साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Thursday, March 31, 2022

क्या काॅमेडी और कमेडियन सचमुच खतरे में है-अजय बोकिल


अजय बोकिल
दुनिया के प्रतिष्ठित 94 वें आॅस्कर अर्वाड्स समारोह में हाॅलीवुड के जाने-माने अभिनेता विल स्मिथ ने अपनी पत्नी के गंजेपन को लेकर मंच पर की गई टिप्पणी पर कमेडियन क्रिस राॅक को थप्पड़ मारने के बाद अब माफी जरूर मांग ली है। लेकिन सोशल मीडिया पर यह मुद्दा जिंदा है और इस ‘अभूतपूर्व’ वाकए’ पर फिल्म जगत दो भागों में बंट गया है। कुछ का मानना है कि स्मिथ की जगह और कोई भी होता तो वही करता जो स्मिथ ने किया तो कुछ अन्य का मानना है कि क्रिस ने जेनेट के गंजेपन पर महज मजाक किया था और उसे उसी रूप में लिया जाना चाहिए था। क्योंिक कमेडी का मकसद तंज के साथ मनोरंजन करना ही है। उसमें दुर्भावना को तलाशना सही नहीं है। इस बीच बाॅलीवुड के जाने-माने अभिनेता, पूर्व भाजपा सांसद और अच्छे कमेडियन परेश रावल ने स्मिथ-क्रिस प्रकरण पर ट्वीट किया कि आज पूरे विश्व में कमेडियन खतरे में हैं। फिर चाहे क्रिस राॅक हों या यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की। इसे कुछ और बढ़ा दें तो इनमें भारत के कमेडियन कुणाल कामरा और मुनव्वर फारूकी का नाम भी शामिल किया जा सकता है। थप्पड़ खाने वाले क्रिस तो मशहूर स्टैंड अप कमेडियन हैं। पूरे प्रकरण का निहितार्थ यही है कि अब दुनिया में मजाक करना भी खतरे से खाली नहीं रहा। लोगो की भावनाएं इतनी नाजुक और कांच के माफिक  हो गई हैं कि कब कहां, और किस वजह से किसकी भावना आहत हो जाए, कहा नहीं जा सकता। राजनीतिक, धार्मिक और नस्ली दुराग्रहों ने हंसी की उदात्त दुनिया को और तंग कर दिया है। अब तो खुद पर हंसना भी दूभर है। हालात ये हैं कि आप अगर हंसना- हंसाना भी चाहते हैं तो आपको‍ ‍िकसी एजेंडे के पोर्टल पर ही चलना होगा। वरना फांसी का फंदा आपके लिए तैयार है। 
गौरतलब है कि विल स्मिथ ने ‘किंग रिचर्ड’ में रिचर्ड विलियम्स की भूमिका के लिए अपना पहला सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ऑस्कर पुरस्कार जीता। पुरस्कार लेने जैसे ही स्मिथ मंच पर पहुंचे तो कॉमेडियन क्रिस रॉक ने उनकी पत्नी जेडा पिंकेट-स्मिथ के गंजेपन को लेकर चुटकुला सुनाया जिस पर स्मिथ भड़क गए और उन्होंने कॉमेडियन को थप्पड़ जड़ दिया।
बहुतों के मन में यह सवाल कौंध रहा है कि आॅस्कर अवाॅर्ड्स समारोह में मंच पर मौजूद क्रिस राॅक को विल स्मिथ की पत्नी के गंजेपन पर तंज करने की क्या जरूरत थी ? वो इससे बच भी सकते थे। क्योंकि विल की पत्नी जेडा पिंकेट का गंजापन की किसी दुसाध्य रोग के कारण है, शौकिया नहीं। लिहाजा यह कोई मजाक का विषय नहीं है। फिर भी क्रिस ने ये दुस्साहस क्यों किया ? किसी के जज्बात को आहत करना तो मजाक कमेडी नहीं हो सकती। हालांकि क्रिस के मजाक पर पहले तो स्मिथ ने महीन मुस्कान देकर अनदेखा करने की कोशिश की। लेकिन दूसरे ही क्षण उन्हें लगा कि यह उनकी पत्नी का अपमान है तो उनका पति धर्म जागा और उन्होंने ताड़ से क्रिस का गाल लाल कर दिया। इस हिंसक प्रतिक्रिया से भौंचक क्रिस ने कोई जवाबी कार्रवाई नहीं की। अलबत्ता यह अप्रत्याशित सीन देखकर दुनिया हैरान रह गई और विश्व भर में कमेडियनों के दुर्दिनों पर बहस शुरू हो गई। गनीमत यह रही कि इस थप्पड़ कांड में शामिल दोनो व्यक्ति अमेरिकी अश्वेत हैं, वरना यह घटना नस्ली संघर्ष का नया शोला भी बन सकती थी। 
घटना के दूसरे दिन विल स्मिथ ने अपने किए पर अफसोस करते हुए बाकायदा माफी नामे के रूप में एक चिट्ठी जारी की। उसमें उन्होंने लिखा कि ‘हिंसा किसी भी रूप में सही नहीं है। मैंने क्रिस के साथ जो किया, वह अस्वीकार्य है। मैं इसके लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगता हूं। उन्होंने यह भी कहा कि ‘प्यार आपको पागल कर देगा।‘ स्मिथ ने जो कहा उसका आशय ही था ‍िक उन्हें मंच पर ऐसा नहीं करना चाहिए था। बल्कि संयम बरतना था। उधर हर साल लाॅस एंजेल्स में आॅस्कर समारोह का आयोजन करने वाली संस्था एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसेज (एएमपीएएस) ने कहा कि अकादमी किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करती है। 
इस घटना पर अमेरिकी कमेडियन और  एक्ट्रेस कैथी ग्रिफिन ने विल स्मिथ पर निशाना साधते हुए लिखा- स्टेज पर चलते हुए जाना और कॉमेडियन को मारना, यह बहुत बुरा है। अब हमे इस बात की चिंता करना चाहिए कि कॉमेडी क्लबों और थिएटर्स में अगला विल स्मिथ कौन बनना चाहेगा? यहां असल मुद्दा काॅमेडी और कमेडियनों के वजूद पर मंडराते खतरे का है। हंसना और हंसाना मनुष्य को ईश्वर से मिली अनुपम देन है। वरना अन्य प्राणियों में तो केवल डाॅल्फिन ही हंसना जानती है और वो भी समुद्र में रहते हुए। ऐसा लगता है कि हमारे जीवन से उन्मुक्त हंसी का स्पेस खत्म होता जा रहा है। हंसने का अर्थ अब मजाक के बजाए मजाक उड़ाना या फिर प्रतिशोध भर हो ने लगा है। जबकि हंसना-गुदगुदाना समाज को स्वस्थ रखने की एक सांस्कृतिक औषधि रहती आई है। भारतीय परंपरा में भी लोक नाट्यो और प्रहसनो में एक विदूषक जरूर हुआ करता था, जो राजा से लेकर प्रजा तक और देवताअों से लेकर प्रकृति तक हर मुद्दे पर तंज किया करता था। लोग पेट पकड़कर हंसते थे। विदूषक के साहस की दाद देते और फिर सब भूल जाते थे। मजाक को मजाक की तरह ही लिया जाता था। 
अब मजाक पहले खांचो में फिट कर देखा जाता है। उसके हिसाब उसकी स्वीकार्यता अस्वीकार्यता और प्रतिक्रिया तय होती है। क्रिस ने तो विल की पत्नी पिंकेट के गंजेपन पर ही तंज किया था। लेकिन कमेडियन कई बार राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक व्यंग्य भी करते हैं। आज सबसे मुश्किल राजनीतिक- धार्मिक कमेडी करने वालो की है। उनका धंधा बंद होने की कगार पर है। वैसे भी इस तरह की कमेडी की गुंजाइश सिर्फ लोकतांत्रिक देशों होती है। धार्मिक कट्टरपंथी, तानाशाह और कठोर वामपंथी देशों में इसकी कोई जगह नहीं है। लेकिन अब लोकतांत्रिक देशों में भी मजाक को प्रतिशोध के चश्मे से ज्यादा देखा जाने लगा है। उदारता प्रति-उदारता के तराजू में तौली जाने लगी है। एक तरह से हंसना हंसाना भी रिमोट कंट्रोल से संचालित होने लगा है। हमारे ही देश में कुणाल कामरा की कमेडी में वामपंथी रूझान तलाशा गया तो मुनव्वर फारूकी के कई शो इसीलिए रद्द हो गए क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पंजाब में रद्द हुई रैली पर तंज किया था। बंगाल जैसे कुछ राज्यों में कार्टूनिस्ट भी सत्ताधीशों के निशाने पर रहे हैं। 
यूं कलाकार राजनीति में भी अपने झंडे गाड़े, ऐसा कम ही होता है। क्योंकि कला और राजनीति की संवेदनाएं अलग अलग होती हैं। उनके तकाजे और चुनौतियां भी जुदा जुदा होती हैं। राजनीतिज्ञ भले ‘कलाकार’ हों, लेकिन कलाकारों को राजनेता के रूप में कम ही स्वीकारा जाता है। इस लिहाज से यूक्रेनी जनता का स्टैंड अप कमेडियन जेलेंस्की को राष्ट्रपति चुनना असाधारण बात है। 
जेलेंस्की आक्रामक पुतिन से जिस तरह लोहा ले रहे हैं, वो भी हैरान करने वाला है। यह शायद एक कमेडियन की ‍जिजीविषा है। जेलेंस्की नाटो की शह पर यह सब कर रहे हैं या यूक्रेन की संप्रभुता के लिए लड़ रहे हैं यह बहस का विषय है, लेकिन यह सवाल मार्के का है कि क्या एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में यूक्रेन को अपनी नीति तय करने का अधिकार भी नहीं है ? यकीनन जेलेंस्की अभी जो कर रहे हैं, वो यकीनन काॅमेडी तो नहीं ही है। 
इसमें संदेह नहीं कि दुर्भावना काॅमेडी की आत्मा नहीं हो सकती। वह जज्बात को छूती हुई निकल जाती है, पर घाव नहीं करती। वो गुदगुदाती है, गला नहीं पकड़ती। सच्ची काॅमेडी इंसान को संकीर्णताअों से सेनेटाइज करती है। लेकिन सब ऐसा नहीं सोचते। उनका मानना है कि स्मिथ के हाथों थप्पड़ खाने के बाद क्रिस आइंदा किसी की भी बीवी पर तंज कसने पर दो बार सोचेंगे। भीड़ का न्याय यही कहता है। बावजूद इसके कि काॅमेडी कोई चरित्र हत्या नहीं है। विल स्मिथ ने भी पत्नी पर तंज करने वाले क्रिस को तुरंत सबक तो सिखाया, लेकिन बाद में उन्हें अहसास हुआ कि काॅमेडी का जवाब प्रति काॅमेडी तो हो सकता है, थप्पड़ नहीं हो सकता। थप्पड़ प्रकरण में भी अभिनेता स्मिथ का अफसोस जताना पति स्मिथ से आगे की पायदान पर रखता है। उन्होंने ऐसा किसी के दबाव में किया या फिर अंतरात्मा के कहने पर किया, कहना मुश्किल है। लेकिन ऐसा करके उन्होंने मानवता के उस गुण को जरूर बचा लिया है, जो मनुष्य को दूसरे प्राकणियों से अलग करता है। विवेकशीलता को प्रतिष्ठित करता है।  
वरिष्ठ संपादक 
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 31 मार्च 2022 को प्रकाशित)

Wednesday, March 30, 2022

भैया जी ने इण्टर के बाद एम.ए. किया-सुरेश सौरभ

(हास्य-व्यंग्य)  
सुरेश सौरभ

भैया जी को हल्के में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह हल्के नेता नहीं है। उनके भारी-भरकम शरीर की तरह उनका ज्ञान और विज्ञान भी बहुत भारी और भरकम है। जहां जाते हैं, बस वहीं अपनी अमिट छाप छोड़ कर चले आते हैं और चर्चा-ए-आम हो जाते हैं। बचपन में उन्होंने पहले कक्षा आठ पास किया था, बाद में लोगों के कहने पर कक्षा पांच भी पास कर लिया। मंचों पर वह अक्सर कहते थे, मैं वह एमए फर्स्ट डिवीजन पास हूं। उनकी लच्छेदार बातों पर लोगों को जब शक होने लगा, तब एक दिन विपक्षियों ने उनसे डिग्री मांगी, कहा, दिखाओ तब माने, फिर तो उन्होंने टालमटोली करनी शुरू कर दी। जब विरोधियों ने उनकी नाक में नकेल डाल कर बहुत परेशान करना शुरू किया, तो एक दिन बाकायदा उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके, अपने 'नक्षत्र विज्ञान' से एमए पास करने की डिग्री, उस समय की दिखाई जब नक्षत्र विज्ञान का कोर्स किसी विश्वविद्यालय में न था। जब इस पर, पत्रकारों ने उनसे सवाल उठाए तो वह बोले कि बस वही इतने काबिल छात्र थे जिनकी काबिलियत के दम पर फलां विश्वविद्यालय ने अकेले उनके लिए वह कोर्स चलाया था और फिर उनके कोर्स कम्पलीट करने के बाद, वह कोर्स बंद कर दिया। इसलिए उस समय वह डिग्री पाने वाले, वही एक मात्र छात्र हैं। यह भी बताया कि उन्होंने कि वह डिग्री जब हासिल की, तब इंटर के बाद डायरेक्ट एमए होता था। अब वह मंत्री पद पर रहते हुए खूब मन लगा कर, पढाई करके आगे बीए भी कर लेंगे। उनकी दूरदर्शी दृष्टि पर सभी अभिभूत हुए। आजकल वह नेता जी सत्ता की चाशनी दिन-रात चाटते हुए स्कूल कॉलेज के नौनिहालों को, युवकों को और देश की एडवाइजरी विभाग को अपने दुर्लभलतम ज्ञान से आलोकित करते हुए, अपने मन की बातों और विचारों से देश का बहुत उद्धार करने वाले सबसे टॉप क्लास के नेता बन चुकें हैं।


निर्मल नगर लखीमपुर खीरी पिन-262701
मो-7376236066

चाबी का गुच्छा-सुरेश सौरभ

    लघुकथाएं                                                                                                                                सुरेश सौरभ      
चाबी का गुच्छा

   रेंगते-रेंगते वो चाबी का गुच्छा उसकी पत्नी के पास पहुँचा। जिस पर लिखा था ‘आई लव यू मनोज।’ पत्नी ने हैरत से कहा-अरे! ये क्या?
      पति-कोंचिग की एक बच्ची ने दिया है।
      पत्नी-कैसे-कैसे बेवड़े बच्चे हैं आजकल के।
      पति-जैसे माँ-बाप होंगे वैसे बच्चे होंगे।
      पत्नी-आप तो गुरु हैं? गुरु तो पितातुल्य होता है...यह जलता सवाल पति के कलेजे पर धक्क से लगा। अब वह अपनी आँखे चुराते हुए, घर्र...ऽऽऽ..तुरन्त मोटर साइकिल स्टार्ट की...धप्प से बैठ, कालेज की ओर तेजी से चल पड़ा।
       निरुउत्तर हो, चोर आँखों से, पति को जाता देख, उसे अंदर तक सालता रहा, काफी देर तलक। अब सामने पड़ा, वह चाबी का गुच्छा उसकी आँखों में किसी किनकी सा खरक रहा था।...पर चुभन दिल में थी।

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रंगों के बहाने 

         होली एक समरसता का त्योहार है। प्रेम और धार्मिक सौहार्द को यह त्योहार बढ़ाता है।, ‘‘मम्मी! ओ मम्मी! आगे क्या लिखूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है?, अपनी नोटबुक पर निबंध लिखते हुए विवेक अधीरता से बोला, ‘‘आज ही यह होली पर निबंध पूरा करके ऑनलाइन एक कम्पीटीशन में भेजना है, पाँचवी कक्षा में पढ़ने वाला विवेक, अपनी माँ से जिद करके पूछ रहा था।
      अपने काम में लगी माँ से, जब यह सवाल विवेक ने किया, तो उसको जैसे शॉक सा लगा। बदरंग यादों के दरीचें पर्त-दर-पर्त खुलते चले गये।
       तब उसकी शादी का वह चौथा साल लगा था। उस दिन, होली का दिन था। पति कहीं काम से गये थे। सास भी कहीं गईं थीं। दो साल का विवेक अपने खेल में मस्त था। घर के काम में वह व्यस्त थी, तभी घर की कुंडी बजी। खिड़की से झांका तो रंग गुलाल से सराबोर उसके दूर के, रिश्ते के तीन देवर नमूदार हुए।. . हा.. हा.. हा.. भाभी दरवाजा खोलो.... अनुनय-विनय शुरू की...नहीं नहीं तुम्हारे भैया हैं नहीं हैं? फिर आना कभी? अरे! अरे! आप तो खामखा नाराज हो रहीं हैं। होली है, इतनी दूर से आएं हैं हम। भला आप के पैर छूए बगैर कैसे चलेे जाएँगे।...नहीं नहीं फिर आना कभी? घर में अभी  कोई नहीं है।... आप की कसम रंग बिलकुल नहीं लगाएंगे हम..बच्चों सा गिड़गिड़ाने लगे वे।
       स्त्री हृदय पिघल गया। दरवाजा खोला, चट-पट हुरियारे अंदर आ गये। हा हा हा... नहीं नहीं, देखो मैंने पहले मना किया था, रंग न लगाना, देखो रंग न लगाना बाकी सब ठीक है.. हमसे बुरा कोई न होगा.. झीनाझपटी-धींगामुश्ती शुरू हुई.. फिर एक ने दोनों हाथ पकड़े, एक ने पैर, गिरा दिया एक कमजोर चिड़िया को। फिर फिर रंग रंग रंग..। वह गिगिड़ाती रही, तड़पती रही, पैर छूने वाले, आशीर्वाद माँगने वाले, देवर अपनी भाभी के जिस्म के हर हिस्से की जबरदस्ती पैमाइश कर रहे थे. बहाना था रंग रंग रंग होली...होली... होली...
       ‘‘मम्मी! ओ मम्मी! कसके विवेक ने झिझोड़ा तो उसकी तंद्रा भंग हुई। यादों की गहरी चुभन टीस लिए वह बोली-लिखो इस समरता के त्योहार को कुछ लुच्चे लफंगे गंदा कर देते हैं। कुछ आवारा शोहदों ने इसे बिलकुल्ल घिनौना बना दिया है...इसलिए महिलाओं को होली में हुड़दंगियों  से बचना चाहिए.. विवेक निबंध पूरा करते हुए एक बारगी कनखियों से माँ को देखा। उनकी आँखों में जल की एक महीन रेखा न जाने क्यों उभरती चली आ रही थी, जिसे वह समझ पाने में अक्षम था।


-सुरेश सौरभ
निर्मलनगर लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

जल तुम्हें बचाना है-विकास कुमार

   कविता  

जीवन बचाना चाहते हों तो, इस मीठी जल को तुम्हे बचाना होगा।
खुद में सुधार लाकर हम सबको, अच्छी आदत को अपनाना होगा।।

जल को मानिए अमृत हमसब थोडा–थोडा सा करके प्रयोग करे।
वर्षा के जल को बचाकर हम जल संरक्षण का लोग उपयोग करें।।

नदियों में कूड़ा–कचरा न डाले, जल को प्रदुषित ना करना होगा।
जीवन बचाना चाहते हों तो, इस मीठी जल को तुम्हे बचाना होगा।।

नीर, वारी, तोय, सलिल कितने सारे अनेको नाम है इसके।
साधारण सा दिखता है कितने सारे महत्वपूर्ण काम है इसके।।

जल के महत्व को जो ना समझें, उसे भी एक दिन पछताना होगा।
जीवन बचाना चाहते हों तो इस मीठी जल को तुम्हे बचाना होगा।

जल भी एक सीमित साधन है, करते हमसब मिलकर आराधन है।
हर बूंद है कीमती जल की, यह भविष्य का ही सबसे बड़ा धन है।।

साधारण ना समझे इसको, विशेष रूप से इसको समझना होगा।
जीवन बचाना चाहते हों तो, इस मीठी जल को तुम्हे बचाना होगा।

         


      दाऊदनगर औरंगाबाद बिहार
       मो :– 8864053595


प्यारी सी तितली रानी-विकास कुमार

   बाल-कविता  
विकास कुमार

आई आई नई नवेली, रंग बिरंगे तितली रानी।
देखने में लगती है बहुत अच्छी और मस्तानी।।

देखने से लगे छोटी, लेकिन इसकी बड़ी कहानी।
जितनी सीधी लगती है, कही उससे ज्यादा शैतानी।।

इसके है छोटे–छोटे से बाल–बच्चे अच्छे दिवाने।
कोई इसकी चाल–चलन को भी नही पहचाने।।

कोई बोले तितली रानी, कोई बोले पंख उड़ान।
इसमे ओ जादू है जिससे भटकाये बच्चो का ध्यान।।

रंग बिरंगे पंख है मेरे, जिससे मैं समझाना चाहती हूं।
एसे ही जिवन के सुख दुख है जिसे मैं बताना चाहती हूं।।

उड़ तुम भी सकते हो मानव, जोर ताकत तुम लगाओ।
अपने इस हौसले को, मेरी तरह सब को तुम दिखाओ।।

               
दाऊदनगर, औरंगाबाद  बिहार

Wednesday, March 09, 2022

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस और महिलाओं पर पुरुषवादी, दकियानूसियत कहर के ख़िलाफ़ समाज का सच कुछ ऐसा है-नन्द लाल वर्मा (असोसिएट प्रोफेसर)

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष:
नन्द लाल वर्मा 
08मार्च,2022 
सत्ता और समाज का एक बड़ा तबका आज भी औरतों को उपभोग की वस्तु से ऊपर उठकर नहीं समझ पा रहा है। यह समाज की पुरातनी/पारंपरिक/दकियानूसी सोच या उसके माइंड सेट का परिचायक लगती है।आज महिलाओं के प्रति अन्याय,अश्लीलता,यौन शोषण/दुष्कर्म और उसके बाद जघन्य हत्या जैसी घटनाएं दिन प्रतिदिन जिस कदर बढ़ती जा रही हैं,उसके पीछे जो सबसे बड़ा सामाजिक कारण लगता है,वह शायद यह है कि जिनके साथ ऐसी घटनाएं घटित होती हैं,वे और उनके परिजन सामाजिक बदनामी के डर,जटिल/ असंवेदनशील/भ्रष्ट  प्रशासनिक और न्यायिक प्रक्रिया की वजह से चुप्पी साध लेना उनकी विवशता बन जाती है और समाज के जिम्मेदार लोग भी उन्हें चुप हो जाने की ही नसीहत देना ही उचित समझने लगते हैं। सभ्य और शिक्षित समाज का शिक्षक,साहित्यकार,बुद्धिजीवी और मां बाप क्यों नहीं बोल पा रहे हैं? समाज के जिम्मेदार लोगों को जहां सच बोलना चाहिए ,वे वहां बोल नहीं पा रहे हैं। आज के दौर में बुद्धिजीवियों में भी उचित अवसर पर सच बोलने का साहस खत्म होता जा रहा है। बड़ी बड़ी प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थाओं के जिम्मेदार, बुद्धिजीवी वर्ग,संसद में बैठी महिला सांसद,लोकतंत्र का प्रहरी और चौथा स्तंभ कहा जाने वाला देश का निष्पक्ष व स्वतंत्र मीडिया और यहां तक कि "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" का नारा देने वाली सत्तारूढ़ पार्टी के संवैधानिक पदों पर बैठे मर्द और महिलाएं तक भी नहीं बोल पा रहे हैं। आम आदमी सड़क पर उतर कर सही बात क्यों नहीं बोल पा रहा है,पूरा देश चुप क्यों है? महिला के हर सवाल या समस्या पर उसका खुद न बोलना और न ही किसी अन्य का बोलना या बोलने न देना,इस देश की परम्परा सी पनपती जा रही है।

      आज से लगभग नौ साल पहले निर्भया कांड पर आम लोग राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट तक सड़क पर उतर आए थे। अखबार और पत्रिकाओं से लेकर टीवी चैनलों पर खबरों की बाढ सी आ गई थी। जब संसद से लेकर न्यायपालिका तक हलचल हुई तो सज़ा का कानून बदला और सख्ती भी हुई और महिलाओं से जुड़े संवेदनशील मुद्दे राष्ट्रीय राजनीति की  मुख्यधारा में गंभीर चर्चा के विषय बनते देर नहीं लगी थी और उस समय ऐसा लगा था कि शायद अब लोगों की चुप्पी टूट रही है,किन्तु आठ साल बाद गार्गी कॉलेज की घटना पर ऐसा फिर लगा,कि अब फिर हम सब चुप क्यों हो गए हैं? चुप्पी सिर्फ न बोलने तक ही सीमित नहीं होती है,बल्कि यह एक अप्रत्यक्ष संदेश समेटे इस बात की धमकी भी होती है,कि देश में अभी भी मर्दों का ही राज चलता है।

         दिल्ली के गार्गी महिला कालेज में हुई शर्मनाक घटना ने देश के जिम्मेदार लोगों की कलई खोलकर रख दी है। छात्राओं के साथ ऐसी अश्लील घटनाएं हुई जिनकी सभ्य समाज में चर्चा करना ही अश्लीलता मानी जाती है। दिल को झकझोर देने वाली घटना की खबर कैंपस से बाहर प्रशासन और मीडिया तक न पहुंच पाना,वहां की जिम्मेदार प्राचार्य,कॉलेज प्रशासन और शिक्षिकाओं की असंवेदनीलता और कायरता या भय की एक बदसूरत बानगी देखते सिर शर्म से झुक जाता है। जेएनयू से पढ़ी लिखी देश की महिला वित्तमंत्री ने अपने 2020-21 के बजट के तीसरे सेगमेंट में इसी तरह की " केयरिंग सोसायटी" के निर्माण की संकल्पना की दुहाई देते हुए बजट सत्र में देश की जनता से संवाद क़ायम किया था। गार्गी जैसी घटना पर देश की मीडिया केंद्रित राजधानी जैसे शहर दिल्ली में आवाज तक न उठने के अत्यंत व्यापक व गंभीर निहितार्थ है,कि देश में आज भी महिलाओं की सामाजिक और राजनीतिक औकात में अपेक्षित बदलाव नहीं आ पाया है!"

          मेरे विचार से महिला अपराधों के विरुद्ध किसी भी सामाजिक या अन्य सार्वजनिक संगठनों द्वारा पीड़ितों की आवाज बनकर आंदोलन का रूप न दे पाना, अपराधियों के दुस्साहस को बढ़ाने जैसा ही है। देश की निष्पक्ष और स्वतंत्र कही जाने वाली मीडिया के बड़े हिस्से की वर्तमान स्थिति/भूमिका से समाज में एक अदृश्य भय या कायरता जैसी स्थिति पनपती नजर आती है। 

         "मेरे विचार से जिस देश का मीडिया निष्पक्षता निडरता और स्वतंत्रता के साथ एक सजग प्रहरी की भूमिका निभाता है,उस देश का लोकतंत्र और समाज के सभी अवयवों के सेहतमंद,सुरक्षित और सजग रहने की संभावनाएं बनी रहती है।

         समाज,प्रशासन और न्यायपालिका में किसी महिला के साथ हुए अपराध की सजा,उस अपराध की प्रकृति के हिसाब से नहीं,बल्कि अपराधी की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक हैसियत के हिसाब से तय होती है। "गरीब हुआ तो फांसी पर लटका दिया जाता है और यदि हैसियतदार/ओहदेदार हुआ तो बाहर आने पर उसका फूल मालाओं से स्वागत किया जाता है।"

          बीते कई सालो में इस विषमता और मर्दवादी सोच व व्यवस्था में महिलाओं को अपने लिए शिक्षा,नौकरी, पेशा/धंधा और आत्मसम्मान हासिल करने के लिए एक लंबा सफर तय करना पड़ा है और उन्हें आज भी कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है। महिलाओं द्वारा अपने लिए बोलना,संघर्ष और लड़ना सीख लेने के बावजूद, देश के मर्दों की मर्दानगी की स्क्रिप्ट अभी भी नहीं बदली है। वह बेशर्मी और अहंकार के साथ हर चौराहे पर अश्लीलता करता हुआ आज भी खड़ा नजर आता और लड़कियां शर्म और डर से झुकी हुई नजर आती हैं।बदले परिवेश में ऐसे मर्दों के लिए एक नई स्क्रिप्ट के लिखे जाने की आवश्यकता है। जाहिर है कि वे मर्द नहीं लिखेंगे,जिन्हे व्यवस्था में बेशर्म और बेलगाम अप्रत्यक्ष अनगिनत अदृश्य अधिकार प्राप्त है। समय आने पर "महिला अपराधों और अन्यायों के खिलाफ नई स्क्रिप्ट उन्हीं महिलाओं द्वारा लिखी जाएगी,जिन्हे ऐसे मर्दों की मर्दानगी से पीड़ित और अपमानित होकर जहर पीना पड़ता है और फिर समाज के ही जिम्मेदारों द्वारा उन्हें चुप रहने के लिए विवश किया जाता है या नसीहत दी जाती है।"
  लखीमपुर- खीरी उत्तर-प्रदेश।

पूछ रहा है घायल-रमाकान्त चौधरी एडवोकेट

मुद्दे की बात 

रमाकान्त चौधरी एडवोकेट
लोकतंत्र का हनन हुआ है तानाशाही जारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 

समता और समानता वाले केवल भाषण होते हैं। 
जनता को बहकाने के अच्छे आकर्षण होते हैं। 
भीमराव के सपनों का भारत लुटा दिखाई देता है। 
 नेहरू पटेल गांधी का सपना टुटा दिखाई देता है। 
प्रस्तावना रो देती उस दम  सारे एक्ट लजाते हैं। 
संविधान निर्माता को जब अनपढ़ गाली दे जाते हैं। 
ग़द्दारों द्वारा संविधान के जब पृष्ठ जलाये जाते हैं। 
उनके समर्थन के खातिर जयघोष कराये जाते हैं। 
कोई रेपिया संसद जा कर मंत्री पद पा जाता है। 
और माफिया गुंडा आ अधिकारी पर रौब जमाता है। 
एक अनपढ़ नेता के आगे  प्रशासन झुक जाता है। 
शोषित पीड़ित वंचित को तब न्याय नहीं मिल पाता है। 
पूछ रहा है घायल भारत इतनी क्यों लाचारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 

अन्न उगाने वालों पर ऐसी भी हुकुमत चलती है।
फसलों के दाम नही मिलते बदले में लाठी मिलती है। 
युवा घूमता परेशान है रोजगार को तरस रहा। 
हक हकूक की बात करे तो उस पर डंडा बरस रहा। 
बहू बेटियाँ नही सुरक्षित ये कैसी आजादी है। 
घर से बाहर गर निकले तो अस्मत की बर्बादी है। 
भारत की एकता पर ऐसे भी घाव बनाये जाते हैं। 
जाति धर्म का ताना देकर युद्ध कराये जाते हैं। 
माना धर्म का ज्ञान मिले तब मानव पूरा होता है। 
पर संविधान की शिक्षा बिन सब ज्ञान अधूरा होता है। 
लोकतंत्र का हत्यारा है वह भारत का दुश्मन है। 
मानवता को भूल गया जिसे संविधान से नफ़रत है। 
ऐसे लोगों पर भी क्यों सत्ता की चौकीदारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 
शोषित  पीड़ित वंचित कोई  साहस कर जाता है। 
अपनी मेहनत के बलबूते जब आगे बढ़ जाता है। 
देख तरक्की उसकी तब कुछ बंदे शोर मचाते हैं। 
मंचों पर  चिल्लाकर वे आरक्षण गलत बताते हैं। 
आरक्षण क्यों हुआ जरूरी प्रश्न खड़ा रह जाता है।
उनपर किसने जुल्म किये ये कोई नही बतलाता है। 
संविधान जब मिला देश को तब उनको
अधिकार मिला। 
अहसास हुआ जीने का उनको जीवन का आधार मिला। 
संविधान ने ही नारी को अधिकार बराबर दिलवाया। 
संविधान ने ही नारी को सम्मान बराबर दिलवाया। 
लोकतंत्र की उचित व्यवस्था से पहचाना जाता है। 
सर्वश्रेष्ठ  दुनिया  में  भारत इसीलिए कहलाता है। 
ऊंच नीच की फिर भारत में क्यों  फैली बीमारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 
जाने कितने शीश कटे थे तब भारत आजाद हुआ। 
एक हुए जो बँटे हुए थे तब भारत आजाद हुआ। 
सबने मिलकर जंग लड़ी थी तब भारत आजाद हुआ।
 खून की नदियाँ खूब बहीं थी तब भारत आजाद हुआ। 
कुर्बान किये माँओं ने बेटे  तब भारत आजाद हुआ। 
 बहनों ने रण में भाई भेजे तब भारत आजाद हुआ। 
दुल्हनों ने  सिंदूर दिये थे तब भारत आजाद हुआ।
पिता ने लख्ते जिगर दिये थे तब भारत आजाद हुआ। 
खून खराबा खूब हुआ था तब भारत आजाद हुआ। 
काशी काबा नही हुआ था तब भारत आजाद हुआ। 
माली बन कर की रखवाली देश के जिम्मेदारों ने। 
नींद त्याग कर इसे बचाया देश के पहरेदारों ने। 
आज लुट रहा अपना गुलशन कैसी पहरेदारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 

अश्फाक बोस बिस्मिल आजाद का प्यारा भारत कहाँ गया। 
राजगुरु, सुखदेव, भगत का प्यारा भारत कहाँ गया। 
सोने की चिड़िया कहलाने वाला भारत कहाँ गया। 
 दिनकर, पंत निराला वाला प्यारा भारत कहाँ गया। 
रहमान  हों शामिल राम के दर्द में ऐसा भारत कहाँ गया। 
राम बने हमदर्द रहीम के ऐसा भारत कहाँ गया। 
लहू बहे न धर्म के नाम पे ऐसा भारत कहाँ गया । 
मर जाए कोई शर्म के नाम से ऐसा भारत कहाँ गया। 
लहू बहाते बात - बात पे धर्म के ठेकेदार यहाँ। 
धर्म के नाम से पनप गए हैं कुछ गुंडे गद्दार यहाँ। 
मानवता को बेंच के सारे धर्म बचाने निकले हैं। 
वस्त्र नोच के भारत माँ के मान बचाने निकले हैं। 
अपनों की ही अपनों के प्रति ये कैसी गद्दारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 

Tuesday, February 08, 2022

खत नहीं आते-रमाकान्त चौधरी

संस्मरण के बहाने
रमाकांत चौधरी
"क्या हुआ है आजकल खत का आना बंद है, डाकिया मर गया या डाकखाना बंद है" आशिकों की ये शायरियां या पंकज उधास का "गीत चिट्ठी आई है, आई है चिट्ठी आई है"  यह सब बातें गुजरे जमाने की लगती हैं।  एक समय होता था, जब दूर गए साजन की चिट्ठी का सजनी  या फिर सजनी के मायके जाने पर साजन उस तरफ निगाहें रखता था जिधर से डाकिया खाकी वर्दी में कंधे पर झोला लटकाए, साइकिल की घंटी टनटनाता हुआ आता दिखाई पड़ता था। जैसे ही डाकिया सामने से गुजरता और आवाज तक न देता था, तो फिर मन में बहुत गुस्सा आता  कि क्या उन्हें एक चिट्ठी भी लिखने की फुर्सत नहीं है ।  कई-कई दिन इंतजार में गुजर जाते थे और तब डाकिए से पूछना पड़ता था, काका अबकी मेरी चिट्ठी नहीं आई क्या? और अचानक डाकिया झोले से निकाल कर जब चिट्ठी देता तो फिर खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। आंखों में खुशी के आंसू छल छला पड़ते थे और फिर वह चिट्ठी साजन या सजनी की होती तो बात ही कुछ अलग होती, पढ़ने का आनंद ही कुछ अलग होता, एक-एक शब्द इत्मिनान से कई-कई बार पढ़ा जाता और हर एक शब्द पर होठों की मुहर लगाई जाती, फिर सीने से लिपटाया जाता। उसके बाद उठती कलम और कागज ,खत का जवाब लिखने के लिए। प्रेमियों का तो अंदाज ही सबसे जुदा होता था, उनकी चिट्ठी ले जाने के लिए तो उनका डाकिया भी अलग यानी निजी होता था। और उनकी चिट्ठी के ऊपर लिखा होता था 'चला जा पत्र चमकते-चमकते, मेरे महबूब से कहना नमस्ते-नमस्ते' या फिर 'पढ़ने वाले पत्र छुपा के पढ़ना, तुझे कसम है मेरी जरा मुस्कुरा के पढ़ना, वह खत वाकई प्रेमी-प्रेमिका छुपा के पढ़ते थे, अपने महबूब की निशानी समझकर किताबों में छुपा कर रखते थे। जब प्रेमियों का बिछोह होता तो आशिकों की जुबां पर यह शायरी 'जवाबे खत नहीं आता लहू आंखों से जारी है, न जीते हैं न मरते हैं अजब किस्मत हमारी है'  मचलने लगती थी। कई-कई बार तो ऐसा भी होता था कि खत के सहारे ही सारी जिंदगी प्रेम अथवा दोस्ती चलती रहती थी दो दोस्त या प्रेमी कभी एक दूसरे की शक्ल से ताउम्र परिचित नहीं हो पाते थे किंतु विचारों का आदान-प्रदान खतों के जरिए ही होता था। खत पाने का या फिर खत भेजने का जो आनंद था वह जुबान से बयां कर पाना संभव ही नहीं है। 

जब किसी मां का बेटा या फिर सजनी का साजन देश की रक्षा के लिए सीमा पर लड़ने जाता था और वहां से जब चिट्ठी लिखता था,  वह दृश्य जब शाम गोधूलि के वक्त डाकिया चिट्ठी लेकर आता था। जब मोहल्ले वाले सुनते की फौजी की चिट्ठी आई है तो सभी उसका हाल पता जानने के लिए इकट्ठे हो जाते कि क्या लिखा है? कैसा है फौजी? फिर डाकिया बाबू उस चिट्ठी को खोलकर पढ़ता तो सबसे पहले ही लिखा होता 'पूजनीय माता-पिता को सादर चरण स्पर्श' उस वक्त माता-पिता की आंखें खुशी से भर जाती, सीना फूलकर गदगद हो जाता। तत्पश्चात तमाम बातें लिखी होती, फिर मोहल्ले में बच्चों से लेकर बूढ़ी ताई तक का हाल-चाल अगले जवाबी खत में लिखने के लिए लिखा होता। उस वक्त सभी मोहल्ले वाले खुशी से फूले नहीं समाते थे। और फिर खतों का सिलसिला न थमने की गति से चलता रहता था।

नई तकनीकी के विकास से जहां पर हालचाल जानने के लिए इंतजार नहीं करना पड़ता है, वहीं पर सम्मानजनक शब्दों का विलोपन होता चला गया है। खतों में जहाँ पुत्र अपने माता-पिता को 'पूजनीय सादर चरण स्पर्श'  व अपनी पत्नी को 'मेरी प्यारी प्राण प्रिया' इत्यादि शब्दों को प्यार के साथ लिखता था, उसकी  जगह अब सिर्फ नमस्ते और हाय-हेलो ने ग्रहण कर ली है। नई तकनीक ने वह प्यार, मोहब्बत, बेचैनी, बेकरारी, इंतजार सब का विलोपन कर दिया अब किसी को फुर्सत कहां है जो चिट्ठी लिखने वाला झंझट का काम करें। बेटा फौज में है तो माता-पिता से बात करने की आवश्यकता ही नहीं है, पत्नी के पास ही सारी जानकारियां पहुंच जाती हैं और फिर माता-पिता बहू से ही बेटे का हाल मालूम कर लेते हैं। भाई बहनों का प्यार भी चिट्ठी में बंद होता था, बहन के घर जब चिट्ठी भाई की पहुंचती तो वह फूले नहीं समाती थी।अब नई तकनीक ने वह भी रीति खत्म कर दी।  अब तो प्रेमी प्रेमिकाओं का रूठना  मनाना मोबाइलों के सहारे होता है। पहले जो बात लबों से नहीं हो पाती थी वह खतों के जरिए हो जाती थी, किंतु अब उसकी जगह एसएमएस यानी शॉर्ट मैसेज संदेश ने ले ली है। शॉर्ट होने के कारण उस पर दिल के हालात पूर्णतया बयां नहीं किये जा सकते। इसका परिणाम यह होता है कि शॉर्ट मैसेज संदेश के चक्कर में प्यार भी शॉर्ट होता चला गया  और एक दिन ऐसा भी आता है कि मोबाइल पर ही प्यार की आहूति चढ़ जाती है ।  नए सिम की तरह नया प्रेमी भी आ जाता है । रही डाकिया बाबू की बात तो वह सिर्फ सरकारी चिट्ठियां ढोते हैं जो किसी बैंक से कर्ज जमा करने हेतु भेजी जाती हैं या फिर किसी मोहकमे  में रिक्त पदों हेतु फार्म भरे जाते हैं, उनकी रजिस्ट्री रिटर्न इत्यादि ।  अब किसी को किसी की चिट्ठी का इंतजार नहीं होता है। अब तो बस इतना है कि कब किसकी घंटी बज जाए और जेब से निकलकर छोटा सा इंस्ट्रूमेंट किस समय कान से चिपक जाए और कब कोई भयानक दुर्घटना घटित हो जाए किसी को कुछ नहीं पता। इस छोटे से इंस्ट्रूमेंट ने जहां एक और लंबे इंतजार को खत्म करके फेस टू फेस बात करने जैसी सुविधा प्रदान की है वहीं पर वह खत पढ़ने का, लिखने का, सीने से छुपाने का आनंद खत्म कर दिया है। अब पत्नी अपने  जाते हुए पति से ये शायद कभी ना कहेगी कि 'जाते हो परदेस पिया, जाते ही खत लिखना।'
पता- गोला गोकर्णनाथ, लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश 2622701

Tuesday, February 01, 2022

यादों के गुलाब-सुरेश सौरभ

लघुकथा

-सुरेश सौरभ 
कुछ पुरानी किताबों को हटाते-संभालते हुए, एक डायरी उसके हाथ में आ गई । ताजे गुलाबों की खुशबू पूरे कमरे में फैल गई।कालेज के दिनों की यादों से उसका अंग-अंग थिरक उठा। बूढ़ी रगो में रक्त का संचार बढ़ गया। तभी अपनी बेटी पर उसकी नजर गई, वह इठलाते-बलखाते हुए किसी से फोन पर बातें कर रही थी, उसके गालों पर बढ़ती गुलाबी रंगत को देख, मुंह बिसूर कर वह दहाड़ा-किसका फोन है?
बेटी ने फौरन फोन काट दिया। उसे होश न रहा ,पापा जी कब सामने है आ गए।
कि... कि किसी का नहीं... हकलाते हुए, संभलते हुए।
वह डायरी पटक कर बोला -तेरे गुलाबी गाल बता रहे हैं किसका फोन था। बेटी सहम गई।... टिन्न.. एक लवली गुलाबी इमोजी मैसेंजर पर आई। वह देख पाती, इससे पहले पापा बोले-मुझे गुलाबी रंग और गुलाबों से सख्त नफरत है समझी ...
चट-चट-चट.. तेजी से चप्पलें चटकाते हुए चल पड़े। ‌बेटी हैरत से उन्हें जाते देख रही थी, गालों पर उगी, अपनी गुलाबी रंगत तो समझ में आ रही थी, पर गुलाबों से सख्त नफरत.. के मर्म को वह न समझ पा रही थी।

मो०निर्मल नगर
लखीमपुर खीरी  पिन-262701
मो,-7376236066




भूल -सुरेश सौरभ

  (लघु कथा)
सुरेश सौरभ 
"मम्मी तुम्हें  कितनी बार समझाया है कि दो परांठे ही बांधा करो, पर तुम हो कि तीन-चार ठूंस-ठूंस कर बांध देती हो",जल्दी-जल्दी टिफिन बस्ते में रखते हुए, खींजते हुए, मोहित बोला। फिर सामने खड़े स्कूल रिक्शे में बैठ कर, मम्मी से बाय-बाय करने लगा। रिक्शा चल पड़ा। जाते रिक्शे को देख, मम्मी मुस्कुराई फिर बुदबुदाई-क्योंकि मेरी भी मां अनपढ़ थी, और तेरी पढ़ी-लिखी मां भी अनपढ़ है, इसलिए गलती से परांठे गिन नहीं पाती।

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश
मो-7376236066
पिन-262701

चोट-सुरेश सौरभ

(लघुकथा)

सुरेश सौरभ
‘‘चटाक! चटाक!...
‘‘साले दिखाई नहीं पड़ता।’’
‘‘चटाक! चटाक!..
‘‘तेरी माँ की..... देख कर नहीं मोड़ता।’’
‘‘चटाक! चटाक!...
‘‘साले जब इधर भीड़ थी तो क्यों लेकर आया इधर?’’
‘‘चटाक! चटाक! चटाक!...
‘‘कितना भी मारो गरियाओ, पर तुम लोग बाज नहीं आते?’’
शाम। टूटा-थका-हारा घर आकर वह बैठा गया। 
‘‘चटाक! चटाक!चटाक... कोई तमीज नहीं? जब कह दिया, पैसे नहीं, फिर भी इतने पैसे इनको दो, ये चाहिए वो चाहिए।...उं उं...उं..ऽ..ऽ.ऽ छोटा बच्चा रोये जा रहा था।
 ‘‘क्या बात है, क्यों मार रहीं है इसे?’’ 
‘‘कोई काम सुनता नहीं ऊपर से जो भी कोई ठेली खोमचा वाला निकले, तो जिद, ये चाहिए वो चाहिए।...बच्चा रोये जा रहा था।.... चुपता है या नहीं चुपता है... हुंह ये ले..ये ले..चटाक चटाक...
अब वह अपने गाल सहलाने लगा, पत्नी को करूण नेत्रों से देख, बेहद मायूसी और नर्मी से बोला-अब न मार बच्चे को, चोट मुझे भी लग रही है रे! लग रहा हम रिक्शे वालों की पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे ही मार खाती बतेगी।
अब पत्नी, अपने पति रिक्शे वाले को हैरत से एकटक देख रही थी। रो तो बच्चा रहा था, पर उसकी आँखों में आँसू न थे। लेकिन उसकी और उसके रिक्शे वाले पति की आँखों में आँसू डबडबा आए थे।

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

Sunday, January 30, 2022

यूपी की सियासत : चुनावी दौड़ में बसपा की स्थिति का विश्लेषण-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

राजनितिक गलियारे से चुनावी चर्चा
अजय बोस ने अपनी किताब "बहन जी" के तीसरे और आखिरी संस्करण में इसके उपशीर्षक " द पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ऑफ मायावती" (मायावती की राजनीतिक जीवनी) को बदलकर " द राइज ऐंड फॉल ऑफ मायावती" (मायावती का उत्थान और पतन) कर जब उनके राजनीतिक सफर के अंत की भविष्यवाणी की थी.............बीएसपी के पास आज भी सबसे ज्यादा अपना ठोस आधार वोट बैंक है ,बस जरूत है तो सिर्फ ,मा. कांशीराम जी जैसा सामाजिक संपर्क, समर्पण और त्याग जिसके बल पर बीएसपी को अपनी पुरानी वाली राजनीतिक शक्ति को हासिल करने में देर नही लगेगी।
नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
         पिछले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश की राजनीति में चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती की आधी-अधूरी भागीदारी और सक्रियता, यहां तक कि प्रदेश में दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं पर उनकी चुप्पी से यही महसूस किया गया है कि एक समय की प्रबल मुखर दलित नेता ने या तो अपना प्रभाव खो दिया है या फिर केंद्र और राज्य की सत्ता के आगे अदृश्य भय या कारण के चलते समर्पण कर दिया है। राज्य सभा मे दलित समाज के मुद्दों पर अपनी बात रखने के लिए पर्याप्त समय न देने पर बिना किसी देरी के सदन से इस्तीफा दे देना उनकी राजनीति करने की बेमिसाल पहचान और उदाहरण सबके सामने है। बहुत से वयोवृद्ध दलित कार्यकर्ता, जिन्होंने पिछले कई दशकों में बसपा के लिए दिन रात कार्य किया है, बसपा की वर्तमान राजनीतिक हालत से आज बेहद मायूसी के साथ कहते हुए बताते हैं कि बहन जी हमें हर जटिल परिस्थिति से लड़ने के लिए प्रेरित करती थीं, चाहे चुनौती कितनी ही बड़ी क्यों न हो!

         लगभग पांच वर्ष पूर्व अजय बोस ने अपनी किताब "बहन जी" के तीसरे और आखिरी संस्करण में इसके उपशीर्षक " द पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ऑफ मायावती" (मायावती की राजनीतिक जीवनी) को बदलकर " द राइज ऐंड फॉल ऑफ मायावती" (मायावती का उत्थान और पतन) कर जब उनके राजनीतिक सफर के अंत की भविष्यवाणी की थी। तब वह और उनके सहयोगी उनसे बेहद नाराज हो गए थे, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति के कई जानकारों ने भी महसूस किया था कि अजय बोस ने एक ऐसी नेता के राजनीतिक सफर के अंत की भविष्यवाणी कर जोखिम उठाया है जिन्होंने अतीत में कई बार हार के जबड़ों से जीत छीनकर निकाली थी। हालांकि, लेखक न केवल राज्य और संसदीय चुनावों में उनकी बार-बार की हार, बल्कि पिछले पांच वर्षों में उत्तर प्रदेश के तेजी से बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए आश्वस्त था कि बीएसपी सुप्रीमो और उनकी पार्टी निर्णायक रूप से गिरावट की ओर लगातार फिसलती जा रही है और अब उनका राजनीतिक पुनरुत्थान किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। बीजेपी की डॉ आंबेडकर की वैचारिकी - दर्शन और संविधान विरोधी नीतियों - रीतियों से क्षुब्ध होकर और अपने सामने ढहते हुए लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी समझते हुए बीएसपी से दलित समाज का एक चिंतक और जागरूक वर्ग वर्तमान राजनीतिक परिस्थितिवश बीएसपी की राजनीतिक धारा से अलग होकर चुनाव में तात्कालिक रूप से बीजेपी के मजबूत विपक्ष के साथ खड़ा होने का मन बनाता हुआ दिख रहा है। इस प्रकार की उपजी राजनैतिक मनःस्थिति बीएसपी की राजनीति पर चिंतन करने वालों के लिए एक गहन अध्ययन का विषय बनना चाहिए।

        यह सच है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा सुप्रीमो अपने चुनावी सहयोगी समाजवादी पार्टी से दोगुनी (दस) सीटें हासिल करने में सफल रही थीं। पिछले लोकसभा चुनाव के आंकलन के लिहाज से यह एक बड़ी सफलता और उपलब्धि थी, क्योंकि 2014 में उन्हें एक भी सीट नहीं मिली थी। यह संभव हुआ था समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोटों के बसपा उम्मीदवारों के पक्ष में हस्तांतरण से। तब राजनीतिक हताशा से घिरी मायावती और यादव परिवार के झगड़े की वजह से संकट में घिरे अखिलेश यादव  ने बेहद हड़बड़ी में यह गठबंधन किया था।
        इस गठबंधन से नुकसान तो समाजवादी पार्टी को हुआ था, लेकिन बीएसपी सुप्रीमो ने अचानक गठबंधन तोड़ दिया था। उस समय राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा थी कि उन्होंने कथित तौर पर भाजपा के ताकतवर गृह मंत्री अमित शाह के दबाव में ऐसा किया था। इस लोकसभा चुनाव के बाद से मायावती राजनीतिक रूप से लगभग उदासीन होती चली गयीं। वह बेबसी के साथ देखती रहीं कि कैसे विधान सभा में उनके 19 विधायकों में से 13 समाजवादी पार्टी में चले गए। एक समय उनके बेहद करीबी राजनीतिक सहयोगी रहे स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और नसीमुद्दीन सिद्धिकी ने तो पहले ही उनका साथ छोड़ दिया था।

        लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ऐसा लगता है कि उन्होंने सक्रिय राजनीति में रुचि खो दी है। यहां तक सुना जाता है कि भाजपा में शामिल हुए पूर्व बसपा सदस्यों में पिछले लगभग छह महीनों से बीएसपी में वापस आने की बेचैनी देखी जा रही थी। उस समय यदि मायावती ने स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता को पार्टी में वापस आने के लिए राजी कर लिया होता, तो यह संदेश जाता कि वह सही मायनों में भाजपा से लड़ना चाहती हैं। मगर उसके बजाय अखिलेश यादव पूर्व बसपा नेताओं को अपने साथ जोड़ने में सफल हो गए। मायावती की ज्यादातर मुश्किलें जमीन पर मौजूद राजनीतिक सच्चाईयों से संवाद और संपर्क तोड़ने से उपजी हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह अब जमीनी स्तर के दलित कार्यकर्ताओं के संपर्क में न होकर एरिस्टोक्रेट बने कोऑर्डिनेटरों की एक लंबी फेहरिस्त के माध्यम से दी जा रही ज़मीनी हक़ीक़त पर ज्यादा टिकी नज़र आती हैं।

         बसपा की राजनीति के उत्थान और पतन के लिए एक तथ्य और जिम्मेदार बताया जा रहा है, वह है ब्राह्मणों से मिला समर्थन और उसकी वजह से हुआ सामाजिक -राजनीतिक नुकसान। तथ्य यह है कि इसकी वजह से बसपा से जुड़ी वे अति पिछड़ी जातियां और गैर जाटव दलित दूर होते चले गए हैं, जिन्हें कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं के रूप में बड़ी मेहनत और विश्वास से जोड़ा था और उन्हें सरकार बनने पर उचित सम्मान के साथ सहभागिता भी दी थी। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के ऐन वक्त पर बीएसपी की राजनीतिक चमक और खनक कांग्रेस की तरह सामान्य जनमानस में धुंधली और फीकी पड़ती नज़र आने लगी है। विपक्षियों, ख़ासकर समाजवादी पार्टी और उसके स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा इस मुहिम को हवा देते हुए चुनाव में फायदा ले जाते हुए नज़र आ रहे हैं। यहाँ यह कहना अब अतिशयोक्ति नही होगी, कहीं ऐसा तो नही लगता है कि बसपा और कांग्रेस में राजनीतिक होड़ इस बात की लगी है कि तीसरे स्थान के लिए कौन लड़ रहा है, क्योंकि विधान सभा चुनाव में अब बीजेपी को सीधी चुनौती समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन से मिलती दिख रही है,ऐसा माना जा रहा है। मेरे विचार से अन्य दलों की अपेक्षा  बीएसपी के पास आज भी सबसे ज्यादा अपना ठोस आधार वोट बैंक है ,बस जरूत है तो सिर्फ ,मा. कांशीराम जी जैसा सामाजिक संपर्क, समर्पण और त्याग जिसके बल पर बीएसपी को अपनी पुरानी वाली राजनीतिक शक्ति को हासिल करने में देर नही लगेगी।

पता-लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश

Tuesday, January 25, 2022

गले मिलकर गला काटने वाला ये नापाक चीनी मांझा-अजय बोकिल

Ajay Bokil
जिस पतंग को उमंगों का प्रतीक माना जाता रहा हो, आज उसी उन्मुक्त उड़ने वाली पतंग की डोर जानलेवा होती जा रही है। इस संक्रांति पर उज्जैन में स्कूटी पर जा रही एक युवती की जान ऐसी ही एक पतंग के चीनी मांझे ने ले ली। उस बदनसीब की जिंदगी की पतंग उड़ने से पहले ही कट गई। जिसने भी सुना, ‍िजसने भी पढ़ा, कटती पतंग की तरह भीतर से दहल गया। हालांकि शहर में चीनी मांझा बेचने वालों को सबक सिखाने की नीयत से जिला प्रशासन ने उनकी दुकाने ढहा दीं।  लेकिन इससे कोई खास फर्क शायद ही पड़े। चीनी मांझे की वजह से जानलेवा हादसे की यह घटना पहली नहीं है। पहले भी कई लोग चीनी डोर के इस अप्रत्याशित ‘हमले’ से लहूलुहान हो चुके हैं या फिर गले की नस कटने से प्राण भी गंवा चुके  हैं। पिछले साल सिकंदराबाद में चीनी मांझे की वजह से 36 पक्षियों ने अपनी जानें गंवा दीं। मजबूत चीनी मांझे में उलझे ये मूक प्राणी अपना दर्द किसी से कह भी नहीं सके। अब आलम यह है कि किसी जमाने में आकाश में उड़ती जिन  रंगबिरंगी पतंगों को देखकर मन भी रंगारंग हो जाता था। उसी पतंग को देखकर अब डर सा लगने लगा है कि कहीं उस पतंग की जालिम डोर आपके गले की फांस न बन जाए। 
खुशनुमा पंतगों की दुनिया ‘खूनी’ बने बहुत ज्यादा वक्त नहीं हुआ। पहले भी कटी पतंग को लूटने के चक्कर में यदा-कदा हादसे हो जाया करते थे। लड़ाई झगड़े भी होते थे। लेकिन पतंग को बांधे रखने वाली डोर ही आपकी जिंदगी की डोर काट दे, ऐसा शायद ही सुना गया। चीनी माल के बहिष्कार के तमाम सतही दावे और राजनीतिक मुहिम के बाद भी आलम यह है कि भारत में चीन से निर्यात बढ़ता जा रहा है। यूं भारत में कई जगह चीनी मांझा उसकी घातकता के कारण बैन है, लेकिन ये हर कहीं उपलब्ध है।
यहां सवाल यह कि ये चीनी मांझा है क्या ? जब कई राज्यों में इस पर प्रतिबंध है तो यह आ कहां से रहा है? और यह भी कि जानलेवा होने के बावजूद पतंगबाजों में इसकी दीवानगी क्यों है? हमारे देश में पतंगबाजी का इतिहास बहुत पुराना है। यूं तो यह अरमानों को आकाश में उड़ाने का खेल है, लेकिन बात जब प्रतिस्पर्द्धा की आती है तो पतंग उड़ाने के साथ साथ प्रतिस्पर्द्धी की पतंग काटना और फिर कटी पतंग को लूटना भी नाक का सवाल बन जाता है। पतंग की खूबी यह है कि वह जब तक डोर की ढील मिलती है तब तक आसमान की बुलंदियों को छूती रहती है। लेकिन डोर कटते ही वह घायल हिरनी की तरह धीरे-धीरे धरती पर आकर दम तोड़ देती है या फिर की ऊंची इमारत या पेड़ पर फंसकर फड़फड़ाती रह जाती है। कुछ साल पहले तक मांझे (डोर) के रूप में देशी मांझे का ही इस्तेमाल होता था। देश में पंतग उद्योग का प्रमुख केन्द्र उत्तर प्रदेश का बरेली है ( यह बात अलग है कि फिल्म वालों ने उसे झुमके वाले शहर के रूप में ख्यात कर दिया है)। बरेली में बड़े पैमाने पर तरह-तरह की पतंगें बनती हैं। साथ ही इसका मांझा भी तैयार होता है। देसी मांझा सूत के धागे और सरेस आदि से ‍िमलकर बनता है। ये मांझा अलग-अलग तार यानी कई धागों से मिलकर बनता है। सबसे मजबूत 12 तार का मांझा माना जाता है। लेकिन यह घातक नहीं होता। नौ साल पहले इस देश में  दूसरे चीनी सामानो की तरह चीनी मांझे ने भी दस्तक दी। जानकारों के मुताबिक चीनी मांझा नायलाॅन का बना होता है और इसे ज्यादा मजबूती देने के लिए कांच की परत चढ़ाई जाती है। ऐसे में यह धागा बहुत मुश्किल से टूटता है और धारदार भी हो जाता है। पंतगबाजों में इसकी मांग इसलिए है कि क्योंकि यह देशी मांझे की तुलना में बहुत सस्ता और कई गुना ज्यादा मजबूत है। पतंगबाजी की भाषा में कहें तो इस मांझे से पतंग कटना बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि जब डोर ही नहीं कटेगी तो पंतग कैसे नीचे आएगी। लिहाजा चीनी मांझे के इस्तेमाल में ‘अजेयता’ का आग्रह भी छुपा है, वो भी बेहद सस्ती कीमत में। 
कुछ जानकारों का मानना है कि इस मांझे का नाम भले चीनी हो, लेकिन देश में बढ़ती मांग के चलते भारतीय कारीगर भी इसे यहीं बनाने लगे हैं। ऐसे में आयात न भी हो तो भी चीनी मांझा आसानी से देश में उपलब्ध है। इस बारे में मांझा बनाने वाला तर्क है कि यह उनकी रोजी का सवाल है। जो बिकेगा, वही तो न  बनाएंगे। मांग चीन मांझे की है तो वो भी क्या करें। 
चीनी मांझे से पतंग की अकड़ भले कायम रहती हो, लेकिन वो इंसानों और पक्षियों का गला बेरहमी से काट रहा है, इसमें शक नहीं। पंतगबाजी खेल की एक खूबी यह भी है कि इसे उड़ाने वाले और पंतग को लूटने वाले अपनी ही दुनिया में मगन रहते हैं। उन्हें सिर्फ और सिर्फ पतंग दिखती है। दूसरी तरफ जो जो इंसान इस तरह उड़ती गिरती पतंग की डोर का शिकार होता है, उसने सपने में भी नहीं सोचा होता है कि कोई  मांझा सरे राह उसके लिए मौत का फंदा बन जाएगा।  
इस जानलेवा खतरनाक मांझे के खिलाफ आवाजें उठती रही हैं। यह मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल में भी गया। जहां ट्रिब्युनल ने 2016 में अपने एक फैसले में चीनी मांझे पर पूरी तरह रोक लगाने तथा इसे बेचने या इस्तेमाल करने वालों को पांच साल की जेल और 1 लाख रू. जुर्माना करने का आदेश दिया था। लेकिन पांच साल बाद भी ऐसा कोई कानून नहीं बन पाया है। और चीनी मांझा हमारे गले काटे जा रहा है। 
खुद चीन में इस चीनी मांझे का कितना इस्तेमाल होता है, इसकी ज्यादा जानकारी नहीं है। लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा पतंग उत्सव ( काइट फेस्टिवल) चीन के शानदोंग प्रांत के वेईफेंग शहर में अप्रैल के महीने में होता है। वेईफेंग को दुनिया की ‘पतंग राजधानी’ माना जाता है। क्योंकि चीनी मानते हैं कि पतंग का जन्म वेईफेंग में ही हुआ था। चीनी लोग बहुत सुंदर और अनोखी पतंगे बनाने में माहिर हैं, इसमें शक नहीं। अलबत्ता भारत में ‘चीनी’ अपने आप में एक नकारात्मक मुहावरा बन गया है। जिसका भावार्थ, सस्ता, चलताऊ और घातक होने से भी है। 
यूं पतंगबाजी अपने आप में एक अनूठी कला, उन्मुक्तता का प्रतीक और मीठी मारकाट भी है। इस बार की संक्रांति पर यही मीठी मारकाट गहरा दर्द दे गई है। अगर पतंगों को इसी तरह चीनी मांझे से उड़ान मिलती रही तो आगे हमे और कई हादसों का सामना करना पड़ सकता है। अब वसंत पंचमी आने वाली है, वासंती हवाअों में पतंगे उड़ेंगी, मस्ती भरी बैसाखी आने वाली है, पतंगें तब भी आसमान में इठलाएंगीं, लेकिन चीनी मांझे का खुटका बदस्तूर रहेगा। वो मांझा, जो अपने में चाकू की धार और प्राणघातक वार की फितरत लिए हुए है, वो मांझा, जिसमें पतंग के प्राण भले बसते हों, लेकिन जिसमें किसी निरीह के प्राण हर लेने की नापाक ताकत हो, वो मांझा जो बिंदास पतंगाई से ज्यादा कसाई की तरह निर्मम हो, उस पर तो सख्ती से रोक लगनी  ही चाहिए। कम से कम इस शेर की आबरू रखने के लिए तो लगनी ही चाहिए कि ‘मुझे मालूम है उड़ती पतंगों की रिवायत, गले मिलकर गला काटूं मैं वो मांझा तो नहीं’ !
वरिष्ठ संपादक 
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 20 जनवरी 2021 को प्रकाशित)

Thursday, January 13, 2022

स्वामी विवेकानंद जयन्ती-कवि श्याम किशोर बेचैन

स्वामी विवेकानंद जयन्ती
जन्म 12.01.1863                                         मृत्यु 04.07.1902
 

कुछ  भी ना  पूछना पड़ेगा  हमसे  बार बार।
स्वामी  विवेकानंद  को  पढ़िए तो  एक बार।।
 
बोले  थे  शिकागो  में  अपने  धर्म  के  लिए।
दुनिया  के  युवाओं  के  श्रेष्ठ  कर्म  के लिए।।
 
बचपन से इनमे हो रहा था ज्ञान का विस्तार।
स्वामी  विवेकानंद  को  पढ़िए तो  एक बार।।
 
दुनिया के  हर  युवा के  वो  आधार  बने  थे।
स्वामी    विवेकानंद     सूत्रधार    बने थे।।
 
तेजी  देश  में   बढ़ा   था   इनका जनाधार।
स्वामी  विवेकानंद  को  पढ़िए तो  एक बार।।
 
थी  आत्मा  परमात्मा   में  आस्था  अखण्ड।
लेकिन  इन्हें  पसंद  नहीं था  कोई  पाखण्ड।।
 
हर  एक  युवा  कर  रहा  था  इनपे  ऐतबार।
स्वामी  विवेकानंद  को  पढ़िए  तो एक बार।।
 
स्वामी   विवेकानंद   के   आदेश   के  लिए।
बेचैन  युवा   चल   पड़े   थे  देश  के लिए।।
 
हर  एक पे  स्वतंत्रता  का  जोश  था  सवार।
स्वामी  विवेकानंद  को  पढ़िए  तो एक बार।।

पता-
संकटा देवी बैंड मार्केट लखीमपुर खीरी

Saturday, January 08, 2022

पंचशील ध्वज दिवस : 8 जनवरी-लेखक - राजेश चन्द्रा

पंचशील ध्वज दिवस : 8 जनवरी
"जो बौद्ध अस्मिता व गौरव का प्रतीक हो। कहा जाता है कि प्रस्ताव कर्नल हेनरी की ओर से था, जिस पर पूरी कमेटी की सहमति थी। तय यह हुआ कि वह ध्वज आगामी बुद्ध पूर्णिमा 28 मई , 1885 को फहराया जाएगा........."

नीला, पीला, लाल, सफेद और कासाय- इन पांच रंगों के क्षैतिज (Horizontal) और उर्ध्व (Vertical) पट्टियों से निर्मित ध्वज को बौद्ध ध्वज (Buddhist flag) कहते हैं, जो कि पंचशील ध्वज के रूप में अधिक लोकप्रिय है। इस ध्वज की भी अपनी एक कहानी है। 


थियोसोफिकल सोसाइटी के संस्थापक कर्नल हेनरी स्टीले ऑलकट और मैडम ब्लावत्सकी थे। हेनरी अमेरिकी सेना से अवकाश प्राप्त कर्नल थे। थियोसोफिकल सोसाइटी किसी एक धर्म अथवा सम्प्रदाय की पोषक या प्रचारक संस्था नहीं थी, बल्कि सभी धर्मों व सम्प्रदायों के आध्यात्मिक मूल्यों के समन्वय की पोषक थी, इसलिए इस संस्था में बिना पूर्वाग्रह के सभी धार्मिक विचारधाराओं का अध्ययन, शोध एवं तद्नुसार अनुपालन होता था। 

अध्ययन व अभ्यास करते- करते कर्नल हेनरी बुद्ध के धम्म की ओर आकर्षित होने लगे और अन्ततः वर्ष 1880 में श्रीलंका में उन्होंने बुद्ध धम्म आत्मसात कर लिया और श्रीलंका में बुद्ध धम्म के उत्थान की गतिविधियों के सक्रिय अंग बन गये। वहाँ उन्होंने 400 के आसपास बौद्ध विद्यालय एवं महाविद्यालयों की स्थापना की जिनमें से कुछ बहुत ही प्रसिद्ध हुए जैसे आनन्द, नालन्दा, महिन्द, धम्मराजा इत्यादि। ये उनके द्वारा स्थापित विद्यालयों के नाम हैं। 

अपने शान्तिमय लोकतांत्रिक आन्दोलनों के जरिये श्रीलंका के बौद्धों को 1884 में एक बड़ी सफलता मिली। सफलता यह कि वह ब्रिटिश सरकार से वेसाक डे अर्थात बुद्ध पूर्णिमा के सार्वजनिक अवकाश की घोषणा करा सके, जो कि 1885 की बुद्ध पूर्णिमा से क्रियान्वित हुआ। 

इस सफलता के बाद श्रीलंका के बौद्धों ने 'कोलम्बो कमेटी' नाम से एक संस्था बनायी, जिसमें कर्नल हेनरी स्टीले ऑलकट भी एक सदस्य थे। इस कमेटी में एक प्रस्ताव आया कि बौद्धों का एक ध्वज होना चाहिए, जो बौद्ध अस्मिता व गौरव का प्रतीक हो। कहा जाता है कि प्रस्ताव कर्नल हेनरी की ओर से था, जिस पर पूरी कमेटी की सहमति थी। तय यह हुआ कि वह ध्वज आगामी बुद्ध पूर्णिमा 28 मई , 1885 को फहराया जाएगा। इस प्रकार 'कोलम्बो कमेटी' द्वारा निर्मित वह ध्वज अस्तित्व में आया, जिसे आज पंचशील ध्वज कहते हैं। 

बुद्ध पूर्णिमा पर फहराए जाने से पूर्व 17 अप्रैल, 1885 को 'कोलम्बो कमेटी' द्वारा यह ध्वज सार्वजनिक किया गया तथा सार्वजनिक अनुमोदन व सहमाति प्राप्त की गयी। यह पंचशील ध्वज श्रीलंका में कोटाहेना के दीपदुथ्थरमया बुद्ध विहार में 1885 की बुद्ध पूर्णिमा, 28 मई को पहली बार पूज्य भिक्खु मिगेत्तुवन्ते गुणानन्द थेर द्वारा विशाल बौद्ध समूह के समक्ष फहराया गया। 

कालान्तर में कर्नल हेनरी स्टीले ऑलकट के परार्मश पर इस ध्वज का आकार राष्ट्र ध्वज के आकार का तय किया गया। इसमें कतिपय परिवर्तन किये गये और उसे अन्तिम रूप दिया गया। इसे आगामी वर्ष 1886 की बुद्ध पूर्णिमा को फहराया गया। तब से आज की तारीख तक यही ध्वज यथावत है और पूरे विश्व के बौद्धों की अस्मिता व गौरव का प्रतीक है। 

इस ध्वज की वैश्विक स्वीकृति की भी एक कहानी है। इसका मुख्य श्रेय प्रोफेसर जी.पी. मलालसेकर को जाता है, जिनकी अध्यक्षता एवं पहल से कोलम्बो में श्रीलंका की पहली वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप आयोजित हुई। 25 मई, 1950 को, दाढ़ा धातु बुद्ध विहार के सभागार में। इस विहार में भगवान बुद्ध के पावन दन्त धातु स्थापित हैं। 

पूज्य भदन्त गलगेदर प्रज्ञानंन्द का कहना है, "प्रोफेसर जी.पी. मलालसेकर मूलतः श्रीलंका के थे। वह सिंहली, पालि, संस्कृत, अंग्रेजी, लैटिन, ग्रीक, फ्रांसीसी भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान थे। वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप के वह संस्थापक अध्यक्ष थे। वह बोधिसत्व बाबा साहब से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने बाबा साहब को बुद्ध पूर्णिमा 25 मई , 1950 को आयोजित होने वाले वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप में कोलम्बो आमंत्रित किया। 

"इस आयोजन में जाने से पहले बाबा साहब ने महाबोधि बुद्ध विहार, दिल्ली में डॉ. एच. सद्धातिस्स की उपस्थिति में पू. भन्ते आर्यवंश से 2 मई, 1950 को बुद्ध धम्म की दीक्षा ली थी, यानी कि वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप में बाबा साहब एक बौद्ध के रूप में सम्मिलित हुए थे। 

"25 मई, 1950 को श्रीलंका के इस कार्यक्रम में विश्व-भर के बौद्ध संघ के सम्मुख प्रोफेसर डॉ. जी.पी. मलालसेकर ने बाबा साहब को 'लिविंग बोधिसत्व' कह कर सम्बोधित किया था, एक जीवन्त बोधिसत्व।" 

सम्यक प्रकाशन प्रमुख श्री शान्ति स्वरूप जी बताते हैं, "02 मई, 1950 को दिल्ली में बुद्ध धम्म की दीक्षा लेते समय बाबा साहब के साथ समता सैनिक दल के 101 नवयुवकों ने भी धम्म-दीक्षा ली थी, जिसके साक्षी के रूप में करोलबाग में श्री किशोरी लाल गौतम जी अभी भी वर्तमान हैं।" 

प्रोफेसर डॉ. गुणपाल पियासेन (जी.पी.) मलालसेकर बुद्धिस्ट इन्साइक्लोपीडिया के प्रधान सम्पादक थे। अलावा इसके ‘पालि-सिंहली-अंग्रेजी शब्दकोश' तथा 'गुणपाल सिंहली-अंग्रेजी शब्दकोश' उनके कालजयी ग्रंथ हैं। 

यह प्रोफेसर डॉ. जी.पी. मलालसेकर को श्रेय है कि 25 मई, 1950 को वर्ल्ड बुद्धिस्ट फलोशिप में वैश्विक बौद्ध संघ के सम्मुख,जिसमें बाबा साहब भी उपस्थित थे, जापान के ज़ेन विद्वान डॉ. डी. टी. सुजुकी भी उपस्थित थे, उन्होंने उस बौद्ध ध्वज को समस्त बौद्ध जगत के द्वारा स्वीकृत करने का प्रस्ताव रखा, जो कि साधुवाद के साथ अनुमोदित हो गया। कह सकता हूँ कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज में धम्मचक्र समावेशित कर उसे बौद्ध स्वरूप देने का श्रेय बाबा साहब को है और धम्म ध्वजा को वैश्विक मान्यता दिये जाने की घटना में भी उनकी उपस्थिति है। आधिकारिक रूप से इस ध्वज को अन्तराष्ट्रीय बौद्ध ध्वज की मान्यता 1952 में वर्ल्ड बुद्धिस्ट कांग्रेस में मिली। 

प्रकटतः इस धम्म ध्वज में पांच रंग की खड़ी पट्टियाँ होती हैं। इस कारण लोग इसे पंचशील ध्वज कहते हैं। जबकि वास्तव में इसमें पांच पट्टियाँ नहीं वरन छः पट्टियाँ होती हैं, छठी खड़ी पट्टी में पाचों रंगों का संयुक्त रूप होता है। तथापि इस ध्वज को पंचशील ध्वज कहकर सम्बोधित करना इस बात की ओर भी संकेत करता है कि बौद्ध पंचशीलों को कितना महत्व देते हैं। यदि रंगो की संख्या की भाषा में ही कहा जाये, तो इसे पंचशील न कह कर षडायतन ध्वज कहना अधिक उपयुक्त होगा, लेकिन 'धम्म ध्वजा' के रूप में इसकी वैश्विक मान्यता तथा स्वीकार्यता है। पंचशील या षडायतन बोलचाल में प्रयोग किये जा सकते हैं, मगर 'धम्म ध्वजा' या 'बुद्धिस्ट फ्लैग' इसकी सार्वभौमिक संज्ञा है। 

'धम्म ध्वजा' के छः रंगों का भी विशेष अर्थ है। बौद्ध ग्रंथों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान बुद्ध के शरीर से छ: रंगों का आभामण्डल (Aura) प्रस्फुटित होता रहता था, नीला, पीला, लाल, धवल, कासाय और छः रंगों का मिश्रित रूप जिसे प्रभास्वर कहते हैं। यह छः रंग बुद्धत्व व धम्म की परिपूर्णता के प्रतीक हैं। बौद्धों के स्मरण रखने के लिए अनुस्मारक अर्थात् रिमाइण्डर जैसे हैं। इस ध्वज के छः रंगों का प्रतीकार्थ निम्नवत व्याख्यायित हैं: 

नीला: कहा जाता है कि नीले रंग का आभा मण्डल भगवान बुद्ध के सिर के चारों ओर रहता था, जो कि प्राणि मात्र के प्रति उनकी अखण्डित करुणा का प्रतीक है। इस प्रकार नीला रंग मैत्री, करुणा व शान्ति का प्रतीक है। आसमान और सागर के नीले रंग की तरह व्यापकता का संदेश देता है। 

पीला: पीले रंग की आभा भगवान बुद्ध के निकटतम रहती थी। पीला रंग रूप-अरूप की अनुपस्थिति, शून्यता और मध्यम मार्ग का प्रतीक है। मध्यम मार्ग अर्थात अतियों से परे बीच का रास्ता। 

लाल: लाल रंग बुद्ध त्वचा की आभा है। यह रंग धम्माभ्यास की जीवन्तता व मंगलमयता का प्रतीक है। यह प्रज्ञा, सौभाग्य, गरिमा, सद्गुण व उपलब्धि का भी संकेत है। 

धवल या सफेद: बुद्ध के दांतों, नाखूनों व अस्थि धातुओं से धवल आभा प्रस्फुटित होती रहती थी। यह रंग शुद्धता व पावनता का प्रतीक है और बुद्ध की शिक्षाओं की अकालिकता का भी। अकालिकता अर्थात बुद्ध की देशनाएं समय के साथ पुरानी नहीं पड़ती, वरन नित नवीन बनी रहती हैं, वे जितनी सच कल थीं, उतनी आज भी हैं और आगे भी रहेंगी। 

कासाय या केसरिया: बुद्ध की हथेलियों, एड़ियों, होंठों पर केसरिया आभा दमकती रहती थी। यह रंग बुद्ध की अकम्प प्रज्ञा का प्रतीक है। यह वीर्य अर्थात उत्साह व गरिमा का संकेत भी करता है। 

पाचों रंग-प्रभास्वर: पाचों रंगों की मिश्रित आभा अर्थात प्रभास्वर बुद्ध की देशनाओं की विभेदता, क्षमता का प्रतीक है। यह मिश्रित आभा दर्शाती है कि बुद्ध की शिक्षाएं जाति, सम्प्रदाय, नस्ल, राष्ट्रीयता, विभाजन-विभेद से परे न केवल मानवमात्र के लिए हैं वरन प्राणिमात्र के लिए हैं। 

इस प्रकार यह ध्वजा मानवीय मूल्यों व गरिमा का एक सार्वभौमिक प्रतीक है। यह ध्वज किसी एक राष्ट्र का नहीं वरन सकल विश्व का है। यद्यपि इसे बौद्ध ध्वजा की अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता है तथापि यह सम्पूर्ण मानवता का ध्वज है। 

संदर्भ-
पुस्तक - मैत्री सम्पूर्ण धम्म है


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