साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, December 10, 2021

भेड़िये शहर के-सुरेश सौरभ

(पटकथा)
शार्ट फिल्म











-ःफिल्म के मुख्य पात्रः-

1-सीओ-रमन सिंह।  

2-सीओ की पत्नी-मीना सिंह।

3-सीओ की बेटी-रीता।

4-गरीब बूढ़े माँ-बाप और बलात्कार से पीड़ित उसकी युवा बेटी।

5-सहयोगी दरोगा राम सिंह व कोतवाली के कुछ अन्य पुलिस कर्मी।

6-मंत्री गौरव पांडे।

 सीन-1

सीओ सिटी अपने घर में आते ही कुर्सी पर पसर गये। उनके सामने उनकी पत्नी मीना सिंह चाय की ट्रे रखते हुए बोलीं-क्या बात है, आज आप बहुत उदास लग रहंे हैं?

सीओ-कुछ नहीं हाँ रीता आई (सामने दीवार पर लगी घड़ी की ओर देखते हुए जो रात के दस बजा रही थी)

पत्नी कप में चाय ढरकाते हुए बोली-नहीं?

सीओ गुस्से में-क्यों-क्यों इतनी देर हो गई,जब,जब रोज आठ बजे तक कोंचिंग पढ़ कर जाती है, तो आज क्यों इत्ती देर हो गयी। वैसे भी शहर के हालात ठीक नहीं है,फिर क्यों इत्ती देर तक टहल रही है।

पत्नी चाय देते हुए-हुंह आप पुलिस वालों के, तो गुस्सा हमेशा नाक पर ही धरा रहता है।

सीओ-मीना तुम कुछ नहीं जानती?

पत्नी-क्या जानँू जब मुझ से कह गई है कि कोेंचिंग के बाद अपनी किसी सहेली की बर्थ डे पार्टी में जायेगी और वापिसी करने में थोड़ी देरी हो जायेगी,तो क्यों खामखा चिन्ता करूं।

(सीओ की आँखों में कोई नमी थी) वह चाय पीते हुए बोले-जवान बेटियों का बाप होना भी अब तो सबसे बड़ा गुनाह लगता है।

पत्नी-आप काहे चिन्ता करते हैं जिस शहर की जिम्मेदारी आप जैसे नेक ईमानदार अफसर के भरोसे हो, वहाँ किसी जवान बेटी के बाप को कोई चिन्ता करने की जरूरत नहीं?

सीओ-यही दिक्कत है मीना कि शहर की जिम्मेदारी हम पुलिस अफसरांे के भरोसे नहीं बल्कि आवारा सांडांे के भरोसे है।

पत्नी-क्या हुआ? जब से आप इस शहर में ट्रान्सफर होकर आये हैं, तब से बहुत उदास रहते हैं। क्या हुआ, आज तो बहुत दुखी लग रहंे हैं? कुछ बताओ तो सही?(पीठ के पीछे कन्धे पर हाथ रखते हुए पत्नी सान्त्वना देते हुए बोली)

सीओ-आज दोपहर की बात है (फिर सीओ खयालों में खो जातें हैं।)

     सीन-2

(एक गरीब बूढ़ी महिला और उसकी युवा बेटी और उसका बाप सीओ के सामने रो-गिड़गिड़ा रहे हैं।)

बुढ़िया-साहब मेहबानी कर के मेरी रिपोर्ट लिख लीजिए। उस हरामखोर ने मेरी बेटी की आबरू लूट ली है, हमें कहीं मुँह दिखाने के लायक नहीं छोड़ा।

बूढ़ा रोते हुए-इतने दिनों से थाना कोतवाली के चक्कर काट रहा हूँ लग रहा, इस शहर में सब पत्थर दिल बसते हैं भेड़िये ही भेड़िया रहते हैं, इसलिए यहाँ कोई किसी की सुनने वाला नहीं।

सीओ-आप लोग तसल्ली रखिए, देखिए हम जांच कर रहे हैं, अरोपियांे को जल्द से जल्द हम पकडं़ेगे।

बलात्कार से पीड़ित लड़की रोते हुए सीओ की ओर गुस्से से देखते हुए कहती है-ये क्यों नहीं कहते सत्ता के भेड़ियो से डर रहे हैं। इसलिए आप को शहर की बेटियों की परवाह नहीं, परवाह सिर्फ आप को अपनी नौकरी की है। अपनी कुर्सी की है।

सीओ गुस्से-ऐ! लड़की ज्यादा दिमाग न खराब कर वर्ना...

लड़की-वर्ना क्या करोगे, क्या करोगे लो लो तुम भी लूट लो, गरीबों को दुनिया लूट रही है, तो तुम क्यों छोड़ो  (वह लड़की सीओ के सामने आकर अपने बदन के उभारो को कर देती है सीओ अपनी पीठ घूमा लड़की की ओर कर देता है। उसके सहयोगी दरोगा और कुछ पुलिस वाले भी शर्म से सिर झुका लेते हैं)  

बुढ़िया रोते हुए-बेटा तेरे भी घर-परिवार में कोई न कोई बेटी होगी। आज मेरे साथ हुआ कल हो न हो तेरे साथ हुआ तो..

रोबदार मूछों वाला सीओ का सहयोगी दरोगा राम सिंह तभी बुढ़िया को डपटता है-चोप चोप! ज्यादा चपड़-चपड़ की तो....(बुढ़िया डर के मारे कांपने लगती है। उसकी बेटी और उसका बूढ़ा पति भी डर से कांपने लगतें हैं)

दरोगा-सालों समझ में नहीं आ रहा, उत्ती देर से साहब समझा रहें पर कुछ समझ ही नहीं पा रहंे हैं। रात भर तुम सब को लॉकअप में बंद रखूंगा? दिमाग ठिकाने आ जायेगा तुम सबका।

तभी सीओ के मोबाइल की घंटी बजती है। वह अपना फोन उठाते हैं। बोले-जी जी सर जय हिन्द सर

उधर से एक मंत्री गौरव पांडे बोलता है-कैस होे सीओ साहब?

सीओ-जी फस क्लास।

मंत्री-देखो वह केस जल्दी से जल्दी खत्म करने की कोशिश करो।अगर मीडिया तक मामला पहुंचा तो रफा-दफा करने में टाइम भी लगेगा और हमारा पैसा भी खामखा जाया होगा।

सीओ इशारे से पीड़िता लड़की, उसके मां-बाप को रामसिंह से बाहर ले जाने को कहता है। राम सिंह घुड़कते हुए उन्हें सीओ के आफिस से निकालते हुए बोला-चलो चलो चलो बाहर

(रामसिंह उन्हें बाहर निकाल कर खुद भी बाहर चला जाता है)

मंत्री-क्या बात है ऑफीसर तुम खामोश क्यों हो?

सीओ-सर उन्हंे अपने ऑफिस से निकलवा रहा था इसलिये वो थोड़ा....

मंत्री-ओह! अब एकान्त में हो।

(सीओ अपने आस-पास खड़े कुछ पुलिस वालांे को भी अपने केबिन से बाहर जाने को इशारे से कहता है।)

सीओ-हाँ हाँ जी सर बोलिए।

मंत्री-तुम्हें मालूम है हर घर-परिवार में जब एक-दो नालायक बच्चे निकल जातें हैं, तो ऐसे बच्चों से कभी-कभी गलतियां भी हो जाया करतीं हैं। इसका मतलब ये नहीं कि उन्हें हम घर से निकाल दें या उन्हें उनके हाल पर छोड़ दें। फिर हमारी इतनी बड़ी पार्टी का परिवार है। सबको देखना पड़ता है। सब हमारे किसी न किसी काम आतंे हैं।

सीओ-पर सर वह अपनी रिपोर्ट लिखाने के लिए बहुत रो-गिड़गिड़ा रहे हैं। बहुत हाथ-पांव जोड़ रहें हैं।

मंत्री गुस्से में-हुंह तब तुम क्या चाहते हो। अपनी पार्टी की इज्जत दांव पर लगा दूं। अपनी इमेज खराब कर लूं। उन सड़क छाप भिखमंगों के लिए। मेरी बात कान खोल कर सुन लो गौरव पांडे मेरा नाम है किसी तरह से मेरे गौरव की हानि न होने पाए वर्ना तुम जानते हो मैं कितना शरीफ आदमी हूं। किसी भी तरह यह केस खत्म करो। इतना परेशान उस रेप पीडिता और उसके परिवार वालो को करो कि वह रिपोर्ट लिखाना तो दूर पुलिस को ख्वाब में भी कभी देखें तो उनकी रूह फना हो जाये। (इतना कह कर फोन काट दिया।)

सीओ-सर सुनिए सुनिए सर

सीन-3

सीओ अपने खयालों से वापस आये पत्नी से बोले-कुछ समझ में नहीं आता कि अपनी नौकरी बचाऊं या मंत्री के नालायक गलतियां करने वाले बच्चों को बचाऊँ। कुछ समझ में नहीं आता। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूँ..

पत्नी-बस अपना ईमान बचाओ।

सीओ-वही तो सत्ता के बहरूपियों के पास गिरवी पड़ा है।

तभी धड़ाक से दरवाजा खुलता है। सीओ की बेटी रीता बदहवास हक्की-बक्की सी अंदर आती है। उसके चेहरे पर चोट के निशान है। बाल उलझे हैं। कपड़े अस्त-व्यस्त हैं। और जोर-जोर से सांसें खींचते हुए दुखी स्वर में बचा लो मम्मी, बचा लो पापा कहते-कहते अपने मम्मी-पापा की ओर तेजी से बढ़ती है फौरन मम्मी-पापा लपक कर अपने गले से उसेे लगा लेते हैैं।

क्या हुआ क्या हुआ रीता क्या हुआ मेरी बेटी-हैरत और भय से सीओ और उनकी पत्नी बार-बार पूछतें हैं।

बेटी रोते-सिसकते हुए बोली-बडी मुश्किल से उन भेड़ियों से अपनी जान और इज्जत बचा कर भागती हुई आई हूं। 

सीओ साहब का चेहरा गुस्से से लाल हो जाता है और उनके कानों में उस बलात्कार पीड़िता की बुढ़िया मां की फरियाद बजने जगती है।....बेटा तेरे भी घर-परिवार में कोई न कोई बेटी होगी। आज मेरे साथ हुआ, कल हो न हो तेरे साथ हुआ तो..

गुस्से में अपने दांत पीस कर सीओ बोले-अब मेरा कुछ बचे न बचे, पर अपना सम्मान बचाने के लिए, बेटियों को इस शहर के भेड़ियो से बचाने के लिए, कुछ भी करूंगा। कुछ भी करूंगा। चाहे जो हो जाए,चाहे नौकरी रहे या भाड़ मंे जाए।

सुरेश सौरभ
   -ःसमाप्तः-


 
कहानी-पटकथा-संवाद-
(उपन्यासकार-स्तम्भकार-पत्रकार-व्यग्ंयकार एवं शिक्षक, पता-निर्मल नगर लखीमपुर खीरी यूपी मो-7376236066 )

और शुरुआत लीकेज से-सुरेश सौरभ

(हास्य - व्यंग्य)  
 
 बचपन में मैं जिस स्कूल में पढ़ता था , उस गाँव में स्कूल के मास्टर जी जब बार-बार खेत को, लोटा लेकर जाते-आते थे, तब मैं उनसे पूछता ,क्या हुआ मास्टर जी? वे कहते-लीकेज | 
      उस समय मैं छोटा था, इसका मतलब नहीं समझ पाता था, पर जब थोड़ा बड़ा हुआ, तो पता चला उनके कहे लीकेज का मतलब लूज मोशन होता है । मास्टर जी का, दरअसल अंग्रेजी में हाथ तंग था , इसलिए गलती से लूज मोशन को लीकेज बोल दिया करते थे । उन दिनों जब मेरे दादा जी कोटे पर मिट्टी का तेल लेने जाया करते थे , तो कोटेदार की कम नाप पर उससे भिड़ जाया करते थे , और उससे सही नापने के लिए कहते , कोटेदार तब कहता-जब ऊपर से लेकर नीचे तक सब जगह लीकेज ही लीकेज है, तो पूरा करके कहाँ से  दूँ । तब दादा जी उस पर दया दिखा कर अपना गुस्सा जब्त कर जाते और चुपचाप कम तेल लेकर लौट आते । बचपन में अम्मा की दही-हांड़ी में रखा दूध-दही चट कर जाता था, पूछने पर बता देता उन्हें, कहीं से लीकेज होगा या किसी बिल्ली आदि ने मुँह मारा होगा । कभी एक प्रधान मंत्री ने कहा था, 'ऊपर से जो एक रुपया चलता है, नीचे लीकेज होकर पन्द्रह या बीस पैसा ही रह जाता है ।'
         यह लीकेज राष्ट्रीय नहीं अंतरराष्ट्रीय समस्या है , इस पर तमाम विश्वविद्यालयों  को शोध करने चाहिए, जब नाली से गैस बनाने पर हो रहे हैं,  तब इस पर क्यों नहीं?
      उस दिन एक परम मित्र राम लाल मिल गये । उनके चेहरे से उदासी झर रही थी, पूछा क्या हाल है ? बोले-हाल वही है, पर पिक्चर उसमें बदसूरत चिपक गयी है । मैंने कहा-कौन सी बदसूरत पिक्चर है, दिखाओ यार! थोड़ी झलक। 
         वे फूट पड़े-महीनों से तैयारी कर रहा था, हजारों रुपये कोचिंग और किताबों में फूंक मारे । अब पेपर लीक। टी.ई.टी. नहीं तमाशा लग रहा है , बस हाल न पूछो, पूरा दिल-दिमाग सुलग रहा है । 
         मैंने उनके दिल पर मरहम लगाते हुए कहा-यह लीकेज की समस्या सदियों पुरानी है, इसके स्थाई समाधान के लिए सरकार को एक मजबूत-टिकाऊ कमेटी बनानी चाहिए भाई।
        वे बोले-पहले पेपर बनाने वालों की कमेटी, फिर पेपर कराने वालों की कमेटी, फिर पेपर जांच, सही कन्डीडेट चुनने वालों की कमेटी । अब लीक करने वालों की कमेटी को पकड़ने के लिए, सरकारी जाँच करने वालों की कमेटी । फिर पकड़ कर, उन्हें सजा देने वालों की कमेटी , ऐसे लगता है । सरकार कमेटी-कमेटी का खेल, हम बेकरों से खेल कर हमें हर तरह से आउट कर पावेलियन लौटाना ही चाहती है ।" भरे दिल से, इतना कह कर राम लाल चले गये " 
     मैं  घर से, अपने लीकेज हो रहे जूतों के लिए फेवी क्विक लेने जा रहा था, पर सरकारी खामियों के लीकेज को बंद करने का पता नहीं, कब-कौन फेवीक्विक बने? इस चिंता का गुबार दिल में भरता जा रहा था।

पता- निर्मल नगर- लखीमपुर खीरी उ.प्र. Pin-262701 
 मो -7376236066.

तिबारा-सुरेश सौरभ

लघुकथा

    स्कूल में मध्याह्न भोजन बन रहा था । सारे बच्चों को कढ़ी चावल बांटा गया । एक बालिका कढ़ी चावल खाते हुए रसोइये के पास दुबके-दुबके गयी, बोली- थोड़ा सा और दे दो भैया । 
   'कितना खायेगी , तिबारा मांग रही है -रसोइया चिढ़कर बोला ।
     'अरे मुझे पूरा भगोना दे दो मैं पूरा भगोना खा जाऊंगी ।' बालिका के शब्द सुनकर रसोइया और सारी अध्यापिकाएं हतप्रभ रह गयीं ।
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश
मो-7376236066

नीमसार-सुरेश सौरभ

लघुकथा
    ट्रेन के एक डिब्बे में मैं बैठा था । नीमसार जाने के लिए एक पीले वस्त्र धारी से चर्चा आरंभ हुई वे बोले-बेटा तुम्हारी जात क्या है। मुझे हंसी आ गई- लड़खड़ाते शब्दों को बटोरकर बोला- मेरी कोई जात नहीं , कोई धर्म नहीं , जैसे आप संतों की कोई जाति धर्म नहीं होता ।
वे व्यथित हो पड़े , कुछ पल बाद हमारा डिब्बा छोड़कर अन्यत्र डिब्बे में चढ़ गये । नीमसार तक जाने का उनका-हमारा साथ टूट गया । 
ट्रेन चली । एक स्टेशन पर रुकी । मैंने देखा एक नल की टोंटी में तमाम लोग जल्दी-जल्दी एक दूसरे को धक्का मारते हुए पानी पी रहे हैं , भर रहे हैं । किसका जूठा पानी किस पे गिरा , किसका शरीर किससे लड़ा , किसका लोटा , किसकी बोतल से भिड़ा , किसी को होश न था ।
ट्रेन ने दूसरी सीटी मारी । वे भरभरा कर एक ट्रेन के कई डिब्बों में घुसते चले गये । आखिर ये किस-किस जात के थे ?
                    
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश
मो-7376236066

बलमा-लेखाकृति

कहानी

            बलमा आज से पांच बरिस पहिले गांव के रमेसर चा के साथे बहरा कमाने गया था।रमेसर चा पेपर मील में काम करते थे त बलमा को भी वहीं काम पर रखवा दियें। 
घरे अनकर खेत में बनिहारी करे वाला बलमा, बाबूजी के साथ सालो भर देह झोंके के बाद भी घर की हालत में कोई सुधार न कर पाया था । जी तोड़ मेहनत करे वाला बलमा कभी दु कलम पढ़े पर ध्यान ही न दिया।उ त अब जब गांव से निकल के यहाँ आया है त देख रहा कि और सब लोग तो ओकरे जइसन है बाकी कुछ लोग अलगे झलक रहे।पहनावा,ओढावा, बोली सब कुछ उन्हें भीड़ से अलग कर रहा।
मतलब कौआ के झुंड में हंस जैसा सब झलक रहें।
रमेसर चा भी पढ़ल लिखल न हैं बाकी उनको दूसरा से जादे मतलब न हैं।
ईमानदारी से अपन काम करते हैं जे तनखा मिलता ओकरा में से अपन खर्चा रख के बाकी के पैसा घरे मनी ऑर्डर लगा देते।रमेसर चा को देखके बलमा के मन हुआ कि उ भी कुछ पैसा घरे लगा दें।फिर कुछ सोच के पोस्ट ऑफिस न गया।
उसको तो पढ़े लिखे बाबुओं जैसा बनना था।मतलब उसी तरह के कपड़े,उनके जैसी चाल ढाल आदि।
बस यही सोच वो अपनी कमाई खुद पर खर्च करने लगा।
देखते देखते बलमा एकदम से शहरी बाबू बन गया।हां पैसे से सब कुछ खरीद तो लिया बस एक ही चीज वो न कर सका।
वो था करिवा अक्षर से दोस्ती।
अब मील मजदूर को न तो उतनी फुर्सत ही कि पढ़ाई लिखाई कर सके और न ही घण्टों कमर पीठ सोझ और गर्दन टेढ़ करके पढ़े में बलमा की कभी कोई रुचि ही रही।न तो ई बाइस बरिस तक का ई अइसहीं रहता?
खैर साल भर में तो बलमा अपना हुलिया ही बदल लिया।
जब कभी पहन ओढ़ के निकलता तो अनचके तो उसे कोई पहचान ही न सकता।
झक सफेद कुर्ता,ब्रासलेट की धोती जिसकी खूंट कुर्ता के दायीं जेब में।
भींगे बालों में एक अंजुरी चमेली के तेल डाल जब रगड़ के बाल झटकता तो लगता कि इंद्र भगवान आज इत्र लगाके बरसे वाले हैं।
बालों में तेल अच्छे से जज्ब हो जाने पर दीवार पर टँगी छोटकी ऐनक में देख के कंघी से टेढ़की मांग फाड़ बालों को सटीयाता।कभी कभी तो पानी व तेल के मेल मिलाप के बाद भी चांदी पर के दु चार केश विद्रोह कर उठ खड़ा होता तो ऐसे में बलमा कंघी एक किनारे रख हाथों से ही खड़े बालों को सटीयाने लगता।
धूप रहे चाहे न , बदरी बुनी के आसार भी न हो तब भी बलमा बिन छाता के घर से न निकलता।
आंख पर चश्मा और दायीं कलाई की एच एम टी घड़ी में तो जैसे उसकी जान बसती थी।
अबकी तनखा में चमड़ा के एगो बैग भी खरीदा ई सोच के कि अबकी फगुआ घरे जाएंगे।
फगुआ में घरे जाए में कोई दिक्कत न हो यही से महीना भर पहिलहीं से सब तैयारी में लगल था।माई ला साड़ी, त बाबूजी ला धोती,कुर्ता के कपड़ा,गमछी और एक सुंदर सी साड़ी अपनी अनदेखी पत्नी के लिए जो बियाह में त न आई थी बाकी पांच बरिस पर बाबूजी फगुआ में गौना करा के घरे ले आये हैं।
रमेसर चा के घरे से आवे वाला चिठ्ठी में बलमा के लिए भी ई सन्देश था,
" बाबू बालम को मालूम हो कि समधी साहेब के बेर बेर कहे पर हम कनिया के गौना करा के ले आयल ही ।एहि से बाबू तोरा कहित ही कि फगुआ में जरूर से जरूर घरे चल अइह।"
              मील में छुट्टी तो अभी न हुआ है बाकी बलमा सप्ताह दिन पहिलही से सबके कह दिया था कि अबकी फगुआ उ घरे जा रहा। चार रोज दिन अछते बलमा घरे जायला गाड़ी धर लिया।रेल के सफर में ही दु रोज कट गया। जब टीसन पर उतरा त वहीं नहा धो के तैयार हुआ।परदेश से अपन जगह आयते बलमा का मन भर आया।यहाँ चहुं ओर होली की सुगबुगाहट थी।
अब इहाँ से घरे के बस पकड़ेगा त सांझ-सांझ ला घरे चहुँप ही जायेगा। उबड़ खाबड़ कच्ची राह और बस का सफर दु घण्टा के राह में छः घण्टा लगाएगा।
       बलमा बढ़िया से तैयार होके टीसन से निकला त राह चलते लोग ठहर से गये।
घीया रंग के सिल्क के कुर्ता, सुपर फाइन धोती,उसकी खूंट को दाहिनी जेब के हवाले किये ,दाहिनी कलाई में एच एम टी स्विस घड़ी बांध आंखों पर बिन पावर का चश्मा चढ़ाये एक हाथ में चमड़ा के करिया बैग त दूसरे में छाता थामे बस स्टैंड की ओर बढ़ा।
बस का टिकट ले निश्चिन्त होता तभी अखबार वाला दिखा।कुछ सोच अठन्नी जेब से निकाल एक अखबार खरीदा।
अखबार वाला बलमा के रूप रंग से इतना मोहित हुआ कि वो अंग्रेजी अखबार पकड़ा दिया।
वैसे भी बलमा के लिए का हिन्दी का अंग्रेजी?
सब धन तो बाइस पसेरी तो निर्विकार भाव से अंग्रेजी अखबार लिए बस में सवार हुआ।
अपनी सीट पर अब आराम से बैठ
बैग, छाता सब अच्छे से रख अखबार हाथ में लिया तो भरी बस की नजरें बलमा पर जा टिकी।
कम से कम ई बस जहां तक जाती है उसमें बैठे वाला कभी कोई किसी को अंग्रेजी अखबार पढ़ते तो अब तक न देखा।
बलमा के हाव भाव से लोग स्वतः दूरी बरत रहें।
बलमा में आत्मविश्वास तो बहुत है पर ....
बलमा अखबार खरीद तो लिया बाकी खोलकर पढ़ न रहा,पढ़ना तो वैसे भी न आता बाकी अखबार सीधा पकड़ाया है या उल्टा आखिर ई भी तो कोई बात है?
एक व्यक्ति थोड़ी मित्रता के ख्याल से आगे बढ़ कर पूछा.....
भाई जी कोई खास समाचार?
बलमा चश्मा के अंदर से झांक देखा,बिना प्रत्युत्तर अखबार उसकी ओर बढ़ा दिया।
पूछने वाला बिना अखबार लिए वापिस अपनी जगह जा बैठा।
बस हिचकोले खाती अपनी सफर पूरा की।सब लोग बस से उतर अपनी अपनी राह चले।बलमा को घर तक पहुंचने में करीब पांच कोस की दूरी तय करनी अब भी शेष थी। कलई में बंधी घड़ी से ज्यादा भरोसा बलमा ढलती दिन से अंदाजा लगा रहा कि शाम के चार बजे गए होंगे।
गांव तक जाने का रास्ता तो दो, तीन है।एक रास्ता नदी के किनारे किनारे से होकर है बलमा घर पहुंचने की जल्दी में आज उसे ही चुना।
हाँ रास्ते में छोटा मोटा बाजार भी मिला।जहां होली के सर सौदा लेते लोग बाग से बाजार गुलजार दिखा।कहीं बच्चा पिचकारी के लिए दादा से जिद कर रहा, तो कोई अपन पसन्द के कमीज न खरीदाय पर माई के अंगूरी छोड़ वहीं लोट पोट हो रहा । कहीं दुकान पर रेडियो बज रहा जिसमें होली के गीत सुन बलमा का मन मिजाज भी रंगीन हो रहा।
        भीड़ भरे बाजार से बलमा निकल पाता तभी पास के गांव की रघुआ की नजर उस पर पड़ी।
रघुआ कुछ सोच, भाग कर अपने मालिक के पास पहुंचा।उसको इस तरह हाँफते देख .....
का रे !!
हाँफइत काहेला हे?
रघुआ सुख चुके गले से थूक घोटते हुए....
मालिक !!
मालिक!!
उ पहुना !!!
मालिक घुड़कते हुए....
का कहित हे रे?
आजे से का चढ़ गेलउ?
रघुआ अपने गले में पड़ी कंठी पकड़ ....
ना मालिक सच्चो!!
पहुना आवित हथन!!
अभी त बाजरे में हथन!!
मालिक राम जतन बाबू जो अपनी बेटी का ब्याह चार बरिस पहिले तो किये हैं बाकी अभी गौना न किये हैं,यही अगहन करेला सोच रहे थे।
अब पहुना फगुआ में बिन गौने आ जाएंगे ई त कभी सोचबे न किये थे।
बिन गौने ससुरारी में कोई पहुना आवे त ई भारी शिकायत के बात हे।उ भी राम जतन बाबू जइसन रसूख वाला ही।
राम जतन बाबू....
देख रघुआ अभी कोई से हल्ला न करीहें न त तोरा....
रघुआ मुड़ी नीचे किये...
न मालिक!
रामजतन बाबू हलकान परेशान से जनानी किता में गयें।
असमय घर आये रामजतन बाबू को देख पत्नी गौरी भी हड़बड़ाई सी सम्मुख हुई।
गौरी......
का होएल?
रामजतन बाबू ड्योढ़ी लांघ अंदर कमरे में आये।पीछे पीछे गौरी भी कपार पर आँचरा सम्हारती आई।

रामजतन बाबू.....
सुन!!
पहुना आवित हथन!!
अभी रघुवा देख के आवित हे!!
गौरी को भी कुछ न समझ आ रहा।
इज्जत के बात हे ,का कयल जाय।
फिर दोनों पति-पत्नी आपसी मन्त्रणा के बाद पहुना के स्वागत की तैयारी में जुट जाते हैं।
हाँ ख्याल इस बात का भी है कि बात बाहर न जाय इसलिए तय किया गया कि, जब पहुना बाजार पार करके आगे बढ़े और तनी धुंधलका हो जाय त दु आदमी भेजके बोलवा लेंगे आउर उ इहहिं जनानी किता में ही रहेंगे।
फगुआ का गहमागहमी था ही इसलिए थोड़ा और बदलाव ज्यादा किसी का ध्यान न खींचा।यहाँ तक कि रामजतन बाबू की इकलौती बेटी चन्द्रज्योति भी ई सब से अनजान थी।
वो तो सखियों संग होली के हुड़दंग की तैयारी में लगी थी।
इधर बलमा को भीड़ भरे बाजार से निकलते निकलते शाम का धुंधलका बढ़ने लगा।बलमा बैग में रखा टॉर्च निकालने सोच ही रहा था तभी पीछे से टॉर्च की रौशनी और किसी के कदमों की आहट से वो पीछे मुड़ा तो देखा कि,
दो आदमी हाथ में लाठी व टॉर्च लिए 
करीब आ रहे है।
बलमा कोई निर्णय ले पाता तब तक दोनों करीब आ उसके हाथ से छाता व बैग ले लिया।बलमा की घिघ्घी बन्ध गई।
वो गूंगा सा उनके पीछे पीछे चलने लगा।
थोड़ी देर के बाद बलमा किसी हवेलीनुमा घर के बाहर खड़ा था।पहले से तय योजनानुसार बलमा को हवेली के पीछे वाले दरवाजे से जनानी कित्ता में पहुंचा दिया गया।जहाँ पहले से ही कुछ महिलाएं पहुना के स्वागत में थी।
बलमा किससे क्या कहे तय न कर पा रहा?
जब तक मुंह खोलने सोचता कोई न कोई हंस कर उसे चुप करा देता।
अब तक चन्द्रज्योति को भी माँ से पता चल गया कि वो बिन गौने आ गए हैं....
चन्द्रज्योति के गुस्से का ठिकाना नहीं पर माँ उसे समझा बुझा के शांत की।
होली के रंग की खुशी जो उसके चेहरे पर चढ़ी भी न थी पल भर में उतर गई। 
उधर बलमा का स्वागत घर की पहुना की तरह हुआ।
कोई जूता खोलने में मदद कर रहा तो कोई परात में गोड़ धो रहा।
चन्द्रज्योति के कमरे को बढ़िया से बर बिछौना लगा के बलमा को वहीं पहुंचा दिया गया।
फागुन बीत रहा था दिन में गर्मी त रात थोड़ी ठंढी सिहरन भरी।बलमा को अब डर लगने लगा।कुछ बोलने की हिम्मत ही न जुटा पा रहा कि का पता असलियत जनला पर सब का करेगा?
बस मने मन गोरिया बाबा को मनौती भख रहा कि यहाँ से सही सलामत घरे चहुँप जाएंगे त ई होली में कबूतर चढ़ाएंगे।
बलमा के स्वागत सत्कार में कोई कमी न रखी गई।एक से बढ़कर एक मर मिठाई परोसा गया।बलमा तो डरे किसी चीज को हाथ भी न लगा रहा। जब तक नाश्ता को बलमा भर नजर देखता तब ला अगजा का बरी, बचका, कचरी पकौड़ी सब बलमा के सामने धरा गया।
बलमा को न खाते देख रिश्ते की सरहजें चुटकी भी ली....
खा ला पहुना!!
चन्द्रज्योति खियात्थु तब्बे का खयबअ?
अब ई नाम सुनकर बलमा का तो खून ही सुख गया।
डर के मारे उ क्या खाया उसे कुछ न पता न स्वाद न रंग।बस गटागट गिलास भर पानी पी गया।
सब हंसने लगीं।बलमा को कोई हाथ धोने तक न उठने दिया।सब कुछ सामने हाजिर।
बलमा का छाता व बैग कमरे में पहुंचा दिया गया। सरहजें बलमा को खाना पीना करवा आराम करने कह किवाड़ भिड़ा चली गई।
अभी तक बलमा जो कुर्सी पर बैठा था उसको हिम्मत न हो रही कि वो इस राजसी पलँग पर जाकर लेट जाय।
बहुत देर तक यूँ ही बैठा यहाँ से निकलने की जुगत भिड़ाता रहा।तत्काल तो कोई रास्ता न सूझ रहा ऊपर से सफर की थकान।नींद से हार वो पलँग के एक किनारे सहम कर पड़ गया।पड़े पड़े आहटों से अंदाजा लगाता रहा कि लोग अभी जगे हैं।
उधर चन्द्रज्योति को कितना कहने पर भी वो उस कमरे में जाने को तैयार नहीं।
गौरी को खराब भी लग रहा कि पहुना एक तो बिन गौने फगुआ में आयलन हे!
आउर ई लड़की बात न समझइत हे!
आखिर पहुना का सोचतन?
चन्द्रज्योति की रिश्ते की भौजाइयाँ जो अब तक बलमा की खातिरदारी में लगी थी....
वो चुहलबाजी कर करके रोती, ठुनकती चन्द्रज्योति को हंसा कर ही दम ली।
घर के पुरुष सब आगजा में शामिल होने गए थे। 
इधर बलमा सब से बेखबर नींद की पहलू में।
भौजाइयाँ चुहल करती चन्द्रज्योति को तैयार करने में लगी थी।
चन्द्रज्योति के नखरे उसके श्रृंगार को और भी निखार रहे।
अंततः पूनम की रात और चन्द्रज्योति का श्रृंगार।
चाँदनी भी उसकी खिड़की से झाँक उफ!! बोल गई।
दूर बजती डफ के बोल....

"डफ काहे के बजाय,
ललचाये जियरा ,
डफ काहे के....
डफवा के बोली,
महलिया तक जाय...."

चन्द्रज्योति का मन तो गुस्से से भरा ही था पर अब दिल की धड़कन बढ़ गई।
भौजाइयाँ कुछ जबरन सी उसे उसके कमरे तक पहुंचा ही दीं।
चन्द्रज्योति अब भी दरवाजे पर खड़ी थी तभी भौजी हल्के धक्के से उसके कमरे में धकेल दी। इस अचानक हरकत से चन्द्रज्योति तो गिरते गिरते बची पर बलमा का नींद खुल गया।कमरे में लालटेन की मध्यम रौशनी और दरवाजे पर खड़ी रूपसी को देख बलमा का कलेजा रेल (जिससे आज भोरे भोरे उतरा) से भी तेज धड़कने लगा।
चन्द्रज्योति अपने कमरे में ही सहमी सी खड़ी रही इधर बलमा हड़बड़ा कर आंखे और जोर से बंद कर लिया।मन ही मन गोरिया बाबा और फगुआ में कबूतर की भखौती को दुहराता रहा।
चन्द्रज्योति भी कोई पहल न कर वहीं दीवार की ओट लिए बैठ रही।
बाहर ,ढोल,मंजीरा झाल की गूंज और फगुआ के बोल में चन्द्रज्योति डूबती उतराती रही...
" सेजिया फूलों से कुम्हलानी.....
सेजिया.....
पच्छिम दिशा मोरे जइह नाहीं बालम,
पच्छिम की हवा ना जानी...
घुट-मुट,घुट-मुट बात करत हैं,
एको बात न जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी...

पुरुब दिशा मत जइह मोरे बालम,
पुरुब की नारी स्यानी......
रात सुलाये रंग महल में,
दिन भराये पानी....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी....

दक्षिण दिशा मत जइह मोरे बालम,
दक्षिण की हवा न जानी....
दाख, मुनाका, गड़ी छुहाड़ा
ई चारो धर जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी.....

उत्तर दिशा तू जइह मोरे बालम,
उत्तर बहे गंगा धारा....
करी स्नानी,लौट घर अइह..
तीनों लोक तर जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी...

फगुआ के बोल में डूबती उतराती चन्द्रज्योति ई न समझ पाई कि ई जब अइबे किये त अइसे मुंह काहे मोड़ रहें।
खैर कुछो हो उ त न जाएगी।
हाँ यदि उ पास आएं त आज खरी खोटी सुनाने से भी न चुकेगी।
अइसहीं बैठी सोचती उसकी भी आंख लग गई।
बलमा की नींद तो कब की उड़ गई।बहुत देर तक यूँ ही पड़ा रहा। जब उसे किसी की कोई आहट न मिली तब धीरे से आंखे खोला। कमरे में बस किसी की सांसो की आहट ही अब शेष थी।खिड़की से उतरती चांद रात बीतने के संकेत कर गया।बलमा धीरे से बिस्तर से उठा, मेज पर रखा फुलही लोटा उठा दरवाजे की ओर बढ़ा।
दीवार से लग कर बैठी निर्विघ्न सोई चन्द्रज्योति पर भर नजर डालने की हिम्मत भी उसमें न हुई। यहाँ तक कि उसकी धानी गोटेदार साड़ी पर पैर न पड़ जाए इतना बच बचा के डेग बढ़ाता किसी तरह भिड़े दरवाजे को हल्का सा खोल बाहर निकला व दरवाजे को पुनः भिड़ा, नंगे कदमों, दबे पांव, आंगन पार किया।
जैसा उसे अंदाजा था कि कोई न कोई तो जरूर भेटायेगा बस इसलिए फुलही लोटा साथ रख लिया था।
ज्योंहि ड्योढ़ी लांघता घर के बाहर पहरेदारी में लगा आदमी .....
जी मालिक एती घड़ी?
बलमा पेट पकड़ इशारा किया।
वो समझा कि, पहुना के पेट खराब हई ।
बस वो आगे बढ़ कर उसे हवेली नुमा घर से बाहर निकलने में मदद कर दिया।
जब वो सुरक्षित वहाँ से निकल गया तब सर पर पांव रख कर अनजानी दिशा में भागा। घण्टों बदहवाश भागने के बाद फूटती किरण के साथ गांव का सीमाना देख हारे सैनिक सा पछाड़ खाके गिर पड़ा।
सुबह सुबह मर मैदान को निकले लोग इस तरह गिरे पड़े राहगीर को देख पानी का छींटा दे होश में लाये।
बलमा बोलने की स्थिति में न है पर अपने गांव के लोग वर्षो बाद भी अपने लोग को पहचान ही लेते हैं।
बस सब बलमा को उसके घर ले गए ,सबने अंदाजा लगाया कि ई राहजनी का शिकार हुआ है।
घर पर फगुआ के आस में बलमा के घरवाले बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
इस तरह थके हारे बलमा को देख बाबूजी सीने से लगा कलप उठे। अइसे बदहवास घर आये बेटा को देख मइया भी रोवे लगी।नयकी कनिया बस मन ही मन खुश है कि उ घरे आ गयें।
वहाँ सुबह होली के हुड़दंग से चन्द्रज्योति की नींद टूटी तो कमरे में कोई न था।बैग व छाता वैसे ही पड़ा था।
रामजतन बाबू,गौरी कोई भी न समझ पाएं कि पहुना कहाँ चल गयें।
गौरी तो चन्द्रज्योति को ही घूर कर देखी कि यही कुछ कहलक हे पहुना के।
खैर पहुना का बैग खुला ,जिसमें सबके पसन्द के कपड़े थे।जिसे सबने सहज स्वीकार किया।बस मलाल रहा कि पहुना बिन कहले काहे चल गयें।।
-लेखा कृति

Monday, December 06, 2021

ग़ज़ल- ओमप्रकाश गौतम

ओमप्रकाश गौतम
दिल का मैं उद्गगार ,कहूंगा ऐ बाबा ।
बातें मैं दो चार , कहूंगा ऐ बाबा ।

लुट रहा आईन, संसद में चुप बैठे हैं।
ऐसों को गद्दार , कहुंगा ऐ बाबा ।।

पढ़ना था तुमको, करते हैं पूजा सब।
खो रहे सब अधिकार, कहुंगा ऐ बाबा।।

भाषा मेरी बोल रहा, है दुश्मन भी।
हो जाओ होशियार , कहुंगा ऐ बाबा।।

कुर्सी खातिर हाथ, मिलाते दुश्मन से।
बिके रहे सरे बाजार, कहुंगा ऐ बाबा।।

अपनी अपनी डफ़ली,अपनी राग लिए।
कूद रहे मेंढक हजार , कहुंगा ऐ बाबा।।

अपने स्वार्थ में गौतम ,हुए हैं अंधे सब।
काने हैं सरदार , कहुंगा ऐ बाबा ।।

प्रभारी निरीक्षक
उत्तर प्रदेश पुलिस

6 दिसम्बर एक दर्द भरी कहानी जो दुखों के भवसागर में डुबो के चली गयी

सोशल मिडिया से साभार


राजधानी दिल्ली रात के 12 बजे थे।
रात का सन्नाटा और अचानक दिल्ली, मुम्बई, नागपुर मे चारो और फोन की घंटीया बज उठी।
राजभवन मौन था, संसद मौन थी, राष्ट्रपती भवन मौन था, हर कोई कस्म कस्म मे था।
शायद कोई बडा हादसा हुआ था, या किसी बड़े हादसे या आपदा से कम नही था! कोई अचानक हमें छोडकर चला गया था।जिसके जाने से करोडो लोग दुःख भरे आँसुओं से विलाप कर रहे थे, देखते ही देखते मुम्बई की सारे सड़के भीड से भर गयी पैर रखने की भी जगह नही बची थी मुम्बई की सड़को पर क्योंकि पार्थिव शरीर मुम्बई लाया जाना था! और अंतिम संस्कार भी मुम्बई मे ही होना था।
नागपुर, कानपुर, दिल्ली, चेन्नाई, मद्रास, बेंगलौर, पुणे, नाशीक और पुरे देश से मुम्बई आने वाली रैलगाडीयो और बसो मे बैठने को जगह नही थी।सब जल्द से जल्द मुम्बई पहोंचना चाहते थे और देखते ही देखते अरब सागर वाली मुम्बई जनसागर से भर गयी।

कौन था ये शख्स ?

जिसके अंतीम दर्शन की लालचा मे जन शैलाब रोते बिलखते मुम्बईकी ओर बढ़ रहा था। देश मे ये पहला प्रसंग था जब बड़े बुजुर्ग छोटे छोटे बच्चो जैसे छाती पीट पीट कर रो रहे थे।महिलाएँ आक्रोश कर रही थी और कह रही थी मेरे पिता चले गये, मेरा बाप चला गया अब कौन है हमारा यहां ?
चंदन की चीता पर जब उसे रखा गया तो लाखो दील रुदन से जल रहे थे।अरब सागर अपनी लहरों के साथ किनारों पर थपकता और लौट जाता फिर थपकता फिर लौट जाता शायद अंतिम दर्शन के लिये वह भी जोर लगा रहा था।
चीता जली और करोडो लोगो की आंखे बरसने लगी। किसके लिये बरस रही थी ये आंखे ? कौन था ईन सबका पिता ? किसकी जलती चीता को देखकर जल रहे थे करोडो दिलो के अग्निकुन्ड?कौन था यहां जो छोड गया था इनके दिलोमे आंधिया, कौन था वह जिसके नाम मात्र लेने से गरज उठती थी बिजलीया, मन से मस्तिष्क तक दौड जाता था ऊर्जा का प्रवाह, कौन था वह शख्स जिसने छीन लिये थे खाली कासीन के हाथो से और थमा दी थी कलम लिखने के लिये ऐक नया इतिहास! आंखो मे बसादीये थे नये सपने, होठो पे सजा दिये थे नये तराने, धन्यौ से प्रवाहीत किया था स्वाभिमान।अभिमान को दास्यता की ज़ंजीरें तोड़ने के लिये दिया प्रज्ञा का शस्त्र।
चिता जल रही थी अरब सागर के किनारे और देश के हर गांव के किनारे मे जल रहा था एक श्मशान, हर एक शख्स मे और दिल मे भी।जो नही पहोंच सका था अरब सागर के किनारे ऐक टक देख रहा था वह, उसकी प्रतिमा या गांव के उस झंडे को जिसमे नीला चक्र लहरा रहा था, या बैठाथा भुख, प्यास भूलकर अपने समूह के साथ उस जगह जिसे वह बौद्ध विहार कहता था।
क्यों गांव, शहर मे सारे समूह भूखे प्यासे बैठे थे ? उसकी चीता की आग ठंडी होने का इंतजार करते हुये, कौन सी आग थी जो वह लगाकर चला गया था ? क्या विद्रोह की आग थी ? या थी वह संघर्ष की आग भूखे, नंगे बदनो को कपडो से ढकने की थी आग ? आसमानता की धजीया उड़ाकर समानता प्रस्थापित करने की आग ?

चवदार तालाब पर जलाई हुई आग अब बुजने का नाम नही ले रही थी। धू - धू जलती मनुस्मृति धुंवे के साथ खतम हुई थी।
क्या यह वह आग थी ? जो जलाकर चला गया था।
वह सारे ज्ञानपीठ, स्कूल, कोलेज मरभूमी जैसे लग रहे था।युवा, युवतियों की कलकलाहट आज मौन थी जिन्होंने हाथ मे कलम थमाई, शिक्षा का महत्व समजाया, जीने का मकसद दिया, राष्ट्रप्रेम की ओत प्रोत भावना जगाई वह युगंधर, प्रज्ञासूर्य काल के कपाल से ढल गया था।
जिस प्रज्ञातेज ने चहरे पर रोशनीया बिखेरी थी क्या वह अंधेरे मे गुम हो रहा था ?
बडी अजीब कस्म कस थी भारत का महान पत्रकार, अर्थशास्त्री, दुरद्रष्टा क्या द्रष्टि से ओजल हो जायेगा ?

सारे मिलों पर ऐसा लग रहा था जैसे हड़ताल चल रही हो सुबह शाम आवाज़ देकर जगाने वाली धुंवा भरी चीमनीया भी आज चुप चाप थी, खेतों मे हल नही चला पाया किसान क्यों ?सारे ऑफीस, सारे कोर्ट, सारी कचहरीया सुनी हो गयी थी जैसे सुना हो जाता है बेटी के बिदा होने के बाद बाप का आँगन।
सारे खेतीहर, मजदूर, किसान असमंजस मे थे ये क्या हुआ ? उनके सिर का सत्र छीन गया।
वह जो चंदन की चीता पर जल रहा है उसने ही तो जलाई थी जबरान ज्योत, मजदूर आंदोलन का वही तो था आधुनिक भारत मे मसीहा, सारी मिलों पर होती थी जो हड़ताले, आंदोलन अपने अधिकारो के लिये उसकी प्रेरणा भी तो वही था।
जिसने मजदूरो को अपना स्वतंत्र पक्ष दिया और संविधान मे लिख दी वह सभी बाते जिन्होंने किसानो, खेतीहारो, मज़दूरो के जीवन मे खुशियां बिखेरी थी।

इधर नागपुर की दीक्षाभूमी पर मातम बस रहा था, लोगो की चीखे सुनाई दे रही थी "बाबा चले गये" "हमारे बाबा चले गये " आधुनिक भारत का वह सुपुत्र जिसने भारत मे लोकतंत्र का बिजारोपण किया था, जिसने भारत के संविधान को रचकर भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया था। हर नागरीक को समानता, स्वतंत्रता और न्याय का अधिकार दिया था, वोट देने का अधिकार देकर देश का मालिक बनाया था, क्या सचमुच वह शख्स नही रहा ?
कोई भी विश्वास करने को तैयार नही था। लोग कह रहे थे "अभी तो यहां बाबा की सफेद गाडी रुकी थी", "बाबा गाडी से उतरे थे सफेद पोशाक मे", "देखो अभी तो बाबा ने पंचशील दिये थे" "22 प्रतिज्ञाओ की गूंज अभी आसमान मे ही तो गूंज रही थी" वो शांत होने से पहले बाबा शांत नही हो सकते।

भारत के इतिहास ने नयी करवट ली थी जन सैलाब मुम्बई की सड़को पर बह रहा था।
भारतीय संस्क्रुति मे तुच्छ कहलाने वाली नारी जिसे हिन्दु कोड बिल का सहारा बाबा ने देना चाहा और फिर संविधान मे उसके हक आरक्षित किये ऐसी माँ बहने लाखो की तादाद मे श्मशान भूमी पर थी। यह भारतीय सड़ी गली धर्म परम्पराओ पर ऐक जोरदार तमाचा था क्योंकि जिन महिलाओ को श्मशान जाने का अधिकार भी नही था ऐसी "3 लाख" महिलाएँ बाबा के अंतिम दर्शन को पहोंची थी जो अपने आप मे ऐक विक्रम था।

भारत का यह युगंधर, संविधान निर्माता, प्रज्ञातेज, प्रज्ञासूर्य, महासूर्य, कल्प पुरुष नव भारत को नव चेतना देकर चला गया, ऐक ऊर्जा स्त्रोत देकर समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुता का पाठ पढाकर।
उस प्रज्ञासूर्य की प्रज्ञा किरणो से रोशन होगा हमारा देश, हमारा समाज और पुरे विश्वास के साथ हम आगे बढ़ेंगे हाथो मे हाथ लिये मानवता के रास्ते पर जहां कभी सूर्यास्त नही होंगा, जहां कभी सूर्यास्त नही होंगा, जहां कभी सूर्यास्त नही होगा।

जय भीम जय भीम और केवल जय भीम 
शत् शत् नमन अर्पित करता हूँ और करता रहुंगा।

गन्ना मूल्य का भुगतान समय पर न होने का अदृश्य अर्थशास्त्र:नन्द लाल वर्मा सोसिएट प्रोफेसर

विमर्श 
नन्द लाल वर्मा सोसिएट प्रोफेसर
    यूपी में किसानों के बकाया गन्ना मूल्य और ब्याज के भुगतान और दिल्ली बॉर्डर पर आन्दोलनरत किसानों की मांगों पर विपक्षी दल क्यों मौन हैं?
सन्निकट विधानसभा चुनाव के बावजूद विपक्षी पार्टियां इन मुद्दों पर अपना राजनैतिक एजेंडा क्यों नही खोल पा रही हैं?
आखिर,कानून और न्यायिक आदेशों का पालन कराने की किसकी जिम्मेदारी....... जब जिम्मेदार अपनी जिम्मेदारी न निभा पाएं तो उनके खिलाफ कार्रवाई कौन करे ?

         लखीमपुर खीरी में बजाज चीनी मिलों पर अभी भी गन्ना भुगतान लगभग ₹800करोड़ बकाया बताया जा रहा है। इस बकाए पर बाज़ार में प्रचलित औसत ब्याज दर पर लगभग ₹8 करोड़ प्रतिमाह ब्याज बनता है। यदि चीनी मिल प्रबंधन को यह राशि बैंक से उधार लेकर भुगतान करना पड़े तो उसे ₹8 करोड़ प्रतिमाह का नुकसान होगा। जब शुरुआती समय में इन्ही चीनी मिलों पर ₹10000(दस हजार करोड़ रुपये) बकाया होता है तो उन्हें ब्याज के कितने करोड़ रुपयों का फ़ायदा होता होगा? मिलों को मोटा फायदा और किसानों को भारी नुकसान। किसान जो गन्ना पैदा करने में बैंक से ऋण लेता है, उस पर उसे ब्याज का अलग भुगतान करना पड़ता है।
          ब्याज की इस अदृश्य अर्थव्यवस्था में स्थानीय/प्रांतीय दलों के नेता और नौकरशाही की हिस्सेदारी से इनकार नही किया जा सकता है, क्योंकि राज्य में 14दिनों के भीतर भुगतान का स्पष्ट कानून और देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले के बावजूद किसानों का ब्याज सहित गन्ना बकाया तो दूर मूलधन तक भुगतान कराने में स्थानीय जिला प्रशासन और सरकार असहाय नज़र आ रही है! चुनावों में स्थानीय राजनीतिक दलों के लोग इन्ही चीनी मिलों के स्थानीय प्रमुखों से अच्छी खासी रकम चंदा के नाम पर वसूलते हैं और चुनाव के नज़दीक आने और हार के डर से सोशल मीडिया पर घड़ियाली आंसू बहाते दिखाई पड़ रहे हैं। विगत कई सरकारों के कार्यकाल में गन्ना मूल्य और ब्याज भुगतान की कमोबेश यही दुर्गति रही है और आगे भी रहने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है अर्थात गन्ना मूल्य और उस पर ब्याज भुगतान के मामले में विगत सरकारों का भी दामन पाक-साफ नही रहा है। नेताओं को केवल चुनावी बेला पर ही किसानों के दुख-दर्द याद आते हैं? चीनी मिल प्रबंधन,राजनीतिक दलों, स्थानीय नेताओं और स्थानीय जिला प्रशासन की मिलीभगत के पीछे यही ब्याज की एक बड़ी अदृश्य अर्थव्यवस्था काम करती है। यह कैसे संभव हो सकता है कि स्पष्ट कानून और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरकार और जिला प्रशासन भुगतान कराने में घुटने टेकती नज़र आये? यदि चीनी मिल प्रबंधन के पर्याप्त पैसा नही है तो किसानों की आर्थिक संकट को दृष्टिगत राज्य सरकार गन्ना मिलों को पैसा उधार दें जिससे किसानों के बकाये का भुगतान हो सके।सरकार जो पैसा उधार देगी वह भी जनता से लिये गए टैक्स का ही पैसा होगा।
           जिस दर से  बाजार में गन्ना के मुख्य उत्पाद- चीनी और उसके उपउत्पादों की कीमतें बढ़ती हैं, उसी अनुपात में हर वर्ष किसानों के गन्ने का मूल्य भी बढ़ना चाहिए। सरकारों द्वारा अपने अंतिम वर्ष के चुनावी मौसम में ही गन्ना मूल्य बढ़ाने की मजबूरी दिखाई देती है। किसानों की गन्ना उत्पादन की बढ़ती लागत दर को ध्यान में रखते हुए हर वर्ष गन्ना मूल्य बढ़ाना चाहिए। राजनीतिक दलों को पूँजीपतियों से मोटी रकम चुनावी चंदा के रूप मिलती है और किसानों से चुनावी वर्ष में वोट की राजनीति के डर से आख़िरी साल में नाममात्र की बढ़ोतरी कर किसानों के आक्रोश को शांत करने का उपक्रम किया जाता है।किसान संगठनों को चीनी मूल्य की बढ़ोतरी पर ध्यान केंद्रित कर उसी अनुपात में गन्ना मूल्य बढ़ोतरी की एक मजबूत पालिसी के लिए सरकारों पर अनवरत दबाव की राजनीति करने की संस्कृति पैदा करना चाहिए। किसानों को इस देश की राजव्यवस्था से एक बार अपने वाज़िब हक के लिए जीवन-मरण/आर पार की लड़ाई लड़नी ही होगी तभी सरकारों के कान पर जूं रेंगेगी। तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में हुए लंबे आंदोलन और उसकी ताकत के सामने झुकती निरंकुश सरकारों से सीख या प्रेरणा लेने की जरूरत है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सैकड़ों वर्षों से हो रहे किसानों के शोषण पर अब लोकतांत्रिक तरीके से किये गए आंदोलनों से ही कुछ राहत की उम्मीदें जगी हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था की मुख्य धुरी किसान ही है, वह जैसा चाहे  वैसे ही लोकतांत्रिक सरकारों की चाल और चरित्र तय हो सकता है।किसानों का जीवन अनगिनत प्राकृतिक अनिश्चितताओं और दुश्वारियों से भरा होता है, इसीलिए कोई किसान अपनी आने वाली पीढ़ी को किसान के रूप में नही देखना चाहता है। जय जवान-जय किसान के साथ आन्दोलनरत किसानों की सफलता के लिए हमारा नैतिक समर्थन और हार्दिक संवेदनाएं- शुभकामनाएं।
-लखीमपुर-खीरी।

विनोद दुआ ...सत्ता की आंखों में आंखे डालकर सवाल पूछने वाला पत्रकार-नन्दलाल वर्मा (एशोसिएट प्रोफेसर)

विनम्र श्रद्धांजलि!
!एक युग का अंत....
नन्दलाल वर्मा 
         प्रख्यात टीवी एंकर विनोद दुआ का जाना टीवी पत्रकारिता के एक युग का अंत कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। टीवी पर हिंदी पत्रकारिता के ध्रुवतारा थे, वह! दरअसल, विनोद दुआ  का अपना एक विशिष्ट अंदाज़ था। प्रणय रॉय के साथ उनकी पत्रकारिता का जादू सिर चढ़कर बोला और उनके चुनावी जीवंत विश्लेषण ने उनको शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचाने का काम किया। अपनी बेबाक,दुस्साहसी और बेलागपन पत्रकारिता के लिए वह हमेशा याद किये जाते रहेंगे। मंत्रियों के साथ अपने कार्यक्रमों में जिस अंदाज में वह सवाल या टिप्पणियां करते थे, तब उनकी कल्पना करना तक संभव नही था और आज की पत्रकारिता में तो वे असंभव सी हो चुकी हैं। सरकार नियंत्रित दूरदर्शन पर सरकार या मंत्री के कामकाज का मूल्यांकन कर दस में तीन अंक देने की बात कह देना, उनके बड़े साहस और निर्भीकता का परिचायक है।
       पत्रकारिता जगत में आये उतार- चढ़ाव के बावजूद विनोद दुआ ने अपना विशिष्ट अंदाज़ कभी नही छोड़ा। आज के दौर में जब पत्रकारिता का एक बहुत बड़ा हिस्सा सत्ता- सरकार की चाटुकारिता और विज्ञापन करती नज़र आती है। दुआ जी सत्ता -सरकार से टकराने में कभी पीछे नही हटे। उन्हें कभी भी सत्ता का डर नही रहा। कोरोना काल मे केंद्र सरकार के फैसलों और नीतियों-कामकाजों की आलोचना करते हुए उन्होंने इसे सरकार का निकम्मापन करार देते हुए टिप्पणी की थी जिससे बौखलाई सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार ने उनके ऊपर राजद्रोह का आरोप लगाकर फंसाने की कोशिश की, किंतु उन्होंने  साहस दिखाते हुए अपनी लड़ाई लड़ी और सुप्रीम कोर्ट से जीत हासिल की। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह कहते हुए कि:"सरकार की आलोचना करना राजद्रोह नही है" और सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार के केस में दिये गए अपने ही आदेश: " सरकार की आलोचना के लिए एक नागरिक के खिलाफ राजद्रोह के आरोप नही लगाए जा सकते हैं, क्योंकि यह भाषण और अभिव्यक्ति  की संवैधानिक आज़ादी के अनुरूप नहीं है। राजद्रोह का केस तभी बनेगा जब कोई भी वक्तव्य ऐसा हो जिसमें हिंसा फैलाने की मंशा हो या हिंसा बढ़ाने का तत्व मौजूद हो " का हवाला देते हुए सरकार द्वारा दायर मुकदमें को खारिज़ कर दिया था। विनोद दुआ का यह कदम सम्पूर्ण मीडिया जगत के लिए भी एक बड़ी राहत देता हुआ दिखाई दिया। वह देश-दुनिया की सभी प्रकार की हलचलों के प्रति बहुत सजग रहते थे। समाचारों की बारीक समझ उनके सवालों में नुकीलापन और तेवरों में साफ दिखाई पड़ता था। उन्हें प्रकाशित खबरों की समीक्षा करने में बेमिसाल महारथ हासिल थी।
      बहरहाल, विनोद दुआ का ऐसे समय जाना पत्रकारिता जगत के लिए ही नही, अपितु देश के संविधान और लोकतंत्र के लिए भी एक बड़ी क्षति के रूप में देखी और आंकी जा रही है। उनकी उपस्थिति मात्र ही बहुत से पत्रकारों के लिए प्रेरणा बनी हुई थी। उन युवा पत्रकारों को सत्ता से लड़ने और टकराने की हिम्मत देती थी जो भारत के लोकतंत्र और उसकी साझी संस्कृति- विरासत को बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
      आज की पीढ़ी के कितने लोग विनोद दुआ को जानते हैं और किस रूप में पहचानते हैं? व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के ज्ञान और ट्रॉलिंग के इस दौर में किसी के अपरिमित व्यक्तित्व और योगदान को पल भर में नष्ट-भ्रष्ट कर लांछित और कलंकित करने की प्रवृत्ति  जोरों पर है,लेकिन जब कभी विनोद दुआ के व्यापक व्यक्तित्व का संपूर्णता में मूल्यांकन होगा तो उन्हें एक साहसी पत्रकार योद्धा के रूप में जरूर देखा जाएगा। आने वाली नस्लें तब जान पाएंगी कि विनोद दुआ नाम का भी कोई टीवी एंकर- पत्रकार हुआ था। दुआ जी को मेरा शत-शत नमन!
लखीमपुर -खीरी यू०पी०

Thursday, December 02, 2021

बिहार में बोतल है और बोतल में बिहार है-रवीश कुमार


रविश कुमार (वरिष्ठ पत्रकार)
बिहार एक अदृश्य बोतल के आतंक की गिरफ़्त में है। हर कोई सतर्क है कि कहीं बोतल न दिख जाए। बोतल मिल जाने की आशंका में हर किसी को हर जगह बोतल नज़र आ रहा है। हर कोई एक दूसरे के बग़ल में झांक रहा है कि कहीं उसके पास बोतल तो नहीं है। कोई मिलने आ रहा है तो लोगों की नज़र उसके हाथ और झोले पर है कि कहीं बोतल तो नहीं है। पार्किंग में खड़ी कार देखते ही लोग सहम जा रहे हैं कि डिक्की में बोतल तो नहीं है। स्टेशन से रिश्तेदार अटैची लिए चले आ रहे हैं, लोग डरने लग जा रहे हैं कि कहीं बोतल तो नहीं है। एक ज़माना था जब दिल्ली में बस की सीट के पीछे लिखा था कि आपकी सीट के नीचे बम हो सकता है। बैठने वाला सीट के नीचे झांकने लगता था। बम देखने लगता था। उसी तरह बिहार के लोग बोतल देखने लगे हैं। बोतल का नहीं मिलना अब अच्छा माना जा रहा है। 

विधानसभा के प्रांगण में बोतल मिल गया। इस तरह से हंगामा हुआ, जैसे मंगल ग्रह का एक टुकड़ा आ गिरा हो। सदन के बाहर और भीतर हंगामा मच गया कि बोतल मिल गई है। हालाँकि बोतल कई चीज़ों की होती है लेकिन बिहार में हर बोतल प्रथम दृष्टया शराब की बोतल ही समझी जा रही है। विधानसभा में बोलते मिलते ही तेजस्वी ट्वीट कर देते हैं कि शराबबंदी फेल हो गई है। किसी ने पी ली है। बस बोतल से सरकार को ठेस लग गई।मुख्यमंत्री सबको हड़का रहे हैं कि मामूली बात नहीं है कि यहाँ बोतल मिली है। जाँच होगी।स्पीकर महोदय, इजाज़त दीजिए, जाँच करेंगे कि आपके परिसर में बोतल कैसे मिल गई है। ऐसे पूछने पर तो कोई भी ख़ुद पर ही शक करने लगेगा कि भाई कहीं मेरा ही नाम न आ जाए। सदस्य राम राम जपने लगेंगे कि स्पीकर जी इजाज़त मत दीजिए। बोतल मिल गई है तो मिल गई है। 

बिहार में बोतल मिल रही है लेकिन विधानसभा में बोतल का मिल जाना, सारी कल्पनाओं की पराकाष्ठा है। कवि भी बोतल मिलने पर कविता लिख रहे हैं लेकिन विधानसभा में बोतल मिलेगी उनकी किसी कविता में नहीं आया है। मेरा यह लेख पढ़कर बिहार हंस रहा है। घर-घर चोरी चुपके बोतल पहुँचाने वाले हंस रहे हैं। पीने वाले हंस रहे हैं। बोतल की तरह लुढ़क रहे हैं।लोट-पोट हो रहे हैं। कह रहे हैं कि बिहार में भगवान मिल जाएँ तो मिल जाएँ मगर बोतल नहीं मिलनी चाहिए। 

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी का ग़ुस्सा देखकर मैं भी सीरीयस हो गया हूँ। मैंने भी बोतलों से प्रार्थना की है कि भाई तुम कहीं दिखो लेकिन उनके सामने मत दिखो। कुछ भी है हम लोगों के सीएम हैं, बोतल देखकर ग़ुस्सा जा रहे हैं। मुझे आशंका है कि किसी दिन बीजेपी ने जदयू से गठबंधन तोड़ा तो बोतल लेकर नीतीश जी को चिढ़ाने न आ जाए। ऐसा होगा तो मुझे बुरा लगेगा। भाई आप गठबंधन तोड़िए, आपका हक़ है लेकिन बोतल से नीतीश जी का मज़ाक़ मत उड़ाइये। बीजेपी वालों से अनुरोध है कि राजनीति में गठबंधन तो बनते टूटते हैं लेकिन जब भी ऐसा हो बोतल लेकर कोई प्रदर्शन न करें। 

क्या ऐसा हो सकता है कि बीजेपी के नेता ख़ुद बोतल लेकर न चिढ़ाए, किसी और संगठन को आगे कर नीतीश जी के घर के आगे बोतल फेंकवा दें। मन में तरह-तरह की आशंकाएँ पैदा होती रहती हैं।शुभ-शुभ बोलिए रवीश कुमार। ऐसा मत कहिए। बोतल से कहिए कि बिहार में रहे लेकिन मुख्यमंत्री के आस-पास न रहे। अरे ये क्या कह दिया। बोतल से कहिए कि बिहार में भी न रहे। 
 
ख़्याल तो ख़्याल है।पता चला हमारे सीएम दिल्ली में किसी बारात में आए हुए हैं और लोग बोतल लेकर फ़ोटो खिंचाने आ गए हैं। मैं तो सलाह दूँगा कि नीतीश जी साथ में एक हंटर लेकर भी चलें। दिल्ली की शादी में जो भी बोतल लेकर फ़ोटो खिंचाने आए, मार हंटर, मार हंटर वहीं पर उसका हाथ बेहाल कर दें। दरअसल, राजनीति में बोतल इस तरह उपस्थित है कि उसकी अनुपस्थिति को लेकर आप आश्वस्त नहीं हो सकते हैं। बोतल ही है, कहीं से आ सकती है। किसी के पास से मिल सकती है।

मुझे आशा है कि आप बोतल का मतलब शराब की बोतल ही समझ रहे हैं। वैसे बिहार में बोतल का एक और मतलब होता है। बेवकूफ होता है। बिहार में लोग किसी को बोतल बुला दें तो उसे बुरा लग जाता है। दोस्तों के बीच बोतल समझा जाना बहुत बुरा माना जाता है। उस बिहार में जहां बोतल से इतनी विरक्ति हो, बोतल मिल जाए तो लोग बोतल हो जा रहे हैं। उछल-कूद मचाने लगे हैं। 

बोतल दिखते ही मेरा बिहार बोतल हो जा रहा है। सहम जाता है। आप किसी चलती-फिरती सड़क पर जाइये। बीच सड़क पर बोतल रख दीजिए, देखिए अफ़रा-तफरी मचने लगेगी। लोग कार से कूद कर भाग जाएँगे कि कहीं पुलिस न देख ले कि उनकी कार के सामने बोतल रखी हुई है। इससे शक हो सकता है कि कार वाले ने पीने के बाद बीच सड़क पर बोतल रख दी हो। लोग रात भर जाग रहे हैं कि कोई अहाते में बोतल न फेंक जाए। सुबह होते ही पता चला कि जेल चले गए। शादियों में जो लोग छिप कर बोतल पीते थे, वे अब बोतल देखते ही छिप जा रहे हैं। हर कोई बोतल से छिप रहा है जबकि लोग पहले इस बोतल को बाज़ू में रखकर छिपा लेते थे। 

नशा शराब में होता तो नाचती बोतल। बिहार में उल्टा हो रहा है। बोतल नाच नहीं रही है। बोतल के पीछे बिहार नाच रहा है। शराब का नशा तो सीमा से लगे राज्यों में है। केवल बोतल है जो बिहार में है। जहां बोतल नहीं है वहाँ भी लो
ग बोतल देख रहे हैं। बिहार में बोतल आ गया है और बोतल में बिहार समा गया है। नीतीश जी को बोतलों से बचाना है। हमने तो अब यही ठाना है। 

अंत में, आदरणीय नीतीश जी, प्लीज़। अब आगे कुछ नहीं कहूँगा।

Wednesday, December 01, 2021

जादूगर आया-सुरेश सौरभ

  लघुकथा  

सुरेश सौरभ 

   जादूगर एक शहर में आया , झोला खोला सामान निकाला । बांसुरी बजाई , डमरू बजाया लोगों को इकट्ठा किया । जादू शुरू किया । कभी रसगुल्ला , कभी जलेबी , कभी कूकर , कभी घी , कभी लैपटॉप कभी पुराने नोट , कभी नये नोट कभी खनखनाते सोने-चांदी के सिक्के , जादू से बना-बनाकर सबको चौंकाता । लोग लालच भरी , हैरत भरी नज़रों से देखते हुए हतप्रभ थे । 
       काफी देर बाद खेल खत्म हुआ । तमाशबीनों ने उसे पैसे दिए , किसी ने अनाज दिया तो कई कंगले खाली दुआएं देते हुए अगली बार कुछ देने का वादा करके अपनी राह हो लिए ।  जादूगर ने सारे पैसे बटोरे अनाज आदि सब अपना सामान झोले में भरा और चल पड़ा दूसरे शहर में जादू दिखाने । 
      यह जादूगर हर पांच साल बाद शहर-शहर गाँव-गाँव सबको ठगता फिर रहा है ।


निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश
मो-7376236066

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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