साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, July 20, 2021

ये मानसूनी बादल भी अचानक गुजरात क्यों चले जाते हैं-अजय बोकिल

अजय बोकिल
अगर मध्यप्रदेश की बात करें तो मानसून का मिजाज उस नेट कनेक्शन की तरह हो गया है, जो जाने के बाद फिर आने का नाम ही नहीं ले रहा। मौसम विभाग की भविष्यवाणी और हकीकत में बादलों के बरसने के बीच वही रिश्ता है जो झूठे आशिक और उसकी माशूका के बीच होता है। आलम यह है कि आधा आषाढ़ बीत चुका है, बादलों की जानलेवा चमक तो दिखाई दे रही है, लेकिन झमाझम बारिश को धरती अभी तरसी हुई है। देश की राजधानी दिल्ली में तो मई जून सी गर्मी और भयंकर उमस है। वहां केवल राजनीतिक बादल गरज रहे हैं, लेकिन असली बादलों की बरसात को लोग तरस गए हैं। हालांकि बीती रात कुछ पानी गिरा है। वैसे यह शायद पहला मौका है, जब मौसम विभाग ने आधिकारिक तौर पर माना है कि दिल्ली में मानसून पहुंचने की उसकी सारी भविष्यवाणियां गलत साबित हुई हैं। मौसम विभाग ने इस नाकामी पर खुद हैरानी जताते हुए इसे ‘विरल’ घटना बताया है। मौसम विभाग ने कहा कि उसके नए मॉडल विश्लेषण से संकेत मिला था कि बंगाल की खाड़ी से निचले स्तर पर नम पूर्वी हवाएं 10 जुलाई को पंजाब और हरियाणा होते हुए उत्तर पश्चिम भारत में फैल जाएंगी। लेकिन वैसा नहीं हुआ।
 विभाग के दावे की एक बड़ी वजह पिछले कुछ सालों से मौसम की ‍भविष्यवाणी के लिए ‘न्यूमेरिकल वेदर माॅडल’ ( संख्यात्मक मौसम माॅडल) अपनाना भी था। लेकिन वह भी दगा दे गया। वैसे भी दिल्ली का ठीक ठीक मिजाज कौन समझ पाया है, सो मौसम विभाग भी जान लेता। अलबत्ता विभाग पिछले कुछ दिनो से चेता रहा था कि मानसून दिल्ली अब पहुंचा, तब पहुंचा। लेकिन एक दो फुटकर बारिशों के बाद मानसून गुजरात निकल लिया। अब आप यह न कहें कि इस देश में आजकल हर बात गुजरात से शुरू होकर गुजरात पर ही खतम क्यों होती है?
यूं मानसून का मिजाज और तासीर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग है, जहां मैदानी इलाको के लोग बारिश को तरस गए हैं, वहीं पहाड़ी राज्यों में बादल फट रहे हैं। मानसून चाहता क्या है, यही समझना मुश्किल है। हालत यह है कि कुछ दिन पहले जिस मानसून‍ सिस्टम से मप्र में झमाझम बारिश की भविष्यवाणी थी, वो अचानक मुंह फेर कर गुजरात रवाना हो गया। इधर घटाएं छा तो रही हैं, लेकिन जानलेवा उमस बढ़ाकर अोझल भी हो रही हैं। खेतो में फसलें सूखने लगी हैं और राज्य के महज दो बांध ही अभी तक भर पाए हैं। नर्मदा सहित कई नदियां मीडिया में अपनी उफनती हुई तस्वीरे देखने को बेताब हैं। कुछ शहरों में जलसंकट भी दस्तक देने लगा है।
उधर तेज गर्मी और उमस के कारण बेहाल लोग मौसमी बीमारियों से ग्रस्त होने लगे हैं। कोरोना से जो थोड़ी राहत मिली थी, उसे दूसरी सीजनल बीमारियों ने रिप्लेस करना शुरू कर दिया है। करे तो क्या करें? अगर समय पर पानी नहीं गिरा तो बहुत से गणित गड़बड़ा जाएंगे। हालांकि मौसम विभाग ने अगले हफ्ते फिर एक नया सिस्टम बनने और अच्छी बारिश की बात कह के विटामिन की गोली देने की ‍कोशिश की है।
हर मानसून में यह सवाल किसी परीक्षा के स्थायी प्रश्न की तरह कौंधता है कि मौसम विभाग की भविष्यवाणियां अक्सर गलत साबित क्यों होती हैं? खासकर भारत के बारे में तो कई लोग मौसम विभाग से ज्यादा ज्योतिषियों या गांव के बुजुर्गों के तजुर्बे पर भरोसा करते हैं। हो सकता है कि खुद मौसम को मौसम विभाग को छकाने में मजा आता हो। मौस‍म विशेषज्ञों का कहना है कि इस विरोधाभास के पीछे भारत की भौगोलिक स्थिति बड़ा कारण है। माना जाता है ‍िक मौसम विभाग की भविष्यवाणियां उन देशों या स्थानों के बारे में ज्यादा सटीक बैठती हैं, जहां प्राय: एक सा मौसम ही रहता है। जबकि भारत का उत्तरी हिस्सा उपउष्णकटिबंधीय जोन में पड़ता है तो दक्षिणी भाग उष्णकटिबंधीय जोन में। हिमालय से लगे इलाकों में स्थिति और अलग होती है। ऐसे में मौसम की चाल भी भटक जाती है। बावजूद इस हकीकत के कि मौसम विभाग का दावा है कि पहले की तुलना में उसकी भविष्यवाणियां अब ज्यादा सटीक हैं। विभाग के मुताबिक पहले मौसम की भविष्यवाणी सटीक होने का प्रतिशत 60 फीसदी तक था, जो अब 80 फीसदी है। यानी 20 फीसदी मामला अभी भी राम भरोसे है। विभाग का यह भी कहना है कि मौसम की ज्यादा विश्वसनीय भविष्यवाणी की वजह हाल के वर्षों में अपनाया न्यूमेरिकल वेदर माॅडल है। इसे संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान ( एनडब्ल्यूएफ) भी कहते हैं। इसके तहत मौसम का दिन प्रतिदिन का डाटा एकत्र कर उसे कम्प्यूटर माॅडल से प्रोसेस किया जाता है। विभाग ने इसके लिए देश भर में सौ डाॅप्लर और राडार लगाए हैं। जो स्थानीय मौसम की पल-पल की जानकारी रखते हैं। हालांकि और अधिक सटीक भविष्यवाणी के लिए ज्यादा डाॅप्लर और राडारों की आवश्यकता है। लेकिन जो बताया जाता है, वो भी खरा कम ही उतरता है। शायद इसलिए भी क्योंकि मौसम किसी विभाग के निर्देश या माॅडल के अनुसार न तो चलता है न बदलता है। वो कोविड की माफिक कब रंग बदल ले, कहा नहीं जा सकता। विभाग जो भविष्यवाणी करता है, वो अमूमन मौसम के नियमित डाटा और चरित्र के आधार पर होता है, लेकिन कब बादल रिमझिम बरसेंगे, कब झमाझम में तब्दील होंगे और कब फट पड़ेंगे, कब झांसा देकर निकल लेंगे, इसका सही-सही अंदाजा लगाना बेहद कठिन है। उदाहरण के लिए मौसम विभाग ने दो दिन पूर्व कहा था कि बंगाल की खाड़ी में जिस सिस्टम से मध्यप्रदेश को भिगोने की संभावना बनी थी। वह काफी तेजी से मूव होकर गुजरात की ओर बढ़ गया। अभी अरब सागर से जो नमी आ रही है, उसी के कारण बारिश हो रही है। मानसून तो एक्टिव है, लोकल सिस्टम से ही अभी बारिश होती रहेगी। यही कारण है कि बारिश टुकड़ों में हो रही है। हवा की दिशा भी लगातार बदलती जा रही है। बताया जाता है कि बंगाल की खाड़ी में एक और सिस्टम डेवलप हो रहा है, लेकिन यह भी मप्र के नीचे से मूव करते हुए ओडिशा से विदर्भ और फिर गुजरात की ओर बढ़ जाएगा।
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लेकिन मौसम की सही और सटीक भविष्यवाणी का अपना आर्थिक और राजनीतिक महत्व भी है। यही कारण है कि अमेरिका ने 12 साल पहले मौसम की सटीक भविष्यवाणी के लिए जरूरी तंत्र बनाने पर 5.1 अरब डाॅलर खर्च‍ किए थे। भारत में मौसम विभाग की भविष्यवाणी हर समय गलत ही हो, ऐसा नहीं है। कई बार उसकी चेतावनियां समय रहते सचेत करने वाली भी होती है। इसके बाद भी जनमानस में विभाग की छवि ‘ कहता कुछ और होता कुछ’वाली ज्यादा है। खासकर किसान अगर मौसम विभाग के हिसाब से चले और उन्हें नुकसान न हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है। वैसे भी ग्लोबल वार्मिंग ने मौसम के चरित्र को भी बदल कर रख ‍िदया है। अब वह वैसा ही व्यवहार करे , जरूरी नहीं है, जिसको देखकर हमारे पूर्वजों ने कहावतें रची थीं। आवश्यक नहीं कि अब गर्मी के मौसम में ही लू चले या बारिश के मौसम में ही बाढ़ आए। यह भी जरूरी नहीं कि ठंड के सीजन में ही आप ठिठुरें या बसंत में ही भंवरे फूलों का पराग चूसने निकलें। यही हाल रहा तो हमे ऋतुअोंका नामकरण भी फिर से करना पड़ेगा और ये नाम भी हाइब्रिड हो सकते हैं। मौसम का यह बदलाव मनुष्य के वजूद के लिए भी खतरा बन रहा है। हम खुद अपनी जड़े खोदने में लगे हैं। अपने हितसाधन के आगे प्रकृति का हर विधान हमे व्यवधान लगने लगा है। मानसून भी इस खेल को समझने लगा है, इसीलिए वह कभी भी आॅफ लाइन हो जाता है। फिलहाल तो उसका यही स्टेटस है। कुछ ऐसी ही परेशानी मौसम‍ ‍िवभाग की भी है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है ‘मौसम की तरह बदलते हैं उसके वादे, उस पर यह जिद कि तुम मुझपे एतबार करो।‘
लेखक वरिष्ठ संपादक हैं सुबह सवेरे दैनिक मध्य प्रदेश

सुरेश सौरभ की लघुकथाएं विश्व भाषा में-सत्य प्रकाश शिक्षक

(चिट्ठी)

लखीमपुर-खीरी नगर के चर्चित लघुकथाकार व्यंग्यकार सुरेश सौरभ की लघुकथाएं विश्व भाषा अकादमी राजस्थान की अंतरराष्ट्रीय ई पुस्तक में शामिल हुईं हैं। संपादक चन्द्रेश कुमार छतलानी ने उक्त लघुकथा संग्रह में सौरभ की लघुकथाओं का चयन देश के जाने-माने लघुकथाकारों के साथ किया है इसके लिए नंदी लाल, रामाकान्त चौधरी, विकास सहाय, सत्य प्रकाश शिक्षक, अखिलेश अरूण, आदि साहित्यिक मनीषियों ने उन्हें बधाई दी है। विदित है सौरभ के पक्की दोस्ती, वर्चुअल रैली, 51कवि, नोट बंदी, सौ कवि निर्भया,नंदू सुधर गया आदि एक दर्जन से अधिक संग्रह प्रकाशित हो चुकें हैं और रचनाएं देश विदेश के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहतीं हैं।इनकी कई रचनाओं का पंजाबी उड़िया आदि भाषाओं में अनुवाद हो रहा है।
प्रेषक-सत्य प्रकाश शिक्षक
लखीमपुर खीरी

‘महेशचंद्र देवा’ अभिनय दुनिया के उभरते हुए सितारे-अखिलेश कुमार ‘अरुण’

साक्षात्कार

महेशचंद्र देवा (अभिनेता)

आप अपने काम को लेकर बहुत ही उत्साहित हैं, आपसे हमारी मुलाकात 2015-16 के दौरान हुई थी। वह मुलाकात एक औपचारिक मुलाकात थी बस परिचय भर हो सका कि आप महेश चन्द्र देवा है और मैं अखिलेश कुमार अरुण। आप अपने चबूतरा पाठशाला पर 15 या 20 बच्चों में व्यस्त थे किसी को चित्रकारी तो किसी को एबीसीडी का ककहरा सिखा रहे थे। आपके काम की तल्लीनता ही आपके सफलता का द्योतक है और आप अपनी पहचान बना पाने में सफल हो सके है एक अभिनेता ही नहीं शिक्षक और गुरु के रूप में भी। लखनऊ को अपना कर्मभूमि बनाने वाले अभिनेता बनने के  साथ ही साथ मलिनबस्तियों से उठाकर बच्चों को रंगमंच की दुनिया से होते हुए फिम्ली जगत में अब तक 40 से 50 बच्चों को लाने वाले जो हजारों-हजार बच्चों और उनके माता-पिता को मान-सम्मान से जीवन जीने के लिए उत्त्साहित करती हैं पल-प्रतिपल। मदर सेवा संस्थान ने 8 साल पहले चबूतरा थियेटर पाठशाला की नींव रखी थी जिसका मकसद था बच्चों के अंतर्निहित प्रतिभाओं को मंच देना हर साल चबूतरा थियेटर फेस्टिवल का आयोजन कर प्रतिभाओं को मंच तक पहुँचाने के साथ-साथ उनके सपनों को भी साकार किया है। आज हिंदी फिल्म जगत में तमाम बच्चे जैसे- आर्यन चौधरी, नीलमा चौधरी, शिखा बाल्मीकि, नैंसी बाल्मीकि, खुशी गौतम, मोनू गौतम, काजल गौतम,मोहम्मद अमन, मोहम्मद सैफ, मोहम्मद आरिफ, सोनाली वाल्मीकि, मानस वाल्मीकि, जितेंद्र शर्मा , हर्ष गौतम, प्रीति वर्मा, सिया सिंह कृतिका सिंह सतप्रीत सरन, समीक्षा सरन जैसी गौतम, पूर्णिमा सिद्धार्थ, दीपक सिद्धार्थ, श्रीकांत गौतम आदित्य कुमार, लकी गौतम आदि बच्चों को रुपहले परदे से रूबरू कराया और संस्थान ने उन्हें आत्मनिर्भर भी बनाया। एक मिशाल हैं आप, अपने आप में। आपके कार्य की जितनी सरहना की जाये वह कम ही होगा। महेश चंद्र देवा जी से बातचीत के आधार पर आइए जान ते हैं-उनकी जीवनी, उनका कार्यक्षेत्र, और अभिनय की दुनिया के साथ-साथ उनके भविष्य की उन योजनाओं के बारे में-

 

मैं- सबसे पहला प्रश्न मेरा क्या यह होगा कि आपकी शिक्षा कितनी रही है आपका शैक्षिक परिवेश कैसा रहा है, गांव से हैं  या शहर से हैं?

महेशचंद्र देवा जी- स्मृतियों में जाते हुए महेश चंद्र देवा जी बताते हैं कि उनका परिवार मध्यमवर्गीय परिवार रहा था जहां आपके पिताजी सचिवालय में सरकारी नौकरी करते थे जिससे परिवार का खर्च-भर ही चल सकता था, शहरी परिवेश में पले-बढ़ें हैं किंतु आपका लगाव झुग्गी झोपड़ियों के बीच में रहने वाले लोगों से ज्यादा रहा है। अपनी शिक्षा के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अपनी पढ़ाई के दौरान ही पढ़ाई के साथ साथ रंगमंच से जुड़ गए थे. आपकी  शिक्षा-दीक्षा सरकारी विद्यालयों, कॉन्वेंट स्कूल और शिया इंटर कॉलेज से लखनऊ यूनिवर्सिटी तक का सफर रहा है, जिसमें उन्होंने शिक्षा परास्नातक तक की शिक्षा प्राप्त किए हैं, कला में रुचि के चलते उन्होंने कला को अधिक महत्व दिया। रंगमंच की कोई विधिवत शिक्षा न लेकर इस क्षेत्र के विख्यात लोगों के सानिध्य में रख नुक्कड़ नाटक और अन्य नाट्य कार्यशालाओं से अपने अभिनय को निखारा है।

मैं- रंगमंच से आपका बचपन से ही लगाव था जिसमें आप स्कूल स्तर पर नाटकों में भाग लेते रहे किंतु आपको कब ऐसा लगा कि नहीं हमको रंगमंच के दुनिया में जाना चाहिए?

आप कहते हैं कि यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण सवाल है, हमारे जीवन से जुड़ा हुआ.एक बार की बात है  रंगमंच से जुड़ा हुआ बच्चों के द्वारा नाटक प्रस्तुत किया जा रहा था जो लखनऊ में ही था. जहां पर हम को सबसे पहले रंगमंच को करीब से देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहीँ से मन में लालसा जागी कि अब हमें रंगमंच के क्षेत्र में जाना है, आगे आप बताते हुए कहते हैं कि वह पहला अवसर था कि मैं विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भारत की सर्वोच्च रंगमंच संस्था इप्टा में संपर्क किया जहां यह कहते हुए हम को अयोग्य करार दे दिया गया कि आप बहुत दुबले-पतले हैं आपके लिए यह  क्षेत्र उचित नहीं है किंतु हम हिम्मत नहीं हारे उसके बाद दो बार हमने एनएसडी में भी प्रयास किया किन्तु असफल रहे, एक जगह बच्चों का कार्यशाला हो रहा था उसको देख कर हमें लगा कि यही हमारे लिए ठीक रहेगा कुछ शुल्क जमा करके उस कार्यशाला से जुड़ गए जहां से हमारी रंगमंच शिक्षा प्रारंभ होती है।

मैं- क्या आपने रंगमंच की विधिवत शिक्षा ली है अथवा छोटी-छोटी कार्यशालायें ही आपके रंगमंचीय कला को निखारने का माध्यम रही हैं?

महेशचंद्र देवा जी- एनएसडी और इप्टा जैसी बड़े रंगमंच के संस्थाओं से न जुड़ पाने का मलाल था किंतु हमने इसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया, देश के प्रतिष्ठित रंगमंच निर्देशकों के देखरेख में हमने कार्यशालायें की और जहां भी जैसे हमको मौका मिला अभिनय की बारीकियों को सीखता गया। हमारे जीवन में अभिनय को निखारने का सहयोग जिन लोगों से प्राप्त हुआ उनमें प्रमुख नाम है जैसे रंगमंच के जगतगुरु पदम श्री राज बिसारिया जी, राबिन दास, देवेंद्र राज अंकुर, सत्यव्रत रावत, सुधीर कुलकर्णी, ललित सिंह पोखरिया आदि मेरे गुरु रहे हैं, रंगमंच के अतिरिक्त हमने कुछ दिनों तक कत्थक की भी शिक्षा प्राप्त की जिसके गुरु रहे हैं कपिला महराज। उक्त लोगों से रंगमंच शिक्षा में हमने रंगमंच से जुड़े हुए रूप सज्जा, मंच सज्जा, लाइटिंग, अभिनय आदि को सीखा जाना और समझा उनकी बारीकियों को, नुक्कड़ नाटक के गुरु अनिल मिश्रा जी रहे हैं।

मैं- अगला प्रश्न यह कि आपको रंगमंच करते हुए कभी ऐसी परिस्थितियां का समना करना पड़ा कि नहीं यह क्षेत्र अब हमारे बस का नहीं है, इसे छोड़ देना चाहिए?

महेशचंद्र देवा जी- आप अपने पिछले दौर को याद करते हुए कहते हैं कि संघर्ष के दिनों में हमारे पास पैसे नहीं होते थे तो पैदल ही थिएटर से लेकर के नुक्कड़ फिल्म सिटी, जहां तक बन पड़ता था उससे भी आगे तक जाना होता था। अपने काम के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धा थी जो हमें हमारी मुकाम देकर गई है। आप कहते हैं कि मैं अपने संघर्ष के दिनों में साइकिल से ज्यादा चलता था। जेब में ऑटो और रिक्शा के लिए पैसे नहीं होते थे, एक दो रूपये जेब में पड़े होते थे साइकिल पंचर हो गई या कुछ बिगड़ गया उसके लिए। मैं विषम से विषम परिस्थितियों में मजबूती के साथ खड़ा रहा। रंगमंच व्यक्ति को जीवन के रंगमंच पर कैसे खुश रहना है और दूसरे को खुश रखना है यह सिखा देता है। रंगमंच के प्रति मेरी जो दृढ़ इच्छा कहिये या त्याग, उसके चलतेहमने सरकारी नौकरी को रंगमंच के लिए त्याग दिया और रंगमंच को ही अपने जीवन का एक मुख्य उद्देश्य बना दिया था। राजश्री पुरुषोत्तम टंडन  मुक्त विश्वविद्यालय से महामहिम द्वारा दिया जाने वाला प्रमाण पत्र  हम लेने इसलिए नहीं गए क्योंकि हमें कबीर जी के जीवन पर नाटक करना था सम्मान से ज्यादा हमारे लिए काम जरुरी था।

मैं- चबूतरा पाठशाला और मदर सेवा संस्थान में पहले किस को स्थापित किया गया था और इसे स्थापित करने का विचार क्यों और कैसे आया आपके मन में इस का उद्देश्य क्या है?

महेशचंद्र देवा जी-रंगमंच जब से व्यवसायिक स्तर पर आया है तब से लेकर के आज तक के समय में बहुत परिवर्तन हो गया है. राजा-महाराजाओं के काल में वंचित समुदाय (भांट,चारण, बहुरुपिया, नट, मदारी आदि)  के जीवन-यापन का साधन रहा है किन्तु अब यही तबका आज अपने इस पुस्तैनी पेशा से दूर हो गया है, १९१३ में दादा साहब फाल्के को राजा हरिश्चंद्र फिल्म में काम करने के लिए कोई महिला कलाकार नहीं मिली थी और आज देखिये..... हमारे चबूतरा पाठशाला का भी यही उद्देश्य है जिनके रगो में रंगमंच का खून दौड़ रहा है उनको इस मुख्यधारा से जोड़ना है जो वास्तव में रंगमंच के कलाकार थे. इसलिए अपने संघर्ष के दिनों में ही मैंने इन वंचित बच्चों के लिए जिसमें रिक्शा चालकों, मजदूर आदि जो दिनभर कुछ न कुछ करके अपना जीवन यापन करते हैं। उनको रंगमंच से जोड़ने के लिए इस मदर  सेवा संस्थान की स्थापना सन 2004 में की गई जिसकी प्रेरणास्रोत इतिहास प्रसिद्ध महिलाएं ज्योतिबा फुले, माता रमाबाई, मदर टेरेसा आदि रही हैं और यह संस्थान सफल भी रहा। आज केवल महेशचंद्र देवा जी प्रदेश ही नहीं देश-विदेश में यह संसथान जाना पहचाना जाता है। 2013 में, मैं अपनी माता जी के प्रेरणा से ‘चबूतरा पाठशाला’ की स्थापना की जो रंगमंच का रेगुलर क्लास करता है, यह पाठशाला वास्तव में प्रकृति के बीच, पेड़ के नीचे, खुले आसमान में जो बच्चे अनाथ हैं, जिनके माता-पिता जेल में बंद हैं, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के बच्चे, रेल की पटरियों से लेकर के रेलवे की कंपार्टमेंट में काम करने वाले बच्चों के लिए उनको साक्षर करने के उद्देश्य से ककहरा सिखाने के लिए इसकी नीव रखी गई. धीरे धीरे रंगमंच का ककहरा कब सीखने लगे पता ही न चला, उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए इसकी शाखाएं-लखनऊ में गोमती नगर, डालीगंज, और विकास नगर में भी स्थापित गया. उनका जो विषय होता था वह इन्हीं लोगों के जीवन पर होता था जैसे- बाल मजदूरी, अशिक्षा, दहेज, नशा पान-पुड़िया आदि को अपने कार्यशाला का मुद्दा बनाया, जिसमें बच्चों ने खूब बढ़-चढ़कर भाग लिया हमें खुशी होती है कि आज 40 से 45 बच्चे हिंदी सिनेमा जगत में काम कर रहे हैं। जिनके पिता  ठेला, रिक्शा चलाते हैं, सब्जी बेचते हैं, आदि. वे फिल्में जिनमें बच्चों ने काम किया है ‘आर्टिकल-15, (फिल्म) मीर नायर की ‘अ सुटेबल ब्याय’, (बीबीसी लन्दन के लिए) ‘जैक्सन’, ‘भोकाल’ (बेवसीरिज) आदि में भी काम कर रहे हैं और अपने अभिनय का लोहा मनवा रहे हैं। मेरा सन 2017 में एक और थिएटर के क्षेत्र में प्रयास रहा ‘थिएटर इन एजुकेशन’ अर्थात पढ़ाई पढ़ाई में रंगमंच कला का ज्ञान, की स्थापना की। लखनऊ के लगभग 100 से 150 स्कूलों में हमने 10,000 से अधिक बच्चों को रंगमंच का ककहरा सिखाया उन लोगों को बताया कि क्या होता है रंगमंच, जिसमें बच्चे अपने भविष्य का सुनहरा अवसर तलाश सके और एक ताना-बाना बुन सकें।

मैं- आप वंचित समुदाय से आते हैं, फिलहाल कलाकारों की कोई जाति नहीं होती। किन्तु क्या?आपने कभी अनुभव किया कि आपको जातीयता का दंस झेलना पड़ा हो?

महेशचंद्र देवा जी- आप रंगमंच के माध्यम से स्पष्ट संकेत देते हैं की सामाजिक बुराई के स्वरूप में जो जाति व्यवस्था है। इसको खत्म करने के लिए तमाम साहित्यकारों और महापुरुषों ने समय-समय पर अपनी लेखनी चलाई है और लोगों को जागरूक किया है। ऐसे में संघर्ष के दौरान जातीयता रूपी जहर का असर नाम मात्र के लिए हुआ होगा, इसका कोई स्पष्ट अंकन हमारे दिमाग में अभी तक नहीं है क्योंकि रंगमंच से जुड़ा हुआ हर एक कलाकार अपने कार्य को महत्व देता है। अपने कार्य के अनुरूप ही वह सफलता प्राप्त करता है, वह अलग बात है कि उसके जीवन में कभी ऐसा भी पल आया हो या इसको झेला हो यह उसके लिए बस चलते हवा का झोंका जैसा है। अपने काम पर ध्यान देना चाहिए आपका परिश्रम आपके सफलता का बिगुल बजाने लगे, आप देखेंगे की एक से एक कलाकार जो वंचित समुदाय से रहें वह फिल्म दुनिया में आज नाम कमा रहे हैं और अपने नाम से जाने और पहचाने जाते हैं।

मैं-आपको रंगमंच से अलग हटकर फिल्मी जगत पहला ब्रेक कब और कैसे मिला?

महेशचंद्र देवा जी-इस प्रश्न पर आप कहते हैं कि फिल्म जगत में अपनी पहचान बनाने के लिए या अपने काम को लेकर के ढेर सारे लोगों से भिन्न-भिन्न जगहों पर मिलना पड़ता है। अपनी बात रखनी पड़ती है और आपका काम, आपका व्यवहार कब किसको पसंद आ जाए और आपको एक मौका दे दे। आपके जीवन का वह सबसे बड़ा सुनहरा पल होता है। हमें पहला जो ब्रेक फिल्म में मिला वह दुर्भाग्य से हमारा जो कैरेक्टर था किसी दूसरे को दे दिया गया और उसके बाद जो दूसरी फिल्म आई वह भोजपुरी फिल्म थी जिसमें हम बतौर गीतकार अपना चरित्र निभा रहे थे, जहाँ से अभिनय का सफर शुरू होकर हिंदी बॉलीवुड से लेकर के हॉलीवुड तक हमने फिल्म की सभी में छोटे-मोटे रोल हैं। लगभग 30 से 35 फिल्मों की की लिस्ट है जिसमें हमने काम किया है जैसे-मीलियन डालर आर्मस् (हालीवुड), कोरिया की द प्रिंसेस आफ अयोध्या अभी-अभी कागज फिल्म आई है जिसमें हम एक टाइपिस्ट की भूमिका में हैं इसके साथ-साथ अवधी, भोजपुरी, हिंदी भाषाओँ की फिल्मों में हमें चरित्र अभिनय करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो आज भी अनवरत जारी है।

मैं-आपकी भविष्य में आने वाले कौन-कौन सी फिल्में हैं उसकी जानकारी मिल जाए तो......?

महेशचंद्र देवा जी-इस पर आप हंसते हुए कहते हैं यह सौभाग्य है जो वर्तमान समय में हमें खूब काम मिल रहा है। उनमें से से कुछ फिल्में हैं प्रयागराज,  चूना वेबसीरिज (नेट क्लिप्स), हुड़दंग जो मंडल कमीशन पर बनी है जो 90 के दशक की फिल्म है जिसमें हम इंस्पेक्टर की भूमिका में हैं, कीड़ा घर वेब सीरीज, डब्ल्यू बैचलर हरमन जोशी के साथ इस प्रकार से 10 या 15 फिल्में हैं जो इस साल के अंत तक  आ जाएंगी। टीवी सीरियल में ‘और भाई क्या चल रहा है’ सावधान इंडिया में ‘क्राइम अलर्ट’ आदि।

मैं- आज तक के अपने रंगमंचीय सफर और सिनेमा जगत मैं प्राप्त उपलब्धियों से अपने को कितना संतुष्ट पाते हैं इसके बारे में कुछ बताएं?

महेशचंद्र देवा जी- हमारे लिए हमारा कार्य है हमें संतुष्टि प्रदान करता है क्योंकि हम अपने कार्य के प्रति जितना ईमानदार रहेंगे उतना ही हम अपनी पहचान बनाने में सफल रहेंगे। अपने कार्य से ज्यादा हमको संतुष्टि उनमें मिलती है जो बच्चे आज झुग्गी झोपड़ी और मलिन बस्तियों से निकलकर बड़े-बड़े सिनेमा जगत के कलाकारों के साथ काम करते हैं, बदले में उन्हें पैसे भी मिलते हैं। उनके साथ रहने खाने का मौका मिलता है। जो बरबस आंखों में आंसू ला देते हैं किन्तु ये आंसू खुशी के आंसू होते हैं यह हमारे लिए सबसे बड़ी संतुष्टि और संतोष है।

मैं-अब चलते चलते अंतिम प्रश्न की आप फिल्मी दुनिया या रंगमंच से जुड़े हुए युवकों के लिए जो अपना भविष्य तलाश रहे हैं उनको आपका क्या संदेश है?

महेशचंद्र देवा जी-वास्तव में आज के युवा वर्ग बहुत जल्दी सफलता की सीढ़ी चढ़ना चाहते हैं।सफल न हो पाने पर अपने को ठगा हुआ पाकर अवसाद में चले जाते हैं जिसका परिणाम बहुत बुरा होता है। इसलिए हमारा कहना होगा की इस क्षेत्र में कलाकार को धैर्य के साथ अपने कार्य के प्रति इमानदार रहते हुए अपना कार्य करते रहना चाहिए यानी ‘संघर्ष जितना बड़ा होगा मुकाम भी उतना बड़ा होगा’ बस यही आपके सफलता का सूत्र है जो आपको एक सफल कलाकार बना सकता है।

बहुत-बहुत धन्यवाद।।।

शुक्रिया।।।।

डिप्रेस्ड एक्सप्रेस अगस्त अंक २०२१ में प्रकाशित

साक्षात्कार/लेखक-
अखिलेश कुमार ‘अरुण’
ग्राम-हजरतपुर,पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर(खीरी) उ०प्र० 
262804 मोबाइल-8127698147

 

बीएसपी सुप्रीमो मायावती का "ब्राम्हण-मन्त्र/अस्त्र " चुनाव और फुले-आंबेडकर मिशन के लिए कितना कारगर साबित होगा-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

Prof. N.L.Verma
          2007 में ब्राम्हण समाज की सामाजिक केमिस्ट्री से यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल हो चुकी बहुजन समाज पार्टी 2022 में भी ब्राम्हण समाज पर दांव लगाकर चुनावी लक्ष्य पर निशाना भेदने की रणनीति बना चुकी है। बीएसपी में मायावती के बाद दूसरे कद्दावर नेता सतीश चंद्र मिश्रा के नेतृत्व में बीएसपी ने यूपी में ब्राम्हण सम्मेलनों के माध्यम से ब्राम्हणों की चुनावी गणेश परिक्रमा शुरू कर दी है। अखिल भारतीय ब्राम्हण महासभा भी बीएसपी के पक्ष में अपने समर्थन की घोषणा भी कर चुकी है। क्या आज ब्राम्हण समाज की राजनैतिक दिशा और दशा 2007 जैसी ही है और 2022 के चुनाव में वैसी ही बनी रहेगी, यह एक बड़ा सवाल है! क्या मायावती की इस जातीय शतरंजी चाल से अन्य दलों की चुनावी रणनीति प्रभावित हो सकती है? यह सच्चाई है कि " नेता उधर ही भागने की जुगाड़ में रहता है जिधर वोट भागता हुआ दिखाई देता है।" आज के दौर में लगभग सभी दलों के लिए लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव जीतकर सत्ता पर काबिज होने तक सिमट चुका है। कोई राजनैतिक दल धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक और कोई जाति के नाम पर जातीय भेदभाव और वैमनस्यता का ज़हर घोलकर चुनावी रण युद्ध मे जीत हासिल कर सत्ता की कुर्सी पर येन केन प्रकारेण कब्जा करना चाहता है। आज दलों के चुनावी एजेंडे में आम आदमी के बुनियादी मुद्दों पर धर्म और जाति भारी पड़ती नज़र आ रही है,अर्थात ज्वलंत मुद्दों की जगह नही रह गई है। धर्म और जाति के बिगड़ैल और घातक घोड़े पर सवार होकर मिली सत्ता की प्रवृत्ति-प्रकृति, दिशा-दशा और जीवनकाल कैसा और कितना अनुशासित और लोक कल्याणकारी साबित होगा? धार्मिक और जातीय शक्तियों के बल पर मिली सत्ता में यही राजनैतिक शक्तियां सामाजिक तानाबाना को उधेड़ने में कोई कोर कसर छोड़ती नज़र नही आएगी।
              मा.कांशी राम जी द्वारा अत्यधिक त्याग, तपस्या और परिश्रम से डॉ. भीमराव आंबेडकर के मिशन और दर्शन पर बनाई गई बीएसपी जातियों के बल पर मिली सत्ता में जातियों का विनाश करने के डॉ.आंबेडकर के लक्ष्य को कितना भेद पाएगी? धार्मिक और जातीय शक्तियों के समीकरण से सत्ता का राजनैतिक लक्ष्य तो भेदा जा सकता है लेकिन सामाजिक और लक्ष्य नही। डॉ.आंबेडकर अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में " राजनैतिक लोकतंत्र से पहले सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र विकसित और सशक्त करने के हमेशा पक्षधर रहे हैं। सामाजिक जातीय वर्णव्यवस्था में कथित ब्रम्हमुख से उपजे सर्वोच्च ब्राम्हण की जातीय पीठ पर कथित निम्न जाति आधारित दल सवार होकर ज्योतिबा फुले और डॉ.आंबेडकर के मिशन की यात्रा कैसे पूरी कर पायेगा ?

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संवैधानिक सामाजिक न्याय विरोधी बीजेपी सरकार के चाल-चरित्र की एक और बानगी- नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

N.L.Verma
पिछड़े समाज के परिवार से आने और पिछड़ों की सरकार की बार-बार दुहाई देने वाले बीजेपी सरकार के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने यूपी विधान सभा चुनाव की बडी रणनीति के तहत एक तरफ अपनी कैबिनेट में पिछड़े समाज से आने वाले 27 लोगों को मंत्री बनाकर ओबीसी का राजनैतिक रूप से परम् हितैषी साबित करने का खेल रचा गया  और दूसरी तरफ नीट (NEET) मेडिकल परीक्षा में ओबीसी के आल इंडिया कोटे के 27% आरक्षण को एक झटके में छीनकर सवर्णों को देने की साजिश और दूरदर्शिता को ओबीसी और उसके ओबीसी मंत्री अच्छी तरह नहीं समझ पा रहे हैं। इस निर्णय से लगभग ग्यारह हजार ओबीसी परीक्षार्थी आरक्षण से डॉक्टर बनने के अवसरों से वंचित हो जाएंगे।  गौर करने लायक है कि सरकार में लगभग सभी ओबीसी मंत्रियों के ऊपर एक सवर्ण मंत्री बैठाया गया है जिससे ओबीसी मंत्री संवैधानिक सामाजिक न्याय सिध्दांत के आरक्षण जैसे मुद्दों पर न तो बोल सके और न ही कार्य करने की हिम्मत जुटा सकें। ओबीसी को ओबीसी मंत्रियों के चेहरे दिखाकर आने वाले चुनाव में बीजेपी की उनके 52 % वोट बैंक पर कब्जा करने की रणनीति का एक अहम हिस्सा है।
         सामाजिक न्याय का एजेंडा लेकर पैदा हुए जो भी राजनैतिक दल आज बीजेपी सरकार का हिस्सा बने हुए हैं क्या वे सरकार में रहते हुए सामाजिक न्याय पर बोलने और कार्य करने की हिम्मत जुटा पाएंगे? यह एक बड़ा सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है। बीजेपी सरकार के इस निर्णय से 27 ओबीसी लोगों को मंत्री बनाकर लगभग 52 % ओबीसी का हक मारा जाएगा और अपने अपने ओबीसी मंत्रियों का जलवा देखकर ओबीसी सड़क से लेकर विधानसभा-संसद तक खुश होता नजर आएगा। सामाजिक न्याय के एजेंडे पर काम करने की आवाज़ बुलंद करने वाले जो दल आज सत्ता और चुनाव के लालच में बीजेपी सरकार का हिस्सा बने हुए हैं उनकी स्थिति पेड़ काटने के लिए "लोहे की कुल्हाड़ी " में पड़े "लकड़ी के बेंट " जैसी ही है जो अन्ततः अपने परिवार के लिए घोर नुकसानदेह और विनाशकारी साबित होती है। यूपी में होने वाले विधानसभा चुनाव में जागरूक ओबीसी इन्हीं दलों से  मेडिकल आरक्षण खत्म होने और सवर्णों को 10 % आरक्षण पर जब सवाल करता हुआ पेश आएगा तो इन दलों के नेताओं के पास क्या जवाब होगा ? इस विषय पर  ओबीसी और दलित एजेंडा पर बने सभी दलों को अभी सचेत और एकजुट हो जाने की जरूरत है अन्यथा जागरण ओबीसी से बेइज़्ज़त होने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नही दिखाई देता नज़र आएगा।अभी भी वक्त है कि अपनी सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारी का बोध/अहसास करते हुए सामाजिक न्याय और किसान विरोधी पार्टी बीजेपी से जितना जल्दी हो सके राजनैतिक दूरी बनाने के निर्णय पर अविलंब विचार-आचार करें। यदि ये दल बीजेपी सरकार से अलग नही होते हैं तो ओबीसी के प्रति सबसे घातक सामाजिक और राजनैतिक अविश्वास माना जायेगा।
             यदि संविधान प्रदत्त बहुसंख्यक समाज के सामाजिक न्याय की सुरक्षा और सरंक्षण चाहते हैं तो ओबीसी और दलित कोर वोट बैंक वाले सभी दलों और समाज को अपने राजनैतिक दुराग्रह-विग्रह दरकिनार कर और सत्ता के शीर्ष बनने के अहम और महत्वाकांक्षा को त्यागकर चुनावी रणभूमि में एक साथ आना होगा अन्यथा बीजेपी और आरएसएस की आरक्षण और किसान विरोधी मानसिकता की सरकार को निकट भविष्य में हटाया जाना सम्भव नही होगा।
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आंगन की दीवारों से, 'नन्दी लाल'-रमाकांत चौधरी

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक-आंगन की दीवारों से (ग़ज़ल संग्रह)
कवि-नंदी लाल
मोबाइल:9918879903
प्रकाशक-निष्ठा प्रकाशन गाजियाबाद
मूल्य-220/-
पेज संख्या- 176
समीक्षक-रमाकांत चौधरी
पता- गोला गोकरण नाथ, 
जनपद लखीमपुर खीरी
उ. प्र.। 
मोबाइल : 9415881883


विधा चाहे कहानी हो, व्यंग्य हो, कविता हो, गीत, गजल, छंद, रुबाई अथवा सवैया आदि। उसे  पढ़ते ही यदि पढ़ने की जिज्ञासा निरन्तर बढ़ती  जाए तो फिर उस रचनाकार की तारीफ में स्वयं ही तमाम विचार दिमाग में उपजने लगते हैं। ऐसे ही जनकवि नंदीलाल जी हैं जो कि देश के जाने-माने सुविख्यात कवि हैं जिन्हें गजल ,घनाक्षरी, छंद, सवैया, दोहा, शायरी लिखने में तो महारत हासिल है ही साथ ही साथ लोकगीत, आल्हा, नौटंकी आदि विलुप्त होती विधाओं को भी जीवित रखने का अद्भुत हुनर है। नंदी लाल जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, उनकी तमाम गजलों का चयन विश्व कविता कोश में हो चुका है। उनके तीन गजल संग्रह "जमूरे ऑफिस है", "मैंने कितना दर्द सहा है"तथा "आंगन की दीवारों से" प्रकाशित हो चुके हैं तथा कई गजल संग्रह प्रकाशन के इंतज़ार में हैं। उनका गजल संग्रह "आंगन की दीवारों से" मेरे हाथ में है जिसे मैंने पढ़ा तो यूं लगा गजल लिखना वाकई कोई नंदी लाल जी से सीखें। जनकवि नंदी लाल जी ने समाज में हो रही तमाम विसंगतियों, विद्रूपताओं को इस गजल संग्रह में अपनी गज़लों  माध्यम से उजागर किया है। जहां शुरुआत मां के प्यार से की है.. 
'दुनिया की सब नेमत झूठी लेकिन सच्ची होती मां। 
बेटे की दो सुंदर आंखें होती हीरा मोती मां।।'
वही अपने किस तरह छोड़ कर चले जाते हैं उनके शेर-
' थी बड़ी उम्मीद अपने ही बचा लेंगे मगर, 
छोड़कर हमको हमारे हाल पर जाने लगे।।
पढ़कर बखूबी समझा जा सकता है। 
अपनी ग़ज़ल के शेर -
'लूट हत्या और दुष्कर्मों की खबरें क्या पढ़े, 
रख दिया है आज का अखबार हमने मोड़कर।।
वर्तमान समय में मरी हुई इंसानियत को स्पष्ट रूप से लिख दिया है। समाज में जिस तरह से प्रत्येक कार्य को कराने के लिए दलालों की जरूरत होती है इस शेर में करारा प्रहार है यथा  -
 'सिर्फ दस्तखत बना दिया करता, 
काम सारे दलाल करता है।'
वहीं  'बीस भूखों को इकट्ठा देखकर, एक रोटी तोड़ कर डाली गई।'
 आगे देखिए..
 'बंद कमरे में सभा सरकार की होती रही, 
भूख से व्याकुल अभागिन द्वार पर रोती रही।।
 सरकारी तंत्र की अव्यवस्था की सच्चाई को उजागर करते हुए उनके बेहतरीन शेर हैं । इश्क़ पर भी उनकी लेखनी जोरदार तरीके से चली है उनका यथा..
 'आज कोई मचल गया जैसे। 
तीर आंखों से चल गया जैसे।'
आगे लिखतें है..
'समूचा फूल तो मिलना बड़ा मुश्किल है यादों का, 
अभी कुछ पाँखुरी किताबों में रखी होंगी।,
युवा दिलों की धड़कन बढ़ा देते हैं । 
तथा राजनीति में कैसे कैसे लोग शामिल हो रहे हैं  एक बानगी देखिए..
चार छ: लोगों के संग मोटर पर भोपू बांधकर, 
आ गए हैं बस्तियां वीरान करने के लिए।
आज वह सबके चहेते रहनुमा बनने चले, 
ले गई थी कल पुलिस चालान करने के लिए।।'
उनके इस शेर से स्पष्ट समझा जा सकता है। 
जब व्यक्ति भूख से परेशान होता है तो क्या-क्या नहीं करता यथा..
 'खेल करतब, लूट, हत्या, और हंगामा हुआ। 
एक रोटी के लिए क्या-क्या नहीं ड्रामा हुआ।।'
से सब कुछ साफ स्पष्ट हो जाता है। 
अपने देश की एकता अखंडता भाईचारा और प्यार कहां चला गया-
' राम और रहमान साथ में हंसते खेला करते थे, 
छीन ले गया कौन संस्कृत फिर अपने चौबारे से।'
इस शेर में बहुत ही खूबसूरत तरीके से प्रश्न उठाया गया है। उनकी कई गजलों में हास्य का पुट भी देखने को मिला यथा.. 
'मिलाता  किस तरह नजरें नजर से वहां भला मेरी, 
हटा चश्मा तो देखा आँख का तक्खा लगा जानू।
पेज नंबर 111 पर लिखा शेर-  'खता मुझसे अगर कोई हुई तो माफ कर देना/ तुम्हारी जिंदगी में अब न कोई दखल देंगे। 
  उक्त शेर प्यार में माफी  मांगने का सबक सिखाता है। संग्रह की गजल नं• 104 का शेर समय का महत्व बताता है -
'समय का मूल्य  जिसने आज तक समझा नहीं  कोई, 
समय के बीत जाने पर वही भी हाथ मिलते हैं।'
पेज नंबर 163 की ग़ज़ल 'फिजाओं में' का शेर -
'तुम्हारा जब कहे मन तब हमारे घर चले आना/ खुले हर पल रहेंगे यह किवाड़े द्वार के अपने' वाकई में आज के मतलबी दौर में।   
....जो अपनेपन का एहसास कराता है। कुल मिलाकर पूरा का पूरा गजल संग्रह में जहां वर्तमान अव्यवस्थाओं पर कवि की मार्मिक संवेदनाएं हैं वहीं भूत और भविष्य की गहरी मौलिक चिंतन और चेतना को स्वयं में समेटे हुए है, मेरा विश्वास है, जो भी पाठक इसे पढ़ना शुरू करेगा, तो वह शुरू से लेकर अंत तक बस पढ़ता ही चला जायेगा, निश्चित रूप से यह संग्रह वंदनीय सराहनीय और संग्रहणीय है। 
इति


Wednesday, July 14, 2021

‘आमिर-किरण’ बनाम ‘शिवसेना-भाजपा’ की पारिवारिकता-अजय बोकिल

अजय बोकिल 
लगता है मशहूर फिल्म अभिनेता, निर्माता आमिर खान और उनकी दूसरी पत्नी किरण राव का तलाक देश में राजनीतिक जुमला भी बनता जा रहा है। हाल में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता देवेन्द्र फडणवीस ने एक सवाल के जवाब में कहा कि शिवसेना और भाजपा के बीच मतभेद हैं, दुश्मनी नहीं है। हम कभी दुश्मन नहीं रहे। इस पर शिवसेना सांसद संजय राऊत ने कटाक्ष किया कि हमारे और भाजपा के रिश्ते आमिर खान और किरण राव की तरह हैं। यानी अलग होकर भी साथ-साथ हैं और साथ होकर भी अलग-अलग हैं। या यूं कहें कि फिजीकली भले अलग हों, लेकिन प्रोफेशनली एक ही हैं। ध्यान रहे कि आमिर-किरण ने 15 साल के दाम्पत्य जीवन और एक बेटे के मां- बाप होने के बाद किन्हीं (अपरिहार्य) कारणों से तलाक ले लिया। तलाक लेते समय जो स्टेटमेंट जारी किया गया, उसमें यह जताने की पूरी कोशिश की गई कि कानूनन वो पति पत्नी के रिश्ते से भले मुक्त हो रहे हैं, लेकिन बतौर एक परिवार वो साथ में हैं और रहेंगे। इस मायने में आमिर खान को ‘तलाक गुरू’ कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि वो सहजता से 15-15 साल में शादी रचाते हैं, फिर तलाक भी ले लेते हैं (अब उनके तीसरे अफेयर की चर्चा भी सोशल मीडिया में है)। उसके बाद भी मुस्कुराते रहते हैं, जैसे कहीं कुछ न हुआ ही हो। दरअसल यह अभिनय और वास्तविक जिंदगी का ऐसा ‘एक्सचेंज ऑफर’ है, वैसा करना किसी आम और ढर्रे की जिंदगी जीने वाले इंसान के लिए बहुत मुश्किल होता है।   
यूं किसी का ‍किसी से इश्क लड़ाना, शादी करना फिर तलाक ले लेना, मीडिया में उसकी हवा बनने देना, बनने पर उस पर ऐतराज जताना और उसके बाद यह गुहार लगाना कि उनकी ‘प्रायवेसी की रक्षा’ की जाए, ऐसा जबरिया और याचित परोपकार है, जिसका कोई औचित्य गले उतरना मुश्किल है। यानी जब सब कुछ निजी और गोपनीय है तो उसे सार्वजनिक क्यों होने दिया जाता है और जो सब को पता है, वह निजी कैसे हुआ? 
यह भी समझना मुश्किल है कि जो फिल्मी हस्तियां तमाम दूसरे मुद्दों पर समाज को नसीहते देती रहती हैं, वो ‍निजी जिंदगी में पत्नियां बदल कर, तलाक देकर समाज के सामने कौन-सा आदर्श पेश करती हैं? क्या निजी और सार्वजनिक जीवन में इतना फासला होना जायज है? इस मामले में नेता और अभिनेताओं में काफी समानता है। मसलन महिलाओ-बेटियों के बारे में दुनिया को भाषण देने वाले अपनी बहन-बेटियों या पत्नियों को लेकर उतने ही सह््रदय या एकनिष्ठ हों, जरूरी नहीं है। कह सकते हैं ‍कि पारिवारिक जीवन में पति-पत्नी के बीच हमेशा प्यार-मोहब्बत का रिश्ता कायम रहे, आवश्यक नहीं है। और आजकल तो युवा जोड़ो में जितनी जल्दी ईगो क्लैश और तकरार शुरू हो जाती है कि उतनी जल्दी तो शादी की मेंहदी भी शायद ही छूटती हो। आमिर जैसे संवेदनशील लोग फिर भी इस रिश्ते को 15 साल खींच लेते हैं तो यह बड़ी बात है। अमूमन ऐसी शादियों और तलाक के समय जारी किए जाने वाले स्टेटमेंट भी बड़े भावुक और नाटकीय लगते हैं। अगर आप बारीकी से उन्हें पढ़ें तो लगेगा कि जो बात उस स्टेटमेंट में कही गई है और ‘निजता की रक्षा ‘की जो दुहाई उसमें दी गई है, उसे दोनो साथ बैठकर घर में ही सुलझा लेते तो ऐसा पब्लिक स्टेटमेंट जारी करने की नौबत ही न आए। हकीकत में यही वो समझदारी और अंडरस्टैंडिंग है, जो ज्यादातर पति-पत्नियों में बरसों साथ रहने, एक दूसरे की जरूरत बनने और हर अग्नि परीक्षा में साथ निभाने की आंतरिक चेतना के कारण बन जाती है। तलाक होने का अर्थ ही है कि वो दोनो ऐसी अग्नि परीक्षा से प्रॉक्सी मार रहे हैं या फिर दोनो में परस्पर निर्भरता का गोंद कभी तैयार ही नहीं हुआ। 
 अब आप कह सकते हैं कि ‘दिल तो है दिल, दिल का ऐतबार क्या कीजे?’ न जाने उम्र के ‍किस मोड़ पर दिल ‍किस पर आ जाए, कहना मुश्किल है और उसके बाद संभलना तो और मुश्किल है। देश के जाने-माने वकील हरीश साल्वे ने अपनी पहली पत्नी के साथ 38 साल गुजारने के बाद पिछले साल तलाक लेकर एक ब्रिटिश ‍महिला से शादी कर ली। यही नहीं, उन्होंने ईसाई धर्म भी अपना लिया और देश ब्रिटेन में आशियाना बना लिया।
आमिर-किरण के स्टेटमेंट में जो सबसे दिलचस्प बात है वो ये कि पति-पत्नी के रूप में अलग होने के बाद भी वो एक परिवार के रूप में रहेंगे। लगभग यही बात पिछले यानी पहली पत्नी रीना दत्ता के साथ हुए तलाक के वक्त भी हुई थी। अर्थात यहां परिवार की बड़ी वृहद व्याख्या है। यानी एक तलाकशुदा पति, तलाकशुदा पत्नियों और उनके बच्चों के साथ एक ही छत के नीचे नंदनवन की तरह रहेंगे। असल में यह हालात से समझौता ज्यादा है, जज्बाती अपनापन नहीं। इसके पीछे धन दौलत में हिस्सेदारी-दावेदारी भी बड़ा कारण हो सकता है। वैसे फिल्म उद्योग में इस तरह तलाकशुदा बहुपत्नी प्रथा नई बात नहीं है। ‍बॉलीवुड के ‘चित्रपति’ कहे जाने वाले जाने-माने फिल्मकार वी.शांताराम ने अपनी 90 साल की जिंदगी में तीन शादियां की थीं, जिनमें से तलाक सिर्फ एक को दिया। तीसरी शादी तो उन्होंने 56 साल की उम्र में देश में ‘हिंदू कोड बिल’ लागू होने के बाद की थी। कहते हैं कि हिंदुओं में एक पत्नी कानून का उल्लंघन करने वाली वह पहली शादी थी। यह शादी उन्होंने अभिनेत्री- नर्तकी संध्या (विजया देशमुख) से की थी। यह भी कहा जाता है कि शांताराम की तीनो ( तलाकशुदा समेत) पत्नियां और उनके बाल-बच्चे एक ही छत के नीचे रहते थे। उनकी पहली पत्नी विमला बाई सचमुच ‘देवी’ रही होंगी, जिन्होने पति की दूसरी शादियों का विरोध नहीं किया बल्कि अपनी सौतनों से भी यथा संभव एडजस्ट किया। शांताराम की दूसरी पत्नी जयश्री कामुलकर थीं। लेकिन वो इतनी उदार नहीं थीं। पति की तीसरी शादी के पहले ही उन्होंने तलाक ले लिया था। 
इसे राजनीतिक सदंर्भ में देखें तो भाजपा- शिवसेना के बीच यह सियासी शादी प्यार और तकरार के साथ 30 साल तक चली। इस आपसी समझदारी का सूत्र ‘हिंदुत्व’ था। हालांकि उसमें ‍भी किसका हिंदुत्व ज्यादा असली या ज्यादा राजनीतिक है, यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है। 2019 में विधानसभा चुनाव साथ लड़ने के बाद भी मुख्यमंत्री पद को लेकर दोनो पार्टियों में ठनी और दोनो में ऐसा ‘पारिवारिक तलाक’ हुआ कि सत्ता के लिए शिवसेना हिंदुत्व विरोधी पार्टियों की सेज पर जा बैठी। जबकि भाजपा के हाथ में विरोधी दल के रूप में केवल हिंदुत्व का पोस्टर रह गया। 
अब फिर दोनो इशारों-इशारो में पचास के दशक के फिल्मी हीरो-हिरोइनो के प्रतीकात्मक प्यार की तरह चोचें लड़ाने की कोशिश करते दिख रहे हैं। भीतर क्या खिचड़ी पक रही है, पक भी रही है या नहीं, साफ नहीं है। या यह भी तलाक के बाद नई राजनीतिक शादी रचाने का नाटक है? अब सवाल यह कि ‘राजनीतिक शादी’ या ‘राजनीतिक तलाक’ के मामले में आमिर-किरण के रिश्ते का हवाला क्यों? दोनो का आपस में क्या रिश्ता हो सकता है? क्या इसलिए कि दोनो तन से अलग होने के बाद भी मन से एक रहने का दावा कर रहे हैं? इन सवालों का जवाब यह है कि हर शादी एक तलाक और हर तलाक एक नई शादी की संभावना लिए होता है। यानी आमिर जितनी शिद्दत और इन्वाल्वमेंट के साथ फिल्मे बनाते हैं, उसी शिद्दत से इश्क, शादी और तलाक भी ले डालते हैं। वरना इस बेहरम दुनिया में बहुत से पति तो तलाक लेने की हिम्मत जुटाते-जुटाते दुनिया ही छोड़ जाते हैं। उनकी पत्नियों का सुहाग भी तभी मिट पाता है। आमिर तो तलाकनामा हाथ में लेकर अपनी तलाकशुदा पत्नी के साथ शूटिंग कर रहे हैं। एक ही जिंदगी में कई शादियों और तलाकों का लुत्फ हर किसी के नसीब में नहीं होता। इसके लिए हिम्मत और हिकमत चाहिए। 
पति-पत्नी के तलाक और सियासी दलों के तलाक में एक बुनियादी फर्क है। वो ये कि यहां शादी किसी भी मुद्दे पर तलाक में और तलाक किसी भी राजनीतिक स्वार्थ की ‍बिना पर शादी में बदल सकता है। इसके लिए किसी कोर्ट की मंजूरी नहीं लेनी पड़ती। इसमें कोई भी दल अपनी ‘प्रायवेसी की रक्षा’ की गुहार नहीं करता। तलाकशुदा रहते हुए दोनो एक दूसरे के कपड़े उतारने से गुरेज नहीं करते और ‘शादी’ होते ही परस्पर स्वस्ति वाचन में देर नहीं करते। दुश्मनी के वायरस को जिंदा रखते हुए दोस्ती का दंभ ही विस्तारित पारिवारिक रिश्ता है। ऐसी ‘निजता की रक्षा’ की अपील भी क्या अपने आप में मजाक नहीं है?  
लेखक वरिष्ठ संपादक सुबह सवेरे दैनिक मध्य प्रदेश 

ऊपर का खेल-सुरेश सौरभ

लघुकथा
सुरेश सौरभ


- हुंह ...अब क्या करोगे?
-आराम।
-सरे राह जब एक अबला लुट रही थी,तब तुम वहां खामोश मुंह लटकाए क्यों खड़े थे, तुम्हें उसे बचाना था?
-खामोश रहना ही हमारी ड्यूटी थी वहां।
-पुलिस होकर भी?
-हां ।
फिर निलंबित काहे हुए?
-ये राजनीति है, तू न समझेगी भाग्यवान।
-फिर अब?
-छःमाह आराम से मौज काट, मनचाहे मलाईदार थाने में अपनी तैनाती कराऊंगा?
-ओह! मैं तो तुम्हारे निलंबन से खामखा परेशान हो गई थी?
-जब तक ऊपर वालों का सिर पर हाथ है, नीचे वाले मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं?

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी

योगी को विधान सभा चुनाव में बुरे परिणाम का भय, हर हथकंडा अपनाने को आतुर दिखती बीजेपी-आरएसएस-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


एन०एल०वर्मा
         जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में सत्ताधारी बीजेपी पार्टी के स्थानीय नेताओं और जिला प्रशासन द्वारा मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी के जिला पंचायत सदस्यों और क्षेत्र पंचायत सदस्यों के साथ घोर अराजकता, गुंडागर्दी, मारपीट,बवाल,बम-बंदूक,अपहरण,महिलाओं के साथ अश्लीलता,कानूनी जुल्म और अमर्यादित जैसे आचरण से लोकतंत्र पूरी तरह से शर्मसार होता दिखाई दिया। विपक्षी पार्टी के वे सभी सम्मानित सदस्यगण हृदय से बधाई के पात्र हैं जो जिस राजनैतिक दल की सामाजिक विचारधारा के आधार पर जनता का सहयोग और समर्थन मांगकर चुनाव लड़े और जीते और फिर जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में सत्ता के जोर-जुल्म के बावजूद उस दल की विचारधारा- निष्ठा और उसके अधिकृत चुनाव प्रत्याशियो के प्रति अंतिम समय तक खड़े-डटे रहे और अपनी राजनैतिक दलीय विश्वसनीयता और प्रतिबद्धता को प्रमाणित करने का काम किया है। कुछ सदस्यों ने दोनों नावों पर पैर रखकर राजनैतिक वैतरणी पार की है, लेकिन ऐसे लोगों की कलई देर-सबेर खुल ही जाती है। पंचायत चुनावी हार की समीक्षा कर, शीर्ष नेतृत्व को ऐसे दोहरे चरित्र और अवसरवादी-अविश्वसनीय सदस्यों की पहचान कर भविष्य में इनका पूरा ध्यान रखना चाहिए।

          जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी का दबाव हमेशा काम करता रहा है।किंतु इस बार चुनावों में पारदर्शिता और निष्पक्षता की लोकतांत्रिक और पार्टी विद डिफरेंस की दुहाई देने वाली कैडर आधारित सांस्कृतिक बीजेपी ने तो अलोकतांत्रिक आचरण के सभी रिकॉर्ड तोड़ती नज़र आई। जिला पंचायत सदस्यों और क्षेत्र पंचायत सदस्यों के और बंगाल विधानसभा चुनाव में जनता की नाराज़गी से बुरी तरह मात खाई बीजेपी के लिए जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनावों को येनकेन-प्रकारेण जीतना राजनैतिक जीवन-मरण का विषय बन गया था। जनता से मिली हार से बीजेपी बुरी तरह बौखलाहट और राजनैतिक संकट के दौर से गुजरने के विवश होती दिखाई दे रही थी। इसलिए जिला प्रशासन और स्थानीय सत्तारूढ़ भाजपा नेताओं द्वारा सदस्यों के बहुमत के समुचित प्रबंधन के आश्वासन के बाद ही शासन द्वारा चुनाव घोषणा की योजना बनाई गई। जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनावों को जीतकर बीजेपी जनता में यह संदेश पहुंचाने का भरपूर प्रयास करेगी कि अब जनता के बीच बीजेपी पहले से ज्यादा लोकप्रिय और विश्वसनीय बनती जा रही है। यदि सत्तारूढ़ दल इसी तरह आचरण करते रहे तो देश मे लोकतंत्र खत्म हो जाएगा। मुझे यह कहने में कोई संकोच्च नही है कि आज के दौर में सत्ता पर अतिक्रमण करने के चक्कर मे राजनैतिक दलों और उनके नेताओं ने लोकतंत्र की हत्या कर दी है और वह मृत अवस्था में भौतिक रूप से केवल दिखाई पड़ता है। कोविड महामारी नियंत्रण, शिक्षा, स्वास्थ्य ,रोजगार, पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस की मंहगाई,अर्थव्यवस्था की जीडीपी और कानून व्यवस्था पर केन्द्र व राज्य सरकार पूरी तरह विफल होती दिखाई पड़ चुकी है।किसानों की फसलों को एमएसपी पर बिकवाने और उसका समयान्तर्गत भुगतान कराने में सरकार पूरी तरह विफल सिद्ध हुई है। आज अधिकांश संवैधानिक संस्थाएं सरकार के पिंजरे में कैद होती असहाय नज़र आ रही हैं। देश के ओबीसी और एससी-एसटी के संवैधानिक आरक्षण को अप्रत्यक्ष रूप से खत्म करने की अनवरत साजिशें जारी हैं। लेकिन ये वर्ग छोटे-छोटे तात्कालिक चुनावी प्रलोभनों में फंसकर अपनी आने वाली पीढ़ी के साथ होने वाले अहित-अनिष्ट को समझ नही पा रहा है। आरएसएस संचालित बीजेपी सरकार की रीतियों- नीतियों से देश की अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक संस्थानों, ओबीसी-एससी-एसटी और अल्पसंख्यक वर्ग की पीढ़ियों का भविष्य घोर अंधकार की ओर जाता नज़र आ रहा है।
          जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी और प्रशासन ने जिस चरित्र का परिचय दिया है उससे आगामी विधानसभा चुनावों की निष्पक्षता और स्वतंत्रता के प्रति आशंकित और भयभीत होना स्वाभाविक है और पंचायत अध्यक्ष/ब्लॉक प्रमुख पदों पर कब्ज़ा कर जिसे लोकतंत्र में चुनाव जीतना कहा जाता है।केवल चुनाव जीतकर सरकार बनाना या सत्ता पर कब्जा करना ही लोकतंत्र नही है बल्कि,संवैधानिक व्यवथाओं,मूल्यों और मर्यादाओं का मान रखते हुए चुनाव में जनता का सहज,निष्पक्ष और भयमुक्त समर्थन प्राप्त कर जीत हासिल करना असली लोकतंत्र की पहचान होती है। सरकार शायद आम जनता को यह संदेश भी देना चाहती है कि सरकार जो चाहे, वह कर सकती है। विधानसभा चुनावों से ठीक पहले आनन-फानन जनसंख्या नियंत्रण कानून ,धर्मांतरण कानून,हिन्दू-मुसलमान, राष्ट्रवाद-देश भक्ति,भारत-पाकिस्तान और साम्प्रदायिक आतंकवादियों के मुद्दे छोड़ना किस ओर संकेत कर रहे हैं? देश का किसान सात महीनों से सर्दी-धूप-बरसात में बैठा तीनों कृषि कांनूनों की वापसी और अपनी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिए सरकार की ओर टकटकी लगाए बैठा है और देश के बेरोजगार सड़कों पर आंदोलनरत है। यूपी में गन्ना मूल्य के भुगतान के लिए  किसान गन्ना मिलों और गन्ना समितियों पर धरना-प्रदर्शन कर रहा है। डीए/डीआर (मंहगाई भत्ता/मंहगाई) की किस्तें फ्रीज़ होने से सरकारी कर्मचारियों/पेंशनर्स को लाखों रुपयों का नुकसान हो चुका है।सरकारी कर्मचारियों में ओपीएस बनाम एनपीएस की लम्बे समय से जद्दोजहद चल रही है। किन्तु सरकार के पास इन मुद्दों और लोगों पर ध्यान देने की फुर्सत नही है। सरकार आगामी विधानसभा चुनावी समीकरण दुरुस्त करने के चक्कर में मंत्रिमंडल के दलीय,जातीय और क्षेत्रीय आधार पर विस्तार करने में जुटी है और देश की मुख्यधारा का बिका हुआ मीडिया उसके कुशल प्रबंधन और विज्ञापन में पूरी मुस्तैदी से लगा हुआ है और करोड़ों-करोड़ के बजट हड़पने में जुटा हुआ है।

            जिला पंचायत सदस्यों और क्षेत्र पंचायत सदस्यों के चुनाव में जनता बीजेपी के प्रत्याशियों को समर्थन और सहयोग न देकर सरकार की नीतियों और रीतियों के प्रति अपना आक्रोश और असहमति व्यक्त कर यह साबित करने का स्पष्ट संकेत दे गयी है कि आगामी विधानसभा चुनाव में वह उस जोश-उमंग-विश्वास के साथ बीजेपी के साथ खड़ी नज़र नही आएगी जैसा 2017 में आई थी। बीजेपी सरकार भी इस बात को अच्छी तरह समझ चुकी है। इसलिए अब वह  वे सभी सामाजिक,धार्मिक और राजनैतिक हथकंडे अपनाएगी जो आगामी विधानसभा चुनाव में उसकी जीत के लिए मुफीद साबित होगी।

🙏 .... लखीमपुर-खीरी (यूपी).....9415461224......8858656000


Tuesday, July 13, 2021

आन्दोलन में केवल किसान ही क्यों?-अखिलेश कुमार अरुण


उन किसानों का जमाना गया जिन्हें अस्सी-नब्बे के दशकों वाली फिल्मों में दर्शाया जाता था। मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास में कभी हरिया तो कभी हल्कू बनकर आता था। मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में चरित्र अभिनेता के किरदार में एक दरिद्र होता था। अब किसान खुद का जमीदार है सब कुछ बदल देने की क्षमता रखता है।
देश के किसानों को दिल्ली के तरफ कूच किए हुए लगभग एक महीनें का समय बीत गया है कितने किसान अभी तक इस आन्दोलन के भेंट चढ़ गए हैं और न जाने अभी और कितने मरेंगे। किसान और सरकार दोनों का अभी आमना-सामना नहीं हुआ है। किसानों के लिए दिल्ली अभी दूर है क्योंकि प्रषासन का दुरपयोग भरपूर है। रह-रहकर पुलिस और किसानों की आपसी झड़पें सामने आ रही हैं। आधुनिक तकनिकी के युग में सरकार चिट्ठी-चर्चा कर रही है। यहां आपका डिजिटल इण्डिया फेल हो रहा है, किसानों की समस्याओं को डिजिटल इण्डिया के माध्यम से भी सल्टाया जा सकता है किन्तु सरकार अपने मनमाने रेवैये से किसानों को बरगलाकर केवल और केवल अडानी-अम्बानी ग्रुप को लाभ पहुँचाने के लिए काम कर रही  है। वर्तमान सरकार को ध्यान में रखना चाहिए कि जो किसान आज घर-बार छोड़कर रोड पर आ खड़े हुए हैं। वही किसान आपको गद्दी पर बिठाएं हैं इसलिए नहीं कि आप उनके साथ मनमानी करें और उनके ऊपर अंग्रेजियत कानून को थोपने का काम करें।किसान आंदोलन से कांग्रेस को फायदा होगा, लेकिन मोदी सरकार को नुकसान नहीं -  Farmer Protest may benefit Congress but will not affect Indian Politics and  Modi BJP govt

26 नवंबर से दिल्ली के बॉर्डर पर जुटे किसान नये कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े हुए हैं। इस बीच सरकार के साथ बातचीत को लेकर किसान संगठनों की मीटिंग हो रही है किन्तु नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात। जिम्मेदार अपना पल्ला छुड़ाने के लिए किसानो पर तोहमत मढ़ रहे हैं की यह भाड़े के किसान हैं, इन्हें आतंकवादी संघठन फंडिंग कर रहे हैं, तो कोई यहाँ तक कह रहा है कि यह किसान कम किसानों के भेष में रहीस ज्यादा लग रहे हैं। अब बताईये किसान को लक-दक कपड़े पहनने का भी अधिकार नहीं वह बीते जमाने के किसानों की तरह फटे-पुराने अंगवस्त्रों में साहबों के सामने गिड़गिड़ाता फिरे, जमींदारों के रहमों करमों पर पले। उन किसानों का जमाना गया जिन्हें अस्सी-नब्बे के दशकों वाली फिल्मों में दर्शाया जाता था। मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास में कभी हरिया तो कभी हल्कू बनकर आता था। मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं में चरित्र अभिनेता के किरदार में एक दरिद्र होता था। अब किसान खुद का जमीदार है सब कुछ बदल देने की क्षमता रखता है। अडानी और अम्बानी सरकार बना सकते हैं तो किसान गिरवा भी सकते हैं।

भारत देष की जनता उस चूहे की बोध कथा की जैसी है जिसमें एक कसाई के घर में चूहा बिल बना कर रहता है चूहे को पकड़ने के लिए कसाई एक दिन चूहेदानी लेकर आता है। इस आने वाले खतरे को भांप कर चूहा वहां पर निवास करने वाले मूर्गे, कबूतर और बकरे को बताता है किन्तु वे इसे अन्यथा में लेते हैं और चूहे की खिल्ली उड़ाते हैं। चूहेदानी में उसी रात चूहे की जगह सांप फंस जाता है रात के अन्धेरे में कसाई की पत्नी चूहेदानी के पास जाती है जिसको चूहेदानी में फंसा, साँप डंस लेता है, वैद्य के उपचारोपरान्त उसे कबूतर का सूप पीने की सलाह दी जाती है। पत्नी के ठीक हाने पर नाते-रिस्तेदारों में बकरे और मुर्गे की दावत दी जाती है। बात छोटी है किन्तु संदेष बहुत बड़ा है एक-एक करके कई सरकारी संसथाएं नीजी कर दी गई तब कोई नहीं उनके सपोर्ट में आया, अब किसानों की बारी है उनके साथ भी वही सलूक बदस्तूर जारी है।
अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम-हजरतपुर, जिला-खीरी, उप्र
8127698147

Monday, July 12, 2021

दलित पत्रकारिता का नायाब नगीना थे महीपाल सिंह-डी०के०भास्कर

महीपाल सिंह
 (सम्पादक-दलित टुडे)
 "वह आम आदमी की पीड़ा को प्रखरता मुखरता से बल देते थे। वे किसी भी तरह से डरने वाले नहीं थे, इसलिए वह अदम्य साहस के साथ लिखते थे। अम्बेडकरवाद के प्रति प्रतिबद्धता ही थी कि कोई उनके लेखन का कायल हुए बिना नहीं रह सकता था। उन्होंने कांग्रेस मुखिया सोनिया गाँधी को इंगित करते हुए लिखा था कि हमें सत्ता चाहिए, सांत्वना नहीं।' कांग्रेस दलितों को सांत्वना देती रही, मगर सत्ता का असली मजा, वही लेती रही।"
जब भारत में दलित पत्रकारिता का इतिहास लिखा जाएगा, तब महीपाल सिंह (सम्पादक-दलित टुडे) का नाम आदर के साथ अंकित किया जाएगा। मैंने दर्जन भर सम्पादकों-पत्रकारों के सम्पादकीय लेख पढ़े हैं, मगर वे बेजान, नीरस और बोझिल से बन पड़ते हैं। एक महीपाल सिंह ही थे, जिनके लेखन को पढ़कर ऊर्जा का संचार होता था, जज्बा-जोश भर उठता था। निराशा काफूर हो जाती थी। सच्चे अर्थों में वह अर्थपूर्ण पत्रकारिता कर रहे थे, जिनके लफ्ज-लफ्ज में मिशन था, एक स्पष्ट सोच और निश्चित दिशा थी। वह आम आदमी की पीड़ा को प्रखरता मुखरता से बल देते थे। वे किसी भी तरह से डरने वाले नहीं थे, इसलिए वह अदम्य साहस के साथ लिखते थे।

उदारमना महीपाल सिंह का जन्म- 3 मार्च 1955 (अभिलेखानुसार) को उत्तर प्रदेश के वर्तमान हापुड़ (तत्कालीन गाजियाबाद) जनपद के गाँव धौलाना में पिता लेखराज सिंह और माता बलदेई के यहाँ हुआ था। उनके पिता के चार संतानें हुईं, जिनमें वह भाई ब्रजेन्द्र सिंह, बहनें रामवती एवं राजवती हैं। पिता किसान थे, महीपाल सिंह एम.ए तक पढ़े थे, उनके पिता उन्हें अफसर बनाना चाहते थे, मगर वह अपनी धुन के पक्के थे, उन्हें पत्रकारिता का शौक चराया हुआ था। उनके पिता पत्रकारिता-लेखन के सख्त खिलाफ थे। इस प्रकार पिता-पुत्र में मनमुटाव पनपने लगा। वह गाँव से शहर गाजियाबाद आ गए और किराए पर रहकर पत्रकारिता में जुट गए। एक बार उन्होंने बताया कि वह अपने चाचा जी के यहाँ किराएदार की तरह रहते थे, मगर चाचाजी उनसे किराया नहीं लेते थे। उन्होंने करीब 39 वर्ष की उम्र में विनीता सिंह जी (राजपूत) से शादी की, जिन्होंने हर तरह से अपने पति का साथ दिया। उनके एक पुत्र शुभम सिंह पैदा हुआ। अब दोनों माँ-बेटा शास्त्री नगर स्थित आवास पर रह रहे हैं।

मा. सिंह साहब ने कई अखबार वीर अर्जुन, जनसत्ता, दैनिक जागरण जैसे समाचार पत्रों में लिखा। जब मुख्यधारा के अखबारों में लिखते-लिखते ऊब गए, तो उन्होंने अपना मासिक समाचार पत्र 'अल्पतंत्र' निकाला। बाद में वह अखबार बंद हो गया, तब तमाम मिशनरी साथियों के सहयोग से अक्टूबर 2001 से दलित टुडे हिन्दी मासिक पत्रिका का सम्पादन किया। दलित टुडे पत्रिका ने दलित पत्रकारिता के क्षेत्र में ऊँचा मुकाम हासिल किया। वह देश की पहली अनूठी पत्रिका बन गई, जो वैचारिक आन्दोलन की धार पैनी कर रही थी। दलितों की मुखर आवाज बन गई थी। दलित टुडे का कलेवर तीखा और उनकी लेखन शैली मारक थी। देशभर में उसके मुकाबले कोई पत्र-पत्रिका नहीं दिखती, जो दलित आन्दोलन के लिए ईमानदारी से समर्पित हो। उनका किसी भी राजनीतिक दल की ओर से झुकाव नहीं था। हाँ, दलित होने के नाते बसपा से सहानुभूति थी, मगर वह बहन मायावती जी की बदली हुई कार्यशैली से नाखुश थे। वह डॉ. बी.पी. मौर्य को अपना राजनैतिक गुरु मानते थे। इस सबसे अलग उनकी प्रतिबद्धता केवल दलित आन्दोलन से गहरे तक जुड़ी थी। वह कहते थे कि "जब तक जिन्दा रहूँगा अम्बेडकर मिशन के लिए कार्य करता रहूँगा।" पत्रिका का उद्देश्य बताते हुए वह कहते थे कि "मैं अम्बेडकरवाद की नर्सरी लगा रहा हूँ।"

और उन्होंने ऐसा किया भी। मैं उनसे जुलाई 2002 में जुड़ा। दलित टुडे का जून अंक-2002 पढ़कर उन्हें पत्र लिखा। अगस्त में फोन से बात हुई। मैंने पत्रिका की तारीफ की, तो वह बोले-'भई आपकी ही पत्रिका है। मैं तभी से दलित टुडे से गहराई से जुड़ गया और मुझे लगा कि यह जुड़ाव अटूट हो गया है। मगर 2 अक्टूबर, 2013 को सर गंगाराम हॉस्पिटल नई दिल्ली में उन्होंने अन्तिम सांस ली। सब कुछ रेत की दीवार की तरह ढह गया। उनके निधन से दलित पत्रकारिता और दलित आन्दोलन को गहरी क्षति हुई। बिना लाग-लपेट, बिल्कुल खरा-खरा लिखने वाला, एक जहीन कलमकार चला गया एक शून्य छोड़कर... उनके चले जाने के बाद कई लोगों की मुझे कॉल आई, जिनमें गाजियाबाद से रिसाल सिंह जी, मेरठ से डॉ० रामगोपाल भारतीय जी, मोदी नगर से देशराज भारती जी ने दलित टुडे को जीवित रखने की कोशिशों को बल दिया। मगर मैं यह सब करने में असफल रहा, तमाम शुभचिंतकों ने सहयोग का वादा किया, मगर दलित टुडे पुनर्जीवित नहीं हो सकी। तब मुझे एहसास हुआ कि हम सिंह साहब के उत्तराधिकार को संभालने में विफल रहे।

वह इतना साहस कहाँ से लाते थे कोई ज्ञात स्रोत नहीं है, मगर अम्बेडकरवाद के प्रति प्रतिबद्धता ही थी कि कोई उनके लेखन का कायल हुए बिना नहीं रह सकता था। उन्होंने कांग्रेस मुखिया सोनिया गाँधी को इंगित करते हुए लिखा था कि हमें सत्ता चाहिए, सांत्वना नहीं।' कांग्रेस दलितों को सांत्वना देती रही, मगर सत्ता का असली मजा, वही लेती रही। एक बार उन्होंने लिखा था कि सरकार सार्वजनिक उपक्रमों को निजी क्षेत्र में बेच रही है, बहाना यह बना रही है कि घाटे में चल रही है। उनका कहना था कि अर्थव्यवस्था का राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा है; इसे क्यों नहीं बेच देती? अपने अन्तिम सम्पादकीय में वह लिखते हैं कि दलित टुडे का उद्देश्य किसी को खुश करना अथवा नाखुश करना कदापि नहीं रहा। वैसे भी पत्रकारिता का मतलब वस्तुस्थिति को तथ्यात्मक रूप से प्रस्तुत करना। है। हम बाबा साहेब के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाकर दलितों को जुल्म और जालिम के खिलाफ जंग के लिए तैयार करना चाहते हैं। वह यह भी लिखते हैं कि दलितों को भी चाहिए कि वह ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद को गाली देने में अपनी शक्ति क्षीण न करें वरन् उनसे सीख लेकर अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर एकजुट हों, तभी जाकर दलित अपने दलितपन से पीछा छुड़ा सकते हैं।

लेखक डिप्रेस्ड एक्स्प्रेस (मासिक पत्रिका) मथुरा के सम्पादक हैं

Sunday, July 11, 2021

मेरी अजीब किस्मत, -रिंकी सिद्धार्थ

    भाग दो   
समाज को आईना दिखाती एक लड़की के जीवन के संघर्षों की सच्ची कहानी
शहर में वैसे ही घर वालों के अत्याचार सहकर लड़कीयां जीवन व्यतीत करती रही। रीना कभी-कभी सोचती आखिर शहर में आने से उसकी जिंदगी में क्या परिवर्तन हुआ। गांव में  दादी और चाची ने कहा था कि शहर में अच्छे स्कूल में पढ़ने को मिलेगा, अच्छे टूयूसन टीचर लगेंगे और उसकी बिमारी का डॉ से इलाज होगा जिससे उसकी बचपन की बिमारी ठीक हो जायेगी। उसके साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसे तो ऐसे ही मुफ्त के एक स्कूल में डाल दिया गया जहां बच्चों की फीस भी नहीं पड़ती थी। किताब भी किसी से मांग कर दिला दी जाती थी। उसका कोई टूयूसन भी नहीं लगाया गया और घर में उसे कोई पढ़ाता नहीं था। उसे तो खुद ही पढ़ना पडता गांव में तो चाचा और बाबा उसे पूछने पर पढा भी देते थे। यहां अगर वो अपने मां बाप से कहती तो उसे कुछ काम के लिए बोल देते और दवा के नाम पर उसे नीम का चंदन, बांस जला कर लगाना, मिट्टी का तेल ,हल्दी चुना जैसे घरेलू नुस्खे करने को बोल देते जैसा गांव में होता था। साल में दो बार ही कपड़े दिलाये जाते होली और दिवाली इसके अलावा स्कूल की ड्रस, जूते, एक हवाई चप्पल, खाना, रहना इतना ही मिलता था। 

वे दोनों बहनें स्कूल पैदल ही पढने जाती थी। इतना मिलने के लिए उन्हें घर के काम करने पड़ते अगर मना करती तो मार खाती उन्हें बोलते हमारे घर मे रह रही हो छत रोटी कपड़ा मिल रहा है तन ढकने को तो दिमाग खराब है। बड़ी बहन थोड़ी बड़ी थी तो उस वक्त ज्यादा काम उसी को करना पड़ता और मार भी वो ही ज्यादा खाती थी। रीना की बिमारी धीरे-धीरे बढ़ रही थी। जब एक साल बाद वो गांव गई तो दादी और चाची उसकी हालत देखकर उन्हें डॉटने लगी। शहर में डॉ है सरकारी नौकरी से दोनों पैसा भी अच्छा कमा रहे तो भी बेटी का इलाज क्यों नहीं कराया। दादी को बोल दिया गया  बचपन की बिमारी है तो इलाज कराने से क्या फायदा और तुम को इससे ज्यादा हमदर्दी है तो तुम ही करा लो। तब दादी बोली मैं 70 साल की बुढिया अनपढ़ गांव में रहने वाली कमाती भी नहीं गांव में तो अच्छे डॉ भी नहीं। मैं इसका इलाज कहां कराऊँ फिर वो वापस शहर आ गई थी। 

सोचती कि उसके पूरे घर में कोई भी ऐसा नहीं है दादी, नानी ,मामीयां ,चाचीयां,बुआ ,मौसीयां,जो अपनी बेटियों के साथ ऐसा व्यवहार करती हो बल्कि उसकी नानी तो पुराने जमाने की सिर्फ पांच पास टीचर थी। वह अपने चारों बच्चों बेटा बेटी सब को डॉ,  इंजीनीयर, वकील, टीचर, बनाने की सोचती थी। नानी-नाना दोंनों ही नौकरी करते थे।इसीलिए सारे बच्चों को पढ़ाने के लिए घर में टूयूसन टीचर बुलाते थे। यहां तक की उसकी माँ जब नौ में आई तो फेल हो गई फिर वो जब स्कूल से घर आई सीधे छत पर जाकर रोने लगी। तब उसके नाना, नानी दोनों उसकी माँ के पास गये और बोले चिंता क्यों करती हो तुम्हारे मां बाप जिंदा है चाहे जितनी भी टूयूसन लगानी पड़े तुम पढना चाहती हो तो हम पढायेगें। तुम्हें उस के बाद उसकी माँ को दो घंटा पढ़वाने लगे बाकी बच्चों को एक घंटा क्योंकि वो फेल हो चुकी थी। 

मां बाप के ज्यादा ध्यान देने की वजह से वो दस पास कर ली और दस करने के बाद उनकी मां ने उन्हें नौकरी मिलने का प्रार्थना पत्र डलवा दिया उस जमाने में दस पास को नौकरी मिल जाती थी। उसके बाद नानी ने उसकी माँ की शादी कर दी उसकी माँ को नौकरी मिल गई इसकी खबर उन्हें शादी के बाद मिली तब तक उसकी दादी बहुँओ के नौकरी के खिलाफ थी, पढ़ाई के खिलाफ नहीं थी। पर उनका कहना था कि अगर पति अच्छा कमाता हैं तो  औरत को नौकरी नहीं करनी चाहिए दोनों बाहर कमाने जाते हैं। घर बर्बाद हो जाता तब उसकी नानी दादी के यहां आकर लड़ाई, शादी, बेटी हमारी है। हम इसको नौकरी जरूर करायेगें कल कोई बुरा वक्त पड़े तो ये ससुराल या मायके के सहारे न रहे अपनी जिंदगी खुद की कमाई से जी ले इसलिए हमने इसको इतना पढ़ाया हैं। हमारी बेटी को किसी के सहारे जिंदा न रहना पड़े फिर उसकी दादी भी मान गई ये सब बातें उसकी माँ ही बताती रहती थी।अक्सर चाचीयों को ,दादी ने भी अपनी जिम्मेदारी बहुत अच्छे से निभाई थी दादी तो गांव की अनपढ़ औरत थी फिर भी उन्होने अपने बेटा बेटी सब को बहुत पढ़ाया उस वक़्त उतना कोई उनके पूरे गांव में नहीं पढ़ा था और अपने सारे बच्चों को पैरों पर खड़ा किया यहां तक की जब उसकी बुआ पर ससुराल में अत्याचार हुआ तो दादीे बुआ को वापस बुला ली और घर में बेटों के बराबर का हिस्सा भी बेटी को दिया ताकि दादी बाबा के मरने के बाद बुआ के साथ कोई बुरा व्यवहार न करे और बेटी को उतने ही सम्मान से रखा जैसे बेटो को रखती थी।  

हां बस एक बात उनकी जो लोगों को बुरी लगी पर रीना को सही लगी कि अगर दोनों घर के बाहर पैसा कमाने जाते हैं तो उनके बच्चों की अच्छी परवरिश नहीं हो पाती लेकिन बाद में तो दादी भी बदल गई। उसके बाद उनकी जितनी बहुंयें आई सब ने नौकरी की पर हां सब ने नौकरी के साथ अपने बच्चों की परवरिश में भी कोई कमी नहीं आने दी। उनकी नौकरी से जो ज्यादा पैसे घर में आये उससे उनके बच्चों की पढाई दवाई और अच्छी हो सकी रीना सोचती उसके परिवार में कोई भी तो ऐसा नहीं है जो बेटियों को उनके बेसिक अधिकार भी न दे। जो हर बच्चे का हक है दवाई पढाई और सम्मान, जैसे जितनी कमाई है जिसके पास सब उस हिसाब से अपने बच्चों को अच्छे स्कूलो में पढ़ाते, अच्छे डॉ को दिखाते, सम्मान से रखते और जब कभी उसकी चचेरी बहनो को उसके चाचा या चाची बिमारी की दवा दिलाने शहर लाते तो उन्हें भाई के घर छोड जाते क्योंकि रीना की चचेरी बहनो को भी एक को त्वचा की दूसरी को बाल की बिमारी थी।  

उनका शहर से बराबर कई सालों तक इलाज चलता था। यह देख कर रीना और उसकी बड़ी बहन अक्सर बातें करती इससे तो अच्छा होता हम भी गांव में ही होते कम से कम परिवार वालों के डर से ही सही गाँव में ही उनकी अच्छी पढ़ाई दवाई हो जाती और इतना मार भी नहीं खाती इतनी बेज्जती भी न होती मोहल्ले में क्योंकि उनके घर में जब भी नया झाड़ू आता किसी न किसी बात पर उसकी बड़ी बहन को जरूर उसी नये झाड़ू से पिटा जाता। मतलब नये फूलझाड़ू की सफाई बेटियों पर करते थे। मां-बाप झाड़ू मजबूत नहीं हो तब चप्पल जूते डंडे से मार पड़ती थी। उन्हें .ये सब सिर्फ उनके साथ ही हो रहा था पूरे परिवार की बेटीयों को छोड़कर हां सिर्फ एक मौसी थी।उसकी जिन्हें भी बहुत पुत्र मोह था पर वो भी रीना की मां के जैसी नहीं थी वो बेटे को ज्यादा प्यार जरूर करती थी।पर बेटीयों का पूरा हक उन्हें देती थी बेटीयों की पढाई, दवाई, सम्मान में कोई कमी नहीं करती थी दूर से देखकर तो ऐसा ही लगता था उसे उनके घर भी बहुत बाद में आना जाना शुरू हुआ उन लोगों का तब तक रीना 7 में आ चुकी थी उस जमाने में फोन इतने सस्ते तो नहीं थे कि रोज बात हो जाये सबसे और वो दूसरे शहर में रहती थी तो बहुत कम मिलना होता उनसे हां बस जब रीना 7 में थी। 

एक बार उसके मां बाप रीना को लेकर बहन के घर गये थे तब मौसी ने रीना को रोक लिया था। ये बोलकर हम बाद में लेकर आयेगें इसको तब कुछ दिनों के लिए रीना उनके घर रूकी थी। गांव से आने के बाद वही दिन रीना की जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन थे। उन दिनो में उसे कभी भी ऐसा नहीं लगा मौसी बेटी बेटा में भेद करती हैं और वही रीना ने साइकिल चलाना सीखा था। खूब मस्ती की इसीलिए रीना को वो भी अपने मां बाप के जैसे नहीं लगे मौसा को ज्योतिष का अच्छी जानकारी थी। एक दिन मौसा ने रीना को बताया तुम जीवन में पहले बहुत तकलीफ पाओगी पर आगे तुम्हें बहुत खुशयां मिलेगी तब रीना हंसते हुये बोली क्या बुढ़ापे में मुझे खुशी मिलेगी मौसा तब वो भी हंसने लगे खैर रीना को लगता था उसकी माँ बेटो के साथ अच्छा सिर्फ इसलिए करती थी। क्योंकि उन्हें बुढ़ापे का डर है भारतीय परम्परा के अनुसार मां बाप बेटीयों के घर का पानी भी नहीं पीते है। 

बेटों के साथ ही रहते बुढ़ापे में जब शरीर काम नहीं करेगा तो पास में पैसा होकर भी वो खुद अकेले डॉ के यहां नहीं जा पायेगें तो उनका बुढ़ापा अच्छे से बीते पैसे के लालच में ही सही बेटे उनकी सेवा करेंगे बुढापे में कोई चाहिए सेवा करने वाला अगर रीना के मां बाप को बुढ़ापे का डर नहीं होता तो शायद वो किसी पर अपना एक रूपया खर्च नहीं करती, और हिटलर की तरह सब को अपना गुलाम बना कर रखते रीना के मां बाप बहुत स्वार्थी लोग थे जो सिर्फ अपना जीवन अच्छे से बिताना चाहते थे। अपना वर्तमान और भविष्य बनाने के लिए वो अपने बच्चों का वर्तमान और भविष्य दोनों बर्बाद कर रहे थे पर उन्हें उस वक्त शायद ये नहीं पता था सब को 84 योनियों में एक बार ही मनुष्य जीवन मिलता है और आप बच्चे सोचकर न इंसान समझ कर ही इंसानियत के नाते किसी दूसरे इंसान का मनुष्य जीवन बर्बाद न करना था क्योंकि बच्चे बीज की तरह होते हैं। उन्हें पढ़ाई, स्वास्थ्य,सम्मान,संस्कार ,का सही पोषण मिले तो आज का बच्चा चाहे गरीब का ही हो कल प्रधानमंत्री बन सकता और बच्चे हमारे देश का भविष्य है ये ही सोच कर कम से कम बच्चों के बेसिक हक उन्हें जरूर देती !
रिंकी सिद्धार्थ


पता-बनारस उत्तर  प्रदेश


Wednesday, July 07, 2021

ओबीसी और दलितों की सामाजिक वैचारिकी में संघर्ष-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एक विमर्श एससी, एसटी बनाम ओबीसी

"ऊंची कुर्सियों पर मात्र काबिज बने रहने के लिए वे राजनेता आंबेडकर को याद करते हैं जो वास्तव में उनकी वैचारिकी/सैद्धांतिकी की घोर खिलाफत में हमेशा खड़े नजर आते हैं।यह विडम्बना ही है कि वे आज उनके नाम में उनके पिता जी के नाम के "राम" को देखकर/जोड़कर अलग किस्म की धार्मिक सियासत करना चाहते हैं।"

✍️ दलित और ओबीसी की अधिकांश जातियां ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं और अपने परंपरागत पेशे से ही जीविका चलाती हैं। वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा पूरी तरह उन तक आज भी नहीं पहुंची है और सामाजिक स्तर पर छोटी-बड़ी (निम्न-उच्च) जातियों की मान्यता के साथ जाति व्यवस्था अच्छी तरह से अपने पैर जमाए हुए है। सामाजिक स्तर पर अनुसूचित और ओबीसी की जातियों के बीच आज के दौर में भी सामान्य रूप से खान-पान और उठने-बैठने का माहौल नहीं दिखता है। सामाजिक,राजनैतिक और सांस्कृतिक आंदोलनों की वजह से दलितों की सामाजिक और धार्मिक मान्यताओंं/परंपराओ/रीति-रिवाज़ों में परिवर्तन आना स्वाभाविक है। आंदोलनों से पूर्व दलित और ओबीसी हिन्दू धर्म,त्यौहारों,परम्पराओं और रीति-रिवाज़ों को एक ही तरह से मानते/मनाते थे। बौद्घ धर्म और आंबेडकरवादी विचारधारा के प्रवाह से अब अनुसूचित और ओबीसी की जातियों की धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाज़ों में काफी बदलाव/भिन्नता आ गयी है। शिक्षा की कमी के कारण ओबीसी के उत्थान के लिए आंबेडकर द्वारा बनाई गई संवैधानिक व्यवस्था को ओबीसी अभी भी नहीं समझ पा रहा है। जातीय श्रेष्ठता की झूठी शान और सामाजिक/धार्मिक रीति-रिवाज़ों में अंतर/भिन्नता के कारण दोनों में सामाजिक और राजनैतिक सामंजस्य की भी कमी दिखती है। सदैव सत्ता में बने रहने वाले जाति आधारित व्यवस्था के पोषक तत्वों/मनुवादियों द्वारा आग में घी डालकर इस दूरी को बनाए रखने का कार्य बखूबी किया गया और आज भी...। ओबीसी इन मनुवादियों की साज़िशों और आंबेडकर की वैचारिकी का अपने हित में अवलोकन-आंकलन नहीं कर पाया और न ही कर पा रहा है,क्योंकि वह आंबेडकर के व्यक्तित्व व कृतित्व को जाति विशेष होने के पूर्वाग्रह के कारण उनकी वैचारिकी और योगदान को पढ़ने से परहेज करता रहा और उसे आज भी पढ़ने में हीनभावना/संकोच जैसा लगता है। यहां तक कि,आंबेडकर की वैचारिकी के सार्वजनिक मंचों को साझा करने में भी उसे शर्म आती है। देश के सत्ता प्रतिष्ठान आंबेडकर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक जाति/समाज विशेष के खांचे में बन्द कर,इस क़दर प्रचार-प्रसार करते रहे जिससे अनुसूचित और ओबीसी जातियों में सामाजिक/राजनीतिक एकता कायम न हो सके।आज यदि ओबीसी का कोई व्यक्ति आंबेडकर को कोसता है या अन्य की तुलना में कमतर समझता है,तो समझ जाइए कि उसने ओबीसी के उत्थान के लिए आंबेडकर की सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक मॉडल पर आधारित वैचारिकी को अभी तक पढ़ने/समझने का रंच मात्र प्रयास भी नहीं किया है। वह भूल जाता है कि वर्णव्यवस्था में अनुसूचित और ओबीसी की समस्त जातियां "शूद्र" वर्ण में ही समाहित हैं। अशिक्षा और अज्ञानता के कारण ओबीसी अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में केवल अनुसूचित जाति को ही शूद्र और नीच समझकर जगह-जगह पर अपनी अज्ञानता/मूर्खता का परिचय देता नजर आता है जिससे उनमें एकता के बजाय वैमनस्यता ही बनी हुई है।
✍️ओबीसी का बहुसंख्यक धर्म-ग्रंथ जैसे रामायण,रामचरित मानस,सत्यनारायण की कथा,भागवत,महाभारत,मंदिरों में स्थापित पत्थरों/धातुओ की जेवरात/हीरे/मोतियों से सुसुज्जित मूर्तियों के रूप में करोड़ों देवी-देवताओंं के चक्रव्यूह में फंसा रहता है। जबकि 85% शोषितों व वंचितों के कल्याण के लिए आंबेडकर की संवैधानिक व्यवस्थाएं एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति का विनाश) पुस्तक,साइमन कमीशन और गोल मेज कॉन्फ्रेंस के मुद्दे/विषय वस्तु और उद्देश्य,हिन्दू कोड बिल,काका कालेलकर और वीपी मंडल आयोग की सिफारिशें है जिनका अध्ययन और समझना आवश्यक है। शिक्षा,धन,धरती और राजपाट दलितों व ओबीसी की लड़ाई के असल मुद्दे हैं जहां से आपके और आपकी भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए रास्ते खुलते और प्रशस्त होते है। सत्ता के उच्च प्रतिष्ठान जैसे सरकार,कार्यपालिका,न्यायपालिका और मीडिया में शीर्ष पर काबिज कथित रूप से ब्रम्हमुख उत्पन्न प्रभु लोगो ने आपके लिए अभी तक क्या किया है?
✍️ डॉ आंबेडकर की बहुपटीय वैचारिकी को ईमानदारी से न तो देखा गया और न ही सार्वजनिक पटल पर लिखित/मौखिक रूप से प्रस्तुत किया गया। आज़ाद भारत की कई प्रकार की सत्ता संस्थाएं जैसे उच्च शिक्षण और अकादमिक संस्थाओ में ज्ञान की सत्ता,मीडिया और न्यायपालिका की सत्ता,संसद में राजपाट की सत्ता और समाज में धर्म या ब्राम्हणवाद की सत्ता काम करती हैं। क्या ये सारी सत्ताएं आंबेडकर की वैचारिकी को समग्रता में देखने व समझने में हमारी मददगार साबित होती है या फिर किन्हीं पूर्वाग्रहों का शिकार है?आंबेडकर की विचारधारा की परंपरा के अंतरराष्ट्रीय दलित चिंतक,दार्शनिक,साहित्यकार,आलोचक,गहन विश्लेषक,आईआईटी और आईआई एम जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण और अध्यापन कर चुके प्रो.आनन्द तेलतुंबडे को 14 अप्रैल,2020 को आंबेडकर की 129वीं जयंती पर भीमा कोरे गांव की घटना में एक आरोपी के पत्र/डायरी में "आनन्द" लिखा मिल जाने को आधार बनाकर बिना किसी जांच-पड़ताल के गिरफ्तार कर उस समय जेल जाने के लिए विवश किया जाता है जब कोविड- 19 के कारण जेलों में बन्द हजारों बंदियों/कैदियों को पैरोल पर रिहा किया जा रहा था। उनके साथ उनके साथी गौतम नौलखा को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा था।कोविड -19 के कालखंड में सरकार, प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी एडवाइजरी का पूरी तरह पालन करते हुए अपने घरों में आंबेडकर जयंती मनाने पर सरकार द्वारा राजनैतिक विद्वेष वश उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई किया जाना दुखद घटना थी,जबकि 22 मार्च और 5अप्रैल को एडवाइजरी की धज्जियां उड़ाते सड़क पर उतरे लोगों के खिलाफ स्थानीय प्रशासन द्वारा कोई कार्रवाई न किया जाना सरकार के दोहरे चरित्र की निशानी है।
✍️ दरअसल,आधुनिक दलित चिंतक सरकार पर यह सवाल उठाने लगे हैं,कि आखिर वे कौन है,जिनकी वजह से आजादी के सत्तर सालों में आंबेडकर के सपनो का भारत का निर्माण नहीं हो पाया है या नहीं हो पा रहा है?अर्थात आंबेडकर की राष्ट्र निर्माण की विचारधारा के हत्यारे कौन हैं?अध्ययन करने से पता चलता है कि आज देश का झूठ/फसाद की बुनियाद पर खड़ा आरएसएस जो कि दक्षिणपंथी विचारधारा का कट्टर समर्थक है,देश के सत्ता प्रतिष्ठानों की महत्वपूर्ण/ऊंची कुर्सियों पर मात्र काबिज बने रहने के लिए वे राजनेता आंबेडकर को याद करते हैं जो वास्तव में उनकी वैचारिकी/सैद्धांतिकी की घोर खिलाफत में हमेशा खड़े नजर आते हैं।यह विडम्बना ही है कि वे आज उनके नाम में उनके पिता जी के नाम के "राम" को देखकर/जोड़कर अलग किस्म की धार्मिक सियासत करना चाहते हैं।"सामाजिक न्याय के स्थान पर सामाजिक समरसता की वैचारिकी का आपस में घालमेल किया जा रहा है।" यह कार्य ओबीसी के लोग आरएसएस की प्रयोगशाला में प्रशक्षित होकर गांवों और शहरो में शाखाएं लगाकर बखूबी कर रहे हैं।संघ की विचारधारा का सबसे बड़ा और मज़बूत संवाहक आज ओबीसी ही बना हुआ है।संघ के लोग आंबेडकर के आरएसएस से राजनैतिक संबंधो की तरह-तरह की अफवाहें फैलाकर उनकी राजनीतिक विरासत को हड़पना/नष्ट करना चाहते हैं। गोलवलकर की पुस्तक "बंच ऑफ थाट्स" के हिंदी संस्करण "विचार नवनीत" में आंतरिक संकटों का जिक्र किया गया है जिसमें देश के मुसलमानों को पहला, ईसाईयों को दूसरा और कम्युनिस्टों को तीसरे संकट के रूप में रेखांकित किया गया है।
एन एल वर्मा 


पता-लखीमपुर-खीरी  (यूपी)
9415461224, 8858656000

Monday, July 05, 2021

मेरी अजीब किस्मत-रिंकी सिद्धार्थ


समाज को आईना दिखाती एक लड़की के जीवन के संघर्षों की सच्ची कहानी

गूगल से साभार
सीतापुर जिले के एक छोटे से गांव में सुधा और रज्जु अपने माता पिता और दो भाई और एक बहन जो कि ससुराल वालों के अत्याचारों से तंग आकर वापस मायके आ गई थी सब के साथ रहते थे रज्जू के दोनों भाईयों की शादी भी हो चुकी थी और उन दोनों के एक बेटी दो बेटे थे रज्जू ने भी सोचा था इसलिए रज्जु के जब एक बेटी और एक बेटा हुआ तब तक सब ठीक था दूसरे बेटे की आस में जब दूसरी बेटी पैदा हो गई तब तो जैसे उस लड़की ने एक ऐसी जगह पैदा होकर गुनाह कर दिया जहां लोग बेटा ही चाहते थे इसीलिए सुधा और रज्जु ने फिर से एक और बच्चा जनने की सोची और इस बार उनकी चाहत के अनुसार उन्हें एक और बेटा हो गया अब उनके भाईयो के दो बेटा और एक बेटी थी रज्जु और सुधा के दो बेटा और दो बेटीयां हो गई, उन्हें लगने लगा कि बेटियों की शादी करनी पड़ेगी जबकि उनके भाईयों को सिर्फ एक बेटी का ही खर्च उठाना पड़ेगा यह सोच कर वो दो बेटीयों को देखकर बहुत दुःखी रहते थे जैसे ही लड़कीयां थोडी बड़ी हुई उनकी लड़कीयों के लिये बुरे दिन आ गये। वो अपनी छोटी लड़की से तो ज्यादा ही नफरत करने लगे क्योंकि उसे वो बिलकुल भी नहीं चाहते थे वो तो दूसरे बेटे की चाहत में आ गई थी उनकी छोटी लड़की रीना की उम्र उस समय केव8 वर्ष की थी। 

जब उसके माता पिता ने गाँव छोड़ कर शहर में रहने का फैसला लिया, गांव में सारा परिवार साथ रहता था।  अतः मां बाप चाहते हुये भी अपनी बेटियों के साथ ज्यादा बुरा व्यवहार नहीं कर पाते थे बाकी परिवार वाले बेटियों को बचा लेता थे उनके जुल्म से. पर शहर आने पर माता पिता का व्यवहार बेटियों के प्रति और खराब होता चला गया गाँव में चैन से खेलने वाली लड़कियों को घर के काम में जुतना पड़ा। उन पति पत्नी के पास एक बहाना था क्योंकि वो दोनों पति पत्नी सरकारी नौकरी करते थे तो जब कभी कोई उन्हें बोलता आप छोटी बच्चीयों से इतना काम क्यों लेती है तो वो बोल देती मैं नौकरी करती हूं तो मुझे लड़कियों की मदद लेनी पड़ती हैं और लड़कीयां अगर उनकी बात न माने घर के काम न करके पढना चाहे तो वो लड़कीयों को चिल्लाते और मारते थे जब कोई पडोसी उनसे पूछता क्यों डाँट मार रही हैं लड़की को तो वो बोल देते हमारी बात नहीं मानती है इसलिए जबकि उनकी बड़ी बेटी और छोटी बेटी के बीच में एक बेटा था उससे कोई काम नहीं कहती करने को वो पढाई भी नहीं करता था सारा दिन वो सिर्फ टीवी देखता और दोस्तों के साथ घूमता फिर भी वो अपने बेटे को कभी डांटती भी नहीं थी पति कुछ बोले तो उसे भी रोक लेती लड़का है हमारे बुढ़ापे का सहारा है इसको कुछ मत बोलो. सुधा रुपवती और पैसा कमाने वाली स्त्री थी और रुप और गर्व में चोली-दामन का नाता है। 

वह अपने हाथों से कोई काम न करती।घर का सारा काम बेटियों से कराना चाहती।पिता की आँखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे अब बेटीयों में सब बुराइयाँ-ही- बुराइयाँ नजर आतीं थी बेटों में नहीं । सुधा की बातों को वह प्राचीन मर्यादानुसार आँखें बंद करके मान लेता था। बेटीयों की शिकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि बेटियों ने शिकायत करना ही छोड़ दिया। किसके सामने रोये? जब मां बाप ही गलत करते हैं , अब कुछ लोगों को छोड़ कर लगभग सारे लोग ही जैसे उसके दुश्मन बन गये। बड़ी जिद्दी लड़कीयां है,सुधा को तो कुछ समझती ही नहीं; बेचारी उनका दुलार करती है, खिलाती-पिलाती है यह उसी का फल है। दूसरी औरत होती, तो निबाह न होता। वह तो कहो, सुधा इतनी सीधी-सादी है कि निबाह हो जाता है। सबल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद भी कोई नहीं सुनता! बेटियों का हृदय माँ बाप की ओर से दिन-दिन फटता रहा बेटीयां माता पिता के जुल्म सहती रही सिर्फ इस डर में कि जब घर के लोग इतना बुरा व्यवहार करते हैं तो बाहर के लोग कैसा व्यवहार करेंगें उनके साथ और वो अगर घर से भाग कर घर वालों के जुल्मों से बच कर जाना भी चाहे तो जाये तो जाये कहां जहां उनके साथ बुरा न हो कोई ऐसी सुरक्षित जगह नजर न आती उन्हें जहां वो रह सके जुल्मों से बच सके इसलिए उन्होंने इतने बुरे माता पिता का मिलना अपने प्रारब्ध के बुरे कर्मो का फल मान लिया और वैसे ही घरवालों के अत्याचार सह कर जीवन व्यतीत करती रही!

रिंकी सिद्धार्थ

पता-बनारस उत्तर प्रदेश

पढ़िये आज की रचना

बहुजन समाज का संविधान बनाम सनातन-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  ~~सूक्ष्म विश्लेषणात्मक अध्ययन~~  नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर) युवराज दत्त महाविद्यालय लखीमपुर-खीरी 9415461224.        पिछ...

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