साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Sunday, July 31, 2016

गोमती नदी वरदान भी अभिशाप भी


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                                                                                                       -अखिलेश कुमार अरुण

आज तक हम भिन्न-भिन्न विषयों पर लिखतें रहे है लेकिन प्रकृति पर लिखने का यह मेरा पहला सौभाग्य है. परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है की मैं कभी प्रकृति प्रेमी नहीं रहा हूँ. बचपन मेरा प्रकृति की गोद में ही बीता है. फूल,पत्तियों, पेड़-पौधों तितलियों के साथ खेलते हुए. मेरा पुश्तैनी परिवार खेती-किसानी से जुडा हुआ है. जिसके चलते कृषि कार्य करने का भी अनुभव है. जब-तब यदा-कदा लगे हाथ आजमा भी लेता हूँ. क्योंकि आज के समय में, मैं उच्च ज्ञानार्जन हेतु शहर की शरण में पिछले 15-20  सालों से आया हुआ हूँ. जिसके चलते गाँव की सौंधी सुगंध स्वपन सा हो गया है. वे दिन बहुत याद आते हैं जब बचपन में अठखेलियाँ करते हुए स्कूल जाया करते थे. घर की आँगन से लेकर दरवाजे तक वेल-बुटो को लगाते रहते थे. और उसमें आये फूलों को अपने परिश्रम से उपजाये हुये सम्पति की हैसियत से देखते थे. तोड़ना तो दूर छूने भी नहीं देते किसी को, जब कोई तारीफों के पूल बाँधता तो दिल उछलने लगता मन बाग़-बाग़ हो जाता. उसकी अपेक्षा शहर तो निरे निठल्लो का देश हो गया है. ज्ञान के नाम पर विशाल विद्वता है परन्तु सच्चाई इसके बिलकुल विपरीत प्रकृति-प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटने के लिए लाखों खर्च कर देते हैं. काले अक्षरों का अम्बार लगा देते हैं. आये दिन रोज कहीं न कहीं प्रकृति पर बोलने का मजमा लगा रहता. शुद्ध आरो का पानी पी-पी कर पसीना बहाते पर आम-लीची, बबूल-इमली, धान-गेंहू में अंतर करना नहीं आता. रही बात पेड़-पौधे लगाने की तो घर के अहाते में गलती से एक घास भी निकल आये तो उसका समूल ऐसे नष्ट करते जैसे किसी अपने पूराने दुश्मन का सर धड़ से अलग कर रहे हों. वर्ग फीट में खरीदी गयी जमीन का सदुपयोग करना तो शहरवाशियों से सिखाना चाहिए मकान गली के रोड से धंसा देंगें और कूलर, गाड़ी रोड की तरफ ये है शहर.
 

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यका यक प्रकृति पर लिखने का यह विचार मुझे लखनऊ में हो रहे गोमती नदी पर अतिक्रमण को देखकर कौंध उठा मैं अपने आप को लेखनी उठाने से रोक न सका क्योंकि यह वही गोमती है जिसकी आँचल में मैंने अपना बचपन बिताया हुआ है. प्राथमिक की शिक्षा गाँव में पुरी होने के बाद की शिक्षा के लिए इस नदी को पार करना पड़ता था. वह चौमास में नाव से और गर्मी के दिनों में घुटने भर पानी हेलकर आनंद दोनों में ही बराबर था. परन्तु कुछ वर्षों के अंतराल पर जब अबकी बार नदी होकर आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो, दो सवारी दुपहिया पर बैठे-बैठे पार कर गए उसके पानी के बूंद तक ने हमें न छू सका मेरी आत्मा रो गयी. उस नदी की हालत आज शहरों से केवेल गंदे पानी को ढोकर गंगा में पहुचाने तक रह गया है. शहर वाले अमन चैन की ज़िंदगी विता सकें और तो और लगे हाँथ राजनीति की रोटी भी सेंक सकें. यह गोमती गंगा तो है नहीं कि लोगों के आस्तिकता की बात की जाय परन्तु छिट-पुट भूले भटके लोग भी यदा-कदा फूल-माला अस्थि विसर्जन आदि करते रहते हैं. क्योंकि राजनेताओं की नज़र अभी इस पर नहीं है.
ज्यादातर इससे लाभान्वित होने वाले किसान वर्ग आतें है यह नदी शांत नदी की श्रेणी में आती है. १० साल पहले जहाँ थी आज भी वहीँ है जिसके चलते कृषक वर्ग इसके कनारे तक की भूमि का प्रयोग खेती-बाड़ी के लिए करता है. इस प्रकार जिला पीलीभीत से लेकर जौनपुर तक के लाखों सीमांत किसान अपना जीवन-यापन करते है. इस दृष्टि से देखें तो लखनऊ में नदी को संकरा किया जाना किसी भी तरह उचित नहीं है. क्योंकि इससे नदी के आस्तित्व एवं उससे होने वाले हानि का अनुमान लगा पाना मुस्किल है. जहाँ एक तरफ तो सूखे की हालत और दूसरी तरफ़ जल भराव की समस्या बनी रहेगी. एक तरफ किसान को पानी नहीं मिलेगा वहीँ दूसरी तरफ़ के किसानो की फ़सल का पानी में खड़े-खड़े सड़ जाने की सम्भावना है. ऐसा नहीं है कि इस नदी में कभी बाढ़ नहीं आती है. बाढ़ आती थी किन्तु पानी का ठहराव ज्यादा दिन नहीं रहता था. जिससे फ़सल की ज्यादा क्षति नहीं होती थी.बहते हुए पानी की अपेक्षा ठहरा हुआ पानी फ़सल के लिए ज्यादा हानिकारक होता है.
अब आने वाले समय में ऐसा नहीं होगा नदीं के संकरा हो जाने से पानी का निकास सामान्य से बहुत कम हो जाएगा. और निचले स्तर के क्षेत्र (पीलीभीत, लखीमपुर, सीतापुर आदि) जलमग्न रहेंगे वहीँ उसकी दूसरी तरफ के जिलों (बाराबंकी, गाजीपुर, जौनपुर) को वर्षाकाल में भी पर्याप्त जलापूर्ति नहीं होगी. दोनों तरफ़ के सीमांत किसान इससे प्रभावित होंगे. इस लिहाज से गोमती नदी को शहरी विकास के नाम पर संकरा किया जाना उचित नहीं है. आज नहीं तो कल इसका खामियाजा मानव समाज को भुगतना ही पड़ेगा. इसलिए विकास के सीमा का विस्तार वहीँ तक करे जहाँ तक उचित हो अपने लिए नहीं सबके लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए भी.

Monday, July 25, 2016

शिक्षा व्यवस्था



(एक सच्चाई यह भी)

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उ०प्र० की शिक्षा व्यवस्था को क्या कहें ग़ालिब ..........जुलाई में तो फल मिल जाता है, किताब नहीं मिलती. यह चंद लाईनें किसी शायर की नहीं बल्कि कुशीनगर के खण्ड शिक्षा अधिकारी व्हाट्स एप्स लिखें है. और उनकी शामत इसलिए बन आई है की वे वर्तमान सरकार में अच्छे ओहदे पर होते हुए उ०प्र० की शिक्षा व्यवस्था पर एक कुटिल सत्य को लिखने का साहस किया है. उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था. जिसकी थाली में खाओ उसकी थाली में छेद तो न करो भाई जो जैसा है वैसा चलने दो क्योंकि आप सरकार की नजरों से नहीं बच सकते वह बात अलग है की कत्ल, बलात्कार, चोरी, राहजनी करनें वालों की कोई खोज कबर नहीं है. वे घटना को अंजाम देकर मस्ती करते रहते हैं जब तक की पीड़ित आकर ऍफ़.आई.आर. लिखने के लिए चार चक्कर न लगाये.
उ०प्र० में गिरती शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी प्रशासन तन्त्र की सबसे बड़ी लापरवाही है. मैं समय-समय पर इससे समन्धित लेख लिखता रहा हूँ. और आज भी उसी को दोहरा रहा हूँ की ऐसे शिक्षा से क्या लाभ जब की छात्र प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर सही तरीके से लिखने-पढनें की इल्म न ले सकें दूसरी भाषाओँ की जिक्र करना छोड़ दें उन्हें हिंदी का भी शुद्ध ज्ञान नहीं है. उसे पढ़ा-लिखा गंवार नहीं तो और क्या कहेंगे और उनसे हम देशहित का क्या स्वप्न सज़ा सकते हैं जबकि उसका खुद ही जीवन अँधेरे में हो.
यहाँ पर शिक्षा के नाम पर प्रत्येक दिन इस प्रकार की जानकारी आला अफ़सर को दी और ली जाती है कि आज फलां-फलां स्कूल में XYZ बच्चों की संख्या थी. XYZ के लिए कुल इतना अल्पाहार बनाया गया दूध फल आदि बटवाये गये. परन्तु सरकारी तंत्र की लापरवाही के चलते कभी इस प्रकार की जानकारी को हासिल किये जाने का प्रयास नहीं किया गया कि मासिक, त्रैमासिक छमाही कोर्स पूरा किया गया कि नहीं बच्चों को कक्षा में कितना पढ़ाया गया. और कोई अन्य क्रियाविधि करायी गयी की नहीं आदि-आदि.
Image result for SCHOOL CHALO ABHIYAN     घटिया मजाक किया जाता है. किसी नें खूब कहा है, ‘’स्वस्थ मस्तिष्क में स्वस्थ मन और बुद्धि का वास होता है.’’ परन्तु वे पोशाक पहनकर निरे बुद्धू लगते हैं. वर्तमान समय में स्कूली कपड़ो के ढेर सारे विकल्प हैं. उन आला मुलाजिमों से मेरा एक यही सवाल है कि बच्चों की खाखी वर्दी जिसमें शर्ट-पेंट, और स्कर्ट को क्या अपने बच्चों को भी उतने ही चाव से पहनाएंगे जितना इन ग़रीब-मुजलिमों के बच्चों को पहनने के लिए बाँटते है. जुलाई में स्कूल खुलने के बाद महीनो बीत जातें है किताब बटते-बटते तब तक परीक्षा आ चुकी होती है. स्कूली-पोशाक के नाम पर बचों के साथ
अब इस प्रकार की सच्चाई को उजागर करना सरकार की बुराई करना है या फिर .........इसका निर्णय पाठक वर्ग ख़ुद-ब-ख़ुद करें..

Saturday, July 23, 2016

वंचित वर्ग का भविष्य



   वंचित वर्ग का भविष्य 

                                                             -ए०के० 'अरुण'

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हमारे वर्तमान समय के राजनेताओं आदि ने सम्वादिकीय स्तर को इतना निचे गिरा दिया है कि एक सभ्य समाज को घिन्न आती है अपने को उन्हें राजनेता कहते हुए. देश-समाज के भावी भविष्य पर बोलना हो तो मौन हो जाते हैं उन्हें सांप सूंघ जाता है, दिनों-दिन महंगाई,बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कदाचार, व्यभिचार आदि में पर्याप्त बढोत्तरी हो रही है मजाल कि इसे रोकने का उपाय किसी के द्वारा सुझाया जाय? सुझाये भी तो कहाँ से जब उस स्तर की जानकारी हासिल किये हो तब न अमर्यादित बयानबाजी करने के लिए स्कूल तो जाना नहीं होता खुद ब ख़ुद जेहन में आ जाता है.
एक तरफ़ जहाँ केन्द्र सरकार अपने को दलित प्रेम बहाने में लगी हुई है वह्नी उसके अपने ही नेता रोज आये दिन भड़काऊ बयानबाजी करके शुर्खियों में रहना अपनी शान समझते हैं और इसकी सबसे बड़ी कमी दलिओं का एक नहोना है कुछ दिन पहले जर्नल वि.के.सिंह ने कहा था कि दलित कुत्ते के सामान हैं. अभी इससे उबर ही नहीं पाए की दयाशंकर का बयान जलते आग में घी डालने जैसा था उसने मायावती जी की तुलना एक वैश्या से कर बैठा.
जगह-जगह दलितों पर अत्याचार किये जा रहे है. अमानुषिक व्यवहार से जीव आज़िज हो उठा है. राजस्थान जैसे शहर में दलित मसुमों को जिन्दा जलाया जा रहा है, तो गुजरात में उनको इसलिए पिटा गया की वे मरी गाय की खाल को निकाल रहे थे. (गाय जैसे जीव पर दिखावा राजनीती किया जाना ठीक नहीं है वास्तव में उसे बचाना है तो अपने देश को ब्रीफ निर्यातक देश की श्रेणी में कोई स्थान नहीं होना चाहिए लेकिन ठीक इसके उल्टा है भारत ब्रीफ निर्यात में पहले स्थान पर है.) नोएडा में वहसी भीड़ ने दिन में ही एक मुसलमान का बेरहमी से कत्ल इसलिए कर दिया गया की वह मांस खा रहा था. लेकिन किसी ने यह जरुरी नहीं समझा की जिस गाय की खाल निकाली जा रही थी वह मरी थी या जिन्दा और जो मांस खा रहा था वह गाय का या था किसी अन्य जंतु का ये सब किसी मौन क्रांति को जन्म तो नहीं दे रहें है जो आने वाले समय में भारत कई खंडो में विभक्त होकर रह जाए. और तो और यहाँ जीवन जीने के लिए गद्दाफी के शासन का प्रारम्भ हो जाये और व्यक्ति अपने घर में कैद होकर मृत्यु के अंतिम काल की प्रतिक्षा करे.
वास्तव में यही स्थिति रही तो लोगो का लोकतंत्र से विश्वास उठ जाएगा. राजनीति का स्तर अतिनिम्न हो जायेगा. देश अपने विकाश के लक्ष्य को कभी नहीं पा सकेगा किन्तु ढोल-नागडे पिटे जायेंगे मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, साक्षर भारत आदि आदि का परिणाम सिफ़र. किसका विकाश किसके लिए जब व्यक्ति सुकून से जिन्दा ही न रह सकें अपनी इज्जत, मान-सम्मान को ही न पा सके धिक्कार है ऐसे ...........

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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