साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, June 15, 2022

भारत गौरव सम्मान से सम्मानित अनुभूति गुप्ता खीरी जिले की एक साहित्यिक पहचान हैं-अखिलेश कुमार अरुण

   सम्मान   

परिचय

 

अनुभूति गुप्ता

जन्मतिथि- 05.03.1987.

जन्मस्थान- हापुड़ (उ.प्र.)

शिक्षा- बी.एस.सी. (होम साइन्स), एम.बी.ए., एम.एस.सी. (आई.टी.)

(विद्या वाचस्पति उपाधि प्राप्त) Pursuing International cyber law and forensic sciences course from IFS, Mumbai...

सम्प्रति-

डायरेक्टर/प्रकाशक (उदीप्त प्रकाशन, yellow Feather publications)(लखीमपुर खीरी)

प्रकाशक/एडिटर (अनुवीणा पत्रिका)

प्रोफेशनल चित्रकार

रेखाचित्रकार (only rekhachitrkar from kheri, रेखाचित्र, 30000 से अधिक)

स्वतंत्र लेखिका

सम्पर्क सूत्र-

103 कीरत नगर

निकट डी एम निवास

लखीमपुर खीरी

9695083565

 

विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, गांधीनगर (बिहार) ने अनुभूति गुप्ता को भारत गौरव सम्मान 2022 से अलंकृत कर हम क्षेत्रवासियों को एक पहचान दिया है वैसे आप किसी परिचय की मोहताज नहीं है, लखीमपुर खीरी जैसे पिछड़े जिले से साहित्य के क्षेत्र में एक नया मुकाम हासिल करना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है जहाँ हिंदी साहित्य में लेखन की बात करें तो इक्का-दुक्का साहित्यकार ही अपनी टूटी-फूटी लेखनी से जिले-जेवार का नाम रोशन करते रहे हैं। पंडित वंशीधर शुक्ल पुराने लेखकों में सुमार थे तब से लेकर आज तक साहित्यिक विरासत सूनापन लिए चल रहा था। आज कई लेखक साथी साहित्यिक रचनाओं में भिन्न-भिन्न हिंदी साहित्य की विधाओं पर अपनी लेखनी चला रहे हैं।

 

हिंदी साहित्य की अनेक विधाओं पर आपकी लेखनी को सरपट दौड़ाने वाली लेखिका/संपादिका अनुभूति गुप्ता ने  कविता, कहानी, लघुकथा, हाइकु, रिपोर्ताज, जीवनी आदि पर खूब लेखन किया है। देश-विदेश की नामचीन पत्र-पत्रिकाओं हंस, दैनिक भास्कर-मधुरिमा, हिमप्रस्थ, कथाक्रम, सोच-विचार, वीणा, गर्भनाल, जनकृति, शीतल वाणी, उदंती, पतहर, नवनिकष, दुनिया इन दिनों, शुभतारिका, गुफ्तगू, शब्द संयोजन, अनुगुंजन, नये क्षितिज, परिंदे, नव किरण, नेपाली पत्रिका आदि अनेकों हिन्दी पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित होती रहती हैं। नवल, आधारशिला और चंपक पत्रिका में कहानी का प्रकाशन। साहित्य साधक मंच, अमर उजाला, दैनिक नवज्योति, दैनिक जनसेवा मेल, मध्यप्रदेश जनसंदेश, ग्रामोदय विजन आदि विभिन्न समाचार पत्रों में कविताएं एवं लघुकथाएं प्रकाशित। 300 से अधिक कविताएं प्रकाशित। कविता कोशमें 60 से अधिक कविताएं संकलित।

 

साहित्य आपको विरासत के रूप में आपके माता जी (बिनारानी गुप्ता) से मिला है जो लेखन में अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक सक्रीय रही हैं जो पिछले साल करोना महामारी में कालकवलित हो गईं, जिनके साहित्यिक सपनो को साकार करने के लिए उनकी बेटी अनुभूति गुप्ता जी ने कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख रही हैं अपने माता जी की स्मृति में आपने एक पुस्तक प्रकाशन की परियोजना में व्यस्त हैं, आप अपने छात्र जीवन से ही साहित्य से आप जुड़ीं तो जुड़ती ही चली गईं, साथ ही साथ पेंटिंग करना आपकी प्रवृत्ति में शामिल है हजारों रेखाचित्रों का एक बड़ा संग्रह आपने तैयार किया हुआ है। जिनका प्रकाशन देश की नामचीन साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं यथा-पाखी, नया ज्ञानोदय, मधुमति, वागर्थ, हंस, कथादेश, कथाक्रम आदि इतना ही नहीं आपके रेखा चित्रों का प्रकाशन साहित्यिक पत्रिकाओं के आवरण पृष्ठों पर भी खूब किया गया है रेखाचित्रों के प्रकाशन की एक झलक देखिये पाखी, नया ज्ञानोदय, मधुमती, वागर्थ, ’हंस’, ’कथादेश’, ’कथाक्रम’, विभोम स्वर, ’प्राची’, शीतल वाणी, साहित्य अमृत, समकालीन अभिव्यक्ति, कथा समवेत, गाँव के लोग पत्रिका में रेखाचित्र प्रकाशित एवं प्रकाषित होते रहते हैं। पत्रिका के कवर पर पेंटिग- मधुमती, शीतल वाणी, किस्सा कोताह, नूतन कहानियां, वीणा, वैजयंती, विचरण जियालोको, प्रतिबिम्ब, संवेद आदि। पत्रिका के कवर पर रेखाचित्र- अविराम साहित्यकी किताब के कवर पर पेंटिग प्रकाशनाधीन- लेखक- सूरज उज्जैनी, मुकेश कुमार, राकेश कुमार सिंह, किताबों में प्रकाशित रेखाचित्र- माटी कहे कुम्हार से, सुनो नदी ! किताबों में प्रकाशित कार्टून चित्र- जलनखोर प्रेमी, नटखट प्रेमिका (कात्यायनी सिंह)पत्रिका के कवर पर खिंचा गया चित्र- शब्द संयोजन आदि।

 

अनुभूति गुप्ता लेखनी का एक ऐसा नाम है जिसमें समाज की मर्मिक्ताओं का आभास होता है तथा बौखलाहट और घुटन देखने को मिलती है प्रकाशित रचनाओं की फेहरिस्त भी काफी लम्बी है यथा- बाल सुमन (बाल-काव्य संग्रह), कतरा भर धूप (काव्य संग्रह), अपलक (कहानी संग्रह), बाल सुमन (बाल-काव्य संग्रह) दूसरा संस्करण, तीसरा संस्करण।प्रकाशनाधीन- मैं (काव्य संग्रह), कोकनट में उगती स्त्रियां और 44 से अधिक पुस्तकों का आपने सफल प्रकाशन भी किया है और यह निरंतर जारी है

 

साहित्य की दुनिया में दिल खोलकर लोगों ने आपको सम्मानित भी किया है और इस सम्मान की आप असली हक़दार भी है। एक नज़र डालते हैं आपकी की सम्मान निधि पर तो यह भी अपने आप में एक अवर्णनीय है- शोध पत्रिका में लेख एवं अंतराष्ट्रीय संगोष्ठी ‘‘अवधी भाषा‘‘ में प्रमाण पत्र प्राप्त एवं नारी गौरव सम्मानतथा प्रतिभाशाली रचानाकार सम्मान’, ’साहित्य-श्री सम्मान’, ’के.बी. नवांकुर रत्न सम्मान’, नवपल्लव पत्रिका के कुशल सम्पादन हेतु अमृता प्रीतम स्मृति शेषसम्मान तथा प्रसिद्ध संस्था श्रीनाथ द्वारा सम्पादक शिरोमणि सम्मान’, शान्ति देवी अग्रवाल स्मृति सम्मान, इमराजी देवी चित्रकला रत्न, भारत गौरव से सम्मानित एवं अनेको सम्मान प्राप्त है।

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Monday, June 06, 2022

पर्यावरण दिवस-विकास कुमार

विकास कुमार 
अन्छा दाऊदनगर 
औरंगाबाद बिहार
     
ऑक्सीजन के बिना हम लोगो को जीवन जीना कैसे सिखाए,
इतना प्रदूषित वातावरण को हम पर्यावरण दिवस कैसे मनाए।

अब किसको, कब और कैसे हम उनको क्या समझाए,
कुछ पैसे की लालच में अपने ही घर के जो पेड़ कटवाए।

दो–चार लोग जो आए थे पेड़ को काटने हमारे गांव में,
धूप से परेशान होकर बैठ गए उस पेड़ के ही छांव में।

ऑक्सीजन के बिना हम लोगो को जीवन जीना कैसे सिखाए,
इतना प्रदूषित वातावरण को हम पर्यावरण दिवस कैसे मनाए।

अपने जीवन के बचाव में आइए मिलकर हम पेड़ लगाए,
कुछ लोग तो समझ चुके है, कुछ लोग को आप समझाए।


शुद्ध हवा न मिल पाता है ऑक्सीजन खरीदने पर विवस है,
कितना खुशी की बात है आज शुद्ध पर्यावरण की दिवस है।

ऑक्सीजन के बिना हम लोगो को जीवन जीना कैसे सिखाए,
इतना प्रदूषित वातावरण को हम पर्यावरण दिवस कैसे मनाए।

 

Tuesday, May 31, 2022

आंबेडकर बनाम गांधी-गोलवलकर वैचारिकी/सामाजिक न्याय बनाम सामाजिक समरसता/जाति उन्मूलन बनाम जाति समरसता-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग एक

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

✍️ दलित और ओबीसी की अधिकांश जातियां ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं और वे अधिकांश अपने परंपरागत पेशे से ही जीविका चलाती हैं। विज्ञान और तकनीक युक्त शिक्षा उन तक अभी पूरी तरह नहीं पहुंच पाई है और सामाजिक स्तर पर छोटी-बड़ी जातियों की मान्यता के साथ जाति व्यवस्था अच्छी तरह से अपने पैर जमाए हुए है। सामाजिक स्तर पर अनुसूचित और ओबीसी की जातियों के बीच आज के दौर में भी सामान्य रूप से आपसी खान-पान और उठने-बैठने का माहौल पैदा होता नहीं दिखता है। सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक आंदोलनों की वजह से दलितों की सामाजिक और धार्मिक मान्यताओंं/परंपराओं/रीति-रिवाज़ों में कुछ सीमा तक बदलाव आना स्वाभाविक है और जो दिखाई भी देता है। इन आंदोलनों से पूर्व दलित और ओबीसी हिन्दू धर्म,त्यौहारों,परम्पराओं और रीति-रिवाज़ों को एक ही तरह से मानते/मनाते थे। बौद्घ धर्म और आंबेडकरवादी विचारधारा के प्रवाह से अब अनुसूचित और ओबीसी की जातियों की धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाज़ों में काफी अंतर आया है। शिक्षा की कमी के कारण ओबीसी के उत्थान के लिए डॉ.आंबेडकर द्वारा बनाई गई संवैधानिक व्यवस्था को ओबीसी अभी भी नहीं समझ पा रहा है। जातीय श्रेष्ठता की झूठी शान और सामाजिक/धार्मिक रीति-रिवाज़ों में अंतर के कारण दोनों में सामाजिक और राजनीतिक सामंजस्य या मेलमिलाप की भी कमी दिखाई देती है। सदैव सत्ता में बने रहने वाले जाति आधारित व्यवस्था के पोषक तत्वों / मनुवादियों द्वारा आग में घी डालकर इस दूरी को बनाए रखने का कार्य बखूबी किया गया और आज भी जारी है। ओबीसी सामाजिक -जातीय दुराग्रहों से ग्रसित होने के कारण मनुवादियों की साज़िश और डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी का अपने हित में मूल्यांकन नहीं कर पाया और नहीं कर पा रहा है,क्योंकि वह डॉ.आंबेडकर के व्यक्तित्व व कृतित्व को जाति विशेष से होने के पूर्वाग्रह और कथित सामाजिक जातीय श्रेष्ठता के दम्भ के कारण उनकी लोक कल्याणकारी वैचारिकी और योगदान को पढ़ने से परहेज करता रहा और आज भी उसे पढ़ने में सामाजिक हीनभावना/संकोच महसूस होता है। यहां तक कि, डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी के सार्वजनिक कार्यक्रमों के मंचों को साझा करने में भी उसे संकोच और शर्म आती है। देश के सत्ता प्रतिष्ठान डॉ.आंबेडकर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक जाति/समाज विशेष के खांचे में बन्द कर,इस क़दर प्रचार-प्रसार करते रहे जिससे अनु.जातियों,अनु.जनजातियों, ओबीसी जातियों और अल्पसंख्यक में सामाजिक/राजनीतिक एकता कायम न हो सके। आज यदि ओबीसी का कोई व्यक्ति डॉ.आंबेडकर से घृणा करता है या कोसता है या अन्य  महापुरुषों की तुलना में कमतर समझता है,तो समझ जाइए कि उसने डॉ.आंबेडकर की सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक मॉडल पर आधारित भेदभाव रहित मानववादी वैचारिकी/दर्शन को अभी तक पढ़ने/समझने का रंच मात्र भी प्रयास नहीं किया है। ओबीसी भूल जाता है कि देश की वर्णव्यवस्था में अनुसूचित और ओबीसी की समस्त जातियां "शूद्र" वर्ण में ही समाहित हैं। अशिक्षा और अज्ञानता के कारण ओबीसी जातियां अपनी सीढ़ीनुमा सामाजिक श्रेष्ठता के अहंकार में केवल अनुसूचित जाति को ही शूद्र और नीच समझकर जगह-जगह पर अपनी अज्ञानता/मूर्खता का परिचय देती नजर आती है जिससे उनमें एकता के बजाय सामाजिक व राजनीतिक वैमनस्यता की अमिट खाई 21वीं सदी में भी बनी हुई है।
✍️ विज्ञान और तर्क की 21वीं सदी में भी ओबीसी का बहुसंख्यक समाज धर्म-ग्रंथ और सामाजिक-धार्मिक आडंबरों/आयोजनों में जैसे रामायण,रामचरित मानस,सत्यनारायण की कथा, भागवत,महाभारत,मंदिर में स्थापित पत्थरों/धातुओ की जेवरात/हीरे/मोतियों से सुसुज्जित मूर्तियों के रूप में करोड़ों देवी-देवताओंं के चक्रव्यूह में मनवांछित चमत्कार की उम्मीद में फंसा रहता है और चमत्कार की आशा में अपने कर्मभाव और आत्मविश्वास के प्रति लगातार उदासीन होता जाता है। जबकि 85% शोषितों व वंचितों के लिए डॉ.आंबेडकर की संवैधानिक व्यवस्थाएं,एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति का विनाश) पुस्तक,साइमन कमीशन और गोल मेज कॉन्फ्रेंस के मुद्दे/विषय वस्तु और उद्देश्य,हिन्दू कोड बिल,काका कालेलकर और वीपी मंडल आयोग की सिफारिशें है, जिनका गहन अध्ययन और समझना बहुत जरूरी है। शिक्षा,धन,धरती और राजपाट दलितों व ओबीसी की लड़ाई के असल मुद्दे हैं जहां से उनकी भावी पीढ़ियों के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए रास्ते खुलते हैं। सत्ता के शीर्ष प्रतिष्ठान जैसे सरकार,कार्यपालिका,न्यायपालिका और मीडिया में शीर्ष पदों पर काबिज प्रभु लोगो ने दलितों-पिछड़ों  लिए अभी तक क्या किया है?
✍️ डॉ.आंबेडकर की बहुपटीय वैचारिकी को ईमानदारी से न तो देखा गया और न ही सार्वजनिक पटल पर लिखित/मौखिक रूप से प्रस्तुत किया गया। आज़ाद भारत की कई प्रकार की सत्ता संस्थाएं जैसे उच्च शिक्षण और अकादमिक संस्थाओ में ज्ञान की सत्ता,मीडिया और न्यायपालिका की सत्ता,संसद में राजपाट की सत्ता और समाज में धर्म या ब्राम्हणवाद की सत्ता काम करती हैं। क्या ये सारी सत्ताएं डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को समग्र और व्यापक संदर्भों में देखने व समझने में हमारी मददगार साबित होती है या फिर वे किन्हीं सामाजिक और जातीय पूर्वाग्रहों का शिकार हैं? डॉ.आंबेडकर की विचारधारा की परंपरा के अंतरराष्ट्रीय दलित चिंतक,दार्शनिक,साहित्यकार,आलोचक,गहन विश्लेषक,आईआईटी और आईआईएम जैसी प्रतिष्ठित अकैडमिक संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण और अध्यापन कर चुके प्रो.आनन्द तेलतुंबडे को 14 अप्रैल,2020 को डॉ.आंबेडकर की 129वीं जयंती पर भीमा कोरे गांव की घटना में एक आरोपी के पत्र/डायरी में "आनन्द" लिखा मिल जाने को कानूनी आधार बनाकर बिना किसी जांच-पड़ताल के उनको गिरफ्तार कर उस समय जेल जाने के लिए विवश किया जाता है जब कोविड- 19 के कारण जेलों में बन्द हजारों बंदियों/कैदियों को पैरोल पर रिहा किया जा रहा है। उनके साथ उनके साथी गौतम नौलखा को भी आत्मसमर्पण करना पड़ता है। कोविड -19 के कालखंड में सरकार, प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी एडवाइजरी का पूरी तरह पालन करते हुए अपने घरों में आंबेडकर जयंती मनाने पर सरकार द्वारा राजनैतिक विद्वेषवश उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई किया जाना अत्यंत दुखद और शर्मनाक घटना है,जबकि 22 मार्च और 05 अप्रैल,2020 को कोरोना एडवाइजरी की धज्जियां उड़ाते सड़क पर उतरे लोगों के खिलाफ स्थानीय प्रशासन द्वारा कोई कार्रवाई न किए जाने से सरकार का दोहरा और सामाजिक - जातीय चरित्र परिलक्षित होता है।
✍️दरअसल,आज के दौर में शिक्षित और प्रगतिवादी दलित चिंतक/दार्शनिक,साहित्यकार,पत्रकार और अकैडमिक लोग सरकार पर यह सवाल उठाने लगे हैं,कि आखिर वे कौन है,जिनकी वजह से आजादी के सत्तर सालों में डॉ.आंबेडकर के सपनो का भारत का निर्माण नहीं हो पाया है या नहीं हो पा रहा है?अर्थात डॉ.आंबेडकर की राष्ट्र निर्माण की विचारधारा के हत्यारे कौन हैं?अध्ययन करने से पता चलता है कि आज देश में झूठ की बुनियाद पर खड़ा यथास्थितिवादी आरएसएस जो कि दक्षिणपंथी विचारधारा का कट्टर समर्थक है,देश के सत्ता प्रतिष्ठानों की महत्वपूर्ण/ऊंची कुर्सियों पर मात्र काबिज बने रहने के लिए वे राजनेता डॉ.आंबेडकर को सार्वजनिक स्थानों पर दिखावा कर याद करते और पूजते नज़र आते हैं जो वास्तव में उनकी वैचारिकी/सैद्धांतिकी की अंदरूनी रूप से घोर खिलाफत में हमेशा खड़े नजर आते हैं। यह विडम्बना ही है कि वे आज उनके नाम में उनके पिता जी के नाम के "राम" को देखकर/ जोड़कर अलग किस्म की धार्मिक सियासत करना चाहते हैं। सामाजिक न्याय के स्थान पर सामाजिक समरसता की वैचारिकी का आपस में घालमेल किया जा रहा है। यह कार्य ओबीसी के लोग आरएसएस की प्रयोगशाला में प्रशक्षित होकर गांवों और शहरो में सुबह - शाम नियमित शाखाएं लगाकर बखूबी कर रहे हैं। संघ की विचारधारा का सबसे बड़ा और मज़बूत संवाहक आज ओबीसी ही बना है। संघ के लोग डॉ.आंबेडकर के आरएसएस से तरह-तरह के राजनैतिक संबंधों की अफवाहें फैलाकर दलितों को गुमराह कर उनकी बनी राजनीतिक विरासत को हड़पना चाहते हैं। गोलवलकर की पुस्तक "बंच ऑफ थाट्स " के हिंदी संस्करण "विचार नवनीत" में भारत देश के आंतरिक संकटों का जिक्र किया गया है जिसमें देश के मुसलमानों को पहला,ईसाईयों को दूसरा और कम्युनिस्टों को तीसरा आंतरिक संकट के रूप में रेखांकित और व्याख्यायित किया गया है।
✍️आज डॉ.आंबेडकर और गोलवलकर की वैचारिकी को समानांतर खड़ा कर गहन अधययन करने पर पता लग जाएगा कि दोनों की वैचारिकी में सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से कितना विरोधाभास व अंतर है। डॉ.आंबेडकर अपनी वैचारिकी में जातियों का उन्मूलन/विनाश चाहते हैं और संघ के गोलवलकर उन्मूलन के बजाय कोरी कल्पना आधारित सामाजिक समरसता के नाम पर जातियां जिंदा रखना चाहते हैं। गांव से लेकर शहर तक सत्ता के सभी शीर्ष प्रतिष्ठानों तक चलना होगा और देखना होगा कि सामाजिक न्याय की वैचारिकी के साथ गांधी जी जाति रूपी "जीव जंतु" को कितनी मजबूती के साथ जिंदा देखना चाहते थे। ऐसा उनके द्वारा समय-समय पर दिए गए संबोधनों/व्याख्यानों और उनके लेखों से पता चलता है।
क्रमशः पेज दो पर..........

आंबेडकर बनाम गांधी-गोलवलकर वैचारिकी/सामाजिक न्याय बनाम सामाजिक समरसता/जाति उन्मूलन बनाम जाति समरसता-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग दो

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
1916 में ईसाई मिशनरियों के एक सम्मेलन में गांधी जी जाति की उपयोगिता और महत्व को कैसे स्थापित करने का प्रयास करते दिखते हैं,देखिए उसकी एक बानगी: "जाति का व्यापक संगठन समाज की "धार्मिक आवश्यकताओं" को पूरा करने के साथ "राजनैतिक आवश्यकताओ" की भी पूर्ति करता है। जाति व्यवस्था से ग्रामवासी अपने अंदरुनी मामलों का निपटारा करने के साथ शासक शक्तियों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न से भी निपट लेते हैं। एक राष्ट्र जो जाति व्यवस्था को कायम रखने में सक्षम हो,तो उस अवस्था में उसकी अदभुत सांगठनिक क्षमता को नकार पाना संभव नहीं है।" 
✍️1921 में एक गुजराती पत्रिका में वह जाति की महत्ता पर फिर लिखते हैं कि :"मेरा विश्वास है कि यदि हिन्दू समाज आज अपने पैरों पर यदि खड़ा हो पाया है तो उसकी एकमात्र वजह है, कि उसकी बुनियाद या नींव देश की "मज़बूत जाति व्यवस्था" के ऊपर डाली गई है। जातियों का विनाश और पश्चिम यूरोपीय सामाजिक व्यवस्था के अपनाने का अर्थ यह होगा कि "आनुवंशिक पैतृक व्यवस्था के सिद्धांत का त्याग कर दें,जो जाति व्यवस्था की मूल आत्मा है।"आनुवंशिक पैतृक व्यवस्था" का सिद्धांत एक "शाश्वत सिद्धांत" हैं इसको बदलने से अव्यवस्था और अराजकता फैल सकती है। मेरे लिए ब्राम्हण का क्या उपयोग है,यदि मै उसे जीवन भर ब्राम्हण न कह सकूं? यदि हर रोज किसी ब्राम्हण को शूद्र में और शूद्र को ब्राम्हण में परिवर्तित किया जाए तो इससे तो समाज में अफरातफरी व अराजकता फैल जाएगी!"
✍️आरएसएस के गोलवलकर भी जाति का उपचार नहीं,बल्कि "अस्पृश्यता" का उपचार चाहते हैं और गांधी तो पहले से ही इसके पास खड़े नजर आते हैं। वह डॉ.आंबेडकर के संवैधानिक प्रावधानों/विशेषाधिकारों की गलत व्याख्या कर दर्शाते हैं। "बंच ऑफ थाट्स" में वह लिखते हैं कि "यह सब अंग्रेज़ो द्वारा पैदा किया हुआ है। हमारा कटु अनुभव है कि अंग्रेजों ने जाति/वर्ग को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया है।" जैसे ब्राम्हण के खिलाफ अब्राम्हण और फूट डालो-राज करो की कुटिल नीति अपनाई। उनका स्पष्ट मानना है कि देश में जाति का जहर अंग्रेजों ने ही फैलाया है।
✍️इनका यह भी मानना है कि डॉ.आंबेडकर ने एससी-एसटी के आरक्षण संबंधी विशेषाधिकारों का प्रावधान सन 1950 में गणतंत्र की स्थापना से मात्र दस वर्ष के लिए किया था,किंतु इसे लगातार बढ़ाया जा रहा है। जबकि दस वर्ष की बात केवल राजनीतिक(लोक सभा और विधान सभाओं में)आरक्षण के लिए है।इनके अनुसार ऐसी कोई जाति नहीं है जिसमें गरीब, जरूरतमंद और कंगाल लोग न हों।अतः"आर्थिक आधार"पर ही विशेषाधिकार/आरक्षण दिया जाना उचित है।तथ्यों को गलत और तोड़-मरोड़ कर पेश करने की इनकी परम्परा/संस्कृति रही है।गोलवलकर के इसी दर्शन पर जनवरी 2019 में सामान्य वर्ग के "आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग(ईडब्ल्यूएस)" को बिना किसी आयोग,सर्वे,संविधान के सामाजिक न्याय और सुप्रीम कोर्ट के 50% तक आरक्षण के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए दिया गया 10% आरक्षण संविधान के आरक्षण की मूल भावना के स्पष्ट खिलाफ है।इसमें जाति के आधार पर वंचना/शोषण/छुआछूत की बहस को सिरे से ही खारिज कर दिया गया है। डॉ.आंबेडकर के लंबे सामाजिक संघर्ष के प्रभाव से गांधी जी की जाति व्यवस्था पर समझ बदलती नजर आती है जिससे उन्होंने तत्कालीन "हरिजन अस्पृश्यता" के विरुद्ध सामाजिक आंदोलन भी किया।
✍️डॉ.आंबेडकर की "जाति-बहस" को दरकिनार कर आज तक "सामाजिक न्याय" के बजाय "सामाजिक समरसता" जैसी दक्षिणपंथी संघी-शब्दावली के चक्रव्यूह में ओबीसी को फंसाने का कार्य चलता रहा है। बहुजन समाज को डॉ.आंबेडकर की जाति-उन्मूलन की विचारधारा को जिंदा और मजबूत रखना होगा,क्योंकि भारतीय समाज को व्यवस्थित ,समरस और सुदृढ़ बनाने के लिए जातियों को मिटाना बहुत जरूरी है।
✍️डॉ.आंबेडकर का नाम आते ही उनकी आपके मन में क्या छवि बनती है? हाथ में संविधान लिए टाई और सूट-बूट में एक विद्वान,संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष या फिर अकेले में संविधान निर्माता,दलितों और आरक्षण के मसीहा के रूप में उन्हें कैद कर एक जाति/वर्ग के खांचे में कस दिया गया। डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को एक समाज,राजनीति और अर्थशास्त्री के साथ एक मानवविज्ञानी और नारीवादी विमर्श जैसे विविध आयामों को वृहद स्तर पर समझना होगा। किसान,मजदूर व महिलोत्थान पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा है और संवैधानिक व्यवस्था भी की है। आरबीआई,प्रॉब्लम ऑफ रूपी,महिलाओ के श्रम के कार्य घंटे और समय के साथ उनके श्रम का आर्थिक मूल्यांकन,महिलाओ के सामाजिक अधिकार,किसानों की चंकबदी,सिंचाई बांध जैसे मूल विषयों पर सामाजिक न्याय की वैचारिकी के सबसे बड़े प्रणेता/प्रमुख स्वर" डॉ.आंबेडकर "को सायाश भारतीय सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य से लगातार ओझल किया जाता रहा है। उनकी वैचारिकी का पाठ कम और कुपाठ ज्यादा किया गया। घोर प्रतिकूलताओं और विषमताओं के बावजूद तत्कालीन ब्राम्हणवादी मीडिया के समानांतर खड़ी की गई उनकी बहुजन मीडिया की पत्रकारिता का भी मूल्यांकन करना बहुत जरूरी है। आजकल सामाजिक/राजनैतिक आयोजनों/उत्सवों पर डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी खूब धमाल मचा रही है। बौद्धिक/सांस्कृतिक मंचों पर अब उनकी वैचारिकी बहस और विश्लेषण और उच्च अकादमिक स्तर पर शोधार्थियों के लिए एक गंभीर विषय का रूप धारण चुकी है।
✍️ डॉ.आंबेडकर के समग्र चिंतन को लगभग सत्तर वर्षों तक जानबूझकर सामाजिक व राजनैतिक साज़िश के तहत उपेक्षित किया जाता रहा। तत्कालीन राजनीतिक,सांस्कृतिक और बौद्धिक मंचों/बहसों और शैक्षिक/अकादमिक संस्थाओं के किसी स्तर के किसी विषय के पाठ्यक्रम में एक पन्ने की जगह तक न मिल पाना,उनकी वैचारिकी के प्रति नफ़रत या परहेज की कलुषित भावना परिलक्षित होती है। ज्योतिबा राव-सावित्री फुले,विरसा मुंडा,पेरियार,फातिमा शेख, कालेलकर,वीपी मंडल,रामस्वरूप वर्मा,जगदेव प्रसाद और ललई सिंह आदि की वैचारिकी को तो ये दक्षिणपंथी फूटी आंख भी देखना नहीं चाहते हैं और राजनीति में आते-आते मुलायम,लालू यादव और मायावती इन्हे जातिवादी दिखने लगते हैं। उच्च प्रतिष्ठानों पर काबिज लोगो ने बहुजन समाज की घोर उपेक्षा के साथ उनका मानसिक और आर्थिक शोषण करने में भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है।
✍️आज के दौर में जाति के आधार पर छुआछूत खत्म होती दिख रही है,किन्तु छोटी-बड़ी संस्थाओं में यह शोषण का दूसरे प्रकार का अस्त्र अबश्य बन गया है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठानों,सरकारी नौकरियों की लिखित परीक्षा से लेकर साक्षात्कार तक जानबूझकर कम अंक देने की संस्कृति परदे के नीचे अब जातिवाद अपने महीन/बारीक रूप में पहले से ज्यादा हानिकारक तत्व के साथ जिंदा है।
✍️कोविड-19 के संकट काल में टीवी चैनल पर रामायण और महाभारत दिखाकर डॉ.आंबेडकर के सामाजिक न्याय के स्थान पर दक्षिणपंथी प्रभु वर्ग की सामाजिक समरसता फैलाने की साज़िश है। अभी भी अपना वर्चस्व कायम करने के लिए जाति व्यवस्था बनाए रखना चाहते हैं। धर्म और धार्मिक कर्मकाण्ड/ आडंबर जातियों का भरपूर सरंक्षण करते हैं। इसलिए इनका पहले विनाश होना बहुत जरूरी है। इन्हीं सब की वजह से भारत आज भी डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी से बाहर खड़ा दिखाई देता है। पढ़ना ही है,तो डॉ.आंबेडकर का बनाया संविधान तथा पेरियार और ललई सिंह की सच्ची रामायण पढ़िए। दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के साथ & टीवी पर प्रसारित होने वाला धारावाहिक "एक महानायक: डॉ.भीमराव आंबेडकर" का भी प्रसारण होना चाहिए।
✍️लाला लाजपतराय,बाल गंगाधर तिलक व राजेन्द्र प्रसाद जैसे दक्षिणपंथी लोगों को "राष्ट्र-निर्माताओं" की श्रेणी में स्थापित किया जाता है और डॉ.आंबेडकर को मात्र "दलितों और आरक्षण के नेता" के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया जाता है।उच्च कोटि की विद्वता होने के बावजूद डॉ.आंबेडकर को राष्ट्र निर्माण व अकादमिक पाठ्यक्रमों और पुस्तकालयों में उचित जगह नहीं मिली। अब जब कुछ हालात बदल रहे हैं तो दक्षिणपंथी उसमें तरह-तरह से छिद्रान्वेषण कर उनकी वैचारिकी की दिशा-दशा बदलने की साज़िश करने से बाज नहीं आ रहे।
✍️देश की बुनियादी समस्यायों पर केन्द्रित अनु. 340(52%ओबीसी के लिए प्रतिनिधित्व ),अनु.341 (अनुसूचित जातियों के लिए 15%आरक्षण)और अनु.342 (अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% आरक्षण) में " डॉ.आंबेडकर सबसे पहले देश के 52% ओबीसी की व्यवस्था में समुचित भागीदारी की बात करते हैं।" अनु.340 का सरदार पटेल विरोध करते हुए प्रश्न करते हैं कि यह ओबीसी क्या है? एससी-एसटी की पहचान-गणना हो चुकी थी। इसलिए उनके लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था के साथ "राजनैतिक आरक्षण"(केवल लोकसभा व राज्य विधान सभाओं में केवल दस वर्ष के लिए,किंतु राज्य सभा और राज्य विधान परिषदों में नहीं) भी हो गया,किन्तु ओबीसी की जातियों की पहचान का कार्य पूर्ण नहीं हो पाया था,इसलिए अनु.340 की व्यवस्था दी गई थी,किंतु इस "अनुच्छेद के हिसाब से आयोग गठित न होने के कारण,हिन्दू कोड बिल पर राजेन्द्र और तिलक द्वारा धमकी ओर कैबिनेट वितरण में नेहरू द्वारा आंबेडकर के साथ भेदभाव(आंबेडकर योजना मंत्रालय चाहते थे) आदि विषयो का उल्लेख करते हुए डॉ. आंबेडकर 1951में ओबीसी के खातिर मंत्रिपरिषद से इस्तीफा तक दे देते है,लेकिन दुर्भाग्य है कि ओबीसी आंबेडकर के योगदान और त्याग को नहीं समझ पाया और अभी भी नहीं समझ पा रहा है। नेहरू ने इस त्याग पत्र को आंबेडकर को संसद में जानबूझकर पढ़ने नहीं दिया,क्योंकि ओबीसी को इस्तीफे का कारण पता चल जाता। बाद में उन्होंने अपने इस्तीफे का कारण प्रसार के माध्यम से संसद के बाहर रखा।

आंबेडकर बनाम गांधी-गोलवलकर वैचारिकी/सामाजिक न्याय बनाम सामाजिक समरसता/जाति उन्मूलन बनाम जाति समरसता-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग तीन


एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

जिस देश में बुनियादी समस्याओं की उपेक्षा की जाती हैं,वहां गृह युद्ध जैसे हालात पैदा होने की संभावनाएं बन जाती हैं। जैसा कि अमेरिका में नस्लवाद के मामले में हुआ।अमेरिका बदला और गोरों के "व्हाइट हाउस" में कालों का वर्चस्व स्थापित हुआ,भले ही व्हाइट हाउस का नाम नही बदला,लेकिन वहां की लोकतांत्रिक संस्कृति जरूर बदली है।
✍️ यदि बहुजन नायकों की सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक लिखित/अलिखित वैचारिकी को शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में शामिल कर पढ़ाया गया होता,तो वे 85% बहुजन के मन-मन और घर-घर पहुंच जाते,तो फिर काल्पनिक रामायण-महाभारत कौन देखता और सत्यनारयण - भागवत कथा कौन सुनता और विज्ञान के इस दौर के 2021 में भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का दंभ कैसे भरा जाता?
✍️डॉ.आंबेडकर का नाम आते ही आम आदमी के मन में उनकी क्या छवि बनती है? हाथ में संविधान लिए टाई और सूट-बूट में एक विद्वान,संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष या फिर अकेले में संविधान निर्माता,दलितों और आरक्षण के मसीहा के रूप में उन्हें कैद कर एक जाति/वर्ग के खांचे में कस दिया गया। डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को एक समाजशास्त्री,राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री के साथ एक मानवविज्ञानी और नारीवादी विमर्श जैसे आयामों को वृहद स्तर पर समझना होगा। किसान,मजदूर व महिला उत्थान पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा है और समाधान की संवैधानिक व्यवस्था भी की है। आरबीआई,प्रॉब्लम ऑफ रूपी,महिलाओ के श्रम के कार्य घंटे और समय के साथ उनके श्रम का आर्थिक मूल्यांकन,महिलाओ के सामाजिक अधिकार और उनके लिए प्रसूति अवकाश,किसानों की चकबंदी,सिंचाई बांध जैसे मूल विषयों पर सामाजिक न्याय की वैचारिकी के सबसे बड़े प्रणेता/प्रमुख स्वर"आंबेडकर"को सायाश भारतीय सामाजिक व राजनैतिक परिदृश्य से लगातार बाहर किया जाता रहा है। इनकी वैचारिकी का पाठ कम और कुपाठ ज्यादा किया गया। घोर प्रतिकूलताओं और विषमताओं के बावजूद तत्कालीन ब्राम्हणवादी मीडिया के समानांतर खड़ी की गई उनकी बहुजन मीडिया की पत्रकारिता का भी मूल्यांकन करना बहुत जरूरी है। आजकल सामाजिक/राजनैतिक आयोजनों/उत्सवों पर आंबेडकर की वैचारिकी खूब धमाल मचा रही है। बौद्धिक/सांस्कृतिक मंचों पर अब उनकी वैचारिकी बहस और विश्लेषण और उच्च अकादमिक स्तर पर शोधार्थियों के लिए गंभीर विषय का रूप धारण चुकी है।

✍️डॉ.आंबेडकर के समग्र चिंतन को लगभग सत्तर वर्षों तक जानबूझकर सामाजिक व राजनैतिक साज़िश के तहत उपेक्षित किया जाता रहा। तत्कालीन राजनीतिक,सांस्कृतिक और बौद्धिक मंचों/बहसों और शैक्षिक/अकादमिक संस्थाओं के किसी स्तर के किसी विषय के पाठ्यक्रम में एक पन्ने की जगह तक न मिल पाना,उनकी वैचारिकी के प्रति नफ़रत या परहेज की कलुषित भावना परिलक्षित होती है।ज्योतिबा राव-सावित्री फुले,विरसा मुंडा,पेरियार,फातिमा शेख, कालेलकर,वीपी मंडल,रामस्वरूप वर्मा,जगदेव प्रसाद और ललई सिंह आदि की वैचारिकी को तो ये दक्षिणपंथी फूटी आंख भी देखना नहीं चाहते हैं और राजनीति में आते-आते मुलायम,लालू यादव और मायावती इन्हे जातिवादी दिखने लगते हैं।उच्च प्रतिष्ठानों पर काबिज लोगो ने बहुजन समाज की घोर उपेक्षा के साथ उनका मानसिक और आर्थिक शोषण करने में भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है।
✍️आज के दौर में जाति के आधार पर छुआछूत लगभग नहीं रह गयी है किन्तु अब यह छोटी-बड़ी संस्थाओं में यह शोषण का दूसरे प्रकार का अस्त्र अबश्य बन गया है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठानों,सरकारी नौकरियों की लिखित परीक्षा से लेकर साक्षात्कार तक जानबूझकर कम अंक देने की संस्कृति परदे के नीचे अब जातिवाद अपने महीन/बारीक रूप में पहले से ज्यादा खतरनाक रूप में जिंदा है।
✍️कोविड-19 के संकट काल में टीवी चैनल पर रामायण और महाभारत दिखाकर आंबेडकर के सामाजिक न्याय के स्थान पर दक्षिणपंथी प्रभु वर्ग की सामाजिक समरसता फैलाने की साज़िश है।अभी भी अपना वर्चस्व कायम करने के लिए जाति व्यवस्था बनाए रखना चाहते हैं।धर्म और धार्मिक कर्म काण्ड/ आडंबर जातियों का सरंक्षण करते हैं।इसलिए इनका पहले विनाश होना जरूरी है।इन्हीं सब की वजह से भारत आज भी डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी से बाहर खड़ा दिखाई देता है। बहुजन समाज को पढ़ना ही है,तो डॉ.आंबेडकर का बनाया संविधान,पेरियार और ललई सिंह की सच्ची रामायण पढ़िए। दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के साथ &टीवी पर प्रसारित होने वाला धारावाहिक "एक महानायक: डॉ.भीमराव आंबेडकर" का भी प्रसारण होना चाहिए।
✍️लाला लाजपतराय,बाल गंगाधर तिलक व राजेन्द्र प्रसाद जैसे दक्षिणपंथी लोगों को "राष्ट्र-निर्माताओं" की श्रेणी में स्थापित किया जाता है और आंबेडकर को मात्र "दलितों और आरक्षण के नेता" के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया जाता है।विद्वता होने के बावजूद आंबेडकर को राष्ट्र निर्माण व अकादमिक पाठ्यक्रमों और पुस्तकालयों में जगह नहीं मिल पाती है।अब जब कुछ हालात बदल रहे हैं तो दक्षिणपंथी उसमें तरह तरह से छिद्रान्वेषण कर उनकी वैचारिकी की दिशा-दशा बदलने की साज़िश करने से बाज नहीं आ रहे।
✍️देश की बुनियादी समस्यायों पर केन्द्रित अनु. 340(52%ओबीसी के लिए प्रतिनिधित्व ),अनु.341 (अनुसूचित जातियों के लिए 15%आरक्षण)और अनु.342 (अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% आरक्षण) में "आंबेडकर जी सबसे पहले देश के 52%ओबीसी के प्रतिनिधित्व की बात करते हैं।" अनु.340 का सरदार पटेल विरोध करते हुए प्रश्न करते हैं कि यह ओबीसी क्या है? एससी-एसटी की तो पहचान हो चुकी थी इसलिए उनके लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था के साथ"राजनैतिक आरक्षण"(केवल लोकसभा व राज्य विधान सभाओं में केवल दस वर्ष के लिए,किंतु राज्य सभा और राज्य विधान परिषदों में नहीं)भी हो गया,किन्तु ओबीसी की जातियों की पहचान का कार्य पूर्ण नहीं हो पाया था,इसलिए अनु.340 की व्यवस्था दी गई थी,किंतु इस "अनुच्छेद के हिसाब से आयोग गठित न होने के कारण,हिन्दू कोड बिल पर राजेन्द्र और तिलक द्वारा धमकी ओर कैबिनेट वितरण में नेहरू द्वारा आंबेडकर के साथ भेदभाव(आंबेडकर योजना मंत्रालय लेना चाहते थे) आदि विषयो का उल्लेख करते हुए डॉ. आंबेडकर 1951में ओबीसी के खातिर मंत्रिपरिषद से इस्तीफा तक दे देते है।लेकिन दुर्भाग्य है कि ओबीसी आंबेडकर के योगदान और त्याग को नहीं समझ पाया और अभी भी नहीं समझ पा रहा है।नेहरू ने इस त्याग पत्र को डॉ.आंबेडकर को संसद में जानबूझकर पढ़ने नहीं दिया,क्योंकि ओबीसी और वंचित वर्ग को इस्तीफे का असली कारण पता चल जाता। बाद में उन्होंने अपने इस्तीफे का कारण प्रसार के माध्यम से संसद के बाहर रखा था।

आंबेडकर बनाम गांधी-गोलवलकर वैचारिकी/सामाजिक न्याय बनाम सामाजिक समरसता/जाति उन्मूलन बनाम जाति समरसता-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  
भाग चार
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

दलितों और ओबीसी को अपने घरों में अदृश्य व काल्पनिक देवी-देवताओं की मूर्तियों,उनकी आरती की पुस्तकों,रामचरित मानस के स्थान पर बहुजन नायक की वैचारिकी से संबंधित सामग्री जैसे भारत का संविधान,कालेलकर आयोग(1955),बीपी मंडल आयोग (1980) की सिफारिशें (ओबीसी के लिए एससी-एसटी की तरह राजनैतिक आरक्षण, सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 27% आरक्षण प्रोन्नति में आरक्षण और बैक लॉग के आधार पर भर्तियां ) और पेरियार- ललई सिंह की "सच्ची रामायण" पढ़ना चाहिए।वर्ग विशेष के आधिपत्य के मंदिरों में कैद मिट्टी/पत्थरों की बेजान मूर्तियों के सामने खड़े होकर और दान पात्र में पैसा और सोना-चांदी डालकर अपनी मनोकामना पूरी होने,जन्म-पुनर्जन्म,स्वर्ग-नरक और पाप-पुण्य जैसे अंधविश्वास से बाहर निकल कर डॉ.आंबेडकर के मूलमंत्र/सूक्ति वाक्य "शिक्षित बनो,संगठित रहो और संघर्ष करो " पर चलने का साहस और विश्वास पैदा करो, क्योंकि ब्राम्हणवाद (ब्राम्हणों द्वारा ब्राम्हणों के लाभ के लिए निर्मित ब्राम्हण वर्चस्व की जन्म से लेकर मृत्यु तक और मृत्यु के बाद भी अवैज्ञानिक धार्मिक कर्मकांड,आडंबर,नाना प्रकार के व्रत और त्योहार मनाना,भूखे इंसान की जगह गाय/काले कुत्ते को रोटी खिलाना,हाथ और गले में काला धागा,हाथ की अंगुलियों में नाना प्रकार के महंगे पाषाण/रत्न जड़ित अंगूठियां पहनना,नजर न लगे इसलिए नवनिर्मित सुंदर मकान के मुख्य द्वार पर काला लंबा चुटीला या नजरौटा और हर शनिवार को घर में काले धागे में गुथे नीबू और हरी मिर्च लटकाना,माता-पिता और बुजुर्गों की सेवा और चरण स्पर्श न कर कुत्ते और गाय को पूड़ी पकवान खिलाना,गले लगाना और पैर पूजना,बेजान मूर्तियों के सामने धूप बत्ती जलाकर वायु प्रदूषण फैलाना,अदृश्य देवी-देवताओंं के अज्ञात जन्म दिन/जयंती के अवसरों पर और सावन माह भर गंगा नदी का गंदा पानी भरकर सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्राएं करना,खाली बाल्टी और बिल्ली द्वारा रास्ता काटना देखकर शगुन-अपशगुन की अवैज्ञानिक सोच और भय पैदा होना,बिना वैज्ञानिक आधार के ज्योतिषियों से भविष्य जानना,कालसर्प योग की मार को काटने के लिए अनुष्ठान करवाना,दशहरा पर्व पर नीलकंठ पक्षी के दर्शन को शुभ मानना,दीपावली पर बदबू फैलाती छछूंदर के दर्शन और धनतेरस पर खरीदारी को शुभ मानना,खून पसीने से कमाए गए आपके धन से रोजी-रोटी चलाने वालों से आशीर्वाद लेना,गाड़ी आदि खरीदने और दुल्हन को प्रथम बार मंदिर में जाकर भगवान के ठेकेदारों द्वारा फूलमाला पहनाना और तिलक/शुभांकर लगवाना,मुंडन के नाम पर बच्चों का मुंडन किसी अदृश्य देवी-देवता के द्वार या स्थान पर ही करवाना और तिलक लगवाना,डॉक्टर से उपचार न कराकर भूत-चुड़ैल उतरवाने के चक्कर में ओझाओं/तांत्रिकों के चंगुल में फंसना, काल्पनिक कथा-कहानी जैसी व्यवस्था जिसमें मानव समाज में स्थापित जन्म से श्रेष्ठ ब्राम्हण स्वयं को "भू-देवता" और अन्य को नीच बनाता है) को सबसे ज्यादा आक्सीजन ओबीसी ही देता है। जिस दिन ओबीसी ऑक्सीजन देना बन्द कर देगा,उसी दिन ब्राम्हणवाद की सांसे बन्द हो जाएंगी और वह समाज रूपी सड़क पर दम तोड़ता नजर आयेगा,लेकिन धर्मांध ओबीसी मानने को तैयार ही नही है।अदृश्य/,काल्पनिक भयवश वह इसी व्यवस्था का आदी/गुलाम सा बन चुका है। चाहे कोई संविधान को ख़त्म करे या उसके आरक्षण पर तरह-तरह से वार (क्रीमीलेयर,200 पॉइंट्स रोस्टर प्रणाली के स्थान पर 13 पॉइंट्स रोस्टर प्रणाली,दूसरे प्रांत में आरक्षण न मिलना,परीक्षा के किसी स्तर पर आरक्षण सुविधा लेने पर सामान्य वर्ग की कट-ऑफ से अधिक या बराबर मेरिट होने पर केवल आरक्षित वर्ग में ही चयन, अनारक्षित और आरक्षित वर्गों का साक्षात्कार अलग अलग समय करवाकर आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को कम अंक देना जिससे उनकी सामान्य वर्ग में चयन होने की संभावनाएं तो खत्म हो या कम हो जाएं,लिखित परीक्षा के बाद अनारक्षित और आरक्षित सीटों के गुणक में अभ्यर्थियों को बुलाना जिसमें आरक्षित वर्ग की कट-ऑफ सामान्य वर्ग की कट-ऑफ से अधिक होने के बावजूद साक्षात्कार में शामिल न करना,प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त करना और सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को 10% आरक्षण और उसकी 10%की गूढ़ गणित को समझना बहुत जरूरी है) कर कटौती/अतिक्रमण करे। अपने हितों पर पड़ने वाले दूरगामी दुष्प्रभावों/परिणामों को वह न तो समझ पा रहा और न ही मूल्यांकन कर पा रहा हैं,क्योंकि उसे धर्म-ग्रंथो के कर्मकांडो के अलावा"संविधान और आयोग की सिफारिशें पढ़ने,समझने का न तो समय है और न ही ललक या जिज्ञासा।"अंत में अवैज्ञानिकता पर आधारित भारत की सामाजिक/धार्मिक सरंचना/अवधारणाओं का विश्व के सर्वाधिक विकसित देशों से तुलना कर पेरियार रामा स्वामी की वैचारिकी का रेखांकित किया जाना अपरिहार्य जैसा लगता है:-
✍️"इंग्लैंड में कोई ब्राम्हण/शूद्र/अछूत/नीच पैदा नहीं होता!रूस में वर्णाश्रम/धर्म/भाग्य जैसी कोई चीज नहीं  है।अमेरिका में लोग ब्रम्हा के मुख/भुजाओं/उदर/पैर से पैदा नहीं होते।जर्मनी में भगवान खाना नहीं खाते और तुर्की में शादी नहीं करते।फ्रांस में भगवान करोड़ों के जेवरात/हीरे/मोती नहीं पहनते।इन सभी अति विकसित देशों के लोग विद्वान बुद्धिमान और वैज्ञानिक होते हैं। वे लोग आत्म-सम्मान खोना नहीं चाहते हैं। इसीलिए उनका ध्यान अपने अधिकारों और देश की सुरक्षा की ओर होता है। तो फिर!हमारे देश के लोगों के लिए ही अदृश्य करोड़ों बर्बर देवी -देवता और धार्मिक हठधर्मिता क्यों?
***

Monday, May 30, 2022

उधारी मरीज-सुरेश सौरभ

 लघुकथा
  
-सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी पिन-262701
मो-7376236066

       वह डॉक्टर के सामने पड़ी बेन्च पर एकदम लिथर गया। जोर-जोर से हाँफते हुए फटी-फटी आँखों से उसके साथ आया, तीमारदार हाथ जोड़कर बोला-डॉ. साहब बचा लीजिए कल से उल्टी-दस्त से परेशान है। कई जगह दिखाया पर कोई फायदा नहीं मिला। डॉक्टर साहब ने तुरन्त दूसरा पेशेन्ट छोड,़ उसके मरीज पर दया दृष्टि डाली।... फौरन इन्जेक्शन और दवा दी। 
     कुछ घड़ी बाद मरीज कुछ सुकून महसूस कर रहा था। डॉक्टर ने कहा-‘‘इन्हें ले जाओ। अब ये ठीक हो जाएंगे, जो दवाएँ दीं है, उसे समय से खिलाते रहना। अगर फिर भी कोई परेशानी लगेे तो ले आना।’’
    अब फीस देने की बारी थी,पर डॉक्टर के माँगने से पहले ही तीमारदार दीनता से हाथ जोड़कर बोला-साहेब! पैसे जल्दबाजी में घर ही भूल गया। आप भरोसा रखें। कल इधर से निकलूँगा तो दे दूँगा।’’
      डॉक्टर ने दया भाव से कहा-ठीक है भाई कोई बात नहीं।
      मरीज अपने तीमारदार के साथ चला गया।
      तीसरे दिन वह मरीज डॉक्टर साहब  के क्लीनिक के सामनेे, साइकिल चलाते हुए चैतन्य दषा में निकला। उसे देख डॉक्टर साहब को अपनी फीस याद आई और वह वादा भी जो उन्हें टूटता हुआ दिखने लगा था।
      आठवें दिन। वह उधारी मरीज डॉक्टर साहब को, एक पार्टी में दिखा। डॉक्टर साहब जब उसके सामने आ गये तो उसने डॉक्टर को फौरन नमस्कार किया, उनके बोलने के पहले ही वह बोल पड़ा-क्या बताएँ डॉक्टर साहब! अप की दवा से कोई फायदा नहीं हुआ? बड़ा इलाज कराया, तब कहीं फायदा हुआ।’’ डाक्टर साहब हतप्रभ थे। फौरन उससे, परे हट गये। उन्हें सुदर्शन की बाबा भारती वाली कहानी याद आ रही थी,पर अब डाकू किस-किस रूप में आएंगे। यह सोचते हुए व्यथित थे। अब तक पार्टी की शानदार रौनक और वहाँ का सौंदर्य बोध उन्हें प्रफुल्लित कर रहा था, पर अब वही उन्हें हृदय में टीस दे रहा था। अतंर्मन को उदासी के भंवर में धकेल रहा था।

क्या संविधान के भविष्य को लेकर डॉ.आंबेडकर के मन में उपजी तत्कालीन आशंकाएं आज पुष्ट होती दिख रही है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
      भारत के सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और भौगोलिक क्षेत्रों के विविध पहलुओं और व्यापक संदर्भों के दृष्टिगत संविधान की रचना करते समय डॉ.आंबेडकर की कुछ स्वाभाविक आशंकाएं और चिंताएं थी जैसे कि " यदि संविधान गलत लोगों के हाथों में पड़ गया तो इसका दुरुपयोग हो सकता है,जिसका मतलब यह है कि यदि सरकारी और सार्वजनिक संस्थानों जिसे वह स्टेट कैपिटलिज्म कहते थे, को खत्म कर दिया गया तो संविधान का जो लड़ाकू/संघर्षशील गणतंत्र है, वह स्वतः पंगु या कमजोर हो जाएगा।" वर्तमान राजनीतिक सत्ता के "लोकतांत्रिक सह तानाशाही "के दौर में एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग के चिंतनशील वर्ग को डॉ.आंबेडकर की इन आशंकाओं की गंभीरता और निहितार्थ को समझने और ग्रामीण-शहरी बहुजन समाज को समझाने के सतत प्रयास जारी रखने की जरूरत है।
      भारत के हर जिम्मेदार/संवेदनशील नागरिक को संविधान की प्रस्तावना को अच्छी तरह पढ़ना और समझना बहुत जरूरी है। इसकी प्रस्तावना पं. नेहरू और डॉ.आंबेडकर का एक संयुक्त उपक्रम था। इस प्रस्तावना में भारत का मिशन स्टेटमेंट है कि इस संविधान का लक्ष्य क्या है, जैसा कि हर संविधान का होता है। उस वक्त दुनिया दो भागों में बंट चुकी थी। एक कम्युनिस्ट- सोशलिस्ट और दूसरा पूंजीपति वर्ग। प्रस्तावना में समाजवाद जैसे शब्द का उल्लेख नहीं था जिसे 1977 में जोड़ा गया। इसमें लोकतान्त्रिक शब्द का इस्तेमाल हुआ है कि संविधान का लक्ष्य भारत को एक " संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य " बनाना है।
      ब्रिटिश सिविल सर्वेंट मेटकॉफ का जन्म कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता ईस्ट इंडिया कंपनी में बड़े अधिकारी थे। मेटकॉफ भारत में बहुत दिनों तक रहे, बहुत घूमे, लिखे और भारत के एक्टिंग गर्वनर जरनल भी बने। उनका एक प्रसिद्ध कथन है कि "भारत के गांव अपने आप में एक स्वतंत्र गणतांत्रिक इकाई हैं।" डॉ.आंबेडकर मेटकॉफ को उध्दृत करते हुए अपने उद्घाटन भाषण में भारतीय संविधान के लक्ष्य/उद्देश्य को और ज्यादा व्याख्यायित करना चाहते थे कि किस तरह से यह जो संवैधानिक गणतंत्र है वह गांव के गणतंत्र को तोड़ेगा। गांव का गणतंत्र मतलब भारतीय सामंतवाद जिसे अंग्रेज "इंडियन सर्फडम " (भारतीय दासता) कहते थे।
     आंबेडकर और नेहरू दोनों की शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई थी। इसलिए उन्हें पता था कि दुनिया में सामंतवाद को पूंजीवाद ने ही तोड़ा है। डॉ.आंबेडकर ने मेटकॉफ का जिक्र इसलिए भी किया, क्योंकि गांधी जी कहते थे कि भारत की आत्मा गांव में बसती है। इसलिए वह सारा तंत्र जैसे का तैसे बना रहे। डॉ.आंबेडकर को मालूम था कि गांव का सामाजिक ढांचा घोर अलोकतांत्रिक है, जिसे तोड़ना बहुत जरूरी है और इस व्यवस्था को पूंजीवाद ही तोड़ सकता है,लेकिन उस समय पूंजीवाद काफी घृणा का शब्द बन चुका था। तत्कालीन पत्रकार,लेखक,छात्र और आंदोलनकारी लगभग सारे लोग कम्युनिस्ट हो गए थे।यहां तक कि नेहरू भी कई बार कम्युनिज्म की तारीफ कर उसके पक्षधर दिखाई पड़ते थे। तो उस समय के शब्द पूंजीवाद को दोनों महापुरुषों ने "डेमोक्रेटिक" कहकर ऐसा आवरण पहना दिया कि लोग उन पर आरोप न लगाएं कि वे उस पूंजीवादी व्यवस्था लाने के पक्षधर हैं जिसे कम्युनिस्टों ने शोषण की व्यवस्था बता रखा था। इसीलिए मेटकॉफ के ज़िक्र के बगैर डॉ.आंबेडकर और उनके संविधान को समझना लगभग असंभव सा लगता है।
      लोकतंत्र/डेमोक्रेसी शब्द सन 1950 के दौर में पूंजीवादी दुनिया के लिए इस्तेमाल होता था। इसका मतलब यह है कि "जहां डेमोक्रेसी है,वहां पर पूंजीवाद है।" जहां पर समाजवाद है, वहां पर वर्किंग क्लास की तानाशाही है। इसी दर्शन के साथ डॉ.आंबेडकर और पं.नेहरू ने भारतीय गणतंत्र को एक "डेमोक्रेटिक रिपब्लिक" बनाने का लक्ष्य रखा था। जब इसका मसौदा पूरा हो गया जिसे डॉ.आंबेडकर ने खुद ही बनाया था,फिर 5 अप्रैल,1948 को इस पर अनुच्छेद दर अनुच्छेद गहन बहस शुरू हुई। बहस इसलिए हुई कि संविधान सभा अगर इसे आम सहमति से अनुमोदित करती है तो यह संविधान भारत के लिए लागू हो जाएगा। इस बहस के शुरू होने से पहले डॉ.आंबेडकर ने उद्घाटन भाषण दिया था, तब लोगों को उम्मीद थी कि डॉ.आंबेडकर यूरोपियन या अमेरिकन दर्शनशास्त्रियों को उध्दृत करेंगे जबकि उन्होंने अपने इस उद्घाटन भाषण में चार्ल्स मेटकॉफ को ही उद्धरित किया था।
      भारत देश अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस की तरह बने,एक आधुनिक, वैज्ञानिक, लोकतांत्रिक और पूंजीवादी देश बने। मगर ड्राफ्ट पेश करने के पांच-छः दिन बाद संघ परिवार का इंग्लिश में प्रकाशित मुखपत्र "ऑर्गेनाइजर" ने संविधान को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इसमें कहीं भारतीयता दिखाई नहीं पड़ती है। यही से संघ की भारतीयता एक नई बहस का मुद्दा बन जाता है। अब सवाल यह है कि उस समय आरएसएस की दृष्टि में "भारतीयता" शब्द का क्या मतलब रहा होगा ?
आरएसएस की दृष्टि में "भारतीयता" :
      "भारत में एक हिंदू धर्म है,उसके भीतर ऊंच-नीच की विविधता भरी सामाजिक जाति व्यवस्था है और उसमें कुछ अस्पृश्य भी माने जाते हैं।उसमें एक ऐसी संस्कृति है, जहां दलित मूंछ नहीं रख सकता,सवर्णों के सामने चारपाई पर नही बैठ सकता।केरल राज्य में दलित महिलाओं को स्तन ढकने पर ब्रेस्ट टैक्स देना पड़ता था, विवाह समारोहों में दलित दूल्हा पगड़ी बांधकर और घोड़े पर बैठकर बारात नही निकाल सकता था,नए कपड़े नहीं पहन सकता था,दलित महिलाएं सोने के गहने नहीं पहन सकती थीं, जिसके बहुत सबूत डॉ.आंबेडकर ने प्रस्तुत किए जिसकी बानगी 21वीं सदी में भी दिखाई देती है। ब्राम्हणवादी व्यवस्था का प्रबल समर्थक संघ समय-समय पर कहता रहा है कि डॉ.आंबेडकर द्वारा रचित संविधान उनको स्वीकार्य नहीं है और आजादी के बाद से उन्होंने इस संविधान को कभी मन से माना भी नहीं।इसलिए डॉ.आंबेडकर को उस समय यह लगना स्वाभाविक था कि "कहीं यही लोग,जो आज हमारा बनाया संविधान खारिज़ कर रहे हैं,अगर भविष्य में कभी सत्ता में आ गए तो संवैधानिक व्यवस्था का क्या होगा ?"आज के राजनीतिक सत्ता के दौर में उनकी वही आशंका लगभग सच होती दिखाई पड़ रही है।
        अब पूंजीवाद को थोड़ा और व्यापक संदर्भ में समझना होगा। अक्टूबर 1951 में डॉ.आंबेडकर ने प्रथम लोकसभा चुनाव के लिए अपना घोषणा पत्र लिखा। उसका शीर्षक था: शेड्यूल कास्ट इमैंसिपेशन मैनिफेस्टो (अनुसूचित जाति मुक्ति घोषणा पत्र)। यह डॉ.आंबेडकर की एकमात्र ऐसी रचना है, जिसमें उन्होंने शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब्स के टाइटिल से उनकी मुक्ति का दर्शन दिया है। आपको अजीब सा लगेगा कि उस दर्शन में उन्होंने कहा है कि "जहां-जहां सरकारी कंपनियां जरूरी होंगी, वहां सरकारी कंपनियां होंगी और जहां प्राइवेट जरूरी होंगी, वहां हम प्राइवेट संस्थाओं को भी अवसर देंगे।"
        पं.नेहरू अच्छी तरह समझ रहे थे कि डॉ.आंबेडकर देश में क्या कहना और करना चाह रहे हैं। उन्हें भी यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई थी कि भारतीय राज्य को भी व्यवसाय में उतरना पड़ेगा, राज्य अपने पैसों के बलबूते ही नया भारत बन पाएगा। पूँजीपतियों के धन से भारत का गणतंत्र पुरानी व्यवस्था से लड़ नहीं पाएगा। डॉ.आंबेडकर को यह भी मालूम था कि पूंजीवाद ने दुनिया भर में महज सामंतवाद को ही नहीं खत्म किया है, बल्कि सामंती संस्कृति को भी खत्म किया है। भारत में जाति व्यवस्था संस्कृति का गम्भीर रूप ले चुकी है, तो शायद "पूंजीवाद भारत की जाति व्यवस्था को भी खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा!"
         इसमें बाकी चीजें तो अच्छी हुईं, लेकिन नेहरू जी, इंदिरा गांधी जी और बाद में राजीव गांधी के समय में प्राइवेट पूंजीवाद को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया। बाद में नरसिंह राव, मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने प्राइवेट कैपिटलिज्म को दिल खोलकर मौका दिया। आर्थिक सुधार आने के बाद देश में एक प्रकार की आर्थिक क्रांति हुई, काफी अनियोजित शहर और उद्योग-धंधे बढ़ गए। इस व्यवस्था से गांव के लोगों को शहर आने का मौका मिला तो भारत में हलवाही प्रथा खत्म हो गई, उत्तर भारत से बैल खत्म हो गए और दलित, जमींदारों के दरवाजों से मुक्त हो गए।
        सन 1990 के पहले की याद करें तो जितने आधुनिक कॉरपोरेट ओएनजीसी, इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, एनटीपीसी, भेल,बेल,गेल, सेल जैसे सार्वजनिक उपक्रम बने, वे पूरी तरह से अमेरिकी पूंजीवादी पैटर्न पर बनी हैं। आईआईटी और एम्स भी उसी पैटर्न पर बने हैं। इसे स्टेट कैपिटलिज्म कहा जाता है, जिसे खत्म करके यानी सरकारी/सार्वजनिक कंपनियों/उपक्रमों को खत्म करके ओबीसी और एससी-एसटी को समुचित प्रतिनिधित्व देने वाली संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर ही नही,बल्कि उसे धीरे-धीरे खत्म किये जाने की साजिशपूर्ण योजना है और उस दिशा में आज आरएसएस नियंत्रित राजनीतिक सत्ता के दौर में प्रयास तेजी से जारी हैं। डॉ.आंबेडकर की चिंता थी कि यदि देश की संवैधानिक सत्ता गलत हाथों में पड़ गयी, तो इसका दुरुपयोग हो सकता है!आज लोकतांत्रिक तानाशाही के दौर में वही हो रहा है कि स्टेट कैपिटलिज्म को खत्म कर दो तो भारतीय संविधान का जो लड़ाकू गणतंत्र है, वह स्वतः पंगु या कमजोर हो जाएगा और पश्चिमी सभ्यता की तरफ तेजी से बढ़ रहे भारत की गति कमजोर हो जाएगी और एक बार फिर वही ऊंच-नीच और छुआछूत पर आधारित सड़ी-गली सामाजिक जाति व्यवस्था की शायद वापसी हो जाए!🙏
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Tuesday, May 24, 2022

इंजन-सुरेश सौरभ

   (लघुकथा)  

-सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी पिन-262701
मो-7376236066
      लाठी के पीछे का सिरा वह अंधा बूढ़ा पकड़ता, आगे का, वह काली मटमैली बुढ़िया पकड़े हुए चलती। दोनों भीख मांगते। सारे शहर में वह दया के पात्र थे, लिहाजा उनकी  झोली रोज भर जाया करती थी। 
        एक दिन उसकी पार्टनर बुढ़िया मर गई। 
       अब वह दूसरे शहर में चला गया । अब उसकी आंखों की ज्योति लौट आई। वह अकेले भीख मांगता,पर पहले जैसी आमदनी नहीं थी। 
    अब वह पहले जैसे इंजन की तलाश कर रहा था, और उसे अपने साथ, तीसरे शहर ले जाकर, अपने काम को बेहतर तरीके से पटरी पर लाना चाह रहा था। 
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पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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