साहित्य

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Wednesday, March 09, 2022

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस और महिलाओं पर पुरुषवादी, दकियानूसियत कहर के ख़िलाफ़ समाज का सच कुछ ऐसा है-नन्द लाल वर्मा (असोसिएट प्रोफेसर)

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष:
नन्द लाल वर्मा 
08मार्च,2022 
सत्ता और समाज का एक बड़ा तबका आज भी औरतों को उपभोग की वस्तु से ऊपर उठकर नहीं समझ पा रहा है। यह समाज की पुरातनी/पारंपरिक/दकियानूसी सोच या उसके माइंड सेट का परिचायक लगती है।आज महिलाओं के प्रति अन्याय,अश्लीलता,यौन शोषण/दुष्कर्म और उसके बाद जघन्य हत्या जैसी घटनाएं दिन प्रतिदिन जिस कदर बढ़ती जा रही हैं,उसके पीछे जो सबसे बड़ा सामाजिक कारण लगता है,वह शायद यह है कि जिनके साथ ऐसी घटनाएं घटित होती हैं,वे और उनके परिजन सामाजिक बदनामी के डर,जटिल/ असंवेदनशील/भ्रष्ट  प्रशासनिक और न्यायिक प्रक्रिया की वजह से चुप्पी साध लेना उनकी विवशता बन जाती है और समाज के जिम्मेदार लोग भी उन्हें चुप हो जाने की ही नसीहत देना ही उचित समझने लगते हैं। सभ्य और शिक्षित समाज का शिक्षक,साहित्यकार,बुद्धिजीवी और मां बाप क्यों नहीं बोल पा रहे हैं? समाज के जिम्मेदार लोगों को जहां सच बोलना चाहिए ,वे वहां बोल नहीं पा रहे हैं। आज के दौर में बुद्धिजीवियों में भी उचित अवसर पर सच बोलने का साहस खत्म होता जा रहा है। बड़ी बड़ी प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थाओं के जिम्मेदार, बुद्धिजीवी वर्ग,संसद में बैठी महिला सांसद,लोकतंत्र का प्रहरी और चौथा स्तंभ कहा जाने वाला देश का निष्पक्ष व स्वतंत्र मीडिया और यहां तक कि "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" का नारा देने वाली सत्तारूढ़ पार्टी के संवैधानिक पदों पर बैठे मर्द और महिलाएं तक भी नहीं बोल पा रहे हैं। आम आदमी सड़क पर उतर कर सही बात क्यों नहीं बोल पा रहा है,पूरा देश चुप क्यों है? महिला के हर सवाल या समस्या पर उसका खुद न बोलना और न ही किसी अन्य का बोलना या बोलने न देना,इस देश की परम्परा सी पनपती जा रही है।

      आज से लगभग नौ साल पहले निर्भया कांड पर आम लोग राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट तक सड़क पर उतर आए थे। अखबार और पत्रिकाओं से लेकर टीवी चैनलों पर खबरों की बाढ सी आ गई थी। जब संसद से लेकर न्यायपालिका तक हलचल हुई तो सज़ा का कानून बदला और सख्ती भी हुई और महिलाओं से जुड़े संवेदनशील मुद्दे राष्ट्रीय राजनीति की  मुख्यधारा में गंभीर चर्चा के विषय बनते देर नहीं लगी थी और उस समय ऐसा लगा था कि शायद अब लोगों की चुप्पी टूट रही है,किन्तु आठ साल बाद गार्गी कॉलेज की घटना पर ऐसा फिर लगा,कि अब फिर हम सब चुप क्यों हो गए हैं? चुप्पी सिर्फ न बोलने तक ही सीमित नहीं होती है,बल्कि यह एक अप्रत्यक्ष संदेश समेटे इस बात की धमकी भी होती है,कि देश में अभी भी मर्दों का ही राज चलता है।

         दिल्ली के गार्गी महिला कालेज में हुई शर्मनाक घटना ने देश के जिम्मेदार लोगों की कलई खोलकर रख दी है। छात्राओं के साथ ऐसी अश्लील घटनाएं हुई जिनकी सभ्य समाज में चर्चा करना ही अश्लीलता मानी जाती है। दिल को झकझोर देने वाली घटना की खबर कैंपस से बाहर प्रशासन और मीडिया तक न पहुंच पाना,वहां की जिम्मेदार प्राचार्य,कॉलेज प्रशासन और शिक्षिकाओं की असंवेदनीलता और कायरता या भय की एक बदसूरत बानगी देखते सिर शर्म से झुक जाता है। जेएनयू से पढ़ी लिखी देश की महिला वित्तमंत्री ने अपने 2020-21 के बजट के तीसरे सेगमेंट में इसी तरह की " केयरिंग सोसायटी" के निर्माण की संकल्पना की दुहाई देते हुए बजट सत्र में देश की जनता से संवाद क़ायम किया था। गार्गी जैसी घटना पर देश की मीडिया केंद्रित राजधानी जैसे शहर दिल्ली में आवाज तक न उठने के अत्यंत व्यापक व गंभीर निहितार्थ है,कि देश में आज भी महिलाओं की सामाजिक और राजनीतिक औकात में अपेक्षित बदलाव नहीं आ पाया है!"

          मेरे विचार से महिला अपराधों के विरुद्ध किसी भी सामाजिक या अन्य सार्वजनिक संगठनों द्वारा पीड़ितों की आवाज बनकर आंदोलन का रूप न दे पाना, अपराधियों के दुस्साहस को बढ़ाने जैसा ही है। देश की निष्पक्ष और स्वतंत्र कही जाने वाली मीडिया के बड़े हिस्से की वर्तमान स्थिति/भूमिका से समाज में एक अदृश्य भय या कायरता जैसी स्थिति पनपती नजर आती है। 

         "मेरे विचार से जिस देश का मीडिया निष्पक्षता निडरता और स्वतंत्रता के साथ एक सजग प्रहरी की भूमिका निभाता है,उस देश का लोकतंत्र और समाज के सभी अवयवों के सेहतमंद,सुरक्षित और सजग रहने की संभावनाएं बनी रहती है।

         समाज,प्रशासन और न्यायपालिका में किसी महिला के साथ हुए अपराध की सजा,उस अपराध की प्रकृति के हिसाब से नहीं,बल्कि अपराधी की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक हैसियत के हिसाब से तय होती है। "गरीब हुआ तो फांसी पर लटका दिया जाता है और यदि हैसियतदार/ओहदेदार हुआ तो बाहर आने पर उसका फूल मालाओं से स्वागत किया जाता है।"

          बीते कई सालो में इस विषमता और मर्दवादी सोच व व्यवस्था में महिलाओं को अपने लिए शिक्षा,नौकरी, पेशा/धंधा और आत्मसम्मान हासिल करने के लिए एक लंबा सफर तय करना पड़ा है और उन्हें आज भी कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है। महिलाओं द्वारा अपने लिए बोलना,संघर्ष और लड़ना सीख लेने के बावजूद, देश के मर्दों की मर्दानगी की स्क्रिप्ट अभी भी नहीं बदली है। वह बेशर्मी और अहंकार के साथ हर चौराहे पर अश्लीलता करता हुआ आज भी खड़ा नजर आता और लड़कियां शर्म और डर से झुकी हुई नजर आती हैं।बदले परिवेश में ऐसे मर्दों के लिए एक नई स्क्रिप्ट के लिखे जाने की आवश्यकता है। जाहिर है कि वे मर्द नहीं लिखेंगे,जिन्हे व्यवस्था में बेशर्म और बेलगाम अप्रत्यक्ष अनगिनत अदृश्य अधिकार प्राप्त है। समय आने पर "महिला अपराधों और अन्यायों के खिलाफ नई स्क्रिप्ट उन्हीं महिलाओं द्वारा लिखी जाएगी,जिन्हे ऐसे मर्दों की मर्दानगी से पीड़ित और अपमानित होकर जहर पीना पड़ता है और फिर समाज के ही जिम्मेदारों द्वारा उन्हें चुप रहने के लिए विवश किया जाता है या नसीहत दी जाती है।"
  लखीमपुर- खीरी उत्तर-प्रदेश।

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