साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Sunday, June 06, 2021

एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों के 'ईडब्ल्यूएस आरक्षण' पर उठने लगे गंभीर सवाल और साबित होने लगे आरोप- नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एक विमर्श

विडंबना:उप मुख्यमंत्री और उच्च शिक्षा मंत्री डॉ.दिनेश शर्मा (प्रोफेसर) राज्य विश्वविद्यालयों में भर्ती विज्ञापनों को देखकर इस विषय पर विचार करने की बात कह रहे हैं!


उच्च शिक्षा में ईडब्ल्यूएस में शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया और कानूनों-मानकों की अनदेखी की आड़ में घोटाला करते विशेष वर्ग के शिक्षाविद

N.L.Verma 



         कपिलवस्तु-सिद्धार्थ नगर स्थित सिद्धार्थ विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग की एकमात्र रिक्ति पर राज्य के बेसिक शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. सतीश चंद्र द्विवेदी के भाई डॉ. अरुण कुमार द्विवेदी की ईडब्ल्यूएस(आर्थिक रूप से निर्बल सामान्य वर्ग) आरक्षण के तहत असिस्टेंट प्रोफेसर के पद हुई नियुक्ति का प्रकरण सोशल मीडिया और विपक्षी राजनैतिक गलियारों में शोर-शराबा मचने के बाद अपने भाई की राजनैतिक छवि बचाने की दुहाई देते हुए डॉ. अरुण द्विवेदी ने अपरिहार्य कारण का उल्लेख करते हुए कार्यभार ग्रहण करने के कुछ दिनों के बाद इस्तीफ़ा देकर प्रकरण का पटाक्षेप करने का प्रयास किया था। सोशल मीडिया से लेकर राजनैतिक विपक्षियों के ख़ेमे में भाई की नियुक्ति में विश्वविद्यालय और जिला प्रशासन के साथ भाई मंत्री  की संलिप्तता को उजागर कर उनके मंत्रित्वकाल काल मे खरीदी गई अचल संपत्तियों का भी खुलासा होने में देर नही लगी। ईडब्ल्यूएस प्रमाणपत्र बनाने से लेकर नियुक्ति और कार्यभार ग्रहण करने तक विश्वविद्यालय स्तर पर ईडब्ल्यूएस के मानदंडों की जानबूझकर जो अनदेखी और अनियमितता हुई हैं, सभी स्तरों पर बिंदुवार न्यायिक जांच का विषय है। ईडब्ल्यूएस के मानकों की जानबूझकर अनदेखी और शिथिलीकरण संविधान का उल्लंघन मानकर प्रकरण की प्रत्येक संलिप्त और दोषी को दंडित किया जाना बहुत जरूरी है जिससे कानून कायदों की आड़ में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने की दिशा में कारगर सिद्ध हो सके।अन्यथा ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मानकों की आड़ में विश्वविद्यालयों में बैठे जातीय घाघों का यह सिलसिला चलता रहेगा और गरीब लोगों का आरक्षण ऐसे छुपे भेड़िये गटकते रहेंगे।

         द्विवेदी भर्ती प्रकरण के बाद ईडब्ल्यूएस आरक्षण में क़ायदे-कानूनों के पालन में जानबूझकर की जा रही अनदेखी, अनियमितताओं और उपेक्षाओं पर ध्यानकेंद्रित होना शुरू हुआ है।दरअसल, ओबीसी,एससी और एसटी के तथाकथित शिक्षित और नौकरीपेशा तक के लोगों को  ईडब्ल्यूएस के मानकों की जानकारी नही है तो फिर वे ईडब्ल्यूएस आरक्षण में हुई अनियमितताओं पर सवाल और आपत्तियां कैसे कर सकते है? विडंबना देखिए सामान्य वर्ग के निर्बल वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के आरक्षण पर सवाल,आपत्तियां और कानूनी लड़ाई लड़ने वाला याचिकाकर्ता डॉ. एनके पाठक सामान्य वर्ग से ही ताल्लुक़ रखते हैं। उनका कहना है कि एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर बांछित सेवाकाल अनुभव वाला ईडब्ल्यूएस आरक्षण की परिधि में आय के दृष्टिकोण से कैसे आ सकता है? सातवें वेतन आयोग की अनुशंसा के आधार पर असिस्टेंट प्रोफेसर का मूल वेतन ₹57700 है।इस पर निर्धारित दर से डीए और एचआरए शामिल करते हुए नवनियुक्त को लगभग ₹75000 मासिक वेतन मिलता है, तो एसोसिएट प्रोफेसर पद पर आवेदन करने के लिए आठ साल और प्रोफेसर पद के लिए दस साल की सेवा काल की अनिवार्यता पूरी करने वाला अभ्यर्थी ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मानकों की परिधि में कैसे आ सकता है? ईडब्ल्यूएस को परिभाषित और मानक तय करते समय केंद्र सरकार की अधिसूचना के हिसाब से अभ्यर्थी के "परिवार" की समस्त स्रोतों से "वार्षिक आय आठ लाख रुपये" से अधिक नही होनी चाहिए।अधिसूचना में परिवार को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अभ्यर्थी के परिवार में "वह स्वयं,उसकी पत्नी/पति और उसके माता-पिता" को शामिल कर उस परिवार की कुल वार्षिक आय की गणना की जाएगी जो अन्य निर्धारित मानकों के साथ आठ लाख रुपये से अधिक नही होनी चाहिए।

          प्रदेश के राज्य विश्वविद्यालयों में होने वाली भर्तियों में "एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर " के पदों पर सरकार द्वारा सामान्य वर्ग के 'ईडब्ल्यूएस को दिए जाने वाले 10% आरक्षण' में आय संबंधी मानकों की जानबूझकर की जा रही अनदेखी और भर्ती प्रक्रिया पर गंभीर सवाल और आरोप लगना शुरू हो गए हैं, क्योंकि एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर भर्ती के लिए वांछित अनिवार्य सेवाकाल (असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर क्रमशः आठ और दस साल) का अनुभव रखने वाले अभ्यर्थी और उसके परिवार की वार्षिक आय ईडब्ल्यूएस के मानक की परिधि में नही आ सकती है अर्थात वह आरक्षण का हकदार कैसे हो सकता है? एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पद पर आवेदन की अनिवार्य शर्त है कि उसने असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कम से कम क्रमशःआठ साल और दस साल तक  अध्यापन कार्य या इसके समकक्ष पद पर किसी संस्थान में आठ/दस साल तक शोध कार्य कार्य किया हो।

            सातवें वेतन आयोग की अनुशंसा के अनुसार असिस्टेंट प्रोफेसर या उसके समकक्ष पद पर आठ /दस साल तक कार्य करने वाले व्यक्ति का वेतन इतना हो जाता है कि उसके ईडब्ल्यूएस में आने की कोई गुंजाइश या संभावना ही नही रह जाती है।ईडब्ल्यूएस आरक्षण का विवाद तब तूल पकड़ा जब राज्य विश्वविद्यालयों ने एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर भर्तियों के लिए विज्ञापन जारी कर दिए।दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय गोरखपुर ने 6 मई,2021 को, जिसकी आवेदन करने की अंतिम तारीख सात जून है,ईडब्ल्यूएस आरक्षण में असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों के साथ एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों को भी विज्ञापित कर दिया। इससे पहले इसी तरह सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु-सिद्धार्थनगर ने भी ईडब्ल्यूएस आरक्षण में तीनों पदों पर भर्ती विज्ञापन जारी कर दिया था।यह सब अनजाने या ग़लतफ़हमी में नही हुआ बल्कि,उच्च शिक्षा जगत में लंबे समय से कब्जा जमाए बैठे एक विशिष्ट वर्ग की सोची-समझी साजिश और दूरगामी रणनीति के तहत जानबूझकर अनदेखी करने का षडयंत्र रचा गया प्रतीत होता है।सिद्धार्थ विश्वविद्यालय ने बाकायदा इन रिक्तियों पर भर्ती प्रक्रिया तक पूरी कर डाली थी।हांलाकि इस विज्ञापन के ईडब्ल्यूएस आरक्षण के पद नही भरे जा सके थे।लखनऊ विश्वविद्यालय में अभी रिक्तियों पर भर्ती प्रक्रिया ही शुरू नही हुई है।लखनऊ स्थित मोइनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय में तो असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर ईडब्ल्यूएस आरक्षण में एक नियुक्ति तक हो चुकी है।

लखीमपुर-खीरी (यूपी) 9415461224,8858656000

सोशल मीडिया पर केंद्र की नजर

साभार,दैनिक भास्कर

जेल परिसर में हो रही आपराधिक गतिविधियों/घटनाओं/हत्याओं में जेल प्रशासन की लापरवाही और संलिप्तता से नकारा नही जा सकता- नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एक विमर्श- 

 

“लापरवाही व अपराधिक घटनाओं का केंद बनता जा रहा है जेल परिसर, ऊंची-ऊंची दीवारों के भीतर पनपते संगठित/संस्थागत "अपराध और भ्रष्टाचार" की असलियत को समझना आसान नही है, जेलों की ही तरह अन्य सरकारी संस्थाओं में भी इसी तरह अपराध और भ्रष्टाचार का आलम बदस्तूर जारी है।”

 

नन्द लाल वर्मा

            किसी ज़माने में अपराधियों के लिए जेलें सबसे सुरक्षित दरगाह जैसी मानी जाती थी। इसलिए  जेल से बाहर जब कोई अपराधी पुलिस या अपने दुश्मन से अपने को असुरक्षित महसूस करता था तो वह किसी पुराने केस की  जमानत कटवाकर या दफा 25/ या शांति भंग जैसे छोटे- मोटे नए अपराध में चालान करवाकर जेल चला जाता था और जेल में आराम से सुरक्षित जिंदगी जीता था। जेल के अंदर एक नई प्रकार की पूरी दुनिया बसती है और उस दुनिया की भी अपनी एक आंतरिक व्यवस्था और अर्थव्यवस्था है जिसे जेल के संतरी से लेकर मंत्री तक बड़े मनोयोग से चलाते हैं।इस अर्थव्यवस्था में एक खास वेशभूषा में रह रहे कैदियों/सज़ायाफ्ताओं की सक्रिय भूमिका होती है और इन्हीं में से पढ़े लिखे लोगों को लिखा-पढ़त का काम दे दिया जाता है।इन्हें जेल की प्रचलित भाषा मे राइटर (लेखक) कहा जाता है।अन्य निरुद्ध अभियुक्तों/कैदियों में इन राइटर्स का अलग रुतबा होता है क्योकिं राइटर्स अन्य जेल कर्मचारियों की तरह ही अनऑफिशियल लिपिकीय कार्य करते हैं।राइटर्स जेल की व्यवस्था और अर्थव्यवस्था के अभिन्न की तरह होते हैं।इसलिए इनको अन्य निरूद्ध लोगों की तुलना में विशेष रियायतें और सहूलियतें मिल जाती हैं और जेल के अंदर स्वतंत्र और आसान जिंदगी जीते हैं।जेल प्रशासन की तरफ से इनके द्वारा सम्पन्न लिपिकीय कार्य के बदले निर्धारित पारिश्रमिक भी दिया जाता है। कुछ लोग तो इस पारिश्रमिक की अच्छी खासी रकम अपने परिवारों को भी भेज देते हैं और कुछ लोग इस पारिश्रमिक राशि के प्रलोभन और जेल कर्मियों की निकटता और प्रेम के कारण जेल से छूटने के बाद छोटे मोटे अपराध में जानबूझकर चालान कटवाकर जेल ही रास आती है।  देश के टैक्स सिस्टम की तरह जेल का भी अपना टैक्स सिस्टम काम करता है।इस सिस्टम द्वारा निरुद्ध अभियुक्तों से जो भी राजस्व वसूली होती हैं उसका आबंटन केंद्र और राज्य सरकार की भांति संतरी से लेकर मंत्री तक बजटरी सिस्टम से होता है। जब कभी कभार जेल के भीतर शातिर अपराधी कोई बड़ी घटना को अंजाम देता है तो जेल और जिला प्रशासन से लेकर शासन द्वारा निलंबन जैसी कार्रवाई कर घटना की जांच हेतु कोई कमिटी या आयोग बनाकर उत्तरदायित्व निर्वहन की इति श्री कर दी जाती है।धन-दौलत या राजनैतिक सत्ता की बदौलत जेल में निरूद्ध व्यक्ति को जेल में किसी भी प्रकार की दिक्कत नही होती है।सारी व्यवस्था जेल प्रशासन के जिम्मेदारों की मिलीभगत और उनकी निगरानी में होता है और यह बात स्थानीय सत्ताधारी नेताओं, जिला प्रशासन और न्यायपालिका के भी संज्ञान में होता है और व्यवस्था का हर अंग जेल की इस अर्थव्यवस्था से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लाभान्वित होता है। जेल प्रशासन द्वारा यहां हर सुख-सुविधा की कीमत तय है।कीमत का भुगतान करिए और जेल के अंदर ऐश करिए।


           शासन और प्रशासन द्वारा समय समय पर जेल की व्यवस्था का निरीक्षण होने के बावजूद जेल के भीतर हो रही आपराधिक गतिविधियां और गैंगवार हत्याएं जैसी घटनाओं में  शासन/प्रशासन की लापरवाही या संलिप्तता से इनकार नही किया जा सकता है। जेल के बाहर की तरह ही पेशेवर अपराधियों का साम्राज्य जेल के अंदर भी बेखौफ़ चलता है।जिस प्रकार कोई व्यक्ति तब तक पेशेवर अपराधी नही बन सकता जब तक कि स्थानीय सत्ताधारियों या पुलिस का सरंक्षण प्राप्त न हो।ठीक उसी तरह जेल कर्मियों की संलिप्तता के बिना जेल के भीतर पेशेवर अपराधियों की गुंडागर्दी, विदेशी हथियारों से गैंगवार हत्याओं और रंगदारी वसूली को अंजाम नही दिया जा सकता है और इस काम के लिये अच्छी खासी मनमानी कीमत चुकानी पड़ती होगी।पेशेवर अपराधियों द्वारा जेल के भीतर हो रही बेधड़क दारू-मुर्गा की पार्टियों के वायरल वीडिओज़ से स्पष्ट है कि पेशेवर और पैसे वालों के लिए जेल के अंदर और बाहर की दुनिया में कोई फर्क नहीं है।बल्कि,जेल के अंदर वे अपने को ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते होंगे।


          जेल परिसरों में आजकल कैंटीन सुविधा भी संचालित है जिसमें खाने-पीने की चीजें उपलब्ध रहती हैं।लेकिन इस कैंटीन में चीजों की कीमत एमआरपी जैसे सरकारी नियमों से नही,बल्कि जेल के खुद के अर्थशास्त्र के हिसाब से तय होती हैं।शासन द्वारा निर्धारित मानदंडों पर निरूद्ध लोगों को भोजन और नाश्ते की व्यवस्था होती है।लेकिन जिस क्वालिटी और क्वांटिटी का भोजन और नाश्ता दिया जाता है, उस पर आए दिन अपराधियों द्वारा मचाए जाने वाले बवालों की खबरें सुनने में आती रहती हैं।इससे लगता है कि जेल की रसोई भी भ्रष्टाचार से अछूती नहीं है। निरूद्ध अभियुक्तों/ कैदियों के सामान्य इलाज के लिए जेल में अस्पताल की भी व्यवस्था होती है। वहाँ भी पैसे वाले लोग इलाज के नाम पर अस्पताल की सुविधाएं भोगते हैं।क्योंकि जेल की सामान्य बैरकों की तुलना में अस्पताल साफ-सुथरा और स्पेशियस होता है और डॉक्टर के परामर्श पर उसकी डाइट भी  इलाज के नाम पर सामान्य अभियुक्तों के भोजन से बेहतर मिल जाती है।कुछ जेलों के पास कृषि भूमि भी है जिस पर जेल प्रशासन बन्द अभियुक्तों/क़ैदियों से खेती कराकर भरपूर मात्रा में अनाज़ और सब्जी पैदा कराते हैं।इस अनाज़ और सब्जी को जेल में बंद लोगों के भोजन में प्रयोग करने के अतिरिक्त चुनी हुई दिखने में सुंदर और बेदाग सब्जियां जेल कर्मियों के घरों की किचन की शोभा,खुशबू और स्वाद का हिस्सा बनकर धन्य हो जाती हैं।जेल कर्मियों के स्तर के हिसाब से जेल की राशन सामग्री भी उनके घरेलू उपयोग हेतु वितरण की व्यवस्था भी है,ऐसा सुना और देखा भी गया है।


           किसी का कोई मित्र या रिश्तेदार यदि जेल में बन्द है और वह उनसे मुलाकात करने जाता है तो निरुद्ध व्यक्ति से जेल की पूरी हकीकत पता लगाई जा सकती है।एक दिन में जितनी मुलाकातें होती हैं, जेल में निरूद्ध व्यक्ति से एक निर्धारित रकम वसूले जाने का पुख़्ता बंदोबस्त होता है।जो निर्धारित रकम देने में आनाकानी या मजबूरी व्यक्त करता है उसे उसका दंड दूसरे प्रकार से झेलना पड़ता है।विशेष सुविधाओं के लिए विशेष रकम का सामयिक भुगतान की व्यवस्था अलग से है।जैसी सुविधा वैसा भुगतान करिए और जेल में भी उसी रुतबे और गुंडई से राज करिए जैसा जेल के बाहर करते रहे हो।इसी रुतबे और गुंडई की उपज है, जेल में रही अनवरत सुनियोजित गैंगवार हत्याएं। जेल के भीतर हो रही हत्याएं भी गैंगवॉर हत्याओं का ही रूप हैं। जेल परिसर में हो रहे अपराधों में जेल प्रशासन की और जेल के बाहर हो रहे अपराधों में स्थानीय पुलिस प्रशासन और सत्ताधारियों की संलिप्तता से इनकार नही किया जा सकता है। बस हत्याओं का स्थान बदला हुआ होता है।जेल के भीतर और बाहर पनप रहे गैंग्स,अपराधों और हत्याओं के लिए जिम्मेदार कौन है?केवल निलंबन या लाइन हाज़िर करने से पेशेवर गुंडागर्दी और हत्याएं नही रुकने वाली हैं।जिस थाना क्षेत्र और जेल परिसर में आपराधिक गतिविधियां और हत्याएं होती हैं, वहां के जिम्मेदार लोगों के ऊपर भी उस अपराध के लिए अपराधियों के समान ही दोषी मानकर उनके ऊपर भी कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए।

लखीमपुर-खीरी (यूपी)

Saturday, June 05, 2021

वर्चुअल रैली (लघुकथा संग्रह) एक समीक्षा-संध्या तिवारी

लघुकथा संग्रह का नाम- वर्चुअल रैली

लेखक का नाम- सुरेश सौरभ

किताब का मूल्य -160/-(पेपर बैक)

250/-(हार्ड बान्ड)

प्रकाशन- इन्डिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड, नोएडा-201301

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सुरेश सौरभ जी की इकहत्तर लघुकथाओं का संग्रह वर्चुअल रैली मुझे तकरीबन दस दिन पहले मिला। मैं पापा की डेथ के कारण माँ के घर में थी यह किताब मेरे पीछे आई हुई रखी थी । मैंने इसे सत्ताइस तारीख को खोला लेकिन मैं अपने मन की उथल-पुथल के कारण इस पर मंथन का मन नहीं बना सकी ।

 अब जाकर कुछ स्थिर हुई हूं तब इस किताब पर कुछ लिखने का साहस जुटा पा रही हूं।

सबसे पहले तो पुस्तक के लेखक को बहुत साधुवाद कि यह किताब उन्होंने उन "कोरोना के शहीदों" को समर्पित की है, जिनकी मृत देह तक सम्मान न पा सकी उन्हें सम्मान देने से ज्यादा बड़ा काम और क्या होगा? इससे ज़्यादा कठिन और क्रूर समय मानव अपने जीवन में क्या ही देख पायेगा।

 अब बात करते हैं सुरेश सौरभ जी लघुकथाओं की, तो उन्होंने खुद ही अपनी "छोटी तहरीर" में कहा है कि "हर लघुकथाकार की यह कोशिश रहती है कि वह बड़ी से बड़ी बात को कम से कम शब्दों में इस तरह सजा कर कह जाये कि पाठक के मुंह से अनायास ही निकल पड़े अरे वाह...क्या बात है...।"  उनकी प्रत्येक लघुकथा में "अरे वाह... क्या बात है" जैसे अंत तो हैं परन्तु उनकी धार उतनी तीक्ष्ण नहीं जितनी कि होनी चाहिए। फिर भी वह अपनी लघुकथाओं में बहुत कुछ कह पाये है इसके लिए उन्हें पाठकों की सदाशयता अवश्य प्राप्त होगी।

सुरेश जी ने अपनी लघुकथाओं में बोलचाल की भाषा को स्थान दिया है इस कारण सामान्य पाठक वर्ग इनको सिर आंखों पर लेगा इसमें सन्देह नहीं। वाक्य-विन्यास सरल है और आम व्यक्ति की रोजमर्रा की घटनाओं से जुड़े हुए हैं जिससे कि पाठकों  को सुरेश जी के लिखे में तनिक भी कठिनाई का अनुभव नहीं होना चाहिए। यही इस किताब की सबसे बड़ी सफलता मानी जानी चाहिए।

 लघुकथा संग्रह की शीर्षक कथा "वर्चुअल रैली" अनुक्रम में सातवें नम्बर पर है जिसमें कि "कोरोना के कारण मजदूरी न मिलने से नायक दुःखी बैठा है  बेटा वर्चुअल रैली के बारे में बार बार पूछता है वर्चुअल रैली के कारण मजदूरी न मिलने से परेशान पिता बेटे की पिटाई लगा देता है बच्चे की मां जब गुस्से से पति की डांट लगाती है तो वह गुस्से में भरकर कहता है कि उसने बेटे को नहीं वर्चुअल रैली को चांटा मारा है।"

 इसी प्रकार लघुकथा एक हाथी की चिट्ठी भी सम्वेदनशील बन पड़ी है । संग्रह की इकहत्तर लघुकथाएं एक ही बैठक में पढ़ी जा सकती हैं। लगभग सभी कथायें अपने में  क्षमतावान बन पड़ी हैं। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से घटनाएं उठाकर लघुकथाएं बुनी गई हैं।

बुनावट बहुत गझिन न सही परंतु आसपास के वातावरण में व्याप्त नकारात्मकता को लेखक का मन कितनी करुणा से भर जाता है जिसके लिए कि उसे कलम का हथियार उठाना पड़ा यह देखना तो बनता ही है। संग्रह की लघुकथाएं पाठक स्वयं पढ़कर निर्णय करेंगे तो अच्छा होगा...।

 सुरेश सौरभ जी उत्तरोत्तर नित नया सृजन करें मेरी उनके लिए बहुत सारी शुभकामनाएं हैं।

 

-संध्या तिवारी

पीलीभीत उत्तर प्रदेश

जातीय ऊँच-नीच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के दो छोरों/सिरों के बीच की प्रेम कहानी-(नन्दलाल वर्मा)

"औरत की कोई जात नहीं होती" कहानीकार-विपिन बिहारी (जातीय ऊँच-नीच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के दो छोरों/सिरों के बीच की प्रेम कहानी)....

नारी-विमर्श (नन्दलाल वर्मा एसोसिएट प्रोफेसर) 

नन्द लाल वर्मा


कहानी-समीक्षा

    कहानीकार श्री विपिन बिहारी की  "डिप्रेस्ड एक्सप्रेस" के अप्रैल अंक में प्रकाशित उपर्युक्त शीर्षक की कहानी पढ़ी जिसमें अंतरजातीय विवाह के सामाजिक सरोकारों को झकझोरने के साथ छद्म आम्बेडकरवादियों की बेहतरीन मनोरंजक विधाओं/कथानकों के माध्यम से पोल खोलने का सटीक प्रयास किया गया है।कहानी जातीय ऊँच-नीच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के दोनों छोरों/सिरों की कलई खोलती नज़र आती है।कहानी अत्यंत रोचकता और रोमांचकता के साथ सहज रूप से पठनीय है।इस कहानी में एक तथाकथित ब्राम्हण की लड़की (शालिनी) और एक दलित लड़का सुभाष के साथ कॉलेज अध्ययन के दौरान दोनों के बीच मानवीय संवेदना और आकर्षण की वजह से एक दूसरे की जाति जाने बगैर प्रेम हो जाता है। सुभाष पढ़ने में प्रखर और शारीरिक रूप से भी गठीला व सुंदर है और शालिनी भी किसी मामले में सुभाष से कमतर नही है। शालिनी के पास एक मानवतावादी और वैज्ञानिक आधुनिक सोच-समझ और निर्णय लेने की क्षमता और साहस है।ब्राम्हण परिवेश/पृष्ठभूमि में पैदा और पली-पढ़ी-बढ़ी शालिनी समाज और धर्म की आड़ में चल रही शोषणकारी कुरीतियों और आडंबरों की पोल-पट्टियों को भी अच्छी तरह समझती है।


          शालिनी द्वारा सुभाष के सामने विवाह प्रस्ताव आने पर एक दूसरे की सामाजिक पहचान का खुलासा होता हैं।सुभाष सामाजिक जातीय भेदभाव- संकटों की ओर आगाह करते हुए कहता है कि भारतीय समाज में विवाह के लिए प्रेम ही काफी नही है, जाति सबसे जरूरी है।यहां विवाह लड़का-लड़की के बीच ही नही होता है, बल्कि विवाह जाति के बीच भी होता है।दोनों मंदिर में विवाह करने के निर्णय के बजाय कोर्ट मैरिज का निर्णय लेते हैं।शालिनी और सुभाष की इस प्रेम और विवाह के निर्णय की कहानी 
की सुभाष के घरवालों ,गांववालों और नाते-रिश्तेदारों को भनक तक नही लगी है।

प्रसाद की दृष्टि में नारी का स्वरूप | डॉ॰ वसुन्धरा उपाध्याय | आरंभ        
शालिनी और सुभाष द्वारा कोर्ट मैरिज करने के निर्णय की जानकारी जब शालिनी के परिवार और नाते रिश्तेदारों को पता चलता है तो उन्हें सांप सूंघ जाता है,उनके ऊपर पहाड़ टूट पड़ता है और सारे नाते-रिश्तेदारों द्वारा ब्रम्हमुख से पैदा ब्राम्हण की कुलीन महत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा की दुहाई  देकर शादी करने के  निर्णय को बदलने के लिए हर संभव भरपूर कोशिश और दबाव बनाने के सभी प्रयास करने में कोई कोर-कसर नही छोड़ी जाती है। परिवार और समाज के लोगों के बीच शालिनी के ऊपर पारिवारिक और सामाजिक श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा के साथ जाति की कुलीनता की दुहाई देते हुए प्रताड़ित करने के प्रयास और हत्या की धमकी जैसे उपक्रम का भी प्रयोग किया जाता हैं। गांव के ब्राम्हणों और रिश्तेदारों की पंचायत में शालिनी के दुस्साहसिक अडिगता को देखकर उसे कमरे में बंद कर थोड़े दिनों में शादी का भूत उतर जाने की बात कहकर उसे डराने,धमकाने और अपने को सांत्वना देने की कवायद भी की जाती है।डराने की नीयत से शालिनी और सुभाष की हत्या जैसी बन्दर-घुड़कियां भी दी जाती है।लेकिन हत्याओं के बाद उपजने वाले पुलिस और कोर्ट के कानूनी पचड़ों और आर्थिक संकटों के डर से घरवाले अपनी ज़िद छोड़ देते हैं। शालिनी के अटल निर्णय को भांपते हुए और समाज के लोगों द्वारा दिये गया यह आश्वासन "कि शालिनी के अंतरजातीय विवाह से तुम्हारे सामाजिक मान-सम्मान के प्रति समाज की नज़र में कोई फर्क नही पड़ेगा" भरे और दुखी मन से शालिनी को उसके हाल पर छोड़ दिए जाने के निर्णय हेतु घरवालों को विवश होना पड़ता है। 


          कोर्ट मैरिज करने के बाद जब शालिनी और सुभाष अपने गांव -घर पहुंचते है तो सुभाष के माता-पिता के सामने दूसरे प्रकार के संकट खड़े दिखाई देते है। सुभाष की मां के मन मे उपज रहे कई तरह के आशंकाओं भरे प्रश्नों के तीरों की बौछार का सामना शालिनी अत्यंत समझदारी और शालीनता से मुस्कुराते हुए उनको निरुत्तर बना देती है। इकलौते बेटे की शादी में खूब दान-दहेज़ मिलने या मांगने के सपने देख रहे माता-पिता पर वज्रपात जैसा असर पड़ता दिखाई देता है। शुरुआत में शालिनी की जाति पर सभी लोग सशंकित दिख रहे हैं और जब पता चलता है कि शालिनी ब्राम्हण है तो गांव के सुभाष की बिरादरी के लोग शालिनी को टकटकी बांधकर आश्चर्यजनक ढंग से निहारते हुए नज़र आते हैं और जिसके मन मे जो आता है ,सहज भाव से अपनी-अपनी अभिव्यक्ति दिए जाने का सिलसिला जारी रखता हैं।कोई कहता है कि " सुभाष की अम्मा,अहो भाग्य तुम्हारा! जो तुम्हारे घर में बम्हनी बहू ने कदम रखे है! तुम्हारा घर-द्वार सब पवित्तर हो जाएगा और धन-धान्य से भर जाएगा।" उधर एक पिता के सारे सपने चकनाचूर होते नज़र आ रहे हैं और सुभाष की माता को एक अदृश्य भय सताने लगता है।उन्होंने कहीं यह सुन रखा है कि ऐसी बहुएं ससुराल-घर के साथ नही रहती है,पति को अपने कब्जे में कर लेती हैं और मायके से यह कसम खाकर आती हैं कि अपने माँ बाप की तरह पति को भी उसके मां - बाप से अलग कर देती हैं और रिश्तेदारी -बिरादरी तक छुड़वा देती है। उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई देता है।बिरादरी के समझाने पर सारी शंकाओं और आशंकाओं के बीच शालिनी को बहू स्वीकारते और पूरी मान्यता देते हुए ससम्मान विधि-विधान से घर मे प्रवेश कराया जाता है।


           शालिनी एक सुशिक्षित और समझदार लड़की है।दलित परिवार में भी नौ दुर्गा व्रत जैसे धार्मिक अनुष्ठानों और आडंबरों को देखकर वह और भी चकित होती है कि ब्राम्हण तो धर्म को जानता है और धर्म उसके लिए एक धंधा/आजीविका का साधन रहा है।इसलिए धार्मिक अनुष्ठानों/उपक्रमों के माध्यम से उसे ज़िंदा रखना उसका धर्म बनता है। किंतु यह भोला-भाला दलित समाज धर्म को न जानते हुए भी धर्म की चादर ओढ़े उसके भंवरजाल में फंसा हुआ है। वह ऐसे लोगों को छद्म अंबेडकरवादियों की संज्ञा देती है जिनके घर मे हिन्दू देवी- देवताओं की मूर्तियों के बीच में डॉ.आम्बेडकर की भी एक फोटो या मूर्ति रखी दिखती है। शालिनी अपनी शिक्षा और आधुनिक/मानवतावादी सोच से सुभाष के घर के माहौल को बदलने की सफलता के बाद उस दलित समाज मे डॉ.आंबेडकर के मानवतावादी और समतामूलक समाज की अवधारणा पर आधारित असली दर्शन और वैचारिकी के माध्यम से सामाजिक जागरूकता फैलाने का अभियान चलाने की इच्छा ज़ाहिर करती है,तो सुभाष और घरवाले उसे सहर्ष स्वीकार करते हुए उसे अपने पंखों से उड़ने और विचरने की पूरी आज़ादी देते है।शालिनी के इस सामाजिक जनजागरण अभियान में उसकी दोनों पढ़ी-लिखी ननदे भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं।


              हमारे समाज की ऊँच-नीच की जातीय व्यवस्था में भी अजीबोग़रीब क़ानून-कायदे होते हैं।जब कोई ब्राम्हण जाति की लड़की किसी दलित लड़के से प्रेम विवाह कर लेती है तो कथित उच्च जातियों और मीडिया में भूचाल सा आ जाता है और मीडिया को इससे ज्यादा टीआरपी बढ़ाने का दूसरा सर्वाधिक प्रभावकारी मिर्च-मसाला नही दिखता है।समाज, मीडिया और राजनीति में दिन-रात ऐसी बहसें छिड़ी रहती हैं और कोहराम मचता है जैसे कोई प्रलयकारी समुद्री तूफान से सामाजिक तानेबाने और जान-माल का खतरा पैदा हो गया हो।जाति की श्रेष्ठता रूपी सम्मान और उनकी राजनीति को ऐसा लगता है,जैसे लकबा मार गया हो। लेकिन जब कोई दलित लड़की किसी गैर दलित लड़के से प्रेम विवाह कर ले तो उस पर उतना हायतोबा क्यों नही मचता है ? यह एक सामाजिक साज़िश/रहस्य मेरी समझ से परे है।अंतरजातीय विवाह के भी कुछ अनसुलझे सवाल,समस्याएं और आशंकाएं हैं जिनका उत्तर ढूंढना आसान नही है।दलित लड़के के साथ किसी अन्य कथित श्रेष्ठ जाति की लड़की के प्रेम विवाह में दलित समाज के लड़के और घरवालों पर जानमाल का खतरा सदैव मंडराता रहता है।


           इस कहानी में सामाजिक-धार्मिक विषयों के वे प्रसंग और संवाद बेहद मार्मिक और यथार्थपरक हैं जो सामाजिक/धार्मिक व्यवस्था की अभिन्न और अमिट मान्यताओं का जटिल रूप धारण किए हुए हैं।भारतीय समाज में प्रेम, वह भी अन्तरजातीय प्रेम और सामाजिक व्यवस्था में ऊँच-नीच के दो छोरों/सिरों के बीच प्रेम जैसी स्थिति को सामाजिक और धार्मिक संकट के रूप में देखा जाता है।सामाजिक व्यवस्था की तथाकथित नीच जाति और सर्वश्रेष्ठ जाति के बीच तो सामाजिक महासंकट ही नही कईयों के जीवन-मरण का संकट खड़ा दिखाई देता है और स्थिति तब और भयानक और विकराल रूप धारण किए हुए दिखाई देती है जब यह सब तथाकथित सबसे नीच जाति ( दलित) का लड़का और ब्रम्हमुख उत्पन्न सर्वश्रेष्ठ और कुलीन ब्राम्हण जाति की लड़की के बीच घटित होता है।कहानी में शालिनी-सुभाष का प्रेम प्रस्ताव और उसके बाद विवाह के निर्णय के सामाजिक व्यवस्थापरक संवाद,विवाह निर्णय की जानकारी के बाद उस ब्राम्हण परिवार में माता-पिता के सामने उपजे जातीय श्रेष्ठता,प्रतिष्ठा और धार्मिक संकट / उलझनें,शालिनी के सूझबूझ भरे विद्रोही तेवर से समाज के सामने खड़े होने वाले भावी सामाजिक संकट और उसके बाद घर पहुंचने पर अदभुत और अकल्पनीय अदृश्य भय और आशंकाओ के कथानकों में सामाजिक, दर्शन दिखाई देता है जो अंदर तक झकझोरता हैं। बहुजन पाठकों को इस कहानी को अवश्य पढ़ना चाहिए।मेरे विचार से आनंद और रोमांच से परिपूर्ण यह कहानी डॉ आंबेडकर की  वैचारिकी/दर्शन से काफी सन्निकट और उत्प्रेरित लगती है,क्योंकि अंत मे शालिनी अपनी ननदों को अंतरजातीय विवाह के फायदे(जातीय कट्टरता में कमी आना, संतान तेजतर्रार और सोचने-समझने की शक्ति में बदलाव के साथ उच्च आई.क्यू की पैदा होती है) बताते हुए उन्हें जाति के बाहर शादी करने के लिए प्रेरित करती है।
         

 लखीमपुर-खीरी (यूपी 9415461224, 8858656000

लूडो: ‘किस्मत के खेल’ में तब्दील हुआ वो बच्चों का खेल

 "इस खेल की दीवानगी अब इस कदर है कि पिछले साल इस कंपनी की लूडो किंग गेम एप से होने वाली कमाई 145 करोड़ रू. थी। द मिंट’ में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले कोरोना लाॅक डाउन में इस लूडो गेम को 10 करोड़ से अधिक लोगों ने डाउन लोड किया था दिसंबर 2020 तक यह संख्याल बढ़कर 50 करोड़ हो गई। अनुमान है कि इस साल के अंत तक आन लाइन गेमिंग का बाजार भारत में 730 अरब रू. से ज्यादा का हो जाएगा।"

अजय बोकिल


अफसोस कि संचार क्रांति के पहले के दौर में कभी बच्चों में सर्वाधिक लोकप्रिय खेल रहा लूडोअब बड़े पैमाने पर जुएं के खेल में बदल गया है। खासकर इसके डिजीटल वर्जन ने बच्चों के इस मनोरंजन को बड़े पैमाने पर गेम्बलिंग में तब्दील कर दिया है। मामला कितना बढ़ गया है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हाल में बाॅम्बे हाइकोर्ट में दायरह एक याचिका में कहा गया है चूं‍कि लूडो गेम एक सामाजिक बुराई बन गया है, इसलिए कोर्ट इस मामले में तुरंत हस्तक्षेप करे। कोई कोर्ट ऐसे प्रकरण में किस प्रकार और क्यो हस्तक्षेप करेगा, समझना मुश्किल है, फिर भी हाईकोर्ट में महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जरूर जारी किया है। इसके पहले यही मामला ‍मजिस्ट्रेट कोर्ट में गया था। तब ‍मजिस्ट्रेट  कोर्ट ने लूडो को कौशलका खेल मानते हुए इसके‍ ‍खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इंकार कर ‍िदया था। जो भी हो, इस पूरे मामले ने जहां आधी सदी पार कर चुके लोगों को अपने लूडोमयबचपन की याद दिला दी, वहीं यह नई बहस भी छेड़ दी है ‍कि क्या लूडो केवल एक कौशल व मनोरंजन का खेल ( जो कभी हुआ करता था) है या फिर यह वास्तव में जुआं ही है। हालांकि लूडो जिस दौर में बोर्ड पर खेला जाता था, तब भी कुछ फड़ों पर इसमें जुएं के दावं चले जाते थे, लेकिन अब डिजीटल लूडो गेम में तो ज्यादातर जुआं ही खेला जा रहा है, जिसकी वजह से गेम निर्माता कंपनी, एडमिन एजेंट और खिलाड़ी मालामाल हो रहे हैं। इस दृष्टि से यह एक जमाने में बचपन को रिझाने वाले दिलचस्प खेल की यह ट्रेजिडी है।

 

फिर कोर्ट की बात। यानी जो किसी जमाने में राज दरबार में द्युत के रूप में मौजूद था, वह अब न्याय की गुहार के लिए अदालत की चौखट पर है। बाॅम्बे हाइकोर्ट में राजनीतिक पार्टी मनसे के एक पदाधिकारी केशव मुले ने एक याचिका दायर कर कहा कि लूडो सुप्रीम ऐप पर लोग पैसे दांव पर लगा कर खेल रहे हैं। जो गेम्बलिंग प्रतिबंधक कानून की धारा 3, 4, और 5 के तहत आता है। इसलिए ऐप से जुड़े प्रबंधन के लोगों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। याचिकाकर्ता के मुताबिक यह गेम चार लोग 5-5 रुपए का दांव पर लगा कर खेलते हैं। जीतने वाले को 17 रुपए मिलते हैं, जबकि ऐप चलाने वाले को 3 रुपए मिलते हैं। यह सामाजिक बुराई बड़ी तेजी से समाज में घर करती जा रही है। अदालत इसमें हस्तक्षेप करे। अब अदालत इसमें क्या और ‍कैसे हस्तक्षेप करेगी, करेगी भी या नहीं, यह देखने की बात है। लेकिन जो बहस का मुद्दा बन रहा है, वो ये कि लूडो कौशल का खेल या किस्मत का ? किस्मत का खेल मानने वालो का तर्क यह है कि लूडो का खेल ‍िगरने वाले पांसे के अंकों पर ‍िनर्भर करता है। और जब लोग पैसा दांव पर लगाते हैं तो यह कौशल का खेल न रहकर किस्मत का खेलहो जाता है। जुआं कानूनन अपराध है और इसके लिए सजा का प्रावधान है।

 

अलबत्ता यह खबर पढ़कर पहली नजर में खुशी इस बात की हुई कि मोबाइल युग शुरू होने के पूर्व के बचपन के अभिन्न साथीमाने जाने वाले लूडोऔर सांप सीढ़ीजैसे खेल अभी भी न सिर्फ जिंदा हैं, बल्कि ज्यादा लतियल तरीके से खेले जा रहे हैं। आज मोबाइल के साथ जीने वाले  बच्चे उन खेलों को कितना खेलते होंगे, यह जानने की जिज्ञासा इस हकीकत से चकित हुई कि बच्चों से ज्यादा आजकल बड़े ये खेल आॅन लाइन खेल रहे हैं और इसी बहाने जमकर जुआं खेला जा रहा है। बड़े पैमाने पर पैसे का लेन-देन हो रहा है। लूडो की यह लत पिछले हुए और इस साल जारी कोरोना लाॅक डाउन में कई गुना बढ़ गई है। घरो में कैद लोग इस तरह डिजीटल जुआं खेलकर मालामाल भी हो रहे हैं और लुट भी रहे हैं। लाॅक डाउन के दौरान हमारे सामा‍िजक व्यवहार में यह बड़ा, नकारात्मक लेकिन उल्लेखनीय बदलाव है। लूडोनाम से भले विदेशी लगता हो, लेकिन है मूलत: स्वदेशी ही। भारतीय संस्कृति पर गर्व करने के लिए यह काफी है, क्योंकि यह आधुनिक देशी खेल पुराने पचीसीका ही परिवर्तित रूप है। ये खेल भारत में प्राचीन काल से खेला जा रहा है। महाभारत में यह पाशके नाम से उल्लेखित है। तब यह कौडि़यों और शंखों से खेला जाता था। महाभारत का विनाशकारी महायुद्ध भी इसी जुएं का परिणाम था। इसी का थोड़ा बदला रूप चौपड़है, जो गांवों में आज भी खेला जाता है। कहते हैं कि यह खेल भारत से ही चीन गया। भारत में मुगल काल में भी यह काफी लोकप्रिय था। समय बिताने के लिए राजा महाराज और रईस चौपड़ की बाजियां लगाया करते थे। 1938 में एक अमेरिकी खिलौना कंपनी ने ट्रांसोग्राम नामक खेल बोर्ड गेमके रूप में भारत में भी लांच किया। लूडो में चार खिलाड़ी तक एक साथ खेल सकते हैं। इसमें चार खाने होने हैं और एक पांसे के हिसाब से गोटियां चली जाती हैं। जो सबसे पहले अपना चौखाना पूरा कर लेता है, वह विजेता होता है।

 

पिछले कुछ सालों में  संचार क्रांति के दौर में लूडो बच्चों की प्राथमिकता सूची में शायद नीचे चला गया था, वरना तीन दशक पहले तक ज्यादातर बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां लूडो, सांप-सीढ़ी, ताश की बाजियां,  और अष्ट चंग पे जैसे खेल खेलते, आम चूसते और इमलियां फोड़ते-खाते, खेलते कूदते ही बीतती थीं। फोन वगैरह तो मध्येमवर्गीय घरों में भी सपने जैसा था। वो छुट्टियां बच्चो के लिए सचमुच छुट्टियों की तरह होती थीं। पूरी तरह तनाव और दबाव रहित। 

 

वही भूला ‍िबसरा लूडोगेम अब नए डिजीटल अवतार में टाइमपास मनोरंजन से ज्यादा पैसों पर दावं लगाने के खेल के रूप में समाज में अपनी पैठ बना रहा है। पांच साल पहले एक भारतीय कंपनी गेमेशन टैक्नोलाॅ‍जीस प्रा. लि.ने इसे लूडो किंगनाम से गेमिंग ऐप लांच किया। इस खेल की दीवानगी अब इस कदर है कि पिछले साल इस कंपनी की लूडो किंग गेम एप से होने वाली कमाई 145 करोड़ रू. थी। द मिंटमें छपी एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले कोरोना लाॅक डाउन में इस लूडो गेम को 10 करोड़ से अधिक लोगों ने डाउन लोड किया था दिसंबर 2020 तक यह संख्याल बढ़कर 50 करोड़ हो गई। अनुमान है कि इस साल के अंत तक आॅन लाइन गेमिंग का बाजार भारत में 730 अरब रू. से ज्यादा का हो जाएगा। एक दृष्टि से यह भारत में मेक इन इंडियाका चमत्कार है और दूसरी दृष्टि से जब लाॅक डाउन में गरीबो के पेट पर लात पड़ रही है तब लूडो के नाम पर आॅन लाइन जुआं खेलने वालों की चांदी हो रही है। जो कमा रहे या गवां भी रहे हैं, वो इसके ‍लतियल होते जा रहे हैं। यह नई तरह की सट्टेबाजी है और यही  बड़ी चिंता की बात है। इसमें कोर्ट ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी। समाज को ही इस खेल को बुरी लत में बदलने से रोकना होगा। मनोरंजन और कौशल के खेल को किस्मत के खेलमें तब्दील होने पर लगाम लगानी होगी। क्योंकि देश और समाज पुरूषार्थ और कौशल से चलते हैं, ‘किस्मतके भरोसे नहीं चलते। 

 (लेखक दैनिक सुबह सवेरे के वरिष्ठ संपादक हैं  मो-98936 99939

( ‘सुबह सवेरेमें दि. 5 जून 2021 को प्रकाशित)

लोकतंत्र को ‘ठोकतंत्र’ में बदलने से बचाने वाला फैसला

 देशहित में एक विमर्श,{वरिष्ठ संपादक, सुबह-सवेरे (दैनिक)}

अजय बोकिल


देश की सर्वोच्च अदालत ने जाने-माने पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह की प्राथमिकी  को खारिज कर न केवल दुआ बल्कि समूची पत्रकार बिरादरी को बड़ी राहत दी है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की दौरान साफ कहा कि हर पत्रकार को कानूनी सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। हालांकि जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने विनोद दुआ के उस अनुरोध को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब तक एक समिति अनुमति नहीं दे देती, तब तक पत्रकारिता का 10 साल से अधिक का अनुभव रखने वाले किसी मीडियाकर्मी के खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज न की जाए। सर्वोच्च अदालत का यह फैसला दो कारणों से अहम है। एक, पिछले कुछ सालों में असहमति के हर स्वर को राजद्रोह का रंग देने की कोशिश बड़े पैमाने पर हो रही है। दूसरे, ‘सरकार के विरोधको राष्ट्र के विरोधमें तब्दील करने का सुनियोजित प्रयत्न हो रहा है। ऐसे में उन पत्रकारों को भी लपेटने की कोशिश जारी है, जो घोषित तौर पर किसी एजेंडे का हिस्सा नहीं हैं और अपना पत्रकारीय कर्तव्य पूरी निष्ठा और सरकारी निगाहों की परवाह किए बगैर कर रहे हैं। यकीनन राजद्रोह बेहद गंभीर अपराध है, लेकिन जो सत्ता को न सुहाए, हर वो काम राजद्रोहहै, यह भी अस्वीकार्य है।

 

किसी जमाने में चख ले इंडियासे पूरे देश में चर्चित हुए पत्रकार विनोद दुआ आजकल यू ट्यूब पर शो चलाते हैं। उनके 30 मार्च 2020 को प्रसारित ऐसे ही एक शो को लेकर हिमाचल प्रदेश में एक स्थानीय भाजपा नेता अजय श्याम ने दुआ के खिलाफ शिमला जिले में राजद्रोह का मामला दर्ज कराया था। जिसके मुताबिक दुआ ने अपने यूट्यूब कार्यक्रम में प्रधानमंत्री पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने वोट हासिल करने के लिए मौतों एवं आतंकी हमलोंका इस्तेमाल किया। इस टिप्पणी से सांप्रदायिक नफरत फैलकर शांति भंग हो सकती थी। दुआ के खिलाफ पुलिस ने भादसं की धारा 124, धारा 268 (सार्वजनिक उपद्रव), धारा 501 (अपमानजनक चीजें छापना) और धारा 505 के तहत मामला दर्ज किया था। दुआ इसके‍‍ खिलाफ कोर्ट में गए और उन्होंने सर्वोच्च अदालत से उनके खिलाफ दायर राजद्रोह की प्राथमिकी खारिज करने तथा इस मामले में एक कमेटी के मार्फत जांच के आदेश देने का अनुरोध किया था। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में दुआ के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करते हुए कहा कि प्रत्येक पत्रकार केदार नाथ सिंह मामले (जिसने भादवि की धारा 124ए के तहत राजद्रोह के अपराध के दायरे को परिभाषित किया था) के तहत सुरक्षा का हकदार है। अदालत ने कहा कि ऐसी धाराएं तभी लगाई जानी चाहिए, जब शांति बिगाड़ने की कोशिश हो। उल्लेखनीय है कि 1962 में केदार नाथ सिंह केसमें सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने स्पष्ट किया था कि कथित राजद्रोही भाषण और अभिव्यक्ति के लिए व्यक्ति को तभी दंडित किया जा सकता है, जब वो भाषण उकसाने वाला’ ‘हिंसाया सार्वजनिक अव्यवस्थाके लिए नुकसान पहुंचाने वाला हो।

 

इसके पहले पत्रकार दुआ ने अपने बचाव में तर्क दिया था कि सरकार की आलोचना तब तक राजद्रोह नहीं है, जब तक वह हिंसा  भड़काने वाली नहीं हो। उन्होंने कहा कि अगर मैं प्रधानमंत्री की आलोचना करता हूं तो यह सरकार की आलोचनाके दायरे में नहीं आता। दुआ के वकील विकास सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के 1962 के केदारनाथ मामले के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा था कि एक नागरिक के नाते यह विनोद दुआ का अधिकार है कि वह सरकार के बारे में जो भी चाहें, उसे कह या लिख सकते हैं। सरकार की आलोचना या उस पर टिप्पणी कर सकते हैं। हालांकि यह आलोचना या टिप्पणी ऐसी होनी चाहिए कि उससे सरकार के खिलाफ किसी तरह की हिंसा न फैले।  सिंह ने दलील दी कि अगर हमारे प्रेस ( मीडिया) को स्वतंत्र रूप से कामकाज करने की अनुमति नहीं दी गई तो सच्चे अर्थों में हमारा लोकतंत्र खतरे में है।उन्होंने कहा कि दुआ को भारतीय दंड संहिता की धारा 505 (2) और 153ए के तहत लगाए गए आरोपों के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि उन्होंने पत्रकार के रूप में किसी धर्म, नस्ल, भाषा, क्षेत्रीय समूह या समुदाय के खिलाफ कुछ नहीं किया है।

 

यहां गौरतलब बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले का हवाला अदालत में दिया गया है, वह 1962 का है। तब देश में ज्यादातर कांग्रेस सरकारें थीं। इसका अर्थ यह हुआ कि पत्रकारों के खिलाफ इस तरह के मामले चलाने की प्रवृत्ति नई नहीं है। लेकिन चिंता की बात यह है कि बीते 6 सालों में इस तरह के मामले बहुत ज्यादा बढ़े हैं। यानी किसी भी असहमति और‍ किसी एजेंडा विशेष विरोधी बात को राजद्रोह का ठप्पा लगाकर  मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है। एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक विगत एक दशक में देश में राजद्रोह के कुल 10938 मामले दर्ज हुए, जिनमें से 65 प्रतिशत मामले 2014 के बाद के हैं। इनमें से ज्यादा किसी सरकार और राजनेता के खिलाफ की गई टिप्पणी को आधार बनाकर दर्ज किए गए हैं। देश में ऐसे सबसे ज्यादा मामले बिहार, यूपी, असम, कर्नाटक, झारखंड आदि राज्यों में दर्ज हुए हैं। हाल में आंध्र प्रदेश सरकार ने दो तेलुगू चैनलो के खिलाफ भी ऐसे ही मामले दर्ज‍ किए।

 

यहां सवाल उठता है कि आखिर राजद्रोह कानून है क्या और यह कितना गंभीर अपराध है? इस देश में राजद्रोह का कानून सबसे पहले अंग्रेज लेकर आए। भारतीय दण्ड संहिता ( आईपीसी) की धारा 124 ए में उल्लेखित राजद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है, ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ इस धारा में राजद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है। अगर कोई शख्स देश विरोधी संगठन के खिलाफ अनजाने में भी संबंध रखता है या किसी भी प्रकार से सहयोग करता है तो वह भी राजद्रोह के दायरे में आता है। राजद्रोह गैर जमानती जुर्म है और दोषी पाए जाने पर व्यक्ति को तीन साल से लेकर आजीवन जेल तक हो सकती है। साथ ही उसका पासपोर्ट रद्द हो जाता है, वह सरकारी नौकरी से महरूम हो जाता है। इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लोकमान्य तिलक के खिलाफ मुकदमा चलाया तो स्वतंत्र भारत में फारवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदारनाथ सिंह पर बिहार सरकार ने, कार्टूनिस्ट असीम ‍त्रिवेदी  पर महाराष्ट्र सरकार (2012) ने, केस चलाया । आजाद भारत में इस कानून को खत्म करने की बात कई बार उठी। लेकिन सत्ता में आते ही हर राजनीतिक पार्टी को यह कानून प्यारा लगने लगता है। मोदी सरकार ने भी ‍दो साल पहले संसद में साफ कर दिया था कि वह इस कानून को खत्म नहीं करेगी। क्योंकि राष्ट्र-विरोधी, पृथकतावादी और आतंकवादी तत्वों से प्रभावकारी ढंग से निपटने के लिए इस कानून की जरूरत है।

 

यकीनन राष्ट्रद्रोही गतिविधियों पर नकेल डालने के लिए सख्त कानून जरूरी है, लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी अहम है कि कौन सा काम राष्ट्रविरोधी है और कौन सा सरकार विरोधी ? इसे पारिभाषित कौन करेगा? कोई एकसरकार तो राष्ट्रनहीं हो सकती। राष्ट्र की परिभाषा सरकार से बहुत बड़ी है। तो फिर   इसकी लक्ष्मण रेखा क्या है? राजनेता और सरकार की नजर में सच उजागर करने वाला और उसे कटघरे में खड़ा करने वाला कोई भी काम राजद्रोहहो सकता है। दरअसल यहां सच उजागर करने और सरकार को बेनकाब करने में महीन फर्क है। अभिव्यक्ति की आजादी यही कहती है कि जो सच है वह नि‍र्भीकता से सामने लाया जाए ( बशर्ते वो हमेशा एकतरफा न हो)। स्वस्थ पत्रकारिता से यही अपेक्षित है। लेकिन यही सच जब सरकारों के लिए मुश्किल खड़ी करता है तो उसे देशविरोधी करार देने की पूरी कोशिश होती है। व्यक्ति को राष्ट्र और राष्ट्र को व्यक्ति में बदलने का नरेटिव बनाया जाता है।  अभिव्यक्ति की आजादीपर इस अधिकार के दुरूपयोग का मास्क पहनाया जाता है। यह प्रवृत्ति तब ज्यादा प्रबल होती है, जब भीतर से स्वयं को असुरक्षित करने वाले सत्ताधीश बाहर और ज्यादा शक्तिशाली और निष्ठुर दिखने का प्रयास करते हैं। 

 

यह हमने स्व. इंदिरा गांधी के जमाने में भी देखा और आज भी देख रहे हैं। शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मदन लोकुर को कहना पड़ा कि सरकार बोलने की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए राजद्रोह कानून का सहारा ले रही है। यानी मूल मुद्दा इस कानून की मनमाफिक व्याख्या का है। शायद यही कारण है कि राजद्रोह के अधिकांश मामले कोर्ट में नहीं टिके। इस कानून के तहत सजा का प्रतिशत बहुत ही कम है। यानी सरकारें इस कानून का प्रयोग लक्षित व्यक्ति या संगठनों को प्रताड़ित करने के लिए ज्यादा कर रही है। 

 

अभी दो दिन पहले ही आंध्र प्रदेश की जगन्मोहन रेड्डी सरकार द्वारा दो तेलुगू चैनलों के खिलाफ दायर राजद्रोह के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि  मीडिया के संदर्भ में राजद्रोह कानून की सीमाएं तय करने की जरूरत है। कोर्ट ने कहा ‍कि वह अभिव्यक्ति की आजादी और मीडिया के अधिकारों के संदर्भ में राजद्रोह कानून की व्याख्या की समीक्षा करेगा। कोर्ट की समीक्षा पर सबकी निगाह रहेगी। फिलहाल तो कोर्ट के इस फैसले से समूचे मीडिया जगत को राहत मिली है। क्योंकि जाग्रत मीडिया इस देश में जिंदा रहने की जमानत है और इसलिए भी कि देश में लोकतंत्र को ठोकतंत्र में बदलने से रोकने के लिए (कुछ गलतियों के बावजूद)  यह निहायत जरूरी है।

(लेखक दैनिक सुबह सवेरे के वरिष्ठ संपादक हैं  मो-98936 99939

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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