नन्दीलाल के
दोहे
कविता का प्रारूप हो, ज्यों वनिता का रूप।।
मेघ घिरे पुरवा चली, रिमझिम पड़ी फुहार ।
तपती वसुधा का जहाँ, कुछ कम हुआ बुखार।।
ज्यों-ज्यों बैरी दिन चढ़े, जेठ सताये खूब।
सराबोर अँगिया हुई, गई स्वेद से डूब।।
रुचि- रुचि कर एड़ी रँगे, वर माँगे भर कोछ।
लत्ता धरे सँभाल कर, पाँव महावर पोछ।।
मोम हृदय पर पीय का, लेती चित्र उकेर।
बहुत कठिन है दिल जहाँ, हो पत्थर का ढेर।।
खत में उनकी ओर से, लिख करके पैगाम।
डाल दिया फिर डाक में, खुद ही अपने नाम।।
यह समाज का बन गया, कुत्सित कलुषित रोग।
हो हल्ला कर चार दिन, चुप हो जाते लोग।।
पहले से ही तंग थी, और हो गई तंग।
भीग श्वेद में कंचुकी, चिपक गई सब अंग।।
पूनम की आभा कभी, लगे भोर की धूप।
निर्मल निर्झर सा झरे, तरुणाई में रूप।।
मैं कितना धनहीन हूँ, वह कितने धनवान।
उनके भी भगवान हैं, अपने भी भगवान।।
रूपवती का रात में, लख श्रृंगार अनूप।
गजब गुजारे शशि प्रभा, नखत निहारें रूप।।
घी की चुपड़ी रोटियाँ, थाली भर-भर भात।
घर की परसन हार फिर, हो अँधियारी रात।।
को पहिचानै पीर का, समझै कौनु सुभाव।
मूरुखु मनई कै रहा, चाँटि- चाँटि फिरि घाव।।
सब विधि से संपूर्ण है, दे यश वैभव ज्ञान।
मंदिर के भगवान से, भीतर का भगवान।।
अंतर्मन निर्मल रखे, दे मेहनत पर ध्यान।
अपने पावन देश का, है भगवान किसान।।
होता है मजदूर भी, एक सहज इंसान।
मंदिर मस्जिद सब जगह, है उसका भगवान।।
एक लिखो, अच्छा लिखो, घोंचो नहीं पचास।
कुछ तो कविता से नया, हो मन को आभास।।
जंगल में चारों तरफ, धूम मच गई धूम।
हँसकर लिया बिलार ने, केहर का मुख चूम।।
अलग-अलग संसार का अलग-अलग व्यवहार।
कोई सब कुछ जीतकर, सब कुछ जाता हार।।
धन के लालच में गया, सहज आदमी डूब।
हरियाली पर चल रहे, आज कुल्हाड़े खूब।।
सब पर है भारी प्रभू, एक आपका नाम।
संकट करिए दूर सब ,जग प्रति पालक राम।।
क्या बतलाऊँ पीय को, कैसे लगी खरोंच।
छत पर थी,कल गाल पर, मार गया खग चोंच।।
खेल-कूद कर प्यार से, विभावरी के अंक।
शीश झुकाये प्रात में, छुपने चला मयंक।।
शगुन करे हँस हाथ से, चूड़ी धरे उतार।
कनक कलाई प्यार से, सहलाए मनिहार।।
काम निगोड़ा कब थका, करके जी भर तंग।
फागुन बीता खेल कर, खूब पिया सँग रंग।।
जीत गए तो जंग है,हार गए तो खेल।
धीरे धीरे चल रही, जीवन रूपी रेल।।
ऊँच-नीच छोटा-बड़ा, हो ब्रहमन या शेख ।
मेटे से मिटता नहीं, हाथ लिखा विधि लेख।।
लगते हैं थोड़े बहुत, कुछ लक्षण कुछ योग।
मैं इतना पागल नहीं, जितना समझें लोग।।
सूख गई बंधुत्व की, एक नीरदा और।
राजनीति तरु पर खिला कूटनीति का बौर।।
चाक देख डंडा हँसा ,माटी देख कुम्हार।
दोनों मिल रचने लगे ,एक नया संसार।।
बिन प्रीतम के पा रही, तरुणाई आनंद।
आँगन होली खेलती, भावज और ननंद।।
जिन्हें देख अच्छे भले, मन में जायें काँप।
धारण करके केचुली, बने केंचुए साँप।।
महुआरी की गंध से, कर फागुन अनुबंध।
कोयल के स्वर में लिखे, मधुरिम छंद प्रबंध।।
रंग न देखो रूप पर ,लगे हजारों शूल।
यौवन में अच्छे लगे,काँटेदार बबूल।।
रत्न जड़ित चूनर गया, कोई तन पर डाल।
है धरती की देह पर, प्राची मले गुलाल।।
भीगे तन सौंदर्य की, निखरी छटा अनूप।
अँजुरी में भर नीर जब, गोरी निरखे रूप।।
शंक्व,वृत्त,आयत,त्रिभुज, वर्ग, कोण, घन चित्र ।
है तन की रेखा गणित ,अपनी बड़ी विचित्र।।
पात- पात से रस चुये,अंग- अंग से प्यास।
तन झुलसाने आ गया ,फिर बैरी मधुमास।।
है फागुन करने लगा, पल छिन नये कमाल।
दाई बैठी धूप में, बाबा चूमें गाल।।
गोरी बैठी सेज पर, प्रात सँवारे रूप।
बाहर खिड़की खोल कर, झाँक रही है धूप।।
बंद लिफाफे में रखा, मन का प्रेम प्रसून।
बाँच सके तो बाँच ले ,तू खत का मजमून।।
अनियारे से नैन है, अलसाये सब अंग।
बिखरे बिखरे केस ज्यों, भरे रूप में रंग।।
जितने तेरे कर्म हैं, उतने तेरे रूप।
नारी तेरा विश्व में, हर किरदार अनूप।।
उछल कूद करता फिरे, इत उत मारे माथ।
मानो दर्पण लग गया ,जो बंदर के हाथ।।
अंगराग से हो गया, चंद्रप्रभा सा रूप।
मन पागल है देख कर, आनन अजब अनूप।।
शब्द शब्द से छंद की, झलक रही औकात।
वाह वाह की बात है, वाह वाह क्या बात।।
चाहे जितना मोल ले, चूड़ी का इस बार।
एक एक कर प्यार से, पहना रे मनिहार।।
अधिकारी को यश मिला, चपरासी को डाँट।
सरकारी धन का हुआ, खुल कर बंदर बाँट।।
आतुर है ऋतुराज जो, करने को अभिसार।
पतझड़ में पाकर खड़ी, तन से वस्त्र उतार।।
रूप -सिंधु में आ गई, सुंदरता की बाढ़।
देखे अपने आप को, फागुन आँखें काढ़।।
नन्दी लाल
पता-हनुमान
मंदिर के पीछे लखीमपुर रोड
गोला
गोकर्णनाथ खीरी,
991887993