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Monday, June 26, 2023

जांच एजेंसियों के रुख और विपक्षी गठबंधन के ढांचे पर बहुत कुछ निर्भर करेगा लोकसभा चुनाव:सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर नन्द लाल वर्मा

नंदलाल वर्मा (सेवानिवृत्त ए0 प्रो0)
युवराज दत्त महाविद्यालय, खीरी 
विपक्षी एकता में दलों के प्रवेश करने की कार्य योजना के साथ-साथ केंद्र सरकार की जांच एजेंसियों के सक्रिय होने और प्रवेश करने की भी प्रबल संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं।  विपक्षी दलों के गठबंधन का ढांचा और विस्तार सिर्फ विपक्षी दलों की भूमिका और आम सहमति पर ही निर्भर नहीं करेगा, बल्कि केंद्र सरकार के इशारे पर जांच एजेंसियों का रुख का असर भी उस पर पड़ता दिखेगा। आरएसएस और बीजेपी ज़ीरो रिस्क पर आगामी लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटे है और किसी भी स्तर पर कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते है। यदि विपक्षी दल चुनावी एकजुटता क़ायम करने पर काम कर रहे हैं, तो बीजेपी भी अपने गठबंधन के संभावित विस्तार और विपक्ष के यथासंभव बिखराव पर सतत रूप से गम्भीर चिंतन-मंथन करती हुई दिख रही है। यूपी में जातिगत राजनीतिक दलों विशेषकर बीएसपी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के कोर वोट बैंक के वोटिंग नेचर और उसकी राजनैतिक प्रासंगिकता को लेकर सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के सोशल साइंटिस्ट और पॉलिटिकल साइंटिस्ट अपनी -अपनी राजनीतिक प्रयोगशाला में लगातार शोध कार्य में लगे हुए हैं और आगामी लोकसभा चुनाव में संभावित चुनावी या वोटिंग पैटर्न और सोशल इंजीनियरिंग को ध्यान में रखते हुए गठबंधन से संभावित लाभ-हानि का भी अनुमान और आंकलन कर रहे होंगे।

2019 लोकसभा (सपा-बसपा गठबंधन) और 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों में मिले मतों और वोटिंग पैटर्न का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि बीएसपी के कोर वोट बैंक का वोटिंग पैटर्न दोनों चुनावों में एक जैसा प्रतीत नहीं हो रहा है, अर्थात विधानसभा चुनाव में तो वह बीएसपी के पक्ष में साफ खड़ा हुआ दिखाई देता है, लेकिन लोकसभा चुनाव में वह गठबंधन के साथ नहीं दिखाई पड़ता है। इस तथ्य की पुष्टि किसी विधानसभा में बीएसपी के कोर वोट बैंक बाहुल्य बूथों में मिले मतों की संख्या से आसानी से की जा सकती है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन के बावजूद वह सपा के साथ खड़ा हुआ नहीं दिखता है। इससे यह प्रतीत होता है कि वह एक लाभार्थी के रूप में बीजेपी के साथ चला गया है। परिणामस्वरूप बीएसपी ज़ीरो से दस सीट और सपा पांच सीट पर ही जीत हासिल कर पाई थी। लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में मिले मतों के आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन और विश्लेषण करने पर पाते हैं कि लोकसभा गठबंधन के चुनाव में बसपा का कोर वोट बैंक सपा को ट्रांसफर होता हुआ नहीं दिखता है। उसके कारण जो मैं समझ पा रहा हूँ कि उसमें सरकार की मुफ़्त राशन और किसान सम्मान निधि प्रमुखता से प्रभावी रूप से घटक दिखते हैं। वहीं 2022 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी के कोर वोट बैंक बाहुल्य पॉकेट्स/क्षेत्रों में बीएसपी को यथासंभव उसका अधिकतम वोट मिलता हुआ दिखाई देता है। गत विधानसभा चुनाव में भले ही बीएसपी का एक विधायक ही जीता हो,लेकिन उसका लगभग 12 से 13 प्रतिशत ठोस वोट बैंक किसी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में दिखता है। बदलते राजनीतिक परिवेश में विपक्षी गठबंधन को मजबूती और संपूर्णता प्रदान करने के लिए बीएसपी का वोट बैंक अपरिहार्य विषय बनता दिखता है। लोकसभा चुनाव में पक्ष या विपक्ष के साथ गठबंधन की स्थिति में बीएसपी का यही वोट बैंक बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक हो जाएगा यदि उसकी ट्रांस्फेरॉबिलिटी की विश्वसनीयता की गारंटी हो जाए।

राजनीतिक विश्लेषकों और एकेडमिक चर्चाओं से जो निष्कर्ष निकलकर बाहर आ रहे हैं, उनसे सभी राजनीतिक दलों को गम्भीरता से समझना और सबक लेना होगा। बीएसपी सुप्रीमो की चुनावी चुप्पी या तटस्थता के निहितार्थ को विपक्ष और सत्ता पक्ष के लोग अपनी-अपनी राजनीतिक गणित और वोटर्स के व्यावहारिक-व्यावसायिक दर्शन और दृष्टिकोण से समझने के प्रयास कर रहे होंगे। फिलहाल,समाजवादी पार्टी अपने पिछले लोकसभा चुनाव में बीएसपी के साथ हुए गठबंधन में बहुजन समाज पार्टी के कोर वोट बैंक के वोटिंग नेचर/ पैटर्न/व्यवहार को अच्छी तरह समझ रही है जिसका परीक्षण आए चुनावी परिणामों से किया जा सकता है। समाजवादी पार्टी को आभास होने के साथ पुष्टि भी हो चुकी है कि पिछले लोकसभा चुनाव के साथ हुए गठबंधन में बीएसपी का कोर वोट बैंक का पैटर्न विधान सभा चुनाव 2022 से बिल्कुल मेल खाता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए समाजवादी पार्टी विपक्षी एकता या गठबंधन में बहुजन समाज पार्टी की भूमिका को लेकर ज़्यादा चिंतित या विचलित होती नहीं दिख रही है। यूपी में कांग्रेस की चुनावी ज़मीन की हकीक़त किसी से छुपी नहीं है। लोकसभा चुनाव में अकेले उसकी कोई बड़ी भूमिका की उम्मीद भी नहीं की जा रही है,लेकिन राहुल गांधी की संसद सदस्यता जाने और भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के विकल्प के रूप में राजनीतिक क्षितिज पर स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई है। बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति और पूर्वोक्त दोनों घटनाओं ने राजनीतिक वातावरण को काफी हद तक प्रभावित जरूर किया है। बादलते राजनीतिक घटनाक्रम की वजह से मुस्लिम समुदाय के वोट बैंक के व्यवहार के बदलाव से राजनीतिक माहौल बहुत कुछ बदलने के कयास लगाए जा रहे हैं। चूंकि समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा और विधान सभा चुनाव में मिले वोट प्रतिशत के आधार पर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। इसी वोट बैंक की मजबूती के बल पर वह यह अन्य विपक्षी दलों के सामने यह प्रस्ताव रखने का राजनैतिक साहस जुटाती नज़र आ रही है कि जो दल सत्तारूढ़ बीजेपी को हटाना या हराना चाहते हैं, उन सभी दलों को समाजवादी पार्टी को आगामी लोकसभा चुनाव में खुलकर समर्थन देना चाहिए।

राजनीतिक विश्लेषकों और एकेडमिक चर्चाओं में मुस्लिम समुदाय के कांग्रेस की ओर झुकाव की ओर संकेत दिया जा रहा है और यह बदलाव बहुत कुछ विपक्षी गठबंधन के ढांचे पर निर्भर करेगा। यदि यूपी में विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस और सपा ही शामिल होते हैं तो बीएसपी के कोर वोट बैंक का झुकाव इसी गठबंधन की ओर जा सकता है। कांग्रेस,बसपा और सपा के अलग-अलग रहने से मुस्लिम समुदाय के वोट बैंक के सामने ठोस निर्णय लेने की एक बड़ी असमंजसपूर्ण स्थिति पैदा होने से इनकार नहीं किया जा सकता है, जिसका सीधा लाभ सत्तारूढ़ गठबंधन को मिलता हुआ दिखाई देता नज़र आएगा। जितना मुस्लिम समुदाय का वोट बैंक बिखरने की स्थितियां पैदा होंगी,उतना बीजेपी गठबंधन मजबूत होता दिखाई देगा।

आगामी लोकसभा चुनाव में पुरानी पेंशन योजना की बहाली को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के कई करोड़ कर्मचारियों और उनके परिवारों की बड़ी भूमिका को इग्नोर नहीं किया जा सकता है। कई राज्य सरकारों द्वारा पुरानी पेंशन योजना की बहाली की घोषणा के बावजूद केंद्र सरकार की अड़ंगेबाजी की वजह से धरातल पर लागू नहीं हो पा रही हैं। इसलिए सरकारी कर्मचारी यह अच्छी तरह समझ रहे हैं कि जब तक केंद्र में गैर बीजेपी या विपक्षी गठबंधन की सरकार नहीं बनती है, तब तक केंद्र और राज्यों में पुरानी पेंशन योजना की व्यावहारिक बहाली सम्भव नहीं है, चाहें किसी भी स्तर पर कितना भी व्यापक आंदोलन और विरोध-प्रदर्शन क्यों न कर लिया जाए,क्योंकि जिस पार्टी के शासनकाल में पुरानी पेंशन योजना बंद हुई, उसी पार्टी को अपने ही शासनकाल में उसकी बहाली करना किसानों के तीन कानून वापस लेने की तरह थूककर चाटने जैसी स्थिति से गुजरना होगा। वर्तमान सत्तारूढ़ दल अपमान के इस घूँट को कैसे पी और सह पाएगी? पेंशन भोगी कर्मचारियों में एक और संशय घर करता हुआ दिखाई दे रहा है कि केंद्र सरकार और बीजेपी शासित राज्यों की सरकारें वर्तमान में मिल रही पुरानी पेंशन योजना को भी बंद कर सकती है या संशोधन कर उसे कम कर सकती है। विपक्षी दलों के गठबंधन को वर्तमान कर्मचारियों और पेंशनभोगियों की स्थिति का राजनैतिक लाभ लेने के लिये चुनावी माहौल में हर सम्भव प्रयास करने में किसी तरह की चूक या देरी नहीं करनी चाहिए। किसानों की एमएसपी की कानूनी गारंटी , जातिगत जनगणना और अंतरराष्ट्रीय महिला पहलवानों के साथ एक बीजेपी सांसद और कुश्ती संघ के अध्यक्ष द्वारा की गई अश्लील हरकतें और उससे उपजे आंदोलन जैसे मुद्दे आगामी लोकसभा चुनाव में प्रमुखता से उठाना विपक्षी दलों के लिए लाभकारी सिद्ध हो सकते है।

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