शाह इस चिट्ठी के माध्यम से लोकप्रिय हो रहे योगी आदित्यनाथ की वर्तमान और भावी राजनीति में ग्रहण लगाना चाहते हैं। यूटूबर्स और राजनीतिक विशेषज्ञों का अनुमान और आंकलन है कि अनुप्रिया पटेल ने स्वप्रेरणा से यह चिट्ठी नहीं लिखी है,बल्कि यूपी में लॉ एंड ऑर्डर के मामले में लोकप्रियता के शिखर पर स्थापित मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ की राजनीतिक साख पर बट्टा लगाने की नीयत से एक सुनियोजित रणनीति के तहत यह चिट्ठी बीजेपी के ही शीर्ष नेतृत्व द्वारा लिखाई गयी है। यह भी कहा जा रहा है कि अनुप्रिया पटेल की इस चिट्ठी के माध्यम से यह संदेश प्रचारित और प्रसारित करने की कोशिश की गई है कि राज्य की योगी सरकार एससी-एसटी और ओबीसी विरोधी है। राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी आंकलन है कि मोदी और शाह एक तीर से कई शिकार करना चाहते हैं। बीजेपी के द्वय राजनेता इस चिट्ठी में निहित विषय को सामाजिक और राजनीतिक रंग देकर योगी की जगह प्रदेश में पिछड़े वर्ग की राजनीति को स्थापित कर सपा और नीतीश कुमार की राजनीति की बीजेपी में भरपाई करना चाहते हैं। इस चिट्ठी की असलियत,निहितार्थ और असर तो आने वाले भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं से ही उजागर होना सम्भव होगा।

बड़े चोरों के भरोसे-सुरेश सौरभ

  (व्यंग्य)   
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

बाढ़ के पानी से तमाम गांव लबालब भर चुके थे। बाढ़ सब बहा ले गयी, अब सिर्फ लोगों की आंखों में पानी ही पानी बचा था। रात का वक्त है-भूख से कुत्तों का रुदन राग बज रहा है। वहीं पास में बैठे कुछ चोर अपने-अपने दुःख का राग अलाप रहे हैं।
एक चोर बोला-सारा धंधा चौपट कर दिया इस पानी ने, सोचा था दिवाली आने वाली है कहीं लम्बा हाथ मारूंगा, पर अब तो भूखों मरने की नौबत आ गई। 
दूसरा चोर लम्बी आह भर कर बोला-लग रहा, आकाश से पानी नहीं मिसाइलें बरसीं हैं, हर तरफ पानी बारूद की तरह फैला हुआ नजर आ रहा है। 
उनके तीसरे मुखिया चोर ने चिंता व्यक्त की-हम टटपूंजिये चोरों के दिन गये। अब तो बड़े-बड़े चोरों के दिन बहुरने वाले हैं। कल गांव में टहल रहा था। बाढ़ में फंसे लोग आपस में बातें कर रहे थे कि सरकार ऊपर से राहत सामग्री बहुत भेज रही है, पर नीचे वाले  बंदर, बंदरबांट में लगे हैं, यही आपदा में अवसर, अफसरों का माना जाता है।
चौथा चोर दार्शनिक भाव में बोला-अब हम बाढ़ में फंसे पीड़ित, परेशान लोगों को क्या लूटें? चलो सुबह उन बड़े चोरों के पास चलें, जो राहत समग्री बांटते हुए गरीबों का हक जोकों की तरह चूस रहे हैं और गांव के भोले-भाले लोग उन्हें अपना भगवान मान कर उनके भक्त बने हुए हैं।
 सुबह वे चोर सरकारी राहत सामग्री पाने के लिए कतार बद्ध भीड़ में खड़े थे। उनके सामने एक अधिकारी अपने हाथ में भोंपू लिए ऐलान कर रहा था-सब लोग लाइन से ही राहत समग्री लें और जिन्हें  कल कूपन दिये गये थे उन्हें ही आज राशन मिलेगा। जिनके पास कूपन नहीं है, वे यहां फालतू में न खडे हो। हमारी टीम बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर रही है जो प्रभावित होंगे उन्हें ही कूपन मिलेंगे। और जो डेट कूपन पर होगी, उसी डेट पर उन्हें राहत सामग्री मिलेंगी। यह ऐलान सुन वह सारे चोर हैरत से एक दूसरे का मुंह ताकने लगे, क्योंकि किसी के पास कूपन नहीं थे। तब तीसरा मुखिया चोर बोला-कल लोग इसी के कूपन-उपन बांटने जैसी कुछ चर्चा कर रहे थे, कल यही अपने लोगों से वसूली करा रहा था। फिर उनकी इशारों से मंत्रणा हुई। सारे चोर कतारों से हट लिए। रास्ते में उनका मुखिया चोर बोला-अब हमसे बड़े-बडे़ पढ़े-लिखे चोर गांवों में आ गये हैं। अब हमें चोरी छोड़ कर नेतागीरी करनी चाहिए, शहरों में कुछ बड़े-बड़े नेता-मंत्री  हमारी पहचान के मित्र हैं, उनका यही कहना हैं। क्योंकि चोरी छोड़ कर ही, वे माननीय बने और करोड़पति भी । 
   अब सारे चोर माननीय बनने की तरतीब में बतियातें हुए जा रहे थे।  

सामाजिक न्याय के नाम पर सत्ता की मलाई चाटते जातीय दलों की असलियत जो एससी-एसटी और ओबीसी के लिए आस्तीन के सांप सिद्ध हो रहे हैं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग:एक
       
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
✍️सामाजिक न्याय की दुहाई देकर जातीय आधार पर दल गठित जो दल संविधान विरोधी आरएसएस और उसके राजनीतिक दल बीजेपी नेतृत्व एनडीए की सरकार में शामिल होकर लंबे अरसे से सत्ता की मलाई चाटने वाले दल बहुजन समाज (एससी-एसटी और ओबीसी) के लिए आस्तीन के सांप साबित हो रहे हैं। अनुप्रिया पटेल,ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद सभी सत्ता की अवसरवादी राजनीति कर समाज मे राजनीतिक बिखराव पैदाकर मनुवादी शक्तियों को अप्रत्यक्ष रूप से लंबे अरसे से राजनीतिक लाभ पहुंचा रहे हैं,अर्थात उनकी चुनावी राजनीति को मजबूत कर रहे हैं। संविधान और लोकतंत्र के मुद्दे पर ओबीसी और एससी-एसटी और अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय में चुनावी जागरूकता के साथ टैक्टिकल वोटिंग का हुनर पैदा होने से आज बीजेपी और एनडीए गठबंधन यूपी में अप्रत्याशित रूप से कमजोर हुआ है,यदि बीएसपी सुप्रीमो विपक्ष के इंडिया गठबंधन में शामिल हो गईं होती तो यूपी में बीजेपी और एनडीए गठबंधन का सफाया लगभग पक्का था,लेकिन दुर्भाग्यवश वो न हो सका। बीएसपी सुप्रीमो की भूमिका को लेकर भी सामाजिक-राजनीतिक और बौद्धिक मंचों पर कई तरह के आलोचनात्मक ढंग से सवाल उठते रहे और उन सवालों या संशयों के दुष्प्रभाव बीएसपी के आये चुनावी परिणामों का विश्लेषण करने से परिलक्षित होते दिखाई भी दिए हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर शून्य से दस तक पहुंचने वाली बीएसपी ने लगभग 20% वोट हासिल किया था और समाजवादी पार्टी अपनी पुरानी संख्या ही बचा पाई थी। 2024 में बीएसपी सुप्रीमो की "एकला चलो" की नीति के फलस्वरूप वह शून्य पर जा पहुंची और वोट प्रतिशत भी आधे से ज़्यादा कम हो गया। जब देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी गठबंधन की राजनीति का फार्मूला अपनाने पर मजबूर है या यह उसकी सत्ता की राजनीति का अभिन्न हिस्सा बन चुका है तो ऐसी परिस्थिति में बीएसपी की एकला चलो की राजनीति कितनी तार्किक और न्यायसंगत लग रही है।
✍️मोदी नेतृत्व बीजेपी जैसे-जैसे राजनीतिक रूप से कमजोर दिखाई देगी,सामाजिक न्याय की झूठी राजनीति करने वाले बहुजन समाज के असली राजनीतिक दुश्मनों का बीजेपी से मोह भंग होता हुआ दिखेगा और सत्ता की ओर बढ़ते किसी दूसरे राजनीतिक विकल्प की तलाश जारी करते हुए दिखाई देंगे। आज की विशुद्ध सत्ता की राजनीति के दौर में सामाजिक न्याय के नाम पर बने ऐसे जाति आधारित दलों की कोई कमी नहीं है,एक हटेगा तो  जातीय राजनीति की भरपाई के लिए कोई दूसरे के आने का क्रम थमने वाला नहीं और पैदा होते रहेंगे एवं अलग-अलग जाति के नाम पर बहुजन समाज राजनीतिक रूप से बंटता हुआ राजनीति का शिकार होकर ठगा जाता रहेगा। समाज के शिक्षित जानकार और जागरूक लोगों को आगे आकर समाज की सामाजिक-राजनीतिक चेतना और कदम पर काम करना होगा। जातीय राजनीति और चेतना के अति भावावेश या अतिरंजना में अब और बहने की जरूरत नहीं है,क्योंकि देश में सामाजिक- राजनीतिक बहुरूपियों की कमी नहीं है। एक हटेगा तो दूसरा आकर .....।
【अपना दल (एस) सांसद अनुप्रिया पटेल की मुख्यमंत्री योगी को लिखी चिट्ठी का पोस्टमार्टम एवं राजनीतिक निहितार्थ】
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✍️आजकल एनडीए गठबंधन में शामिल अपना दल (एस) की केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल की एक चिट्ठी सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया में सुर्खियों में है जिसमें उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखकर सरकारी नियुक्तियों में एनएफएस(नॉन फाउंड सूटेबल) के नाम पर एससी-एसटी और ओबीसी के अभ्यर्थियों के साथ हो रहे अन्याय की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है। उल्लेखनीय है कि अपना दल (एस) राज्य में 2014 से बीजेपी गठबंधन की राजनीति का हिस्सा बनकर योगी सरकार में और 2017 से केंद्र सरकार में शामिल है। आरएसएस संचालित और नियंत्रित बीजेपी का राजनीतिक आचरण शुरू से ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी रहा है। जब बीजेपी की सरकार नहीं हुआ करती थी तबसे वह आरक्षण खत्म करने की अप्रत्यक्ष और अदृश्य साज़िश के तहत संविधान समीक्षा की बात करती रही है और 2014 में मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद भी संविधान और आरक्षण की समीक्षा की लगातार समय-समय वकालत की जाती रही है। संविधान और संविधान सम्मत आरक्षण को सीधे खत्म करने का वक्तव्य-कदम किसी भी दल के लिए कितना आत्मघाती साबित हो सकता है,आरएसएस और बीजेपी उसे अच्छी तरह समझती है। इसलिए संविधान और आरक्षण पर डायरेक्ट हिट या आक्रमण नहीं होगा,बल्कि उसके अप्रत्यक्ष विकल्पों पर लगातार विचार-मंथन होता रहता है और 2014 से उसकी कार्ययोजना पर क्रियान्वयन भी हो रहा है। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का बेतहाशा निजीकरण,बैंकों का विलय,पीपीपी मॉडल का अनवरत विकास,सरकारी नौकरियों में कमी,विशेषज्ञता के नाम पर लेट्रल एंट्री के नाम पर एक वर्ग और संस्कृति विशेष की भर्तियां करना आदि सामाजिक न्याय जैसी सांविधानिक व्यवस्थाओं की धज्जियाँ उड़ाने की अप्रत्यक्ष और अदृश्य रूप से तो विगत दस सालों से उपक्रम जारी है। चुनावी माहौल में एससी-एसटी और ओबीसी मंदिर,हिंदुत्व और धर्म के नशे में बेसुध होकर मतदान करता दिखाई देता है। 
✍️2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था न होने के बावजूद सवर्ण वर्चस्व आरएसएस के इशारे पर सामान्य वर्ग की जातियों के लिए दस प्रतिशत सरकारी नौकरियों में आरक्षण देते समय सत्ता और विपक्ष में बैठे सभी एससी-एसटी और ओबीसी के सांसदों के मुँह में दही क्यों जम गई थी अर्थात उनकी जुबान को लकबा क्यों मार गया था? यदि डॉ.भीमराव आंबेडकर जी ने एससी-एसटी के लिए लोकसभा में आरक्षण की व्यवस्था न की होती तो एससी-एसटी के लिए लोकसभा में पहुंचना एक सपना ही रह जाता। 75 साल के लोकतंत्र में संसद की राज्यसभा में आरक्षण न होने की वजह से एससी-एसटी के कितने सांसद पहुंच पाए हैं?
✍️एससी-एसटी और ओबीसी अभ्यर्थियों के साथ लंबे अरसे से होते आ रहे अन्याय या चीर हरण पर अपना दल (एस) प्रमुख और सांसद की नज़र अब पहुंची है, उसके लिए बहुजन समाज की ओर से सादर धन्यवाद और साधुवाद। एससी-एसटी और ओबीसी अभ्यर्थियों के साथ केवल एनएफएस के आधार पर ही अन्याय या उनकी हकमारी नहीं हो रही है,बल्कि उनके साथ केंद्र में 2014 से और राज्य सरकार में 2017 से यह प्रक्रिया अनवरत रूप से कई रूपों में जारी है। विधान मंडल और संसद में बैठे एससी-एसटी और ओबीसी के सांसदों के दिमागों में सत्ता के ताले,जुबानों पर लकबा की मार और आंखों पर पट्टियां बंधी हुई हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि उसका इलाज कैसे हो सकता है? सरकारी नौकरियों में एससी-एसटी और ओबीसी की बैक लॉग की बंद पड़ी भर्ती प्रक्रिया, आरक्षण में ओवरलैपिंग व्यवस्था का खात्मा,शिक्षण संस्थानों में नियुक्ति के उपरांत प्लेसमेंट में नई रोस्टर व्यवस्था लागू होना, डिफेंस सेवाओं में भर्ती की सारी पुरानी प्रक्रिया, किंतु चार साल के लिए अग्निवीर बनाया जाना,ओबीसी आरक्षण में क्रीमिलेयर के नाम पर उस वर्ग के योग्य और पात्र अभ्यर्थियों को आरक्षण से बाहर करना,बढ़ती महंगाई के फलस्वरूप घटती क्रय शक्ति (परचेजिंग पावर) अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से घटती आय और नए वेतनमान की वजह से बढ़ती आय के फलस्वरूप बढ़ता क्रीमिलेयर वर्ग अर्थात क्रीमीलेयर के बहाने आरक्षण की सीमा से बाहर होता ओबीसी का एक बड़ा वर्ग, ओबीसी वेलफेयर की संसदीय समिति के अध्यक्ष सतना-एमपी से लगातार चौथी बार के सांसद गणेश सिंह पटेल द्वारा क्रीमीलेयर की आय सीमा 15लाख रुपये की सिफारिश करने की वजह से रुष्ट कथित ओबीसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनका कार्यकाल का विस्तार ही नहीं किया और उनके स्थान पर सीतापुर से सांसद राजेश वर्मा को नामित किया। उनके कार्यकाल में शायद ही इस मुद्दे पर कोई अगली कार्यवाही हो सकी हो। 2024 में गणेश सिंह पटेल सतना से लगातार पांचवीं बार सांसद चुने गए हैं।
✍️मंडल आयोग की स्पष्ट सिफारिश होने के बावजूद प्रोमोशन में आरक्षण न होने से तत्संबंधी स्तर पर आरक्षण में कमी आना... आदि बड़ी हकमारी की ओर हमारे एससी-एसटी और ओबीसी के चुने हुए जनप्रतिनिधियो का ध्यान अभी तक क्यों नहीं जा सका? सामाजिक न्याय करने का वादा कर विधान मंडल और संसद में पहुँचकर हमारे जनप्रतिनिधि यदि वहां सत्ता से सामाजिक न्याय की मांग नहीं कर सकते हैं तो ऐसे लोगों को दुबारा प्रतिनिधि चुनना उस समाज की मूर्खता या जातीय अंधभक्ति ही समझी जाएगी। सामाजिक न्याय की राजनीति के बहाने विधायिका में हिस्सेदारी पाने वाले सभी दलों पर जातिगत जनगणना कराने का सामाजिक दबाव बनना चाहिए जिससे जनसंख्या के हिसाब से जातिगत आरक्षण के विस्तार की राजनीति को भरपूर ताकत मिल सके। एनएफएस तो आरक्षण में कटौती करने की मनुवादियों द्वारा एक नवीन अदृश्य तकनीक विकसित की गई है जिसका दायरा शिक्षण संस्थाओं जैसे क्षेत्रों की नौकरियों तक ही सीमित है या जहां साक्षात्कार की मेरिट के आधार पर नियुक्तियां होती हैं। अपना दल (एस) की सांसद की चिट्ठी में केवल एनएफएस के आधार पर आरक्षण में हो रही साज़िश का ही उल्लेख नहीं होना चाहिए था, बल्कि ऊपर अंकित उन सभी बिंदुओं को शामिल किया जाना चाहिए था जिनके माध्यम से एससी-एसटी और ओबीसी की लंबे अरसे से बारीकी से बड़ी हकमारी हो रही है।
भाग दो पढ़ने के लिए लिंक करे    https://anviraj.blogspot.com/2024/07/blog-post_55.html

Tuesday, July 02, 2024

इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से ज़्यादा खतरनाक है,आज के दौर की अघोषित तानाशाही और इमरजेंसी-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

"लोकतंत्र के मंदिर में राजतंत्र-तानाशाही की निशानी "सिंगोल" स्थापित करने के पीछे मोदी/बीजेपी की नीयत क्या है?"                        
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️लोकसभा स्पीकर बनने के बावजूद आरएसएस और बीजेपी की ग़ुलाम मानसिकता से न मुक्त हो पाने वाले ओम बिरला को कांग्रेस की 50साल पुरानी इमर्जेंसी याद है,किंतु नीट,यूजीसी नेट,सीएसआईआर जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की धांधली और नग्नता - सांप्रदायिकता की आग से अभी-अभी बुरी तरह झुलसे मणिपुर के गहरे ज़ख्म और वहां की जनता की पीड़ा याद नहीं, क्योंकि वह अपनी आँख से न तो देख पाते है और न ही अपने दिमाग से सोच पाते है। बीजेपी शासित राज्य उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक होने से रद्द हुई परीक्षाएं  से जो भद्द कटी है,उससे बेख़बर और बेशर्म हो चुके हैं, हमारे स्पीकर और पूरी बीजेपी। उन्हें 1975 वाली इमरजेंसी तो याद है,लेकिन अयोध्या की 1992 में बाबरी मस्जिद और 2002 में गोधरा  कांड जैसी विध्वंसक और पूरे देश में अराजकता फैलाने और दिल दहला देने वाली घटनाएं याद नहीं! व्यक्तिवादी और दलीय अंधभक्ति-स्वामिभक्ति और ग़ुलामी की पराकाष्ठा दर्शाता है,बिरला का सम्पूर्ण व्यक्तित्व,वक्तव्य और कृतित्व। इंदिरा गांधी ने जो कुछ भी किया वह डंके की चोट पर और ताल ठोंककर किया,किसी राजनीतिक विरोधी को छुपके से घात लगाकर या पीठ में छुरा भोंककर नहीं। लोकहित में बड़े-बड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को सुलझाने में जो ऐतिहासिक,महत्वपूर्ण और सख़्त निर्णय लिये,उनका भी सम्मान के साथ ज़िक्र किया जाना चाहिए। निःसंदेह कांग्रेस के माथे पर इमरजेंसी के और बीजेपी के माथे पर गोधराकांड और बाबरी मस्जिद विध्वंस के लगे गहरे काले और बदनुमा धब्बों के निशान मिटाना संभव नहीं है।
✍️सरकार के इशारे पर जनता द्वारा निर्वाचित और संवैधानिक पद पर आसीन किसी मुख्यमंत्री तक को किस हद तक परेशान किया जा सकता है इसकी जीती जागती मिसाल हैं,दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन। इन दोनों के खिलाफ कोई ऐसा लिखित या ठोस सबूत नहीं मिला है कि उनके साथ एक दुर्दांत अपराधी की तरह पेश हुआ जाए! इसके बावजूद सरकार की कठपुतलियां बनी देश की जांच एजेंसियां सरकार के इशारे पर उनके साथ ऐसा बर्ताव कर रही हैं जो राजनीतिक वैमनस्यता या खीज़ से प्रेरित लगती है। जिस तरह कानूनी दांव-पेंच का फायदा उठाकर इन दोनों को जेल में डालने की साजिश रची गई है,वह भारत जैसे देश के विशाल और प्रौढ़ लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक संकेत और संदेश है। अरविंद केजरीवाल को जैसे ही निचली अदालत से जमानत मिलती है,उसमें तनिक भी विलंब किये बिना उससे ऊपरी अदालत में उनके खिलाफ एक अर्जी डाल दी जाती है। इतना ही नहीं,उस पर कोई फैसला आ पाता कि तुरंत एक दूसरी जांच एजेंसी ने अपनी दबिश बढ़ा दी और उनको गिरफ्तार कर लिया। बदले की भावना से प्रेरित इस तरह की कार्रवाई को लोकतांत्रिक देश में कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता है। 
✍️वर्तमान अघोषित तानाशाही और इमरजेंसी के अलंबरदार पीएम नरेंद्र मोदी संसद भवन में इंदिरा गांधी द्वारा 25जून,1975 को घोषित इमरजेंसी को कोस रहे थे और लोकतंत्र के प्रति गहरी आस्था जताते हुए संसद में एक लंबा भाषण भी दिया,लेकिन उनके दावों और हकीकत में जमीन-आसमान का अंतर साफ दिखाई देता है। 1975 में जो भी हुआ वह सब कुछ बाक़ायदा घोषित था और सभी को पता था कि देश में आपातकाल घोषित हो चुका है, नागरिकों के संवैधानिक- लोकतांत्रिक अधिकार आपातकाल उठने तक स्थगित और सीमित कर दिए गए हैं। देश के लोगों को आपातकाल में सोच-संभल कर और समझकर किसी भी तरह के कदम उठाने का मौका दिया गया था,लेकिन वर्तमान में तो ऐसा लगता है कि लोकतंत्र प्रशासनिक-जांच एजेंसियों के कदमों के नीचे दबा हुआ है। जब सुप्रीम कोर्ट केजरीवाल की जमानत देने का इशारा कर चुकी थी फिर रात के अंधेरे में केजरीवाल से पूछताछ क्यों की गयी और अगले दिन रिमांड की मांग क्यों की? सत्ता के इशारे पर जांच एजेंसी ने यह सब इसलिए किया ताकि उनका जेल से बाहर आना संभव न हो सके और ऐसा हुआ भी। निचली अदालत ने जमानत इसलिए दे दी थी,क्योंकि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिले। केवल गवाहों के आरोपों को सबूत के रूप में पेश किया जा रहा था। मामले से जुड़ी जांच एजेंसियां सत्ता को खुश करने के लिए अपने रसूख़ का नाज़ायज़ फायदा उठा रही हैं जिसे भारत जैसे देश के 75 साल के परिपक्व लोकतंत्र में कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता है। किसी भी सत्ता की इस तरह की मनमानी कार्रवाइयों का वृहद स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए जिससे बिना ठोस सबूत के फंसाए गए संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को न्याय मिल सके।
✍️राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि तत्कालीन घोषित इमरजेंसी से आज की अघोषित इमरजेंसी ज़्यादा और व्यापक रूप से घातक या खतरनाक साबित हुई है और हो रही है। बीजेपी के दस साल के शासन काल में विपक्षी दलों और आम आदमी को आर्थिक रूप से जर्जर करने की नीयत से जानबूझकर काले धन के नाम पर की गयी अचानक नोट बंदी और लॉक डाउन से उपजी राष्ट्रव्यापी बेचैनी और अफरातफरी और उससे ध्वस्त हुई देश की अर्थव्यवस्था,यातायात व्यवस्था और उसके बेरोजगारी जैसे भयंकर दुष्परिणाम शायद वो भूल गए हैं। सरकार के पीेएम केयर्स फंड और सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित एलेक्टोरल बॉण्ड जैसे बड़े-बड़े घोटाले और चंदा देने वाली कम्पनियों के खुलासों की फ़ाइल उनकी स्मृतियों से बहुत जल्दी डिलीट हो गई हैं। किसी भी सदन के सभापति का आचरण निष्पक्ष और दलीय विचारधारा से परे माना जाता है। शायद यह भी भूल गए हैं, हमारे दूसरी बार बनाए गए  स्पीकर साहब! देश की सर्वोच्च पंचायत संसद संविधान और संसदीय मर्यादाओं और परंपराओं से विगत लंबे अरसे से चलती आ रही है। विपक्षी दलों के सांसदों के प्रति ओम बिरला का एक स्पीकर के रूप में तानाशाह वाला आचरण और वक्तव्य बेहद अशोभनीय और निंदनीय कहने में कोई अतिशयोक्ति नही है। बीजेपी की शह पर संसद में ओम बिरला विपक्षी सांसदों के प्रति संविधान और संविधानिक मर्यादाओं का खुला उल्लंघन करने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं। ओम बिरला जी को यह याद रखना चाहिए कि इस बार की लोकसभा की बनावट और बुनावट पिछली लोकसभा से कतई अलग है। अब सदस्यों के निष्कासन और उनके प्रति अधीनस्थों जैसी अपनाई जा रही भाषा-शैली और आचरण उनके और मोदी सरकार के ऊपर भारी पड़ सकते है। ओम बिरला की नियुक्ति या चयन की पूरी प्रक्रिया में नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडू  संसदीय (संविधान और लोकतंत्र) इतिहास के पन्नों में खलनायक के रूप में दर्ज़ हो चुके हैं। इसके बावजूद नीतीश कुमार की राजनीतिक गठबंधन की कोई स्थायी गारंटी या वारंटी नही कही जा सकती है। बिहार में 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव का राहु या शनि देव कभी भी प्रकट हो सकता है। ओम बिरला के रहते यदि इस बार भी संसदीय परंपराओं और मूल्यों में और अधिक गिरावट देखने को मिलती है तो उसके लिए नीतीश और नायडू भी बराबर के दोषी या.... माने जायेंगे। 
✍️संविधान, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के नाम पर व्यक्तिगत राजनीतिक लाभ के लिए जातियों की गोलबंदी कर जातीय आधार पर गठित जो राजनीतिक दल आज एनडीए की सरकार का हिस्सा बनकर सत्ता की मलाई खा रहे हैं और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर मुंह में ताला लगाए हुए हैं, वे दल और उनके नेता ओबीसी और एससी-एसटी समाज के भविष्य के लिए आरएसएस और बीजेपी से ज़्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं। सरकार से हिस्सेदारी खत्म होने के डर से उनकी स्थिति भेड़िया या शेर के सामने बकरी जैसी दिखती है। आरएसएस और बीजेपी तो ऐलानिया तौर पर संविधान और लोकतंत्र की आरक्षण जैसी व्यवस्था की शुरू से ही विरोधी रही है, लेकिन सामाजिक न्याय का राजनीतिक चोला ओढ़े सामाजिक-राजनीतिक भेड़ियों से बहुजन समाज को ज़्यादा खतरा है। संविधान, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय विरोधी आरएसएस रूपी कथित सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी संगठन और उससे उपजी बीजेपी और उनके सहयोगी दलों और नेताओं से बहुजन समाज अर्थात ओबीसी और एससी-एसटी के साथ अल्पसंख्यक समुदायों को राजनीतिक रूप से दूर रहने में ही भलाई है, क्योंकि इन सभी का इन समाजों को हिन्दू- मुसलमान, मंदिर-मस्जिद और हिन्दू राष्ट्र के नाम पर सामाजिक वैमनस्यता फैलाकर राजनीतिक सत्ता हासिल करना एकमात्र लक्ष्य हैं।
✍️2024 में मोदी नेतृत्व में तीसरी बार एनडीए की सरकार बनने में सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले नीतीश कुमार और चन्द्र बाबू नायडू की भूमिका राजनीतिक विश्लेषकों की समझ से परे बताई जा रही है। मोदी सरकार 3.0 को नीतीश कुमार और चन्द्र बाबू नायडू द्वारा दिया गया सहयोग और समर्थन भविष्य में क्या राजनीतिक गुल खिलायेगा,इसका अनुमान और आंकलन करने में बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित और भविष्य वक्ता फेल होते नज़र आ रहे हैं। एनडीए गठबंधन की मोदी सरकार 3.0 बहुत कुछ नीतीश कुमार और नायडू की राजनीतिक चाल-चलन पर निर्भर करेगी,साथ ही यह भी अटकलें लगाई जा रही हैं कि बीजेपी के लोकसभा स्पीकर के माध्यम से मोदी-शाह की शतरंजी चाल से नीतीश-नायडू को होने वाले खतरे से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस बार की लोकसभा में पिछली लोकसभा से अधिक नंगा नाच होने की संभावना है। नीतीश कुमार और बीजेपी की स्थिति सांप-नेवले के रूप में देखी जा रही है। कौन सांप और कौन नेवला साबित होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बता पायेगा। फ़िलहाल, इस बार की लोकसभा में कुछ ऐसा होने की संभावना जताई जा रही है जो संसदीय इतिहास में आज से पहले कभी नही हुआ है।

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बहुजन समाज का संविधान बनाम सनातन-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  ~~सूक्ष्म विश्लेषणात्मक अध्ययन~~  नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर) युवराज दत्त महाविद्यालय लखीमपुर-खीरी 9415461224.        पिछ...

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