साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, March 31, 2023

सियासी जंग की शिकार हुई दोस्ती-अखिलेश कुमार अरुण

बचाने वाले से बड़ा न कोय

 

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम हजरतपुर परगना मगदापुर
जिला लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 8127698147

वह भी क्या समय होता था जब लोग दोस्ती में जान दे देते थे. आज का समय ऐसा हो गया है कि लोगों को आदमी तो आदमी पशु-पक्षी और मानव की दोस्ती भी हजम नहीं हो रही है. भाई मैं न सारस के समर्थन में हूँ और न ही उस युवक आरिफ के समर्थन में क्योंकि दोनों ने गलत किया है. यह हमारे और हमारी सरकार के सिद्धांतों के खिलाफ़ है. न मनुष्य सारस से दोस्ती कर सकता है और न सारस मनुष्य से यहाँ सरासर गलती सारस की नहीं आरिफ की है उसने सारस को क्यों बचाया, सारस को नहीं आरिफ को कैद करना चाहिए था क्योंकि इस प्रकार की घटना को कोई और नवयुवक अंजाम न दे सके, मरते तड़पते पशु-पक्षियों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि आज के समय में गौतम बुद्ध का हंस, देवदत्त को ही दिया जाना इस बात का प्रमाण है. भले ही इस बात से आप सहमत न हों लेकिन इतना तो जरुर है कि आज भी सरंक्षित वन्यजीवों का शिकार धड़ल्ले से हो रहा है जिसमें कहीं न कहीं देवदत्त इसमें शामिल हैं.

 

गायों के साथ फोटो खिंचाने वाले देखते ही देखते सच्चे गौभक्त बन जाते हैं और जो वास्तव में गायों की सेवा करते हैं उनका कहीं नाम नहीं होता यही हुआ है आरिफ के साथ वन्यजीवों की ब्रांडअम्बेसडर बनी बैठी हैं दिया मिर्जा जिनका जीवों से दूर-दूर का नाता नहीं होगा या एक-दो कुत्ता-बिल्ली पाल रही होंगी और एक से एक अनाम पशु-पक्षी प्रेमी उनके लिए न जाने क्या-क्या करते हैं. आरिफ आज के समय में पशु-पक्षी प्रेमियों के लिए एक उदाहरण बन गया था. उसकी और उसके सारस की दोस्ती उन लोगों के लिए किसी एक ऐसे सन्देश देने से कम नहीं था जो नवयुवकों को पशु-पक्षी काम करता. सारस आरिफ के पास रहता तो कोई गलत नहीं था कहा जाता है कि सारस जिसको चाह जाता है उसके लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देता है यहाँ तक कि अपने प्राण भी तो क्या सारस आरिफ से अलग रहकर जिन्दा रह पायेगा?

 

वन्यजीव सरंक्षण के नाम पर सरकार के बैकडोर से कौन-कौन सा खेला होता है यह किसी को बताने की जरुरत नहीं है.  वन्यजीव सरंक्षण अधिनियम १९७२ के तहत विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी जो विलुप्त होने की कागार पर हैं उनको सरंक्षित किया गया है उसमें से एक साईबेरियन सारस भी शामिल हैइस अधिनियम को तब लाया गया था जब हमारे देश में प्राचीन समय में शौक के लिए और अंग्रेजी हुकूमत में व्यापार के लिए बड़े पैमाने पर पशु-पक्षियों का शिकार किया जाने लगा जो १९ वीं शताब्दी के अंत तक आते-आते कई प्रकार के जीवों के आस्तित्व को समाप्त करने की अंतिम सीमा पर था तब १९७२ में पशु-पक्षियों के शिकार पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए इस क़ानून को लाया गया तथा २००३ में इसको विस्तारित करते हुए दंड और सजा की समयावधि को और बढ़ा दिया गया.


वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का मुख्य उद्देश्य शिकार पर प्रतिबंध लगाकरउनके आवासों को कानूनी सुरक्षा देकर और अंत में वन्यजीव व्यापार को प्रतिबंधित करके लुप्तप्राय प्रजातियों की शेष आबादी की रक्षा करना है। अधिनियम में अंकित शब्दों के विपरीत आरिफ और सारस की दोस्ती थी क्योंकि आरिफ सारस को घायल अवस्था में पाता है और उसकी सेवा-सुस्रुसा से ठीक होकर सारस आरिफ का कायल हो गया था. सारस के आबादी/आवास में आरिफ का आना-जाना नहीं था और नहीं वह उसका व्यापार कर रहा था और न ही ऐसा कोई काम कर रहा था जिससे सारस को कोई शारीरिक क्षति होने की आशंका थी तो ऐसे में कौन सी विपदा आन पड़ी कि आनन-फानन में वन विभाग की टीम इतनी सक्रियता दिखाते हुए सारस को कैद कर पक्षी और मनुष्य की दोस्ती को तार-तार कर दिया.

 

सारस और आरिफ की दोस्ती में होना तो यह चाहिए था कि आरिफ को पशु-पक्षियों के सरंक्षण की कोई बड़ी जिम्मेदारी देते या ब्रांडअम्बेसडर बना देते क्योंकि जहाँ दिया मिर्जा (अभिनेत्री ) को भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट का अम्बेसडर बनाया जा सकता है जिनको जीवों से कुछ नहीं लेना-देना, उत्तर प्रदेश में स्वच्छ भारत मिशन के अम्बेसडर अक्षय कुमार हैं जो विमल पान मसाला का प्रचार-प्रसार करते हैं जिसको खाकर लोग जगह-जगह सरकारी आफिसों की दीवारों को रंग-बिरंगा किये रहते हैं. इन सबसे लाख गुना सही था आरिफ जिसे वन्यजीवों के सरंक्षण के लिए ब्रांड अम्बेसडर बनाकर एक नईं पहल की शुरुआत की जा सकती थी और अधिक से अधिक लोगों को पशु-पक्षियों के प्रति जागरूक किया जा सकता था.

 

लेखक-अखिलेश कुमार अरुण

ग्राम-हजरतपुर, जिला-खीरी

Tuesday, March 21, 2023

दो बड़े राजवंशों के बीच का काल, मौर्योत्तर काल का इतिहास-अखिलेश कुमार अरुण

 समीक्षा 



पुस्तक परिचय
पुस्तक का नाम-मौर्योतर काल में शिल्प, व्यापर और नगर विकास
लेखक- डॉ० आदित्य रंजन
प्रकाशक- स्वेतवर्णा प्रकाशन (नई-दिल्ली)
मूल्य-199.00
प्रकाशन वर्ष- 2022

इतिहास गतिशील विश्व का अध्ययन है जिस पर भविष्य की नींव रखी जाती है, बीते अतीत काल का वह दर्पण है जिसमें वर्तमान पीढ़ी अपनी छवि देखती है और भविष्य को संवारती है। पृथ्वी पर जितने भी प्राणी पाए जाते हैं उन सब में मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो अपने अतीत में घटी घटनाओं को याद रखता है। जिस क्रम में आज जो भी कुछ हम पढ़ने को पाते हैं वह पूर्व घटित घटनाओं का वर्णन होता है। जिसे विभिन्न समयकाल में शोध कर लिखा गया है और इतिहास लेखन में अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है। अतः इसी लेखन की अग्रेत्तर पीढ़ी में डॉ० आदित्य रंजन अपनी पुस्तक मौर्योत्तर काल में शिल्प-व्यापार एवं नगर विकास (200 ई०पू० से 300 ई०) लेकर आते हैं जो अपने विषयानुरूप एकदम अछूता विषय है जिस पर कोई सटीक पुस्तक हमें पढ़ने को नहीं मिलती। यह पुस्तक पांच अध्यायों में विभक्त है जिसमें मौर्योत्तर काल में शिल्प, व्यापर, नगर विकास और मुद्रा अर्थ व्यवस्था तथा माप-तौल पर सटीक लेखन किया गया है।

इतिहास के अध्येताओं और विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी साबित होगी और इसे अपने पूर्व पुस्तकों की पूरक कहना न्यायोचित होगा। इस पुस्तक में दो बड़े राजवंशों (मौर्य और गुप्त काल) के बीच में छिटपुट राजवंशों के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक जानकारी उपलब्ध कराती है तथा सामंतवाद के प्रारम्भिक चरण की शुरुआत में शिल्प-श्रेणियों तथा वर्ण व्यवस्था के समानांतर जाति व्यवस्था के विकास की कहानी को स्पष्ट करती है । 

पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है कि इस काल के ग्रन्थों में शिल्पियों के जितने प्रकार प्राप्त होते हैं वह पूर्व ग्रन्थों में नहीं मिलते...नि:सन्देह इस काल के धन्धों में दस्तकारों की अत्यधिक बढ़त हुई शिल्पी लोग संगठित होते थे जिनको संगठित रूप में श्रेणी कहा जाता था। पुस्तक के सन्दर्भ में यह कथन न्यायोचित है। वह सब कुछ इतिहास के अध्येता को इस पुस्तक में पढ़ने को मिलेगा जिसकी आवश्यकता मौर्योत्तर काल के इतिहास को जानने के लिए आवश्यक बन पड़ता है।

 

इस पुस्तक में मौर्योत्तर कालीन विकसित शिल्प एवं शिल्पियों तथा उनके व्यवसाय सम्बंधित शुद्धता (सोने-चांदी जैसे धातुओं में मिलावट आदि) के अनुपात को भी निश्चित किया गया है निर्धारित अनुपात से अधिक अंश होने पर शिल्पी को दण्ड देने का प्रावधान है। इस पुस्तक में कहा गया है कि कौटिल्य सोना (स्वर्ण) पर राज्य का एकाधिकार स्थापित करता है। यहां तक कि धोबी (रजक) को वस्त्र धोने के लिए चिकने पत्थर और काष्ट पट्टिका का वर्णन भी मिलता है और यह भी निर्धारित है कि धोबी को जो कपड़े धुलने के लिए मिलते थे उसको किसी को किराए पर देता है अथवा फाड़ देता है तो उसे 12 पड़ का दण्ड देना होता था। मौर्योत्तर काल में पोत निर्माण का भी कार्य किया जाता था जिसका वर्णन इस पुस्तक में किया गया है सामान्यतः इन सब बातों का वर्णन इतिहास की पूर्ववर्ती पुस्तकों में पढ़ने को नहीं मिलता है इस लिहाज से यह पुस्तक अत्यन्त महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध होती है।

मौर्यकालीन राज्य और व्यापार से संबंधित राजाज्ञा और वस्तुओं के क्रय विक्रय से सम्बंधित अनुज्ञप्ति-पत्र, थोक भाव पर बेचे जानी वाली वस्तुओं का मूल्य निर्धारण वाणिज्य अधीक्षक के द्वारा किया जाना तथा मिलावट तथा घटतौली आदि के सन्दर्भ में कठोर से कठोर दण्ड का विधान आदि सामान्यतः बाजार नियंत्रण अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल की महान उपलब्धि है किन्तु इस में वर्णित बाजार व्यवस्था को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि खिलजी का बाजार नियंत्रण मौर्य और मौर्योत्तर कालीन व्यवस्था का विकसित स्वरूप है।

पुस्तक के अंतिम अध्याय में मुद्रा अर्थव्यवस्था तथा माप-तौल पर मौर्योतर कालीन सिक्के और माप के परिणाम को विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है। सिक्कों के वर्णित प्रकारों में अग्र, अर्जुनायन, अश्वक, औदुम्बर, क्षुद्रक, कुतूल, कुनिंद, मालव, शिबि, औधेय (काल विभाजन के आधार पर १. नंदी तथा हाथी प्रकार के सिक्के, 2.कार्तिकेय ब्रहामंड देव लेख युक्त सिक्के, ३. द्रम लेखयुक्त सिक्के, ४. कुषाण सिक्कों की अनुकृति वाले सिक्के तथा माप-तौल के लिए निर्धारित माप के परिमाणों यथा-रक्तिका, माशा, कर्ष, पल, यव, अंगुल, वितास्ति, हस्त, धनु, कोस, निमेष, काष्ठ आदि का उल्लेख पुस्तक उपयोगिता को सिद्ध करते हैं।

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर (खीरी) उ०प्र०

 

Monday, March 20, 2023

झोला उठाकर जाने की जिद-सुरेश सौरभ


हास्य-व्यंग्य
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

अक्सर जब मैं अपनी कोई बात, अपनी पत्नी से मनवाना चाहता हूं, तो गुस्से में आकर कह देता हूं, मेरी बात मानना हो तो मानो वर्ना मैं अपना झोला उठाकर अभी चल दूंगा। पत्नी डर जाती है, फौरन मेरी बात किसी आज्ञाकारी भक्त की तरह मान लेती है। यानी मैं अपनी पूरी स्वातंत्रता में जीते हुए, पत्नी को हर बार इमोशनल ब्लैकमेल करके मौज से, अपने दिन काटता जा रहा हूं। अब मेरे बड़े सुकून से अच्छे दिन चल रहे थे, पर उस दिन जब मैंने यह बात दोहराई, तब वे पलट कर बोलीं-तू जो हरजाई है, तो कोई और सही और नहीं तो कोई और सही।’  
मैंने मुंह बना कर कहा-लग रहा आजकल टीवी सीरियल कुछ ज्यादा ही देखने लगी हो। वो नजाकत से जुल्फें लहरा कर बोली-हां आजकल देख रहीं हूं ‘भाभी जी घर पर हैं, भैया जी छत पर हैं।’ 
मैंने तैश में कहा-इसी लिए आजकल तुम कुछ ज्यादा ही चपड़-चपड़ करने लगी हो। तुम नहीं जानती हो, मैं जो कहता हूं, वो कर के भी दिखा सकता हूं। मुझे कोई लंबी-लंबी फेंकने वाला जोकर न समझना।’ 
वह भी नाक-भौं सिकोड़ कर गुस्से से बोली-हुंह! तुम भी नहीं जानते मैं, जो कह सकती हूं, वह कर भी सकती हूं, जब स्त्रियां सरकारें चला सकती हैं। गिरा सकती हैं, तो उन्हें सरकारें बदलने में ज्यादा टाइम नहीं लगता।’ 
मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। अपना गियर बदल कर मरियल आवाज में मैं बोला-झोला खूंटी पर टंगा है, अब वह वहीं टंगा रहेगा। मेरी इस अधेड़ अवस्था में सरकार न बदलना। मेरा साथ न छोड़ना, वरना मैं कहीं मुंह दिखाने के लायक न रहूंगा। मेरी खटिया खड़ी बिस्तरा गोल हो जायेगा। खट-पट किसके घर में नहीं होती भाग्यवान! मुझ पर तरस खाओ! तुम मेरी जिंदगी हो! तुम मेरी बंदगी हो! मेरी सब कुछ हो!
तब वे मुस्कुराकर बोलीं-बस.. बस ज्यादा ताड़ के झाड़ पर न चढ़ो! ठीक है.. ठीक है, चाय बनाकर लाइए शर्मा जी। आप की बात पर विचार किया जायेगा। मेरा निर्णय अभी विचाराधीन है।
चाय बनाने के लिए रसोई की ओर मैं चल पड़ा। सामने टंगा झोला मुझे मुंह चिढ़ा रहा है। 
बेटी बचाओ अभियान में अब तन-मन से जुट पड़ा हूं। झोला उठाकर जाने वाली मेरी अकड़ जा रही है। भले ही अब हमें कोई पत्नी भक्त कहें, पर कोई गम नहीं, लेकिन पत्नी के वियोग में एक पल रहना मुझे गंवारा नहीं साथ ही पत्नी के छोड़कर जाने पर जगहंसाई झेल पाना भी मेरे बस की बात नहीं।


Sunday, March 19, 2023

बोलना होगा-अखिलेश कुमार अरुण

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम हजरतपुर परगना मगदापुर
जिला लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 8127698147

कविता

आज भी हमें, बराबरी करने देते नहीं हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।

संविधान एक सहारा था उस पर भी हाबी हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

आदि-अनादि काल के हम शासक न जाने कब हम गुलाम बन गए,

तूती बोलती थी कभी हमारी और  न जाने हम कब नाकाम हो गए

राज-पाट सब सौंप दिए या हड़प लिया गया हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

शिक्षा के द्वार बंद कर दिए, किये हमें हमारे अधिकार से वंचित,

हम कामगार लोग जीने को मजबूर थे, हो समाज में कलंकित।

गुणहीन न थे हम, हमको अज्ञानी बना दिए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

जब तुमने हम पर अत्याचार किया, जातीय प्रताड़ना किये,

गले में मटकी कमर में झाड़ू और पानी को मोहताज किये,

छूने पर घड़ा आज भी जहाँ मार देते हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

अपनी बहन-बेटी की आबरू को तुम्हारी विलासिता के लिए,

है, नांगोली का स्तन काटना आज भी इस बात का प्रमाण लिए,

हाथरस की उस लड़की का कुनबा तबाह किए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

अमनिवियता को समर्पित भरे-पड़े तुम्हारे साहित्य पर,

जहाँ लिखते हो पुजिये गुणहीन, मूर्ख सम विप्र चरण,

जहाँ, मानवीयता को सोचना ही पाप लिए हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

तुमने पशु को माता कहा और एक वर्ण विशेष को अछूत,

गोबर को गणेश कहा और तर्क करने को कहा बेतूक,

हम बने रहे मूर्ख, बेतुकी बातों को मानते गए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

मंदिर कौन जाता है किन्तु हमारे राष्ट्रपति को जाने नहीं दिए,

सत्ता क्या गयी, बाद एक मुख्यमंत्री के जो कुर्सी धुलवा दिए,

बाद हमारे विधानसभा को शुद्ध  करवाते हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें ।।


बोल ही तो नहीं रहे थे- 

लेकिन अब बोलेंगे तुम्हारे गलत को ग़लत और सही को सच्च से,

मिडिया तुम्हारी है फिर डरते हो तुम हमारी अनकही एक सच्च से

क्योंकि तुम्हारे लाखों झूठ पर हमारा एक सच्च काफी है,

हम, इस रोलेक्टसाही में लोकतंत्र के मुखर आवाज हैं और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


 


Friday, March 17, 2023

69000 शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में आरक्षण घोटाले की खुलती परत दर परत-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

मुद्दा 69000 शिक्षक भारती 

हाई कोर्ट के फैसले के बाद यदि सरकार की ईमानदारी से ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग के पीड़ितों के साथ आरक्षण पर न्याय करने की मंशा है तो संशोधित चयन सूची तैयार करने वाली कमेटी में ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व होना बहुत जरूरी है। पीड़ित अभ्यर्थियों और विपक्ष को एकजुट होकर इस दिशा में जोरदार तरीके से सड़क से लेकर सदन तक अड़े रहना चाहिए।
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

         आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को संवैधानिक आरक्षण के लाभ से वंचित होने पर उन्होंने सरकार के खिलाफ शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन और धरना-प्रदर्शन कर सरकार का कई बार ध्यानाकर्षण करने के विफल प्रयासों के बाद वे प्रकरण को राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग तक ले जाने के लिए विवश हुए। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा आरक्षण विसंगतियों को स्वीकार करने और उनके सुधारने की सिफारिश के बावजूद राज्य सरकार की ओर से जानबूझकर आरक्षण की विसंगतियों को दूर करने का कोई प्रयास नही किया गया। इससे क्षुब्ध,निराश, हताश और पीड़ित अभ्यर्थियों को न्यायालय की शरण लेनी पड़ी जिसमें समय और धन की बर्बादी हुई और असहनीय शारीरिक-मानसिक पीड़ा और दुश्वारियों के कठिन दौर से सपरिवार गुजरना पड़ा। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने सोमवार को अपने एक आदेश में 69000 की मौजूदा चयन लिस्ट को याचिकाकर्ताओं द्वारा पेश किए गए साक्ष्यों और दस्तावेजों के आधार पर गलत माना है और कहा है कि सरकार लिस्ट में अभ्यर्थियों के गुणांक,कैटेगरी (सामान्य/अनारक्षित,ओबीसी और एससी-एसटी) और उनकी सब कैटेगरी सहित ओबीसी का 27% और एससी-एसटी का 23% आरक्षण पूरा करते हुए संशोधित सूची तैयार करे। आरक्षण घोटाले से चयन से बाहर हुए आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी सरकार पर लगातार आरोप लगाकर अपने हक के लिए तीन साल से विभिन्न संस्थाओं और जिम्मेदारों के खिलाफ धरना- प्रदर्शन कर रहे थे। बाद में इस शिक्षक भर्ती में अनुमानित 19 हजार से अधिक आरक्षण घोटाले के मुकाबले सरकार ने  5 जनवरी 2022 को घोटाला स्वीकार करते हुए 6800 सीटों पर अतिरिक्त आरक्षण दिया था,उसे भी हाई कोर्ट ने पूरी तरह खारिज़ कर दिया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस भर्ती प्रक्रिया में अनुमानित 19000 आरक्षित पदों पर घोटाला कर उनके स्थान पर अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की भर्ती कर एक बड़ा घोटाला हुआ है। हाई कोर्ट ने सरकार को 69000 शिक्षकों की नए सिरे से चयन सूची को तीन महीने में श्रेणीवार (अनारक्षित, ओबीसी और एससी - एसटी) तैयार करने के लिए निर्देश दिए हैं और यह भी कहा है कि तब तक सभी चयनित कार्यरत शिक्षक अपने पदों पर कार्य करते रहेंगे। उल्लेखनीय है कि आरक्षण से वंचित हुए अभ्यर्थियों की दलीलों को न्यायालय ने सही मानते हुए 8 दिसंबर 2022 को आरक्षण घोटाले पर आर्डर रिजर्व किया था। असली घोटाला तो संशोधित सूची बनने के बाद ही सामने आ पाएगा।
           कोर्ट का यह निर्णय यूपी सरकार के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। बड़ी बात यह है कि जीरो भ्रष्टाचार की दुहाई देने वाली यूपी सरकार के सुशासनकाल में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग और हाई कोर्ट ने पहले ही मान लिया था कि भर्ती प्रक्रिया के आरक्षण में कई तरह की विसंगतियां हुई हैं। जो विसंगतियां सुनी जा रही हैं उनमें प्रमुख रूप से एक यह है कि आरक्षित वर्ग की उच्च मेरिट को दरकिनार करते हुए उनको अनारक्षित वर्ग में चयनित नहीं किया गया है,अर्थात उनको उनके आरक्षण प्रतिशत की सीमा तक समेट दिया गया है। दूसरा जो महत्वपूर्ण हुई अनियमितता बताई जा रही है कि बहुत से सामान्य/सवर्ण वर्ग के अभ्यर्थियों ने आरक्षित वर्ग (ओबीसी/एससी) का जाति प्रमाणपत्र बनवाकर आरक्षित श्रेणी में चयन पाने में सफल हो गए है। इसी तरह ओबीसी के अभ्यर्थियों द्वारा एससी-एसटी का जाति प्रमाणपत्र बनवाकर एससी-एसटी का आरक्षण डकारने की बात भी सुनी जा रही है।
           कोर्ट के निर्णय के कुछेक बिन्दुओं पर मीडिया के माध्यम से आ रही खबरों से भ्रम या अस्पष्टता की स्थिति नज़र आ रही है। बताया जा रहा है कि कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि आरक्षण 50% से ज्यादा नहीं होना चाहिए। जब आरक्षण की 50% की सीमा सुप्रीम कोर्ट पहले ही तय कर चुकी है तो फिर फैसले में इसे उल्लिखित करने का कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता है? यदि यह बात सही है तो इसके लागू करने में कहीं कोई बड़ा झोल तो नहीं है? कुछ लोग इस बात को इस तरह परिभाषित-व्याख्यायित कर आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि ओबीसी और एससी-एसटी अभ्यर्थियों को उनके निर्धारित आरक्षण प्रतिशत की संख्या तक ही चायनित किये जाने का संकेत तो नहीं है अर्थात उच्च मेरिट और सामान्य वर्ग के बराबर या उनसे अधिक मेरिट अंक होने के बावजूद उन्हें अनारक्षित वर्ग में चयनित नही किये जाने की आशंका व्यक्त की जा रही है। जबकि ऐसा नियम नही है। हां, यह नियम तो है कि यदि कोई अभ्यर्थी आरक्षण की छूटों की वजह से ही आवेदन करने के लिए पात्र बनता है तो उसे अंतिम सूची में आरक्षित वर्ग में ही चयन पाने का अधिकार होगा फिर भले ही उसकी मेरिट अनारक्षित वर्ग की कट ऑफ मेरिट से अधिक क्यों न हो। नियमानुसार 50% अनारक्षित वर्ग की सूची में आरक्षित और अनारक्षित श्रेणी में भेद न करते हुए विशुद्ध रूप से मेरिट के आधार पर सामान्य/अनारक्षित वर्ग की अंतिम चयन सूची तैयार होनी चाहिए। तत्पश्चात अनारक्षित श्रेणी की कट ऑफ से नीचे ही आरक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों की चयन सूची बननी चाहिए जो विशुद्ध रूप से संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था के अनुरूप कही जाएगी। हाई कोर्ट के फैसले के बाद यदि सरकार की ईमानदारी से ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग के पीड़ितों के साथ आरक्षण पर न्याय करने की मंशा है तो संशोधित चयन सूची तैयार करने वाली कमेटी में ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व होना बहुत जरूरी है। पीड़ित अभ्यर्थियों और विपक्ष को एकजुट होकर इस दिशा में जोरदार तरीके से सड़क से लेकर सदन तक अड़े रहना चाहिए।
         अब सवाल यह उठता है कि आरक्षण में फर्ज़ीवाड़े से जो अपात्र नौकरी कर रहे हैं,क्या उनको नौकरी से हटाया जाएगा और जो विधायिका- कार्यपालिका की मिलीभगत से हुए फर्ज़ीवाड़े या लापरवाही से इतने समय तक सेवा से वंचित रहे हैं, उनके मानसिक और आर्थिक नुकसान की भरपाई कैसे होगी और आन्दोलनरत रहे पीड़ित अभ्यर्थीगण कोर्ट के फैसले से संशोधित सूची में चयनित हो जाते हैं तो उनकी सेवा की वरिष्ठता (सीनियोरिटी) तय होने के नियम क्या होंगे,क्या उन्हें समानता का अधिकार मिलेगा ? हाई कोर्ट के आदेश के बाद चयनित होने वाले नए अभ्यर्थियों के सामने कई तरह की चुनौतियां रहेंगी। जो अभ्यर्थी फ़र्ज़ी प्रमाणपत्र जारी कराकर नौकरी पाने में सफल हो गए थे तो उनके खिलाफ़ और फर्जी प्रमाणपत्र जारी करने वाले सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों के खिलाफ क्या कोई सख्त कानूनी कार्रवाई होगी? इस संदर्भ में योगी नेतृत्व वाले पहले शासनकाल में तत्कालीन उच्च शिक्षा मंत्री के भाई ने ईडब्ल्यूएस का फर्जी दस्तावेज जारी कराकर एक विश्वविद्यालय में ईडब्ल्यूएस आरक्षण का लाभ लेते हुए नियुक्ति पाई थी। बाद में सोशल मीडिया के सक्रिय होने से मंत्री के भाई को नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा था, लेकिन फर्जी दस्तावेज जारी कराने और करने वालों के खिलाफ कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं हुई थी। जब तक फर्जी प्रमाण पत्र जारी करने और कराने से लेकर आरक्षण लागू करने वाले जिम्मेदारों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई नही होगी तब तक नियुक्तियों में फर्जीवाड़ा नही रुक सकता है। फ़र्ज़ीवाड़ा करने वाले अभ्यर्थियों और नौकरशाहों के खिलाफ ठोस कार्यवाही करने के लिए कोई नया सख्त कानून बनाना चाहिए जिससे दोनों पक्षों में एक भय का संचार हो सके।
           शासन और प्रशासन में बैठे जिन लोगों की वजह से आरक्षण में जो भयंकर फर्जीवाड़ा हुआ है,वे लापरवाही और कदाचार के शातिर अपराधी हैं। उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के लिए पीड़ितों द्वारा एक और आंदोलन और धरना-प्रदर्शन करना होगा जिसमें सामाजिक - राजनीतिक संगठनों और बुद्धिजीवियों की भी सहभागिता और पहरेदारी सुनिश्चित हो जिससे भविष्य में आरक्षण व्यवस्था कानूनी रूप से शत- प्रतिशत लागू हो सके। कोर्ट के आदेश के बावजूद नई सूची तैयार करने में सरकार आरक्षण व्यवस्था का शत - प्रतिशत अनुपालन कर पाएगी,पीड़ित अभ्यर्थियों और सामाजिक न्याय के संगठनों के जहन में अभी भी एक बड़ा सवाल और संशय बना हुआ है। ओबीसी और एससी- एसटी आरक्षण (सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश और राजनैतिक) व्यवस्था के इतिहास और उसके क्रियान्वयन पर सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर नए सिरे से गम्भीर चिंतन- विमर्श के साथ अब देश में जातिगत जनगणना होना बहुत जरूरी है। इस दिशा में विपक्षी दलों के आरक्षण व्यवस्था के जानकारों और विशेषज्ञों की भूमिका सार्थक सिद्ध हो सकती है। ओबीसी और एससी-एसटी के सामाजिक, राजनीतिक, अकैडमिक संगठनों को एकजुट होकर वर्तमान सरकार की सामाजिक न्याय के प्रति नकारात्मक रवैये के दूरगामी दुष्परिणामों के दृष्टिगत अब जातिगत जनगणना के मुद्दे की लड़ाई सड़क से लेकर विधायी सदन तक लड़कर अंतिम अंज़ाम देना जरूरी हो गया है, अन्यथा सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की वजह से बची खुची सीटों पर हमारे समाज के बच्चों के लिए दरवाजे भी बंद हो जाएंगे जिसके फलस्वरूप समाज की सामाजिक और आर्थिक खाई जो अभी तक थोड़ी बहुत पटती दिख रही थी, उसे अपनी पुरानी अवस्था में जाते देर नहीं लगेगी ।

Monday, March 13, 2023

संवैधानिक लोकतंत्र बचाना है तो एससी-एसटी और ओबीसी को जातिगत राजनीति की जगह जमात की राजनीति पर केंद्रित होना पड़ेगा:नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर),

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी


 "धार्मिक और आर्थिक गुलामी का खतरनाक दौर."
            बीजेपी गठबंधन को हराने के लिए सम्पूर्ण राजनैतिक विपक्षी दलों को अपने-अपने राजनैतिक मनभेद और मतभेद भुलाकर जातिगत राजनीति की लड़ाई से ऊपर उठकर सम्पूर्ण जमात के व्यापक हितों की सुरक्षा की राजनीति पर ध्यान केंद्रित करना होगा। यहां गैरभाजपाई दलों और विपक्षी दलों में अंतर समझना जरूरी है। सामान्यतः भाजपा के अलावा सभी दल गैरभाजपाई माने जाते हैं,लेकिन जो दल बीजेपी सरकार की रीतियों-नीतियों का खुलकर या मौन समर्थन करते हैं या चुनाव से पहले या बाद में सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बीजेपी के साथ गठबंधन करते हैं,वे दल गैरभाजपाई तो कहे जा सकते हैं, किंतु विपक्षी दल नहीं। जो दल चुनाव से पहले, चुनाव के दौरान और चुनाव बाद सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बीजेपी के साथ गठबंधन नहीं करते हैं और बीजेपी गठबंधन सरकार के संविधान विरोधी अलोकतांत्रिक आचरण और सामाजिक न्याय विरोधी निर्णयों/नीतियों पर सड़क से लेकर सदन तक जोरदार तरीके से आलोचना या असहमति व्यक्त करते हैं और संवैधानिक लोकतंत्र के सम्मान की रक्षा के लिए राजनीतिक लड़ाई लड़ते हुए दिखते हैं,उन्हें ही विशुद्ध विपक्षी दल कहना उचित होगा। कहने का आशय यह है कि ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग को अपने-अपने वर्ग के कतिपय नेताओं की जातिगत राजनीति या लाभ को दरकिनार करते हुए पूरी ज़मात के व्यापक हितों (सामाजिक न्याय) की सामूहिक राजनीतिक लड़ाई लड़ने की भावना पैदा कर ही लोकतंत्र के आवरण में छुपी तानाशाही प्रवृत्ति अपनाए बीजेपी को परास्त करने की दिशा में कुछ सफलता हासिल की जा सकती है। जातिगत राजनीति से आपकी जाति का व्यक्ति विधायक/ सांसद/मंत्री तो बन सकता है, लेकिन वह हमारे समाज के व्यापक हितों की रक्षा नही कर सकता है। इसी तरह कोई भी दल आपकी जाति का मंत्री/गवर्नर/ उपराष्ट्रपति/ राष्ट्रपति बनाकर आपकी जाति का वोट लेकर सत्ता तो हासिल कर सकता है ,लेकिन ऐसा पदस्थ व्यक्ति आपकी जाति या वर्ग के हितों की रक्षा के मामले पर खरा उतरता नज़र नहीं आता है या आएगा। दलित समाज के व्यक्ति को इस देश के कितने भी उच्च पद पर बैठ जाने के बावजूद उसकी वास्तविक पहचान दलित/अछूत ही मानी जाती रही है। यहां तक कि देश के राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर पहुंचने के बावजूद वह मंदिरों में प्रवेश करने के अधिकार से वंचित ही रहता है।  
                  बीजेपी का बार बार यह राजनीतिक रोना कि कांग्रेस के सत्तर साल के शासन में कुछ नहीं हुआ के अनर्गल अलाप को किसी भी विपक्षी दल या सामाजिक संगठन को समर्थन नही करना चाहिए। आज़ादी के बाद देश के विभाजन के फलस्वरूप पैदा हुई खराब स्थितियों के बावज़ूद कॉंग्रेस के सत्तर सालों में बड़ी बड़ी सरकारी/सार्वजनिक संस्थाओं का विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा हुआ,स्कूल,कॉलेज और विश्वविद्यालय खुले जिसमें आरक्षण की वजह से शिक्षा के अवसर और नौकरियां मिलने पर वंचित और शोषित समाज का एक बहुत बड़ा तबका सामाजिक और आर्थिक रूप से मध्य वर्ग के रूप में मजबूती के साथ उभरा है। वंचित और शोषित समाज के लोग आरक्षण की बदौलत ही सार्वजनिक और सरकारी संस्थाओं में लाखों रुपये की नौकरी पाकर चमचमाता कोट,पैंट और टाई पहनने के लायक बने हैं और घरों में कीमती टाइल्स लगाकर साफ सुथरी जिंदगी जीने का मौका पाए है। अब यह सर्वविदित हो चुका है कि नौ साल के बीजेपी की शासन सत्ता के दौर में बेतहाशा निजीकरण की प्रक्रिया से सार्वजनिक और सरकारी संस्थाओं को खत्म कर आरक्षण की वज़ह से मिलने वाली सस्ती शिक्षा और नौकरियों के अवसर खत्म हो चुके हैं/ रहे हैं। शिक्षा,चिकित्सा और कृषि को राजनैतिक स्वार्थवश मनपंसद कुछ कॉरपोरेट घरानों को सौंपकर ओबीसी और एससी - एसटी  समुदाय की आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को बर्बाद करने का बड़ा कार्यक्रम बन चुका है। ओबीसी और एससी-एसटी समुदाय की सरकारी स्कूलों और अस्पतालों तक जो आसानी से पहुंच होती थी/है, निजीकरण के बाद वह अब एक सपना बनती दिखाई देती नज़र आएगी। रेलवे,एलआईसी और राष्ट्रीयकृत बैंक जिनमें अभी तक निम्न और मध्य वर्ग की सहज, विश्वसनीय और निःशुल्क पहुंच होती थी ,वह भी  इस बीजेपी के शासन काल में एक सपना भर रह जायेगा। पूंजीपरस्त बीजेपी की सत्ता में खीरा चोर को सज़ा और हीरा चोर को सिर-आंखों पर बैठाए जाने की संस्कृति देखी जा सकती है। बीजेपी शासन सत्ता ने विपक्ष को बर्बाद या खत्म करने की एक नई संस्कृति पैदा की है जिसमें उसने संवैधानिक संस्थाओं के माध्यम से चुनाव से ठीक पहले उनके यहां इनकम टैक्स, ईडी, सीबीआई, सीवीसी,आइवी द्वारा छापे डालकर उन्हें परेशान और विचलित करने के उपक्रम किये जा रहे हैं। यदि वास्तव में जांच करनी थी तो चुनावी बेला के अलावा किसी समय हो सकती थी। नहीं, चुनाव से भटकाने और जनता को जांच दिखाकर और बेवकूफ बनाकर उनका वोट हथियाना और अपने शासन सत्ता काल की नाकामियों को छुपाना इनका मक़सद रह गया। हिंडन वर्ग की रिपोर्ट और गुजरात दंगों पर बनी डॉक्यूमेंट्री से सत्ता बुरी तरह से डरी या बौखलाई हुई नजर आती है। चुनाव के एन वक्त पर एकजुट होते विपक्ष के नेताओं को राज्यवार परेशान कर और क्षद्म राष्ट्रवाद ,धर्म और हिन्दू बनाम मस्लिम के बल पर येनकेन प्रकारेण चुनाव जीतना और सत्ता पर काबिज़ रहना ही इनके लिए लोकतंत्र की परिभाषा और व्याख्या बन चुकी है।


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(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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