साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, June 17, 2024

योग दिवस-अखिलेश कुमार 'अरुण


  कहानी   

अखिलेश कुमार 'अरुण' 
ग्राम- हज़रतपुर जिला-लखीमपुर खीरी 
मोबाईल-8127698147
    करीम चचा प्रधान के यहां से एक महीने की मजदूरी के एवज में मिले 1200 रुपये के अतिरिक्त की मजदूरी के लिए चक्कर पर चक्कर लगा रहे थे। घर में चार जनों का परिवार है जिनके भरण-पोषण का एकमात्र सहारा करीम चचा की मजदूरी है।

    मजदूरों के लिए एक कहावत है कि मजदूर को मजदूरी उसका पसीना सूखने से पहले मिल जाना चाहिए क्योंकि मजदूर अपना और अपने परिवार का पेट साथ लेकर आता है मजदूरी से लौटने के बाद फकत वक्त उसकी मजदूरी उसके काम न आए तो उसकी मजदूरी किसी काम की नहीं, गांव का प्रधान है कि अपनी रसूख और राजनीतिक पहुंच के चलते किसी से नहीं डरता। करीम चचा यह जानते हुए भी उसके यहां काम करने गये कि इस प्रचंड गर्मी में कुछ सहारा हो जाएगा क्योंकि किसानों की किसानी अप्रैल-मई के बाद खत्म है वहां कोई काम है नहीं कि जहां कुछ काम-धाम करके दो-चार पैसे का जुगाड़ हो जाए  पर प्रधान जी अपना घर बनवा रहे थे। इसलिए काम मिल गया था। एक महीना पूरा खटे हैं सौ-पचास करके 1200 रुपए कुल अभी तक करीम चचा ले गये हैं और प्रधान कह रहा है कि 200 और तुम्हारा बनता है वह दो-चार दिन में दे देगा।

    करीम चचा अब करें तो करें क्या? किसी ने सलाह दिया कि श्रम विभाग में चले जाओ वहां जाकर शिकायत कर दो। करीम चचा ने ऐसा ही किया आज से 10 दिन पहले लिखित शिकायत की अर्जी सहायक श्रमायुक्त को दे आए थे जिसकी प्रति लेकर आज फिर आफिस पहुंच गये क्योंकि अभी तक कुछ हुआ तो है नहीं। अर्जी की ताकीद करवाई और श्रमायुक्त महोदय से गुजारिश कर रहे हैं" साहेब, मजदूरी का पूरा पैसा दिलवा दीजिए ....? नहीं तो हम चार जनों का परिवार भूखों मर जाएगा।"

    "रुको, हम अभी आते हैं।" कहकर किसी साहब का हवाला देकर निकल लिए। घंटा-दो घंटा बीतने के बाद करीम चचा श्रमायुक्त महोदय को खोजते हुए आगे बढ़ चले तो पता चला कि अपर श्रमायुक्त महोदय के पास बैठे हैं। बहुत हिम्मत करके दरवाजे पर दस्तक दिए,"हुजूर हम अन्दर आ सकते हैं!"

    "हां, आइए।" चश्मे के ऊपर से झांकते हुए  साहब ने अनुमति दी।

    "अरे! तुम, हम कहे थे न कि अभी आ रहे हैं।" श्रमायुक्त जी थोड़ी गर्मी दिखाते हुए करीम चचा की तरफ मुखातिब हुए।

    "क्या समस्या है? छोटे साहब से बड़े साहब ने पूछा।

    "कुछ खास नहीं सर।"

    करीम चचा कुछ बोलने को हुए कि उससे पहले ही छोटे साहब बोल पड़े, "अभी योग दिवस पर बहुत काम करना है, ऊपर से आदेश आया है। यह बहुत जरूरी है, उसके बाद आना।"

    "कब सर?"

    "योग दिवस के बाद।"

    "योग दिवस कब......?

    "अरे, इतना भी नहीं मालूम, तुमको योग दिवस कब है.....21 जून के बाद।"

 (दिनांक २१.०६.२०२४ को मध्य प्रदेश से दैनिक पत्र इंदौर समाचार के पृष्ठ संख्या ९ पर प्रकाशित.)

पापा पिस्तौल ला दो(लघु चलचित्र समीक्षा)-रमेश मोहन शुक्ल

  लघु चलचित्र समीक्षा  

    'पापा पिस्तौल ला दो' कुल सात मिनट छ: सेकेंड की यह लघु फिल्म पिता और पुत्री के रिश्तों की हृदय स्पर्शी प्रेरणादायक  कहानी है, जो आजकल बेहद चर्चा का विषय बनी हुई है, माधव (आर. चंद्रा) अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद तीन बेटियों को गरीबी में पाल-पोस रहा है। एक दिन शाम होने को, माधव बाज़ार जाने को तैयार हो रहा है। मगर उसकी बड़ी बेटी निम्मी (ऋचा राजपूत) अभी तक घर नहीं आई है। इस बात को लेकर माधव थोड़ा चिंतित है। 

   
 अपनी साइकिल के पास बाजार जाने के लिए तैयार है, वह  अपनी दोनों बेटियों पिहू और भूमि से बाज़ार से क्या लाना है, पूछता है, तभी माधव की बड़ी बेटी निम्मी स्कूल से वापस आ जाती है। मगर वो  बेहद गुस्से में हैं, और आते ही, अपने पापा से पिस्तौल लाने को कहती है।  माधव पहले तो भयभीत होता है। मगर निम्मी से पिस्तौल मांगने की वजह पूछता है। तब निम्मी समाज के कुछ अराजक तत्वों से परेशान होने की बात करती है, जिससे माधव निम्मी को आत्मरक्षा के लिए एक एकेडमी ले जाता।  वहाँ निम्मी ताईकांडो की ट्रेनिंग लेती है,और फिर एक दिन उन बदतमीज शोहदों को सबक सिखाती है जो उसे रोज परेशान करते रहते थे। ऐसे निम्मी की ज़िन्दगी ही बदल जाती है, एक कमजोर लड़की ताकतवर बन जाती है। माधव की सोच समाज को एक नई सीख देती है। दिशा देती है। कम समय में बड़ी ही स्पष्टता से कहानी बहुत कुछ कह जाती है। 
    फिल्म के कई दृश्य सिहरन पैदा करते हैं। केंद्रीय भूमिका में ऋचा राजपूत ने अपने अभिनय से सबका मन मोह लिया है। 
पिता की भूमिका में आर. चंद्रा खूब जमे हैं। कुछ और सहायक कलाकारों ने लघु फिल्म को अपनी मेहनत लगन से अच्छी बनाने का पूरा प्रयास किया है। फिल्म के निर्माता/ निर्देशक हैं शिव सिंह सागर, फिल्म की कहानी  चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ ने लिखी है। कैमरे पर पिंकू यादव ने उतारा है। इस फिल्म को आप लोग यूट्यूब पर अर्पिता फिल्म्स इंटरटेनमेंट पर देख सकते हैं। 

               रमेश मोहन शुक्ल 
   संपादक, संभावित संग्राम फतेहपुर

Thursday, June 06, 2024

"एक अकेला सब पर भारी और यह मोदी की गारंटी है" के दम्भ को तोड़ता जनादेश-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️बीजेपी के सांसद रहे लल्लू सिंह (अयोध्या) और अनंत कुमार हेगड़े (कर्नाटक) संविधान बदलने की बात लगातार सार्वजनिक रूप से कह रहे थे और इसकी सफलता और सार्थकता सिद्ध करने के लिए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में "अबकी बार400 पार " नारे को समय-समय पर बुलंद करते दिख रहे थे। दूसरी तरफ पीएम की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबोराय ने "द मिंट"  अंग्रेजी अखबार में संविधान बदलने की जरूरत बताते हुए बाक़ायदा एक विस्तृत लेख लिख डाला। उस लेख का हिंदी अनुवाद का जब हिंदी भाषी राज्यों में जोर-शोर से प्रचार-प्रसार होने लगा तो बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों,चिंतकों,सोशल एक्टिविस्टों और संविधान प्रदत्त सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों ने बीजेपी के "अबकी बार400 पार " के नारे के गूढ़ रहस्यों और निहितार्थों को देश के ओबीसी,एससी-एसटी और अल्पसंख्यक समुदायों को समझाना शुरू किया तो उसके राजनीति पर पड़ने वाले व्यापक असर को भांपते हुए आरएसएस की ओर से बीजेपी को इस नारे की सार्वजनिक मंचों से तत्काल बंदी का हुक़्म जारी करना पड़ा। उसके बाद बीजेपी की रैलियों में पूरे चुनाव भर इस नारे,संविधान-लोकतंत्र या आरक्षण पर सन्नाटा छाया रहा।

✍️चुनाव में इस नारे के गूढ़ रहस्य और निहितार्थ के प्रचार-प्रसार का इतना प्रभाव पड़ा कि बीजेपी अकेले बहुमत की संख्या पाने से वंचित रह गई। इस स्थिति से बहुजन समाज में राहत महसूस हुई और उम्मीद जताई जा रही है कि अकेले बीजेपी को पूर्ण बहुमत न मिलने की वजह से मोदी की तीसरे काल की सरकार पूर्ण आत्मनिर्भर नहीं रहेगी,बल्कि गठबंधन घटक दलों पर निर्भर रहेगी जो संविधान,लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के आरक्षण के मजबूत पैरोकार रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो सामाजिक न्याय के विस्तार के लिए अपने राज्य में जातिगत जनगणना के नाम पर सामाजिक सर्वेक्षण कराकर बाक़ायदा उसके जातिगत आंकड़े तक ज़ारी कर दिए थे जिससे केंद्र सरकार ने असहमति और आपत्ति ज़ाहिर करते हुए कहा था कि किसी राज्य को जातिगत जनगणना कराने अधिकार नहीं है,यह अधिकार केवल केंद्र सरकार को है और वह जातिगत जनगणना कराने के लिए सक्षम नहीं है,क्योंकि इससे सरकार का अनाबश्यक धन और समय की बर्बादी होगी जो देश की जनता के हित में नहीं होगा। संविधान,लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के दो मजबूत पैरोकार जेडीयू के नीतीश कुमार और टीडीपी के चन्द्र बाबू नायडू के सहयोग और समर्थन से ही बीजेपी की सरकार बनने की उम्मीद है,लेकिन इस बार मोदी जी की एक नख-दंत विहीन पीएम साबित होने की और अमित शाह का महत्व और दखल कम होने की संभावना जताई जा रही है। इस सरकार में मोदी-शाह की मनमानी कतई चलने वाली नहीं है। इसलिए यहां तक चर्चा है कि अमित शाह गृह मंत्रालय के बिना नहीं रह सकते हैं और यदि उन्हें यह विभाग नहीं मिलता है तो संभावना है कि उनकी गृह राज्य वापसी हो जाए!इस बार मोदी नेतृत्व वाली सरकार एनडीए के उन घटक दलों की "डील" पर चलने की संभावना जताई जा रही है,जो कभी मोदी के सामने सिर उठाकर बोलने,बैठने या बराबर खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा सकते थे। आज वे बेधड़क मोदी से सत्ता बंटबारे में खुलकर मोलभाव करने की स्थिति में हैं।

✍️देश में आये इस तरह के जनादेश के लिए बहुजन समाज(ओबीसी,एससी-एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के लोग) का चुनावी निर्णय बेहद कारगर साबित होता हुआ है।संविधान,लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के आरक्षण को छेड़ने या खत्म करने की वकालत करने वाली आरएसएस नियंत्रित बीजेपी अब अपने तीसरे शासन काल में इन मुद्दों पर चर्चा तक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगी। बहुजन समाज की इस बार की चुनावी राजनीतिक चेतना और इस चर्चा कि मोदी के दिन लदने वाले हैं,से पैदा हुआ राजनीतिक माहौल आरएसएस और बीजेपी को बड़ा सबक सिखा गया है और अब इस पर वहां गम्भीरतापूर्वक चिंतन और मनन जरूर शुरू हो गया होगा। इस जनादेश में बीजेपी अभी भी सबसे बड़ा दल बनकर उभरा है और उसके एनडीए को पूर्ण बहुमत के लिए जरूरी न्यूनतम संख्या से बीस ज्यादा का बहुमत मिला है। सबसे बड़ा दल होने और प्री-पोल गठबंधन के नाते एनडीए की ही सरकार बनना तय है। चूंकि,बीजेपी की सरकार बनेगी तो मोदी के रहते कोई दूसरा पीएम पद की दावेदारी पेश नहीं कर सकता है और ऐसी स्थिति में मोदी, पीएम पद छोड़ भी नहीं सकते हैं,क्योंकि वह अपने दस साल की बैलेंस शीट को अच्छी तरह जानते हैं और वह विपक्षी गठबंधन की सरकार बनने की कोई संभावना पैदा होने के संकेत तक बर्दाश्त नहीं कर सकते,भले ही उसके लिए  संविधान की धज्जियां उड़ानी पड़ें! विपक्षी इंडिया गठबंधन की सरकार बनने का मतलब पीएम केयर्स फण्ड,राफेल सौदा और इलेक्टोरल बांड जैसे बड़े घोटाले खुलने के साथ उनके दस साल के सारे काले कारनामों की सरकार और जनता के सामने कलई खुलना।अच्छा हुआ मोदी को पीएम बनने के लिए एनडीए को पर्याप्त बहुमत हासिल हो गया,वरना देश को बहुत गम्भीर संवैधानिक राजनीतिक परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता था।

✍️2027के यूपी में होने वाले चुनाव से पहले इस मुद्दे की तगड़ी काट ढूंढने की कोई कोर-कसर छोड़ी नहीं जायेगी,क्योंकि बीजेपी के इस मुद्दे पर जब सामाजिक और राजनीतिक हमले शुरू हुए तो बीजेपी खुद विपक्ष पर संविधान,लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के आरक्षण के बंटवारे का आरोप लगाकर पूरे चुनाव भर इस तोहमत से बचने के प्रयास करती रही,लेकिन अंततोगत्वा उसके दुष्प्रभाव की छींटों से वह पूरी तरह से बच नही पाई,जिसके परिणाम स्वरूप अकेले बीजेपी बहुमत के पाले को छू तक नही पाई। बीजेपी अच्छी तरह जानती है कि ओबीसी और एससी-एसटी के सहयोग के बिना वह राजनीतिक रूप से मजबूत नहीं हो सकती,क्योंकि कथित हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर इन जातियों की राजनीतिक गोलबंदी आसानी से की जा सकती है। कहने को तो भाजपानीत एनडीए को पूर्ण बहुमत मिल गया है,लेकिन ऐसी सरकार में निर्णय लेने के मामलों में पहले की तरह "एक अकेला सब पर भारी" जैसे निर्द्वन्द्व भाव से तानाशाही तर्ज़ पर निर्णय लेने की गुंजाइश बहुजन समाज के चातुर्यपूर्ण चुनावी निर्णय से मिले जनादेश से खत्म हो गयी है और सभी राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को अप्रत्यक्ष रूप से यह संदेश भी दे दिया है कि यदि किसी भी शासन सत्ता की तरफ से संविधान और लोकतंत्र पर किसी तरह की आंच या चोट आने की ज़रा सी भी आहट सुनाई दी तो ईवीएम के बटन से करारी चोट देने में कोई कमी नहीं रखी जाएगी। यह भी सन्देश छिपा है कि सभी राजनीतिक दलों और नेताओं को संविधान सम्मत लोकतंत्र को सुरक्षित और समृद्ध करना उनका पहला धर्म है,अन्यथा सत्ता पक्ष और विपक्ष की लड़ाई में विपक्ष की भूमिका में देश की जनता खड़ी होती दिखाई देगी। लोकतंत्र में जनता द्वारा,जनता के लिए,जनता की सरकार चुनी जाती है। सन्देश है कि इस देश में हिन्दू-मुसलमान आधारित धर्म और मंदिर-मस्जिद की वैमनस्यता फैलाने वाली राजनीति अब नहीं चल पाएगी। देश में जनता के शिक्षा,बेरोज़गारी और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर ही स्थायी राजनीति चल सकती है। चुनिंदा अमीर पूंजीपतियों को अथाह लाभ पहुंचाने के बजाए देश के संसाधन विहीन गरीब और मध्यम तबके के लिए कल्याणकारी योजनाओं को प्राथमिकता देनी होगी,अन्यथा आने वाले चुनाव में जनता को बाज़ी पलटते देर नहीं लगेगी। सबसे दिलचस्प और अप्रत्याशित जनादेश यूपी में रहा,विशेषकर अयोध्या में वहां की जनता के रुख से यह साबित हो गया है कि सरकार चुनने में यहां न तो राम मंदिर के निर्माण से लेकर प्राण प्रतिष्ठा और न ही मुफ़्त में मिल रहे पांच किलो गेंहू-चावल का असर है। पूर्ण बहुमत के साथ दस साल के शासन चलाने वालों को आइना दिखाता है, यह जनादेश!सभी दलों को इस जनादेश से सबक सीखने की जरूरत है। इस बार के चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा के ख़िलाफ़ जनता ने चुनाव लड़कर लोकतंत्र में तानाशाही प्रवृत्ति को सबक सिखाने का काम किया है। राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों और बौद्धिक वर्ग के विचार- विमर्श में इस तथ्य या सच्चाई को स्वीकार किया और खूब सराहा जा रहा है।

✍️इस जनादेश ने केवल मोदी और शाह के सपनों को ही चकनाचूर नहीं किया है,बल्कि उत्तर प्रदेश के शासन को लेकर भ्रम भी दूर हो गया है। इस जनादेश से सत्ता काल की निरंतरता और अवधि के संदर्भ में नरेंद्र मोदी,जवाहर लाल नेहरू के बराबर भले ही पहुंच जाएं जो मोदी जी लंबे अरसे से सपना देख रहे है,क्योंकि जब भी मोदी अपने शासन,सत्ता,सरकार की उपलब्धियों की बात करते हैं तो वे जवाहरलाल नेहरू को कोसना नहीं भूलते। जवाहरलाल नेहरू का भूत अभी उन्हें सताता रहता है।नेहरू और मोदी में सत्ता की आवृत्ति-अवधि की बराबरी तो हो सकती है,लेकिन नेहरू जैसे विशाल-विराट व्यक्तित्व,दृष्टि और ज्ञान की बराबरी कैसे कर पाएंगे? जनता ने मोदी को यह भी सन्देश दिया है कि कोई स्वयं को ईश्वर का अवतार स्थापित करने का भ्रम न फैलाये,क्योंकि धरती पर सभी मनुष्यों का जन्म एक ही तरह होता है और उसे उसके सामाजिक,शैक्षणिक और आर्थिक पृष्ठभूमि-परिवेश के हिसाब से आगे बढ़ने या महान बनने का अवसर मिलता है।मोदी की वेशभूषा,वस्त्रों,धार्मिक-आध्यात्मिक भूमिकाओं और उनके संस्कृत-गणित ज्ञान को गोदी मीडिया और देश के नामी गिरामी व्यंग्यकारों ने जनता को भरपूर दिखाने-सिखाने का प्रयास किया अर्थात मोदी के मदारी व्यक्तित्व ने इन दस सालों में जनता का भरपूर मनोरंजन किया। उनके व्यक्तित्व,कृतित्वों और वक्तव्यों पर बने मीम्स और व्यंग्य आने वाली पीढ़ियों को सालों गुदगुदाते रहेंगे।

'पापा पिस्तौल ला दो' एक बेहतरीन शार्ट फिल्म-सत्य प्रकाश 'शिक्षक'


लखीमपुर खीरी  फिल्में समाज का आइना होती है, आज की जीवन शैली में व्यस्तता के कारण साहित्य एवं सिनेमा में लघु विधाएं ज्यादा प्रचलन में हैं। आज साहित्य में लघुकथा सर्वाधिक प्रचलित विधा है।  सिनेमा में शार्ट फिल्में भी खूब चलन में है। लघु फिल्म की बात करें तो एक से बढ़कर एक अच्छी लघु फिल्में चर्चा में आ रही हैं। हाल ही में  अर्पिता फिल्म्स इंटरटेनमेंट के बैनर तले बनी लघु फिल्म "पापा पिस्तौल ला दो" भी काफ़ी चर्चा में हैं। लघु फिल्म की कहानी प्रसिद्ध लघु कथाकार सुरेश सौरभ (लखीमपुर खीरी) ने लिखी है। साहित्य जगत में इनकी लघुकथा " पापा पिस्तौल ला दो " खूब सराही गई। जिससे प्रभावित होकर फतेहपुर जनपद के युवा फिल्म निर्देशक शिव सिंह 'सागर' ने इस लघुकथा पर लघु फिल्म बनाई है। फिल्म की केंद्रीय भूमिका में  ऋचा राजपूत ने बड़ी ही खूबसूरती से निम्मी के किरदार को जिया है। फतेहपुर के सशक्त अभिनेता आर. चद्रा ने माधव यानि पिता के चरित्र को अपने अभिनय से सजा दिया है। इसके अतिरिक्त सहयोगी कलाकारों में राजकुमार, कुनाल, दिव्यांशु पटेल, भूमि श्रीवास्तव, पीहू, अनुराग कुमार, अंश यादव आदि कलाकारों ने लघु फिल्म में महती भूमिका निभाई है। फिल्म को कैमरे पर खूबसूरती से उतारा है पिंकू यादव ने।  ओम प्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, डॉ. द्वारिका प्रसाद रस्तोगी, संजीव जायसवाल 'संजय' वसीक सनम,  राजू फतेहपुरी, विजय श्रीवास्तव आदि साहित्य कला से जुड़े विशिष्ट जनों ने  फिल्म की पूरी यूनिट को बधाई दी है। बताते चले कि स्त्री विमर्श पर यह एक बेहतरीन कथानक की फिल्म है। 

गांधी किसी फ़िल्म(रील) के नायक नहीं,अपितु एक असल (रियल) जिंदगी के प्रेरक-नायक हैं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️विगत कुछ वर्षों से हमारे देश की इतिहास को फिल्मों के माध्यम से देखने और समझने वाली एक खास पीढ़ी बनकर तैयार हो चुकी है। उसको लगता है कि जो फिल्मों के माध्यम से इतिहास दिखाया जा रहा है,वही देश का असली इतिहास है। अभी कुछ दिनों से एक विशिष्ट राजनीतिक धड़े के प्रमुख और देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा चुनिंदा पत्रकारों को दिए गए साक्षात्कार में गांधी जी की बायोग्राफी पर 1982 में बनी फिल्म आने के बाद गांधी जी की पहचान या उनको जानने का दावा किया गया। देश की नई पीढ़ी को यह बताने का प्रयास किया गया कि महात्मा गांधी को उन पर बनी फिल्म के आने के बाद ही देश के लोग जान पाए हैं। देश की जनता को दिग्भ्रमित करने की नीयत से उनके महान व्यक्तित्व-कृतित्व की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान या ख्याति को जानबूझकर अनदेखी करने की कोशिश की गयी,क्योंकि उनका नाम एक विपक्षी राजनीतिक दल के साथ जुड़ा हुआ है।
✍️28 मई, 2024 को एबीपी के तीन पत्रकार:एबीपी की न्यूज एंकर,रोमाना ईसार खान,एबीपी न्यूज की आउटपुट एडिटर रोहित सिंह सावल और एबीपी आनंद के वरिष्ठ उपाध्यक्ष सुमन डे ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का साक्षात्कार लिया था जिसमें मोदी से राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में विपक्ष की अनुपस्थिति के बारे में पूछा और क्या उनके फैसले का चुनाव परिणामों पर असर पड़ेगा? जवाब में प्रधान मंत्री ने विपक्ष की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि वे गुलामी की मानसिकता से बाहर नहीं आ सके हैं। इसके बाद उन्होंने आगे कहा कि “महात्मा गांधी एक महान व्यक्ति थे। क्या इन 75 वर्षों में यह हमारी जिम्मेदारी नहीं थी कि हम यह सुनिश्चित करें कि दुनिया महात्मा गांधी को जाने? महात्मा गांधी को कोई नहीं जानता है। जब 'गांधी' फिल्म बनी थी तब दुनिया यह जानने को उत्सुक थी कि यह आदमी कौन है! हमने ऐसा नहीं किया है,यह हमारी जिम्मेदारी थी। अगर दुनिया दक्षिण अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग को जानती है, तो गांधी उनसे कम नहीं थे। आपको यह स्वीकार करना होगा। मैं दुनिया भर में यात्रा करने के बाद यह कह रहा हूं…समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने 1982 में ब्रिटिश फिल्म निर्माता रिचर्ड एटनबरो की गांधी की बायोपिक रिलीज हुई फ़िल्म का जिक्र किया, जिसमें बेन किंग्सले ने गांधी जी का किरदार निभाया था। अगले वर्ष "गांधी" फ़िल्म को 11 अकादमी पुरस्कार नामांकन प्राप्त हुए थे और उनमें से 8 उसके हिस्से में आए थे,जिसमें सर्वश्रेष्ठ चित्र,सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और प्रमुख भूमिका में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए अकादमी पुरस्कार शामिल थे।
✍️इस सांस्कृतिक और राजनीतिक धड़े के लोगों को शायद यह जानकारी नहीं है कि सन 1982 में आई इस फिल्म से कई वर्ष पहले 1930 में साबरमती आश्रम से दांडी तक नमक सत्याग्रह का आयोजन कर महात्मा गांधी पूरी दुनिया में एक बड़े सामाजिक और राजनीतिक नायक बनकर उभर चुके थे। इस मार्च में महात्‍मा गांधी ने देश के आम नागरिकों को एक मंच पर लाकर अंग्रेजी सत्‍ता के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी। वह हर काम बड़ी ही शांति और सादगी से करते थे, यहां तक क‍ि आजादी की लड़ाई भी उन्होंने बिना किसी तलवार और बंदूक के लड़ी। उनके द्वारा नेतृत्व दिया गया दांडी मार्च,नमक मार्च या दांडी सत्याग्रह के रूप में इतिहास में दर्ज़ है। उनके जीवनकाल में ही उनकी प्रसिद्धि दुनिया भर में फैल गई थी और उनकी मृत्यु के बाद इसमें और वृद्धि ही हुई है। उनकी सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा और स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी बहुआयामी भूमिका और व्यक्तित्व पर देश और विदेश की नामी गिरामी शिक्षण संस्थाओं/विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध कार्य हो चुके और आज भी हो रहे हैं। महात्मा गांधी एक व्यक्ति नहीं,बल्कि उसमें एक पूरी संस्था समाहित है। महात्मा गांधी का नाम अब पृथ्वी पर सर्वाधिक मान्यता प्राप्त नामों में से एक है।
✍️भारत में अंग्रेजों के शासन काल के वक्‍त नमक उत्पादन और उसके विक्रय पर भारी मात्रा में कर लगा दिया गया था। नमक जीवन के लिए जरूरी चीज होने के कारण भारतवासियों को इस कानून से मुक्त करने और अपना अधिकार दिलवाने हेतु यह सविनय अवज्ञा का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। कानून भंग करने पर सत्याग्रहियों ने अंग्रेजों की लाठियां खाई थीं,लेकिन पीछे नहीं मुड़े थे। इस आंदोलन में लोगों ने गांधी के साथ कई सौ किलोमीटर पैदल यात्रा की और जो नमक पर कर लगाया था उसका विरोध किया। इस आंदोलन में कई नेताओं को गिरफ्तार भी किया गया जिसमें सी.राजगोपालचारी, पं.जवाहर लाल नेहरू, सरोजनी नायडू जैसे आंदोलनकारी शामिल थे। यह आंदोलन लगभग एक साल तक चला और 1931में गांधी-इरविन के बीच हुए समझौते से खत्म हुआ। इसी आन्दोलन से सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हुई। इस आंदोलन ने संपूर्ण देश में अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक जन-संघर्ष को जन्म दिया था।  
✍️महात्मा गांधी के बारे में यहां तक बताया जाता है कि लंदन में जब चार्ली चैपलिन(सुविख्यात अंग्रेजी हास्य अभिनेता और फिल्म निर्देशक) उनसे मिलने आए तो वहां के लोग चैपलिन की जगह गांधी जी को देखने के लिए बेतहाशा टूट पड़े थे। अमेरिकी अखबारों के शीर्ष पत्रकार गांधी जी के राजनीतिक दर्शन को समझने में हफ्तों लगाया करते थे। गांधी जी मशहूर अमेरिकी समाचार पत्रिका "टाइम" के मुख पृष्ठ पर दिखाई देते थे,यह था दुनिया में गांधी जी की लोकप्रियता का आलम। आज के दौर की छिछली और सत्तापरक राजनीति में गांधी जी को कमतर आंकने की एक सुनियोजित साजिश और षडयंत्र रचा जा रहा है। जिस इंसान ने अपने जीवन के अतिमहत्वपूर्ण 40 साल देश की आजादी की लड़ाई में झोंक दिए और महज अपनी लाठी के बल पर हिंदुस्तान को आजाद कर दिखाया। लंदन से "बार ऐट लॉ" की पढ़ाई कर कोट-पैंट और टाई को छोड़कर कर जिसने अपनी वेशभूषा में महज़ एक धोती रखी हो।राजनीति और सत्ता के लिए उस महान व्यक्ति की इस तरह पहचान करवाने की तुच्छ कवायद बेहद निंदनीय है। कहा गया कि मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला को लोग गांधी से ज्यादा मानते हैं,जबकि वास्तविकता यह है कि ये दोनों गांधी जी को अपना आदर्श मानते थे। इसी तरह महान भौतिक वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन भी महात्मा गांधी के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे। कहना गलत नहीं होगा कि रविंद्र नाथ टैगोर का वह महात्मा जो अपने आखिरी दिनों में इस दुनिया में हिंसा से निराश था,मौत के बाद पूरी दुनिया का महात्मा बन गया। 
✍️जब लोग आजादी और नई मिली सत्ता का स्वागत कर रहे थे तब महात्मा गांधी ने उससे खुद को बिल्कुल अलग कर लिया था और नोआखली से दिल्ली भाग-भाग कर वह मानवता को बचाने की कोशिश कर रहे थे। जिस देश के लिए गांधी जी ने अंग्रेजों से लड़कर आज़ादी दिलाई,आज उसी देश के लोग राजनीतिक विचारधारा,चेतना और संवेदना के स्तर पर इतने विपन्न,खोखले और दिवालिया दिखने लगे हैं,जहाँ कभी गांधी की मूर्ति में लगी लाठी तोड़ दी जाती हैं,ऐनक तोड़ दिया जाता है और कभी-कभी तो उनकी प्रतिमा ही खंडित कर दी जाती है। हमें यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि गांधी जी किसी व्यक्ति का नाम नहीं है,बल्कि वह एक सामाजिक- राजनीतिक विचारधारा,चेतना,आंदोलन-संघर्ष का नाम है,वह सामाजिक विज्ञान के विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए एक बहुआयामी और वृहद विषयवस्तु हैं। वह हमारे देश के महात्मा हैं,हम उन्हें राष्ट्रपिता का सम्मान देते हैं और आज के दौर के राजनेता यदि सीखना चाहें तो उनसे हर दिन कुछ न कुछ नया सीख सकते हैं। इसलिए गांधी जी को उन पर बनी फ़िल्म तक सीमित कर देखना, समझना और समझाना सर्वथा गलत होगा!
✍️गांधी जी के दर्शन,व्यक्तित्व और कृतित्व के कतिपय पहलुओं उनसे जुड़े घटनाक्रमों से सहमत या असहमत होना किसी भी नागरिक का निजी विचार हो सकता है। यदि कोई उनके विचारों के कुछ अंशों से सहमत नहीं है तो उसको संपूर्णता में ख़ारिज किया जाना जायज़ नहीं,लेकिन किसी महापुरुष के विचार या दर्शन के सूक्ष्म अंश से असहमति का यह तो मतलब नहीं है कि उसके सम्पूर्ण जीवन या व्यक्तित्व पर एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया जाए जो उसकी पहचान और अस्तित्व के लिए आम आदमी के बीच संकट खड़ा होता हुआ दिखाई दे। किसी भी व्यक्ति की विचारधारा संपूर्णता में समावेशी नहीं हो सकती है और कोई भी व्यक्ति संपूर्णता में दोषों से मुक्त नहीं हो सकता है, तो फिर एक इतिहास पुरुष की पहचान उनकी जीवनी पर बनी एक फ़िल्म के बाद होने का वक्तव्य कितना जायज़ और नैतिक? हमारा संविधान आलोचना करने और असहमत होने का अधिकार देता है। गांधी जी भी आलोचना -असहमति से परे नहीं हो सकते। गांधी जी के व्यक्तित्व-कृतित्व की आलोचना करिए,लेकिन सही मूल्यांकन के साथ। हमारे प्रधान मंत्री जी तो "एंटायर पोलिटिकल साइंस" में परास्नातक हैं,निश्चित रूप से इस विषय के पाठ्यक्रम में गांधी जी के राजनीतिक दर्शन का थोड़ा-बहुत तो समावेश रहा होगा! गांधी जी की पहचान सीमित-धूमिल करने के प्रयास या साजिश या षडयंत्र से उनके पैतृक संगठन के सावरकर और नाथूराम गोडसे उनके समकक्ष या उनसे ऊपर स्थापित तो हो नहीं जाएंगे, क्योंकि सबके चरित्र भारतीय राजनीति के इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। एक गांधी बनने में कई दशक लगते हैं और एक गोडसे बनने के लिए एक सनक और एक छोटा सा शस्त्र ही काफ़ी है। गांधी जी और उनका दर्शन पूरी दुनिया के लिए था,है और रहेगा,ऐसा मेरा विश्वास है।

Wednesday, June 05, 2024

बीएसपी की राजनीति के भविष्य पर लगातार मंडराता गहरा संकट-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर),

   राजनीतिक चर्चा     

"गठबंधन के दौर की राजनीति में "एकला चलो" का निर्णय बेहद आत्मघाती साबित हुआ"
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️गठबंधन की राजनीति के दौर में बीएसपी का अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय इस लोकसभा चुनाव में बेहद घातक साबित हुआ। संविधान और लोकतंत्र के ख़ातिर इंडिया गठबंधन का घटक बनकर बहुजन समाज पार्टी को इस बार गत लोकसभा चुनाव से अधिक संसदीय प्रतिनिधित्व मिलने की संभावना जताई जा रही थी। पिछले चुनाव में सपा+बसपा गठबंधन से हासिल दस सीटों के स्थान पर आज वह 2014 की तरह एक बार फिर शून्य पर आकर टिक गई है और गत लोकसभा चुनाव की तुलना में वोट शेयरिंग में भारी गिरावट आई है। बताया जा रहा है कि बीएसपी को इस चुनाव में दस प्रतिशत से भी कम वोट हासिल हुए हैं,जबकि 2019 के चुनाव में उसे लगभग 20% वोट मिले थे। इस राजनीतिक शून्यता और वोट प्रतिशत में आई भारी गिरावट से बीएसपी की भावी राजनीति बुरी तरह प्रभावित होती दिख रही है। नगीना लोकसभा सीट पर आज़ाद समाज पार्टी(कांशी राम) के संस्थापक चंद्र शेखर रावण की ऐतिहासिक जीत बीएसपी और मायावती की राजनीति का भविष्य का अनुमान लगाने  और उसके निहितार्थ समझने के लिए पर्याप्त है। यहां बीएसपी की पराजय नहीं हुई है,अपितु उसे मायावती की पराजय के रूप में देखा जा रहा है। सुनने में आ रहा है कि इस सीट पर बीएसपी और बीजेपी प्रत्याशी की जमानत तक ज़ब्त हो गयी है। रामराज्य में चंद्र शेखर आज़ाद की जीत के बड़े मायने निकाले जा रहे हैं।


✍️केंद्र की सत्ता में विगत दस साल से काबिज़ देश की सबसे बड़ी कही जाने वाली पार्टी बीजेपी जब तीस से अधिक दलों से मिलकर गठबंधन की राजनीति कर रही या कर सकती है तो बीएसपी सुप्रीमो का अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय किस चुनावी राजनीति और रणनीति का हिस्सा माना जाए? यह बात राजनीति की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले किसी व्यक्ति के गले नहीं उतर रही है। इस चुनाव में बीएसपी का कोर वोट बैंक जो कतिपय सामाजिक- राजनीतिक कारणों से कभी सपा के साथ जाना पसंद नहीं करता था,उसने इस बार डॉ.आंबेडकर के संविधान और लोकतंत्र के खतरों को भांपते हुए बीएसपी छोड़ इंडिया गठबंधन के घटक समाजवादी पार्टी के साथ जाने का निर्णय लेने को मजबूर हुआ और संविधान व लोकतंत्र को खत्म करने का सपना पालने वाली बीजेपी को यूपी में मुंहतोड़ माकूल जवाब देने का काम किया है। सामाजिक और राजनीतिक वजहों के चलते दलित समाज का एक बड़ा धड़ा अभी भी बीजेपी से जुड़ा हुआ है,या यह माना जा सकता है कि गैर जाटव दलित जातियों का बहुत बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ खड़ा दिखाई देता है। नेशनल कोऑर्डिनेटर और बीएसपी की राजनीति के वारिस मायावती के भतीजे आकाश आनंद को चुनाव के बीच में सभी पदों से हटाने का आनन-फानन में लिए गए निर्णय से बहुजन समाज हतप्रभ रह गया। आकाश आनन्द द्वारा चुनावी सभाओं में बीजेपी की नीतियों और निर्णयों का विद्रोही तेवर के साथ आलोचनात्मक विश्लेषण किया जा रहा था। सीतापुर में हुई चुनावी सभा में आकाश आनंद द्वारा अतिरेक भाव से बीजेपी पर चुनाव आचार संहिता के हिसाब से कुछ गलत शब्दों का प्रयोग हो गया। मायावती ने उन्हें बिना देरी किये यह कहते हुए सभी पदों और चुनावी सभाओं को संबोधित न करने से किनारे कर दिया कि आकाश आनन्द अभी चुनावी राजनीति के हिसाब से परिपक्व नहीं है। इस निर्णय से बहुजन समाज का कोर  धड़ा एकदम हतप्रभ है अर्थात वह मायावती के इस निर्णय से बेहद दुखी और क्षुब्ध है। उसका मानना है कि मायावती यह सब बीजेपी के अदृश्य भयवश करने को मजबूर हैं। शासन और प्रशासन से जुड़े लोगों का कहना है और राजनीति के विरोधी खेमों में भी ऐसी चर्चा है कि मायावती किसी घोटाले/भ्रष्टाचार में उनकी लिप्तता की फ़ाइल खुलने से भयभीत हैं और वह जो भी निर्णय लेती हैं, उसके पीछे कहीं न कहीं बीजेपी सरकार और उसकी जांच एजेंसियों का हाथ है।
✍️बहुजन समाज के चिंतकों और एकेडमिक संस्थाओं से जुड़े बौध्दिक वर्ग का मानना है कि यदि बीएसपी इंडिया गठबंधन का घटक बनकर चुनाव लड़ती तो आज उसकी राजनीतिक हैसियत सपा से कम नहीं होती,क्योंकि इंडिया गठबंधन बीएसपी को यूपी सहित अन्य राज्यों जैसे पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार जहां बीएसपी का अच्छा खासा जनाधार है,में सपा से अधिक सीटें देने को तैयार थी। यदि मायावती इंडिया गठबंधन के साथ चुनाव लड़ती तो सामाजिक और राजनीतिक गलियारों में वह बीजेपी की "बी" टीम होने के आरोप से बच जाती और दूसरी तरफ संविधान और लोकतंत्र बचाने की राजनीतिक लड़ाई में वह इतिहास में दर्ज हो जातीं और पार्टी भी राजनीतिक दुर्गति होने से बच जाती। राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों का मानना है कि इस बार चुनाव परिणामों की स्थिति से मायावती एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों के लिए किंग मेकर की भूमिका के रूप में साबित होती नज़र आती और डॉ.आंबेडकर के संविधान और लोकतंत्र को खत्म करने का ऐलान करने वालों को मुंहतोड़ जवाब देनी की स्थिति में होती। बसपा सुप्रीमो के इस लोकसभा चुनाव में अकेले लड़ने के निर्णय से उसने अपनी सीटें ही नहीं खोई,बल्कि सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर बहुत कुछ खोया है जिसका अनुमान-आंकलन करना आसान नहीं। "एकला चलो" के एक कदम से होने वाले अदृश्य नुकसानों का आने वाले भविष्य में धीरे-धीरे एहसास होगा।एकेडमिक संस्थाओं और बहुजन राजनीति की समझ रखने वाले मायावती के इस कदम को एक आत्मघाती कदम मानकर बेहद हतप्रभ और चिंतित हैं। देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार की मुख्यमंत्री (गठबंधन और पूर्ण बहुमत) रहने वाली मायावती जिसके बारे में कहा जाता है कि उनकी राजनीतिक रणनीति को भांपना और पूर्वानुमान लगाने में बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित चकरा जाते हों,वह इस बार चुनावी निर्णय लेने में चूक कैसे कर बैठी! उनके सामने कौन सी अपरिहार्य परिस्थितियाँ और मजबूरियां रहीं होंगी,इसको लेकर बहुजन समाज और राजनीतिक गलियारों में कई तरह की चर्चाएं हैं,लेकिन असल वजह तो मायावती ही जानती होंगी।फ़िलहाल, इस चुनाव में बीएसपी के ख़राब प्रदर्शन को लेकर बहुजन समाज का हर व्यक्ति दुखी है,भले ही वह उसे ज़ाहिर नहीं कर पा रहा है। मायावती की एकला चलो की रणनीति का दांव गलत साबित हुआ और इस चूक या गलती से उसका आधार वोट बैंक भी संविधान और लोकतंत्र जैसे गम्भीर मुद्दे की वजह से खिसक कर बीजेपी के खिलाफ लड़ रहे इंडिया गठबंधन में शिफ्ट कर गया।
✍️ इंडिया गठबंधन के साथ जाने का बहुजन समाज पार्टी के कोर वोट बैंक का यह टैक्टिकल (चातुर्यपूर्ण) चुनावी निर्णय या कदम बेहद सराहा जा रहा है और बीएसपी के भीतर उसे कोसा भी जा रहा है। बीएसपी द्वारा बहुजन समाज के इस निर्णय के लिए कुछ बहुजन चिंतकों और बुद्धिजीवियों को दोषी ठहराने का प्रयास कर उनके सिर पर ठीकरा भोड़ने जैसा काम किया जा रहा है। बीजेपी को शायद यह भ्रम था कि बहुजन समाज का एक वंचित वर्ग पांच किलो गेंहू-चावल और पांच सौ रुपए किसान सम्मान निधि के लालच में उसे लंबे अरसे तक वोट देने का काम करता रहेगा और उसे संविधान और लोकतंत्र को भूल जाएगा,लेकिन बहुजन समाज ने राशन और सम्मान निधि की चिंता छोड़ संविधान और लोकतंत्र बचाने को प्राथमिकता दी।बीएसपी के कोर वोट बैंक के इस निर्णय ने बीजेपी और बीएसपी दोनों को एक सख़्त राजनीतिक संदेश देने का काम किया है। उम्मीद है कि बीएसपी सुप्रीमो पार्टी के बड़े ओहदे वाले पदाधिकारियों से अलग-अपने जमीनी स्तर के स्थानीय कार्यकर्ताओं, सामाजिक एक्टिविस्टों और बहुजन विचारधारा से जुड़े शीर्ष और स्थानीय बुद्धिजीवियों के साथ इस चुनाव में प्रत्याशी चयन से लेकर उनके कोर वोट बैंक की भूमिका और बीएसपी के हाथ आये शून्य परिणाम पर पूरी शिद्दत, निष्पक्षता,पारदर्शिता और ईमानदारी से गम्भीर चिंतन-मनन कर बदलते चुनावी परिवेश की परिस्थितियों के हिसाब से अपनी भावी राजनीति और रणनीति की दिशा-दशा तय करने की दिशा में कुछ न कुछ तो सीख लेंगी। बीएसपी सुप्रीमो मायावती को अब एक सरंक्षिका कि भूमिका में रहकर किसी पुराने समर्पित और तपे हुए बहुजन समाज के व्यक्ति या किसी प्रशिक्षित नए युवा को "बीएसपी का उत्तराधिकारी" घोषित कर नए सिरे से एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक उपक्रम/ढांचा तैयार करना होगा जिससे वह अपने कोर वोट के शिक्षित युवा पीढ़ी के साथ स्थायी रूप से कनेक्टिविटी स्थापित कर सके।
मान्यवर कांशीराम की सोशल इंजीनियरिंग/केमिस्ट्री और उनकी सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा पर लौटकर ही बहुजन समाज की राजनीति को नए सिरे से पुनर्स्थापित किये जाने की ईमानदार क़वायद ही एकमात्र विकल्प बचता हुआ दिखाई देता है।

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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