साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, June 26, 2023

इस दुनिया में तीसरी दुनिया से साक्षात्कार -डॉ.आदित्य रंजन

(पुस्तक समीक्षा)

पुस्तक-इस दुनिया में तीसरी दुनिया (साझा लघुकथा संग्रह)
संपादक -डॉ.शैलेष गुप्त 'वीर'/सुरेश सौरभ 
मूल्य-249
प्रकाषन-श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली को
प्रकाशन वर्ष-2023

किन्नर विमर्श पर आधारित ‘‘इस दुनिया में तीसरी दुनिया‘‘ के सम्पादक डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर‘ व सुरेश सौरभ जी ने किन्नरों के जीवन की हकीकतों-तकलीफों को परत-दर परत खोलने के लिए इस संग्रह में सामयिक-मार्मिक लघुकथाओं का साझा संकलन प्रस्तुत किया है। जहाँ हमारा सम्पूर्ण समाज स्त्री एवं पुरुष इन्हीं दो वर्गों को समाज की धुरी मान बैठा, है वहीं इन दोनों से पृथक एक ऐसा वर्ग भी है जो न तो पूर्ण स्त्री है और न ही पूर्ण पुरुष, यह वर्ग है किन्नर का, जिसे हमारे समाज में हिजड़ा, छक्का, खोजा और अरावली आदि नामों से जाना जाता है।
      परिवार और समाज से परित्यक्त यह किन्नर समुदाय लगातार अपने हक तथा अपने वजूद के लिए संघर्ष करता रहता है। समाज का यह वर्ग जो स्त्री एवं पुरुष के मध्यबिंदु पर खड़ा है, अपनी अपूर्णता के कारण समाज में हीन दृष्टि से देखा जाता है। अपनी अपूर्णता के दर्द को तिल-तिल सहते ये किन्नर कभी समाज में अपने हक के लिए तो कभी अपने वजूद की पूर्णता के लिए,कभी निज से तो कभी समाज से संघर्ष करते दीख पड़ते हैं।
       इस लघुकथाओं के संग्रह में किन्नर जीवन की त्रासदी, अकेलेपन, परिवार से परित्यक्त होने का दर्द और समाज के तिरस्कार को सहते किन्नरों के जीवन का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। संग्रह में विभिन्न लेखकों की लघुकथाओं के संकलन होने के नाते किन्नरों के विषय में बहुकोणीय दृष्टिकोण व विमर्श परिलक्षित होता है।
     इस संग्रह की प्रथम लघुकथा अंजू खरबंदा की ‘‘बुलावा‘‘ है, जिसमें संभ्रांत समाज द्वारा किन्नरों के प्रति सद्भावना दर्शायी गई है। डॉ. कुसुम जोशी द्वारा रचित ‘मैं भी हिस्सा हूँं‘ एक ऐसे किन्नर की कहानी है जिसे अपने कालेज की पढ़ाई के दौरान समाज से संघर्ष करके संभलते हुए दिखाया गया है। 
     ‘इस दुनिया में तीसरी दुनिया‘ में अठहत्तर बेहतरीन लघुकथाओं का समावेश किया गया है। लेकिन विशेष रूप से सुरेश सौरभ की ‘राखी का इंतजार‘, सीमा वर्मा की ‘बढ़ोत्तरी‘, सरोज बाला सोनी की ‘बहन कब आयेगी‘, रेखा शाह आरबी की ‘त्याग‘, माधवी चौधरी की ‘अधूरापन‘, प्रियंका श्रीवास्तव ‘शुभ्र‘ की ‘न्याय‘, गुलजार हुसैन की ‘चोट‘, दुर्गा वनवासी की ‘पीड़ा‘ आदि लघुकथाओं में किन्नरों के जीवन, समाज में स्थान और उनकी पहचान को बड़े ही अच्छे ढंग से, संजीदा तरीके से प्रस्तुत किया है। इन लघुकथाओं के माध्यम से समाज में एक नवीन दृष्टिकोण उजागर होगा और यह पुस्तक निश्चित तौर पर समाज में किन्नरों के प्रति लोगों की सोच में परिवर्तन लाने का कार्य करेगी। इसके लिए मैं इस पुस्तक के सम्पादक डा. शैलेष गुप्त वीर व सुरेश सौरभ को कोटि-कोटि बधाई देता है। साथ ही मै श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली को भी बधाई देता है, जिन्होंने इस पुस्तक के कवर डिजाइन से लेकर शब्द संयोजन तक में बेतरीन कार्य किया तथा आकर्षक और हार्ड बाउंड रूप में पुस्तक प्रकाशित करके पाठकों तक पहुँचाने का सुफल किया। संग्रह पठनीय संग्रहणीय है और किन्नर विमर्श के शोधकर्ताओं के लिए नये द्वार खोलेगा।

समीक्षक डॉ आदित्य रंजन
प्रवक्ता ( प्रा.भा.इतिहास)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली लखीमपुर खीरी

फिल्म आदिपुरुष के संवाद और भाषा की सीमाएं: आखिर ‘आज की हिंदी’ अथवा आज की भाषा’ किसे कहेंगे हम-अजय बोकिल

अजय बोकिल
वरिष्ट संपादक

मनोज मुंतशिर ने जो वाक्य प्रयोग किए हैं, क्या वो सचमुच आज के उस समाज की भाषा है, जो सभ्यता के दायरे में आते हैं। वैसे मनोज मुंतशिर कोई महान गीतकार या लेखक हैं भी नहीं। उन्हें कुछ पुरस्कार जरूर मिले हैं, लेकिन उनका लिखा कोई गीत कालजयी हो और लोगों के होठों पर सदा कायम रहा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। उन्होंने अपना नाम मनोज शुक्ला से ‘मुंतशिर’ सिर्फ इस वजह से कर लिया कि उन्हें यह शब्द भा गया था। 

यह भाषा एक खास वर्ग को मानसिक संतुष्टि प्रदान करती है और सहजता व निर्लज्जता के भेद को मिटाती है। 
विस्तार
रामकथा से प्रेरित विवादित फिल्म ‘आदिपुरूष’ उसके संवाद लेखक मनोज मुंतशिर द्वारा जन दबाव में सिनेमा के डायलॉग बदले जाने के बाद भी हिट होने की पटरी से उतर गई लगती है। जो संवाद बदले गए हैं उनमें भी बदलाव क्या है? ‘तू’ से ‘तुम’ कर दिया गया है या फिर ‘लंका लगाने’ (यह भी विचित्र प्रयोग है) की जगह ‘लंका जला देंगे’ अथवा शेषनाग को ‘लंबा’ करने के स्थान पर ‘समाप्त’ कर देंगे, कर दिया गया है। लेकिन इस विवाद की शुरुआत में संवाद लेखक, गीतकार मनोज मुंतशिर ने एक बात कही थी।  जिस पर व्यापक बहस की गुंजाइश है।

दरअसल, मनोज ने जिन टपोरी संवादो पर आपत्ति हुई थी, उनके बचाव में कहा था- मैंने ये संवाद ‘आज की भाषा’ में लिखे हैं। मनोज की बात मानें तो ‘जो हमारी बहनों...उनकी लंका लगा देंगे’ जैसे वाक्य ‘आज की हिंदी’ है।

अब सवाल यह है कि ‘आज की हिंदी’ अथवा आज की भाषा’ हम किसे कहेंगे? यह कैसे तय होगा कि जो लिखी या बोली जा रही है,  वह आज की हिंदी ही है? हर समाज में अमूमन भाषा तीन तरह से प्रचलन में होती हैं।
 

पहली, वो लिखी जाने वाली व्याकरण सम्मत, विचार सम्प्रेषण और सृजन की भाषा होती है।
दूसरी वो जो हम आम बोलचाल में इस्तेमाल करते हैं और जिसका व्याकरणिक नियमों से बंधा होना अनिवार्य नहीं है तथा जिसमें अर्थ सम्प्रेषण ज्यादा अहम है
तथा तीसरी वो जो आपसी बोलचाल में अथवा समूह विशेष में प्रयुक्त होती है, और अभद्रता-भद्रता के भेद को नहीं मानती।
 
आमतौर पर इसे लोकमान्य होते हुए भी टपोरी, फूहड़ अथवा बाजारू भाषा कहते हैं। सभ्य समाज इसके सार्वजनिक उपयोग से परहेज करता है और प्रयोग करता भी है तो किसी विशिष्ट संदर्भ में ही। अंग्रेजी में इसे ‘स्लैंग’ कहा जाता है। 

यह वो भाषा है जिसमें स्थानीय रूप से उपजे या गढ़े गए शब्दों की भरमार होती है। गालियां और उनके अभिनव प्रयोग इस भाषा का वांछित हिस्सा होते हैं। सभ्य समाज में वर्जित शब्दों का  टपोरी भाषा में धड़ल्ले से प्रयोग होता है और इसे कोई अन्यथा भी नहीं लेता।

यह भाषा एक खास वर्ग को मानसिक संतुष्टि प्रदान करती है और सहजता व निर्लज्जता के भेद को मिटाती है। इसमें  भी एक ‘किन्तु’ यह है कि जो व्यक्ति अपनी टपोरी भाषा में दूसरे के लिए हल्के और गाली युक्त शब्दों का बेहिचक प्रयोग करता है, वही व्यक्ति खुद उसके लिए इसी भाषा का प्रयोग करने पर आक्रामक भी हो सकता है। अर्थात् ऐसी भाषा कितनी भी सहज हो, लेकिन मानवीय गरिमा के अनुकूल नहीं होती।  

बदलता समाज और बदलती हुई भाषा 
इसमें दो राय नहीं कि हर एक-दो दशक में भाषा बदलने लगती है। उसमें नए भावों के साथ नए शब्द आते हैं तो पुराने शब्दों को नए तेवर देने  की गरज पड़ती है, कई शब्द चलन से बाहर भी होते हैं, उनकी जगह नए शब्द और मुहावरे रूढ़ होने लगते हैं। सभ्यता और संस्कृति का बदलाव, टकराव और परिवर्तित सामाजिक चेतना भी नए शब्दों की राह आसान करती है। कई बार शब्द वही होते हैं,  लेकिन उनके अर्थ संदर्भ बदल जाते हैं।  

अगर ‘आज की भाषा’ की बात की जाए तो हम उस भाषा की बात कर रहे होते हैं, जिसे अंग्रेजी में मिलेनियल जनरेशन, जनरेशन जेड या फिर अल्फा जनरेशन कहा जाता है। मिलेनियल ( सहस्राब्दी) पीढ़ी उसे माना गया है, जिसका जन्म 1986 से लेकर 1999 के बीच हुआ है। इसी पीढ़ी को ‘जनरेशन जेड’ भी कहा गया है।

21 वीं सदी के आरंभ से लेकर इस सदी के पहले दशक में जन्मी पीढ़ी को ‘अल्फा जनरेशन’ नाम दिया गया है। मिलेनियल और अल्फा जनरेशन की भाषा में बुनियादी फर्क यह है कि अल्फा जनरेशन की भाषा पर इंटरनेटी शब्दावली का असर बहुत ज्यादा है और वो पारंपरिक शब्दों के संक्षिप्तिकरण में ज्यादा भरोसा रखती है। इसे हम माइक्रो मैसेजिंग, व्हाट्सएप मैसेज में युवाओं द्वारा प्रयुक्त भाषा से समझ सकते हैं। 

इस पीढ़ी की भाषा में भाषाई शुद्धता और लिपि की अस्मिता का कोई आग्रह नहीं है। हिंदी रोमन लिपि में अपने ढंग और शब्दों तो तोड़-मरोड़ कर धड़ल्ले से लिखी जा रही है। यही उनके सम्प्रेषण की भाषा है। जिसे एक ने कही, दूजे ने समझी’ शैली में इस्तेमाल किया जाता है। इस भाषा में अभी साहित्य सृजन ज्यादा नहीं हुआ है ( हुआ हो तो बताएं)। क्योंकि इस भाषा का सौंदर्यशास्त्र अभी तय होना है। कई लोगों को यह कोड लैंग्वेज जैसी भी प्रतीत हो सकती है। यानी शब्दों के संक्षिप्त रूप धड़ल्ले से प्रयोग किए जा रहे हैं, नए रूप गढ़े भी जा रहे हैं, लेकिन उनका अर्थ पारंपरिक ही हो यह आवश्यक नहीं है। अलबत्ता जैसे-जैसे अल्फा जेनरेशन वयस्क होती जाएगी, उसकी अपनी भाषा में साहित्य सृजन  भी सामने आएगा। तब पुरानी पीढ़ी उसे कितना समझ पाएगी, यह कहना मुश्किल है।  

जहां तक मिलेनियल जनरेशन की बात है तो यह पीढ़ी पुरानी और नई पीढ़ी के संधिकाल में पली बढ़ी है, इसलिए इसे हिंदी का संस्कार अपने पूर्वजों की भाषा से विरासत में मिला हुआ है तथा उस विरासत में इस पीढ़ी ने अपनी सृजन शैली का तड़का लगाया है। इसलिए इस पीढ़ी की भाषा का तेवर पूर्ववर्तियों  की तुलना में अलग, ज्यादा संवेदनशील और जमीनी लगता है। बावजूद इसके इस पीढ़ी की भाषा पर प्रौद्योगिकी और इंटरनेट का (दु) ष्प्रभाव बहुत कम है।

इसमें अलग लिखने और दिखने की चाह तो है, लेकिन परंपरा से हटने का बहुत अधिक आग्रह नहीं है। मिलेनियल  जनरेशन अब अधेड़ावस्था में है और 20 सदी के संस्कारों और 21वीं सदी के नवाग्रहों के बीच अपना रचनात्मक और अभिव्यक्तिगत संतुलन बनाए रखने में विश्वास करती है।          

अब देखें कि मनोज मुंतशिर ने जो वाक्य प्रयोग किए हैं, क्या वो सचमुच आज के उस समाज की भाषा है, जो सभ्यता के दायरे में आते हैं। वैसे मनोज मुंतशिर कोई महान गीतकार या लेखक हैं भी नहीं। उन्हें कुछ पुरस्कार जरूर मिले हैं, लेकिन उनका लिखा कोई गीत कालजयी हो और लोगों के होठों पर सदा कायम रहा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। उन्होंने अपना नाम मनोज शुक्ला से ‘मुंतशिर’ सिर्फ इस वजह से कर लिया कि उन्हें यह शब्द भा गया था।
 
मुंतशिर अरबी का शब्द है और इसके मानी हैं अस्त-व्यस्त अथवा बिखरा हुआ। ‘आदिपुरूष’ के विवादित संवादों में मनोज का ‘मुंतशिर’ चरित्र ही ज्यादा उजागर हुआ लगता है। वरना ‘लंका लगा देंगे’ जैसा वाक्य प्रयोग तो अल्फा जनरेशन की हिंदी में भी शायद ही होता होगा।  

वैसे भाषा में नया प्रयोग कोई गुनाह नहीं है, बशर्ते वह मूर्खतापूर्ण और अनर्थकारी न हो। कई बड़े लेखकों ने भी अपने गढ़े हुए चरित्रों को यथार्थवादी बनाने के लिए आम बोलचाल की भाषा कहलवाई है। यदा-कदा फिल्मों (ओटीटी प्लेटफॉर्म पर तो यह खूब हो रहा है) में भी शुद्ध गालियों का इस्तेमाल हुआ है। लेकिन ऐसे चरित्रों के लिए किया गया है, जो समाज के बहुत बड़े वर्ग की आस्था का विषय नहीं है, जो समाज से उठाए गए आम  मानवीय चरित्र हैं। लेकिन ‘आदिपुरूष’ के साथ तो ऐसा नहीं है। इसे बताया भले ही रामायण से प्रेरित हो, लेकिन हकीकत में यह कुछ बदले हुए रूप में ‘रामायण’ ही है। यह रामायण सदियों से लोगों के मन में इस कदर बैठी हुई है, उसके चरित्र इतने स्पष्ट तथा समाज को संदेश देने वाले हैं कि उनसे किसी भी तरह की छेड़छाड़ सामूहिक मन को विचलित करने वाली है। 

राम को आदिपुरुष कहना भी सही नहीं 
वैसे भी राम को आदिपुरुष कहना भी सही नहीं है। राम रघुवंश में जन्मे थे। और गहराई मे जाएं तो भगवान राम इक्ष्वाकु वंश के 39 वें वंशज  थे। इसलिए ‘आदिपुरूष’ कोई होंगे तो इक्ष्वाकु होंगे। राम नहीं। भारत में जनमानस में राम की छवि मर्यादा पुरूषोत्तम की है और कई आक्षेपों के बाद भी यथावत है।

मनोज मुंतशिर ने एक नया ज्ञान यह भी दिया कि हनुमान स्वयं भगवान नहीं, बल्कि राम के भक्त हैं। तकनीकी तौर पर यह बात सही हो सकती है, लेकिन निराभिमानी हनुमान ने स्वयं पराक्रमी होते हुए भी स्वामी भक्ति की उस बुलंदी की मिसाल कायम की है, जहां भक्त स्वयं भगवान की पंक्ति में बैठने का हकदार हो जाता है। जन आलोचना और बाजार के दबाव में डायलॉग बदलने को तैयार हो जाने वाले मुंतशिर इसे कभी समझ नहीं पाएंगे। वरना इस देश में साहिर लुधियानवी जैसे शायर भी हुए हैं, जो अपने गीत में एक शब्द का हेरफेर करने से भी साफ इंकार कर देते थे।

दरअसल, लेखक की रचना और शब्द संसार में कहीं न कहीं उसका अपना चरित्र भी परिलक्षित होता है। इसके लिए किसी उधार ली गई कथा का आश्रय लेना जरूरी नहीं होता। एक तर्क दिया जा सकता है कि अगर रामायण आज लिखी जाती तो उसमें संवाद किस भाषा में होते?
 
वाल्मीकि की भाषा में, तुलसी की भाषा में, रामानंद सागर की भाषा में या फिर मनोज मुंतशिर की भाषा में? ज्यादातर लोग तीसरा विकल्प चुनते, जहां आधुनिक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए आधुनिक भाषा में धार्मिक पौराणिक चरित्रों को उनकी शाश्वत मर्यादा के साथ रचा गया है, उनसे संवाद कहलवाए गए हैं। लेकिन कहीं भी फूहड़ता को आधुनिकता का जामा नहीं पहनाया गया है।

दरअसल मनोज के लिखे विवादित डायलॉग तो उससे भी घटिया हैं, जो किसी गांव में होने वाली रामलीला में कोई स्थानीय गुमनाम सा संवाद लेखक लिखता है और जिनके जरिए भी  दर्शक रामकथा से अपना सहज तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। ऐसे संवादों में अनगढ़पन हो सकता है, लेकिन फूहड़पन नहीं होता।  बहरहाल अगर बॉक्स ऑफिस की बात करें तो ‘आदिपुरूष’ का खुमार अब उतार पर है। फिल्म के इस हश्र ने साबित किया कि अब सोशल मीडिया ही बॉलीवुड फिल्मों का सबसे बड़ा नियंता है।

दूसरे, प्रयोगशीलता का अर्थ दर्शकों को हर कुछ परोसना नहीं है। इस फिल्म को लेकर राजनीति भी हुई। यहां तक दावे हुए कि ‘आदिपुरूष’ के पीछे छिपे राजनीतिक एजेंडे को हिंदूवादी संगठनों ने ही पलीता लगा दिया। और यह भी राम कथा के परिष्कार की गुंजाइश तो है, लेकिन उसे मनगढ़ंत तरीके से पेश करने की नहीं है।

(अमर उजाला डाॅट काॅम पर दि. 22 जून 2023 को प्रकाशित)

जांच एजेंसियों के रुख और विपक्षी गठबंधन के ढांचे पर बहुत कुछ निर्भर करेगा लोकसभा चुनाव:सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर नन्द लाल वर्मा

नंदलाल वर्मा (सेवानिवृत्त ए0 प्रो0)
युवराज दत्त महाविद्यालय, खीरी 
विपक्षी एकता में दलों के प्रवेश करने की कार्य योजना के साथ-साथ केंद्र सरकार की जांच एजेंसियों के सक्रिय होने और प्रवेश करने की भी प्रबल संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं।  विपक्षी दलों के गठबंधन का ढांचा और विस्तार सिर्फ विपक्षी दलों की भूमिका और आम सहमति पर ही निर्भर नहीं करेगा, बल्कि केंद्र सरकार के इशारे पर जांच एजेंसियों का रुख का असर भी उस पर पड़ता दिखेगा। आरएसएस और बीजेपी ज़ीरो रिस्क पर आगामी लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटे है और किसी भी स्तर पर कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते है। यदि विपक्षी दल चुनावी एकजुटता क़ायम करने पर काम कर रहे हैं, तो बीजेपी भी अपने गठबंधन के संभावित विस्तार और विपक्ष के यथासंभव बिखराव पर सतत रूप से गम्भीर चिंतन-मंथन करती हुई दिख रही है। यूपी में जातिगत राजनीतिक दलों विशेषकर बीएसपी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के कोर वोट बैंक के वोटिंग नेचर और उसकी राजनैतिक प्रासंगिकता को लेकर सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के सोशल साइंटिस्ट और पॉलिटिकल साइंटिस्ट अपनी -अपनी राजनीतिक प्रयोगशाला में लगातार शोध कार्य में लगे हुए हैं और आगामी लोकसभा चुनाव में संभावित चुनावी या वोटिंग पैटर्न और सोशल इंजीनियरिंग को ध्यान में रखते हुए गठबंधन से संभावित लाभ-हानि का भी अनुमान और आंकलन कर रहे होंगे।

2019 लोकसभा (सपा-बसपा गठबंधन) और 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों में मिले मतों और वोटिंग पैटर्न का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि बीएसपी के कोर वोट बैंक का वोटिंग पैटर्न दोनों चुनावों में एक जैसा प्रतीत नहीं हो रहा है, अर्थात विधानसभा चुनाव में तो वह बीएसपी के पक्ष में साफ खड़ा हुआ दिखाई देता है, लेकिन लोकसभा चुनाव में वह गठबंधन के साथ नहीं दिखाई पड़ता है। इस तथ्य की पुष्टि किसी विधानसभा में बीएसपी के कोर वोट बैंक बाहुल्य बूथों में मिले मतों की संख्या से आसानी से की जा सकती है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन के बावजूद वह सपा के साथ खड़ा हुआ नहीं दिखता है। इससे यह प्रतीत होता है कि वह एक लाभार्थी के रूप में बीजेपी के साथ चला गया है। परिणामस्वरूप बीएसपी ज़ीरो से दस सीट और सपा पांच सीट पर ही जीत हासिल कर पाई थी। लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में मिले मतों के आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन और विश्लेषण करने पर पाते हैं कि लोकसभा गठबंधन के चुनाव में बसपा का कोर वोट बैंक सपा को ट्रांसफर होता हुआ नहीं दिखता है। उसके कारण जो मैं समझ पा रहा हूँ कि उसमें सरकार की मुफ़्त राशन और किसान सम्मान निधि प्रमुखता से प्रभावी रूप से घटक दिखते हैं। वहीं 2022 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी के कोर वोट बैंक बाहुल्य पॉकेट्स/क्षेत्रों में बीएसपी को यथासंभव उसका अधिकतम वोट मिलता हुआ दिखाई देता है। गत विधानसभा चुनाव में भले ही बीएसपी का एक विधायक ही जीता हो,लेकिन उसका लगभग 12 से 13 प्रतिशत ठोस वोट बैंक किसी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में दिखता है। बदलते राजनीतिक परिवेश में विपक्षी गठबंधन को मजबूती और संपूर्णता प्रदान करने के लिए बीएसपी का वोट बैंक अपरिहार्य विषय बनता दिखता है। लोकसभा चुनाव में पक्ष या विपक्ष के साथ गठबंधन की स्थिति में बीएसपी का यही वोट बैंक बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक हो जाएगा यदि उसकी ट्रांस्फेरॉबिलिटी की विश्वसनीयता की गारंटी हो जाए।

राजनीतिक विश्लेषकों और एकेडमिक चर्चाओं से जो निष्कर्ष निकलकर बाहर आ रहे हैं, उनसे सभी राजनीतिक दलों को गम्भीरता से समझना और सबक लेना होगा। बीएसपी सुप्रीमो की चुनावी चुप्पी या तटस्थता के निहितार्थ को विपक्ष और सत्ता पक्ष के लोग अपनी-अपनी राजनीतिक गणित और वोटर्स के व्यावहारिक-व्यावसायिक दर्शन और दृष्टिकोण से समझने के प्रयास कर रहे होंगे। फिलहाल,समाजवादी पार्टी अपने पिछले लोकसभा चुनाव में बीएसपी के साथ हुए गठबंधन में बहुजन समाज पार्टी के कोर वोट बैंक के वोटिंग नेचर/ पैटर्न/व्यवहार को अच्छी तरह समझ रही है जिसका परीक्षण आए चुनावी परिणामों से किया जा सकता है। समाजवादी पार्टी को आभास होने के साथ पुष्टि भी हो चुकी है कि पिछले लोकसभा चुनाव के साथ हुए गठबंधन में बीएसपी का कोर वोट बैंक का पैटर्न विधान सभा चुनाव 2022 से बिल्कुल मेल खाता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए समाजवादी पार्टी विपक्षी एकता या गठबंधन में बहुजन समाज पार्टी की भूमिका को लेकर ज़्यादा चिंतित या विचलित होती नहीं दिख रही है। यूपी में कांग्रेस की चुनावी ज़मीन की हकीक़त किसी से छुपी नहीं है। लोकसभा चुनाव में अकेले उसकी कोई बड़ी भूमिका की उम्मीद भी नहीं की जा रही है,लेकिन राहुल गांधी की संसद सदस्यता जाने और भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के विकल्प के रूप में राजनीतिक क्षितिज पर स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई है। बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति और पूर्वोक्त दोनों घटनाओं ने राजनीतिक वातावरण को काफी हद तक प्रभावित जरूर किया है। बादलते राजनीतिक घटनाक्रम की वजह से मुस्लिम समुदाय के वोट बैंक के व्यवहार के बदलाव से राजनीतिक माहौल बहुत कुछ बदलने के कयास लगाए जा रहे हैं। चूंकि समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा और विधान सभा चुनाव में मिले वोट प्रतिशत के आधार पर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। इसी वोट बैंक की मजबूती के बल पर वह यह अन्य विपक्षी दलों के सामने यह प्रस्ताव रखने का राजनैतिक साहस जुटाती नज़र आ रही है कि जो दल सत्तारूढ़ बीजेपी को हटाना या हराना चाहते हैं, उन सभी दलों को समाजवादी पार्टी को आगामी लोकसभा चुनाव में खुलकर समर्थन देना चाहिए।

राजनीतिक विश्लेषकों और एकेडमिक चर्चाओं में मुस्लिम समुदाय के कांग्रेस की ओर झुकाव की ओर संकेत दिया जा रहा है और यह बदलाव बहुत कुछ विपक्षी गठबंधन के ढांचे पर निर्भर करेगा। यदि यूपी में विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस और सपा ही शामिल होते हैं तो बीएसपी के कोर वोट बैंक का झुकाव इसी गठबंधन की ओर जा सकता है। कांग्रेस,बसपा और सपा के अलग-अलग रहने से मुस्लिम समुदाय के वोट बैंक के सामने ठोस निर्णय लेने की एक बड़ी असमंजसपूर्ण स्थिति पैदा होने से इनकार नहीं किया जा सकता है, जिसका सीधा लाभ सत्तारूढ़ गठबंधन को मिलता हुआ दिखाई देता नज़र आएगा। जितना मुस्लिम समुदाय का वोट बैंक बिखरने की स्थितियां पैदा होंगी,उतना बीजेपी गठबंधन मजबूत होता दिखाई देगा।

आगामी लोकसभा चुनाव में पुरानी पेंशन योजना की बहाली को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के कई करोड़ कर्मचारियों और उनके परिवारों की बड़ी भूमिका को इग्नोर नहीं किया जा सकता है। कई राज्य सरकारों द्वारा पुरानी पेंशन योजना की बहाली की घोषणा के बावजूद केंद्र सरकार की अड़ंगेबाजी की वजह से धरातल पर लागू नहीं हो पा रही हैं। इसलिए सरकारी कर्मचारी यह अच्छी तरह समझ रहे हैं कि जब तक केंद्र में गैर बीजेपी या विपक्षी गठबंधन की सरकार नहीं बनती है, तब तक केंद्र और राज्यों में पुरानी पेंशन योजना की व्यावहारिक बहाली सम्भव नहीं है, चाहें किसी भी स्तर पर कितना भी व्यापक आंदोलन और विरोध-प्रदर्शन क्यों न कर लिया जाए,क्योंकि जिस पार्टी के शासनकाल में पुरानी पेंशन योजना बंद हुई, उसी पार्टी को अपने ही शासनकाल में उसकी बहाली करना किसानों के तीन कानून वापस लेने की तरह थूककर चाटने जैसी स्थिति से गुजरना होगा। वर्तमान सत्तारूढ़ दल अपमान के इस घूँट को कैसे पी और सह पाएगी? पेंशन भोगी कर्मचारियों में एक और संशय घर करता हुआ दिखाई दे रहा है कि केंद्र सरकार और बीजेपी शासित राज्यों की सरकारें वर्तमान में मिल रही पुरानी पेंशन योजना को भी बंद कर सकती है या संशोधन कर उसे कम कर सकती है। विपक्षी दलों के गठबंधन को वर्तमान कर्मचारियों और पेंशनभोगियों की स्थिति का राजनैतिक लाभ लेने के लिये चुनावी माहौल में हर सम्भव प्रयास करने में किसी तरह की चूक या देरी नहीं करनी चाहिए। किसानों की एमएसपी की कानूनी गारंटी , जातिगत जनगणना और अंतरराष्ट्रीय महिला पहलवानों के साथ एक बीजेपी सांसद और कुश्ती संघ के अध्यक्ष द्वारा की गई अश्लील हरकतें और उससे उपजे आंदोलन जैसे मुद्दे आगामी लोकसभा चुनाव में प्रमुखता से उठाना विपक्षी दलों के लिए लाभकारी सिद्ध हो सकते है।

Monday, June 05, 2023

बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति की काट,सिर्फ डाइवर्सिटी और सामाजिक न्याय की विस्तारवादी राजनीति-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

*दो टूक*
नंदलाल वर्मा (सेवानिवृत्त ए0 प्रो0)
युवराज दत्त महाविद्यालय, खीरी 
कर्नाटक चुनाव के परिणामों को राजनीतिक गलियारों में मोदी सरकार की विदाई के संदेश के रूप में लिया जा रहा है। ऐसा अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों द्वारा माना जा रहा है,लेकिन इससे सहमत होने के बावजूद इस चुनाव से दो और महत्वपूर्ण संदेश निकलते हुए दिखाई देते हैं। पहला यह है कि बीजेपी नफ़रत की राजनीति किसी भी दशा  में छोड़ने या कम करने से बाज नहीं आ सकती है। आरएसएस से निकली बीजेपी की प्राणवायु धार्मिक विद्वेष का प्रचार-प्रसार ही है। बीजेपी राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के रास्ते से सत्ता में आई और उसने केंद्र से लेकर कई राज्यों के चुनावों में नफरत फैलाकर ही सफलता और सत्ता हासिल की है। बस,बीच-बीच में वह "सबका साथ- सबका विकास" का तड़का ज़रूर लगाती हुई देखी गयी है,लेकिन उसका ज्यादातर फ़ोकस साम्प्रदायिक नफ़रती राजनीति पर ही रहा है। राम जन्मभूमि आंदोलन के समय से ही गुलामी के प्रतीकों की दुहाई देना, विशेषकर मुस्लिम प्रतीकों से मुक्ति के नाम पर भावनात्मक नफ़रत फैलाकर चुनाव जीतती रही है। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो चुनावी रैलियों में 80 बनाम 20 का खुल्लमखुल्ला बिगुल बजाते हुए देश के सबसे बड़े राज्य के हारे हुए चुनाव को जीत में बदल दिया। बीजेपी ने सत्ता हासिल करने के बाद देश के कोने-कोने में स्थित मुस्लिम गुलामी के प्रतीकों (मस्जिदों) की एक सूची तक जारी कर डाली है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के साथ आरएसएस और बीजेपी वाराणसी मे स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी हुई ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में स्थित श्रीकृष्ण जन्मभूमि से जुड़े मुद्दों को " अयोध्या तो झांकी है,काशी - मथुरा बाकी है " पहले से ही सामाजिक स्तर पर और चुनावों में उठाती रही है। हिंदुत्व के एजेंडे को मजबूती देने के उद्देश्य से आरएसएस और बीजेपी ऐसे साम्प्रदायिक मुद्दों से दूर होना नही चाहती है।

बहुजन बुद्धिजीवियों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बीजेपी की साम्प्रदायिक चुनावी राजनीति की काट सिर्फ डाइवर्सिटी और सामाजिक न्याय की राजनीति का विस्तार ही हो सकती है। विपक्षी दलों की एकता और चुनावों में सामाजिक न्याय की पिच पर केंद्रित हो जाने से बीजेपी कोई चुनाव जीत नहीं सकती है। इसलिए विपक्षी दलों के लिए एकजुट होकर सामाजिक न्याय के दायरे के विस्तार के लिए जातिगत जनगणना के लिए व्यापक जनांदोलन करना बहुत जरूरी लगता है। चुनावी रैलियों में एक खास संदेश यह जाना चाहिए कि सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों और ठेकों सहित विकास की सारी योजनाओं में एससी-एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय को कम से कम 85% आरक्षण मिलना चाहिए। ऐसी घोषणा का संदेश दूरगामी राजनीति पर प्रभाव डालेगा। विपक्षी दलों को यह एलान कर देना चाहिए कि 2024 के चुनाव में एससी-एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय को अपने वोट से कमंडल की राजनीति के बैनर को फ़ाड़ना होगा। आगामी चुनाव मंडल बनाम कमंडल पर केंद्रित होकर जातिगत जनगणना कराए जाने तथा बामसेफ और डीएस-4 से होते हुए बीएसपी के संस्थापक कांशीराम के मूल मंत्र " जिसकी जितनी संख्या भारी- उसकी उतनी भागीदारी " में छुपे सामाजिक - राजनीतिक संदेश को मजबूती के साथ बुलंद करने की जरूरत है। सामाजिक न्याय के विस्तार का यह नारा बीजेपी के राजनीतिक मनशूबों पर पानी फेर सकता है, अर्थात बीजेपी की चुनावी राजनीति का आंकड़ा बिगाड़ा जा सकता है। 90 प्रतिशत पिछड़ों पर 10 प्रतिशत अगड़ों का राज अब नहीं चलना चाहिए। पिछड़ों को अपने पुरखों के अपमान का बदला राजनीति के माध्यम से सत्ता हासिल कर लेना होगा। सामाजिक न्याय के विस्तार से बीजेपी की नफ़रती राजनीति काफी हद तक ध्वस्त हो सकती है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के संविधान समीक्षा के बिहार में दिए गए चुनावी वक्तव्य की भी याद दिलानी होगी। सामाजिक न्याय के मुद्दे पर बीजेपी को कई राज्यों के चुनाव में करारी शिकस्त मिल चुकी है,जिसका सीधा असर 2015 में बिहार (लालू प्रसाद यादव : मंडल की बनेगा कमंडल की काट) और 2023 में कांग्रेस द्वारा कर्नाटक चुनावों में सामाजिक न्याय और राहुल गांधी की राजनीति " नफ़रत की बाज़ार में मोहब्बत की दुकान " पर केंद्रित होंने से यह सिद्ध हो चुका है कि सामाजिक न्याय और सौहार्द्र पर केंद्रित राजनीति से ही सत्तारूढ़ दल की नफ़रत की राजनीति को परास्त किया जा सकता है। धर्मनिरपेक्ष विपक्षी दलों को सुर में सुर मिलाकर सरकार के सवर्ण वर्ग के ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) आरक्षण को आधार बनाकर एससी-एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय के सामाजिक न्याय के विस्तार की राजनीति पर केंद्रित होने की जरूरत है, अन्यथा 2024 के चुनाव में बीजेपी को सत्ता हासिल करने से फिर रोकना आसान नहीं होगा।

बहरहाल, अधिकांश राजनीतिक बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों का मानना है कि चूंकि बीजेपी मुस्लिम विरोधी नफ़रती बयान के बिना कोई चुनाव जीत नही सकती है। इसलिए अभी हाल सम्पन्न हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त से सबक लेते हुए 2024 में हेट पॉलिटिक्स को और अधिक ऊंचाई देने से बाज नही आएगी। आगामी लोकसभा चुनाव के लिए सामाजिक न्याय की नई पिच तैयार करने के लिए दो काम किये जा सकते हैं। पहला, एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए सरकारी और निजी क्षेत्रों में आरक्षण 50% से 85% तक विस्तार करने की घोषणा होनी चाहिए। दूसरा काम यह करना होगा कि सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों में सप्लाई,डीलरशिप,ठेका,आउटसोर्सिंग जॉब आदि धनोपार्जन की सभी गतिविधियों तक सामाजिक न्याय के दायरे को बढ़ाने की घोषणा करना होगा। कांग्रेस के राहुल गांधी ने जिस तरह बीजेपी की नफ़रती राजनीतिक सत्ता के खिलाफ मोहब्बत की बात करते हुए भारत जोड़ो यात्रा की है, ठीक उसी तर्ज पर सम्पूर्ण विपक्षी दलों को कुछ वैसा ही सामाजिक - राजनीतिक भारतमय उपक्रम करना होगा। सामाजिक-राजनीतिक बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों का मानना है कि इसके लिए " जिसकी जितनी संख्या भारी,उसकी उतनी भागीदारी" का सामाजिक-राजनीतिक संदेश देते हुए एक विशाल जनअभियान चलाया जाए तो आगामी चुनाव सामाजिक न्याय की विस्तारवादी सोच पर केंद्रित हो सकता है जो आरएसएस और बीजेपी की नफ़रती राजनीति की सबसे बड़ी काट साबित हो सकती है और सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक हिंदुत्ववादी साधु - संतों के नफ़रती गैंगों और सवर्ण मानसिकता वाली गोदी मीडिया की ताकत के प्रभाव को कम या ध्वस्त किया जा सकता है।

Friday, May 26, 2023

सत्ता खोने के डर से वर्तमान लोकसभा अपने निर्धारित कार्यकाल से पहले भंग होने की आशंका-नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)

राजनैतिक मुद्दा

नंदलाल वर्मा (सेवानिवृत्त ए0 प्रो0)
युवराज दत्त महाविद्यालय, खीरी 
बड़ी-बड़ी चुनावी प्रलोभनकारी लोक कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा के बाद वर्तमान लोकसभा अपने निर्धारित कार्यकाल से पहले भंग हो सकती है,ऐसी सम्भावना राजनीतिक पंडितों द्वारा व्यक्त की जा रही है। पेट्रोल-डीजल-घरेलू गैस के दामों में भारी कटौती के साथ किसान सम्मान निधि में बढ़ोतरी,सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन योजना की बहाली और कोरोना महामारी मे स्थगित की गई महंगाई भत्ते (डी ए) की तीन किश्तों की अवशेष राशि के भुगतान की घोषणा कर भोली भाली जनता को एक बार फिर चुनावी फंदे में फंसाने का षडयंत्र रचने की चर्चा जोर पकड़ रही है। मुफ़्त राशन, शौचालय,किसान सम्मान निधि और उज्ज्वला योजनाओं की तरह अन्य नई प्रलोभनकारी योजनाओं की अनवरत खोज और उनकी घोषणा पर बीजेपी और आरएसएस में गहन मंथन चल रहा है जिनके बल पर 2024 में राजनीतिक किले को एक बार फिर फतह किया जा सके। नगर निकायों में आशानुकूल सफलता न मिलने से घबराई बीजेपी-आरएसएस ने एक राजनीतिक रणनीति के तहत अपने पांव गांवों में पसारना शुरू कर दिये हैं। शहरी क्षेत्रों अर्थात नगरों को बीजेपी-आरएसएस का गढ़ माना जाता रहा है और वहीं हाल में सम्पन्न हुए नगर निकाय चुनावों में वह बुरी तरह बिखरी और बंटी हुई नज़र आयी जिसकी वजह से बुरी तरह परास्त होती नज़र आई है जिसकी वज़ह से बीजेपी-आरएसएस और उनके आनुषंगिक संगठन मिशन 2024 को लेकर बुरी तरह चिंतित और सशंकित नज़र आ रहे हैं। राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिल रही लगातार हार,पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक द्वारा पुलवामा कांड पर मोदी की सारी कलाकारी का धुंआ उड़ाना, किसान आंदोलन खत्म करने पर किसान संगठनों से किये वादों पर केंद्र सरकार की वादाखिलाफी, कांग्रेस की राजनीति और सत्ता के प्रति जनता का पुनर्स्थापित होता विश्वास और विपक्षी एकता की संभावना से कई आगामी राज्य विधानसभा चुनावों के संभावित नतीजों से बीजेपी-आरएसएस पूरी तरह सशंकित और भयभीत है। इसलिए आगामी कुछ राज्य विधानसभा चुनावों के साथ या अक्टूबर/नवंबर में लोकसभा चुनाव कराने पर बीजेपी-आरएसएस में चल रहे मंथन से इनकार नहीं किया जा सकता है। 

लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी शासित राज्यों की सरकार और संगठनों में विशेषकर यूपी में फेरबदल किये जाने की सूचनाएं आ रही हैं। लोकसभा चुनाव के दृष्टिगत आरएसएस की गोपनीय रिपोर्ट/सिफारिश पर यूपी में बीजेपी संगठन और सरकार में ओबीसी और एससी वर्ग को क्षेत्रीय आधार पर ज्यादा तरजीह दी जा सकती है। विपक्षी एकता से घबराई मोदी सरकार विपक्ष के बड़े और प्रभावशाली नेताओं पर लोकसभा चुनाव से पहले सरकारी जांच एजेंसियों के माध्यम से नकेल कसने की कोई कोर कसर न छोड़ने की भी सम्भावना व्यक्त की जा रही है। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर वर्तमान राजनीतिक सत्ता प्रमुख मोदी के तानाशाही और अहंकारी चरित्र का परिचय उनके हर निर्णय में नज़र आ रहा है। चुनी हुई लोकतांत्रिक दिल्ली सरकार के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के खिलाफ लाया गया अध्यादेश और नई संसद भवन-सेंट्रल विस्टा के शिलान्यास से लेकर उद्धघाटन तक संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति को नज़रअंदाज़ कर आमंत्रित तक न करना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तानाशाही और अहंकारी रवैये का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है? संविधान के अनुच्छेद 79 में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि संसद से आशय: राष्ट्रपति और दोनों सदन (लोकसभा और राज्यसभा) होता है और उसी संसद के शिलान्यास से लेकर उद्धघाटन में संसद के ही एक अभिन्न अंग राष्ट्रपति की अनुपस्थिति या पीएम मोदी द्वारा उनको आमन्त्रित न करना लोकतंत्र का मंदिर कही जाने वाली संसद की घोर अवमानना है। संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू के अपमान को बहुजन समाज विशेषकर दलित समाज आगामी विधान सभा और लोकसभा चुनावों में वोट करते समय याद रखेगा। सेंट्रल विस्टा के शिलान्यास से लेकर उद्धघाटन तक दलित राष्ट्रपति की लगातार उपेक्षा से अब उसके उद्धघाटन समारोह पर सत्ता पक्ष और विपक्ष में जंग जारी है और देश के प्रथम संवैधानिक नागरिक राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में विपक्षी दलों के प्रमुखों द्वारा उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने की लगातार घोषणाएं की जा रही हैं।

राष्ट्रपति का वर्णव्यवस्था के सबसे नीचे पायदान पर स्थित एक जाति/वर्ण विशेष से ताल्लुक होने की वजह से मोदी द्वारा लोकतंत्र के सबसे बड़े और पवित्र मंदिर नए संसद भवन के शिलान्यास और उद्धघाटन जैसे समारोहों से दूरी बनाए रखने की मंशा के पीछे हिन्दू धार्मिक मंदिरों की तरह संसद के भी अपवित्र और अपशकुन होने की मानसिकता से इनकार नहीं किया जा सकता है। हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना और वकालत करने वाले सावरकर की जयंती पर उद्धघाटन और शिलान्यास - उद्धघाटन समारोहों में दोनों दलित राष्ट्रपतियों की सहभागिता न कराना आरएसएस नियंत्रित और संचालित मोदी नेतृत्व बीजेपी सरकार की वर्ण व्यवस्था के परिमार्जित रूप की स्थापना की मंशा की ओर संकेत से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। 

जंतर-मंतर पर धरना दे रहे अंतराष्ट्रीय ख्यातिलब्ध पहलवानों और उनका साथ दे रहे सामाजिक-राजनीतिक और किसान संगठनों के लोगों ने नई संसद भवन के उद्धघाटन के मौके पर संसद भवन की ओर कूच करने की घोषणा कर दी है जिससे इस जनांदोलन की एक नई दिशा और दशा तय हो सकती है। आत्ममुग्धता में डूबे मोदी की तानाशाही और वर्णवादी मानसिकता वाली सरकार संविधान और लोकतंत्र की सारी हदें पार करती हुई नज़र आ रही है। अंग्रेजों से माफी मांगने वाले संविधान विरोधी सावरकर की जन्म तिथि 28 मई को होने वाले नए संसद भवन के उद्धघाटन समारोह में यदि महामहिम राष्ट्रपति मुर्मू को शामिल नहीं किया जाता है तो भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में यह घटना काले अक्षरों में " राष्ट्रीय शर्म " के दिवस के रूप में दर्ज हो जाएगी। छपास और दिखास रोग (फोटोफोबिया) से भयंकर रूप से पीड़ित पीएम नरेंद्र मोदी का तानाशाही चरित्र और रवैया पूरी तरह खुलकर सामने आ चुका है और इसी चरित्र के चलते संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल्यों और मर्यादाओं की लगातार अवहेलना की राजनीतिक कीमत मोदी और केंद्र सरकार को आगामी विधान सभा और लोकसभा चुनावों में चुकानी पड़ सकती हैं। 

Wednesday, May 24, 2023

मैं गुनाहगार हूं- अखिलेश कुमार अरुण

कविता
अखिलेश कुमार 'अरुण' 
ग्राम- हज़रतपुर जिला-लखीमपुर खीरी 
मोबाईल-8127698147


मैं गुनाहगार हूं-
तुम्हारे सपनों का,
एक मौका तो दो-
अपनी बेगुनाही साबित करने का
क़ातिल हूं तो क्या हुआ?
पेशेवर कातिल तो नहीं,
हालातों ने मुझे क़ातिल बनाया
लोगों ने मेरे सपने को साकार करने में-
तुम्हारे सपनों का क़त्ल करवाया।
मैं अपराधी उस अपराध का हूं-
जिसका हमसे दूर तलक सम्बन्ध नहीं।
पिस रहा हूं मैं, पिसना तुमको भी पड़ रहा है।
सफ़र में साथ एक क़दम तुम्हारा मिले तो रुख़ हवाओं का मोड़ दूं
मैं गुनाहगार हूं-
तुम्हारे सपनों का।

Friday, May 12, 2023

उचक्के-अखिलेश कुमार 'अरुण'


(लघुकथा)

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम हजरतपुर परगना मगदापुर
जिला लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 8127698147

    मैं अपने घर से निकली ही थी कि बाईक सवार दो उचक्के एक राह चलती महिला के दाहिने हाथ की कान की बाली पर हाथ साफ़ कर गए थे। दौड़कर उस महिला के पास पहुंची जो मारे दर्द के चीख-चिल्ला रही थी, कान की लोर लहूलुहान थी। देखते-ही देखते 10-१२ लोग जमा हो चुके थे जितने मुहँ उतनी बातें. बहन, जी सोने के कुंडल थे क्या?

    भर्राए गले से बोली नहीं नहीं भईया, इस महंगाई के ज़माने में ....आर्टिफीसियल ज्वेलरी पहनने को मिल जाए यही बहुत है।

    भीड़ से किसी ने कहा, अपराधी तो दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं

    पीड़ित महिला बोल पड़ी,गलती उनकी नहीं है, मेरे भी तीन बेटे हैं, पूरा जीवन पेट काट-काट कर उनको पढ़ाया कि दो-चार पैसे के आदमी बन जायेंगे, बड़ा बेटा 30 वर्ष का होने को आया है....खाली पड़ा रहता है...समाज-परिवार से अलग-थलग, यह भी होंगे उन जैसे बच्चों में से कोई एक?

    सब लोग जा चुके थे मेरे भी दो बेटे हैं, बड़े ने दो साल पहले एम०टेक० पास  किया है और दुसरे ने इस साल पालीटेक्निक.......?

बुर्का-मिन्नी मिश्र

             
लघुकथा (मैथिली)
 कथाकार- सुरेश सौरभ, उत्तर प्रदेश की रचना "हिजाब" का मैथिली अनुवादित संस्करण है



सीओ सिटी विनोद सिंह बहुत चिंता में निमग्न बैसल छलाह , तखने हुनकर सोझा में सब इंस्पेक्टर  मनीषा शाक्य जय हिन्द करैत प्रकट भेलिह |

“ जय हिन्द आउ-आउ !मनीषा जी बैसु -बैसु , विनोद सिंह सोझा में राखल कुर्सी के तरफ बैसबाक इशारा केलथि |

मनीषा हुनकर माथ पर परल चिंता के लकीर के पढैत बजलिह - कि बात अछि सर, बहुत चिंतित लागि रहल छी ?
विनोद सिंह गंभीर स्वर में बजलाह-कि बताउ  लगैत अछि सभटा इंसानियत मरि रहल अछि | शिकायत आएल अछि जे रमावती कॉलेज के आस-पास लूच्चा सभ लड़की सबके के एनाइ-जेनाइ दूभर कय देने छै |अहाँ त लूच्चा के सबक सिखएबाक लेल काफी मशहूर छी, आब अहीं किछु करू |

मनीषा - अहाँ चिंता जुनि करू  | आइये लूच्चा के किछू इंतजाम करैत छी |

करीब एक घंटा बाद रमावती कॉलेज के सोझा सादा पोशाक में बुर्का पहिरने एकटा कन्या  सुकुमारि चालि सं चलल जा रहल छलिह  | ओकर पाछाँ- पाँछा किछु लूच्चा टोन कसइत  चलइत जा रहल छल | तखने ओ कन्या अचानक एकदम सं पलटि कऽ मुड़लिह, तुरंत अपन बुर्का के हटेलथि आ आग्नेय नेत्र सं ओ लूच्चा के देखय लगलिह,  सबटा लूच्चा हुनकर रोबदार तमसायल चेहरा देखि कऽ फुर्र ...|

मिन्नी मिश्र
पटना, बिहार

Friday, April 14, 2023

बाबा साहब के सपनों का भारत और हम, हमारा उत्तरदायित्व-अखिलेश कुमार ’अरूण’

 

   जयन्ती विशेष   

आज हम बाबा साहब की 132 वीं जयंती मनाने जा रहे हैं। उनकी पहली जयंती और आज की जयंती में काफी अंतर देखने को मिलता है। आज से कुछ वर्ष पहले बाबा साहब की जयंती को मनाने वाला उनका अपना समाज था किन्तु आज सर्वसमाज उनकी जयंती को मनाता है, वर्तमान परिदृश्य में बाबा साहब का राजनीतिक ध्रुवीयकरण कर दिया गया है जो वोट बैंक में तब्दील हो चुके हैं। उनके सिद्धांत, शिक्षा, उपदेश सब राजनीति के आगे धूमिल होते जा रहें हैं। बाबा साहब को एक वर्ग विशेष से सम्बन्धित नहीं किया जाना चाहिए, उनको सभी मानें और मनाऐं क्योंकि उन्होंने भारत जैसे विशाल विभिन्नताओं वाले देश का संविधान लिखने में महती भूमिका निभाई है। इसलिए प्रत्येक भारतवाशी उनका कर्जदार है परन्तु यह कहाँ शोभा देता है कि जयंती बाबा साहब की मनाये और उन्ही के सिध्दान्तों, शिक्षाओं आदि को ताक़ पर रख दिया जाए।

 

बाबा साहब डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर सामाजिक रूप से अत्यन्त निम्न समझे जाने वाले वर्ग में जन्म लेकर भी जो ऊँचाई उन्होने प्राप्त की यह बात हम सबके लिये अत्यन्त प्रेरणादायी है। जो कार्य भगवान बुध्द ने 2500 वर्ष पूर्व शुरू किया था जिसके कर्णधार रहे संत रैदास, कबीर, ज्योतिबा फुले आदि, वही कार्य बड़ी लगन ईमानदारी व कड़ी मेहनत और विरोधियों का सामना करते हुये बाबा साहब दलित-अतिदलित,महिला-पुरूषों के लिये किए हैं। बाबा साहब नया भारत चाहते थे जिसमें स्वतंत्रता समता और बन्धुत्व हो जो हमें संविधान के रूप दिया, वह चाहते थे कि जब एक भारतीय दूसरे भारतीय से मिले तो वे उनको अपने भाई-बहन के समान देखें, एक नागरिक दूसरे के लिये प्रेम और मैत्री महसूस करे लेकिन भारतीय समाज में कुछ हद तक सुधर हुआ है किन्तु जिस भारत और भारतियों की कल्पना की गयी थी उसके विपरीत स्वतंत्रता, समता और बधुंत्व जो संविधान में लिखा है इसे राजनीति के बड़े-बड़े घाघ नेता  आज भी दलित-अतिदलित लोगों तक पहुँचने नहीं देते। जाति विहीन समाज की स्थापना के बिना स्वतंत्रता, समता और बधुंत्व का कोई महत्व नहीं है। बाबा साहब ने कहा था, “निःसंदेह हमारा संविधान कागज पर अश्पृश्यता को समाप्त कर देगा किन्तु यह 100 वर्ष तक भारत में वायरस के रूप में बना रहेगा। और आज हम संविधान लागू किये जाने से लेकर 73 वर्ष के बूढ़े भारत में निवास कर रहे हैं जहाँ हिन्दू-मुस्लिम, उंच-नीच, स्वर्ण-दलित, अतिदलित की राजनीति से ऊपर नहीं उठ सके हैं

 

यदि हिन्दू धर्म अछूतों का धर्म है तो उसको सामाजिक समानता का धर्म बनना होगा चर्तुवर्ण के सिध्दान्तों को समाप्त करना होगा चर्तुवर्ण और जाति भेद दलितों के आत्म सम्मान के विरूध्द हैं। उक्त कथन के साथ बाबा साहब हिन्दू धर्म में बने रहने के लिए जीवन के अंतिम समय तक प्रयासरत रहे किन्तु हिन्दू धर्म के ठेकेदारों ने ऐसा नहीं होने दिया परिणामतः बाबा साहब ने 24 अक्टूबर 1956 को अपने लाखो अनुयायियों की संख्या मे बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिए, अतः आज जिन लोगों कि जन-आन्दोलन में रूचि है उन्हे केवल धार्मिक दृष्टिकोण अपनाना छोड़ देना चाहिये तथा उन्हें सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण अपनाकर सामाजिक और आर्थिक पुर्ननिमार्ण के लिये अमूल्य परिवर्तन वादी कार्यक्रम पर जोर देना चाहिए बिना इसके दलित-अतिदलित लोगों की दसा में सुधार लाया जाना संभव नहीं है।

 

विश्व के महान विद्वानों की श्रेणी में अग्रणी बाबा साहब अम्बेडकर की यह युक्ति ‘‘सभी समस्याओं से मुक्ति का मार्ग राजनीतिक कुंजी है।’’ यथार्त सत्य है, जिसे प्राप्त करने के लिए पूरे जीवन संघर्षरत रहे। अपने समाज को हक दिलाने के लिए अपने परिवार को काल के मुंह मे ढकेल कर समाज के हक की लड़ाई लड़ते रहे। यह अधिकार, एकमात्र मत का अधिकार न होकर राजनैतिक अधिकार है जिसके बल पर किसी एक परिवार की नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में रह रहे उन सभी व्यक्तियों की अस्मिता का आधार है चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति, धर्म को मानने वाला हो। कोई एक देश ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के इतिहास को बदलने की ताकत रखता है। 24 जनवरी 1950 को संविधान पर अन्तिम रूप से आत्मार्पित हस्ताक्षर करते हुये बाबा साहब ने कहा था कि मैने आज रानी के पेट का आपरेशन कर दिया आज के बाद कोई राजा पैदा नहीं होगा। परन्तु दुःख इस बात का है कि इक्का-दुक्का को छोड़ दें तो वर्तमान राजनीति परिवारवाद के चलते उसी लीक पर जा चुकी है। जिसकी सम्पूर्ण जिम्मोदारी हम सब की है क्योंकि हम अपने मत के अधिकार का दुर्पयोग करते चले जा रहे हैं और एक के बाद परिवारवाद की राजनीति को बढ़ावा देकर वंशानुगत राजनीति का समर्थन कर रहे हैं । उत्तर प्रदेश के 2022  की राजनीति में परिवारवाद की राजनीति का भी असर रहा है, संसद और विधायक के बेटे-बेटियों को सत्ता सौंपते जा रहे हैं

दलितों-अतिदालितों और पिछड़ों के लिए बाबा साहब अपने शोधपत्रों-पत्रिकाओं, लेखों, सभा-संगोष्ठियों में जहाँ कहीं, जब भी मौका मिलता तब उनकी उक्ति गर्जते सिंह की गर्जना की भाँति गगन में प्रतिध्वनित हो उठती, ‘‘जाओ लिख दो तुम अपनी दीवारों पर कि हम इस देश की शासक जातियाँ हैं, हम उसी कौम के वंशज है जिसके समय में यह देश सोने कि चिड़िया कहलाता था।’’ वे सम्पूर्ण समस्याओं के समाधान की कुंजी पर एकाधिकार प्राप्त करने के लिये शिक्षित बनो, शिक्षित करो और संगठित रहो के नारा पर बल देते हुये कहते हैं कि तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का कल्याण इसी में है। अपने आत्म-सम्मान की जिन्दगी को जी सकोगे अन्यथा कि स्थिति में उस चैराहे पर खड़े भीखमंग्गे की तरह पूरे जीवन अपने अधिकारों की भीख मांगते रहोगे। राजनीतिक सत्ता का हस्तान्तरण होता रहेगा, सरकारें आती और जाती रहेंगी। तुम्हारी सुध तो दूर तुम पर कोई थूकेगा नहीं। बहुत नेकदिली किसी सरकार की सत्ता हुई भी तो तरस खाकर एक-आध धेला (आपका हक) फेंक देगा उससे क्या होने वाला  इससे अच्छा तो मौत को गले लगा लो गुलामों की जिन्दगी जिने से बेहतर है मरजाना।

उनका यह क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन 19वीं सदी के दूसरे दसक के मध्य से 6 वें दसक के मध्य, जीवन के अन्तिम क्षण 06 दिसम्बर 1956 तक चलता रहा फिर शनैः-शनैः खेल शुरू हुआ, लोकतांत्रिक शासन के आने पर राजनैतिक रोटी सेंकने का, पार्टियाँ आती-जाती रहीं। अपने हिसाब से वंचितों का शोषण जारी रहा। वोट का अधिकार मिला किन्तु उसका सही प्रयोग वंचितवर्ग आज तक नहीं कर सका। कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर। अलगाववाद, भ्रष्टाचार, दारू-मुर्गा और सब कुछ फ्री का चाहिए परिश्रम न करना पड़े आदि के नाम पर वोट देते रहे है । और उसी में अपने लोगों का मान-सम्मान खुशी तलाशते रहे और यह आज भी बदस्तूर जारी है। वंचितवर्ग कितना भी पढ़-लिख गया हो किन्तु मानसिक गुलामी और संकीर्णता का शिकार बना हुआ है।

शिक्षित बनों के नाम पर अधकचरे शिक्षा तक सिमित हो रह गए हैं, आज सामान्य परिवार के लोग अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पा रहे है क्योंकि शिक्षा का निजीकरण एक बड़ा अभिशाप है जहाँ शिक्षा इतनी महँगी हो गयी है और वहीँ दूसरी तरफ लोग-मंदिर मस्जिद की ओर दौड़ रहे हैं, कापी-किताबों से विमुख होते जा रहे भविष्य में आने वाली यह वर्तमान खेप देखिये क्या गुल खिलाती है, शांत मन से हम चिंतन करें तो पाएंगे कि जाति-धर्म के नाम पर संकुचित मानसिकता के युवा जो धर्म की राजनीति के शिकार हो चुके हैं वह आने वाले भारत के कल (भविष्य) को नफरत के सिवाय और कुछ नहीं दे सकते। वर्तमान भारत देश के लोकतान्त्रिक शक्ति का दुरपयोग देश के सत्ता धारी दल पुरे मनोयोग से कर रहे हैं उनके ऐजेण्डे से देश का विकास और लोगों की समस्या गायब है।

बाबा साहब की जयंती भी आज केवल और केवल वोट की राजनिति बनकर रह गयी है, बाबा साहब के जन्मदिवस पर वास्तव में हम भारतवासी उनके सिधान्तों और शिक्षाओं का सच्चे मन से संकल्प ले लें तो बदलते भारत की तस्वीर विश्व की इकलौती तस्वीर होगी जो हमें एक अलग पहचान दिला सकती है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हम और हमारी राजनीति हिंन्दू-मुस्लिम, असहिष्णुता, दलित कार्ड से ऊपर ही नहीं उठ पा रही है और यह तब-तक चलता रहेगा जब-तक भारत का हर एक नागरिक चाहे वह सवर्ण हो, अवर्ण (शूद्र) हो अपनी समाज और देश के प्रति जिम्मेदारी का अहसास नहीं करते तब तक बाबा साहब के सपनों के भारत का निर्माण असम्भव है, इसलिए हमें आज नहीं तो कल इस बात की प्रतिज्ञा लेनी होगी कि बाबा साहब के सपनों के भारत का निर्माण हमारी प्राथमिकताओं में से एक है और उसके निर्माण का हम आज संकल्प लेते हैं।

-अखिलेश कुमार अरूण
शिक्षा-{एल0एल0बी0, एम00 (राजनीति विज्ञान, प्रा0भा0 इतिहास, इतिहास, शिक्षाशास्त्र, हिंदी), एम0एड0, नेट(शिक्षाशास्त्र, राजनीति विज्ञानं}
मो0नं0-8127698147
ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर,
जिला-लखीमपुर खीरी उ0प्र0 262804
रचनात्मक उपलब्धि-समय-समय पर देश के  प्रतिष्टित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में गद्य व पद्य रचनाएं प्रकाशित होती रही हैंतथा दो  साझा काव्य (उजास और बाल-किलकारी) और एक लघुकथा संग्रह प्रकाशित हैं।

 

Thursday, April 13, 2023

शोषितों- वंचितों के लिए निर्भीकता की मिसाल-मसाल और विद्यार्थियों के लिए बेमिसाल आदर्श/प्रेरक व्यक्तित्व हैं,डॉ.बी.आर.आंबेडकर-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

महापुरुषों के आदर्श से साभार
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

           डॉ.भीम राव आंबेडकर एक ऐसे प्रेरणास्रोत हैं जो हर निराश,हताश और परेशान व्यक्ति की सामाजिक,धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति का मार्ग तैयार और आजीवन संघर्ष करते हुए दिखाई देते हैं। डॉ.आंबेडकर को यदि 20 वीं सदी का महानतम व्यक्ति की संज्ञा दी जाए तो अतिशयोक्ति नही होगी। जय भीम भी जय हिंद की तरह ही एक ऐसा नारा या उदघोष है जो हर वंचित- शोषित व्यक्ति के अंदर सतत संघर्ष के लिए एक अद्भुत असीम ऊर्जा और शक्ति का संचार करता है। भीषण विषम सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों और दुश्वारियों से गुजर कर उन्होंने जो मुकाम हासिल किया है,वह दुनिया की इतिहास में एक अमिट छाप है। उनके जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो भी पढेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी।
           हाथ में नीला झंडा लेकर जय भीम बोलने,नीला कपड़ा पहनने या मूंछ ऐंठने से कोई आंबेडकरवादी नही बन जाता है। आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा। जय भीम का नारा तभी बुलंद और सार्थक होगा जब बहुजन समाज के लोग आंबेडकर जी की वैचारिकी या दर्शन को व्यावहारिक जीवन में अर्थात आचरण में उतारेंगे। डॉ.भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा के सामने दीपक,मोमबत्ती और अगरबत्ती जलाकर केवल उनका उपासक ही नहीं बनना है, बल्कि उनकी विचारधारा का संवाहक भी बनना है अर्थात उनकी वैचारिकी को पूरी शिद्दत से खड़ा करना है। आंबेडकर जी खुद कहा करते थे कि मैं मूर्तियों और प्रतिमाओं में नहीं ,बल्कि क़िताबों में रहता हूँ। इसलिए आंबेडकरवादी बनने के लिए हर इंसान को उनकी वैचारिकी-दर्शन को पढ़कर आत्मसात करना होगा। बहुजनों को डॉ.आंबेडकर जी सवर्णों के सिर पर बैठने का ऐसा अद्भुत सिद्धांत या हथियार (संविधान और सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण व्यवस्था) देकर गए हैं जिसकी अकूत ताकत के साथ वह शान से सिर उठाकर चल सकता है। वह कहते थे "शिक्षा शेरनी का वह दूध है जिसे जो पिएगा वह दहाड़ेगा।" दलित समाज आज भी घोड़ी,बारात और चारपाई पर बैठने तक सिमटा और लड़ता हुआ दिखाई देता है। ऐसा वही कहते हैं जो दलित अशिक्षित और अज्ञानी हैं। डॉ आंबेडकर के बताए रास्ते पर चलकर ब्राह्मण जैसा बनने का प्रयास तो कीजिए। फिर देखिए आपको सिर पर बैठाने के लिए लोग लाइन लगाकर दिखेंगे।

            विद्यार्थी जीवन में जिस भीमराव को क्लास के बाहर बैठा दिया जाता था। वह बालक फिर भी किसी भी प्रकार की ग्लानि या अपमान महसूस न करते हुए अपने ज्ञान अर्जन के मार्ग पर पूरी हिम्मत और शिद्दत से चलता चला जाता है। कोलंबिया और लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसी दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं में एक साधारण परिवार का एक असाधारण बालक स्वयं को एक सच्चा विद्यार्थी/शोधार्थी सिद्ध करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है। आज उन्हें पूरी दुनिया में ज्ञान के प्रतीक अर्थात सिंबल ऑफ नॉलेज की संज्ञा से नवाज़ा जाता है। डॉ.आंबेडकर की शैक्षणिक ज्ञान की वजह से ही डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी -दर्शन को कोलंबिया विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल कर वहां के छात्रों को पढ़ाया और उन पर शोध कराया जा रहा है और हमारे देश में डॉ. आंबेडकर का बहुआयामी साहित्य और दर्शन लंबे समय तक आम लोगों के पास पहुंचने तक नही दिया गया। बहुजन समाज से निकले अन्य समाज सुधारकों और विचारकों की तरह डॉ.आंबेडकर को भी इतिहास के पन्नों में जानबूझकर इसलिए दबाए रखा गया जिससे देश का वंचित,शोषित और अशिक्षित एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग में सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक चेतना का संचार न हो सके। 
           सामाजिक छुआछूत के कारण डॉ.आंबेडकर को जिस समाज ने क्लास के बाहर बैठने के लिए मजबूर किया, उन्होंने उसी के बीच या उसके सिर पर बैठकर अपने अकूत ज्ञान की बदौलत पूरी निर्भीकता के साथ ऐसा संविधान रच दिया जिसमें कहीं भी किसी भी स्तर पर रंचमात्र भेदभाव,प्रतिक्रिया या बदले की भावना नहीं झलकती है। डॉ आंबेडकर बहुजन समाज को संविधान रूपी ऐसा मजबूत हथियार दे गए हैं जिसके बल पर वह बेधड़क बोल सकता है। वह अपने सामाजिक, राजनीतिक और अन्य हक लेने के साथ उनके लिए कानूनी और लोकतांत्रिक लड़ाई भी लड़ सकता है। डॉ.आंबेडकर की आज की हैसियत का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की विभिन्न पार्टियों के बैनर-पोस्टर-भाषण डॉ.आंबेडकर के नाम और चित्र के बिना अधूरे से लगते हैं। आज के दौर में राजनीतिक सत्ता के क्षितिज या कैनवस पर डॉ.आंबेडकर को इग्नोर करना असंभव सा हो गया है। यथास्थितिवादी सोच की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों के भी राजनीतिक आयोजन आंबेडकर के चित्रों से अछूते नही हैं। वर्तमान दौर की राजनीति में डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी या दर्शन एक अपरिहार्य विषय बन चुका है। देश के हर नागरिक को डॉ.की सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के मोटे-मोटे सिद्धांतों को जरूर पढ़ना चाहिए। आज के वैज्ञानिक और आर्थिक युग में यह दुर्भाग्य का विषय है कि समाज मे सोशल साइंस के विषय लेकर अध्ययन और शोध करने  वाले छात्र-छात्राओं का कमतर मूल्यांकन किया जा रहा है। आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर समाज का एक ऐसा भी वर्ग है जो यह कहता है कि आंबेडकर ने हमारी जिंदगी बर्बाद कर दी और दूसरा वर्ग गर्व से सीना ऊंचाकर कर जय भीम का उदघोष करते हुए शान से कहता है कि डॉ.आंबेडकर हमारे भगवान हैं, मसीहा हैं और मुक्तिदाता हैं। सामाजिक व्यवस्था के दो छोरों पर बैठे लोगों की इस सोच के भारी अंतर से डॉ.आंबेडकर की सार्थकता और प्रासंगिकता का सहज आभास किया जा सकता है। अंत में, हर परेशान और निराश इंसान के मसीहा डॉ.आंबेडकर की अक्षुण्ण स्मृतियों को सादर नमन!

मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए का परिष्कृत रूप मिले मौर्या और अखिलेश,उभर न जाये और क्लेश-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  राजनैतिक मुद्दा   

"बीएसपी के लावारिस पड़े 10-12% को अपने पाले में डॉ.आंबेडकर के नाम पर खींच सकती है,उसकी दलील शायद यह दी जा रही है कि अब बसपा सुप्रीमो राजनीतिक रूप से निष्क्रिय होकर नेपथ्य में जा चुकी हैं। मृग तृष्णा की तरह यह उनकी भूल है, क्योंकि राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धजीवियों का मानना है कि बदलते राजनीतिक परिवेश या प्रतिकूल राजनीतिक घटनाक्रम की आशंका वश यह आधार वोट बैंक शांत जरूर दिखता है, लेकिन लावारिस तो कतई नहीं कहा जा सकता है और न ही फ़िलहाल,उभरती वैकल्पिक दलित राजनीति में शिफ्ट होती दिख रही है।"
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
         वर्ष 1993 में सपा और बसपा गठबंधन की राजनीति को नई धार देने की नीयत से बसपा ने एक नारे को जन्म दिया था। यह नारा राजनीतिक रूप से इतना सफल रहा था कि गठबंधन सत्ता की कुर्सी तक जा पहुंचा था,किंतु अल्पायु में ही वह बुरी तरह राजनीतिक रूप से तितर बितर हो गया था जिसके परिणामस्वरूप बहुजन समाज दो धड़ों में बंट गया था और तब से यह बँटबारा 2007 तक अनवरत रूप से जारी रहा। एक धड़ा अनुसूचित जाति और अतिपिछड़ी जातियों का बना और दूसरा धड़ा शेष पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय की एकजुटता लेकर उभरा। 2007 में बहुजन समाज पार्टी सामाजिक समीकरण साधकर अकेले बहुमत के बल पर पांच साल तक यूपी सरकार चलाने में सफल रही,लेकिन सामाजिक विसंगतियों के पनपने से 2012 आते आते सामाजिक संगति के चलते सपा सत्तारूढ़ पार्टी पर भारी पड़ गया। भारी पड़ने के बहुत से सामाजिक और राजनीतिक बिंदु हैं। 2017 के चुनाव में राम मंदिर की लहर के चलते सामाजिक न्याय की लड़ाई के नाम पर उभरे दोनों दल सामाजिक-राजनीतिक बिखराव के चलते चुनावी जमीन पर बुरी तरह विफल रहे। 2022 के चुनाव में सपा ने अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन की कुछ सीमा तक भरपाई कर ली,लेकिन बसपा लगभग शून्य की अवस्था में चली गयी।

          2024 में लोकसभा चुनाव होना है, इसलिए सभी राजनीतिक दल कई तरह की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक कसरते करने में कोई कोर कसर नही छोड़ना चाहते हैं, भले ही उनकी किसी एक कसरत से राजनीतिक सेहत पर बुरा असर पड़ जाए, इस ओर उनका ध्यान कतई नहीं है। अयोध्या में बन रहे राम मंदिर का जनवरी2024 यानि लोकसभा चुनाव के सन्निकट उद्घाटन या जनता को समर्पित करने की बीजेपी की चुनावी राजनीति की योजना की बहुत पहले घोषणा हो चुकी है। बीजेपी के लिए राम मंदिर या हिंदुत्व का मुद्दा बेहद मुफ़ीद साबित हुआ है। अर्थात बीजेपी धर्म या हिंदुत्व की पिच पर खेलने और जीतने में अपने को सर्वाधिक सेफ और कम्फर्ट जोन में मानकर चलती हैं, क्योंकि देश का ओबीसी हिंदुत्व या धर्म के नाम पर अपनी असली राजनीतिक पहचान बहुत जल्दी भूल जाता है। ओबीसी हिंदुत्व का सबसे मजबूत और बड़ा संवाहक माना जाता है।

          इधर हाल में, धार्मिक ग्रंथ राम चरित मानस की कुछ सामाजिक रूप से अपमान करती चौपाइयों और प्रसंगों पर बिहार की राजनीतिक धरती से उठी चिनगारी धीरे धीरे युपी की राजनीतिक धरती पर भी उसकी राजनीतिक आग की गर्माहट देखने को मिल रही है। बिहार के एक मंत्री के मुंह से निकली यह चिंगारी सपा के एक नेता के मुंह मे ऐसी घुसी कि उसके निकलने और उसकी लौ का असर थमने का नाम नहीं ले रही है। राजनीतिक फायदे की नीयत से इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए सपा नेता ने अपने कॉलेज में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की आदमकद की मूर्ति स्थापित कर उसका उद्घाटन और अनावरण सपा अध्यक्ष से कराकर बीएसपी के आधार वोट बैंक में सेंध लगाने का एक अप्रत्याशित राजनीतिक उपक्रम कर डाला जिसमे 1993 में हुए गठबंधन के राजनीतिक नारे का पूरी ऊर्जा के साथ जबरदस्त उदघोष हुआ जिसके राजनीतिक गलियारों में तरह तरह के निहतार्थ निकाले जा रहे हैं। कुछ लोगों का विश्लेषण है कि कभी बसपा में लंबे अरसे तक रहे सपा नेता मान रहे हैं कि बीएसपी के लावारिस पड़े 10-12% को अपने पाले में डॉ.आंबेडकर के नाम पर खींच सकती है,उसकी दलील शायद यह दी जा रही है कि अब बसपा सुप्रीमो राजनीतिक रूप से निष्क्रिय होकर नेपथ्य में जा चुकी हैं। मृग तृष्णा की तरह यह उनकी भूल है, क्योंकि राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धजीवियों का मानना है कि बदलते राजनीतिक परिवेश या प्रतिकूल राजनीतिक घटनाक्रम की आशंका वश यह आधार वोट बैंक शांत जरूर दिखता है, लेकिन लावारिस तो कतई नहीं कहा जा सकता है और न ही फ़िलहाल,उभरती वैकल्पिक दलित राजनीति में शिफ्ट होती दिख रही है। दलित चिंतकों का मानना है कि बीएसपी के शांत पड़े मजबूत वोट बैंक को लावारिस समझना एक बड़ी राजनीतिक नासमझी  सिद्ध हो सकती है। सपा नेता द्वारा लगभग 30 साल पुराना नारा लगाए जाने पर बसपा सुप्रीमो ने ट्विटर के माध्यम से कड़ी आपत्ति जताई  है। उधर बीजेपी और उसके कुछ धार्मिक हिन्दू संगठनों द्वारा सपा नेता पर एफआईआर दर्ज कर क़ानूनी कार्रवाई किये जाने की चर्चा जोरों पर है। नारे पर मचे बवाल पर सपा अध्यक्ष शायद यह समझकर चुप्पी साधे हों कि मौर्य के नारे से जितना दलितों से राजनीतिक लाभ मिल सकता है,वह मिल जाने दिया जाय। सामाजिक न्याय के चिंतकों का यह भी मानना है कि सपा के लिए मौर्या एसेट के बजाय कहीं लाइबिलिटी न बन जाये जिसको चुकाने में सपा को भारी कीमत चुकानी पड़े!

             2024 की राजनीति के दृष्टिगत विपक्षी दलों को धार्मिक ग्रंथों,हिंदुत्व और श्री राम से जुड़े मुद्दों,प्रतीकों और स्थलों पर पूरी तरह चुप्पी साधने का वक्त और समझदारी है,क्योंकि इस तरह के सारे बिंदु बीजेपी के लिए बेहद मुफ़ीद साबित होते देखे गए हैं। सामाजिक न्याय, बेरोजगारी, निजीकरण से सिकुड़ते आरक्षण और उसके फलस्वरूप धीमी/कमजोर होती डॉ.आंबेडकर की सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा और प्रक्रिया,शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था, किसानों की एमएसपी की गारंटी, भ्रष्टाचार, पीएम के 2014 के चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान लगातार कही गई झूठी बातों, आवारा पशुओं से  अनवरत हो रही आम आदमी की  जान-माल की हानि, मीडिया और संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका और ईडब्ल्यूएस आरक्षण से उपजे सामाजिक और राजनैतिक सवालों जैसे कालेलकर आयोग और मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर ओबीसी के राजनीतिक आरक्षण और एससी-एसटी के अधूरे राजनीतिक आरक्षण के साथ प्रोमोशन में आरक्षण और ओबीसी की उसकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण सीमा बढ़ाने, 69000 प्राथमिक शिक्षक भर्ती में अथाह आरक्षण घोटाला, पुरानी पेंशन योजना(ओपीएस)की बहाली और जाति आधारित जनगणना के मुद्दों पर सड़क से लेकर सदन तक एकजुट होकर लड़ने की जरूरत है।
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प्रो.नन्द लाल वर्मा........9415461224......लखीमपुर-खीरी।

Tuesday, April 11, 2023

समसामयिक मुद्दों पर रंग बिखेरती सौरभ की "बेरंग"-नृपेन्द्र अभिषेक नृप

 पुस्तक समीक्षा

हिन्दी साहित्य की दुनिया में अपनी पहचान बना चुके बहुमुखी प्रतिभा के धनी लखीमपुर खीरी निवासी, सुरेश सौरभ जी की कलम लघुकथाओं के साथ-साथ कविताओं, कहानियों और व्यंग्य लेखन में भी काफ़ी लोकप्रिय हो रही है। सुरेश जी अक्सर समसामयिक मुद्दों पर लिखते ही रहते हैं और देश के प्रसिद्ध समाचार पत्रों में छपते रहते हैं। उनकी रचनाएं यथार्थ का सच्चा आईना होती हैं, जो समाज के वंचित तबकों के लिए हक और हुकूक की वकालत करतीं रहतीं हैं।
       हाल ही में सुरेश सौरभ का लघुकथा संग्रह "बेरंग" प्रकाशित हो कर चर्चित हो रहा है, जिसमें उन्होंने समसामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर लघुकथाओं को संग्रहीत किया है। समाज में निरंतर पनप रही बुराइयों का भी उन्होंने सुंदर शब्दांकन किया है। लेखक ने पुस्तक में सरल एवं ओजस्वी भाषा शैली प्रस्तुत की है। संदेशप्रद लघुकथाओं के‌ इस संग्रह में कुल 78 लघुकथाएं संग्रहीत है।
      पुस्तक का नामकरण संग्रह की लघुकथा 'बेरंग' पर किया गया है, जिसमें लेखक ने हिंदुओं के प्रसिद्ध त्यौहार होली को विषय बनाया है। इस लघुकथा में लेखक ने होली के बहाने, महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहारों को मनौवैज्ञानिक ढंग से दर्शाया है।वे लिखते हैं. 'होली एक समरसता का त्योहार है। प्रेम और धार्मिक सौहार्द को बढ़ाता है।... कुछ आवारा शोहदों ने इसे बिलकुल घिनौना बना दिया है।... ऐसे होली को बेरंग करने वाले कथित लोगों से बचने की वे सीख देते हैं। सजग करते हैं।
    'बौरा' लघुकथा में लेखक ने एक मूक बधिर की प्रेम कथा को लिखा है, जिसमें वह अपनी प्रेमिका से मिलते हुए पकड़ा जाता है। समाज प्रेमिका को निर्दोष मान कर छोड़ देता है लेकिन बौरा जो कि मूक बधिर था, अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं बोल सकता था, उसे जेल भेज दिया जाता है। उन्होंने इस लघुकथा में समाज की दोहरी मानसिकता को दिखाया है, जिसमें समाज प्रेम का दुश्मन बन बैठा है और उसकी नजर में प्रेमी युगल में, एक दोषी तो दूसरा निर्दोष दिख जाता हैं।
      एक बेटी को शादी के बाद ससुराल जाना पड़ता है और सारी जिंदगी वहीं रहना पड़ता है, अपने माँ और पिता से बहुत दूर। इस विषय पर सुरेश जी ने ' पीड़ाओं के पक्षी' लघुकथा लिखी है। एक छोटी सी बच्ची को जब पता चलता है कि उसे बड़ी होकर ससुराल जाना पड़ेगा, तो वो रोने लगती है। समाज के बनाये इस रस्म-रीति से वह अंजान है, छोटी बेटी को इसमें कुछ भी, ठीक नहीं लग रहा है क्योंकि जो बेटी अपने माँ-बाप की गोद में खेल कर बड़ी होती है, उसे एक दिन उनसे ही बिछड़ कर जाना पड़ता है। यह कथा मार्मिक है जो बेटी के प्रति मां-बाप के प्रेम और करूणा को दर्शाती है।
      आज का मानव अपने अहम की लड़ाई में एक-दूसरे के देशों पर हमला करने से बाज नहीं आता है। रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले को, विषय बना कर लिखी गई लघुकथा 'कुत्ते कीव के' में लेखक ने दो कुत्तों के वार्तालाप के माध्यम से कीव की अव्यवथा को दिखाया है। इसके अलावा लघुकथा 'रूस लौट न सके' में भी एक पक्षी को ले कर यूक्रेन के लोगों के कराहते जीवन को लेखक ने बरीकी से बयां किया है। वे लघुकथा 'युद्ध नहीं बुद्ध' के द्वारा शांति का संदेश देते हैं, तो वहीं लघुकथा 'बारूद की भूख ' में बम के धमाके से चीख़ते मजबूर प्रवासी लोगों के आँसूओं को  दर्शाते हैं। 
       इस पुस्तक में समाज के  सामाजिक, साम्प्रदायिक एवं बाह्य आडम्बरों पर लेखक ने गहरी चोटें कीं है।'कर्मकांड',  तेरा-मेरा मजहब' , 'बेकारी' , 'भरी जेब' , 'अनकहे आँसू' , 'ठेकेदारों का ठिकाना' जैसी लघुकथाओं के माध्यम से सुरेश जी ने समाज की विविधताओं भरे जीवन को  बेहतरीन ढंग  से लिखा है। लघुकथाओं में भाषा शैली और विषय की विविधताओं ने पुस्तक में चार चाँद लगा दिए है, जो कि  पाठकों को पढ़ने के लिए उत्सुक कर रही है। उन्हें लुभा रही है। वास्तव में यह पुस्तक गागर में सागर भर रही है, जिसमें 78 लघुकथाओं ने संग्रह 'बेरंग' में विविध रंग बिखेरें हैं।

समीक्षक : नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक : बेरंग
लेखक: सुरेश सौरभ
प्रकाशक: श्वेत वर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 200 रुपये।
मो- 99558 18270

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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