साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Thursday, September 16, 2021

किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं, यह समझने के लिए शिमला के सेब किसानों का एक सटीक और सार्थक उदाहरण दिया जा सकता है- नन्द लाल वर्मा

नन्दलाल वर्मा (प्रोफ़ेसर)
         शिमला (हिमाचल प्रदेश) में सेब के बाग है और वहां के किसानो से छोटे- छोटे स्थानीय व्यापारी सेब ख़रीदकर देश भर में भेजते थे। इन व्यापारियों के छोटे-छोटे गोदाम थे। पूँजीपति अड़ानी की नज़र इस कारोबार पर पड़ी। हिमाचल प्रदेश में भाजपा की सरकार थी तो अड़ानी को वहाँ ज़मीन लेने और बाक़ी काग़ज़ी कार्यवाही में कोई दिक़्क़त नहीं आयी। अड़ानी ने वहाँ पर बड़े- बड़े गोदाम बनाए। सैंज,रोहडू और बिथल में बनाये गए गोदाम स्थानीय व्यापारियों के गोदामों से हज़ारों गुना बड़े हैं।

        जब अड़ानी ने सेब ख़रीदना शुरू किया तो छोटे व्यापारी जो सेब किसानो से 20 रुपए किलो के भाव से ख़रीदते थे, अड़ानी ने वही सेब 25 रुपए किलो ख़रीदना शुरू कर दिया। अगले साल अड़ानी ने रेट बढ़ाकर 28 रुपए किलो कर दिया। अब धीरे - धीरे छोटे व्यापारी वहाँ ख़त्म हो गए, अड़ानी से प्रतिस्पर्धा करना किसी स्थानीय व्यापारी के बस का नहीं था। जब वहाँ अड़ानी का एकाधिपत्य स्थापित हो गया तो तीसरे साल से अड़ानी ने किसान के सेब का भाव कम करना शुरू कर दिया और यदि इसकी असलियत देखना हो तो शिमला जाकर देखी जा सकती है।

         आज वहां एक भी छोटा व्यापारी बचा नहीं है।अब अड़ानी को कम मूल्यों पर सेब बेचना वहां के किसानों की मजबूरी सी बन गयी है। अब अड़ानी किसानों से मनमर्जी कीमत मैं जो सेब ख़रीदता है और उस पर एक-दो पैसे का अड़ानी लिखा अपना स्टिकर चिपका कर उसी सेब को 200-250 रुपए किलो बाज़ार में बेचा जा रहा है। अब बताइए, क्या अड़ानी ने वह सेब उगाए हैं ? सेब किसान उगाए और फसल की कीमत का लाभ कोई दूसरा उठाये,यह कितना तार्किक और न्यायसंगत है? किसानों की हाड़-मांस की कमाई पर दूसरे पूंजीपतियों द्वारा डाले जाने वाले डाके की इस राजनीति और कूटनीति के निहितार्थ को समझने की जरूरत है। अगर सरकार ही इसमें शामिल होती दिख रही है तो इस सरकार को लोकतांत्रिक सरकार कहलाने का नैतिक अधिकार खत्म हो जाता है। यह सरकार पूंजीपतियों की सरकार के रूप में काम करते हुए भारतीय संविधान की सारी स्थापनाओं, मर्यादाओं और मूल्यों का खुला उल्लंघन माना जाना चाहिए और संविधान की सुरक्षा और पालन की संवैधानिक जिम्मेदारी को देश की सर्वोच्च अदालत को स्वतः संज्ञान लेते हुए आम आदमी के हितों और भविष्य की सुरक्षा करनी चाहिए। अभी कुछ समय से देश की न्यायपालिका की न्याय व्यवस्था पर भी तरह तरह के सवालिया निशान लगने लगे थे लेकिन चीफ जस्टिस रमना के आने और उनकी कार्यसंस्कृति और शैली से एक नई आशा की किरण चमकने की उम्मीदें जगी हैं।

         इसी तरह टेलिकॉम (दूरसंचार) इंडस्ट्री की मिसाल भी आपके सामने हैं। कांग्रेस की सरकार में 25 से ज़्यादा मोबाइल सर्विस प्रवाइडर थे। जिओ ने शुरू के दो-तीन साल फ़्री कॉलिंग, फ़्री डेटा देकर सबको समाप्त कर दिया। आज केवल तीन सर्विस प्रवाइडर ही बचे हैं और बाक़ी दो भी अंतिम साँसे गिन रहे हैं। अब जिओ ने रेट बढ़ा दिए। रिचार्ज पर महीना 24 दिन का कर दिया। पहले आपको फ़्री और सस्ते की लत लगवाई अब जिओ अच्छे से आपकी जेब काट रहा है।

        कृषि बिल अगर लागू हो गये तो गेहूँ ,चावल,सब्जी,दाल,तेल जो एक आम आदमी की दिनचर्या में एक आबश्यकता के रूप में शामिल है और दूसरे कृषि उत्पादों का भी यही हाल होगा। पहले दाम घटाकर बड़े पूंजीपति छोटे व्यापारियों को ख़त्म करेंगे और फिर मनमर्ज़ी रेट पर किसान की उपज ख़रीदेंगे। जब उपज केवल अड़ानी जैसे लोगों के पास ही होगी तो बाज़ार पर इनका एकाधिकार और वर्चस्व होगा और सेब की तरह वे बेचेंगे भ अपने रेट पर। अब सेब की महंगाई तो आम आदमी या उपभोक्ता बर्दाश्त कर सकता है क्योंकि उसको खाए बिना उसका काम चल सकता है लेकिन दाल, रोटी,सब्जी और चावल तो हर आदमी को चाहिए ।

       अभी भी वक्त है, जाग जाइए, आज देश के किसान सरकार से लगभग नौ महीने से लड़ाई केवल अपनी लड़ाई ही नहीं लड़ रहे हैं,बल्कि  देश के 100 करोड़ से अधिक मध्यमवर्गीय / निम्नवर्गीय परिवारों की भी लड़ाई लड़ रहा है।यदि किसान आंदोलन से सरकार प्रभावित या बैक फुट पर नही जाती है तो कृषि कानूनों के लागू हो जाने के बाद एक आम आदमी के परिवार की थाली की रोटी,दाल,सब्जी ,तेल और चावल इतना महंगा हो जाएगा जिसकी कोई कल्पना नही की जा सकती है। इसलिए मैं समझता हूं कि अब किसानों का आंदोलन धर्म,क्षेत्र ,जाति और राजनीति से कहीं ऊपर उठकर एक जनांदोलन का रूप देने का वक्त आ गया है। देश एक बार फिर इन पूँजीपतियों की गुलाम बनने की दिशा में जाता हुआ दिख रहा है। कृषि कानून लागू होने के बाद देश मे खाद्यान्न सुरक्षा कार्यक्रम निकट भविष्य में किस कदर दम तोड़ता नज़र आएगा ,इसकी परिकल्पना भी नही की जा सकती है।देश का आम नागरिक अपनी पेट की भूख शांत करने और जिंदा रहने के लिए इन पूंजीपतियों के रहमोकरम पर होगा। सरकार के तीनों कृषि कानून किसानों के लिए तो फांसी के फंदे हैं ही और साथ ही ये आम आदमी के लिए दूसरी गुलामी की दस्तक भी।

       मुज़फ्फरनगर में हुई किसान मोर्चा की संयुक्त महापंचायत से किसान आंदोलन की दिशा और दशा में एक अभिनव परिवर्तन की आहट दिखाई दी।धर्म,जाति और क्षेत्रीय सीमाओं से परे इस महापंचायत और उसके तुरंत बाद हरियाणा सरकार के कथित मिनी सचिवालय पर किसानों का धरना प्रदर्शन सत्तारूढ़ भाजपा ,उसके पैतृक और आनुषंगिक संगठनों में सन्निकट विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र बेचैनी जरूर पैदा करने में सफल होता दिखता है। जमीनी स्तर से भी अब यह आवाज उठती नज़र आ रही है कि जिन समाजों  ने  2014,2017 और 2019 में अपने सामाजिक - राजनैतिक दल को छोड़कर बीजेपी के पक्ष में मतदान कर बड़ी गलती कर दी और अब वह उस गलती की पुनरावृत्ति नही करना चाहता और साथ ही यह भी निकलकर आ रहा है कि जो विपक्षी दल बीजेपी को हराने की स्थिति में दिखाई देखा धर्म और जाति से परे हटकर उसी दल के पक्ष में मतदान करने के मूड में दिखाई दे रहे हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा,महामारी और बेरोजगारी से बुरी तरह टूट चुकी आम जनता बीजेपी शासन से इस कदर नाराज़ है कि वह बीजेपी को हराते हुए किसी भी विपक्षी दल के साथ जाने का मन बनाता हुआ दिखने लगा है। इन स्थितियों से एक तस्वीर चाहे वह धुंधली ही क्यों न हो, उभरती नज़र जरूर आ रही है कि राजनैतिक माहौल बीजेपी के लिए सुखद नही है। किसान आंदोलन के प्रति सरकार के अमानवीय,असंवेदनशील, हठधर्मी और उपेक्षापूर्ण रुख से गांव के किसानों और उसके सहयोगी कृषि मजदूरों में सत्तारूढ़ भाजपा के प्रति एक समावेशी आक्रोश उभरता हुआ नजर आ रहा है। संवैधानिक सामाजिक न्याय पर हो रहे अनवरत कुठाराघात और संविधान समीक्षा के नाम पर अप्रत्यक्ष रूप से आरक्षण खत्म करने की साजिश को ओबीसी,एससी और एसटी अच्छी तरह समझने की स्थिति में  है, जिसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया भी बीजेपी के लिए आग में घी डालने जैसी स्थिति से निपटना आसान नही होगा। अभी हाल ही में सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों के परिणामों से आम जनमानस में यह संदेश जा चुका है कि सत्तारुढ़ बीजेपी के प्रति लोगों का लगाव/झुकाव कम हुआ है,उससे चुनावी टक्कर लेने की स्थिति में यदि कोई दल है तो वह है, समाजवादी पार्टी क्योंकि, समाजवादी पार्टी  जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में पूरे दमखम के साथ एक मजबूत विपक्ष के रूप में सत्तारूढ़ दल के साथ लड़ता हुआ दिखाई दिया है और अन्य विपक्षी दलों की भूमिका लगभग नगण्य दिखाई दी,बीएसपी ने तो अपने को चुनाव से अलग कर यह लगभग साबित करती दिखी कि वह अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी को लाभ देने उसकी रणनीति का हिस्सा है।इससे पूर्व भी कई राजनैतिक अवसरों पर भी बीएसपी बीजेपी के साथ ही नज़र आती रही। जमीनी स्तर पर और राजनैतिक गलियारों में यह चर्चा जोड़ पकड़ती जा रही है कि बीजेपी के सामने यदि ऊई टिकता नज़र आ रहा है, तो वह है समाजवादी पार्टी और इस अवसर का भरपूर राजनैतिक लाभ समाजवादी पार्टी को मिलने की संभावना हो सकती है।यह सपा की रणनीति पर निर्भर करेगा कि वह इसका कितना राजनैतिक नकदीकरण करने की स्थिति में होगी!

          2014 के चुनाव से पूर्व से आज तक कांग्रेस विरोधी और झूठे प्रचार से देश की भोली-भाली जनता की भावनाओं से खिलवाड़ किया गया है जिसे अब वह अच्छी तरह समझ और ऊब चुकी है। सांविधानिक संस्थाओं को पंगु कर और आम आदमी की आवाज राष्ट्रीय मीडिया के अधिकांश भाग को खरीदकर  सरकार ने अपने लोकतांत्रिक तानाशाही चरित्र की बड़ी मिसाल क़ायम कर लोकतंत्र की निर्मम हत्या जैसा कृत्य किया है। सत्तारूढ़ बीजेपी की कथनी और करनी का रिपोर्ट कार्ड यदि ईमानदारी से तैयार कर उसका विश्लेषण किया जाए तो वह आम आदमी के किसी भी सरोकार पर खरी साबित नही हुई है। मेरा मानना है कि आज जो भी मंदिर- मस्जिद,हिन्दू- मुसलमान,भारत- पाकिस्तान अर्थात अदृश्य,काल्पनिक और झूठी राष्ट्रभक्ति की अंधभक्ति में डूबे हुये हैं और जिनकी आज मानवीय संवेदनाएं किसानों के साथ नहीं है,उन्हें सजग और सतर्क हो जाने की जरूरत है क्योंकि, भविष्य में देश के आम आदमी और उसकी सुरक्षा में रात दिन सरहद पर तैनात सैनिकों के परिवार के साथ होने वाले एक बड़े अन्याय और धोखे की साज़िश को अंधी राष्ट्रभक्ति की भट्टी में झोंकने से बचे ,यही सच्ची राष्ट्रभक्ति की मिसाल होगी।

जय जवान - जय किसान।

लखीमपुर-खीरी

8858656000, 9415461224

Monday, September 06, 2021

तो क्या ‘जातिवार जनगणना’ अब नया गेम चेंजर होगी -अजय बोकिल

अजय बोकिल
देश में जातिवार जनगणना का मानस बनाने जिस सुविचारित ढंग से चालें चली जा रही हैं, उससे साफ है कि आगामी चुनावों का यह कोर मुद्दा होगा। इसकी डुगडुगी घोर जातिवाद में पगे ‍िबहार से बजना स्वाभाविक ही था। एनडीए का हिस्सा रही जद यू और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में भाजपा सहित 11 दलों के प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भेंटकर उन्हें जातिवार जनगणना की जरूरत से अवगत कराया और पीएम ने भी ‘गंभीरता’ से उनकी बात सुनी। हालांकि प्रतिनिधिमंडल में शामिल ज्यादातर पार्टियां एक-दूसरे की राजनीतिक विरोधी हैं, लेकिन जातिवार जनगणना पर उनमें आम सहमति है, क्योंकि जाति का राजनीतिक स्वीकार ही इन पार्टियों के सियासी अस्तित्व की गारंटी भी है। संकेत यही है कि जातिवार जनगणना के बारे में मोदी सरकार जल्द फैसला लेने वाली है। और यह फैसला जातिवार जनगणना से भाजपा को होने वाले राजनीतिक नफे- नुकसान को ध्यान में रखकर लिया जाएगा। मंथन इसकी ‘टाइमिंग’ को लेकर है ताकि जातिवार जनगणना की घोषणा का अधिकतम राजनीतिक लाभांश भाजपा अपने खाते में दर्ज करा सके। इस जातिवार जनगणना का मुख्य फोकस अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल उन जातियों पर होगा, जिनकी संख्‍या को लेकर हमेशा एक भ्रम का वातावरण रहा है। यूं कहने को नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने तर्क दिया है कि एक बार जनगणना हो जाएगी तो सभी जातियों की आबादी की स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। इसी आधार पर गरीबों को सरकारी योजनाअों का लाभ मिल सकेगा। सही आंकड़ों के अभाव में अभी कई समूहों को सरकार की नीतियों का लाभ नहीं मिल पा रहा है।  लेकिन खुला रहस्य यह है कि जातिवार जनगणना का मकसद सियासी दलों द्वारा  अोबीसी वोट बैंक अपने लिए सुरक्षित करना है। क्योंकि इन्हीं जातियों के वोटरों की सत्ताधीशों के चुनाव में अहम भूमिका होगी। पार्टियों के साथ जातियों की प्रतिबद्धता और अलगाव भी सु‍िनश्चित हो सकेगा। उन्हें गोलबंद करना ज्यादा आसान होगा।  
इस देश में आखिरी बार जातिवार जनगणना 1931 में अंग्रेजों के जमाने में हुई थी। यही व्यवस्था 1941 की जनगणना में लागू रही, लेकिन सरकार ने जातियों के आंकड़े जारी नहीं किए। 2011 में भी  समाजार्थिक तथा जातीय जनगणना की गई थी, लेकिन जातिवार जनगणना के आंकड़े सरकार ने कभी जारी नहीं किए। लिहाजा आज भी 1931 के डाटा के आधार पर जातिवार जनसंख्या के अनुमान लगाए जाते हैं, जिनमें अोबीसी के साथ-साथ दलित, आदिवासी और सवर्ण  भी शा‍िमल हैं। स्वतंत्र भारत में अनुसूचित जाति और जनजाति की गणना तो हुई, लेकिन बाकी जातियों की जनसंख्या को ‘जनरल’ मान लिया गया। इसके पीछे कारण हिंदू समाज को घोषित रूप में बंटने से रोकना भी हो सकता है। 
लेकिन जमीनी सच्चाई है कि भारत में चुनावी रणनीतियां जातियों के समर्थन और विरोध को ध्यान में रखकर ही बनती आई हैं। अब इसमे धर्म का एंगल भी पूरी ताकत से शामिल हो गया है। शायद ही कोई राज्य होगा, जिसमें जाति का गणित सत्ता की शतरंज पर अहमियत न रखता हो। क्योंकि जातियों की सत्ताकांक्षा चुनाव के माध्यम से प्रस्फुटित होती है। उनकी गोलबंदी और दंबगई सरकारों को अपेक्षित नीतियां और सुविधाएं देने पर विवश करती है। जातीय आधार पर समाज और देश का यह विभाजन वास्तव में ‘एक राष्ट्र’ और धार्मिक एकता की भावना के विपरीत ही है, लेकिन अब इसी को ‘मजबूत राष्ट्र’ के लिए ‘अनिवार्य मजबूरी’ के रूप में पेश किया जा रहा है। मंडल-कमंडल राजनीति ने देश में जाति के आधार पर मतदाताअों की नई गोलबं‍दी को जन्म दिया, उसे पल्लवित किया। अब भाजपा ने भी इसे सत्ता के खेल की अपरिहार्य शर्त के रूप में स्वीकार करते हुए, इसका दोहन अपने पक्ष में करने की पूरी तैयारी कर ली है। 
यहां सवाल उठ सकता है कि जा‍तीय विभाजन और गोलबंदी का लाभ हाल के वर्षों में ‍िकस राजनीतिक पार्टी को सबसे ज्यादा मिला है? सामाजिक समरसता की माला जपते-जपते किस पार्टी ने जाति के मनकों को बड़ी चतुराई से अपने पक्ष में फेरा है तो इसका जवाब भारतीय जनता पार्टी ही है। 90 के दशक में भाजपा ने ‘सवर्णों और ‍बनियों की पार्टी’ होने का चोला उतार फेंका और देश और राज्यों की सत्ता पर काबिज होने के लिए सभी धार्मिक और जातिगत गोलबंदी के नुस्खे आजमाना शुरू किए। जिसका नतीजा है कि आज लगभग एक दर्जन राज्यों और दिल्ली के तख्‍त पर उसका कब्जा है। हालांकि अोबीसी मतदाता का देश और प्रदेश के चुनावों में रूझान हमेशा एक सा नहीं होता। स्थानीय तकाजे इस बदलाव का कारण होते हैं। बावजूद इसके बड़े पैमाने पर पिछडी जातियां धीरे-धीरे कैसे भाजपा के भगवा शामियाने तले एकजुट होने लगीं, इसे लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के आंकड़ों से समझा जा सकता है। 
‘लोकनीति-सीएसडीएस’ के संजय कुमार की ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी रिपोर्ट बताती है ‍कि बीते 25 सालो में अोबीसी का भाजपा को समर्थन किस तेजी से बढ़ा है। हालांकि पिछले दो लोकसभा चुनाव ने सिद्ध किया है कि बीजेपी ने पिछड़े वर्ग के साथ साथ दलित, आदिवासी और सवर्णों में भी अपना वोट बैंक विस्तारित किया है। अोबीसी में भाजपा की बढ़ती घुसपैठ के चलते दूसरी जातिकेन्द्रित पार्टियों में गहरी चिंता है। ऐसे में वो जातियों की सही संख्या जानना चाहती हैं ताकि बीजेपी की जातीय गोलबंदी को ‘ब्रेक’ किया जा सके। सीएसडीएस सर्वे बताता है कि किस तरह मंडल आंदोलन के बाद से अोबीसी वोट बैंक कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों से किस तरह बीजेपी के पक्ष में शिफ्ट होता गया है। अोबीसी को ‘कर्मवीर जातियां’ भी कहा जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पिछड़ा वर्ग के चेहरे के रूप में प्रचारित करने से भी भाजपा को फायदा हुआ है। यह सचाई है कि आजादी के बरसों बाद तक राजनीति में सवर्णों के वर्चस्व को चुनौती देने वाला अोबीसी मानस मोदी के रूप में अपना वर्चस्व देखकर मानसिक रूप से भी संतुष्ट होता है। मोटे तौर माना जाता है कि देश में अोबीसी की जनसंख्‍या कुल का आधे से ज्यादा यानी करीब 52 फीसदी है। इसके तहत लगभग 6 हजार जातियां आती हैं। वास्तविक संख्या इससे ज्यादा भी हो सकती है। उसी आधार पर सत्ता और संसाधनों में हिस्सेदारी भी अपेक्षित होगी। 
जातिवार जनगणना का अंतिम लाभांश यदि भाजपा के खाते में जाने की पूरी संभावना हो तो उसे जातिवार जनगणना कराने में कोई ऐतराज न होगा। इसके लिए नए तर्क और जुमले भी गढ़ लिए जाएंगे। जातीय अस्मिता को हिंदुत्व के जयगान की अनिवार्य सरगम के रूप में प्रचारित किया जाएगा और इसकी कोई ठोस काट जाति आधारित क्षे‍त्रीय पार्टियों के पास न होगी। अलबत्ता क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति करने वाली पार्टियों पर इसका ज्यादा असर नहीं होगा। जहां तक सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस का सवाल है तो उसकी दुविधा और बढ़ेगी कि जातीय आधार पर वह किस वोट बैंक को साधे और किसे छोड़े। 
दरअसल देश के जातीय आधार पर विभाजन का वैधानिक स्वीकार सर्व समावेशिता के सिद्धांत का विलोम ही है। लेकिन यदि यह देश आरक्षण में ही देशहित का रक्षण बूझ रहा हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता। तय मानिए कि जातिवार जनसंख्या के आंकड़े सामने आने के बाद धार्मिक से ज्यादा जातीय तुष्टिकरण की राजनीति हमे देखने को मिलेगी, जिसकी जमीन तैयार हो रही है। जिसका अगला लक्ष्य आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा बढ़वाना है। आश्चर्य नहीं कि आगामी सालों में बची खुची अनारक्षित जातियां भी खुद को अोबीसी में शामिल कराने के लिए दबाव बनाएं। क्योंकि जब सभी ‘पिछड़े’ हो जाएंगे तो ‘अगड़े’ का झंझट ही खत्म हो जाएगा। वैसे भी कई क्षेत्रों में सामान्य और कुछ अोबीसी में अंतर केवल नाम को रह गया है। ऐसे में पूर्व से स्थापित जातियों को अोवरटेक करने में अोबीसी का ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। हम कुछ जातियों को आरक्षण से बाहर करने का आंदोलन भी देख सकते हैं। क्योंकि आरक्षित जातियों की बढ़ती संख्या के कारण संसाधनों के माइक्रो लेवल तक बंटवारे और बढ़ती अपेक्षाअों का नया घमासान मचेगा। हर बात में ‘कोटा सिस्टम’ चलेगा और आगे चलकर ‘कोटे में कोटा’ के लिए भी संघर्ष होगा। बात गरीबी की होगी, दांव अमीरी के चलेंगे। यह भी संभव है कि मोदी सरकार 2011 की जाति जनगणना के आंकड़े जारी कर इसका इस्तेमाल ‘गेम चेंजर’ की तरह करने की कोशिश करे। कुल मिलाकर हम धार्मिक के साथ-साथ नए जातीय ध्रुवीकरण के दौर में प्रवेश करने जा रहे हैं। ये नई दिशा देश की क्या दशा बनाएगी, इस बारे में अभी कल्पना ही की जा सकती है।         
वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मध्य प्रदेश.

सिफारिश लागू हुई तो बदल जाएगा ओबीसी आरक्षण का पुराना ढांचा-नन्द लाल वर्मा

"क्या ओबीसी आरक्षण में बंदरबांट को खत्म कर देगी "रोहिणी आयोग" की सिफारिश, सामाजिक- राजनीतिक दबदबे का बदल सकता है हुलिया या चेहरा,सिफारिश लागू हुई तो बदल जाएगा ओबीसी आरक्षण का पुराना ढांचा"

N.L.Verma (Asso. Pro.)


       केंद्रीय विभागों और बैंकों में होने वाली भर्तियों के डेटा एनालिसिस से आयोग ने पाया है कि 983 जातियों को ओबीसी आरक्षण का कोई लाभ ही नहीं मिल पाया। इससे साफ हो गया है कि ओबीसी की कुछ जातियों का ही आरक्षण में दबदबा रहता है। ऐसे में रोहिणी आयोग ओबीसी की केंद्रीय सूची को बांटने की सिफारिश कर सकता है। आयोग ने ओबीसी को चार खांचों / वर्गों में बांटकर सबको एक निश्चित आरक्षण देने की सिफारिश की है। आयोग का मानना है कि ओबीसी में कुछ दबदबे वाली जातियां ही आरक्षण का ज्यादा फायदा उठा रही हैं, बाकी वंचित रह गए हैं।
        ओबीसी आरक्षण को लेकर तेज होती सियासत के बीच रोहिणी आयोग की सिफारिशें गौर करने लायक हैं। केंद्र सरकार ने ओबीसी समुदाय से आने वाले जस्टिस जी. रोहिणी की अगुवाई में चार सदस्यीय आयोग का गठन 2 अक्टूबर, 2017 को किया था। आयोग ने 11 अक्टूबर, 2017 को कार्यभार संभाला। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने एक सवाल के जवाब में 13 मार्च, 2018 को लोकसभा को बताया था कि ''दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस जी. रोहिणी की अध्यक्षता में सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज, नई दिल्ली के डायरेक्टर डॉ. जे.के. बजाज, एंथ्रोपॉलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, कोलकाता के डायरेक्टर और देश के रजिस्ट्रार जनरल और सेंसस कमिश्नर की सदस्यता वाले आयोग का गठन किया गया है।''
       मंत्रालय ने कहा कि यह आयोग ओबीसी में उप-श्रेणियों का निर्धारण करेगा। उसने इसका उद्देश्य बताते हुए कहा है कि ''जातियों और समुदायों के बीच आरक्षण का लाभ पहुंचने में किस हद तक असमानता और विषमता है, इसका पता लगाया जाएगा। आयोग ओबीसी की जातियों की उप-श्रेणियां तय करने के तरीके और पैमाने तय करेगा।'' आयोग को 27 मार्च, 2018 तक अपनी रिपोर्ट सौंप देनी थी, लेकिन उसे कई बार सेवा विस्तार दिया गया।
       देश में एक जाति के अंतर्गत कई उप-जातियां हैं। केंद्र सरकार की सूची में ही 2,633 जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया है। आयोग ने इस वर्ष सरकार को सुझाव दिया था कि इन्हें चार वर्गों में बांटकर उन्हें क्रमशः 2% 6%, 9% और 10% आरक्षण दे दिया जाए। इस तरह, ओबीसी के 27% का आरक्षण उप-जातियों के चार वर्गों में बंट जाएगा। आंध्र प्रदेश में भी ओबीसी को पांच वर्गों ''A, B, C, D, E '' में बांटा गया है। वहीं, कर्नाटक में ओबीसी के सब-ग्रुप के नाम '' 1, 2A, 2B, 3A, 3B '' हैं।
       दरअसल, आरक्षण लाभ के सामाजिक स्तर पर समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए ओबीसी लिस्ट को समूहों में बांटने की राय दी गई है जिससे 27% आबंटित मंडल आरक्षण में कुल पिछड़ी जाति की आबादी को शामिल किया जा सके। उप-वर्गीकरण के बाद ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' 27% में से केवल एक हिस्से के लिए योग्य होंगे जो मौजूदा स्थिति से बिल्कुल उलट है। फिलहाल, इनका शेयर असीमित है। इनके बारे में कहा जाता है कि ये आरक्षण लाभ का एक बड़ा हिस्सा झटक लेते हैं। 27% आरक्षण का बाकी हिस्सा सबसे ज्यादा बैकवर्ड समूहों के लिए होगा और इससे उन्हें ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' के साथ प्रतिस्पर्धा से बचने में मदद मिलेगी। क्या जातीय जनगणना से  ओबीसी के उत्थान का मकसद हल जाएगा या फिर कोई अलग वजह से एकजुट हुईं बिहार की सभी पार्टियां,यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब निकट भविष्य में ही उजागर हो सकता है।
      केंद्रीय विभागों और बैंकों में होने वाली भर्तियों के डेटा एनालिसिस से आयोग ने पाया कि 10 जातियों को आरक्षण का 25% लाभ मिला है जबकि 38 अन्य जातियों ने दूसरे एक चौथाई हिस्से को घेर लिया। करीब 22% आरक्षण का लाभ 506 अन्य जातियों को मिला। इसके विपरीत लगभग 2.68% लाभ 994 जातियों ने आपस में शेयर किया। गौर करने वाली बात यह है कि 983 जातियों को ओबीसी आरक्षण का कोई लाभ ही नहीं मिल पाया। इससे साफ हो गया है कि कुछ जातियों का ही आरक्षण लाभ में दबदबा रहता है। ऐसे में आयोग ओबीसी की केंद्रीय सूची को बांटने की सिफारिश करेगा।
       राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) ने वर्ष 2015 में ओबीसी जातियों या ओबीसी को पिछड़ा वर्ग (बैकवर्ड),ज्यादा पिछड़ा वर्ग (मोर बैकवर्ड ) और अति पिछड़ा वर्ग (मोस्ट बैकवर्ड) में बांटने की सिफारिश की थी। उसने कहा था कि सालों से आरक्षण का लाभ समाज की दबदबे वाली कुछ ओबीसी जातियां ही (पिछड़ों में अगड़े) हड़प ले रही हैं। इसलिए अन्य पिछड़े वर्ग में भी उप-वर्गीकरण करके अति-पिछड़ी जातियों के समूहों की पहचान करना जरूरी हो गया है। ध्यान रहे कि एनसीबीसी को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के कल्याण, उनकी शिकायते सुनने और उनके समाधान ढूंढने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
मंडल दौर की वापसी के संकेत... 3.0 की आहट से है यह बेचैनी?
       क्या रोहिणी आयोग की सिफारिशें सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर हंगामा मचा सकती हैं ? बहरहाल, सब-कैटिगरी बनने से ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' नाराज हो सकते हैं क्योंकि वे खुद को लूजर की स्थिति में आते समझ सकते हैं। दरअसल, ये समूह तुलनात्मक रूप से सामाजिक,शैक्षणिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से मजबूत माने जाते हैं।इसलिए इनका दबदबा रहता है। इनकी नाराजगी से बचने के लिए ही आयोग ने ''सबसे ज्यादा पिछड़े'' और ''अति पिछड़े'' जैसे नए सब-ग्रुप को नाम या टाइटल देने की जगह उन्हें कैटिगरी 1, 2, 3, 4 में बांटने की सिफारिश कर दी है। इस तरह के सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े स्तरों के मानदंड बिहार और तमिलनाडु राज्यों में अपनाए गए हैं।
        जस्टिस रोहिणी कमिशन ने ओबीसी से जुड़े सारे आंकड़ों को डिजिटल मोड में रखने और ओबीसी सर्टिफिकेट जारी करने का स्टैंडर्ड सिस्टम बनाने की भी सिफारिश की है। अगर इन सिफारिशों को लागू कर दिया गया तो देश के कुछ राज्यों विशेषकर यूपी और बिहार की राजनीति पर भी अच्छा खासा असर पड़ने की संभावनाएं नज़र आती हैं। खासकर, इन राज्यों समेत उत्तर भारत के कई राज्यों की राजनीति में नई जातियों के दबदबे का उभार देखा जा सकता है। ध्यान रहे कि मंडल कमिशन के बाद 1990 के दशक से यूपी और बिहार की राजनीति में वहां की यादव जाति बड़ी प्रभावशाली भूमिका में दिखाई देती है।

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ओबीसी में क्रीमीलेयर क्या है और यह कैसे तय होता है? सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के बाद ओबीसी में उपजती एक नई चेतना-नन्द लाल वर्मा

N.L.Verma (Asso.Pro.)

ओबीसी आरक्षण : सुप्रीम कोर्ट ने अभी हाल में हरियाणा सरकार के पांच साल पुराने नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया है। यह सवाल फिर से चर्चा के केंद्र में आ गया कि आखिर ओबीसी में क्रीमी लेयर तय करने के आधार/मानदंड क्या-क्या है या क्या-क्या होना चाहिए? आइए जानते हैं..........

      अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में क्रीमी लेयर की व्यवस्था इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के केस में सुप्रीम कोर्ट ने 1991 में एक आदेश के माध्यम से दी थी।सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "क्रीमी लेयर" अर्थात विगत तीन वर्षों की सकल वार्षिक औसत आय सीमा (तत्कालीन एक लाख रुपये) से ऊपर आने वालों को क्रीमी लेयर मानकर उन्हें ओबीसी आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
      
सुप्रीम कोर्ट ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी ) के नॉन-क्रीमी लेयर में प्राथमिकता तय करने वाले आदेश का नोटिफिकेशन यह कहते हुए रद्द कर दिया कि सिर्फ आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर तय नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल नागेश्वर राव की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि 17 अगस्त 2016 के नोटिफिकेशन के तहत हरियाणा राज्य सरकार ने सिर्फ आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर तय किया था। बेंच ने कहा कि यह नोटिफिकेशन इंदिरा साहनी से संबंधित वाद में सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले के खिलाफ है। उसने कहा कि इंदिरा साहनी केस के निर्णय में आर्थिक, सामाजिक और अन्य आधार पर क्रीमी लेयर तय करने का फॉर्म्युला बताया गया था।


मंडल कमिशन की सिफारिशें और ओबीसी:

 सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए वर्ष 1979 में  बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बीपी मंडल) की अध्यक्षता में  एक आयोग पुनः गठित किया गया था। इससे पूर्व इसी उद्देश्य के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग गठित किया गया था जिसकी सिफारिशें 1955 में ही आ गयी थी। तब से ये सिफारिशें सरकार के ठंडे बस्ते में पड़कर धूल फांक रही थी। मंडल आयोग ने पिछड़े वर्ग के लिए सरकारी शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में 27% आरक्षण देने की सिफारिश के साथ ओबीसी के कल्याण के लिए अन्य कई सिफारिशें की थी। ध्यान रहे कि अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST)  के लिए आरक्षण का प्रावधान देश में पहले से ही लागू था। इसलिए, मंडल कमिशन ने जिन्हें आरक्षण देने की सिफारिश की थी, उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कहा गया।

क्या है ओबीसी में क्रीमी लेयर:

मंडल कमिशन की सिफारिशें  लगभग 12 सालों तक ठंडे बस्ते में दबी रही। जब वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने तो वर्ष 1991 में इन्ही सिफारिशों के आधार पर केवल सरकारी नौकरियों में ओबीसी के 27% आरक्षण की घोषणा कर दी थी। तब सुप्रीम कोर्ट की वकील इंदिरा साहनी ने उसे देश की शीर्ष अदालत में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने 16 नवंबर, 1991 को दिए अपने फैसले में ओबीसी को 27% आरक्षण के फैसले का समर्थन किया, लेकिन उसने कहा कि ओबीसी की पहचान के लिए जाति को पिछड़ेपन का आधार बनाया जा सकता है। साथ ही, उसने यह भी स्पष्ट किया था कि ओबीसी में क्रीमी लेयर को आरक्षण नहीं दिया जाएगा।


      
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अगले वर्ष 1992 में देश भर में सरकारी नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू हो गया। हालांकि, कुछ राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट की बात यह कहते हुए नहीं मानी की उनके यहां ओबीसी में कोई क्रीमी लेयर है ही नहीं। वर्ष 1999 में क्रीमी लेयर का मुद्दा फिर सुप्रीम कोर्ट के सामने उठा। कोर्ट ने फिर से अपना पुराना आदेश दोहराया। हालांकि, केंद्र की वीपी सिंह सरकार ने 1993 में ही ओबीसी में क्रीमी लेयर तय करने के लिए अधिकतम सालाना औसत आय की रकम भी तय कर दी थी और नॉन-क्रीमी लेयर सर्टिफिकेट की भी व्यवस्था बना दी थी।

क्या है आय का पैमाना:

इसके मुताबिक, वर्ष 1993 में किसी ओबीसी अभ्यर्थी के माता-पिता की विगत तीन वर्षों की  औसत वार्षिक सकल आय 1 लाख रुपये से ज्यादा  वाला अभ्यर्थी  क्रीमी लेयर घोषित किया गया। यानी, जिस ओबीसी अभ्यर्थी के माता -पिता की पिछले तीन सालों की औसत वार्षिक सकल आय एक लाख रुपये की कमाई हो रही थी, उसे आरक्षण का फायदा नहीं दिया जाएगा। इस आय की गणना करने में उसके माता -पिता की वेतन और कृषि से होने वाली आय शामिल नही करने का प्रावधान था। फिर 2004 में यह वार्षिक आय बढ़कर 2.5 लाख रुपये, 2008 में 4.5 लाख रुपये, 2013 में 6 लाख रुपये और फिर 2017 में 8 लाख रुपये हो गयी। नियम के मुताबिक, हर तीन साल में क्रीमी लेयर तय करने के तयशुदा आमदनी की रकम को रिवाइज किया जाता है। यही वजह है कि अब राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) और ओबीसी वेलफेयर की लड़ाई लड़ने वाले सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिक दल और एक्टिविस्ट जल्दी से जल्दी यह रकम बढ़ाने की बात कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि ओबीसी वेलफेयर की संसदीय समिति के चेयरमैन एमपी की सतना लोकसभा क्षेत्र से लगातार चार बार के सांसद श्री गणेश सिंह पटेल की अध्यक्षता में इस आय सीमा को 15लाख रुपये बढ़ाने की सिफारिश की गई थी जिस पर केंद्र सरकार द्वारा कोई संज्ञान न लेने पर उन्होंने संसद के सभी ओबीसी सांसदों को एक आमंत्रण पत्र भेजा था कि वे इस विषय को लागू करने के लिए केंद्र सरकार से अनुरोध करें और दबाव बनाएं। लेकिन अत्यंत दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि उस समय एनडीए सरकार में शामिल किसी दल के ओबीसी सांसद अपने ही समाज के कल्याण के लिए बनी समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार या पीएम मोदी से निवेदन करने का साहस तक नही जुटा पाए थे। गैर एनडीए दलों के कुछ सांसदों जिनमें समाजवादी पार्टी के तत्कालीन राज्यसभा सांसद श्री रवि प्रकाश वर्मा भी शामिल थे,ने देश के पीएम को पत्र लिखकर श्री गणेश सिंह पटेल की समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए अनुरोध किया गया था।


       
गिनती के कुछ सांसदों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह दबकर रह गयी थी और उसके कुछ दिनों के बाद ही श्री गणेश सिंह पटेल का कार्यकाल समाप्त हो जाने के लगभग सात आठ महीने बाद उनके स्थान पर सीतापुर से सांसद श्री राजेश वर्मा को उस समिति का चेयरमैन बनाया गया  जो वर्तमान में उस पद पर आसीन हैं।
     
उधर, केंद्र सरकार का कहना है कि उसे ओबीसी कोटे की जातियों में उपजातियों के निर्धारण के लिए गठित जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट का इंतजार है। केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्य मंत्री प्रतिमा भौमिक ने मॉनसून सत्र के दौरान लोकसभा में लिखित जवाब दिया था। उन्होंने कहा, 'ओबीसी में क्रीमी लेयर तय करने का इनकम क्राइटेरिया के रिविजन का प्रस्ताव सरकार के विचाराधीन है।'


     
अभी हाल में ओबीसी के क्रीमीलेयर पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला आया है कि... सिर्फ आर्थिक आधार पर तय नहीं हो सकता है ओबीसी क्रीमी लेयर। इसलिए इस निर्णय ने  क्रीमी लेयर और नॉन क्रीमी लेयर पर सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों और ओबीसी बौद्धिक वर्ग में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। दूसरे ओबीसी की किसी जाति को ओबीसी सूची में शामिल करने और निकालने के राज्यों के अधिकार का बिल संसद से पारित हो जाने के बाद भी ओबीसी आरक्षण पर नए सिरे से वैचारिक- विमर्श शुरू हो चुका है। ओबीसी आरक्षण पर जन्मी यह नई बहस सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों के लिए यूपी के विधानसभा चुनाव में कितना कारगर सिद्ध हो सकती है, आने वाले निकट भविष्य में ही देखा जा सकता है।



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Sunday, September 05, 2021

शिक्षा तो दूर सार्वजनिक कुएं से पानी पीने को मोहताज थे-अखिलेश कुमार अरुण

साथियों हम तो उस समाज से आते हैं जहां सार्वजनिक कुएं, तालाब, नदी-नाले से पानी पीना भी गुनाह था; ऐसे में हम शिक्षा कैसे प्राप्त कर सकते थे। मिट्टी का पुतला बनाकर शिक्षा लेने लगा तो अंगूठा कटवा लिया गया, ज्ञान देने लगा तो सर कटवा लिया गया, अध्यात्म के तरफ गए निर्गुण की उपासना करने लगे तो छल से मार दिया गया क्योंकि शिक्षा का अधिकार तो हमें था ही नहीं, तो हम शिक्षा कैसे प्राप्त करते शुक्र है अपने उस रहनुमा का जिसने हमें यह अधिकार दिया #भारतीय संविधान की धारा 29,30 और 21 क, जिसमें #शिक्षा संस्कृति और शिक्षा का मूल अधिकार समाहित किया गया है।

हमारी शिक्षा प्रारंभ होती है #चार्टर #एक्ट 1813 और  1833 से धीरे-धीरे ही सही हमें शिक्षा प्राप्त करने का मौका मिला तो, अंग्रेजों को जाति धर्म से अलग हटकर उन्हें एक नौकर चाहिए था ऐसा नौकर जो उनकी भाषा और शिक्षा को समझ कर कंपनी के कार्यप्रणाली के अनुसार अपने को तैयार कर सके किंतु हम यहां भी चूक गए, #मैकाले का विवरण पत्र #1835 के अनुसार शिक्षा का स्वरूप #निस्यंदन_सिद्धांत (filtration theory) की भेंट चढ़ गई क्योंकि उच्च वर्ग शिक्षित होकर नौकरी पेशा में जाने लगा उसका सामाजिक स्तर पहले से ही ऊंचा था और ऊंचा हो गया। अंग्रेजों के साथ उसका उठना बैठना हो गया, "अरे ओ साहब कहां इन मैले-कुचैले जाहिलों को शिक्षित करने की सोच रहे हैं।" छन-छन कर जो शिक्षा निचले तबके तक आने के लिए थी उसकी जालियां बंद कर दी गई शिक्षा छनने की बात अलग एक बूंद टपकना भी मयस्सर न रहा।

शिक्षा का स्वरूप वर्तमान समय में अत्यधिक विकृत हो गया है क्योंकि शिक्षा की धारा दो रूपों में प्रवाहित हो रही है-एक तरफ सुख सुविधाओं से संपन्न महंगी शिक्षा व्यवस्था और दूसरी तरफ गरीबों की शिक्षा जिसमें शिक्षा के न नए आयाम हैं और न ही सुविधाएं परिणामत: एक बहुत बड़ा तबका चाहे वह जिस जाति धर्म-मजहब का हो शिक्षा से वंचित है क्योंकि महंगी शिक्षा उसके बस की बात नहीं है। अभी हाल ही में #कानपुरयूनिवर्सिटी (गरीबों की यूनीवर्सिटी कह लीजिए) के अंतर्गत संचालित #सीतापुर, #लखीमपुर, #उन्नाव आदि जिलों के #महाविद्यालय संचालित हो रहे थे, यकायक इन्हें #लखनऊविश्वविद्यालय से संबद्ध कर दिया गया, जिसकी फीस 2 गुना ही नहीं 3 गुना है ऐसे में इन पिछड़े जिलों के अभिभावक अपने पाल्य को शिक्षा दिलाने के लिए महाविद्यालय की मोटी फीस अदा करने में अक्षम है। ऐसे में जनसामान्य की शिक्षा को कैसे साकार किया जा सकता है। हम फिर जहां से उठे थे धीरे धीरे वहीं और उससे भी बुरी स्थिति को प्राप्त हो रहे हैं।

वस्तुत: हम आखरी पीढ़ी होंगे अपने समाज में उच्च शिक्षा धारित करने वाले लोगों में से इसके बाद आने वाली पीढ़ी उच्च शिक्षा के लिए तरसेगी केवल एक स्वप्न बनकर रह जाएगा उनके शिक्षा की चाहत और उनके सामाजिक जीवन का उभरता स्तर, शिक्षा में मार्क्सवाद अपने चरम पर है पूंजीपति और सर्वहारा वर्ग की शिक्षा कहिए.... हमारे हाथ से शिक्षा की आधुनिकता के नाम पर हमारी पाटी, खड़िया, सरकंडे की कलम भी छीन लिया गया और अत्याधुनिक शिक्षा का साधन भी उपलब्ध नहीं कराया गया। प्राईमरी और जूनियर की स्कूलिंग में शिक्षा से ज्यादा सरकार को मिड-डे-मील का फीडबैक चाहिए। मास्टर जी पढ़ाने से ज्यादा सरकार को  मोबाइल पर एप्प से लेकर आफिस के रजिस्टर तक मिड-डे-मील को लेकर व्यस्त हैं....टूंटपूजिहे प्राइवेट स्कूल कोरोना की मार से चौपट हो गए और बड़े स्कूल आनलाइन क्लाश के नाम पर अभिभावकों की जेब काट लिए हमारे माता-पिता के पास इतनी मोटी रकम नहीं थी उनकी रोड किनारे की दुकान, मजदूरी और कम्पनी की प्राइवेट नौकरी चली गई, नून-रोटी खाकर किसी प्रकार से जीवनयापन हो रहा है।

वंचितों की शिक्षा का असली इतिहास ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले से स्टार्ट होता है जो बाबा साहब डॉक्टर बी आर अंबेडकर के गुरु भी कहलाते हैं अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली का ही परिणाम था की 1891 में जन्मा बालक शिक्षा के क्षेत्र में अर्जित कर आज विश्व का सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त करने वाला स्कॉलर बना हुआ है जिसे हम नॉलेज आफ सिंबल इन द वर्ल्ड के नाम से जानते हैं। हम अपने संपूर्ण समाज की तरफ से ऐसे महापुरुष को बार-बार नमन करते हैं हमारे असली शिक्षक बाबा साहब ज्योतिबा राव फूले और सावित्रीबाई फूले ही हैं।

आज के समय में भी द्रोणाचार्य जैसे शिक्षकों की कमी नहीं है इन शिक्षकों की साया से भी बचने का प्रयास करुंगा।

अधिकतर शिक्षक ऐसे हैं जो अपने शिक्षक धर्म का निर्वाह करते आए हैं चाहे वह जो भी समय काल रहा हो हम अपने जीवन के मोड़ पर मिले उन शिक्षकों को पुनः पुनः नमन करता हूं और अपने ज्ञान वृद्धि के लिए उन शिक्षकों के आशीर्वाद की कामना करता हूं जिनका आशीर्वाद हमें आजीवन मिलता रहे। 

शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं।

अखिलेश कुमार अरुण
8127698147

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