साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, July 20, 2021

आंगन की दीवारों से, 'नन्दी लाल'-रमाकांत चौधरी

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक-आंगन की दीवारों से (ग़ज़ल संग्रह)
कवि-नंदी लाल
मोबाइल:9918879903
प्रकाशक-निष्ठा प्रकाशन गाजियाबाद
मूल्य-220/-
पेज संख्या- 176
समीक्षक-रमाकांत चौधरी
पता- गोला गोकरण नाथ, 
जनपद लखीमपुर खीरी
उ. प्र.। 
मोबाइल : 9415881883


विधा चाहे कहानी हो, व्यंग्य हो, कविता हो, गीत, गजल, छंद, रुबाई अथवा सवैया आदि। उसे  पढ़ते ही यदि पढ़ने की जिज्ञासा निरन्तर बढ़ती  जाए तो फिर उस रचनाकार की तारीफ में स्वयं ही तमाम विचार दिमाग में उपजने लगते हैं। ऐसे ही जनकवि नंदीलाल जी हैं जो कि देश के जाने-माने सुविख्यात कवि हैं जिन्हें गजल ,घनाक्षरी, छंद, सवैया, दोहा, शायरी लिखने में तो महारत हासिल है ही साथ ही साथ लोकगीत, आल्हा, नौटंकी आदि विलुप्त होती विधाओं को भी जीवित रखने का अद्भुत हुनर है। नंदी लाल जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, उनकी तमाम गजलों का चयन विश्व कविता कोश में हो चुका है। उनके तीन गजल संग्रह "जमूरे ऑफिस है", "मैंने कितना दर्द सहा है"तथा "आंगन की दीवारों से" प्रकाशित हो चुके हैं तथा कई गजल संग्रह प्रकाशन के इंतज़ार में हैं। उनका गजल संग्रह "आंगन की दीवारों से" मेरे हाथ में है जिसे मैंने पढ़ा तो यूं लगा गजल लिखना वाकई कोई नंदी लाल जी से सीखें। जनकवि नंदी लाल जी ने समाज में हो रही तमाम विसंगतियों, विद्रूपताओं को इस गजल संग्रह में अपनी गज़लों  माध्यम से उजागर किया है। जहां शुरुआत मां के प्यार से की है.. 
'दुनिया की सब नेमत झूठी लेकिन सच्ची होती मां। 
बेटे की दो सुंदर आंखें होती हीरा मोती मां।।'
वही अपने किस तरह छोड़ कर चले जाते हैं उनके शेर-
' थी बड़ी उम्मीद अपने ही बचा लेंगे मगर, 
छोड़कर हमको हमारे हाल पर जाने लगे।।
पढ़कर बखूबी समझा जा सकता है। 
अपनी ग़ज़ल के शेर -
'लूट हत्या और दुष्कर्मों की खबरें क्या पढ़े, 
रख दिया है आज का अखबार हमने मोड़कर।।
वर्तमान समय में मरी हुई इंसानियत को स्पष्ट रूप से लिख दिया है। समाज में जिस तरह से प्रत्येक कार्य को कराने के लिए दलालों की जरूरत होती है इस शेर में करारा प्रहार है यथा  -
 'सिर्फ दस्तखत बना दिया करता, 
काम सारे दलाल करता है।'
वहीं  'बीस भूखों को इकट्ठा देखकर, एक रोटी तोड़ कर डाली गई।'
 आगे देखिए..
 'बंद कमरे में सभा सरकार की होती रही, 
भूख से व्याकुल अभागिन द्वार पर रोती रही।।
 सरकारी तंत्र की अव्यवस्था की सच्चाई को उजागर करते हुए उनके बेहतरीन शेर हैं । इश्क़ पर भी उनकी लेखनी जोरदार तरीके से चली है उनका यथा..
 'आज कोई मचल गया जैसे। 
तीर आंखों से चल गया जैसे।'
आगे लिखतें है..
'समूचा फूल तो मिलना बड़ा मुश्किल है यादों का, 
अभी कुछ पाँखुरी किताबों में रखी होंगी।,
युवा दिलों की धड़कन बढ़ा देते हैं । 
तथा राजनीति में कैसे कैसे लोग शामिल हो रहे हैं  एक बानगी देखिए..
चार छ: लोगों के संग मोटर पर भोपू बांधकर, 
आ गए हैं बस्तियां वीरान करने के लिए।
आज वह सबके चहेते रहनुमा बनने चले, 
ले गई थी कल पुलिस चालान करने के लिए।।'
उनके इस शेर से स्पष्ट समझा जा सकता है। 
जब व्यक्ति भूख से परेशान होता है तो क्या-क्या नहीं करता यथा..
 'खेल करतब, लूट, हत्या, और हंगामा हुआ। 
एक रोटी के लिए क्या-क्या नहीं ड्रामा हुआ।।'
से सब कुछ साफ स्पष्ट हो जाता है। 
अपने देश की एकता अखंडता भाईचारा और प्यार कहां चला गया-
' राम और रहमान साथ में हंसते खेला करते थे, 
छीन ले गया कौन संस्कृत फिर अपने चौबारे से।'
इस शेर में बहुत ही खूबसूरत तरीके से प्रश्न उठाया गया है। उनकी कई गजलों में हास्य का पुट भी देखने को मिला यथा.. 
'मिलाता  किस तरह नजरें नजर से वहां भला मेरी, 
हटा चश्मा तो देखा आँख का तक्खा लगा जानू।
पेज नंबर 111 पर लिखा शेर-  'खता मुझसे अगर कोई हुई तो माफ कर देना/ तुम्हारी जिंदगी में अब न कोई दखल देंगे। 
  उक्त शेर प्यार में माफी  मांगने का सबक सिखाता है। संग्रह की गजल नं• 104 का शेर समय का महत्व बताता है -
'समय का मूल्य  जिसने आज तक समझा नहीं  कोई, 
समय के बीत जाने पर वही भी हाथ मिलते हैं।'
पेज नंबर 163 की ग़ज़ल 'फिजाओं में' का शेर -
'तुम्हारा जब कहे मन तब हमारे घर चले आना/ खुले हर पल रहेंगे यह किवाड़े द्वार के अपने' वाकई में आज के मतलबी दौर में।   
....जो अपनेपन का एहसास कराता है। कुल मिलाकर पूरा का पूरा गजल संग्रह में जहां वर्तमान अव्यवस्थाओं पर कवि की मार्मिक संवेदनाएं हैं वहीं भूत और भविष्य की गहरी मौलिक चिंतन और चेतना को स्वयं में समेटे हुए है, मेरा विश्वास है, जो भी पाठक इसे पढ़ना शुरू करेगा, तो वह शुरू से लेकर अंत तक बस पढ़ता ही चला जायेगा, निश्चित रूप से यह संग्रह वंदनीय सराहनीय और संग्रहणीय है। 
इति


Wednesday, July 14, 2021

‘आमिर-किरण’ बनाम ‘शिवसेना-भाजपा’ की पारिवारिकता-अजय बोकिल

अजय बोकिल 
लगता है मशहूर फिल्म अभिनेता, निर्माता आमिर खान और उनकी दूसरी पत्नी किरण राव का तलाक देश में राजनीतिक जुमला भी बनता जा रहा है। हाल में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता देवेन्द्र फडणवीस ने एक सवाल के जवाब में कहा कि शिवसेना और भाजपा के बीच मतभेद हैं, दुश्मनी नहीं है। हम कभी दुश्मन नहीं रहे। इस पर शिवसेना सांसद संजय राऊत ने कटाक्ष किया कि हमारे और भाजपा के रिश्ते आमिर खान और किरण राव की तरह हैं। यानी अलग होकर भी साथ-साथ हैं और साथ होकर भी अलग-अलग हैं। या यूं कहें कि फिजीकली भले अलग हों, लेकिन प्रोफेशनली एक ही हैं। ध्यान रहे कि आमिर-किरण ने 15 साल के दाम्पत्य जीवन और एक बेटे के मां- बाप होने के बाद किन्हीं (अपरिहार्य) कारणों से तलाक ले लिया। तलाक लेते समय जो स्टेटमेंट जारी किया गया, उसमें यह जताने की पूरी कोशिश की गई कि कानूनन वो पति पत्नी के रिश्ते से भले मुक्त हो रहे हैं, लेकिन बतौर एक परिवार वो साथ में हैं और रहेंगे। इस मायने में आमिर खान को ‘तलाक गुरू’ कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि वो सहजता से 15-15 साल में शादी रचाते हैं, फिर तलाक भी ले लेते हैं (अब उनके तीसरे अफेयर की चर्चा भी सोशल मीडिया में है)। उसके बाद भी मुस्कुराते रहते हैं, जैसे कहीं कुछ न हुआ ही हो। दरअसल यह अभिनय और वास्तविक जिंदगी का ऐसा ‘एक्सचेंज ऑफर’ है, वैसा करना किसी आम और ढर्रे की जिंदगी जीने वाले इंसान के लिए बहुत मुश्किल होता है।   
यूं किसी का ‍किसी से इश्क लड़ाना, शादी करना फिर तलाक ले लेना, मीडिया में उसकी हवा बनने देना, बनने पर उस पर ऐतराज जताना और उसके बाद यह गुहार लगाना कि उनकी ‘प्रायवेसी की रक्षा’ की जाए, ऐसा जबरिया और याचित परोपकार है, जिसका कोई औचित्य गले उतरना मुश्किल है। यानी जब सब कुछ निजी और गोपनीय है तो उसे सार्वजनिक क्यों होने दिया जाता है और जो सब को पता है, वह निजी कैसे हुआ? 
यह भी समझना मुश्किल है कि जो फिल्मी हस्तियां तमाम दूसरे मुद्दों पर समाज को नसीहते देती रहती हैं, वो ‍निजी जिंदगी में पत्नियां बदल कर, तलाक देकर समाज के सामने कौन-सा आदर्श पेश करती हैं? क्या निजी और सार्वजनिक जीवन में इतना फासला होना जायज है? इस मामले में नेता और अभिनेताओं में काफी समानता है। मसलन महिलाओ-बेटियों के बारे में दुनिया को भाषण देने वाले अपनी बहन-बेटियों या पत्नियों को लेकर उतने ही सह््रदय या एकनिष्ठ हों, जरूरी नहीं है। कह सकते हैं ‍कि पारिवारिक जीवन में पति-पत्नी के बीच हमेशा प्यार-मोहब्बत का रिश्ता कायम रहे, आवश्यक नहीं है। और आजकल तो युवा जोड़ो में जितनी जल्दी ईगो क्लैश और तकरार शुरू हो जाती है कि उतनी जल्दी तो शादी की मेंहदी भी शायद ही छूटती हो। आमिर जैसे संवेदनशील लोग फिर भी इस रिश्ते को 15 साल खींच लेते हैं तो यह बड़ी बात है। अमूमन ऐसी शादियों और तलाक के समय जारी किए जाने वाले स्टेटमेंट भी बड़े भावुक और नाटकीय लगते हैं। अगर आप बारीकी से उन्हें पढ़ें तो लगेगा कि जो बात उस स्टेटमेंट में कही गई है और ‘निजता की रक्षा ‘की जो दुहाई उसमें दी गई है, उसे दोनो साथ बैठकर घर में ही सुलझा लेते तो ऐसा पब्लिक स्टेटमेंट जारी करने की नौबत ही न आए। हकीकत में यही वो समझदारी और अंडरस्टैंडिंग है, जो ज्यादातर पति-पत्नियों में बरसों साथ रहने, एक दूसरे की जरूरत बनने और हर अग्नि परीक्षा में साथ निभाने की आंतरिक चेतना के कारण बन जाती है। तलाक होने का अर्थ ही है कि वो दोनो ऐसी अग्नि परीक्षा से प्रॉक्सी मार रहे हैं या फिर दोनो में परस्पर निर्भरता का गोंद कभी तैयार ही नहीं हुआ। 
 अब आप कह सकते हैं कि ‘दिल तो है दिल, दिल का ऐतबार क्या कीजे?’ न जाने उम्र के ‍किस मोड़ पर दिल ‍किस पर आ जाए, कहना मुश्किल है और उसके बाद संभलना तो और मुश्किल है। देश के जाने-माने वकील हरीश साल्वे ने अपनी पहली पत्नी के साथ 38 साल गुजारने के बाद पिछले साल तलाक लेकर एक ब्रिटिश ‍महिला से शादी कर ली। यही नहीं, उन्होंने ईसाई धर्म भी अपना लिया और देश ब्रिटेन में आशियाना बना लिया।
आमिर-किरण के स्टेटमेंट में जो सबसे दिलचस्प बात है वो ये कि पति-पत्नी के रूप में अलग होने के बाद भी वो एक परिवार के रूप में रहेंगे। लगभग यही बात पिछले यानी पहली पत्नी रीना दत्ता के साथ हुए तलाक के वक्त भी हुई थी। अर्थात यहां परिवार की बड़ी वृहद व्याख्या है। यानी एक तलाकशुदा पति, तलाकशुदा पत्नियों और उनके बच्चों के साथ एक ही छत के नीचे नंदनवन की तरह रहेंगे। असल में यह हालात से समझौता ज्यादा है, जज्बाती अपनापन नहीं। इसके पीछे धन दौलत में हिस्सेदारी-दावेदारी भी बड़ा कारण हो सकता है। वैसे फिल्म उद्योग में इस तरह तलाकशुदा बहुपत्नी प्रथा नई बात नहीं है। ‍बॉलीवुड के ‘चित्रपति’ कहे जाने वाले जाने-माने फिल्मकार वी.शांताराम ने अपनी 90 साल की जिंदगी में तीन शादियां की थीं, जिनमें से तलाक सिर्फ एक को दिया। तीसरी शादी तो उन्होंने 56 साल की उम्र में देश में ‘हिंदू कोड बिल’ लागू होने के बाद की थी। कहते हैं कि हिंदुओं में एक पत्नी कानून का उल्लंघन करने वाली वह पहली शादी थी। यह शादी उन्होंने अभिनेत्री- नर्तकी संध्या (विजया देशमुख) से की थी। यह भी कहा जाता है कि शांताराम की तीनो ( तलाकशुदा समेत) पत्नियां और उनके बाल-बच्चे एक ही छत के नीचे रहते थे। उनकी पहली पत्नी विमला बाई सचमुच ‘देवी’ रही होंगी, जिन्होने पति की दूसरी शादियों का विरोध नहीं किया बल्कि अपनी सौतनों से भी यथा संभव एडजस्ट किया। शांताराम की दूसरी पत्नी जयश्री कामुलकर थीं। लेकिन वो इतनी उदार नहीं थीं। पति की तीसरी शादी के पहले ही उन्होंने तलाक ले लिया था। 
इसे राजनीतिक सदंर्भ में देखें तो भाजपा- शिवसेना के बीच यह सियासी शादी प्यार और तकरार के साथ 30 साल तक चली। इस आपसी समझदारी का सूत्र ‘हिंदुत्व’ था। हालांकि उसमें ‍भी किसका हिंदुत्व ज्यादा असली या ज्यादा राजनीतिक है, यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है। 2019 में विधानसभा चुनाव साथ लड़ने के बाद भी मुख्यमंत्री पद को लेकर दोनो पार्टियों में ठनी और दोनो में ऐसा ‘पारिवारिक तलाक’ हुआ कि सत्ता के लिए शिवसेना हिंदुत्व विरोधी पार्टियों की सेज पर जा बैठी। जबकि भाजपा के हाथ में विरोधी दल के रूप में केवल हिंदुत्व का पोस्टर रह गया। 
अब फिर दोनो इशारों-इशारो में पचास के दशक के फिल्मी हीरो-हिरोइनो के प्रतीकात्मक प्यार की तरह चोचें लड़ाने की कोशिश करते दिख रहे हैं। भीतर क्या खिचड़ी पक रही है, पक भी रही है या नहीं, साफ नहीं है। या यह भी तलाक के बाद नई राजनीतिक शादी रचाने का नाटक है? अब सवाल यह कि ‘राजनीतिक शादी’ या ‘राजनीतिक तलाक’ के मामले में आमिर-किरण के रिश्ते का हवाला क्यों? दोनो का आपस में क्या रिश्ता हो सकता है? क्या इसलिए कि दोनो तन से अलग होने के बाद भी मन से एक रहने का दावा कर रहे हैं? इन सवालों का जवाब यह है कि हर शादी एक तलाक और हर तलाक एक नई शादी की संभावना लिए होता है। यानी आमिर जितनी शिद्दत और इन्वाल्वमेंट के साथ फिल्मे बनाते हैं, उसी शिद्दत से इश्क, शादी और तलाक भी ले डालते हैं। वरना इस बेहरम दुनिया में बहुत से पति तो तलाक लेने की हिम्मत जुटाते-जुटाते दुनिया ही छोड़ जाते हैं। उनकी पत्नियों का सुहाग भी तभी मिट पाता है। आमिर तो तलाकनामा हाथ में लेकर अपनी तलाकशुदा पत्नी के साथ शूटिंग कर रहे हैं। एक ही जिंदगी में कई शादियों और तलाकों का लुत्फ हर किसी के नसीब में नहीं होता। इसके लिए हिम्मत और हिकमत चाहिए। 
पति-पत्नी के तलाक और सियासी दलों के तलाक में एक बुनियादी फर्क है। वो ये कि यहां शादी किसी भी मुद्दे पर तलाक में और तलाक किसी भी राजनीतिक स्वार्थ की ‍बिना पर शादी में बदल सकता है। इसके लिए किसी कोर्ट की मंजूरी नहीं लेनी पड़ती। इसमें कोई भी दल अपनी ‘प्रायवेसी की रक्षा’ की गुहार नहीं करता। तलाकशुदा रहते हुए दोनो एक दूसरे के कपड़े उतारने से गुरेज नहीं करते और ‘शादी’ होते ही परस्पर स्वस्ति वाचन में देर नहीं करते। दुश्मनी के वायरस को जिंदा रखते हुए दोस्ती का दंभ ही विस्तारित पारिवारिक रिश्ता है। ऐसी ‘निजता की रक्षा’ की अपील भी क्या अपने आप में मजाक नहीं है?  
लेखक वरिष्ठ संपादक सुबह सवेरे दैनिक मध्य प्रदेश 

ऊपर का खेल-सुरेश सौरभ

लघुकथा
सुरेश सौरभ


- हुंह ...अब क्या करोगे?
-आराम।
-सरे राह जब एक अबला लुट रही थी,तब तुम वहां खामोश मुंह लटकाए क्यों खड़े थे, तुम्हें उसे बचाना था?
-खामोश रहना ही हमारी ड्यूटी थी वहां।
-पुलिस होकर भी?
-हां ।
फिर निलंबित काहे हुए?
-ये राजनीति है, तू न समझेगी भाग्यवान।
-फिर अब?
-छःमाह आराम से मौज काट, मनचाहे मलाईदार थाने में अपनी तैनाती कराऊंगा?
-ओह! मैं तो तुम्हारे निलंबन से खामखा परेशान हो गई थी?
-जब तक ऊपर वालों का सिर पर हाथ है, नीचे वाले मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं?

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी

योगी को विधान सभा चुनाव में बुरे परिणाम का भय, हर हथकंडा अपनाने को आतुर दिखती बीजेपी-आरएसएस-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


एन०एल०वर्मा
         जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में सत्ताधारी बीजेपी पार्टी के स्थानीय नेताओं और जिला प्रशासन द्वारा मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी के जिला पंचायत सदस्यों और क्षेत्र पंचायत सदस्यों के साथ घोर अराजकता, गुंडागर्दी, मारपीट,बवाल,बम-बंदूक,अपहरण,महिलाओं के साथ अश्लीलता,कानूनी जुल्म और अमर्यादित जैसे आचरण से लोकतंत्र पूरी तरह से शर्मसार होता दिखाई दिया। विपक्षी पार्टी के वे सभी सम्मानित सदस्यगण हृदय से बधाई के पात्र हैं जो जिस राजनैतिक दल की सामाजिक विचारधारा के आधार पर जनता का सहयोग और समर्थन मांगकर चुनाव लड़े और जीते और फिर जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में सत्ता के जोर-जुल्म के बावजूद उस दल की विचारधारा- निष्ठा और उसके अधिकृत चुनाव प्रत्याशियो के प्रति अंतिम समय तक खड़े-डटे रहे और अपनी राजनैतिक दलीय विश्वसनीयता और प्रतिबद्धता को प्रमाणित करने का काम किया है। कुछ सदस्यों ने दोनों नावों पर पैर रखकर राजनैतिक वैतरणी पार की है, लेकिन ऐसे लोगों की कलई देर-सबेर खुल ही जाती है। पंचायत चुनावी हार की समीक्षा कर, शीर्ष नेतृत्व को ऐसे दोहरे चरित्र और अवसरवादी-अविश्वसनीय सदस्यों की पहचान कर भविष्य में इनका पूरा ध्यान रखना चाहिए।

          जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी का दबाव हमेशा काम करता रहा है।किंतु इस बार चुनावों में पारदर्शिता और निष्पक्षता की लोकतांत्रिक और पार्टी विद डिफरेंस की दुहाई देने वाली कैडर आधारित सांस्कृतिक बीजेपी ने तो अलोकतांत्रिक आचरण के सभी रिकॉर्ड तोड़ती नज़र आई। जिला पंचायत सदस्यों और क्षेत्र पंचायत सदस्यों के और बंगाल विधानसभा चुनाव में जनता की नाराज़गी से बुरी तरह मात खाई बीजेपी के लिए जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनावों को येनकेन-प्रकारेण जीतना राजनैतिक जीवन-मरण का विषय बन गया था। जनता से मिली हार से बीजेपी बुरी तरह बौखलाहट और राजनैतिक संकट के दौर से गुजरने के विवश होती दिखाई दे रही थी। इसलिए जिला प्रशासन और स्थानीय सत्तारूढ़ भाजपा नेताओं द्वारा सदस्यों के बहुमत के समुचित प्रबंधन के आश्वासन के बाद ही शासन द्वारा चुनाव घोषणा की योजना बनाई गई। जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनावों को जीतकर बीजेपी जनता में यह संदेश पहुंचाने का भरपूर प्रयास करेगी कि अब जनता के बीच बीजेपी पहले से ज्यादा लोकप्रिय और विश्वसनीय बनती जा रही है। यदि सत्तारूढ़ दल इसी तरह आचरण करते रहे तो देश मे लोकतंत्र खत्म हो जाएगा। मुझे यह कहने में कोई संकोच्च नही है कि आज के दौर में सत्ता पर अतिक्रमण करने के चक्कर मे राजनैतिक दलों और उनके नेताओं ने लोकतंत्र की हत्या कर दी है और वह मृत अवस्था में भौतिक रूप से केवल दिखाई पड़ता है। कोविड महामारी नियंत्रण, शिक्षा, स्वास्थ्य ,रोजगार, पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस की मंहगाई,अर्थव्यवस्था की जीडीपी और कानून व्यवस्था पर केन्द्र व राज्य सरकार पूरी तरह विफल होती दिखाई पड़ चुकी है।किसानों की फसलों को एमएसपी पर बिकवाने और उसका समयान्तर्गत भुगतान कराने में सरकार पूरी तरह विफल सिद्ध हुई है। आज अधिकांश संवैधानिक संस्थाएं सरकार के पिंजरे में कैद होती असहाय नज़र आ रही हैं। देश के ओबीसी और एससी-एसटी के संवैधानिक आरक्षण को अप्रत्यक्ष रूप से खत्म करने की अनवरत साजिशें जारी हैं। लेकिन ये वर्ग छोटे-छोटे तात्कालिक चुनावी प्रलोभनों में फंसकर अपनी आने वाली पीढ़ी के साथ होने वाले अहित-अनिष्ट को समझ नही पा रहा है। आरएसएस संचालित बीजेपी सरकार की रीतियों- नीतियों से देश की अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक संस्थानों, ओबीसी-एससी-एसटी और अल्पसंख्यक वर्ग की पीढ़ियों का भविष्य घोर अंधकार की ओर जाता नज़र आ रहा है।
          जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी और प्रशासन ने जिस चरित्र का परिचय दिया है उससे आगामी विधानसभा चुनावों की निष्पक्षता और स्वतंत्रता के प्रति आशंकित और भयभीत होना स्वाभाविक है और पंचायत अध्यक्ष/ब्लॉक प्रमुख पदों पर कब्ज़ा कर जिसे लोकतंत्र में चुनाव जीतना कहा जाता है।केवल चुनाव जीतकर सरकार बनाना या सत्ता पर कब्जा करना ही लोकतंत्र नही है बल्कि,संवैधानिक व्यवथाओं,मूल्यों और मर्यादाओं का मान रखते हुए चुनाव में जनता का सहज,निष्पक्ष और भयमुक्त समर्थन प्राप्त कर जीत हासिल करना असली लोकतंत्र की पहचान होती है। सरकार शायद आम जनता को यह संदेश भी देना चाहती है कि सरकार जो चाहे, वह कर सकती है। विधानसभा चुनावों से ठीक पहले आनन-फानन जनसंख्या नियंत्रण कानून ,धर्मांतरण कानून,हिन्दू-मुसलमान, राष्ट्रवाद-देश भक्ति,भारत-पाकिस्तान और साम्प्रदायिक आतंकवादियों के मुद्दे छोड़ना किस ओर संकेत कर रहे हैं? देश का किसान सात महीनों से सर्दी-धूप-बरसात में बैठा तीनों कृषि कांनूनों की वापसी और अपनी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिए सरकार की ओर टकटकी लगाए बैठा है और देश के बेरोजगार सड़कों पर आंदोलनरत है। यूपी में गन्ना मूल्य के भुगतान के लिए  किसान गन्ना मिलों और गन्ना समितियों पर धरना-प्रदर्शन कर रहा है। डीए/डीआर (मंहगाई भत्ता/मंहगाई) की किस्तें फ्रीज़ होने से सरकारी कर्मचारियों/पेंशनर्स को लाखों रुपयों का नुकसान हो चुका है।सरकारी कर्मचारियों में ओपीएस बनाम एनपीएस की लम्बे समय से जद्दोजहद चल रही है। किन्तु सरकार के पास इन मुद्दों और लोगों पर ध्यान देने की फुर्सत नही है। सरकार आगामी विधानसभा चुनावी समीकरण दुरुस्त करने के चक्कर में मंत्रिमंडल के दलीय,जातीय और क्षेत्रीय आधार पर विस्तार करने में जुटी है और देश की मुख्यधारा का बिका हुआ मीडिया उसके कुशल प्रबंधन और विज्ञापन में पूरी मुस्तैदी से लगा हुआ है और करोड़ों-करोड़ के बजट हड़पने में जुटा हुआ है।

            जिला पंचायत सदस्यों और क्षेत्र पंचायत सदस्यों के चुनाव में जनता बीजेपी के प्रत्याशियों को समर्थन और सहयोग न देकर सरकार की नीतियों और रीतियों के प्रति अपना आक्रोश और असहमति व्यक्त कर यह साबित करने का स्पष्ट संकेत दे गयी है कि आगामी विधानसभा चुनाव में वह उस जोश-उमंग-विश्वास के साथ बीजेपी के साथ खड़ी नज़र नही आएगी जैसा 2017 में आई थी। बीजेपी सरकार भी इस बात को अच्छी तरह समझ चुकी है। इसलिए अब वह  वे सभी सामाजिक,धार्मिक और राजनैतिक हथकंडे अपनाएगी जो आगामी विधानसभा चुनाव में उसकी जीत के लिए मुफीद साबित होगी।

🙏 .... लखीमपुर-खीरी (यूपी).....9415461224......8858656000


Tuesday, July 13, 2021

आन्दोलन में केवल किसान ही क्यों?-अखिलेश कुमार अरुण


उन किसानों का जमाना गया जिन्हें अस्सी-नब्बे के दशकों वाली फिल्मों में दर्शाया जाता था। मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास में कभी हरिया तो कभी हल्कू बनकर आता था। मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में चरित्र अभिनेता के किरदार में एक दरिद्र होता था। अब किसान खुद का जमीदार है सब कुछ बदल देने की क्षमता रखता है।
देश के किसानों को दिल्ली के तरफ कूच किए हुए लगभग एक महीनें का समय बीत गया है कितने किसान अभी तक इस आन्दोलन के भेंट चढ़ गए हैं और न जाने अभी और कितने मरेंगे। किसान और सरकार दोनों का अभी आमना-सामना नहीं हुआ है। किसानों के लिए दिल्ली अभी दूर है क्योंकि प्रषासन का दुरपयोग भरपूर है। रह-रहकर पुलिस और किसानों की आपसी झड़पें सामने आ रही हैं। आधुनिक तकनिकी के युग में सरकार चिट्ठी-चर्चा कर रही है। यहां आपका डिजिटल इण्डिया फेल हो रहा है, किसानों की समस्याओं को डिजिटल इण्डिया के माध्यम से भी सल्टाया जा सकता है किन्तु सरकार अपने मनमाने रेवैये से किसानों को बरगलाकर केवल और केवल अडानी-अम्बानी ग्रुप को लाभ पहुँचाने के लिए काम कर रही  है। वर्तमान सरकार को ध्यान में रखना चाहिए कि जो किसान आज घर-बार छोड़कर रोड पर आ खड़े हुए हैं। वही किसान आपको गद्दी पर बिठाएं हैं इसलिए नहीं कि आप उनके साथ मनमानी करें और उनके ऊपर अंग्रेजियत कानून को थोपने का काम करें।किसान आंदोलन से कांग्रेस को फायदा होगा, लेकिन मोदी सरकार को नुकसान नहीं -  Farmer Protest may benefit Congress but will not affect Indian Politics and  Modi BJP govt

26 नवंबर से दिल्ली के बॉर्डर पर जुटे किसान नये कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े हुए हैं। इस बीच सरकार के साथ बातचीत को लेकर किसान संगठनों की मीटिंग हो रही है किन्तु नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात। जिम्मेदार अपना पल्ला छुड़ाने के लिए किसानो पर तोहमत मढ़ रहे हैं की यह भाड़े के किसान हैं, इन्हें आतंकवादी संघठन फंडिंग कर रहे हैं, तो कोई यहाँ तक कह रहा है कि यह किसान कम किसानों के भेष में रहीस ज्यादा लग रहे हैं। अब बताईये किसान को लक-दक कपड़े पहनने का भी अधिकार नहीं वह बीते जमाने के किसानों की तरह फटे-पुराने अंगवस्त्रों में साहबों के सामने गिड़गिड़ाता फिरे, जमींदारों के रहमों करमों पर पले। उन किसानों का जमाना गया जिन्हें अस्सी-नब्बे के दशकों वाली फिल्मों में दर्शाया जाता था। मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास में कभी हरिया तो कभी हल्कू बनकर आता था। मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में चरित्र अभिनेता के किरदार में एक दरिद्र होता था। अब किसान खुद का जमीदार है सब कुछ बदल देने की क्षमता रखता है। अडानी और अम्बानी सरकार बना सकते हैं तो किसान गिरवा भी सकते हैं।

भारत देष की जनता उस चूहे की बोध कथा की जैसी है जिसमें एक कसाई के घर में चूहा बिल बना कर रहता है चूहे को पकड़ने के लिए कसाई एक दिन चूहेदानी लेकर आता है। इस आने वाले खतरे को भांप कर चूहा वहां पर निवास करने वाले मूर्गे, कबूतर और बकरे को बताता है किन्तु वे इसे अन्यथा में लेते हैं और चूहे की खिल्ली उड़ाते हैं। चूहेदानी में उसी रात चूहे की जगह सांप फंस जाता है रात के अन्धेरे में कसाई की पत्नी चूहेदानी के पास जाती है जिसको चूहेदानी में फंसा, साँप डंस लेता है, वैद्य के उपचारोपरान्त उसे कबूतर का सूप पीने की सलाह दी जाती है। पत्नी के ठीक हाने पर नाते-रिस्तेदारों में बकरे और मुर्गे की दावत दी जाती है। बात छोटी है किन्तु संदेष बहुत बड़ा है एक-एक करके कई सरकारी संसथाएं नीजी कर दी गई तब कोई नहीं उनके सपोर्ट में आया, अब किसानों की बारी है उनके साथ भी वही सलूक बदस्तूर जारी है।
अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम-हजरतपुर, जिला-खीरी, उप्र
8127698147

Monday, July 12, 2021

दलित पत्रकारिता का नायाब नगीना थे महीपाल सिंह-डी०के०भास्कर

महीपाल सिंह
 (सम्पादक-दलित टुडे)
 "वह आम आदमी की पीड़ा को प्रखरता मुखरता से बल देते थे। वे किसी भी तरह से डरने वाले नहीं थे, इसलिए वह अदम्य साहस के साथ लिखते थे। अम्बेडकरवाद के प्रति प्रतिबद्धता ही थी कि कोई उनके लेखन का कायल हुए बिना नहीं रह सकता था। उन्होंने कांग्रेस मुखिया सोनिया गाँधी को इंगित करते हुए लिखा था कि हमें सत्ता चाहिए, सांत्वना नहीं।' कांग्रेस दलितों को सांत्वना देती रही, मगर सत्ता का असली मजा, वही लेती रही।"
जब भारत में दलित पत्रकारिता का इतिहास लिखा जाएगा, तब महीपाल सिंह (सम्पादक-दलित टुडे) का नाम आदर के साथ अंकित किया जाएगा। मैंने दर्जन भर सम्पादकों-पत्रकारों के सम्पादकीय लेख पढ़े हैं, मगर वे बेजान, नीरस और बोझिल से बन पड़ते हैं। एक महीपाल सिंह ही थे, जिनके लेखन को पढ़कर ऊर्जा का संचार होता था, जज्बा-जोश भर उठता था। निराशा काफूर हो जाती थी। सच्चे अर्थों में वह अर्थपूर्ण पत्रकारिता कर रहे थे, जिनके लफ्ज-लफ्ज में मिशन था, एक स्पष्ट सोच और निश्चित दिशा थी। वह आम आदमी की पीड़ा को प्रखरता मुखरता से बल देते थे। वे किसी भी तरह से डरने वाले नहीं थे, इसलिए वह अदम्य साहस के साथ लिखते थे।

उदारमना महीपाल सिंह का जन्म- 3 मार्च 1955 (अभिलेखानुसार) को उत्तर प्रदेश के वर्तमान हापुड़ (तत्कालीन गाजियाबाद) जनपद के गाँव धौलाना में पिता लेखराज सिंह और माता बलदेई के यहाँ हुआ था। उनके पिता के चार संतानें हुईं, जिनमें वह भाई ब्रजेन्द्र सिंह, बहनें रामवती एवं राजवती हैं। पिता किसान थे, महीपाल सिंह एम.ए तक पढ़े थे, उनके पिता उन्हें अफसर बनाना चाहते थे, मगर वह अपनी धुन के पक्के थे, उन्हें पत्रकारिता का शौक चराया हुआ था। उनके पिता पत्रकारिता-लेखन के सख्त खिलाफ थे। इस प्रकार पिता-पुत्र में मनमुटाव पनपने लगा। वह गाँव से शहर गाजियाबाद आ गए और किराए पर रहकर पत्रकारिता में जुट गए। एक बार उन्होंने बताया कि वह अपने चाचा जी के यहाँ किराएदार की तरह रहते थे, मगर चाचाजी उनसे किराया नहीं लेते थे। उन्होंने करीब 39 वर्ष की उम्र में विनीता सिंह जी (राजपूत) से शादी की, जिन्होंने हर तरह से अपने पति का साथ दिया। उनके एक पुत्र शुभम सिंह पैदा हुआ। अब दोनों माँ-बेटा शास्त्री नगर स्थित आवास पर रह रहे हैं।

मा. सिंह साहब ने कई अखबार वीर अर्जुन, जनसत्ता, दैनिक जागरण जैसे समाचार पत्रों में लिखा। जब मुख्यधारा के अखबारों में लिखते-लिखते ऊब गए, तो उन्होंने अपना मासिक समाचार पत्र 'अल्पतंत्र' निकाला। बाद में वह अखबार बंद हो गया, तब तमाम मिशनरी साथियों के सहयोग से अक्टूबर 2001 से दलित टुडे हिन्दी मासिक पत्रिका का सम्पादन किया। दलित टुडे पत्रिका ने दलित पत्रकारिता के क्षेत्र में ऊँचा मुकाम हासिल किया। वह देश की पहली अनूठी पत्रिका बन गई, जो वैचारिक आन्दोलन की धार पैनी कर रही थी। दलितों की मुखर आवाज बन गई थी। दलित टुडे का कलेवर तीखा और उनकी लेखन शैली मारक थी। देशभर में उसके मुकाबले कोई पत्र-पत्रिका नहीं दिखती, जो दलित आन्दोलन के लिए ईमानदारी से समर्पित हो। उनका किसी भी राजनीतिक दल की ओर से झुकाव नहीं था। हाँ, दलित होने के नाते बसपा से सहानुभूति थी, मगर वह बहन मायावती जी की बदली हुई कार्यशैली से नाखुश थे। वह डॉ. बी.पी. मौर्य को अपना राजनैतिक गुरु मानते थे। इस सबसे अलग उनकी प्रतिबद्धता केवल दलित आन्दोलन से गहरे तक जुड़ी थी। वह कहते थे कि "जब तक जिन्दा रहूँगा अम्बेडकर मिशन के लिए कार्य करता रहूँगा।" पत्रिका का उद्देश्य बताते हुए वह कहते थे कि "मैं अम्बेडकरवाद की नर्सरी लगा रहा हूँ।"

और उन्होंने ऐसा किया भी। मैं उनसे जुलाई 2002 में जुड़ा। दलित टुडे का जून अंक-2002 पढ़कर उन्हें पत्र लिखा। अगस्त में फोन से बात हुई। मैंने पत्रिका की तारीफ की, तो वह बोले-'भई आपकी ही पत्रिका है। मैं तभी से दलित टुडे से गहराई से जुड़ गया और मुझे लगा कि यह जुड़ाव अटूट हो गया है। मगर 2 अक्टूबर, 2013 को सर गंगाराम हॉस्पिटल नई दिल्ली में उन्होंने अन्तिम सांस ली। सब कुछ रेत की दीवार की तरह ढह गया। उनके निधन से दलित पत्रकारिता और दलित आन्दोलन को गहरी क्षति हुई। बिना लाग-लपेट, बिल्कुल खरा-खरा लिखने वाला, एक जहीन कलमकार चला गया एक शून्य छोड़कर... उनके चले जाने के बाद कई लोगों की मुझे कॉल आई, जिनमें गाजियाबाद से रिसाल सिंह जी, मेरठ से डॉ० रामगोपाल भारतीय जी, मोदी नगर से देशराज भारती जी ने दलित टुडे को जीवित रखने की कोशिशों को बल दिया। मगर मैं यह सब करने में असफल रहा, तमाम शुभचिंतकों ने सहयोग का वादा किया, मगर दलित टुडे पुनर्जीवित नहीं हो सकी। तब मुझे एहसास हुआ कि हम सिंह साहब के उत्तराधिकार को संभालने में विफल रहे।

वह इतना साहस कहाँ से लाते थे कोई ज्ञात स्रोत नहीं है, मगर अम्बेडकरवाद के प्रति प्रतिबद्धता ही थी कि कोई उनके लेखन का कायल हुए बिना नहीं रह सकता था। उन्होंने कांग्रेस मुखिया सोनिया गाँधी को इंगित करते हुए लिखा था कि हमें सत्ता चाहिए, सांत्वना नहीं।' कांग्रेस दलितों को सांत्वना देती रही, मगर सत्ता का असली मजा, वही लेती रही। एक बार उन्होंने लिखा था कि सरकार सार्वजनिक उपक्रमों को निजी क्षेत्र में बेच रही है, बहाना यह बना रही है कि घाटे में चल रही है। उनका कहना था कि अर्थव्यवस्था का राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा है; इसे क्यों नहीं बेच देती? अपने अन्तिम सम्पादकीय में वह लिखते हैं कि दलित टुडे का उद्देश्य किसी को खुश करना अथवा नाखुश करना कदापि नहीं रहा। वैसे भी पत्रकारिता का मतलब वस्तुस्थिति को तथ्यात्मक रूप से प्रस्तुत करना। है। हम बाबा साहेब के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाकर दलितों को जुल्म और जालिम के खिलाफ जंग के लिए तैयार करना चाहते हैं। वह यह भी लिखते हैं कि दलितों को भी चाहिए कि वह ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद को गाली देने में अपनी शक्ति क्षीण न करें वरन् उनसे सीख लेकर अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर एकजुट हों, तभी जाकर दलित अपने दलितपन से पीछा छुड़ा सकते हैं।

लेखक डिप्रेस्ड एक्स्प्रेस (मासिक पत्रिका) मथुरा के सम्पादक हैं

Sunday, July 11, 2021

मेरी अजीब किस्मत, -रिंकी सिद्धार्थ

    भाग दो   
समाज को आईना दिखाती एक लड़की के जीवन के संघर्षों की सच्ची कहानी
शहर में वैसे ही घर वालों के अत्याचार सहकर लड़कीयां जीवन व्यतीत करती रही। रीना कभी-कभी सोचती आखिर शहर में आने से उसकी जिंदगी में क्या परिवर्तन हुआ। गांव में  दादी और चाची ने कहा था कि शहर में अच्छे स्कूल में पढ़ने को मिलेगा, अच्छे टूयूसन टीचर लगेंगे और उसकी बिमारी का डॉ से इलाज होगा जिससे उसकी बचपन की बिमारी ठीक हो जायेगी। उसके साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसे तो ऐसे ही मुफ्त के एक स्कूल में डाल दिया गया जहां बच्चों की फीस भी नहीं पड़ती थी। किताब भी किसी से मांग कर दिला दी जाती थी। उसका कोई टूयूसन भी नहीं लगाया गया और घर में उसे कोई पढ़ाता नहीं था। उसे तो खुद ही पढ़ना पडता गांव में तो चाचा और बाबा उसे पूछने पर पढा भी देते थे। यहां अगर वो अपने मां बाप से कहती तो उसे कुछ काम के लिए बोल देते और दवा के नाम पर उसे नीम का चंदन, बांस जला कर लगाना, मिट्टी का तेल ,हल्दी चुना जैसे घरेलू नुस्खे करने को बोल देते जैसा गांव में होता था। साल में दो बार ही कपड़े दिलाये जाते होली और दिवाली इसके अलावा स्कूल की ड्रस, जूते, एक हवाई चप्पल, खाना, रहना इतना ही मिलता था। 

वे दोनों बहनें स्कूल पैदल ही पढने जाती थी। इतना मिलने के लिए उन्हें घर के काम करने पड़ते अगर मना करती तो मार खाती उन्हें बोलते हमारे घर मे रह रही हो छत रोटी कपड़ा मिल रहा है तन ढकने को तो दिमाग खराब है। बड़ी बहन थोड़ी बड़ी थी तो उस वक्त ज्यादा काम उसी को करना पड़ता और मार भी वो ही ज्यादा खाती थी। रीना की बिमारी धीरे-धीरे बढ़ रही थी। जब एक साल बाद वो गांव गई तो दादी और चाची उसकी हालत देखकर उन्हें डॉटने लगी। शहर में डॉ है सरकारी नौकरी से दोनों पैसा भी अच्छा कमा रहे तो भी बेटी का इलाज क्यों नहीं कराया। दादी को बोल दिया गया  बचपन की बिमारी है तो इलाज कराने से क्या फायदा और तुम को इससे ज्यादा हमदर्दी है तो तुम ही करा लो। तब दादी बोली मैं 70 साल की बुढिया अनपढ़ गांव में रहने वाली कमाती भी नहीं गांव में तो अच्छे डॉ भी नहीं। मैं इसका इलाज कहां कराऊँ फिर वो वापस शहर आ गई थी। 

सोचती कि उसके पूरे घर में कोई भी ऐसा नहीं है दादी, नानी ,मामीयां ,चाचीयां,बुआ ,मौसीयां,जो अपनी बेटियों के साथ ऐसा व्यवहार करती हो बल्कि उसकी नानी तो पुराने जमाने की सिर्फ पांच पास टीचर थी। वह अपने चारों बच्चों बेटा बेटी सब को डॉ,  इंजीनीयर, वकील, टीचर, बनाने की सोचती थी। नानी-नाना दोंनों ही नौकरी करते थे।इसीलिए सारे बच्चों को पढ़ाने के लिए घर में टूयूसन टीचर बुलाते थे। यहां तक की उसकी माँ जब नौ में आई तो फेल हो गई फिर वो जब स्कूल से घर आई सीधे छत पर जाकर रोने लगी। तब उसके नाना, नानी दोनों उसकी माँ के पास गये और बोले चिंता क्यों करती हो तुम्हारे मां बाप जिंदा है चाहे जितनी भी टूयूसन लगानी पड़े तुम पढना चाहती हो तो हम पढायेगें। तुम्हें उस के बाद उसकी माँ को दो घंटा पढ़वाने लगे बाकी बच्चों को एक घंटा क्योंकि वो फेल हो चुकी थी। 

मां बाप के ज्यादा ध्यान देने की वजह से वो दस पास कर ली और दस करने के बाद उनकी मां ने उन्हें नौकरी मिलने का प्रार्थना पत्र डलवा दिया उस जमाने में दस पास को नौकरी मिल जाती थी। उसके बाद नानी ने उसकी माँ की शादी कर दी उसकी माँ को नौकरी मिल गई इसकी खबर उन्हें शादी के बाद मिली तब तक उसकी दादी बहुँओ के नौकरी के खिलाफ थी, पढ़ाई के खिलाफ नहीं थी। पर उनका कहना था कि अगर पति अच्छा कमाता हैं तो  औरत को नौकरी नहीं करनी चाहिए दोनों बाहर कमाने जाते हैं। घर बर्बाद हो जाता तब उसकी नानी दादी के यहां आकर लड़ाई, शादी, बेटी हमारी है। हम इसको नौकरी जरूर करायेगें कल कोई बुरा वक्त पड़े तो ये ससुराल या मायके के सहारे न रहे अपनी जिंदगी खुद की कमाई से जी ले इसलिए हमने इसको इतना पढ़ाया हैं। हमारी बेटी को किसी के सहारे जिंदा न रहना पड़े फिर उसकी दादी भी मान गई ये सब बातें उसकी माँ ही बताती रहती थी।अक्सर चाचीयों को ,दादी ने भी अपनी जिम्मेदारी बहुत अच्छे से निभाई थी दादी तो गांव की अनपढ़ औरत थी फिर भी उन्होने अपने बेटा बेटी सब को बहुत पढ़ाया उस वक़्त उतना कोई उनके पूरे गांव में नहीं पढ़ा था और अपने सारे बच्चों को पैरों पर खड़ा किया यहां तक की जब उसकी बुआ पर ससुराल में अत्याचार हुआ तो दादीे बुआ को वापस बुला ली और घर में बेटों के बराबर का हिस्सा भी बेटी को दिया ताकि दादी बाबा के मरने के बाद बुआ के साथ कोई बुरा व्यवहार न करे और बेटी को उतने ही सम्मान से रखा जैसे बेटो को रखती थी।  

हां बस एक बात उनकी जो लोगों को बुरी लगी पर रीना को सही लगी कि अगर दोनों घर के बाहर पैसा कमाने जाते हैं तो उनके बच्चों की अच्छी परवरिश नहीं हो पाती लेकिन बाद में तो दादी भी बदल गई। उसके बाद उनकी जितनी बहुंयें आई सब ने नौकरी की पर हां सब ने नौकरी के साथ अपने बच्चों की परवरिश में भी कोई कमी नहीं आने दी। उनकी नौकरी से जो ज्यादा पैसे घर में आये उससे उनके बच्चों की पढाई दवाई और अच्छी हो सकी रीना सोचती उसके परिवार में कोई भी तो ऐसा नहीं है जो बेटियों को उनके बेसिक अधिकार भी न दे। जो हर बच्चे का हक है दवाई पढाई और सम्मान, जैसे जितनी कमाई है जिसके पास सब उस हिसाब से अपने बच्चों को अच्छे स्कूलो में पढ़ाते, अच्छे डॉ को दिखाते, सम्मान से रखते और जब कभी उसकी चचेरी बहनो को उसके चाचा या चाची बिमारी की दवा दिलाने शहर लाते तो उन्हें भाई के घर छोड जाते क्योंकि रीना की चचेरी बहनो को भी एक को त्वचा की दूसरी को बाल की बिमारी थी।  

उनका शहर से बराबर कई सालों तक इलाज चलता था। यह देख कर रीना और उसकी बड़ी बहन अक्सर बातें करती इससे तो अच्छा होता हम भी गांव में ही होते कम से कम परिवार वालों के डर से ही सही गाँव में ही उनकी अच्छी पढ़ाई दवाई हो जाती और इतना मार भी नहीं खाती इतनी बेज्जती भी न होती मोहल्ले में क्योंकि उनके घर में जब भी नया झाड़ू आता किसी न किसी बात पर उसकी बड़ी बहन को जरूर उसी नये झाड़ू से पिटा जाता। मतलब नये फूलझाड़ू की सफाई बेटियों पर करते थे। मां-बाप झाड़ू मजबूत नहीं हो तब चप्पल जूते डंडे से मार पड़ती थी। उन्हें .ये सब सिर्फ उनके साथ ही हो रहा था पूरे परिवार की बेटीयों को छोड़कर हां सिर्फ एक मौसी थी।उसकी जिन्हें भी बहुत पुत्र मोह था पर वो भी रीना की मां के जैसी नहीं थी वो बेटे को ज्यादा प्यार जरूर करती थी।पर बेटीयों का पूरा हक उन्हें देती थी बेटीयों की पढाई, दवाई, सम्मान में कोई कमी नहीं करती थी दूर से देखकर तो ऐसा ही लगता था उसे उनके घर भी बहुत बाद में आना जाना शुरू हुआ उन लोगों का तब तक रीना 7 में आ चुकी थी उस जमाने में फोन इतने सस्ते तो नहीं थे कि रोज बात हो जाये सबसे और वो दूसरे शहर में रहती थी तो बहुत कम मिलना होता उनसे हां बस जब रीना 7 में थी। 

एक बार उसके मां बाप रीना को लेकर बहन के घर गये थे तब मौसी ने रीना को रोक लिया था। ये बोलकर हम बाद में लेकर आयेगें इसको तब कुछ दिनों के लिए रीना उनके घर रूकी थी। गांव से आने के बाद वही दिन रीना की जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन थे। उन दिनो में उसे कभी भी ऐसा नहीं लगा मौसी बेटी बेटा में भेद करती हैं और वही रीना ने साइकिल चलाना सीखा था। खूब मस्ती की इसीलिए रीना को वो भी अपने मां बाप के जैसे नहीं लगे मौसा को ज्योतिष का अच्छी जानकारी थी। एक दिन मौसा ने रीना को बताया तुम जीवन में पहले बहुत तकलीफ पाओगी पर आगे तुम्हें बहुत खुशयां मिलेगी तब रीना हंसते हुये बोली क्या बुढ़ापे में मुझे खुशी मिलेगी मौसा तब वो भी हंसने लगे खैर रीना को लगता था उसकी माँ बेटो के साथ अच्छा सिर्फ इसलिए करती थी। क्योंकि उन्हें बुढ़ापे का डर है भारतीय परम्परा के अनुसार मां बाप बेटीयों के घर का पानी भी नहीं पीते है। 

बेटों के साथ ही रहते बुढ़ापे में जब शरीर काम नहीं करेगा तो पास में पैसा होकर भी वो खुद अकेले डॉ के यहां नहीं जा पायेगें तो उनका बुढ़ापा अच्छे से बीते पैसे के लालच में ही सही बेटे उनकी सेवा करेंगे बुढापे में कोई चाहिए सेवा करने वाला अगर रीना के मां बाप को बुढ़ापे का डर नहीं होता तो शायद वो किसी पर अपना एक रूपया खर्च नहीं करती, और हिटलर की तरह सब को अपना गुलाम बना कर रखते रीना के मां बाप बहुत स्वार्थी लोग थे जो सिर्फ अपना जीवन अच्छे से बिताना चाहते थे। अपना वर्तमान और भविष्य बनाने के लिए वो अपने बच्चों का वर्तमान और भविष्य दोनों बर्बाद कर रहे थे पर उन्हें उस वक्त शायद ये नहीं पता था सब को 84 योनियों में एक बार ही मनुष्य जीवन मिलता है और आप बच्चे सोचकर न इंसान समझ कर ही इंसानियत के नाते किसी दूसरे इंसान का मनुष्य जीवन बर्बाद न करना था क्योंकि बच्चे बीज की तरह होते हैं। उन्हें पढ़ाई, स्वास्थ्य,सम्मान,संस्कार ,का सही पोषण मिले तो आज का बच्चा चाहे गरीब का ही हो कल प्रधानमंत्री बन सकता और बच्चे हमारे देश का भविष्य है ये ही सोच कर कम से कम बच्चों के बेसिक हक उन्हें जरूर देती !
रिंकी सिद्धार्थ


पता-बनारस उत्तर  प्रदेश


Wednesday, July 07, 2021

ओबीसी और दलितों की सामाजिक वैचारिकी में संघर्ष-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एक विमर्श एससी, एसटी बनाम ओबीसी

"ऊंची कुर्सियों पर मात्र काबिज बने रहने के लिए वे राजनेता आंबेडकर को याद करते हैं जो वास्तव में उनकी वैचारिकी/सैद्धांतिकी की घोर खिलाफत में हमेशा खड़े नजर आते हैं।यह विडम्बना ही है कि वे आज उनके नाम में उनके पिता जी के नाम के "राम" को देखकर/जोड़कर अलग किस्म की धार्मिक सियासत करना चाहते हैं।"

✍️ दलित और ओबीसी की अधिकांश जातियां ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं और अपने परंपरागत पेशे से ही जीविका चलाती हैं। वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा पूरी तरह उन तक आज भी नहीं पहुंची है और सामाजिक स्तर पर छोटी-बड़ी (निम्न-उच्च) जातियों की मान्यता के साथ जाति व्यवस्था अच्छी तरह से अपने पैर जमाए हुए है। सामाजिक स्तर पर अनुसूचित और ओबीसी की जातियों के बीच आज के दौर में भी सामान्य रूप से खान-पान और उठने-बैठने का माहौल नहीं दिखता है। सामाजिक,राजनैतिक और सांस्कृतिक आंदोलनों की वजह से दलितों की सामाजिक और धार्मिक मान्यताओंं/परंपराओ/रीति-रिवाज़ों में परिवर्तन आना स्वाभाविक है। आंदोलनों से पूर्व दलित और ओबीसी हिन्दू धर्म,त्यौहारों,परम्पराओं और रीति-रिवाज़ों को एक ही तरह से मानते/मनाते थे। बौद्घ धर्म और आंबेडकरवादी विचारधारा के प्रवाह से अब अनुसूचित और ओबीसी की जातियों की धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाज़ों में काफी बदलाव/भिन्नता आ गयी है। शिक्षा की कमी के कारण ओबीसी के उत्थान के लिए आंबेडकर द्वारा बनाई गई संवैधानिक व्यवस्था को ओबीसी अभी भी नहीं समझ पा रहा है। जातीय श्रेष्ठता की झूठी शान और सामाजिक/धार्मिक रीति-रिवाज़ों में अंतर/भिन्नता के कारण दोनों में सामाजिक और राजनैतिक सामंजस्य की भी कमी दिखती है। सदैव सत्ता में बने रहने वाले जाति आधारित व्यवस्था के पोषक तत्वों/मनुवादियों द्वारा आग में घी डालकर इस दूरी को बनाए रखने का कार्य बखूबी किया गया और आज भी...। ओबीसी इन मनुवादियों की साज़िशों और आंबेडकर की वैचारिकी का अपने हित में अवलोकन-आंकलन नहीं कर पाया और न ही कर पा रहा है,क्योंकि वह आंबेडकर के व्यक्तित्व व कृतित्व को जाति विशेष होने के पूर्वाग्रह के कारण उनकी वैचारिकी और योगदान को पढ़ने से परहेज करता रहा और उसे आज भी पढ़ने में हीनभावना/संकोच जैसा लगता है। यहां तक कि,आंबेडकर की वैचारिकी के सार्वजनिक मंचों को साझा करने में भी उसे शर्म आती है। देश के सत्ता प्रतिष्ठान आंबेडकर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक जाति/समाज विशेष के खांचे में बन्द कर,इस क़दर प्रचार-प्रसार करते रहे जिससे अनुसूचित और ओबीसी जातियों में सामाजिक/राजनीतिक एकता कायम न हो सके।आज यदि ओबीसी का कोई व्यक्ति आंबेडकर को कोसता है या अन्य की तुलना में कमतर समझता है,तो समझ जाइए कि उसने ओबीसी के उत्थान के लिए आंबेडकर की सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक मॉडल पर आधारित वैचारिकी को अभी तक पढ़ने/समझने का रंच मात्र प्रयास भी नहीं किया है। वह भूल जाता है कि वर्णव्यवस्था में अनुसूचित और ओबीसी की समस्त जातियां "शूद्र" वर्ण में ही समाहित हैं। अशिक्षा और अज्ञानता के कारण ओबीसी अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में केवल अनुसूचित जाति को ही शूद्र और नीच समझकर जगह-जगह पर अपनी अज्ञानता/मूर्खता का परिचय देता नजर आता है जिससे उनमें एकता के बजाय वैमनस्यता ही बनी हुई है।
✍️ओबीसी का बहुसंख्यक धर्म-ग्रंथ जैसे रामायण,रामचरित मानस,सत्यनारायण की कथा,भागवत,महाभारत,मंदिरों में स्थापित पत्थरों/धातुओ की जेवरात/हीरे/मोतियों से सुसुज्जित मूर्तियों के रूप में करोड़ों देवी-देवताओंं के चक्रव्यूह में फंसा रहता है। जबकि 85% शोषितों व वंचितों के कल्याण के लिए आंबेडकर की संवैधानिक व्यवस्थाएं एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति का विनाश) पुस्तक,साइमन कमीशन और गोल मेज कॉन्फ्रेंस के मुद्दे/विषय वस्तु और उद्देश्य,हिन्दू कोड बिल,काका कालेलकर और वीपी मंडल आयोग की सिफारिशें है जिनका अध्ययन और समझना आवश्यक है। शिक्षा,धन,धरती और राजपाट दलितों व ओबीसी की लड़ाई के असल मुद्दे हैं जहां से आपके और आपकी भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए रास्ते खुलते और प्रशस्त होते है। सत्ता के उच्च प्रतिष्ठान जैसे सरकार,कार्यपालिका,न्यायपालिका और मीडिया में शीर्ष पर काबिज कथित रूप से ब्रम्हमुख उत्पन्न प्रभु लोगो ने आपके लिए अभी तक क्या किया है?
✍️ डॉ आंबेडकर की बहुपटीय वैचारिकी को ईमानदारी से न तो देखा गया और न ही सार्वजनिक पटल पर लिखित/मौखिक रूप से प्रस्तुत किया गया। आज़ाद भारत की कई प्रकार की सत्ता संस्थाएं जैसे उच्च शिक्षण और अकादमिक संस्थाओ में ज्ञान की सत्ता,मीडिया और न्यायपालिका की सत्ता,संसद में राजपाट की सत्ता और समाज में धर्म या ब्राम्हणवाद की सत्ता काम करती हैं। क्या ये सारी सत्ताएं आंबेडकर की वैचारिकी को समग्रता में देखने व समझने में हमारी मददगार साबित होती है या फिर किन्हीं पूर्वाग्रहों का शिकार है?आंबेडकर की विचारधारा की परंपरा के अंतरराष्ट्रीय दलित चिंतक,दार्शनिक,साहित्यकार,आलोचक,गहन विश्लेषक,आईआईटी और आईआई एम जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण और अध्यापन कर चुके प्रो.आनन्द तेलतुंबडे को 14 अप्रैल,2020 को आंबेडकर की 129वीं जयंती पर भीमा कोरे गांव की घटना में एक आरोपी के पत्र/डायरी में "आनन्द" लिखा मिल जाने को आधार बनाकर बिना किसी जांच-पड़ताल के गिरफ्तार कर उस समय जेल जाने के लिए विवश किया जाता है जब कोविड- 19 के कारण जेलों में बन्द हजारों बंदियों/कैदियों को पैरोल पर रिहा किया जा रहा था। उनके साथ उनके साथी गौतम नौलखा को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा था।कोविड -19 के कालखंड में सरकार, प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी एडवाइजरी का पूरी तरह पालन करते हुए अपने घरों में आंबेडकर जयंती मनाने पर सरकार द्वारा राजनैतिक विद्वेष वश उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई किया जाना दुखद घटना थी,जबकि 22 मार्च और 5अप्रैल को एडवाइजरी की धज्जियां उड़ाते सड़क पर उतरे लोगों के खिलाफ स्थानीय प्रशासन द्वारा कोई कार्रवाई न किया जाना सरकार के दोहरे चरित्र की निशानी है।
✍️ दरअसल,आधुनिक दलित चिंतक सरकार पर यह सवाल उठाने लगे हैं,कि आखिर वे कौन है,जिनकी वजह से आजादी के सत्तर सालों में आंबेडकर के सपनो का भारत का निर्माण नहीं हो पाया है या नहीं हो पा रहा है?अर्थात आंबेडकर की राष्ट्र निर्माण की विचारधारा के हत्यारे कौन हैं?अध्ययन करने से पता चलता है कि आज देश का झूठ/फसाद की बुनियाद पर खड़ा आरएसएस जो कि दक्षिणपंथी विचारधारा का कट्टर समर्थक है,देश के सत्ता प्रतिष्ठानों की महत्वपूर्ण/ऊंची कुर्सियों पर मात्र काबिज बने रहने के लिए वे राजनेता आंबेडकर को याद करते हैं जो वास्तव में उनकी वैचारिकी/सैद्धांतिकी की घोर खिलाफत में हमेशा खड़े नजर आते हैं।यह विडम्बना ही है कि वे आज उनके नाम में उनके पिता जी के नाम के "राम" को देखकर/जोड़कर अलग किस्म की धार्मिक सियासत करना चाहते हैं।"सामाजिक न्याय के स्थान पर सामाजिक समरसता की वैचारिकी का आपस में घालमेल किया जा रहा है।" यह कार्य ओबीसी के लोग आरएसएस की प्रयोगशाला में प्रशक्षित होकर गांवों और शहरो में शाखाएं लगाकर बखूबी कर रहे हैं।संघ की विचारधारा का सबसे बड़ा और मज़बूत संवाहक आज ओबीसी ही बना हुआ है।संघ के लोग आंबेडकर के आरएसएस से राजनैतिक संबंधो की तरह-तरह की अफवाहें फैलाकर उनकी राजनीतिक विरासत को हड़पना/नष्ट करना चाहते हैं। गोलवलकर की पुस्तक "बंच ऑफ थाट्स" के हिंदी संस्करण "विचार नवनीत" में आंतरिक संकटों का जिक्र किया गया है जिसमें देश के मुसलमानों को पहला, ईसाईयों को दूसरा और कम्युनिस्टों को तीसरे संकट के रूप में रेखांकित किया गया है।
एन एल वर्मा 


पता-लखीमपुर-खीरी  (यूपी)
9415461224, 8858656000

Monday, July 05, 2021

मेरी अजीब किस्मत-रिंकी सिद्धार्थ


समाज को आईना दिखाती एक लड़की के जीवन के संघर्षों की सच्ची कहानी

गूगल से साभार
सीतापुर जिले के एक छोटे से गांव में सुधा और रज्जु अपने माता पिता और दो भाई और एक बहन जो कि ससुराल वालों के अत्याचारों से तंग आकर वापस मायके आ गई थी सब के साथ रहते थे रज्जू के दोनों भाईयों की शादी भी हो चुकी थी और उन दोनों के एक बेटी दो बेटे थे रज्जू ने भी सोचा था इसलिए रज्जु के जब एक बेटी और एक बेटा हुआ तब तक सब ठीक था दूसरे बेटे की आस में जब दूसरी बेटी पैदा हो गई तब तो जैसे उस लड़की ने एक ऐसी जगह पैदा होकर गुनाह कर दिया जहां लोग बेटा ही चाहते थे इसीलिए सुधा और रज्जु ने फिर से एक और बच्चा जनने की सोची और इस बार उनकी चाहत के अनुसार उन्हें एक और बेटा हो गया अब उनके भाईयो के दो बेटा और एक बेटी थी रज्जु और सुधा के दो बेटा और दो बेटीयां हो गई, उन्हें लगने लगा कि बेटियों की शादी करनी पड़ेगी जबकि उनके भाईयों को सिर्फ एक बेटी का ही खर्च उठाना पड़ेगा यह सोच कर वो दो बेटीयों को देखकर बहुत दुःखी रहते थे जैसे ही लड़कीयां थोडी बड़ी हुई उनकी लड़कीयों के लिये बुरे दिन आ गये। वो अपनी छोटी लड़की से तो ज्यादा ही नफरत करने लगे क्योंकि उसे वो बिलकुल भी नहीं चाहते थे वो तो दूसरे बेटे की चाहत में आ गई थी उनकी छोटी लड़की रीना की उम्र उस समय केव8 वर्ष की थी। 

जब उसके माता पिता ने गाँव छोड़ कर शहर में रहने का फैसला लिया, गांव में सारा परिवार साथ रहता था।  अतः मां बाप चाहते हुये भी अपनी बेटियों के साथ ज्यादा बुरा व्यवहार नहीं कर पाते थे बाकी परिवार वाले बेटियों को बचा लेता थे उनके जुल्म से. पर शहर आने पर माता पिता का व्यवहार बेटियों के प्रति और खराब होता चला गया गाँव में चैन से खेलने वाली लड़कियों को घर के काम में जुतना पड़ा। उन पति पत्नी के पास एक बहाना था क्योंकि वो दोनों पति पत्नी सरकारी नौकरी करते थे तो जब कभी कोई उन्हें बोलता आप छोटी बच्चीयों से इतना काम क्यों लेती है तो वो बोल देती मैं नौकरी करती हूं तो मुझे लड़कियों की मदद लेनी पड़ती हैं और लड़कीयां अगर उनकी बात न माने घर के काम न करके पढना चाहे तो वो लड़कीयों को चिल्लाते और मारते थे जब कोई पडोसी उनसे पूछता क्यों डाँट मार रही हैं लड़की को तो वो बोल देते हमारी बात नहीं मानती है इसलिए जबकि उनकी बड़ी बेटी और छोटी बेटी के बीच में एक बेटा था उससे कोई काम नहीं कहती करने को वो पढाई भी नहीं करता था सारा दिन वो सिर्फ टीवी देखता और दोस्तों के साथ घूमता फिर भी वो अपने बेटे को कभी डांटती भी नहीं थी पति कुछ बोले तो उसे भी रोक लेती लड़का है हमारे बुढ़ापे का सहारा है इसको कुछ मत बोलो. सुधा रुपवती और पैसा कमाने वाली स्त्री थी और रुप और गर्व में चोली-दामन का नाता है। 

वह अपने हाथों से कोई काम न करती।घर का सारा काम बेटियों से कराना चाहती।पिता की आँखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे अब बेटीयों में सब बुराइयाँ-ही- बुराइयाँ नजर आतीं थी बेटों में नहीं । सुधा की बातों को वह प्राचीन मर्यादानुसार आँखें बंद करके मान लेता था। बेटीयों की शिकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि बेटियों ने शिकायत करना ही छोड़ दिया। किसके सामने रोये? जब मां बाप ही गलत करते हैं , अब कुछ लोगों को छोड़ कर लगभग सारे लोग ही जैसे उसके दुश्मन बन गये। बड़ी जिद्दी लड़कीयां है,सुधा को तो कुछ समझती ही नहीं; बेचारी उनका दुलार करती है, खिलाती-पिलाती है यह उसी का फल है। दूसरी औरत होती, तो निबाह न होता। वह तो कहो, सुधा इतनी सीधी-सादी है कि निबाह हो जाता है। सबल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद भी कोई नहीं सुनता! बेटियों का हृदय माँ बाप की ओर से दिन-दिन फटता रहा बेटीयां माता पिता के जुल्म सहती रही सिर्फ इस डर में कि जब घर के लोग इतना बुरा व्यवहार करते हैं तो बाहर के लोग कैसा व्यवहार करेंगें उनके साथ और वो अगर घर से भाग कर घर वालों के जुल्मों से बच कर जाना भी चाहे तो जाये तो जाये कहां जहां उनके साथ बुरा न हो कोई ऐसी सुरक्षित जगह नजर न आती उन्हें जहां वो रह सके जुल्मों से बच सके इसलिए उन्होंने इतने बुरे माता पिता का मिलना अपने प्रारब्ध के बुरे कर्मो का फल मान लिया और वैसे ही घरवालों के अत्याचार सह कर जीवन व्यतीत करती रही!

रिंकी सिद्धार्थ

पता-बनारस उत्तर प्रदेश

Sunday, July 04, 2021

डोली चढ़ के दुल्हन ससुराल-सुरेश सौरभ

परंपरा
        बात पिछले माह 25 जून की है। उत्तर प्रदेश के जिला फतेहपुर हथगाम ब्लॉक के बन्दीपुर गाँव में शिवनारायण सिंह लोधी के घर, भिठौरा ब्लॉक के रहिमापुर सानी से बाबू सिंह लोधी के पुत्र कमलेश कुमार की जब बारात आई , तो जनवासे में सजी-धजी पालकी ( डोली ) रखी हुई थी, जिसे आज के युवा उस पालकी को सिर्फ फिल्मों में ही देखा होगा या फिर बचपन में दादा-दादी की कहानियों में ही सुना होगा। जनवासे में रखी वह पालकी लोगों के लिए आकर्षण और आश्चर्य का केन्द्र थी।
 
        बारात जब दुल्हन के गांव पहुंची, तो द्वारचाल के लिए, दूल्हे  कमलेश कुमार को पालकी में बैठा कर लाया गया। इस मोहक दृश्य ने भी गाँव के तमाम लोगों व रिश्तेदारों का खासा मन मोह लिया। औरतें और बच्चे तो बड़ी हैरत से यह नजारा देख कर अपनी सुखद स्मृतियों में संजो रहे थे।
      सुबह जब बिदाई की बेला आई, तो दुल्हन को पालकी में बिठाकर कर विदाई दी गई। विदाई की इस अद्भुत और भावुक बेला को देखकर,सभी बड़े बुजुर्ग इस लुप्त हो रही परंपरा को दोहराये जाने की मुक्त कंठ से प्रशंसा कर रहे थे।
     आधुनिकता की दौड़-भाग में लोग जहां पुरानी पंरपराओं को भूल चूके हैं, वहाँ ऐसी परंपराओं की पुनः वापसी, लोगों में गये बीते दिनों की यादें ताजा करके मन को रोमांचित और प्रफुल्लित कर देतीं हैं।
   परिजनों के अनुसार जनपद फतेहपुर के युवा लेखक लघु फिल्मों निर्देशक शिव सिंह सागर ने अपनी बहन कविता लोधी का रिश्ता तय होने के बाद, अपने बहनोई कमलेश कुमार लोधी के साथ मिलकर यह अनोखी योजना बनाई।  
      शिव सागर ने बताया, कि जहाँ बहुत से लोग इस दौर में कुछ नया करने के चक्कर में लगे रहते हैं, वहीं हमने कुछ पुराना करके बहन की, शादी को यादगार बना दिया। डोली और पालकी के सुखद समन्वय से हमने पुरानी परंपराओ को जीवंत बनाने का प्रयास किया हैं।
       इस बारे मे कवि रमाकान्त चौधरी का कहना है ऐसी कम खचीर्ली परंपराओं को यदि पुनः वापसी हो जाए तो दिखावा करके शादी-ब्याह में लाखों फूंकने वालों को सीख मिलेगी। जबकि अभिनेता वसीक सनम कहतें हैं, पुरानी परंपरा को शिव सिंह सागर ने दोहरा कर समाज को यह संदेश दिया है नया नौ दिन पुराना सब दिन।



पता-निर्मल नगर लखीमपुर खीरी
मो-7376236066

Thursday, July 01, 2021

सवनवा आईल ना-अखिलेश कुमार अरुण

  भोजपुरी कजरी गीत  

ना आईल बलमुआ, सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

 बिरह में देहियाँ जरे,

छन-छन पनियां परे सखी हो कब आई बलमुआ ना

सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

 बहे पवन पुरवईया,

कूके बाग़ कोयलिया सखी हो कब आई बलमुआ ना

सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

 सवतिन भईल सेजरिया,

धई-धई काटे रतिया सखी हो कब आई बलमुआ ना

सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

 अँखियाँ के काजर बहे,

ना कईल सिंगरवा सोहे सखी हो कब आई बलमुआ ना

सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

 ना आईल बलमुआ, सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

अखिलेश कुमार अरुण




 

पता-ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर

जिला-लखीमपुर(खीरी)

'सम्मान दो-सम्मान लो' के स्लोगन पर कदमताल-डी०के०भास्कर

डी०के०भास्कर
विगत 20 जून, 2021 को हरियाणा के जनपद भिवानी के गाँव गोविन्दपुरा में 300 साल में पहली बार एक दलित युवक विजय कुमार ने अपनी शादी के अवसर पर घुड़चढ़ी करके इतिहास रचा है। विजय कुमार की शादी रोहतक जनपद के गाँव लाखनमाजरा निवासी पूजा के साथ हुई है। हालांकि घुड़चढ़ी करने में इतिहास रचने जैसी कोई विशेष बात नहीं है, सामान्य तौर पर तमाम लोगों की घुड़चढ़ी की रश्म होती रहती हैं। विशेष बात यह है कि एक दलित हेड़ी जाति के व्यक्ति को पहली बार यह मौका हाथ लगा है। इससे पूर्व कोई भी दलित व्यक्ति गाँव में घोड़ी चढ़ने का साहस नहीं कर पाया। दरअसल कोई व्यक्ति पहले साहस इसलिए भी नहीं कर पाया कि हिन्दू समुदाय में दलितों के इस तरह के कृत्यों की मनाही रही है और ऐसा करने से कथित ऊँची जाति के लोगों की नाक कट जाती है, इसलिए यदा-कदा कई अप्रिय घटनाएं देखने को मिल जाती हैं। पिछले दिनों 13 मार्च, 2021 को राजस्थान के जनपद अलवर के थानागाजी क्षेत्र के गाँव बसई अभयराम निवासी तेजाराम पुत्र छोटूराम बलाई ने पुलिस प्रशासन से शिकायत की कि 15 मार्च, 2021 को मेरी बेटी सोनम बाई की शादी है, गाँव में बारात चढ़ने पर कुछ लोग अवरोध उत्पन्न कर सकते हैं। तब पुलिस हरकत में आयी और पुलिस के पहरे में बारात चढ़ी। गत 4 जून, 2021 को उत्तर प्रदेश के जनपद महोबा के गाँव माधवगंज निवासी अलखराम को घुड़चढ़ी के लिए सोशल मीडिया पर गुहार लगानी पड़ी। एक जंग-सी लड़नी पड़ी, तब जाकर वह 18 जून को घोड़ी चढ़ पाया। फिलहाल गोविन्दपुरा मामले में सुखद और राहत की बात है कि गाँव के सरपंच ने इस प्रकरण में भरपूर सहयोग किया है। गाँव के सरपंच वीर सिंह राजपूत का कहना है कि ष्विजय कुमार की हिम्मत के चलते मैं यह परम्परा तोड़ने में कामयाब हुआ हूँ। तीन साल से प्रयास कर रहा था, पर कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। गाँव में पूरी तरह शांति है। किसी ने भी इस घुड़चढ़ी का कोई विरोध नहीं किया। भविष्य में लोगों के बीच इसी तरह प्यार और सद्भाव बना रहेगा।

देश की आजादी के 74 साल बाद हम सामाजिक स्तर पर खुद को कितना बदल पाये हैं, यह घटना इस बात की तसदीक करती है। एक दलित दूल्हे द्वारा घोड़ी पर चढ़कर निकासी की घटना ऐतिहासिक महत्व की खबर बनी है, जबकि स्वाभाविक तौर पर यह एक सामान्य घटना है। गोविन्दपुरा गाँव के हेड़ी समुदाय के लोगों ने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि उनके लिए ये एक ऐतिहासिक पल है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। गौरतलब है कि 300 साल पहले बसे गाँव में राजपूत और हेड़ी समुदाय के लोग रहते हैं। अब तक हेड़ी समुदाय के लोगों को घोड़ी पर चढ़कर बारात या निकासी की अनुमति नहीं थी। इधर दूसरी घटना के सन्दर्भ में अलखराम सवाल उठाते हैं कि ष्बाबा साहब ने संविधान में सबको बराबरी का अवसर दिया है। फिर क्यों दूसरे लोग घोड़ी पर बैठकर बारात में जा सकते हैं और हम नहीं? हम पुरानी परम्पराओं को नहीं मानेंगे। अगर हमारी बारात घोड़ी पर बैठकर नहीं निकलने देंगे, तो हम शादी नहीं करेंगे।ष् वह बताते हैं कि ष्गाँव में उनसे ऊँची जाति के दबंग धमकी दे रहे हैं कि वे बारात पर हमला कर देंगे।ष् सवाल है कि कथित ऊँची जाति के लोगों को दलितों के घोड़ी चढ़ने से क्या दिक्कत है? क्या दलितों का घोड़ी चढ़ना गुनाह है? वह हमलावर क्यों हो जाते हैं? कथित सवर्ण लोग अपने पुराने खोल से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहे हैं? आखिर क्यों दलितों को आम इंसान मानने को तैयार नहीं हैं? कहाँ तो हिन्दू धर्म और समाज सहिष्णु है, सहृदयी है और कहाँ अपने ही धर्म और समाज का दलित व्यक्ति अपने जीवन के महत्वपूर्ण पल शादी के अवसर पर घोड़ी पर नहीं बैठ सकता है, जबकि इससे कथित उच्चवर्णीय हिन्दुओं को किसी तरह की कोई हानि नहीं है। 

देखा गया है कि समाज और राजनीति में प्रगतिशील लोग दलितोत्थान की बात करते हैं। वह दलितों में सुधार की गुंजाइश तलाशते हैं, जबकि सामाजिक स्तर पर जातीय भेदभाव कौन करता है, बिल्कुल स्पष्ट है। कथित प्रगतिशील लोग उस सवर्ण मानसिकता के विरुद्ध कोई सार्थक पहल नहीं करते हैं, जो कि भेदभाव का कारण है। वास्तविकता यह है कि जातीय भेदभाव के मामले में जहाँ अन्याय हुआ है या हो रहा है, वहाँ न तो अन्याय के खिलाफ खड़े होते हैं और न न्याय की मांग करते हैं। वास्तव में समाज सुधार और सामाजिक विकृति के समूल नाश के लिए उन लोगों को सुधारने की अधिक जरूरत है, जिनके दिलोदिमाग में विकृति है, जिन्हें दलितों के प्रति भेदभाव के मामले में सामाजिकता और आपराधिकता में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता है। यहाँ तक कि दलितों के खिलाफ अमानवीय व्यवहार और जातीय भेदभाव करने में उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आती है और बड़ी ढीठता के साथ उस अन्यायपूर्ण व्यवहार को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं। जब तक भेदभावपूर्ण व्यवहार को गलत नहीं माना जाएगा और उसका विरोध नहीं किया जाएगा, तब तक यह माना जाएगा कि हम सभ्य समाज बनना ही नहीं चाहते। जब अमेरिका में नस्लीय भेदभाव के कारण अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की श्वेत पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन ने घुटने से गर्दन दबाकर हत्या की, तो उस जघन्य हत्याकांड के विरोध में अमेरिकी समाज उठ खड़ा हुआ था। आरोपी पुलिस अधिकारी की पत्नी ने तत्काल तलाक लेने का निर्णय लिया था। अमेरिकी पुलिस चीफ ने घुटनों पर झुककर माफी मांगी थी। तब राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी जो बाइडेन ने अपने घर से प्रसारित वक्तव्य में कहा था, ‘इस देश का मूल पाप आज भी हमारे राष्ट्र पर दाग है।

वास्तव में, किसी भी सभ्य समाज और राष्ट्र में किसी भी तरह का भेदभाव, चाहे वह जातिभेद या नश्लभेद या लिंगभेद हो, एक कलंक है। हमारे यहाँ व्याप्त जातीय भेदभाव रूपी इस कलंक को मिटाने की जिम्मेदारी किसी एक समुदाय की नहीं है, बल्कि समाज के सभी समुदायों की है और यह सामूहिक जिम्मेदारी है, क्योंकि यह देश सभी का है। सबसे ज्यादा अहम जिम्मेदारी उस सवर्ण समुदाय की है, जो इस तरह का कलंकित व्यवहार करने का आदी है, अपराधी है। सवर्णों को दिल से यह स्वीकार करना पड़ेगा कि दलित भी उन्हीं की तरह हाड़-मांस के प्राणी हैं। उनके भी अपने सपने हैं, अरमान हैं। उनका भी स्वाभिमान है। उन्हें भी मानवोचित सम्मान और गरिमामय जीवन जीने की चाह है। दलितों के साथ मानवीय व्यवहार करने से उन्हें कोई भी घाटा होने वाला नहीं है। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि ष्सभी मनुष्य एक ही मिट्टी के बने हुए हैं और उन्हें यह अधिकार भी है कि वे अपने साथ अच्छे व्यवहार की मांग करें।ष् अब समय आ गया है कि हम समय के साथ कदमताल करें और ष्सम्मान दो-सम्मान लो!ष् के स्लोगन पर आगे बढ़ें। हजारों साल पहले जो हो गया, सो हो गया, लेकिन आज वह अमानवीय व्यवहार किसी भी सूरत में सहन नहीं किया जा सकता है। अब दलितों का स्वाभिमान जाग गया है, वह बराबरी के व्यवहार के आकांक्षी हैं और उसमें कुछ गलत भी नहीं है। हरियाणा के एक छोटे-से गाँव गोविन्दपुरा ने सामाजिक सद्भाव की जो मिसाल कायम की है, उसे राष्ट्रीय फलक पर भी कायम करने की जरूरत है।

सम्पादक, डिप्रेस्ड एक्स्प्रेस पत्रिका
मथुरा उत्तर प्रदेश
(जुलाई अंक में प्रकाशित)

टीकाकरण अभियान की सुस्त चाल और कुछ जायज सवाल-अजय बोकिल

अजय बोकिल
देश में कोविड 19 टीकाकरण महाभियान फिर हिचकोले खाने लगा है। इसके तीन कारण हैं। पहला तो मप्र सहित कई राज्यों में वैक्सीन का फिर टोटा पड़ गया है। भोपाल जैसे शहर में तीन दिनो से ज्यादातर सेंटरों पर लोग बिना वैक्सीन लगवाए ही लौट रहे हैं। क्योंकि कोई-सी भी वैक्सीन उपलब्ध नहीं है। दूसरे, राज्य में एक दिन में सर्वाधिक वैक्सीन लगवाने का जो रिकाॅर्ड बना, उसके फर्जीवाड़े भी उजागर होने लगे हैं। तीसरे, टीकाकरण रिकाॅर्ड बनवाने क्या लोगों को जबर्दस्ती टीका लगवाना सही है? यह सवाल इसलिए क्यों‍िक मेघालय हाई कोर्ट ने हाल में कहा कि जबरन टीकाकरण करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (जी) के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन है। आशय यह कि आप किसी को जबरन टीका नहीं लगा सकते, अगर वह इसके लिए सहमत नहीं है। 
पूरे मामले में संतोष की बात इतनी है कि जैसे भी हो, टीकाकरण अभियान पूरी तरह ठप नहीं हुआ है। असली समस्या समय पर टीका उपलब्ध कराने की है, जिसको लेकर मोदी सरकार की नीति-रीति पर पहले भी सवाल उठा है। वही सवाल अब भी है कि जब देश में टीकाकरण महाभियान छेड़ा गया तो जरूरत के मुताबिक और समय पर वैक्सीन उपलब्ध कराने की क्या कार्ययोजना थी? वैक्सीनेशन के पक्ष में सरकार ने खूब प्रचार किया। मीडिया और सामाजिक संगठनों ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। क्योंकि अभी भी कोरोना से बचने का वैक्सीन ही एक मा‍त्र उपाय है। शुरू में लोग वैक्सीन लगवाने से हिचक रहे थे, लेकिन जब व्यापक जागरूकता अभियान और कोरोना की तीसरी संभावित लहर के भय के चलते लोग वैक्सीन लगवाने सेंटरों पर पहुंचने लगे तो टीकों की कमी के कारण उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ रहा है। हालांकि इसे अस्थायी दिक्कत मानना चाहिए, लेकिन टीकाकरण को लेकर जोश का जो एक माहौल बना था, उस पर पानी पड़ गया है। इस मामले में राज्य सरकारें भी असहाय हैं। उन्होंने टीकाकरण की व्यापक व्यवस्थाएं कीं, लेकिन टीका उत्पादन और वितरण का जिम्मा केन्द्र सरकार के पास ही है। अभी भी केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डाॅ. हर्षवर्द्धन राज्यो के पास पड़े कोविड डोज के आंकड़े दे रहे हैं, लेकिन हकीकत में ज्यादातर सेंटरों पर वैक्सीन खत्म हो जाने की चर्चा से बच रहे हैं। 
दूसरी बात देश में रिकाॅर्ड टीकाकरण के आंकड़ों की है। विश्व योग दिवस पर मप्र सर्वाधिक 87 लाख टीके लगाने का दावा कर देश में अव्वल रहा। लेकिन यह रिकाॅर्ड कैसे और किस कीमत पर बना, इसकी हकीकत भी सामने आने लगी है। मीडिया रिपोर्टों में उजागर हुआ ‍िक कई फर्जी नामों से टीके लगे दिखा दिए गए हैं। कुछ लोगों को पता ही नहीं है कि उनके नाम से टीका लगाया जा चुका है। कहते हैं कोरोना वायरस हमारे इम्युन सिस्टम को चकमा देकर हमे संक्रमित कर देता है, लेकिन सरकारी तंत्र ने रिकाॅर्ड बनाने के चक्कर में पूरे‍ सिस्टम को जो चमका दिया  है, उसके आगे तो कोरोना भी हाथ जोड़ लेगा। वैसे सरकार ने कोविन के रूप में एक अच्छा ऐप तैयार किया है। लेकिन लोगों ने उसमें भी कलाकारी कर वैक्सीनेशन का रिकाॅर्ड बनवा दिया। इसका अर्थ यह नहीं है ‍िक पूरा ही फर्जीवाड़ा है। सही काम भी काफी हुआ है। लेकिन ऐसी घटनाएं पूरे महाभियान की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह जरूर लगाती हैं। यह भी सही है कि मप्र ने एक दिन में सर्वाधिक वैक्सीन का रिकाॅर्ड जरूर कायम किया, लेकिन उसके बाद इस काम में सुस्ती आ गई है। अगर 28 जून 2021 के राष्ट्रीय आंकड़े देखें तो पूरे देश में कुल 32 करोड़ 90 लाख से अधिक लोगों को वैक्सीन लगाई गई है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में मप्र का नंबर अभी भी 7 वां है। जबकि महाराष्ट्र 3 करोड़ 17 लाख टीकों के साथ पहले और यूपी 3 करोड़ 10 लाख टीकों के साथ दूसरे नंबर पर है। यूं तो इन राज्यों के वैक्सीनेशन आंकड़ों की प्रामाणिकता पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं। लेकिन फिलहाल हमे इसी पर भरोसा करना होगा। ऐसा नहीं है कि वैक्सीन की कमी से मोदी सरकार बेखबर है, लिहाजा दूसरी विदेशी वैक्सीनों  के आयात और भारत में ‍िनर्माण के लिए कोशिशें जारी है। स्पूतनिक वी के बाद अब माडर्ना कंपनी की वैक्सीन को अनुमति दे दी गई है। उधर सीरम इंस्टीट्यूट ने भी जुलाई से कोविशील्ड वैक्सीन उत्पादन बढ़ाकर 10 करोड़ डोज प्रतिमाह करने का काम शुरू कर ‍िदया है। इन सबके बावजूद देश में कोरोना की तीसरी लहर के संभावित आगमन के पहले देश की 80 फीसदी आबादी का वैक्सीनेशन पूरा होने की संभावना बहुत कम है। क्योंकि 32 करोड़ टीकों तक पहुंचने में ही हमे 164 दिन लगे हैं। अभी भी करीब सौ करोड़ आबादी को टीके लगना बाकी है। देश में वैक्सीन ड्राइव का हल्ला बनवाने हाल में सरकार ने एक प्रचार यह ‍िकया कि भारत में अमेरिका से ज्यादा टीके लगे। यह तुलना बेमानी है क्योंकि अमेरिका की कुल आबादी ही करीब 33 करोड़ है। वहां 46 फीसदी आबादी को दोनो डोज लग चुके हैं, हमारे यहां दोनो डोज का आंकड़ा महज 4 फीसदी है। 
वैक्सीनेशन महाभियान के बीच एक विचारणीय मुद्दा जबरन टीका लगाने या न लगवाने का है। इसमें जहां अंधविश्वास की बड़ी भूमिका है, वहीं यह व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के हनन का सवाल भी बन गया है। मेघालय सरकार ने सभी व्यवसायियों को अपना कारोबार दोबारा शुरू करने के लिए कोविड टीकाकरण अनिवार्य कर ‍िदया था। हाई कोर्ट ने इसका संज्ञान लेते हुए अपने फैसले में कहा कि कहा कि टीकाकरण आज की जरूरत है और कोरोना के प्रसार को फैलने से रोकने के लिए आवश्यक कदम है, लेकिन राज्य सरकार ऐसी कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, जो संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत निहित आजीविका के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो। यह संविधान में कल्याण के मूल उद्देश्य को प्रभावित करता है। बेहतर है कि सरकार वैक्सीन की उपयोगिता लोगों को समझाए। हालांकि कोर्ट ने वैक्सीन को लेकर भ्रम फैलाने की कड़ी आलोचना की। यह मामला मेघालय तक ही सीमित नहीं है। ऐसे ही एक मामले में गुजरात हाईकोर्ट ने जामनगर में तैनात भारतीय वायुसेना के एक कनिष्ठ अधिकारी को अस्थाई राहत दी थी। वायुसेना ने कोरोना टीका नहीं लगवाने पर कारपोरल योगेन्द्र कुमार को कारण बताअो नोटिस जारी कहा था कि क्यों न उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाए? जबकि योगेन्द्र का कहना था कि उसकी अंतरात्मा टीका लगाने  की अनुमतिक नहीं देती। उसका यह भी कहना था कि चूंकि वह कोरोना से बचने और इम्युनिटी बढ़ाने आयुर्वेदिक दवाएं ले रहा है, इसलिए टीका क्यों लगवाए? उधर उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में यूपी रोडवेज के अधिकारी ने आदेश निकाला कि वैक्सीन न लगवाने वाले कर्मचारियों को वेतन नहीं‍ मिलेगा। जिससे कर्मचारियों में हड़कंप मच गया। अमेरिका के ह्यूस्टन में वैक्सीन न लगवाने के कारण एक अस्पताल के 153 कर्मचारियों की नौकरी चली गई। 
अब सवाल यह कि क्या सरकार को महामारी रोकने के लिए उसका टीका लगाना अनिवार्य करने का कानूनी अधिकार है? जानकारों का कहना है कि 1897 के महामारी रोग अधिनियम की धारा 2 राज्य सरकारों को किसी भी महामारी को फैलने से रोकने के लिए वैक्सीन अनिवार्यता जैसे कड़े नियम बनाने के अधिकार देती है। साथ ही 2005 से लागू राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन क़ानून भी आपदा या महामारी के दौरान केंद्र सरकार को उसे रोकने की अथाह शक्ति प्रदान करता है। हालांकि सभी को टीका लगाने की कानूनन अनिवार्यता को लेकर बहुत स्पष्टता नहीं है। कुछ कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि  कोरोना जैसी घातक महामारी के मामले में व्यक्ति के मौलिक और निजता के अधिकार और स्वास्थ्य के अधिकार के बीच सामंजस्य बनाना जरूरी है। क्योंकि अगर किसी को टीकाकरण के लिए बाध्य करना भले सही न हो, लेकिन उस व्यक्ति के टीका न लगवाने  से दूसरे किसी व्यक्ति के संक्रमित होने का खतरा है। जबकि उस दूसरे व्यक्ति को भी स्वस्थ रहने का पूरा अधिकार है। हालांकि टीका लगवाना भी कोरोना से बचने की सौ फीसदी गारंटी नहीं है। फिर भी वो हमे एक मानसिक आश्वस्ति तो देता ही है और मानसिक आश्वस्ति भी शारीरिक स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण कारक है। सरकार को भी समझना होगा कि कोविड टीकाकरण जैसे महाभियान हर स्तर पर चुस्ती जरूरी है, तभी इसका अनुकूल नतीजा निकलेगा। महामारियों से लड़ना कोई राजनीतिक युद्ध नहीं होता। 
वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मध्य प्रदेश

सोशल साइट्स पर नकेल क्यों नहीं डाल पा रही सरकार-अजय बोकिल

अजय बोकिल 
विचारणीय स्थिति है। मोदी सरकार सोशल मीडिया खासकर ट्विटर जैसी सोशल साइट्स पर लगाम लगाने की कोशिश कर रही है, वही सत्तारूढ़ भाजपा में इस बात को लेकर चिंता है कि ट्विटर पर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के फालोअर्स क्यों बढ़ रहे हैं। इस बीच सरकार ट्विटर पर भारतीय कानून मानने के लिए दबाव बढ़ा रही है, लेकिन ट्विटर पर उसका कोई खास असर होता नहीं दिख रहा है। चार दिन पहले उसने हमारे देश के सूचना प्रसारण मंत्री रविशंकर प्रसाद का ही ट्विटर अकाउंट घंटे भर के लिए बंद करने दुस्साहस किया। हालांकि बाद में कंपनी ने अपनी सफाई में कहा कि ‘माननीय मंत्री का एकाउंट डीएमसीए की एक नोटिस की वजह से कुछ देर बाधित रहा और उस ट्वीट को रोक लिया गया। इस पर मंत्री रविशंकर प्रसाद का कहना था "ट्विटर की कार्रवाई इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी रूल्स, 2021 के नियम 4(8) का खुला उल्लंघन है।‘ लेकिन इस नाराजी का भी ट्विटर पर खास असर दिखाई नहीं दिया। उल्टे उसने हमारेनए आईटी कानून को ठेंगा दिखाते हुए एक अमेरिका निवासी व्यक्ति की भारत में ‘शिकायत निवारण अधिकारी’ के पद पर तैनाती कर दी। जबकि‍ नियम के मुताबिक उसे किसी भारतनिवासी व्यक्ति को ही इस पद पर नियुक्त करना था। और तो और उसने भारत के दो केन्द्र शासित प्रदेशों लद्दाख एवं जम्मू तथा कश्मीर को अलग देश और लेह को चीन का हिस्सा बता दिया। भारत सरकार द्वारा कड़ी चेतावनी के बाद उसे सुधारा गया। सवाल यह है कि जब ट्विटर बार-बार भारतीय कानूनों की अवहेलना और भारत सरकार की चेतावनियों को भी हल्के में ले रही है, तब सरकार उस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने से क्यों हिचक रही है? कौन से आंतरिक दबाव या आग्रह हैं, जो सरकार को सख्त कदम उठाने से रोक रहे हैं? क्या खुद सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा ट्विटर पर नमूदार होने का मोह रोक नहीं पा रहे हैं? या फिर कोई और कारण है? क्योंकि जब नाइजीरिया जैसा अफ्रीकी देश ट्विटर को चलता कर सकता है तो हमारी सरकार किस बात का इंतजार कर रही है?
इस बात में दो राय नहीं कि सोशल मीडिया साइट्स को भारतीय कानूनों को मानना ही चाहिए, क्योंकि बकौल सरकार यह हमारी ‘डिजीटल संप्रुभता’ का सवाल है। बावजूद इस आशंका के कि सोशल मीडिया पर नकेल से अभिव्यक्ति की आजादी के लोकतांत्रिक अधिकार पर खतरा है। इसी में यह सवाल भी ‍निहित है कि क्या ऐसे कानूनों को मनवाने की इच्छाशक्ति और ताकत हममे है या नहीं? अगर नहीं है तो फिर बेकार की हवाबाजी करने का कोई अर्थ नहीं है। 
यह सही है कि सोशल मीडिया साइट्स की नसबंदी के लिए भारत सरकार ने जो कानूनी प्रावधान किए हैं, वैसी कानूनी कोशिशें कई देशों में हो रही हैं। क्योंकि दुनिया भर में सोशल मीडिया एक समांतर सत्ता के रूप में खड़ा हो और देशों की सम्प्रभुता के लिए चुनौती बने, इसे कोई भी स्वीकार नहीं करेगा। ऐसे कानून दुनिया के कई लोकतां‍त्रिक देशों में पहले से लागू हैं। सोशल मीडिया साइट्स की निरंकुशता को खतरा मानते हुए भारत सरकार ने भी नए सूचना प्रौद्योगिकी कानून 26 मई 2021 से लागू किए। इससे सोशल मीडिया कंपनियां थोड़ी परेशानी में जरूर आई हैं। उन्हें को डर है कि नए कानून के तहत प्रशासन जब चाहे तब उनकी नकेल कस सकता है, जैसे कि अशांत क्षेत्रों अथवा कानून व्यवस्था बिगड़ने पर इंटरनेट बंद करने के रूप  में होता है। दूसरी तरफ एक वर्ग इसे सोशल मीडिया यूजर्स की निजता पर चोट और ऐसी टेक कंपनियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमों के बढ़ते खतरे के रूप में देखता है।  
पिछले दिनो बीबीसी हिंदी में छपी एक रिपोर्ट में बताया गया कि कई देशों में ट्विटर जैसी साइट्स पर पक्षपात के आरोप लगे हैं। जर्मनी, तुर्की, ब्राजील और यहां तक कि लोकतंत्र के सबसे बड़े झंडाबरदार अमेरिका में भी ट्विटर व अन्य सोशल साइट्स पर शिकंजा कसा जा रहा है। क्योंकि कई लोकतांत्रिक देशों में नेताअो ने यह ‍िशकायत की थी कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म जरूरत से ज्यादा ताकतवर होते जा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये प्लेटफार्म जनमत को प्रभावित या संचालित करने की जबर्दस्त ताकत हासिल कर चुके हैं, जिससे राजनीतिक सत्ताएं हिलने लगी हैं। जर्मनी ने 2017 में नेटवर्क इंफोर्स्मेंट लॉ कानून लागू किया। कट्टर लोकतंत्रवादियों ने इसे ‘कुख्यात कानून’ की संज्ञा दी। इस कानून के तहत 20 लाख से अधिक पंजीकृत जर्मन यूज़र्स वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को कंटेंट पोस्ट किए जाने के 24 घंटों के भीतर अवैध सामग्री की समीक्षा करनी होगी और उसे हटाना होगा या 5 करोड़ यूरो तक का जुर्माना भरना होगा। उधर यूरोपीय आयोग भी वर्तमान में एक डिजिटल सेवा अधिनियम पैकेज के लिए एक बिल तैयार कर रहा है। 
यहां मुद्दा यह है कि क्या विभिन्न देशों में  सोशल मीडिया प्लेटफार्म के खिलाफ लागू कड़े कानून वास्तव में प्रभावी हो पाते हैं या नहीं? या यह केवल बेकार की या अधूरे मन से की जानी वाली कवायद है? अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ‍ट्विटर जैसे प्लेटफार्म्स पर निष्पक्ष न होने का खुला आरोप लगाते हुए एक कार्यकारी आदेश जारी किया था। ट्रंप ने कहा था, "ट्विटर जब संपादन, ब्लैकलिस्ट, शैडो बैन करने की भूमिका निभाता है, तो वो साफ़ तौर पर संपादकीय निर्णय होते हैं। ऐसे में ट्विटर एक निष्पक्ष सार्वजनिक प्लेटफार्म नहीं रह जाता और वे एक दृष्टिकोण के साथ संपादक बन जाते हैं। ट्विटर ने इस आदेश को ‘प्रतिक्रियावादी और राजनीतिक दृष्टिकोण बताते हुए कहा कि अमेरिका में पहले से लागू #Section 230 अमेरिकी नवाचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है, और यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है। इसे एकतरफा रूप से मिटाने का प्रयास ऑनलाइन स्पीच और इंटरनेट स्वतंत्रता के भविष्य के लिए खतरा है। बाद में ट्रंप राष्ट्रपति पद का चुनाव हार गए और ट्विटर और फेसबुक ने ट्रंप के अकाउंट बंद कर ‍िदए। दोनो कंपनियां का कुछ खास नहीं‍ बिगड़ा। ब्रिटेन की सरकार ने पिछले साल दिसंबर में मीडिया की रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़कॉम को सोशल मीडिया का भी रेगुलेटर नियुक्त किया। लेकिन उसने भी  सोशल मीडिया या इंटरनेट को सेंसर करने से इंकार कर दिया। आॅफकाॅम ने कहा कि अभिव्यक्ति की आज़ादी इंटरनेट की जान है और हमारा लोकतंत्र, हमारा आदर्श और हमारा आधुनिक समाज इसी पर टिका है।
ध्यान रहे कि भारत में नए आईटी कानून के तहत अब नियमों का उल्लंघन करने पर सोशल मीडिया कंपनियों पर आपराधिक प्रकरण कायम किया जा सकेगा। उसे धारा 79 के तहत मिली सुरक्षा नहीं मिलेगी। यूपी में एक मामले में एक प्रकरण दर्ज भी हो चुका है। इसके बाद भी ट्विटर जैसी माइक्रो‍ब्लाॅगिंग साइट्स पर कोई खास असर होता नहीं दिख रहा। भारत में कंपनी के‍ ‍िशकायत निवारण अधिकारी के पद पर गैर भारतीय को नियुक्त कर उसने टकराव का नया मोर्चा खोल दिया है। भारत सरकार  इस पर क्या कार्रवाई करती है, यह देखने की बात है। जबकि ट्विटर की कार्रवाई में यह संदेश निहित है कि वह भारतीय कानूनो का पालन करने के बजाए अपने ही नियम कायदों  को मानने में ज्यादा भरोसा रखती है।  
प्रश्न यह है कि ये सोशल मीडिया कंपनियां इतनी ताकतवर कैसे हो जाती हैं, उन्हें यह शक्ति कहां से मिलती है? इसका उत्तर यही है कि यह ताकत उन्हे जनता यानी अपने यूजरों से ‍िमलती है। यही कारण है कि दुनिया में कई जगह जनआंदोलन खड़ा करने, विरोध प्रदर्शन और हिंसा में इस साइट्स का बड़ा योगदान रहा है। इस बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि स्मार्ट फोन्स की वजह से दुनिया में अब ऐसी पीढ़ी सक्रिय है, जो इंटरनेट के माध्यबम से एक दूसरे से जुड़ी है तथा इसी के जरिए अपनी बात कहने में भरोसा करती है। उस पर विश्वास करती है। हालांकि यह भी एक तरह का अंधविश्वास ही है। इसीलिए हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने साफ कहा कि नई टैक्नाॅलाजी का मतलब यह नहीं हो सकता कि दूसरे यह तय करें कि हमे हमारी जिंदगी कैसे जीनी है।‘   
जानकारों के मुताबिक ये डिजीटल पावर कंपनियां विभिन्न देशों में सत्ताअों को तीन प्रकार से नियंत्रित करती हैं। यानी आर्थिक पावर, प्रौद्योगिकी पावर और राजनीतिक पावर। ये तीनो सत्ताएं भी एक दूसरे से सम्बन्धित और परस्पर आश्रित होती हैं। यानी टैक्नोलाॅजी की सत्ता के दम पर आर्थिक व राजनीतिक सत्ता पर कब्जा किया जा सकता है, ये कंपनियां यही करने की कोशिश कर रही हैं। यानी जिसके पास जितने ज्यादा यूजर्स जनमत बनाने, बिगाड़ने की उसकी उतनी ज्यादा पावर। शायद यही प्रलोभन राजनीतिक दलों और नेताअों को ललचाता है। हमारे देश में वो सोशल मीडिया का विरोध करते हुए भी इसका मोह नहीं छोड़ पाते। दरअसल वो इसका सिलेक्टिव इस्तेमाल चाहते हैं। यानी उनके पक्ष में या उन्हें मजबूत करने वाली बातें तो सोशल मीडिया में खूब उछलें लेकिन उन पर उंगली उठाने वाली या बदनाम करने वाली बातों को ‘अनैतिक’ अथवा दुर्भावना से प्रेरित कहकर ब्लाॅक या डिलीट कर दी जाएं। अर्थात यहां व्यक्ति, दल या विचारधारा के विरोध और देश के विरोध में बहुत महीन फर्क है। ‘इन्फर्मेशन’ और ‘मिसइन्फर्मेशन’ की व्याख्या भी अपनी सुविधा से होना है। जब तक यह चालाकी चलेगी, तब तक सरकार ट्विटर जैसी साइट्स का कुछ खास बिगाड़ पाएगी, ऐसा नहीं लगता। 
वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मध्य प्रदेश

Monday, June 28, 2021

ज़िम्मेदारी-डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

  लघुकथा  

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
अभी श्याम ऑफ़िस से लौटा ही था कि उसकी पत्नी रेनू उस पर बिलबिला उठी- "सुनो जी! आज मैंने तुम्हारी पासबुक देखी है। पिछले एक साल से हर महीने दस हज़ार रुपये किसे ट्रान्सफर कर रहे हो? सच-सच बता दो।" "अरे वो मम्मी-पापा आजकल काफ़ी परेशान रहते हैं। दोनो बीमार चल रहे हैं और इधर कुछ मकान का भी लफड़ा है।" रेनू ने झगड़ने के अंदाज़ में कहा- "यह बकवास मुझे नहीं सुननी। तुम्हीं ने ठेका ले रखा है क्या इन बुड्ढों का। और दूसरे बेटों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है क्या!" "हा, जब उनके बेटे अपनी ज़िम्मेदारी से मुकर गये हैं, तो मेरी ही ज़िम्मेदारी बनती है।" "मतलब", "मतलब यह कि मैं तुम्हारे मम्मी-पापा की बात कर रहा हू। मेरे पापा तो पेंशनर हैं। हर महीने मुझे ही कुछ न कुछ देते रहते हैं। रेनू का चेहरा खिलखिला उठा और एक साँस में बोल गयी- "ओह श्याम! मेरे जानू! कितने अच्छे हो तुम! बैठो न! बहुत थके लग रहे हो। मैं अभी कॉफ़ी बनाकर लाती हूँ।"

सम्पर्क:
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)
पिनकोड- 212601
वार्तासूत्र : 9839942005
ई-मेल : doctor_shailesh@rediffmail.com


पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

सबसे ज्यादा जो पढ़े गये, आप भी पढ़ें.