![]() |
अजय बोकिल |
साहित्य
- जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
- लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
Tuesday, July 20, 2021
ये मानसूनी बादल भी अचानक गुजरात क्यों चले जाते हैं-अजय बोकिल
सुरेश सौरभ की लघुकथाएं विश्व भाषा में-सत्य प्रकाश शिक्षक
‘महेशचंद्र देवा’ अभिनय दुनिया के उभरते हुए सितारे-अखिलेश कुमार ‘अरुण’
साक्षात्कार
![]() |
महेशचंद्र देवा (अभिनेता) |
मैं- सबसे
पहला प्रश्न मेरा क्या यह होगा कि आपकी शिक्षा कितनी रही है आपका शैक्षिक परिवेश
कैसा रहा है, गांव से हैं या शहर से हैं?
महेशचंद्र
देवा जी- स्मृतियों में जाते हुए महेश चंद्र देवा जी बताते हैं कि उनका परिवार
मध्यमवर्गीय परिवार रहा था जहां आपके पिताजी सचिवालय में सरकारी नौकरी करते थे
जिससे परिवार का खर्च-भर ही चल सकता था, शहरी
परिवेश में पले-बढ़ें हैं किंतु आपका लगाव झुग्गी झोपड़ियों के बीच में रहने वाले
लोगों से ज्यादा रहा है। अपनी शिक्षा के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि
उन्होंने अपनी पढ़ाई के दौरान ही पढ़ाई के साथ साथ रंगमंच से जुड़ गए थे. आपकी शिक्षा-दीक्षा सरकारी विद्यालयों, कॉन्वेंट
स्कूल और शिया इंटर कॉलेज से लखनऊ यूनिवर्सिटी तक का सफर रहा है, जिसमें उन्होंने शिक्षा परास्नातक तक की शिक्षा प्राप्त किए हैं, कला में रुचि के चलते उन्होंने कला को अधिक महत्व दिया। रंगमंच की कोई
विधिवत शिक्षा न लेकर इस क्षेत्र के विख्यात लोगों के सानिध्य में रख नुक्कड़ नाटक
और अन्य नाट्य कार्यशालाओं से अपने अभिनय को निखारा है।
मैं- रंगमंच
से आपका बचपन से ही लगाव था जिसमें आप स्कूल स्तर पर नाटकों में भाग लेते रहे
किंतु आपको कब ऐसा लगा कि नहीं हमको रंगमंच के दुनिया में जाना चाहिए?
आप कहते
हैं कि यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण सवाल है, हमारे जीवन से जुड़ा हुआ.एक बार की
बात है रंगमंच से जुड़ा हुआ बच्चों के
द्वारा नाटक प्रस्तुत किया जा रहा था जो लखनऊ में ही था. जहां पर हम को सबसे पहले
रंगमंच को करीब से देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहीँ से मन में लालसा जागी कि अब
हमें रंगमंच के क्षेत्र में जाना है, आगे आप बताते हुए कहते हैं कि वह पहला अवसर
था कि मैं विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भारत की सर्वोच्च रंगमंच संस्था
इप्टा में संपर्क किया जहां यह कहते हुए हम को अयोग्य करार दे दिया गया कि आप बहुत
दुबले-पतले हैं आपके लिए यह क्षेत्र उचित
नहीं है किंतु हम हिम्मत नहीं हारे उसके बाद दो बार हमने एनएसडी में भी प्रयास
किया किन्तु असफल रहे, एक जगह बच्चों का कार्यशाला हो रहा था उसको देख कर हमें लगा
कि यही हमारे लिए ठीक रहेगा कुछ शुल्क जमा करके उस कार्यशाला से जुड़ गए जहां से
हमारी रंगमंच शिक्षा प्रारंभ होती है।
मैं- क्या
आपने रंगमंच की विधिवत शिक्षा ली है अथवा छोटी-छोटी कार्यशालायें ही आपके रंगमंचीय
कला को निखारने का माध्यम रही हैं?
महेशचंद्र
देवा जी- एनएसडी और इप्टा जैसी बड़े रंगमंच के संस्थाओं से न जुड़ पाने का मलाल था
किंतु हमने इसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया, देश
के प्रतिष्ठित रंगमंच निर्देशकों के देखरेख में हमने कार्यशालायें की और जहां भी
जैसे हमको मौका मिला अभिनय की बारीकियों को सीखता गया। हमारे जीवन में अभिनय को
निखारने का सहयोग जिन लोगों से प्राप्त हुआ उनमें प्रमुख नाम है जैसे रंगमंच के
जगतगुरु पदम श्री राज बिसारिया जी, राबिन दास, देवेंद्र राज अंकुर, सत्यव्रत रावत, सुधीर कुलकर्णी, ललित सिंह पोखरिया आदि मेरे गुरु
रहे हैं, रंगमंच के अतिरिक्त हमने कुछ दिनों तक कत्थक की भी
शिक्षा प्राप्त की जिसके गुरु रहे हैं कपिला महराज। उक्त लोगों से रंगमंच शिक्षा
में हमने रंगमंच से जुड़े हुए रूप सज्जा, मंच सज्जा, लाइटिंग, अभिनय आदि को सीखा
जाना और समझा उनकी बारीकियों को, नुक्कड़ नाटक के गुरु अनिल
मिश्रा जी रहे हैं।
मैं- अगला प्रश्न
यह कि आपको रंगमंच करते हुए कभी ऐसी परिस्थितियां का समना करना पड़ा कि नहीं यह क्षेत्र
अब हमारे बस का नहीं है, इसे छोड़ देना चाहिए?
महेशचंद्र
देवा जी- आप अपने पिछले दौर को याद करते हुए कहते हैं कि संघर्ष के दिनों में
हमारे पास पैसे नहीं होते थे तो पैदल ही थिएटर से लेकर के नुक्कड़ फिल्म सिटी,
जहां तक बन पड़ता था उससे भी आगे तक जाना होता था। अपने काम के प्रति हमारी सच्ची
श्रद्धा थी जो हमें हमारी मुकाम देकर गई है। आप कहते हैं कि मैं अपने संघर्ष के
दिनों में साइकिल से ज्यादा चलता था। जेब में
ऑटो और रिक्शा के लिए पैसे नहीं होते थे, एक दो रूपये जेब में पड़े होते थे साइकिल
पंचर हो गई या कुछ बिगड़ गया उसके लिए। मैं विषम से विषम परिस्थितियों में मजबूती
के साथ खड़ा रहा। रंगमंच व्यक्ति को जीवन के रंगमंच पर कैसे खुश रहना है और दूसरे
को खुश रखना है यह सिखा देता है। रंगमंच के प्रति मेरी जो दृढ़ इच्छा कहिये या
त्याग, उसके चलतेहमने सरकारी नौकरी को रंगमंच के लिए त्याग दिया और रंगमंच को ही
अपने जीवन का एक मुख्य उद्देश्य बना दिया था। राजश्री पुरुषोत्तम टंडन मुक्त विश्वविद्यालय से महामहिम द्वारा दिया
जाने वाला प्रमाण पत्र हम लेने इसलिए नहीं
गए क्योंकि हमें कबीर जी के जीवन पर नाटक करना था सम्मान से ज्यादा हमारे लिए काम
जरुरी था।
मैं- चबूतरा
पाठशाला और मदर सेवा संस्थान में पहले किस को स्थापित किया गया था और इसे स्थापित
करने का विचार क्यों और कैसे आया आपके मन में इस का उद्देश्य क्या है?
महेशचंद्र देवा जी-रंगमंच जब से व्यवसायिक स्तर पर आया है तब से लेकर के आज तक के समय में बहुत परिवर्तन हो गया है. राजा-महाराजाओं के काल में वंचित समुदाय (भांट,चारण, बहुरुपिया, नट, मदारी आदि) के जीवन-यापन का साधन रहा है किन्तु अब यही तबका आज अपने इस पुस्तैनी पेशा से दूर हो गया है, १९१३ में दादा साहब फाल्के को राजा हरिश्चंद्र फिल्म में काम करने के लिए कोई महिला कलाकार नहीं मिली थी और आज देखिये..... हमारे चबूतरा पाठशाला का भी यही उद्देश्य है जिनके रगो में रंगमंच का खून दौड़ रहा है उनको इस मुख्यधारा से जोड़ना है जो वास्तव में रंगमंच के कलाकार थे. इसलिए अपने संघर्ष के दिनों में ही मैंने इन वंचित बच्चों के लिए जिसमें रिक्शा चालकों, मजदूर आदि जो दिनभर कुछ न कुछ करके अपना जीवन यापन करते हैं। उनको रंगमंच से जोड़ने के लिए इस मदर सेवा संस्थान की स्थापना सन 2004 में की गई जिसकी प्रेरणास्रोत इतिहास प्रसिद्ध महिलाएं ज्योतिबा फुले, माता रमाबाई, मदर टेरेसा आदि रही हैं और यह संस्थान सफल भी रहा। आज केवल महेशचंद्र देवा जी प्रदेश ही नहीं देश-विदेश में यह संसथान जाना पहचाना जाता है। 2013 में, मैं अपनी माता जी के प्रेरणा से ‘चबूतरा पाठशाला’ की स्थापना की जो रंगमंच का रेगुलर क्लास करता है, यह पाठशाला वास्तव में प्रकृति के बीच, पेड़ के नीचे, खुले आसमान में जो बच्चे अनाथ हैं, जिनके माता-पिता जेल में बंद हैं, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के बच्चे, रेल की पटरियों से लेकर के रेलवे की कंपार्टमेंट में काम करने वाले बच्चों के लिए उनको साक्षर करने के उद्देश्य से ककहरा सिखाने के लिए इसकी नीव रखी गई. धीरे धीरे रंगमंच का ककहरा कब सीखने लगे पता ही न चला, उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए इसकी शाखाएं-लखनऊ में गोमती नगर, डालीगंज, और विकास नगर में भी स्थापित गया. उनका जो विषय होता था वह इन्हीं लोगों के जीवन पर होता था जैसे- बाल मजदूरी, अशिक्षा, दहेज, नशा पान-पुड़िया आदि को अपने कार्यशाला का मुद्दा बनाया, जिसमें बच्चों ने खूब बढ़-चढ़कर भाग लिया हमें खुशी होती है कि आज 40 से 45 बच्चे हिंदी सिनेमा जगत में काम कर रहे हैं। जिनके पिता ठेला, रिक्शा चलाते हैं, सब्जी बेचते हैं, आदि. वे फिल्में जिनमें बच्चों ने काम किया है ‘आर्टिकल-15’, (फिल्म) मीर नायर की ‘अ सुटेबल ब्याय’, (बीबीसी लन्दन के लिए) ‘जैक्सन’, ‘भोकाल’ (बेवसीरिज) आदि में भी काम कर रहे हैं और अपने अभिनय का लोहा मनवा रहे हैं। मेरा सन 2017 में एक और थिएटर के क्षेत्र में प्रयास रहा ‘थिएटर इन एजुकेशन’ अर्थात पढ़ाई पढ़ाई में रंगमंच कला का ज्ञान, की स्थापना की। लखनऊ के लगभग 100 से 150 स्कूलों में हमने 10,000 से अधिक बच्चों को रंगमंच का ककहरा सिखाया उन लोगों को बताया कि क्या होता है रंगमंच, जिसमें बच्चे अपने भविष्य का सुनहरा अवसर तलाश सके और एक ताना-बाना बुन सकें।
मैं- आप वंचित समुदाय से आते हैं, फिलहाल कलाकारों की कोई जाति नहीं होती। किन्तु क्या?आपने कभी अनुभव किया कि आपको जातीयता का दंस झेलना पड़ा हो?
महेशचंद्र
देवा जी- आप रंगमंच के माध्यम से स्पष्ट संकेत देते हैं की सामाजिक बुराई के
स्वरूप में जो जाति व्यवस्था है। इसको खत्म करने के लिए तमाम साहित्यकारों और
महापुरुषों ने समय-समय पर अपनी लेखनी चलाई है और लोगों को जागरूक किया है। ऐसे में
संघर्ष के दौरान जातीयता रूपी जहर का असर नाम मात्र के लिए हुआ होगा, इसका कोई
स्पष्ट अंकन हमारे दिमाग में अभी तक नहीं है क्योंकि रंगमंच से जुड़ा हुआ हर एक
कलाकार अपने कार्य को महत्व देता है। अपने कार्य के अनुरूप ही वह सफलता प्राप्त
करता है, वह अलग बात है कि उसके जीवन में कभी ऐसा भी पल आया हो या इसको झेला हो यह
उसके लिए बस चलते हवा का झोंका जैसा है। अपने काम पर ध्यान देना चाहिए आपका परिश्रम
आपके सफलता का बिगुल बजाने लगे, आप देखेंगे की एक से एक कलाकार जो वंचित समुदाय से
रहें वह फिल्म दुनिया में आज नाम कमा रहे हैं और अपने नाम से जाने और पहचाने जाते
हैं।
मैं-आपको
रंगमंच से अलग हटकर फिल्मी जगत पहला ब्रेक कब और कैसे मिला?
महेशचंद्र देवा जी-इस प्रश्न पर आप कहते हैं कि फिल्म जगत में अपनी पहचान बनाने के लिए या अपने काम को लेकर के ढेर सारे लोगों से भिन्न-भिन्न जगहों पर मिलना पड़ता है। अपनी बात रखनी पड़ती है और आपका काम, आपका व्यवहार कब किसको पसंद आ जाए और आपको एक मौका दे दे। आपके जीवन का वह सबसे बड़ा सुनहरा पल होता है। हमें पहला जो ब्रेक फिल्म में मिला वह दुर्भाग्य से हमारा जो कैरेक्टर था किसी दूसरे को दे दिया गया और उसके बाद जो दूसरी फिल्म आई वह भोजपुरी फिल्म थी जिसमें हम बतौर गीतकार अपना चरित्र निभा रहे थे, जहाँ से अभिनय का सफर शुरू होकर हिंदी बॉलीवुड से लेकर के हॉलीवुड तक हमने फिल्म की सभी में छोटे-मोटे रोल हैं। लगभग 30 से 35 फिल्मों की की लिस्ट है जिसमें हमने काम किया है जैसे-मीलियन डालर आर्मस् (हालीवुड), कोरिया की द प्रिंसेस आफ अयोध्या अभी-अभी कागज फिल्म आई है जिसमें हम एक टाइपिस्ट की भूमिका में हैं इसके साथ-साथ अवधी, भोजपुरी, हिंदी भाषाओँ की फिल्मों में हमें चरित्र अभिनय करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो आज भी अनवरत जारी है।
मैं-आपकी
भविष्य में आने वाले कौन-कौन सी फिल्में हैं उसकी जानकारी मिल जाए तो......?
महेशचंद्र
देवा जी-इस पर आप हंसते हुए कहते हैं यह सौभाग्य है जो वर्तमान समय में हमें खूब
काम मिल रहा है। उनमें से से कुछ फिल्में हैं प्रयागराज,
चूना वेबसीरिज (नेट क्लिप्स),
हुड़दंग जो मंडल कमीशन पर बनी है जो 90 के दशक
की फिल्म है जिसमें हम इंस्पेक्टर की भूमिका में हैं, कीड़ा घर वेब सीरीज, डब्ल्यू बैचलर हरमन जोशी के साथ इस प्रकार से 10 या 15
फिल्में हैं जो इस साल के अंत तक आ जाएंगी। टीवी सीरियल में ‘और भाई क्या चल रहा
है’ सावधान इंडिया में ‘क्राइम अलर्ट’ आदि।
मैं- आज तक
के अपने रंगमंचीय सफर और सिनेमा जगत मैं प्राप्त उपलब्धियों से अपने को कितना संतुष्ट
पाते हैं इसके बारे में कुछ बताएं?
महेशचंद्र
देवा जी- हमारे लिए हमारा कार्य है हमें संतुष्टि प्रदान करता है क्योंकि हम अपने
कार्य के प्रति जितना ईमानदार रहेंगे उतना ही हम अपनी पहचान बनाने में सफल रहेंगे।
अपने कार्य से ज्यादा हमको संतुष्टि उनमें मिलती है जो बच्चे आज झुग्गी झोपड़ी और
मलिन बस्तियों से निकलकर बड़े-बड़े सिनेमा जगत के कलाकारों के साथ काम करते हैं,
बदले में उन्हें पैसे भी मिलते हैं। उनके साथ रहने खाने का मौका मिलता है। जो बरबस
आंखों में आंसू ला देते हैं किन्तु ये आंसू खुशी के आंसू होते हैं यह हमारे लिए
सबसे बड़ी संतुष्टि और संतोष है।
मैं-अब
चलते चलते अंतिम प्रश्न की आप फिल्मी दुनिया या रंगमंच से जुड़े हुए युवकों के लिए
जो अपना भविष्य तलाश रहे हैं उनको आपका क्या संदेश है?
महेशचंद्र देवा जी-वास्तव में आज के युवा वर्ग बहुत जल्दी सफलता की सीढ़ी चढ़ना चाहते हैं।सफल न हो पाने पर अपने को ठगा हुआ पाकर अवसाद में चले जाते हैं जिसका परिणाम बहुत बुरा होता है। इसलिए हमारा कहना होगा की इस क्षेत्र में कलाकार को धैर्य के साथ अपने कार्य के प्रति इमानदार रहते हुए अपना कार्य करते रहना चाहिए यानी ‘संघर्ष जितना बड़ा होगा मुकाम भी उतना बड़ा होगा’ बस यही आपके सफलता का सूत्र है जो आपको एक सफल कलाकार बना सकता है।
बहुत-बहुत
धन्यवाद।।।
शुक्रिया।।।।
डिप्रेस्ड एक्सप्रेस अगस्त अंक २०२१ में प्रकाशित
बीएसपी सुप्रीमो मायावती का "ब्राम्हण-मन्त्र/अस्त्र " चुनाव और फुले-आंबेडकर मिशन के लिए कितना कारगर साबित होगा-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
![]() |
Prof. N.L.Verma |
संवैधानिक सामाजिक न्याय विरोधी बीजेपी सरकार के चाल-चरित्र की एक और बानगी- नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
![]() |
N.L.Verma |
आंगन की दीवारों से, 'नन्दी लाल'-रमाकांत चौधरी
Wednesday, July 14, 2021
‘आमिर-किरण’ बनाम ‘शिवसेना-भाजपा’ की पारिवारिकता-अजय बोकिल
![]() |
अजय बोकिल |
ऊपर का खेल-सुरेश सौरभ
![]() |
सुरेश सौरभ |
योगी को विधान सभा चुनाव में बुरे परिणाम का भय, हर हथकंडा अपनाने को आतुर दिखती बीजेपी-आरएसएस-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
![]() |
एन०एल०वर्मा |
Tuesday, July 13, 2021
आन्दोलन में केवल किसान ही क्यों?-अखिलेश कुमार अरुण
उन किसानों का जमाना गया जिन्हें अस्सी-नब्बे के दशकों वाली फिल्मों में दर्शाया जाता था। मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास में कभी हरिया तो कभी हल्कू बनकर आता था। मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में चरित्र अभिनेता के किरदार में एक दरिद्र होता था। अब किसान खुद का जमीदार है सब कुछ बदल देने की क्षमता रखता है।
Monday, July 12, 2021
दलित पत्रकारिता का नायाब नगीना थे महीपाल सिंह-डी०के०भास्कर
![]() |
महीपाल सिंह (सम्पादक-दलित टुडे) |
"वह आम आदमी की पीड़ा को प्रखरता मुखरता से बल देते थे। वे किसी भी तरह से डरने वाले नहीं थे, इसलिए वह अदम्य साहस के साथ लिखते थे। अम्बेडकरवाद के प्रति प्रतिबद्धता ही थी कि कोई उनके लेखन का कायल हुए बिना नहीं रह सकता था। उन्होंने कांग्रेस मुखिया सोनिया गाँधी को इंगित करते हुए लिखा था कि हमें सत्ता चाहिए, सांत्वना नहीं।' कांग्रेस दलितों को सांत्वना देती रही, मगर सत्ता का असली मजा, वही लेती रही।"
Sunday, July 11, 2021
मेरी अजीब किस्मत, -रिंकी सिद्धार्थ
![]() |
रिंकी सिद्धार्थ |
Wednesday, July 07, 2021
ओबीसी और दलितों की सामाजिक वैचारिकी में संघर्ष-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
"ऊंची कुर्सियों पर मात्र काबिज बने रहने के लिए वे राजनेता आंबेडकर को याद करते हैं जो वास्तव में उनकी वैचारिकी/सैद्धांतिकी की घोर खिलाफत में हमेशा खड़े नजर आते हैं।यह विडम्बना ही है कि वे आज उनके नाम में उनके पिता जी के नाम के "राम" को देखकर/जोड़कर अलग किस्म की धार्मिक सियासत करना चाहते हैं।"
![]() |
एन एल वर्मा |
Monday, July 05, 2021
मेरी अजीब किस्मत-रिंकी सिद्धार्थ
समाज को आईना दिखाती एक लड़की के जीवन के संघर्षों की सच्ची कहानी
![]() |
गूगल से साभार |
जब उसके माता पिता ने गाँव छोड़ कर शहर में रहने का फैसला लिया, गांव में सारा परिवार साथ रहता था। अतः मां बाप चाहते हुये भी अपनी बेटियों के साथ ज्यादा बुरा व्यवहार नहीं कर पाते थे। बाकी परिवार वाले बेटियों को बचा लेता थे उनके जुल्म से. पर शहर आने पर माता पिता का व्यवहार बेटियों के प्रति और खराब होता चला गया गाँव में चैन से खेलने वाली लड़कियों को घर के काम में जुतना पड़ा। उन पति पत्नी के पास एक बहाना था क्योंकि वो दोनों पति पत्नी सरकारी नौकरी करते थे तो जब कभी कोई उन्हें बोलता आप छोटी बच्चीयों से इतना काम क्यों लेती है तो वो बोल देती मैं नौकरी करती हूं तो मुझे लड़कियों की मदद लेनी पड़ती हैं और लड़कीयां अगर उनकी बात न माने घर के काम न करके पढना चाहे तो वो लड़कीयों को चिल्लाते और मारते थे जब कोई पडोसी उनसे पूछता क्यों डाँट मार रही हैं लड़की को तो वो बोल देते हमारी बात नहीं मानती है इसलिए जबकि उनकी बड़ी बेटी और छोटी बेटी के बीच में एक बेटा था उससे कोई काम नहीं कहती करने को वो पढाई भी नहीं करता था सारा दिन वो सिर्फ टीवी देखता और दोस्तों के साथ घूमता फिर भी वो अपने बेटे को कभी डांटती भी नहीं थी पति कुछ बोले तो उसे भी रोक लेती लड़का है हमारे बुढ़ापे का सहारा है इसको कुछ मत बोलो. सुधा रुपवती और पैसा कमाने वाली स्त्री थी और रुप और गर्व में चोली-दामन का नाता है।
वह
अपने हाथों से कोई काम न करती।घर का सारा काम बेटियों से कराना चाहती।पिता की
आँखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे अब बेटीयों में सब बुराइयाँ-ही- बुराइयाँ नजर आतीं थी
बेटों में नहीं । सुधा की बातों को वह प्राचीन मर्यादानुसार आँखें बंद करके मान
लेता था। बेटीयों की शिकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि बेटियों ने
शिकायत करना ही छोड़ दिया। किसके सामने रोये? जब मां बाप ही
गलत करते हैं , अब कुछ लोगों को छोड़ कर लगभग सारे लोग ही जैसे
उसके दुश्मन बन गये। बड़ी जिद्दी लड़कीयां है,सुधा को तो कुछ
समझती ही नहीं; बेचारी उनका दुलार करती है, खिलाती-पिलाती
है यह उसी का फल है। दूसरी औरत होती, तो निबाह न होता। वह तो कहो, सुधा
इतनी सीधी-सादी है कि निबाह हो जाता है। सबल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल
की फरियाद भी कोई नहीं सुनता! बेटियों का हृदय माँ बाप की ओर से दिन-दिन फटता रहा
बेटीयां माता पिता के जुल्म सहती रही सिर्फ इस डर में कि जब घर के लोग इतना बुरा
व्यवहार करते हैं तो बाहर के लोग कैसा व्यवहार करेंगें उनके साथ और वो अगर घर से
भाग कर घर वालों के जुल्मों से बच कर जाना भी चाहे तो जाये तो जाये कहां जहां उनके
साथ बुरा न हो कोई ऐसी सुरक्षित जगह नजर न आती उन्हें जहां वो रह सके जुल्मों से
बच सके इसलिए उन्होंने इतने बुरे माता पिता का मिलना अपने प्रारब्ध के बुरे कर्मो
का फल मान लिया और वैसे ही घरवालों के अत्याचार सह कर जीवन व्यतीत करती रही!
![]() |
रिंकी सिद्धार्थ |
पता-बनारस उत्तर प्रदेश
पढ़िये आज की रचना
मौत और महिला-अखिलेश कुमार अरुण
(कविता) (नोट-प्रकाशित रचना इंदौर समाचार पत्र मध्य प्रदेश ११ मार्च २०२५ पृष्ठ संख्या-1 , वुमेन एक्सप्रेस पत्र दिल्ली से दिनांक ११ मार्च २०२५ ...

सबसे ज्यादा जो पढ़े गये, आप भी पढ़ें.
-
महापुरुषों के आदर्श से साभार एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत वाणिज्य विभाग वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी डॉ.भीम राव आंबेडकर...
-
ले लो भैया गरम समोसा खाओ भैया इडली डोसा । अजब- गजब संग चटनी वाला , चटपट- चटपट स्वाद निराला । बोलो बोलो क्या है लेना , नहीं...