अखिलेश कुमार अरुण-
हाय हेल्लो, डियर-सिस्टर एंड ब्रदर, आईये पधारिये एक मंच पर और अंग्रेजी में
सम्बोधन के बाद चीख-पुकार मचाइये अपने लिए
नहीं अपनी पहचान, रीती-रिवाज,संस्कृति के लिए जो पल-पल के सफ़र में जिन्दा है, जोर
और जबर से, चलना-फिरना तो कब से बंद कर दिया है, मुई मरती भी नहीं कि इस हाय! तोबा
से छुट्टी मिले. साल में यह एक ही तो दिन है जब हम सब इकट्ठा होते भी हैं, तो
इसलिए कि उसने अपनी अंतिम सांसे गिन चूकी है कि अभी बाकी है.
इस उपरोक्त भूमिका का तात्पर्य सीधा है कि १४ सितम्बर १९४९, यह एक ऐसा दिन है
जिस दिन हमें हमारी पहचान बड़ी जद्दो-जेहद के बाद बमुश्किल हाशिल हुई थी. फिर हमारे
कुछ भाईयों (दक्षिण भारतीय राज्य) ने इसे ठुकरा दिया था.
कुछ अजीब सा नहीं लगता है कि हम अपनी मातृभाषा के
कुशल मंगल के लिए 14 सितम्बर से पखवाड़ा मानते हैं. जगह-जगह सभाएं की जाती हैं, स्कूल-कालेजों
में हिंदी पढ़ना, लिखना और बोलने का संकल्प दिलवाते हैं. रेलवे, बस स्टेशन और
सरकारी कार्यालयों में “हिंदी में काम करना राष्ट्रीयता का घोतक है.” तख्ती
टंगवाते हैं. इन कर्तव्य निर्वहनों द्वारा हम कितना न्याय कर पा रहें हैं अपनी
भाषा के विकास के लिए बाद हम अपने लड़के को इंग्लिश बोर्डिंग के स्कूल में ही पढ़ने
को भेजते हैं. उसकी गिटर-पिटर के इंग्लिश पर पुलकित होकर असीम सुख पाते हैं. तोतले
मुंह बच्चे को वाटर, ब्रेड, नुडल्स, कहना सिखाते हैं. और यही सब हम-आप को अपनी
सोसायटी से अलग करती है और अपनी इस पहचान को मिटा कर, समान्य लोगों से अलग होने का
दंभ भरते हैं. मातृभाषा प्रेम के नाम पर अर्थ का अनर्थ करने वाले शब्दों (कृप्या,
गल्ती, परिक्षा, पुछो आदि) का प्रयोग करते हैं. साल में एक बार लेखक महोदय,
महानुभाव लोग भी अपनी लेखनी से कागज को काला करके हिंदी के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित
कर लेते हैं. अतः मैं भी अछूता क्यों रहता बहती गंगा में बार-बार हाँथ धोने का मौका
तो मिलता नहीं सो हिंदी दिवस की पूर्वसंध्या पर ही इस कार्य को किया जाना हमने
उचित समझा है. किसी को शिकायत देने का मौका ही नहीं छोड़ा कि हम हिंदी प्रेमी नहीं
है. गद्य तो गद्य, पद्य में भी अगले वर्ष २०१५ में भी हमने कुछ पंक्तियों लिखा था.
प्रकाशन हेतु कुछ माह पूर्व भेजे भी थे. वानगी प्रस्तुत है-
“हिंदी के उद्दगार पर,
नतमस्तक बारम्बार हूँ.
हे कल्याणकारी तरण-तारिणी,
जनमानस की संकल्प धारिणी-
तेरा अभिनंदन और वंदन है,
तूं सरल ह्रदय सा स्पंदन
है.”
हमारे पड़ोस के अज़ीज़ हिंदी प्रेमी मियां शेख़ साहब हिन्दवी होने का दम्भ भरते
हैं. ऐसा नहीं कि मियाँ शेख़ की प्रारम्भिक पढ़ाई हिंदी में ही हुई. हुआ यूँ कि मियां
शेख़ इंग्लिश सिखने का कोई कसर बाकी नहीं छोड़े परन्तु बिचारे उच्चारण (c का स,क,
t का ट,त) व व्याकरणिक ( I want to eat date. मैं तिथि खाना चाहता हूँ.
नहीं नहीं ...खजूर) दोष के चलते उन्हें हिन्दवी होना पड़ा.
हम अपनी हिंदी से अगर वास्तव में प्यार करते हैं. और उसका सम्मान करते हैं तो
हिंदी के लिए साल का एक दिन न होकर वल्कि वर्ष के पूरे ३६५ दिन हिंदी के ही नाम
होना चाहिए. हमें जहाँ कहीं जब भी मौका मिले हिंदी के उत्थान की ही बात करें. तभी
हमारी हिंदी हमारी न होकर बल्कि विश्व की हो सकेगी और इसका भी मान-सम्मान
देश-विदेश में होगा. अपने आस्तित्व को लेकर हिंदी आँसू नहीं बहायेगी और न ही उसे
इंग्लिश के सामने अपमानित ही होना पड़ेगा.
जय हिंदी जय
भारत