साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, March 30, 2022

चाबी का गुच्छा-सुरेश सौरभ

    लघुकथाएं                                                                                                                                सुरेश सौरभ      
चाबी का गुच्छा

   रेंगते-रेंगते वो चाबी का गुच्छा उसकी पत्नी के पास पहुँचा। जिस पर लिखा था ‘आई लव यू मनोज।’ पत्नी ने हैरत से कहा-अरे! ये क्या?
      पति-कोंचिग की एक बच्ची ने दिया है।
      पत्नी-कैसे-कैसे बेवड़े बच्चे हैं आजकल के।
      पति-जैसे माँ-बाप होंगे वैसे बच्चे होंगे।
      पत्नी-आप तो गुरु हैं? गुरु तो पितातुल्य होता है...यह जलता सवाल पति के कलेजे पर धक्क से लगा। अब वह अपनी आँखे चुराते हुए, घर्र...ऽऽऽ..तुरन्त मोटर साइकिल स्टार्ट की...धप्प से बैठ, कालेज की ओर तेजी से चल पड़ा।
       निरुउत्तर हो, चोर आँखों से, पति को जाता देख, उसे अंदर तक सालता रहा, काफी देर तलक। अब सामने पड़ा, वह चाबी का गुच्छा उसकी आँखों में किसी किनकी सा खरक रहा था।...पर चुभन दिल में थी।

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रंगों के बहाने 

         होली एक समरसता का त्योहार है। प्रेम और धार्मिक सौहार्द को यह त्योहार बढ़ाता है।, ‘‘मम्मी! ओ मम्मी! आगे क्या लिखूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है?, अपनी नोटबुक पर निबंध लिखते हुए विवेक अधीरता से बोला, ‘‘आज ही यह होली पर निबंध पूरा करके ऑनलाइन एक कम्पीटीशन में भेजना है, पाँचवी कक्षा में पढ़ने वाला विवेक, अपनी माँ से जिद करके पूछ रहा था।
      अपने काम में लगी माँ से, जब यह सवाल विवेक ने किया, तो उसको जैसे शॉक सा लगा। बदरंग यादों के दरीचें पर्त-दर-पर्त खुलते चले गये।
       तब उसकी शादी का वह चौथा साल लगा था। उस दिन, होली का दिन था। पति कहीं काम से गये थे। सास भी कहीं गईं थीं। दो साल का विवेक अपने खेल में मस्त था। घर के काम में वह व्यस्त थी, तभी घर की कुंडी बजी। खिड़की से झांका तो रंग गुलाल से सराबोर उसके दूर के, रिश्ते के तीन देवर नमूदार हुए।. . हा.. हा.. हा.. भाभी दरवाजा खोलो.... अनुनय-विनय शुरू की...नहीं नहीं तुम्हारे भैया हैं नहीं हैं? फिर आना कभी? अरे! अरे! आप तो खामखा नाराज हो रहीं हैं। होली है, इतनी दूर से आएं हैं हम। भला आप के पैर छूए बगैर कैसे चलेे जाएँगे।...नहीं नहीं फिर आना कभी? घर में अभी  कोई नहीं है।... आप की कसम रंग बिलकुल नहीं लगाएंगे हम..बच्चों सा गिड़गिड़ाने लगे वे।
       स्त्री हृदय पिघल गया। दरवाजा खोला, चट-पट हुरियारे अंदर आ गये। हा हा हा... नहीं नहीं, देखो मैंने पहले मना किया था, रंग न लगाना, देखो रंग न लगाना बाकी सब ठीक है.. हमसे बुरा कोई न होगा.. झीनाझपटी-धींगामुश्ती शुरू हुई.. फिर एक ने दोनों हाथ पकड़े, एक ने पैर, गिरा दिया एक कमजोर चिड़िया को। फिर फिर रंग रंग रंग..। वह गिगिड़ाती रही, तड़पती रही, पैर छूने वाले, आशीर्वाद माँगने वाले, देवर अपनी भाभी के जिस्म के हर हिस्से की जबरदस्ती पैमाइश कर रहे थे. बहाना था रंग रंग रंग होली...होली... होली...
       ‘‘मम्मी! ओ मम्मी! कसके विवेक ने झिझोड़ा तो उसकी तंद्रा भंग हुई। यादों की गहरी चुभन टीस लिए वह बोली-लिखो इस समरता के त्योहार को कुछ लुच्चे लफंगे गंदा कर देते हैं। कुछ आवारा शोहदों ने इसे बिलकुल्ल घिनौना बना दिया है...इसलिए महिलाओं को होली में हुड़दंगियों  से बचना चाहिए.. विवेक निबंध पूरा करते हुए एक बारगी कनखियों से माँ को देखा। उनकी आँखों में जल की एक महीन रेखा न जाने क्यों उभरती चली आ रही थी, जिसे वह समझ पाने में अक्षम था।


-सुरेश सौरभ
निर्मलनगर लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

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