साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, December 17, 2021

अशोक दास और दलित-दस्तक (मासिक-पत्रिका) बनाम दरकिनार किये गए लोग-अखिलेश कुमार अरुण

जन्मदिन विशेष

अशोक दास (संपादक)
दलित-दस्तक, दास पब्लिकेशन
न्यूज-दलित दस्तक (यूट्यूब)
       आज अशोक दास का जन्मदिन है। उन्हें बहुत-बहुत हार्दिक बधाइयाँ और असीम मंगलकामनाएँ बिहार के एक छोटे से गाँव से दिल्ली पहुँचकर IIMC जैसी महत्वपूर्ण संस्था से अशोक ने पत्रकारिता की पढ़ाई की। अशोक निजी करियर के लिए मीडिया के चकाचौंध में नहीं फँसे, बल्कि वंचित जमात के लिए अपना मीडिया शुरू करने का साहस दिखाया। यह आसान काम नहीं था। लेकिन अशोक के पास वैचारिक चेतना थी और 'पे बैक टू सोसाइटी' का जज़्बा भी। पहले 'दलित मत' की ऑनलाइन शुरुआत की, फिर 'दलित दस्तक' पत्रिका छापना शुरू किया, जो आज भी नियमित रूप से निकल रही है और बहुजन वैचारिकी की लोकप्रिय पत्रिका बन चुकी है। फिर 'नेशनल दस्तक' यू-ट्यूब चैनल शुरू करके बहुजन मीडिया के क्षेत्र में एक बड़ी कमी को पूरा किया। आज अशोक 'दलित दस्तक' का अपना यू-ट्यूब चैनल बेहतर तरीके से संचालित कर रहे हैं। तमाम सारी विपरीत आर्थिक परिस्थितियों से जूझते-लड़ते हुए अशोक बिना रुके, बिना थके अपने रास्ते में डटे हुए हैं। असहमति की हिम्मत भी रखते हैं और सच कहने का माद्दा भी। 'दास पब्लिकेशन' की शुरुआत करके अशोक ने बहुजन समाज में पुस्तक-कल्चर को बढ़ाने का संकल्प लिया है। हमारी शुभकामनाएँ हैं कि अशोक दास ऐसे ही वैचारिकी प्रतिबद्धता और समर्पण के साथ अंबेडकरी कारवां को आगे बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहें.
-डॉ.सुनील कुमार 'सुमन'
(असिस्टेंट प्रोफेसर)
वर्धा विश्वविद्यालय (महाराष्ट्र)
.......................................................................................................
        आज 17 दिसम्बर है सम्पादक महोदय आपके जन्मदिन पर आपको बहुत-बहुत मंगलकामनाएं, आप दीर्घायु और स्वस्थ रहें तथा समाज की आवाज को मुखर करते रहें। अशोकदास जी (संपादक-दलित दस्तक) एक नाम है आज के दौर में दरकिनार किए लोगों की आवाज का, आपके अदम्य साहस और दृढ़ आत्मविश्वास की हम खुले दिल से जितनी प्रशंसा करें वह कम है।

        विषम से विषम परिस्थितियों में आप डिगे नहीं दलित पत्रकारिता को आपने एक नया आयाम दिया है। जन की बात को जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रिन्ट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर बिना एक दिन क्या एक पल नागा किए सक्रीय रहते हैं और देश-दुनिया की उन खबरों को लोगों तक पहुंचाते हैं जिनको आज कि पत्तलकार मिडिया सिरे से ख़ारिज कर देती है, ऐसा कोई दिन हमें याद नहीं कि जब आपका व्हाट्सएप पर मैसेज न मिला हो, लेखन आदि से सम्बन्धित गाहे-बगाहे चर्चा भी हो जाती है आपका लेखकीय मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है किंतु दुःख इस बात का है कि हम अभी समय नहीं दे पा रहे हैं.. एकदिवसीय परीक्षाओं ने जीना हराम कर रखा है भविष्य अधर में लटका हुआ है इसलिए हम लेखन पर भी ध्यान नहीं दे पा रहे हैं।


        अपने समाज के सक्षम लोगों से अपील है कि आप जैसे जुझारू और कर्मठ अपने कर्म के प्रति कर्तव्यनिष्ठ जो वंचित समाज की आवाज बनकर उनकी समस्याओं को जगजाहिर कर रहे हैं उनका सहयोग तन-मन-धन से करें क्योंकि उत्कृष्ट साहित्य ही समाज का गौरवशाली इतिहास होता है और जिस कौम इतिहास नहीं होता उस समाज का आधार नहीं होता। दलित पत्रकारिता के आधार स्तंभों में गिनती की जाए तो आप #अशोकदास {दलित दस्तक (मासिक-पत्रिका), यूट्यूब चैनल (न्यूज चैनल) } दिल्ली से तो डी०के०भास्कर (डिप्रेस्ड एक्सप्रेस-मासिक पत्रिका) मथुरा से प्रकाशित कर रहे हैं कोरोना काल में जहां कादम्बिनी जैसी पत्रिकाएं बन्द हो गई वहां यह दोनों पत्रिकाएं सम्पादित हो रही हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस समाज के लिए यह पत्रिकाएं छपती हैं वह पत्र-पत्रिका पढ़ने से दूर रहता है पत्रिकाओं के आर्थिक सहयोग की बात ही अलग है। हमारे अभी कई मित्र सरकारी नौकरी पेशे में आए हैं किंतु साहित्य के नाम 50/60 रुपए खर्चने को कह दीजिए तो उनका साल का बजट गड़बड़ा जाता है पर एक बैठकी में हजार-पांच सौ का मदिरा-हवन हो जाएगा, गुटखा चबन सम्भव है। पत्र-पत्रिका नहीं पढ़ना है मत पढ़ो खरीद लो महिने की महिने और नाते-रिश्तेदारों, गली-मोहल्लों में बांट दो इतना तो किया जा सकता है न, नौकरी में आने के बाद वैसे भी कहां पढ़ाई-लिखाई होती है और गर्व से लोग कहते भी हैं कि अब पढ़ने में मन नहीं लगता का करेंगे पत्र-पत्रिका और उसकी सदस्यता और तो और पत्रिका के लिए विज्ञापन भी।

        ऐसी परिस्थिति में किसी पत्रिका का सम्पादन करना अपने आप में एक बहुत बड़ा और जिम्मेदारी का काम है मने केकरा पर करी सिंगार पुरुष मोर आन्हर!!! आपको पुनः जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई और मंगलकामनाएं।
जय भीम नमो बुद्धाय
अखिलेश कुमार अरुण
लखीमपुर-खीरी उप्र।


Wednesday, December 15, 2021

अनुवांशिकता -सुरेश सौरभ

लघुकथा

सुरेश सौरभ

बाजार से किताबों का गट्ठर लाया, उसे बैठक में रख, जैसे ही सुस्ताने के लिए कुर्सी पर वह पसरा, पत्नी ने उसकी एड़ी देखकर हैरत से कहा-कितनी बार आप की ऐड़ियों में क्रीम लगाया, पर यह तो फटती ही रहती हैै। दर्द  नहीं होता क्या आप के?

       "होता है,पर क्या करें?"-पति

       "इसलिए कहती हूँ कि हमेशा जूता पहना करें,पर आप मेरी सुनते कहाँ हैं, जब देखो तब चप्पलें ही पहन कर निकल लेते हैं-पत्नी कुढ़ कर बोलीं।

     "दरअसल मेरे पिता जी एक गरीब मजदूर थे, बड़ी मुश्किल से वह अपनी चप्पलें ही खरीद पाते थे, इसलिए हर मौसम में वह अपनी पुरानी-धुरानी चप्पलें ही पहन पाते थे।"

    "आप तो गरीब नहीं हैं, आप तो सरकारी अध्यापक हैं-पत्नी ने मुँह फेरकर कहा।

       "तुम जानती हो मैं कभी-कभी जूते भी पहन लेता हूँ, पर यह ऐड़ियां फटना बंद नहीं होती। लगता है, यह दर्द मुझे अनुवांशिक ही मिला है। यह दर्द महसूसते हुए, गरीबों मजदूरों के दर्द का आभास करता रहूँ,शायद इसलिए यह दर्द नहीं जाता,शायद इसलिए ये ऐड़ि़यां मेरी हमेशा फटती रहतीं हैं। शायद ईश्वर की यही इच्छा है।"

   अब पत्नी पति के करीब आई। पति की आँखों में झाँकने लगी-जहाँ कोई नमी तैर रही थी। अब वही नमी धीमे-धीमे पत्नी की आँखों में भी तैरने लगी। पत्नी ने भरेे गले से कहा-तुम्हारा यह शायद बड़ा प्यारा लगता है। और बहुत तकलीफ भी दिल को देता है।"

    अब पत्नी उन पुस्तकों को ताक रही थी, जिसे गरीब बच्चों को निःशुल्क देने के लिए उसके पति अपने पैसे से, बाजार से खरीद कर लाये थे।

     पति ने किताबों का वह गट्ठर उठाया। चप्पलें पहनीं और चल पड़ा। तब पत्नी ने टोका-तुम न सुधरोगे। पति ने पलटकर कर कहा-सरकारी स्कूल जा रहा हूँ,संसद नहीं?ज्यादा सूट-बूट में जाऊँगा, तो अपनी क्रीज़ ही बनाता रहूंगा। गरीब बच्चों को क्या पढाऊंगा।

  पत्नी उसे खाने का टिफिन पकड़ाते हुए उसकी फटी मैली ऐड़ियों की तरफ देखकर बोली-काश यह दर्द हर आदमी को मिलता ?

   ‘सबका को, यह सौभाग्य ईश्वर कहाँ देता-पलट कर पति ने कहा और लंबे-लंबे डग भरता चल पड़ा। जैसे भक्त अपने भगवान की तलाश में अधीरता से भागा चला जा रहा हो। 

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी पिन-262701

मो-7376236066

 

Tuesday, December 14, 2021

ज़ुकामी चाचा-संजीव जायसवाल संजय

 हास्य-कहानी
संजीव जायसवाल संजय

जुकामी चाचा का असली नाम क्या था यह तो अब उनको भी याद न होगा। किंतु उनके नाम की शोहरत का आलम यह था कि उनका मोहल्ला भी अब जुकामी चाचा के मोहल्ले के नाम से जाना जाने लगा था।
 दरअसल जुकाम के कारण उनकी नाक के दोनों छेंद नगरपालिका के गटर की तरह बारहों महीने उफनाया करते थे। इससे प्रभावित होकर मोहल्ले के एक खुराफाती बच्चे ने एक बार उन्हें ‘जुकामी चाचा’ कह दिया। लोगों को यह नाम इतना पसंद आया कि उनका यही नाम रख दिया गया। 

  जुकामी चाचा गुणों की खान थे। उनके किस गुण को गिनवाया जाये और किसको नहीं, यह तय कर पाना मुश्किल था। कंजूसी के क्षेत्र में तो जुकामी चाचा ने ऐसे-ऐसे रिकार्ड बनाये हैं कि ‘गिनीज़ बुक्स’ के एक से लेकर दस नंबर तक के रिकार्ड पर उन्हीं का कब्जा पक्का समझिये। अपनी कंजूसी के चलते उनका अक्सर तमाशा बन जाता लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। मोहल्ले के बड़े-बुजर्गो ने भी कई बार समझाया कि इतनी कंजूसी ठीक नहीं मगर जुकामी चाचा का कहना था कि पैसे बचाना कंजूसी नहीं बल्कि एक आर्ट है जो सबके बस की बात नहीं। पैसे बचाने के लिए उनके पास एक से बढ़कर एक नुस्खे थे।

  अब सिर के बालों को ही लीजये। ज्यादातर लोग इन्हें बढ़ाने के लिये पहले मंहगे-मंहले तेलों और शेम्पुओं पर पैसा खर्च करते हैं फिर उन्हें कटवाने के लिये भी पैसा बर्बाद करते हैं। जुकामी चाचा की नजर में यह पक्की मूर्खता थी। जब हर महीने बाल कटवा कर फेंकने ही हैं तो उन्हें बढ़ाने के लिये तेल और शेम्पू पर पैसा बर्बाद करने की क्या जरूरत? जुकामी चाचा का दावा था कि युगों-युगों से चली आ रही इस मूर्खता पर अब तक जितना पैसा बर्बाद हो चुका है उतने में देश की अर्थव्यवस्था सुधर सकती थी।

 जुकामी चाचा का रिकार्ड था कि बाल कटवाने के लिये उन्होंने आज तक एक चवन्नी भी खर्च नहीं की थी। वह उन्हें बढ़ने देते फिर मौके की तलाश में रहते। आस-पास के मोहल्ले में जब भी कोई आदमी उपरवाले का प्यारा होता वह झट से वहां मुंडन संस्कार करवाने पहुंच जाते। मातम-पुर्सी भी हो जाती और चार पैसे भी बच जाते। 

 एक बार कई महीनों तक आस-पास के मोहल्लों में भी किसी की मौत नहीं हुयी। इससे जुकामी चाचा के बाल और दाढ़ी झाड़ियों जैसे लंबे हो गये थे। उनमें पड़े जुओं ने खुजली मचा-मचा कर उनकी नाक में दम कर दिया था। बेचारे हर बीमार और बूढ़े को बड़ी हसरत से देखते किन्तु बुरा हो दिनो-दिन उन्नति हो रही मेडिकल सांईंस का जिसके चलते कई गंभीर मरीजों की अंतिम यात्रायें रद्द हो गयी थीं। वैसे कुछ मनचलों का मानना था कि यमदूत खुराफाती हो गये हैं। वे षरारतन जुकामी चाचा के मोहल्ले से किसी को बिदा नहीं करा रहे हैं।
 
 जुओं ने जुकामी चाचा के बालों में गदर काट रखी थी। खुजली के चलते बेचारों को न दिन में चैन मिलता था न रात में। लग रहा था कि पल्ले से खर्च कर मुंडन कराये बिना राहत न मिलेगी। अतः एक दिन मुटठी में 2 रूपये के सिक्के को थाम वह कल्लन नाई की दुकान की ओर चल पड़े। सोचा पुरानी ब्लेड से मुंडन करवा लेगें। मामला सस्ते में निबट जायेगा। 

 मगर इन्सान का सोचा हुआ सच कहां होता है। किस्मत की मार कि उस दिन कल्लन कहीं बाहर गया हुआ था और उसका बेटा झुल्लन सैलून संभाले हुये था। उसने जुकामी चाचा को देखते ही फर्शी सलाम ठोंका,‘‘अस्लाम, चचा मिंया अस्लाम। सुबह-सुबह तशरीफ का टोकरा लेकर कहां चल दिये?’’

 ‘‘सलाम वालेकुम। बरर्खुदार, वालेकुम सलाम। मैं कहीं जा नहीं रहा बल्कि तुम्हारी ही दुकान पर आ रहा हूं’’ जुकामी चाचा ने पूरे जोशो-खरोश से सलाम कबूल किया फिर अपनी सुराहीदार गर्दन को चक्करघिन्नी की तरह इधर-उधर घुमाते हुये बोले,‘‘ तुम्हारे वालिद साहब नजर नहीं आ रहे हैं?’’

 ‘‘वे बाहर गये हैं। अगर मुझ नाचीज़ के लायक कोई सेवा हो तो हुक्म करें। बंदा हाजिर है’’ झुल्लन ने कहा।

 ‘‘बेटा, क्या तुम मेरा मुंडन कर दोगे?’’ जुकामी चाचा ने हिचकिचाते हुये वहां आने का मकसद बताया।

 ‘‘आपने मेरी पाक दुकान पर अपने नापाक कदम....’’ झुल्लन ने आंखे मटकायीं।

  ‘‘क्या कहा?’’ जुकामी चाचा की त्योरियां चढ़ गयी।

  ‘‘माफ करना चचा, ये चमड़े की जुबान है, जरा फिसल गयी थी। मेरा मतलब था कि मेरी नापाक दुकान पर आपने अपने पाक कदम रख कर जो इज्जत बख्शी है उससे मेरा सिर फख्र से उंचा हो गया है’’ झुल्लन ने मुंह में भरी पान की पीक को निगला फिर किसी दरबारी की तरह झुकते हुये बोला,‘‘जिस काम को करने का शबाब मेरे बाप-दादा तक को नहीं मिला वह आप मुझे दे रहे हैं। मैं खुशी-खुशी कलम करूंगा आपका सिर।’’

 ‘‘मेरा सिर?’’ जुकामी चाचा चिहुंक कर पीछे हट गये। 

 ‘‘सिर नहीं, सिर के बाल’’ झुल्लन ने पिच्च से मुंह में भरा पान वहीं रखे कूड़ेदान में थूका फिर मुंह पोंछते हुये बोला,‘‘बुरा हो तंबाकू का। इसके कारण चमड़े की जुबान बार-बार फिसल जाती है। पर आप इत्मिनान रखिये। मैं ऐसा शानदार मुंडन करूंगा कि आप जिंदगी भर भूल न पायेगें।’’

 ‘‘बेटा, पैसे कितने लोगे?’’ जुकामी चाचा ने धड़कते दिल से पूछा।

 ‘‘आप घर के आदमी हैं। मुंडन करवाईये। बाद में वाजिब दाम लगा दूंगा’’ झुल्लन ने मंजे हुये नेता की तरह आष्वस्त किया।

 ‘‘भैया, हिसाब पहले से साफ रहे तो ज्यादा अच्छा रहता है’’ जुकामी चाचा ने अपना तर्जुबा बताया।

 ‘‘ठीक है। आप 502 रूपये दे दीजयेगा।’’

   ‘‘502 रूपये किस बात के?’’ जुकामी चाचा यूं उछले जैसे कहीं बम फट गया हो।

 ‘‘ दो रूपये मुंडन के और......’’ झुल्लन ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

 ‘‘बाकी 500 रूपये किस बात के?’’ जुकामी चाचा ने उसे घूरा।

 ‘‘आपकी बहती हुई बदबूदार नाक देख कर बाकी के जो ग्राहक भाग जायेगें 500 रूपये उसके हर्जाने के’’ झुल्लन ने पूर्ण गंभीरता के साथ कीमत का खुलासा किया।

 ‘‘लाहौल बिला कूबत। सत्यानाश हो इस बदलते जमाने का। आज कल के लौंडो में तमीज नाम की कोई चीज़ ही नहीं बची है। न उम्र का ख्याल, न पेशे का इखलाक और न मोहल्ले की अदब। जिसका चाहेगें पैजामा उतार कर सड़क पर उछाल देगें’’ जुकामी चाचा का पारा सीधे सातवें आसमान पर चढ गया।ं 

 ‘‘चचा, जरा मुहावरा तो ढंग से बोलिये। पैजामा नहीं पगड़ी उछाली जाती है और वह आप पहनते नहीं हैं’’दुकान पर बैठे एक ग्राहक ने टोंका। 

 ऐसा लगा जैसे बर्र के छत्ते पर हाथ रख दिया गया हो। जुकामी चाचा हत्थे से उखड़ गये। अपने हाथ झटक-झटक और लंबी गर्दन को उचका-उचका कर उन्होने झुल्लन और उस ग्राहक को इतना कोसा, इतना कोसा कि कोसने का वल्र्ड रिकार्ड भी टूट गया होगा।  

  कल्लन की दुकान के आस-पास मुफ्त का तमाशा देखने वालों की अच्छी खासी भीड़ जमा हो गयी थी। कुछ लोगों ने तो बकायदा जुकामी चाचा के एक्षन की वीडियो भी बना ली। थोड़ी देर बाद जब जुकामी चाचा के इंजिन की बैटरी डिस्चार्ज होने लगी तब वे बड़बड़ाते हुये घर लौट पड़े। 

  कल्लन की दुकान से थोड़ा आगे जहां से गली घूमती है वहीं चुन्नू पनवाड़ी की दुकान है। संयोगवश आज उसका बेटा मुन्नू वहां बैठा था। उसने जुकामी चाचा को उछलते-कूदते आते देखा तो उसका दिल भी मचल उठा। उसने पान का बीड़ा उठाया और जुकामी चाचा की ओर बढ़ाते हुये बोला,‘‘चचा, लगता है किसी मरदूद ने सुबह-सुबह आपका दिल दुखा दिया है। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताईयेगा।’’ 

 पान वह भी मुफ्त का! जुकामी चाचा ने लपक कर उसे मुंह में दाबा फिर पूरा किस्सा बता कर झुल्लन को कोसने लगे।

 ‘‘यह तो खुल्लम-खुला डकैती का मामला है। अगर वह मुझसे इतने पैसे मांगता तो मैं तो पुलिस में रिपोर्ट लिखा देता’’ मुन्नू ने समझाया।

 ‘‘मैनें सोंचा मोहल्ले का बच्चा है। पुलिस के चक्कर में फंस कर झेल जायेगा इसलिये छोड़ दिया’’ जुकामी चाचा ने दरियादिली दिखायी।  

 ‘‘खैर, जो हुआ सो हुआ। मैं बिल्कुल सस्ते में आपके मुंडन का जुगाड़ करवा दूंगा’’ मुन्नू ने सांत्वना दी फिर किसी शुभ-चिन्तक की तरह पूछा,‘‘पैसे कितने हैं आपके पास?’’

 ‘‘दो रूपये’’ जुकामी चाचा ने मुट्ठी खोल कर दो का सिक्का दिखाया।

 ‘‘ये तो बहुत ज्यादा हैं’’ मुन्नू ने दो का सिक्का लेकर अपने गल्ले में डाला फिर माचिस की एक डिब्बी और डेढ़ रूपये के सिक्के जुकामी चाचा के हाथ पर रखते हुये बोला,‘‘इसे ले जाईये आपका काम हो जायेगा।’’

 ‘‘ये क्या है?’’ जुकामी चाचा ने पलकें झपकायीं।

 ‘‘डेढ़ रूपये से मिट्टी का तेल खरीद कर बालों में लगा लीजये। फिर माचिस दिखा दीजयेगा, सेकेंडो में सारे बाल साफ हो जायेगें। उसके बाद वे दोबारा निकलेगें भी नहीं। हमेशा-हमेशा के लिए झंझट खत्म हो जाएगा’’ मुन्नू ने पूर्ण गंभीरता के साथ मुंडन का आसान रास्ता समझाया। 

 दोस्ती की आंड़ में दुश्मनी? जुकामी चाचा का गुस्सा सांतवे आसमान के भी उस पार जा पहुंचा। वे दांत पीसते हुये वह मुन्नू की ओर लपके। वह उछल कर भागा। अब मुन्नू आगे-आगे और जुकामी चाचा पीछे-पीछे। घंटो तमाशा चला। मगर जुकामी चाचा मुन्नू को छू तक नहीं पाये। आखिर में थक-हार कर वे घर लौट आये।
 
 मुंडन भी नहीं हुआ और अट्ठनी मुफ्त में चली गयी। अब बचे हुये डेढ रूपये में मुंडन कैसे करवाये जाये? जुकामी चाचा काफी देर तक दिमागी घोड़े दौड़ाते रहे। अचानक एक जबरदस्त आईडिया दिमाग में आया तो वे खुशी से उछल पड़े।

 ‘‘वाह जुकामी, वाह! तू तो बड़ा समझदार है’’ उन्होने खुद की पीठ थपथपायी फिर खिड़की से बाहर झंाका। दोपहरी के कारण सड़क पर सन्नाटा छाया हुआ था। 

 अपनी टांगो से सड़क नापते हुये वे अपने लक्ष्य की ओर चल दिये। पहला मोहल्ला, दूसरा मोहल्ला, तीसरा मोहल्ला और चौथा मोहल्ला पार करते हुये वह दो घंटे में शहर के बाहरी हिस्से में बस रही एक नयी कालोनी में पहुंच गये। वहां उन्हें कोई नहीं पहचानता था।

 बस स्टैंड के पास बने पब्लिक टेलीफोन बूथ पर सन्नाटा पसरा हुआ था। जुकामी चाचा ने एक रूपये का सिक्का टेलीफोन में डालते हुये पुलिस चौकी का नंबर मिलाया,‘‘एक खूंखार आतंकवादी साधुओं की तरह दाढ़ी और बाल बढ़ाये नयी कालोनी में टहल रहा है। उसे पकड़ कर उसका मुंडन करवाईये तो आप पहचान जायेगें। उसकी फोटो कई बार टी.वी. पर दिखायी जा चुकी है।’’

 ‘‘आप कौन बोल रहे हैं और आपको यह सब कैसे पता?’’ उधर से आवाज आयी।

 ‘‘मैं पुलिस का शुभचिन्तक हूं। जल्दी कीजये वरना वह आतंकवादी कोई वारदात करके निकल जायेगा और आप टापते रह जायेगें’’ जुकामी चाचा ने डपटा और फोन काट दिया।

 इसके बाद वे इत्मिनान से कालोनी में टहलने लगे। थोड़ी ही देर में पुलिस ने उन्हें घेर लिया। जुकामी चाचा ने भागने का नाटक किया। अपनी तोंद संभालते हुये दरोगा ने उन्हें दौड़ाया तो फिसल कर गिर पड़ा लेकिन उसके सिपाहियों ने जुकामी चाचा को दबोच कर जीप में लाद लिया। दरोगा को काफी चोट आयी थी इसलिये वह रास्ते भर ताव खाता रहा।

 पुलिस चैकी का मुंशी एक नाई को पहले से ही पकड़ लाया था। दरोगा ने उसे जुकामी चाचा का मुंडन करने का आदेश दिया।

 शहर के सारे नाई जुकामी चाचा को पहचानते थे। उसने बताने की कोशिश की,‘‘हुजूर, यह तो.....’’

 ‘‘हम जानते हैं कि यह कौन है। तू बस चुपचाप इसका मुंडन कर’’ दर्द से कराहते हुये दरोगा ने नाई को डपटा।

 नाई चुपचाप जुकामी चाचा का मुंडन करने लगा। सिर घुटने के बाद उनकी दाढ़ी-मूंछ भी साफ हो गयी पर कोई भी पुलिस वाला उनके चेहरे का मिलान टी.वी. पर दिखायी गयी फोटुओं से नहीं कर सका।

 ‘‘अबे, जल्दी बता कौन है तू?’’ दरोगाा ने चिंघाड़ते हुये पूछा।

 ‘‘हुजूर, मैं तो जुकामी चाचा हूं’’ जुकामी चाचा ने इत्मिनान से नाक सुड़कते हुये बताया।

 ‘‘अबे पुलिस से झूठ बोलता है। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि तू खूंखार आतंकवादी है। बता अब तक कितने कत्ल किये हैं?’’ दरोगा बुक्का फाड़ कर चीखा।

 ‘‘हुजूर, यह कोई आतंकवादी नहीं बल्कि वाकई में जुकामी चाचा ही हैं। लगता है आप लोगों को कोई गलतफहमी हुयी है’’ नाई ने हिम्मत बटोरते हुये मुंह खोला।

 ‘‘तू इसे कैसे जानता है?’’ दरोगा ने उसे घूरा।

 ‘‘पूरा शहर जानता हैं कि आज तक बाल कटवाने के लिये इस महाकजूंस ने एक धेला भी खर्च नहीं किया है। यह सिर्फ किसी के मौत पर ही मुंडन करवाते हैं मगर बहुत दिनों से इनके आस-पास के मोहल्लों से भी कोई आदमी उपर नहीं गया है इसीलिये इनके दाढ़ी और बाल इतने बड़े हो गये थे’’ नाई ने खुलासा किया।

 ‘‘तूने यह बात पहले क्यों नहीं बतायी?’’ दरोगा गुस्से से भड़क उठा।

 ‘‘सरकार, मैने तो कोशिश की थी पर आपने ही डपट दिया था’’ नाई ने कहा फिर मुस्कराते हुये बोला,‘‘लगता है कि जुकामी चाचा ने आज भी मुफ्त में ही मुंडन करवाने का जुगाड़ कर लिया है।’’

 बात दरोगा की समझ में आ गयी। उसकी खोपड़ी का फ्यूज उड़ गया और वह जुकामी चाचा की गर्दन दबोच कर चीख उठा,‘‘कमीने, पुलिस से मजाक करता है। जेल में सड़ा दूंगा तुझे।’’

 ‘‘हुजूर, वहां खाना तो मुफ्त का मिलेगा?’’ जुकामी चाचा ने अपनी आंखो को टिमटिमाते हुये पूछा।

 दरोगा का आज तक ऐसे आदमी ने कभी पाला नहीं पड़ा था। वह समझ गया कि ऐसे महाकंजूस से उलझना बेकार है। अतः जुकामी चाचा की गर्दन छोड़ उनकी कमर पर लात जमाते हुये दहाड़ा,‘‘भाग जा यहां से। दोबारा अगर आस-पास भी नजर आया तो टांगे तोड़ दूंगा।’’

 जुकामी चाचा सरपट भाग लिये। एक लात जरूर खानी पड़ी थी लेकिन मुंडन होने के साथ-साथ अट्ठन्नी भी बच गयी थी। अतः सौदा बुरा नहीं था। 

 मोहल्ले में पहुंच कर उन्होंने नमक-मिर्च लगा कर इस किस्से का बयान किया तो किसी भले आदमी ने इसको कहानी बना कर एक पत्रिका में छपवा दिया। जुकामी चाचा को जब पता लगा तो उनकी छाती और चौड़ी हो गयी। मोहल्ला स्तर से बढ़ कर उनका कद अब राष्ट्रीय स्तर का हो गया था। वह क
ई दिनों तक खुशी से झूमते रहे। वह बात दीगर है कि मोहल्ले के भले आदमी शर्मशार होते रहे कि उनकी मूर्खताओं के चलते शहर में पूरे मोहल्ले की बदनामी हो रही है।
यह कहानी 'पायस' पत्रिका के दिसंबर 2021 के अंक में प्रकाशित हुई है!

पता- लखनऊ उत्तर प्रदेश

Monday, December 13, 2021

आंदोलन खत्म-संघर्ष और संवैधानिक मूल्यों की जीत-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

आम-जन की बात में आज की चर्चा, किसान बनाम सरकार-चुनावी हिसाब-किताब अभी बाकी है
N.L.Verma Asst Pro.

            केंद्र सरकार द्वारा कथित किसानों के हित में पारित तीन कृषि कानूनों के विरोध से उपजा और एक साल से अधिक चला इतिहास में दर्ज हो चुका किसान आंदोलन सरकार से बनी सहमति के बाद सत्ता को आंदोलन का पाठ पढ़ाने और घुटनों के बल लाकर अब किसानों की घर वापसी शुरू हो गयी है। एक साल बाद मोदी को ये कानून माफी के साथ वापस लेने पड़े। मेरे विचार से यह एक विश्व रिकॉर्ड हो सकता है कि किसी सरकार द्वारा पारित कानून एक दिन भी लागू नही हो पाया और सरकार को क़ानून रद्द करने पड़े हों। साहित्य की भाषा मे यदि कहा जाए तो यह आंदोलन या लड़ाई दीये और तूफान के बीच थी जिसमे दीये की जीत हुई है। दीयों द्वारा तूफान को पराजित करने जैसी स्थिति दिखाई दी है। जो कृषि क़ानून किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के नाम पर थोपने के प्रयास किये जा रहे थे और उनको न हटाने की कसमें खायी जा रही थीं। जागरूक किसानों और उनके संगठनों ने सामूहिक शक्ति और सूझ से इन कानूनों की गंभीरता और हक़ीक़त समझकर घर-परिवार छोड़कर आन्दोलन करते हुये जब सड़कों पर विरोध कर रहे थे तो तो सरकार के प्रतिनिधियों ने उन्हें मवाली,विद्रोही,राजनीतिक विपक्षियों की साजिश, आतंकवादी, राष्ट्र द्रोही,आढ़तियों के दलाल और न जाने क्या- क्या कहकर किसानों और उनके नेताओं के चरित्र पर कीचड़ उछालने के अनगिनत राजनीतिक प्रयास और प्रयोग किये गए। फिर भी देश का अन्नदाता सड़कों पर डटा रहा और अंततः तानाशाही का रवैया अपनाने वाली सरकार को झुककर माफी मांगने के लिए विवश होना पड़ा। क़ानून रद्द होने की खबर देश के किसानों के लिए एक बेहद रोमांचकारी और राहतभरी हो सकती है। मोदी सरकार द्वारा एक साल बाद तीनों क़ानूनों को आखिर,अचानक रद्द क्यों करना पड़ा ? क्या केंद्र सरकार को पांच राज्यों की चुनावी आहट और संभावित खतरे को भांपते हुए डैमेज कंट्रोल करने की रणनीति के तहत यह कदम उठाना पड़ा है? राजनीतिक गलियारों और विश्लेषकों में चर्चा है कि बीजेपी नही चाहती थी कि किसान आंदोलन के चलते पांच राज्यों के विधान  सभाओं के चुनाव हों। बीजेपी रणनीतिकारों का मानना था कि उस स्थिति में अधिकतम नुकसान होने की संभावना थी। कानूनों की वापसी से खत्म हुए आंदोलन से अब बीजेपी उस संभावित हानि को कम करने या डैमेज कंट्रोल करने की स्थिति में आती महसूस कर रही है।
 

          
            किसानों के इस आंदोलन से जो कुछ हासिल हुआ है, वह सब किसानों को ही हासिल हुआ और बीजेपी को कुछ भी हासिल नही हुआ है, बल्कि यह कह सकते हैं कि बीजेपी ने किसान आंदोलन पर अपनाए गए अपने तानाशाही रवैये से वश खोया ही खोया है। किसानों के इस आंदोलन की शक्ति के सामने झुकती नजर आयी सरकार के चाल- चलन से संवैधानिक व्यवस्थाओं की स्थितियां और अधिक जीवंत व शक्तिशाली उभरती नज़र आई हैं और लोकतांत्रिक तानाशाही सरकारों को एक बड़ी नसीहत मिली है कि अब देश में सामान्य जनमानस को प्रभावित करने वाले निर्णयों से पहले जनता की राय भी लेना जरूरी है। लोकतंत्र में जनता की असहमति और विरोध-प्रदर्शनों की अहमियत का दुःखद एहसास भी सरकार को हो गया होगा! इस प्रकार के आंदोलनों से आम आदमी और सरकारों को व्यापक सीख लेनी चाहिए। इस किसान आंदोलन की लम्बी अवधि और सफलता का आंकलन और विश्लेषण किया जाए तो मेरे अनुसार इसको शुरू से लेकर अंत तक गैरराजनीतिक बनाये रखा जाना सबसे बड़ी उपलब्धि रही है। किसी भी पक्ष या विपक्ष को मंच साझा करने नही दिया गया,क्योकि पूर्व में किये गए आंदोलनों में विपक्ष के नेता मंच पर किसानों की हमदर्दी लूटकर राजनीतिक फायदा उठा लिया करते थे और किसान ठगा सा रह जाता था। विपक्षी राजनीतिक फायदा उठाकर सत्ता का लाभ उठाते रहे और किसानों के मुद्दे भूलाते चले जाने की संस्कृति के अभ्यस्त होते गए और किसानों के दर्द कम करने के बजाय उनके दर्द बढ़ाते चले गए। सरकार को किसानों के प्रति यदि कोई सम्मान या सहानुभूति है तो सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को मद्देनजर अविलंब एक स्पष्ट किसान नीति बनाकर उसकी घोषणा करे। भारत एक कृषि प्रधान देश है और भारत के किसानों को " किसान सम्मान राशि " के बजाय उसके खून-पसीने से कमाई गयी फसलों की सम्मानजनक राशि (मूल्य) कानूनी गारंटी के साथ मिलने की व्यवस्था सुनिश्चित हो। एक साल से अधिक चले इस शांतिपूर्ण किसान आंदोलन में शामिल किसान और उनके संगठनों की सामूहिक रूप से बेहद सूझबूझ भरे नेतृत्व की जितनी प्रशंसा की जाए,वह कम ही होगी!

            सर्दी,गर्मी,बरसात और फिर सर्दी, सरकार द्वारा खड़ी की गयी तरह-तरह बाधाओं और दी गयी संज्ञाओं की मार झेलते हुए एक साल से अधिक अनवरत संशय और आशंकाओं के बीच ढीठ और जिद्दी सरकार के खिलाफ डटकर मुकाबला करना किसी युद्ध से कम नही आंका जा सकता है। निःसंदेह, आज देश का किसान विजयी भाव से आह्लादित होगा और होना भी चाहिए! आज देश के किसानों ने यह अहसास करा दिया है कि जनता द्वारा चुनी गई लोकतांत्रिक सरकारों का अराजकता,निरंकुशता और तानाशाही भरा रवैया भविष्य में बर्दाश्त नही किया जाएगा और किसानों से पंगा न लेने की परोक्ष रूप से धमकी भी नज़र आती दिखी। इस आंदोलन और तानाशाह सरकार से एक बड़ा संदेश निकलकर बाहर आया कि भले ही देश की अर्थव्यवस्था के हिसाब से कृषि का योगदान छोटा हो, किंतु देश की राजनीति में किसानों और उनके सरोकारों को नज़रअंदाज़ या दरकिनार करना किसी भी सरकार के लिए अब आसान नही होगा और यह भी आभास करा दिया कि सत्ता या सरकार की उम्र निश्चित होती है किंतु आंदोलनों की कोई उम्र नही होती है। आने वाली पीढ़ियों के लिए यह किसान आंदोलन उसी इतिहास के संदर्भ मे देखा जाएगा जैसा किसान आंदोलन सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ हुआ था।
         

यूपी के लखीमपुर खीरी के तिकुनियां कांड की आग की राख अभी ठंडी नही हुई है। बीजेपी के चुनावी रथ को इस सुलगती आग की राख  की झुलस से भी बचना मुश्किल होगा! लखीमपुर खीरी में बजाज ग्रुप की चीनी मिलों पर किसानों के बकाये गन्ना भुगतान की समस्या और उसके खिलाफ संघर्षरत क्षेत्रीय किसानों की आवाज भी आग में घी डालने का काम करती नज़र आ रही है।

         अब देखना यह होगा कि बीजेपी देश-विदेश से काला धन निकालने के लिए की गई नोटबन्दी, कोरोना काल मे की गई अचानक लॉक डाउन और उससे उपजी आम जनता बेवशी ,कृषि कानूनों,कॉरपोरेट घरानों के लिए बेहताशा निजीकरण व्यवस्था  और सरकारी नौकरियों में ओबीसी और एससी-एसटी के संवैधानिक आरक्षण की हकमारी, कोरोना काल में स्वास्थ्य-चिकित्सा की अव्यवस्थाओं से हुई बेहिसाब मौतों-बेरोजगारी,महंगाई और किसानों की फसल की एमएसपी पर हुई खरीदारी और उसके भुगतान की दुर्गति के जरिये अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन और विश्वास की कितनी भरपाई करने में सफल होती है? यह भी आंकलन करने का विषय होगा कि राम मंदिर,कश्मीर का अनुच्छेद 370 और 35ए,प्रलोभनकारी मुफ्त राशन-किसान सम्मान निधि,सबका विकास-सबका साथ और सबका विश्वास, हिन्दू राष्ट्रवादी-धार्मिक राजनीति,स्वच्छता मिशन,महिला सशक्तिकरण,बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के मुद्दे जनता के ऊपर कितने समय और सीमा तक प्रभावकारी साबित होते हैं ?
पता-लखीमपुर-खीरी...9415461224

Friday, December 10, 2021

भेड़िये शहर के-सुरेश सौरभ

(पटकथा)
शार्ट फिल्म











-ःफिल्म के मुख्य पात्रः-

1-सीओ-रमन सिंह।  

2-सीओ की पत्नी-मीना सिंह।

3-सीओ की बेटी-रीता।

4-गरीब बूढ़े माँ-बाप और बलात्कार से पीड़ित उसकी युवा बेटी।

5-सहयोगी दरोगा राम सिंह व कोतवाली के कुछ अन्य पुलिस कर्मी।

6-मंत्री गौरव पांडे।

 सीन-1

सीओ सिटी अपने घर में आते ही कुर्सी पर पसर गये। उनके सामने उनकी पत्नी मीना सिंह चाय की ट्रे रखते हुए बोलीं-क्या बात है, आज आप बहुत उदास लग रहंे हैं?

सीओ-कुछ नहीं हाँ रीता आई (सामने दीवार पर लगी घड़ी की ओर देखते हुए जो रात के दस बजा रही थी)

पत्नी कप में चाय ढरकाते हुए बोली-नहीं?

सीओ गुस्से में-क्यों-क्यों इतनी देर हो गई,जब,जब रोज आठ बजे तक कोंचिंग पढ़ कर जाती है, तो आज क्यों इत्ती देर हो गयी। वैसे भी शहर के हालात ठीक नहीं है,फिर क्यों इत्ती देर तक टहल रही है।

पत्नी चाय देते हुए-हुंह आप पुलिस वालों के, तो गुस्सा हमेशा नाक पर ही धरा रहता है।

सीओ-मीना तुम कुछ नहीं जानती?

पत्नी-क्या जानँू जब मुझ से कह गई है कि कोेंचिंग के बाद अपनी किसी सहेली की बर्थ डे पार्टी में जायेगी और वापिसी करने में थोड़ी देरी हो जायेगी,तो क्यों खामखा चिन्ता करूं।

(सीओ की आँखों में कोई नमी थी) वह चाय पीते हुए बोले-जवान बेटियों का बाप होना भी अब तो सबसे बड़ा गुनाह लगता है।

पत्नी-आप काहे चिन्ता करते हैं जिस शहर की जिम्मेदारी आप जैसे नेक ईमानदार अफसर के भरोसे हो, वहाँ किसी जवान बेटी के बाप को कोई चिन्ता करने की जरूरत नहीं?

सीओ-यही दिक्कत है मीना कि शहर की जिम्मेदारी हम पुलिस अफसरांे के भरोसे नहीं बल्कि आवारा सांडांे के भरोसे है।

पत्नी-क्या हुआ? जब से आप इस शहर में ट्रान्सफर होकर आये हैं, तब से बहुत उदास रहते हैं। क्या हुआ, आज तो बहुत दुखी लग रहंे हैं? कुछ बताओ तो सही?(पीठ के पीछे कन्धे पर हाथ रखते हुए पत्नी सान्त्वना देते हुए बोली)

सीओ-आज दोपहर की बात है (फिर सीओ खयालों में खो जातें हैं।)

     सीन-2

(एक गरीब बूढ़ी महिला और उसकी युवा बेटी और उसका बाप सीओ के सामने रो-गिड़गिड़ा रहे हैं।)

बुढ़िया-साहब मेहबानी कर के मेरी रिपोर्ट लिख लीजिए। उस हरामखोर ने मेरी बेटी की आबरू लूट ली है, हमें कहीं मुँह दिखाने के लायक नहीं छोड़ा।

बूढ़ा रोते हुए-इतने दिनों से थाना कोतवाली के चक्कर काट रहा हूँ लग रहा, इस शहर में सब पत्थर दिल बसते हैं भेड़िये ही भेड़िया रहते हैं, इसलिए यहाँ कोई किसी की सुनने वाला नहीं।

सीओ-आप लोग तसल्ली रखिए, देखिए हम जांच कर रहे हैं, अरोपियांे को जल्द से जल्द हम पकडं़ेगे।

बलात्कार से पीड़ित लड़की रोते हुए सीओ की ओर गुस्से से देखते हुए कहती है-ये क्यों नहीं कहते सत्ता के भेड़ियो से डर रहे हैं। इसलिए आप को शहर की बेटियों की परवाह नहीं, परवाह सिर्फ आप को अपनी नौकरी की है। अपनी कुर्सी की है।

सीओ गुस्से-ऐ! लड़की ज्यादा दिमाग न खराब कर वर्ना...

लड़की-वर्ना क्या करोगे, क्या करोगे लो लो तुम भी लूट लो, गरीबों को दुनिया लूट रही है, तो तुम क्यों छोड़ो  (वह लड़की सीओ के सामने आकर अपने बदन के उभारो को कर देती है सीओ अपनी पीठ घूमा लड़की की ओर कर देता है। उसके सहयोगी दरोगा और कुछ पुलिस वाले भी शर्म से सिर झुका लेते हैं)  

बुढ़िया रोते हुए-बेटा तेरे भी घर-परिवार में कोई न कोई बेटी होगी। आज मेरे साथ हुआ कल हो न हो तेरे साथ हुआ तो..

रोबदार मूछों वाला सीओ का सहयोगी दरोगा राम सिंह तभी बुढ़िया को डपटता है-चोप चोप! ज्यादा चपड़-चपड़ की तो....(बुढ़िया डर के मारे कांपने लगती है। उसकी बेटी और उसका बूढ़ा पति भी डर से कांपने लगतें हैं)

दरोगा-सालों समझ में नहीं आ रहा, उत्ती देर से साहब समझा रहें पर कुछ समझ ही नहीं पा रहंे हैं। रात भर तुम सब को लॉकअप में बंद रखूंगा? दिमाग ठिकाने आ जायेगा तुम सबका।

तभी सीओ के मोबाइल की घंटी बजती है। वह अपना फोन उठाते हैं। बोले-जी जी सर जय हिन्द सर

उधर से एक मंत्री गौरव पांडे बोलता है-कैस होे सीओ साहब?

सीओ-जी फस क्लास।

मंत्री-देखो वह केस जल्दी से जल्दी खत्म करने की कोशिश करो।अगर मीडिया तक मामला पहुंचा तो रफा-दफा करने में टाइम भी लगेगा और हमारा पैसा भी खामखा जाया होगा।

सीओ इशारे से पीड़िता लड़की, उसके मां-बाप को रामसिंह से बाहर ले जाने को कहता है। राम सिंह घुड़कते हुए उन्हें सीओ के आफिस से निकालते हुए बोला-चलो चलो चलो बाहर

(रामसिंह उन्हें बाहर निकाल कर खुद भी बाहर चला जाता है)

मंत्री-क्या बात है ऑफीसर तुम खामोश क्यों हो?

सीओ-सर उन्हंे अपने ऑफिस से निकलवा रहा था इसलिये वो थोड़ा....

मंत्री-ओह! अब एकान्त में हो।

(सीओ अपने आस-पास खड़े कुछ पुलिस वालांे को भी अपने केबिन से बाहर जाने को इशारे से कहता है।)

सीओ-हाँ हाँ जी सर बोलिए।

मंत्री-तुम्हें मालूम है हर घर-परिवार में जब एक-दो नालायक बच्चे निकल जातें हैं, तो ऐसे बच्चों से कभी-कभी गलतियां भी हो जाया करतीं हैं। इसका मतलब ये नहीं कि उन्हें हम घर से निकाल दें या उन्हें उनके हाल पर छोड़ दें। फिर हमारी इतनी बड़ी पार्टी का परिवार है। सबको देखना पड़ता है। सब हमारे किसी न किसी काम आतंे हैं।

सीओ-पर सर वह अपनी रिपोर्ट लिखाने के लिए बहुत रो-गिड़गिड़ा रहे हैं। बहुत हाथ-पांव जोड़ रहें हैं।

मंत्री गुस्से में-हुंह तब तुम क्या चाहते हो। अपनी पार्टी की इज्जत दांव पर लगा दूं। अपनी इमेज खराब कर लूं। उन सड़क छाप भिखमंगों के लिए। मेरी बात कान खोल कर सुन लो गौरव पांडे मेरा नाम है किसी तरह से मेरे गौरव की हानि न होने पाए वर्ना तुम जानते हो मैं कितना शरीफ आदमी हूं। किसी भी तरह यह केस खत्म करो। इतना परेशान उस रेप पीडिता और उसके परिवार वालो को करो कि वह रिपोर्ट लिखाना तो दूर पुलिस को ख्वाब में भी कभी देखें तो उनकी रूह फना हो जाये। (इतना कह कर फोन काट दिया।)

सीओ-सर सुनिए सुनिए सर

सीन-3

सीओ अपने खयालों से वापस आये पत्नी से बोले-कुछ समझ में नहीं आता कि अपनी नौकरी बचाऊं या मंत्री के नालायक गलतियां करने वाले बच्चों को बचाऊँ। कुछ समझ में नहीं आता। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूँ..

पत्नी-बस अपना ईमान बचाओ।

सीओ-वही तो सत्ता के बहरूपियों के पास गिरवी पड़ा है।

तभी धड़ाक से दरवाजा खुलता है। सीओ की बेटी रीता बदहवास हक्की-बक्की सी अंदर आती है। उसके चेहरे पर चोट के निशान है। बाल उलझे हैं। कपड़े अस्त-व्यस्त हैं। और जोर-जोर से सांसें खींचते हुए दुखी स्वर में बचा लो मम्मी, बचा लो पापा कहते-कहते अपने मम्मी-पापा की ओर तेजी से बढ़ती है फौरन मम्मी-पापा लपक कर अपने गले से उसेे लगा लेते हैैं।

क्या हुआ क्या हुआ रीता क्या हुआ मेरी बेटी-हैरत और भय से सीओ और उनकी पत्नी बार-बार पूछतें हैं।

बेटी रोते-सिसकते हुए बोली-बडी मुश्किल से उन भेड़ियों से अपनी जान और इज्जत बचा कर भागती हुई आई हूं। 

सीओ साहब का चेहरा गुस्से से लाल हो जाता है और उनके कानों में उस बलात्कार पीड़िता की बुढ़िया मां की फरियाद बजने जगती है।....बेटा तेरे भी घर-परिवार में कोई न कोई बेटी होगी। आज मेरे साथ हुआ, कल हो न हो तेरे साथ हुआ तो..

गुस्से में अपने दांत पीस कर सीओ बोले-अब मेरा कुछ बचे न बचे, पर अपना सम्मान बचाने के लिए, बेटियों को इस शहर के भेड़ियो से बचाने के लिए, कुछ भी करूंगा। कुछ भी करूंगा। चाहे जो हो जाए,चाहे नौकरी रहे या भाड़ मंे जाए।

सुरेश सौरभ
   -ःसमाप्तः-


 
कहानी-पटकथा-संवाद-
(उपन्यासकार-स्तम्भकार-पत्रकार-व्यग्ंयकार एवं शिक्षक, पता-निर्मल नगर लखीमपुर खीरी यूपी मो-7376236066 )

और शुरुआत लीकेज से-सुरेश सौरभ

(हास्य - व्यंग्य)  
 
 बचपन में मैं जिस स्कूल में पढ़ता था , उस गाँव में स्कूल के मास्टर जी जब बार-बार खेत को, लोटा लेकर जाते-आते थे, तब मैं उनसे पूछता ,क्या हुआ मास्टर जी? वे कहते-लीकेज | 
      उस समय मैं छोटा था, इसका मतलब नहीं समझ पाता था, पर जब थोड़ा बड़ा हुआ, तो पता चला उनके कहे लीकेज का मतलब लूज मोशन होता है । मास्टर जी का, दरअसल अंग्रेजी में हाथ तंग था , इसलिए गलती से लूज मोशन को लीकेज बोल दिया करते थे । उन दिनों जब मेरे दादा जी कोटे पर मिट्टी का तेल लेने जाया करते थे , तो कोटेदार की कम नाप पर उससे भिड़ जाया करते थे , और उससे सही नापने के लिए कहते , कोटेदार तब कहता-जब ऊपर से लेकर नीचे तक सब जगह लीकेज ही लीकेज है, तो पूरा करके कहाँ से  दूँ । तब दादा जी उस पर दया दिखा कर अपना गुस्सा जब्त कर जाते और चुपचाप कम तेल लेकर लौट आते । बचपन में अम्मा की दही-हांड़ी में रखा दूध-दही चट कर जाता था, पूछने पर बता देता उन्हें, कहीं से लीकेज होगा या किसी बिल्ली आदि ने मुँह मारा होगा । कभी एक प्रधान मंत्री ने कहा था, 'ऊपर से जो एक रुपया चलता है, नीचे लीकेज होकर पन्द्रह या बीस पैसा ही रह जाता है ।'
         यह लीकेज राष्ट्रीय नहीं अंतरराष्ट्रीय समस्या है , इस पर तमाम विश्वविद्यालयों  को शोध करने चाहिए, जब नाली से गैस बनाने पर हो रहे हैं,  तब इस पर क्यों नहीं?
      उस दिन एक परम मित्र राम लाल मिल गये । उनके चेहरे से उदासी झर रही थी, पूछा क्या हाल है ? बोले-हाल वही है, पर पिक्चर उसमें बदसूरत चिपक गयी है । मैंने कहा-कौन सी बदसूरत पिक्चर है, दिखाओ यार! थोड़ी झलक। 
         वे फूट पड़े-महीनों से तैयारी कर रहा था, हजारों रुपये कोचिंग और किताबों में फूंक मारे । अब पेपर लीक। टी.ई.टी. नहीं तमाशा लग रहा है , बस हाल न पूछो, पूरा दिल-दिमाग सुलग रहा है । 
         मैंने उनके दिल पर मरहम लगाते हुए कहा-यह लीकेज की समस्या सदियों पुरानी है, इसके स्थाई समाधान के लिए सरकार को एक मजबूत-टिकाऊ कमेटी बनानी चाहिए भाई।
        वे बोले-पहले पेपर बनाने वालों की कमेटी, फिर पेपर कराने वालों की कमेटी, फिर पेपर जांच, सही कन्डीडेट चुनने वालों की कमेटी । अब लीक करने वालों की कमेटी को पकड़ने के लिए, सरकारी जाँच करने वालों की कमेटी । फिर पकड़ कर, उन्हें सजा देने वालों की कमेटी , ऐसे लगता है । सरकार कमेटी-कमेटी का खेल, हम बेकरों से खेल कर हमें हर तरह से आउट कर पावेलियन लौटाना ही चाहती है ।" भरे दिल से, इतना कह कर राम लाल चले गये " 
     मैं  घर से, अपने लीकेज हो रहे जूतों के लिए फेवी क्विक लेने जा रहा था, पर सरकारी खामियों के लीकेज को बंद करने का पता नहीं, कब-कौन फेवीक्विक बने? इस चिंता का गुबार दिल में भरता जा रहा था।

पता- निर्मल नगर- लखीमपुर खीरी उ.प्र. Pin-262701 
 मो -7376236066.

तिबारा-सुरेश सौरभ

लघुकथा

    स्कूल में मध्याह्न भोजन बन रहा था । सारे बच्चों को कढ़ी चावल बांटा गया । एक बालिका कढ़ी चावल खाते हुए रसोइये के पास दुबके-दुबके गयी, बोली- थोड़ा सा और दे दो भैया । 
   'कितना खायेगी , तिबारा मांग रही है -रसोइया चिढ़कर बोला ।
     'अरे मुझे पूरा भगोना दे दो मैं पूरा भगोना खा जाऊंगी ।' बालिका के शब्द सुनकर रसोइया और सारी अध्यापिकाएं हतप्रभ रह गयीं ।
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश
मो-7376236066

नीमसार-सुरेश सौरभ

लघुकथा
    ट्रेन के एक डिब्बे में मैं बैठा था । नीमसार जाने के लिए एक पीले वस्त्र धारी से चर्चा आरंभ हुई वे बोले-बेटा तुम्हारी जात क्या है। मुझे हंसी आ गई- लड़खड़ाते शब्दों को बटोरकर बोला- मेरी कोई जात नहीं , कोई धर्म नहीं , जैसे आप संतों की कोई जाति धर्म नहीं होता ।
वे व्यथित हो पड़े , कुछ पल बाद हमारा डिब्बा छोड़कर अन्यत्र डिब्बे में चढ़ गये । नीमसार तक जाने का उनका-हमारा साथ टूट गया । 
ट्रेन चली । एक स्टेशन पर रुकी । मैंने देखा एक नल की टोंटी में तमाम लोग जल्दी-जल्दी एक दूसरे को धक्का मारते हुए पानी पी रहे हैं , भर रहे हैं । किसका जूठा पानी किस पे गिरा , किसका शरीर किससे लड़ा , किसका लोटा , किसकी बोतल से भिड़ा , किसी को होश न था ।
ट्रेन ने दूसरी सीटी मारी । वे भरभरा कर एक ट्रेन के कई डिब्बों में घुसते चले गये । आखिर ये किस-किस जात के थे ?
                    
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश
मो-7376236066

बलमा-लेखाकृति

कहानी

            बलमा आज से पांच बरिस पहिले गांव के रमेसर चा के साथे बहरा कमाने गया था।रमेसर चा पेपर मील में काम करते थे त बलमा को भी वहीं काम पर रखवा दियें। 
घरे अनकर खेत में बनिहारी करे वाला बलमा, बाबूजी के साथ सालो भर देह झोंके के बाद भी घर की हालत में कोई सुधार न कर पाया था । जी तोड़ मेहनत करे वाला बलमा कभी दु कलम पढ़े पर ध्यान ही न दिया।उ त अब जब गांव से निकल के यहाँ आया है त देख रहा कि और सब लोग तो ओकरे जइसन है बाकी कुछ लोग अलगे झलक रहे।पहनावा,ओढावा, बोली सब कुछ उन्हें भीड़ से अलग कर रहा।
मतलब कौआ के झुंड में हंस जैसा सब झलक रहें।
रमेसर चा भी पढ़ल लिखल न हैं बाकी उनको दूसरा से जादे मतलब न हैं।
ईमानदारी से अपन काम करते हैं जे तनखा मिलता ओकरा में से अपन खर्चा रख के बाकी के पैसा घरे मनी ऑर्डर लगा देते।रमेसर चा को देखके बलमा के मन हुआ कि उ भी कुछ पैसा घरे लगा दें।फिर कुछ सोच के पोस्ट ऑफिस न गया।
उसको तो पढ़े लिखे बाबुओं जैसा बनना था।मतलब उसी तरह के कपड़े,उनके जैसी चाल ढाल आदि।
बस यही सोच वो अपनी कमाई खुद पर खर्च करने लगा।
देखते देखते बलमा एकदम से शहरी बाबू बन गया।हां पैसे से सब कुछ खरीद तो लिया बस एक ही चीज वो न कर सका।
वो था करिवा अक्षर से दोस्ती।
अब मील मजदूर को न तो उतनी फुर्सत ही कि पढ़ाई लिखाई कर सके और न ही घण्टों कमर पीठ सोझ और गर्दन टेढ़ करके पढ़े में बलमा की कभी कोई रुचि ही रही।न तो ई बाइस बरिस तक का ई अइसहीं रहता?
खैर साल भर में तो बलमा अपना हुलिया ही बदल लिया।
जब कभी पहन ओढ़ के निकलता तो अनचके तो उसे कोई पहचान ही न सकता।
झक सफेद कुर्ता,ब्रासलेट की धोती जिसकी खूंट कुर्ता के दायीं जेब में।
भींगे बालों में एक अंजुरी चमेली के तेल डाल जब रगड़ के बाल झटकता तो लगता कि इंद्र भगवान आज इत्र लगाके बरसे वाले हैं।
बालों में तेल अच्छे से जज्ब हो जाने पर दीवार पर टँगी छोटकी ऐनक में देख के कंघी से टेढ़की मांग फाड़ बालों को सटीयाता।कभी कभी तो पानी व तेल के मेल मिलाप के बाद भी चांदी पर के दु चार केश विद्रोह कर उठ खड़ा होता तो ऐसे में बलमा कंघी एक किनारे रख हाथों से ही खड़े बालों को सटीयाने लगता।
धूप रहे चाहे न , बदरी बुनी के आसार भी न हो तब भी बलमा बिन छाता के घर से न निकलता।
आंख पर चश्मा और दायीं कलाई की एच एम टी घड़ी में तो जैसे उसकी जान बसती थी।
अबकी तनखा में चमड़ा के एगो बैग भी खरीदा ई सोच के कि अबकी फगुआ घरे जाएंगे।
फगुआ में घरे जाए में कोई दिक्कत न हो यही से महीना भर पहिलहीं से सब तैयारी में लगल था।माई ला साड़ी, त बाबूजी ला धोती,कुर्ता के कपड़ा,गमछी और एक सुंदर सी साड़ी अपनी अनदेखी पत्नी के लिए जो बियाह में त न आई थी बाकी पांच बरिस पर बाबूजी फगुआ में गौना करा के घरे ले आये हैं।
रमेसर चा के घरे से आवे वाला चिठ्ठी में बलमा के लिए भी ई सन्देश था,
" बाबू बालम को मालूम हो कि समधी साहेब के बेर बेर कहे पर हम कनिया के गौना करा के ले आयल ही ।एहि से बाबू तोरा कहित ही कि फगुआ में जरूर से जरूर घरे चल अइह।"
              मील में छुट्टी तो अभी न हुआ है बाकी बलमा सप्ताह दिन पहिलही से सबके कह दिया था कि अबकी फगुआ उ घरे जा रहा। चार रोज दिन अछते बलमा घरे जायला गाड़ी धर लिया।रेल के सफर में ही दु रोज कट गया। जब टीसन पर उतरा त वहीं नहा धो के तैयार हुआ।परदेश से अपन जगह आयते बलमा का मन भर आया।यहाँ चहुं ओर होली की सुगबुगाहट थी।
अब इहाँ से घरे के बस पकड़ेगा त सांझ-सांझ ला घरे चहुँप ही जायेगा। उबड़ खाबड़ कच्ची राह और बस का सफर दु घण्टा के राह में छः घण्टा लगाएगा।
       बलमा बढ़िया से तैयार होके टीसन से निकला त राह चलते लोग ठहर से गये।
घीया रंग के सिल्क के कुर्ता, सुपर फाइन धोती,उसकी खूंट को दाहिनी जेब के हवाले किये ,दाहिनी कलाई में एच एम टी स्विस घड़ी बांध आंखों पर बिन पावर का चश्मा चढ़ाये एक हाथ में चमड़ा के करिया बैग त दूसरे में छाता थामे बस स्टैंड की ओर बढ़ा।
बस का टिकट ले निश्चिन्त होता तभी अखबार वाला दिखा।कुछ सोच अठन्नी जेब से निकाल एक अखबार खरीदा।
अखबार वाला बलमा के रूप रंग से इतना मोहित हुआ कि वो अंग्रेजी अखबार पकड़ा दिया।
वैसे भी बलमा के लिए का हिन्दी का अंग्रेजी?
सब धन तो बाइस पसेरी तो निर्विकार भाव से अंग्रेजी अखबार लिए बस में सवार हुआ।
अपनी सीट पर अब आराम से बैठ
बैग, छाता सब अच्छे से रख अखबार हाथ में लिया तो भरी बस की नजरें बलमा पर जा टिकी।
कम से कम ई बस जहां तक जाती है उसमें बैठे वाला कभी कोई किसी को अंग्रेजी अखबार पढ़ते तो अब तक न देखा।
बलमा के हाव भाव से लोग स्वतः दूरी बरत रहें।
बलमा में आत्मविश्वास तो बहुत है पर ....
बलमा अखबार खरीद तो लिया बाकी खोलकर पढ़ न रहा,पढ़ना तो वैसे भी न आता बाकी अखबार सीधा पकड़ाया है या उल्टा आखिर ई भी तो कोई बात है?
एक व्यक्ति थोड़ी मित्रता के ख्याल से आगे बढ़ कर पूछा.....
भाई जी कोई खास समाचार?
बलमा चश्मा के अंदर से झांक देखा,बिना प्रत्युत्तर अखबार उसकी ओर बढ़ा दिया।
पूछने वाला बिना अखबार लिए वापिस अपनी जगह जा बैठा।
बस हिचकोले खाती अपनी सफर पूरा की।सब लोग बस से उतर अपनी अपनी राह चले।बलमा को घर तक पहुंचने में करीब पांच कोस की दूरी तय करनी अब भी शेष थी। कलई में बंधी घड़ी से ज्यादा भरोसा बलमा ढलती दिन से अंदाजा लगा रहा कि शाम के चार बजे गए होंगे।
गांव तक जाने का रास्ता तो दो, तीन है।एक रास्ता नदी के किनारे किनारे से होकर है बलमा घर पहुंचने की जल्दी में आज उसे ही चुना।
हाँ रास्ते में छोटा मोटा बाजार भी मिला।जहां होली के सर सौदा लेते लोग बाग से बाजार गुलजार दिखा।कहीं बच्चा पिचकारी के लिए दादा से जिद कर रहा, तो कोई अपन पसन्द के कमीज न खरीदाय पर माई के अंगूरी छोड़ वहीं लोट पोट हो रहा । कहीं दुकान पर रेडियो बज रहा जिसमें होली के गीत सुन बलमा का मन मिजाज भी रंगीन हो रहा।
        भीड़ भरे बाजार से बलमा निकल पाता तभी पास के गांव की रघुआ की नजर उस पर पड़ी।
रघुआ कुछ सोच, भाग कर अपने मालिक के पास पहुंचा।उसको इस तरह हाँफते देख .....
का रे !!
हाँफइत काहेला हे?
रघुआ सुख चुके गले से थूक घोटते हुए....
मालिक !!
मालिक!!
उ पहुना !!!
मालिक घुड़कते हुए....
का कहित हे रे?
आजे से का चढ़ गेलउ?
रघुआ अपने गले में पड़ी कंठी पकड़ ....
ना मालिक सच्चो!!
पहुना आवित हथन!!
अभी त बाजरे में हथन!!
मालिक राम जतन बाबू जो अपनी बेटी का ब्याह चार बरिस पहिले तो किये हैं बाकी अभी गौना न किये हैं,यही अगहन करेला सोच रहे थे।
अब पहुना फगुआ में बिन गौने आ जाएंगे ई त कभी सोचबे न किये थे।
बिन गौने ससुरारी में कोई पहुना आवे त ई भारी शिकायत के बात हे।उ भी राम जतन बाबू जइसन रसूख वाला ही।
राम जतन बाबू....
देख रघुआ अभी कोई से हल्ला न करीहें न त तोरा....
रघुआ मुड़ी नीचे किये...
न मालिक!
रामजतन बाबू हलकान परेशान से जनानी किता में गयें।
असमय घर आये रामजतन बाबू को देख पत्नी गौरी भी हड़बड़ाई सी सम्मुख हुई।
गौरी......
का होएल?
रामजतन बाबू ड्योढ़ी लांघ अंदर कमरे में आये।पीछे पीछे गौरी भी कपार पर आँचरा सम्हारती आई।

रामजतन बाबू.....
सुन!!
पहुना आवित हथन!!
अभी रघुवा देख के आवित हे!!
गौरी को भी कुछ न समझ आ रहा।
इज्जत के बात हे ,का कयल जाय।
फिर दोनों पति-पत्नी आपसी मन्त्रणा के बाद पहुना के स्वागत की तैयारी में जुट जाते हैं।
हाँ ख्याल इस बात का भी है कि बात बाहर न जाय इसलिए तय किया गया कि, जब पहुना बाजार पार करके आगे बढ़े और तनी धुंधलका हो जाय त दु आदमी भेजके बोलवा लेंगे आउर उ इहहिं जनानी किता में ही रहेंगे।
फगुआ का गहमागहमी था ही इसलिए थोड़ा और बदलाव ज्यादा किसी का ध्यान न खींचा।यहाँ तक कि रामजतन बाबू की इकलौती बेटी चन्द्रज्योति भी ई सब से अनजान थी।
वो तो सखियों संग होली के हुड़दंग की तैयारी में लगी थी।
इधर बलमा को भीड़ भरे बाजार से निकलते निकलते शाम का धुंधलका बढ़ने लगा।बलमा बैग में रखा टॉर्च निकालने सोच ही रहा था तभी पीछे से टॉर्च की रौशनी और किसी के कदमों की आहट से वो पीछे मुड़ा तो देखा कि,
दो आदमी हाथ में लाठी व टॉर्च लिए 
करीब आ रहे है।
बलमा कोई निर्णय ले पाता तब तक दोनों करीब आ उसके हाथ से छाता व बैग ले लिया।बलमा की घिघ्घी बन्ध गई।
वो गूंगा सा उनके पीछे पीछे चलने लगा।
थोड़ी देर के बाद बलमा किसी हवेलीनुमा घर के बाहर खड़ा था।पहले से तय योजनानुसार बलमा को हवेली के पीछे वाले दरवाजे से जनानी कित्ता में पहुंचा दिया गया।जहाँ पहले से ही कुछ महिलाएं पहुना के स्वागत में थी।
बलमा किससे क्या कहे तय न कर पा रहा?
जब तक मुंह खोलने सोचता कोई न कोई हंस कर उसे चुप करा देता।
अब तक चन्द्रज्योति को भी माँ से पता चल गया कि वो बिन गौने आ गए हैं....
चन्द्रज्योति के गुस्से का ठिकाना नहीं पर माँ उसे समझा बुझा के शांत की।
होली के रंग की खुशी जो उसके चेहरे पर चढ़ी भी न थी पल भर में उतर गई। 
उधर बलमा का स्वागत घर की पहुना की तरह हुआ।
कोई जूता खोलने में मदद कर रहा तो कोई परात में गोड़ धो रहा।
चन्द्रज्योति के कमरे को बढ़िया से बर बिछौना लगा के बलमा को वहीं पहुंचा दिया गया।
फागुन बीत रहा था दिन में गर्मी त रात थोड़ी ठंढी सिहरन भरी।बलमा को अब डर लगने लगा।कुछ बोलने की हिम्मत ही न जुटा पा रहा कि का पता असलियत जनला पर सब का करेगा?
बस मने मन गोरिया बाबा को मनौती भख रहा कि यहाँ से सही सलामत घरे चहुँप जाएंगे त ई होली में कबूतर चढ़ाएंगे।
बलमा के स्वागत सत्कार में कोई कमी न रखी गई।एक से बढ़कर एक मर मिठाई परोसा गया।बलमा तो डरे किसी चीज को हाथ भी न लगा रहा। जब तक नाश्ता को बलमा भर नजर देखता तब ला अगजा का बरी, बचका, कचरी पकौड़ी सब बलमा के सामने धरा गया।
बलमा को न खाते देख रिश्ते की सरहजें चुटकी भी ली....
खा ला पहुना!!
चन्द्रज्योति खियात्थु तब्बे का खयबअ?
अब ई नाम सुनकर बलमा का तो खून ही सुख गया।
डर के मारे उ क्या खाया उसे कुछ न पता न स्वाद न रंग।बस गटागट गिलास भर पानी पी गया।
सब हंसने लगीं।बलमा को कोई हाथ धोने तक न उठने दिया।सब कुछ सामने हाजिर।
बलमा का छाता व बैग कमरे में पहुंचा दिया गया। सरहजें बलमा को खाना पीना करवा आराम करने कह किवाड़ भिड़ा चली गई।
अभी तक बलमा जो कुर्सी पर बैठा था उसको हिम्मत न हो रही कि वो इस राजसी पलँग पर जाकर लेट जाय।
बहुत देर तक यूँ ही बैठा यहाँ से निकलने की जुगत भिड़ाता रहा।तत्काल तो कोई रास्ता न सूझ रहा ऊपर से सफर की थकान।नींद से हार वो पलँग के एक किनारे सहम कर पड़ गया।पड़े पड़े आहटों से अंदाजा लगाता रहा कि लोग अभी जगे हैं।
उधर चन्द्रज्योति को कितना कहने पर भी वो उस कमरे में जाने को तैयार नहीं।
गौरी को खराब भी लग रहा कि पहुना एक तो बिन गौने फगुआ में आयलन हे!
आउर ई लड़की बात न समझइत हे!
आखिर पहुना का सोचतन?
चन्द्रज्योति की रिश्ते की भौजाइयाँ जो अब तक बलमा की खातिरदारी में लगी थी....
वो चुहलबाजी कर करके रोती, ठुनकती चन्द्रज्योति को हंसा कर ही दम ली।
घर के पुरुष सब आगजा में शामिल होने गए थे। 
इधर बलमा सब से बेखबर नींद की पहलू में।
भौजाइयाँ चुहल करती चन्द्रज्योति को तैयार करने में लगी थी।
चन्द्रज्योति के नखरे उसके श्रृंगार को और भी निखार रहे।
अंततः पूनम की रात और चन्द्रज्योति का श्रृंगार।
चाँदनी भी उसकी खिड़की से झाँक उफ!! बोल गई।
दूर बजती डफ के बोल....

"डफ काहे के बजाय,
ललचाये जियरा ,
डफ काहे के....
डफवा के बोली,
महलिया तक जाय...."

चन्द्रज्योति का मन तो गुस्से से भरा ही था पर अब दिल की धड़कन बढ़ गई।
भौजाइयाँ कुछ जबरन सी उसे उसके कमरे तक पहुंचा ही दीं।
चन्द्रज्योति अब भी दरवाजे पर खड़ी थी तभी भौजी हल्के धक्के से उसके कमरे में धकेल दी। इस अचानक हरकत से चन्द्रज्योति तो गिरते गिरते बची पर बलमा का नींद खुल गया।कमरे में लालटेन की मध्यम रौशनी और दरवाजे पर खड़ी रूपसी को देख बलमा का कलेजा रेल (जिससे आज भोरे भोरे उतरा) से भी तेज धड़कने लगा।
चन्द्रज्योति अपने कमरे में ही सहमी सी खड़ी रही इधर बलमा हड़बड़ा कर आंखे और जोर से बंद कर लिया।मन ही मन गोरिया बाबा और फगुआ में कबूतर की भखौती को दुहराता रहा।
चन्द्रज्योति भी कोई पहल न कर वहीं दीवार की ओट लिए बैठ रही।
बाहर ,ढोल,मंजीरा झाल की गूंज और फगुआ के बोल में चन्द्रज्योति डूबती उतराती रही...
" सेजिया फूलों से कुम्हलानी.....
सेजिया.....
पच्छिम दिशा मोरे जइह नाहीं बालम,
पच्छिम की हवा ना जानी...
घुट-मुट,घुट-मुट बात करत हैं,
एको बात न जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी...

पुरुब दिशा मत जइह मोरे बालम,
पुरुब की नारी स्यानी......
रात सुलाये रंग महल में,
दिन भराये पानी....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी....

दक्षिण दिशा मत जइह मोरे बालम,
दक्षिण की हवा न जानी....
दाख, मुनाका, गड़ी छुहाड़ा
ई चारो धर जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी.....

उत्तर दिशा तू जइह मोरे बालम,
उत्तर बहे गंगा धारा....
करी स्नानी,लौट घर अइह..
तीनों लोक तर जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी...

फगुआ के बोल में डूबती उतराती चन्द्रज्योति ई न समझ पाई कि ई जब अइबे किये त अइसे मुंह काहे मोड़ रहें।
खैर कुछो हो उ त न जाएगी।
हाँ यदि उ पास आएं त आज खरी खोटी सुनाने से भी न चुकेगी।
अइसहीं बैठी सोचती उसकी भी आंख लग गई।
बलमा की नींद तो कब की उड़ गई।बहुत देर तक यूँ ही पड़ा रहा। जब उसे किसी की कोई आहट न मिली तब धीरे से आंखे खोला। कमरे में बस किसी की सांसो की आहट ही अब शेष थी।खिड़की से उतरती चांद रात बीतने के संकेत कर गया।बलमा धीरे से बिस्तर से उठा, मेज पर रखा फुलही लोटा उठा दरवाजे की ओर बढ़ा।
दीवार से लग कर बैठी निर्विघ्न सोई चन्द्रज्योति पर भर नजर डालने की हिम्मत भी उसमें न हुई। यहाँ तक कि उसकी धानी गोटेदार साड़ी पर पैर न पड़ जाए इतना बच बचा के डेग बढ़ाता किसी तरह भिड़े दरवाजे को हल्का सा खोल बाहर निकला व दरवाजे को पुनः भिड़ा, नंगे कदमों, दबे पांव, आंगन पार किया।
जैसा उसे अंदाजा था कि कोई न कोई तो जरूर भेटायेगा बस इसलिए फुलही लोटा साथ रख लिया था।
ज्योंहि ड्योढ़ी लांघता घर के बाहर पहरेदारी में लगा आदमी .....
जी मालिक एती घड़ी?
बलमा पेट पकड़ इशारा किया।
वो समझा कि, पहुना के पेट खराब हई ।
बस वो आगे बढ़ कर उसे हवेली नुमा घर से बाहर निकलने में मदद कर दिया।
जब वो सुरक्षित वहाँ से निकल गया तब सर पर पांव रख कर अनजानी दिशा में भागा। घण्टों बदहवाश भागने के बाद फूटती किरण के साथ गांव का सीमाना देख हारे सैनिक सा पछाड़ खाके गिर पड़ा।
सुबह सुबह मर मैदान को निकले लोग इस तरह गिरे पड़े राहगीर को देख पानी का छींटा दे होश में लाये।
बलमा बोलने की स्थिति में न है पर अपने गांव के लोग वर्षो बाद भी अपने लोग को पहचान ही लेते हैं।
बस सब बलमा को उसके घर ले गए ,सबने अंदाजा लगाया कि ई राहजनी का शिकार हुआ है।
घर पर फगुआ के आस में बलमा के घरवाले बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
इस तरह थके हारे बलमा को देख बाबूजी सीने से लगा कलप उठे। अइसे बदहवास घर आये बेटा को देख मइया भी रोवे लगी।नयकी कनिया बस मन ही मन खुश है कि उ घरे आ गयें।
वहाँ सुबह होली के हुड़दंग से चन्द्रज्योति की नींद टूटी तो कमरे में कोई न था।बैग व छाता वैसे ही पड़ा था।
रामजतन बाबू,गौरी कोई भी न समझ पाएं कि पहुना कहाँ चल गयें।
गौरी तो चन्द्रज्योति को ही घूर कर देखी कि यही कुछ कहलक हे पहुना के।
खैर पहुना का बैग खुला ,जिसमें सबके पसन्द के कपड़े थे।जिसे सबने सहज स्वीकार किया।बस मलाल रहा कि पहुना बिन कहले काहे चल गयें।।
-लेखा कृति

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

सबसे ज्यादा जो पढ़े गये, आप भी पढ़ें.