साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Saturday, April 23, 2022

जातिवार जनगणना कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं,बल्कि डॉ.आंबेडकर के सपनों और भारतीय संविधान अनुरूप राष्ट्र-निर्माण और विकास के लिए जरूरी है जिसकी गणना साठ के दशक के शुरू में ही हो जानी चाहिए थी है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

    विमर्श   
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
          सामाजिक न्याय और बंधुता मानवीय संवेदनशीलता का एक बेहद गम्भीर मसला है और जातिवार जनगणना की मांग को भी उसकी एक महत्वपूर्ण और अभिन्न कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए। हज़ारों सालों की ऊँच-नीच की जड़ता से भरे भारतीय समाज में " समता, स्वतंत्रता व बंधुता '’ की स्थापना के लिए समाज सुधारकों द्वारा समय-समय पर कोशिशें की गईं। ग़ौर करने लायक यह है कि ऐसे अधिकांश समाज सुधारक एससी या ओबीसी से ही निकले हैं। औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ों ने हमारे देश के गैर-बराबरी भरे समाज में अलग-अलग समूहों की गणना कर उनके जीवन से जुड़े विभिन्न विषयों का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन करने का निर्णय लिया और इस कड़ी में भारत में जातिवार जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी। अंतिम बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। उसी आधार पर अब तक यह अंदाजा लगाया जाता रहा है कि देश में किस सामाजिक समूह के लोग कितनी तादाद में हैं।
         जातिवार जनगणना क्यों जरूरी है: 1951 से 2011 तक की हर जनगणना में संवैधानिक बाध्यता के चलते अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की गिनती तो हुई है, पर अन्य दूसरी जातियों की नहीं। आखिर , क्या वजह है कि भारत सरकार अपने देश की " सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई " जातियों की अलग-अलग संख्या जानने और बताने से हमेशा कतराती रही हैं? दुनिया का शायद ही कोई लोकतांत्रिक देश होगा जो अपनो लोगों के जीवन से जुड़ी सच्चाई को जानने से नाक-भौं सिकोड़ता हो! जो देश का समाज समावेशी नहीं होगा, उस पाखंड से भरे विभाजित समाज के जरिये अखंड भारत की दावेदारी/परिकल्पना हमेशा खोखली और राष्ट्र-निर्माण की संकल्पना अधूरी और झूठी सिद्ध होगी। जातिवार जनगणना की मांग इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि व्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों में उनके "ओवर-रिप्रेज़ेंटेशन व अंडर-रिप्रेज़ेंटेशन " का एक वास्तविक आंकड़ा सामने आ सके जिनके आधार पर कल्याणकारी योजनाओं व संविधान के सामाजिक न्याय के विषयों पर सक्रिय रूप से सकारात्मक दिशा में तेज़ी से बढ़ा जा सके। सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण विषय पर बहस होते समय हमेशा सम्बंधित रिप्रजेंटेशन के आंकड़े मांगती रही है, जैसे प्रोमोशन मे रिजर्वेशन का मसला।
        संविधान के अनु. 340 के तहत गठित प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर ने 1955 की अपनी रिपोर्ट में 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने की सिफारिश की थी। द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बीपी मंडल अपनी रिपोर्ट में 3743 जातियों को एक जमात के रूप में सामने लाए। आयोग ने सामाजिक-शैक्षणिक गैर-बराबरी से निपटने के लिए एक पुख्ता दर्शन/विचार सामने रखते हुए मोटामोटी 40 सिफारिशों में एक भूमि-सुधार की भी बात कही थी।
       जातिवार जनगणना की मांग अटल बिहारी बाजपेयी ने की थी खारिज: दो-दो बार देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में जातिवार जनगणना को लेकर आम सहमति बनी। एक बार जनता दल नीत युनाइटेड फ्रंट सरकार (1996-98) में 2001 के लिए और दूसरी बार ( 2005-2014) यूपीए-2 की सरकार में 2011की जनगणना के लिए। इस मुद्दे पर पहली बार सरकार चली गई और जब अटल बिहारी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उस मांग को सिरे से खारिज कर दिया। वहीं दूसरी बार मनमोहन सिंह के आश्वासन के बावजूद कुछ दक्षिणपंथी सोच के नेताओं ने बड़ी चालाकी से उस संभावना को पलीता लगा दिया। जो जनगणना सेंसस कमीशन ऑफ इंडिया द्वारा जनगणना अधिनियम,1948 के मुताबिक होनी थी, उसे चार टुकड़ों में बांटकर सामाजिक-आर्थिक सर्वे की शक्ल में कराया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी क्षेत्रों में आवास व शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय की ओर से सामाजिक-आर्थिक जनगणना की गई जिस पर 4,893 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद जो आंकड़े जुटाये गये, वो सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के हैं, नाकि जातिवार जनगणना के और उन आंकड़ों को भी आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया।
        जातिवार जनगणना क्यों नहीं करवा सकी कोई सरकार? : आखिर वे कौन से डर है जिसके चलते आज़ादी के 75 साल बाद भी आज तक कोई भी सरकार जातिवार जनगणना करवाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी? दरअसल, जैसे ही सारी जातियों के सही आंकड़े सामने आएंगे, वैसे ही शोषकों द्वारा गढ़ा गया यह नैरेटिव ध्वस्त हो जाएगा कि ईबीसी ओबीसी की हकमारी कर रहा है या ओबीसी दलित-आदिवासी का शोषक है। वे मुश्किल से बनी जमात की हज़ारों जातियों को फिर से आपस में लड़ा नहीं पाएंगे और हर क्षेत्र में आरक्षण के माध्यम से समुचित प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा।यह हास्यास्पद ही है कि बिना पुख़्ता आंकड़ों के, केवल धारणा व पिछले 5 वर्षों के आंकड़ों के आधार पर रोहिणी कमीशन के जरिए पिछड़ों को उपश्रेणियों में बांटने की कवायद चल रही है। चाहे आप आरक्षण के पक्ष में हों या विपक्ष में, जाति जनगणना जरूरी है। वर्तमान मोदी सरकार ने 2018 में एक शिगूफा छोड़ा था कि हम ओबीसी की गणना कराएंगे। तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए यूं ही जुमले की तरह इस मुद्दे को उछाला था।
        सामान्य सी बात है कि सिर्फ ओबीसी की ही क्यों, भारत की हर जाति की गिनती हो। जब गाय-घोड़ा-गधा-कुत्ता-बिल्ली-शेर-हाथी-भेड़-बकरी-पशु-पक्षियों अर्थात सबकी गिनती होती है, तो इंसानों की क्यों नहीं? आखिर, पता तो चले कि भीख मांगने वाले,मजदूरी करने वाले,सब्जी बेचने वाले, गटर साफ करने वाले, रिक्शा खींचने वाले, ठेला लगाने वाले, फुटपाथ पर सोने वाले लोग किस समाज से आते हैं ? उनके उत्थान के लिए योजनाएं बनाना लोकतांत्रिक सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है और इस भूमिका से वह मुंह नहीं चुरा सकती। इसलिए जातिवार जनगणना कोई राजनैतिक विषय नहीं, बल्कि संविधान सम्मत राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का एक अभिन्न हिस्सा है। जो भी इसे टरकाना चाहते हैं, वे इस देश की एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्गों के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं और न ही करना चाहते हैं।
        बिहार और महाराष्ट्र सरकार ने जातिवार जनगणना के लिए प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा गया। इस विषय पर तमिलनाडु ने हमेशा सकारात्मक रुख दिखाया है। द्रविड़ियन आंदोलन से उपजी पार्टियों ने बहुत हद तक सामाजिक बुराईयों और बीमारियों के डायग्नोसिस में रूचि दिखाई। उड़ीसा और यूपी समेत देश के अनेक राज्यों में जातिवार जनगणना की जबर्दस्त मांग हुई। कर्नाटक में तो केंद्र के अड़ियल रुख को देखते हुए वहां की राज्य सरकार ने खुद ही जातिवार गणना का निश्चय करके दिखा दिया। राजद की पहल पर दो-दो बार बिहार विधानमंडल में जातिवार जनगणना को लेकर प्रस्ताव पारित हो चुका है। लालू प्रसाद, शरद यादव और मुलायम सिंह लंबे समय से इस मुद्दे पर अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे हैं।
       हाल ही में जब भारत के गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद में बयान दिया कि सरकार जातिवार जनगणना नहीं कराएगी, तो तेजस्वी यादव के प्रस्ताव पर नीतीश कुमार ने सर्वदलीय शिष्टमंडल के साथ प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की। तेजस्वी यादव ने जातिवार जनगणना से समाज के अंदर विभाजन-रेखा के उभरने की चिंता में दुबले हो रहे पुनरुत्थानवादी ताकतों को तार्किक जवाब देते हुए कहा कि " जब सेंसस में धर्म का कॉलम रहने से लोग धर्मांध नहीं हो जाते, तो जाति का कॉलम जोड़ देने से जातीय विद्वेष कैसे फैलने लगेगा?
‘बौद्धिक’ बिरादरी की मसिक्रीड़ा:
        प्रो.अभय दुबे, बद्री नारायण, वेद प्रताप वैदिक, संजय कुमार, संकेत उपाध्याय, रमेश मिश्रा समेत अनेकानेक ‘' यथास्थितिवादी सवर्ण बुद्धिजीवियों '’ व पत्रकारों द्वारा जातिवार जनगणना को लेकर तमाम कुतर्क पेश किये जा रहे हैं: बद्री नारायण दैनिक जागरण में लिखते हैं, " सियासी शस्त्र न बने जातीय जनगणना " दैनिक भास्कर में अभय दुबे लोगों के मन में डर पैदा करने की मंशा से लिखते हैं," कि जातिगत जनगणना के गहन व बुनियादी प्रभाव होंगे जो इस समय न तो इसके समर्थकों की समझ में आ रहे हैं न विरोधियों के '’, नवभारत टाइम्स में वेद प्रताप वैदिक मसिक्रीड़ा करते हैं कि,कोटा बढ़वाना हो तो क्यों न याद आए जाति’,फिर वह दैनिक भास्कर में निर्गुण भजते हैं, ‘जनगणना में जाति नहीं, जरूरत पूछी जाए तभी पिछड़ों का हित होगा’.
          संकेत उपाध्याय दैनिक भास्कर में मानस मंथन करते नज़र आते हैं, ‘राजनीति का एटमी बम क्यों है आरक्षण: देश में आरक्षण प्रक्रिया की समीक्षा क्यों नहीं की जाती?’, वहीं दैनिक जागरण में रमेश मिश्रा चिंतित होकर कलम चलाते हैं, ‘मुख्य जनगणना के साथ-साथ जाति की जनगणना मुश्किल, जानिए क्या-क्या हो सकती हैं दिक्कतें?’ बावजूद, इन तिकड़म व विषवमन भरे लेखन के, नेशन बिल्डिंग में लगी पीढ़ी जद्दोजहद कर रही है। लोग भारतीय समाज के मनोविज्ञान को भूल जाते हैं और उसका निर्गुण बखान कर सच्चाई पर परदा डालने की कोशिश करते हैं।
           मंडल कमीशन की रिपोर्ट में बीपी मंडल ने रजनी कोठारी को उद्धृत करते हुए लिखा था, ‘भारत में जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे ऐसी राजनीति तलाशते हैं, जिसका समाज में कोई आधार नहीं है’. मनीष रंजन ठीक कहते हैं कि कोठारी के ‘' जातियों के राजनीतिकरण  के सिद्धांत के तहत ही जाति-व्यवस्था को व्यावहारिक चुनौती दी जा सकती है।"

Wednesday, April 20, 2022

ईडब्ल्यूएस आरक्षण कितना न्यायसंगत एवं व्यावहारिक - एक नयी बहस को जन्म देता मुद्दा-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

सामाजिक मुद्दा  
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
     लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर 2019 में जब ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू किया जा रहा था तो उसे लगभग सभी दलों का भरपूर समर्थन मिला था। इस श्रेणी के आरक्षण के लिए लागू मापदंडो पर अर्थशास्त्री स्वामीनाथन एस.अंकलेसरैया अय्यर ने कुछ वाज़िब सवाल उठाए हैं। अय्यर अपने लेख में लिखते हैं कि " आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्ण वर्ग को आरक्षण देने की कोई जरूरत ही नहीं है।"
          केंद्र सरकार ने 2019 में आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण वर्ग के लिए भी 10% आरक्षण की व्यवस्था की थी। हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि देश में आर्थिक गरीबी बहुत तेजी से कम हो रही है। ऐसे में सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अय्यर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के आरक्षण को गैर-जरूरी और अव्यावहारिक बताते हुए इसे खत्म करने की वकालत कर रहे हैं। उन्होंने "द टाइम्स ऑफ इंडिया"  में लिखे अपने साप्ताहिक स्तंभ में अपने विचार के समर्थन में कई मजबूत दलीलें दी हैं। पेश है,उनके उस लेख के कुछ महत्वपूर्ण संपादित अंश ..
1.भारत में तेजी से घटा है, गरीबी का स्तर...................
          तीन अर्थशास्त्रियों: सुरजीत भल्ला, अरविंद विरमानी और करन भसीन का अनुमान है कि देश में अत्यंत गरीबी (Extreme Poverty) की स्थिति अब नहीं रही है। विश्व बैंक के अनुसार, देश का हर नागरिक हर दिन औसतन 130 रुपये का खर्च कर पा रहा है, तो अत्यंत गरीबी की स्थिति नहीं मानी जाएगी। भारत में गरीबी रेखा के मानक (स्टैंडर्ड्स ऑफ पावर्टी लाइन) विश्व बैंक के मानकों से मेल खाते हैं। विश्व बैंक के पैमानों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि भारत में गरीबी अनुपात 2004 में 31.9% के मुकाबले 2014 में 5.1% हो गया जो 2020 में गिरकर 0.86% पर आ गया। चूंकि, 2017-18 एनएसएसओ सर्वे के आंकड़ों की अनदेखी के लिए आलोचना करने वाले इस मापदंड से चिढ़ सकते हैं, लेकिन कुछ अन्य अध्ययनों से भी पता चलता है कि हाल के दशकों में गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर भारत ने जबर्दस्त कामयाबी हासिल की है।
2.बिना आरक्षण के ही घट रही है गरीबी, तो फिर आरक्षण क्यों?.................
         आर्थिक रूप से गरीब सवर्ण वर्ग को शैक्षणिक संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण दिए बिना ही यदि गरीबी घट रही है तो क्या उन्हें आरक्षण देने का सरकार का फैसला कठघरे में खड़ा नहीं होता है? सुप्रीम कोर्ट 1992 में आर्थिक आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण की मांग को अनुचित बताते हुए पहले ही खारिज कर चुका है। उस समय तो देश की बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी। इसलिए सवाल उठता है कि क्या जब गरीबी उन्मूलन योजनाओं से गरीबी में तेजी से कमी आ रही है,तब आर्थिक आधार पर ईडब्ल्यूएस को आरक्षण देना कितना जायज़ और व्यावहारिक है?
3.संविधान में सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक भेदभाव की खाई कम करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था ..........
          संविधान जाति, धर्म, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने से मना करता है। हालांकि, सदियों से भेदभाव के शिकार दलितों-आदिवासियों/एससी-एसटी के पक्ष में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। संविधान सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए भी आरक्षण की अनुमति देता है। इस कारण राजनीतिक रूप से काफी दबंग समूहों ने खुद को पिछड़ा वर्ग बताकर अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल करवा लिया। जाति आधारित राजनीतिक दलों के कारण यह घालमेल करना आसान हो गया।
4.एक बार सुप्रीम कोर्ट रद्द कर चुकी है, ईडब्ल्यूएस आरक्षण..............
          भारत सरकार ने 1991 में ओबीसी के लिए 27% और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान किया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने गरीबी आधारित आरक्षण को खारिज़ कर दिया था। अभी ओबीसी के लिए 27% के साथ-साथ एससी के लिए 15% और एसटी के लिए 7.5% आरक्षण के साथ सभी सरकारी शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में आज 49.5% आरक्षण लागू है। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि 50% से ज्यादा आरक्षण की व्यवस्था समानता के सिद्धांत के खिलाफ होगी।
5.शिक्षा व्यवस्था में खामियों की वजह से नौकरियों का संकट..............
देश में रोजगार का गंभीर संकट है। केंद्र और राज्य सरकारें रोजगार के प्रमुख स्रोत हैं। युवाओं का सर्वाधिक जोर भी सरकारी नौकरियों पर ही होता है,क्योंकि इनसे स्थायित्व एवं भविष्य की सुरक्षा की भावना जुड़ी होती है। यही वजह है कि ऊंची-ऊंची डिग्री धारक भी चपरासी की नौकरी के लिए मारामारी करते दिख रहे हैं। नौकरियों का संकट शिक्षा के निम्नस्तरीय या अधोमानक होने के कारण भी पैदा होता है। हमारी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था युवाओं को उचित कौशल नहीं दे पा रही है। इसका मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि आरक्षण के जरिए अयोग्य लोगों को भर लिया जाए। आदर्श स्थिति तो यह है कि शिक्षा व्यवस्था में कौशलपरक और रोजगारपरक सुधार किए जाएं।
6.ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मापदंड की परिधि में आती है,देश की लगभग 80% आबादी............
         मोदी नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने 2019 में सवर्ण गरीबों के लिए आरक्षण का विधेयक संसद में पेश किया तो बिहार के क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) जैसी इक्का-दुक्का पार्टियों को छोड़कर सभी दलों ने समर्थन किया था। तब बीजेपी ने कहा था कि इस नई व्यवस्था से देश में पहली बार ईसाइयों और मुस्लिमों को भी आरक्षण मिल रहा है। इस कथन से यह साफ परिलक्षित होता है कि राजनीतिक दल और उसके नेता आरक्षण को सिर्फ वोट बैंक के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं,नाकि उनका मकसद समाज सुधार होता है। सरकार मानती है कि सालाना 8 लाख रुपये की आमदनी वाले, 5 एकड़ से कम कृषि योग्य भूमि वाले और शहरों में 1,000 वर्ग फीट क्षेत्रफल से कम में बने मकान वाले आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) में आते हैं।
7.सरकार का उद्देश्य समाज सुधार नहीं,बल्कि जातीय वोट बैंक साधना है मकसद.................
           राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की 2011-12 की रिपोर्ट कहती है कि सबसे धनी 5% भारतीयों का ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ 4,481 रुपये है जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 10,281 रुपये है। संभवतः प्रति व्यक्ति आय इनके 20% ज्यादा होंगी। 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना के मुताबिक, सिर्फ 8.25% ग्रामीण परिवारों की मासिक आमदनी 10 हजार से ज्यादा है। सच है कि उसके बाद से आमदनी बढ़ी है, फिर भी शंका की गुंजाइश कम है कि 80% से ज्यादा भारतीय ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आते हैं। 2015-16 की कृषि जनगणना के मुताबिक 86% जमीन मालिकों के पास 5 एकड़ से कम कृषि भूमि है। तय पैमाने के अनुसार ये सभी ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आ जाएंगे। इस तरह कहें, तो आर्थिक रूपी गरीबी के आधार पर आरक्षण का मकसद ज्यादा से ज्यादा लोगों को आरक्षण के दायरे में समेटना है, नाकि समाज के आर्थिक रूप से सबसे कमजोर वर्ग को अर्थात सरकार की नजर समाज सुधार की जगह उनके वोट बैंक पर ज्यादा दिखती है।
8.शिक्षा व्यवस्था सुधरे, आरक्षण की घुट्टी देना बंद हो...............
             एससी-एसटी और पिछड़े वर्ग को आरक्षण उनके साथ हुए ऐतिहासिक भेदभाव की वजह से दिया गया है, लेकिन उच्च जातियां ऐतिहासिक भेदभाव के कारण गरीब नहीं हुई हैं। वे इतिहास में हुए सामाजिक और शैक्षणिक अन्याय के पीड़ित नहीं हैं। उनकी गरीबी के कई दूसरे अन्य कारण हो सकते हैं, लेकिन अन्याय हरगिज़ नहीं। इसलिए उनकी सरकारी आर्थिक मदद होनी चाहिए, लेकिन आरक्षण नहीं। आखिरकार, आरक्षण के बावजूद जेएनयू या आईएएस की परीक्षा में न्यूनतम मार्क्स लाना और कुछ अनिवार्य प्रश्नपत्रों को क्वालीफाई करने के बाद ही शेष उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन होता है। बेहद गरीब परिवारों के बच्चे मुश्किल से ही शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं, इस कारण उन्हें न्यूनतम मार्क्स हासिल और कुछ अनिवार्य प्रश्नपत्रों को क्वालीफाई करने में भी परेशानी होती है। ऐसे में आरक्षण का अधिकतम फायदा क्रीमी लेयर को ही मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह सरकार से कहे कि वह शिक्षा व्यवस्था में सुधार करे नाकि, गरीब सवर्णों को आरक्षण दे।
             उल्लेखनीय है कि जब 7अगस्त,1990 को जब पीएम वीपी सिंह ने केवल सरकारी नौकरियों में 27% ओबीसी आरक्षण की घोषणा की थी तो आरक्षण विरोधी सवर्ण मानसिकता की सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों ने सड़को पर अराजकता फैलाकर विरोध करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी थी। घोषणा के कुछ दिनों बाद विषय सुप्रीम कोर्ट ले जाया गया और तत्कालीन सरकार ने तब तक आरक्षण नही दिया, जब तक न्यायालय का अंतिम फैसला नही आ गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण की 50% की अधिकतम सीमा और क्रीमी लेयर जैसी दो शर्तों के साथ 1992 में ओबीसी आरक्षण देने का आदेश हो पाया था जो 1993 से लागू हुआ। ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर याचिका आज सुप्रीम कोर्ट में लंबित होने के बावजूद बीजेपी सरकार ने 10% आरक्षण तुरंत लागू कर दिया था और आज धड़ल्ले से दिया जा रहा है। इस गैरसंवैधानिक और अन्यायपूर्वक दिए जा रहे आरक्षण के ख़िलाफ़ ओबीसी आरक्षण की तरह विरोध नही हुआ था। दोनों तरह के आरक्षण पर संबंधित वर्ग की सामाजिक-राजनीतिक चेतना का स्तर और सर्वोच्च न्यायपालिका एवं सरकार में बैठे वर्ग विशेष की नीयत को सहजता से समझा और अनुमान लगाया जा सकता है।
...

Monday, April 18, 2022

वर्तमान राजनीतिक सत्ता/लोकतंत्र के संदर्भ में : सबसे बुरे संकट के दौर से गुजरती डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी: तथ्यपरक विश्लेषण- नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

अम्बेडकरवाद  एक विश्लेषण
 नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराजदत्त महाविद्यालय,लखीमपुर-खीरी
       आज के दौर में जैसी राजनीतिक परिस्थितियां दिख रही है, उसमें दलित संविधान को बचाने के लिये तो प्रयासरत दिखता है,किंतु संविधान के बावजूद दलित अपने को सुरक्षित महसूस नही कर पा रहा है। बहुजन समाज का एक बहुत बड़ा समूह ओबीसी जिसको सामाजिक न्याय दिलाने के लिए डॉ.आंबेडकर ने संविधान में अनुच्छेद 340 की व्यवस्था की,जिसके बड़े हिस्से को हासिल करने के लिए आज भी एक बड़ी लड़ाई लड़नी शेष है। वह जाति-धर्म, हिन्दू-मुसलमान और झूठे राष्ट्रवाद के नशे में डॉ.आंबेडकर को केवल दलितों का मसीहा मानकर अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के संभावित खतरों के बारे में बेख़बर दिखाई देता है। बहुजन समाज को धर्म के धंधे की साजिश की गहराई को सूक्ष्मता और गहनता से समझते हुए ज्योतिबा फुले,आंबेडकर, पेरियार, राम स्वरूप वर्मा और ललई सिंह यादव की विचारधारा का अनुसरण करना होगा।
           एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक के बुद्धिजीवियों और सामाजिक चिंतकों को डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी या उनकी चिंताओं में से निम्नलिखित कुछ बिंदुओं पर सबसे ज्यादा फ़ोकस करने की जरूरत है,क्योंकि वर्तमान सत्ता के संदर्भ में डॉ.आंबेडकर अपने जीवनकाल में ही भावी संकटों के बारे मे कई तरह की आशंकाएं प्रकट कर रहे थे। आज वही आशंकाएं हूबहू सच साबित होती दिख रही हैं। डॉ.आंबेडकर को इसीलिए युगदृष्टा कहा गया है। वर्तमान सत्तापरक लोकतंत्र के दौर में डॉ.आंबेडकर के विचारों की प्रासंगिकता पर सामाजिक - राजनीतिक सतत संवाद और संपर्क स्थापित करना समय की जरुरत बनती दिख रही है: 
" संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता बनी रहे अर्थात सरकार के नियंत्रण से मुक्त हो तभी लोकतंत्र बचेगा!"

         डॉ.आंबेडकर की उस समय व्यक्त की गई चिंताएं और आशंकाएं आज सच साबित होती दिख रही हैं। निःसंदेह कहा जा सकता है कि आज की सत्ता के दौर में संविधान,संवैधानिक संस्थाएं और लोकतंत्र ख़तरे में है!ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग और न्यायपालिका सत्ता के इशारे पर काम करती दिखती हैं। आम आदमी की आवाज़ मीडिया का अधिकांश हिस्सा सरकार की विज्ञापन एजेंसीज की तरह काम कर रहा है। सरकार की नीतियों के प्रति असहमति और आलोचना को देश द्रोह मानकर क़ानूनी कार्रवाईयां की जा रही हैं।
      "कॉरपोरेट्स/ पूंजीपतियों और वर्णव्यवस्था का गठबंधन देश के विकास का सबसे बड़ा दुश्मन: वर्तमान सत्ता के संदर्भ में उक्त व्यक्त की गई आशंका या चिंता साफ देखी जा सकती है। वर्णव्यवस्था की पोषक आरएसएस नियंत्रित बीजेपी सरकार और देश के अडानी,अम्बानी और रामदेव जैसे अन्य बड़े कॉरपोरेट घरानों का सरकार के साथ गठबंधन हर कोई देख सकता है और आंबेडकर की उस वक्त व्यक्त की गई आशंका  से बेख़बर देश का बहुजन समाज बीजेपी के नारे "सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास " पर आंख मूंदकर चलता हुआ साफ दिखाई दे रहा है। सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण और मुद्रीकरण इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। देश का बहुजन समाज शिक्षा के निजीकरण की भयावहता का अनुमान और आंकलन नही कर पा रहा है। भविष्य में बहुजन समाज के बच्चों के लिए शिक्षा व रोजगार के दरवाजे बंद होने की संभावनाएं और सरकार की मंशा को समझना होगा।
" इतिहास गवाह है कि जहां नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है,वहाँ जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है।निहित स्वार्थों को तब तक स्वेच्छा से नहीं छोड़ा गया है, जब तक कि मजबूर करने के लिए पर्याप्त बल न लगाया गया हो ": डॉ.आंबेडकर के इस कथन की पुष्टि वर्तमान सत्ता की मुफ्त राशन वितरण और किसान सम्मान निधि के रूप में साफ तौर पर देखी जा सकती है। सामाजिक और धार्मिक गुलामी से मुक्ति दिलाने का रास्ता दिखाने वाले डॉ.आंबेडकर को बहुजन समाज भूल सा गया है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज के एक मजबूत सामाजिक- राजनैतिक गठबंधन के बावजूद संख्यानुपात के हिसाब से अपेक्षित परिणाम नही मिले। बहुजन समाज ने पांच किलो राशन के क्षणिक लालच में फंसकर यूपी विधानसभा चुनाव में आंबेडकर की वैचारिकी-दर्शन पर आधारित कांशीराम जी के सामाजिक संघर्ष से बनी बसपा को राजनीतिक रूप से बेहद कमज़ोर करने का काम किया है जिससे देश का दलित चिंतक और बुद्धिजीवी वर्ग हतप्रभ है और वर्तमान सत्ता के दौर में भावी आशंकाओं को लेकर काफी गम्भीर और चिंतित है,लेकिन हिंदू धर्म का सबसे बड़ा संवाहक ओबीसी मस्त है। बीएसपी के संस्थापक मा. कांशीराम भी कहते थे कि "जिस कौम को मुफ्त में खाने की आदत होती है,वह कौम कभी क्रांति नही कर सकती है। जो कौम क्रांति नहीं करेगी,वह देश या प्रदेश का कभी शासक या हुक्मरान नही बन सकती और जो कौम शासक नही होती है,उसकी बहन और बेटियां सुरक्षित नहीं होती और वह इंसाफ भी नही प्राप्त कर सकती।"
"मनुष्य जीवन की तरह विचार भी नश्वर होता है। एक विचार को जिंदा रखने के लिए उसके प्रचार-प्रसार की उतनी ही आबश्यकता होती है जितनी एक पौधे को जिंदा रखने के लिए पानी की आबश्यकता होती है। एक प्रसार के बिना और दूसरा पानी के बिना मुरझाकर मर जायेंगे":
         आज डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी और दर्शन का प्रचार-प्रसार लगभग बंद हो चुका है। डॉ.आंबेडकर के जयंती और परिनिर्वाण दिवस के आयोजन में सामाजिकता कम और राजनीति ज्यादा हावी होती दिखती है। डॉ आंबेडकर की मूर्तियों- स्मारकों के निर्माण के साथ उनके विचारों का महल भी खड़ा करने की आबश्यकता है। उनकी मूर्तियों पर फूल मालाएं चढ़ाने और उनके सामने दीपक,अगरबत्तियां और धूपबत्ती जलाने के साथ उनके विचारों का प्रकाश समाज मे बिखेरना जरूरी है। आज वैचारिक-विमर्श के कैडर कैम्प लगभग बंद हो चुके हैं और वह गीत-भजन-संगीत की मंडलियों द्वारा मनोरंजन तक सिमटता दिख रहा है, जहां दर्शन कम प्रदर्शन ज्यादा हो रहा है और उसमें बहुजन समाज के पढ़े लिखे वर्ग की सहभागिता नगण्य दिखती है। आंबेडकरवादी परिवारों में उनके चरित्र की जगह उनके चित्र ज्यादा दिखाई देने लगे हैं। दुःखद पहलू यह है कि बहुजन समाज का पढ़ा लिखा वर्ग आरक्षण से नौकरी पाकर बहुजन वैचारिकी के विमर्श पर खरा नही उत्तर रहा है और डॉ.आंबेडकर के " पे बैक टू द सोसाइटी" के सिद्धांत के अमल पर गम्भीर नही दिखता है।
"जिसे अपने दुःखों से मुक्ति चाहिए, उसे लड़ना या संघर्ष करना होगा और जिसे लड़ना है, उसे पढ़ना होगा,क्योंकि ज्ञान के बिना जो लड़ने जाएगा तो उसकी हार निश्चित है। ज्ञान शिक्षा से आता है और जिसके पास ज्ञान होता है, वही शक्तिशाली होता है। शक्तिशाली के सामने बड़ी बड़ी हस्तियां झुकती हैं। इसलिए शिक्षित बनों,संगठित रहो और संघर्ष करने का नारा दिया था डॉ आंबेडकर जी ने ": वर्तमान सत्ता द्वारा साधन विहीन बहुजन वर्ग में मुफ़्तख़ोरी की संस्कृति एक सुनियोजित साजिश के तहत पैदा की जा रही है जिससे यह वर्ग आलसी और कामचोर बनकर रह जाये और डॉ.आंबेडकर को भूलकर उसकी संघर्ष करने की शक्ति कमजोर पड़ जाए। कुछ समय के बाद यह वर्ग एक नई तरह की आर्थिक गुलामी के शिकंजे में कसता नजर आएगा और फिर संघर्ष करने की क्षमता कमजोर होने और सरकार के टुकड़ों पर पलने को मजबूर इस वर्ग का लंबे समय तक राजनीतिक दोहन किया जाता रहेगा।
डॉ.आंबेडकर का राष्ट्रवाद:"राष्ट्रवाद तभी सार्थक सिद्ध हो सकता है जब लोगों के बीच जाति,नस्ल और रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता को सर्वोच्च स्थान दिया जाए।" डॉ आंबेडकर के अनुसार " जाति समाज विरोधी (कास्ट इज एन्टी सोशल) और हिंदुत्व राष्ट्र विरोधी (हिंदुत्व इज एन्टी नेशनल) है। सच्चे राष्ट्रवाद को समझने के लिए डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को समझना होगा।
       वर्णवादी व्यवस्था की फैक्ट्री से निकली बीजेपी की सत्ता की राष्ट्रवाद की परिभाषा में सामाजिक व्यवस्था में ऊंच-नीच की जातीय व्यवस्था आती है। वह जातियों के बीच समरसता की बात करते हैं। ऊँच-नीच में समरसता कैसे आएगी ? इसका वह फार्मूला/हल नही बताती हैं। डॉ.आंबेडकर सामाजिक व्यवस्था में जातियों का सम्पूर्ण विनाश की बात करते हैं। आरएसएस और बीजेपी सत्ता के लोग हिंदुत्व (मुस्लिम विरोध) की बात करते हैं जबकि आंबेडकर हिंदुत्व को राष्ट्र विरोधी करार देते हैं। आरएसएस हमेशा हिन्दू बनाम मुस्लिम को राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर भगवा रंग के झंडे में अपने राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाता है। राष्ट्रीय झंडा तिरंगे की जगह आरएसएस भगवा रंग के झंडे को फहराकर राष्ट्रवाद की सुखद अनुभूति करती/कराती हुई दिखती है। डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी में वही धर्म सच्चे राष्ट्रवाद का दावा कर सकता है जिसमें समानता,स्वतंत्रता और बन्धुता की व्यवस्था क़ायम हो!
      "देश के संविधान में डॉ.आंबेडकर मतदान का अधिकार वाली एक ऐसी ताकत देकर गए है, जो किसी ब्रह्मास्त्र से कहीं अधिक ताकत रखती है।" लेकिन,आज हमारा बहुजन समाज मिली इस राजनीतिक ताकत का प्रयोग कैसे कर रहा है,जिसको डॉ.आंबेडकर ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा।जिस ओबीसी के उत्थान के लिए डॉ.आंबेडकर ने बहुत कुछ किया,वह आज संविधान पर हो रहे हमलों पर दलित समाज की तरह न तो चिंतित और न ही सड़कों पर हो रहे आंदोलनों में दलितों के साथ दिखता है। काश!ओबीसी आंबेडकर के सामाजिक संघर्ष व वैचारिकी को आज भी समझ जाए!
        जीवन के अंतिम क्षणों में डॉ.आंबेडकर ने अपनी कष्टमय संघर्ष यात्रा की वेदना व्यक्त करते हुए समाज से आवाहन किया था कि: " मैं बेहद कठिन मुश्किलों और संघर्षों से इस कारवां को इस स्थिति तक ला पाया हूं। यदि हमारे लोग या सेनापति इस कारवां को और आगे नही ले जा सकते हैं तो उसे पीछे भी मत जाने देना।
पता-मोतीनगर कालोनी
लखीमपुर खीरी

Sunday, April 17, 2022

अर्पित पुष्प-डॉ० सरस्वती जोशी

स्मृति शेष

स्व ० बीना रानी
माँ भारती की अनन्य भक्त, साहित्य के क्षेत्र की एक जानी-मानी हस्ती, श्रीमती डॉ. बीना रानी गुप्ता का परलोक गमन हिंदी साहित्य के क्षेत्र की एक दुर्भाग्यपूर्ण क्षति है। वे परम्परावादी हिंदू नारी व आधुनिक युग की प्रगतिशील भरतीय नारी के मिश्रण की एक सजीव मिसाल थीं । गृहलक्ष्मी के समस्त गुणों से युक्त, आदर्श पुत्री, पत्नी, माँ, गृहिणी के समस्त उत्तरदायित्वों का पालन करते हुए प्रगति की ओर अग्रसर हो समाज व देश के प्रति भी सजगता पूर्वक अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित श्रीमती. बीना रानी जी अपने परिवेश के हर व्यक्ति के लिए प्रेरणा का स्रोत थीं, हैं और रहेंगी । पठन-पाठन, शिक्षण आदि के साथ साहित्य की विविध विधाओं पर सरल, सुबोध शैली में चलती उनकी कलम पाठकों के मन पर आमिट छाप छोड़ जाती थी। शोध कर्ताओं के हेतु प्रकाशित उनकी पुस्तक “शोध प्रविधि के विविध आयाम” हर शोधकर्ता का मार्गदर्शन कर शोध-कार्य को जिस तरह सरल-सुगम कर समझा देती है वह सच में अत्यंत सराहनीय कार्य है । ऐसी विभूतियाँ संसार में कुछ विशेष प्रयोजन हेतु आती हैं, लक्ष्यपूर्ति कर अपनी स्मृतियों की छाप छोड़ संसार से विदा हो जाती हैं, और हम देखते रह जाते हैं बेबस से । काश मैं कभी उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर पाती । भारत माता व माँ भारती की ऐसी आदर्श पुत्री स्वर्गीया श्रीमती डॉ. बीना गुप्ता को हार्दिक श्रद्धांजलि व सादर नमन ।

हैं अश्रुपुरित नेत्रों से बहती जल-धारा से सिंचित सजल कण,
हैं तव स्मृतियों में लीन हृदय के स्नेह से सुरभित सुमन,
हैं व्यथित उर से उभर आते करूण स्वरों से रंजित भाव,
कर लेना स्वीकार यह श्रद्धांजलि हमको अपना मान !


पेरिस, फ़्रान्स
दिनांक १६ अप्रैल २०२२)

Thursday, April 14, 2022

चौदह अप्रैल में लंदनपुर- रमाकांत चौधरी एडवोकेट

रमाकांत चौधरी एडवोकेट

गली व नगर की सफाई हुई है, 
रंगाई  हुई   है   पुताई   हुई  है, 
चमाचम चमकने लगे घर सभी के, 
खुशियों से भरने लगे घर सभी के, 
द्वारे  पर   रंगोली   सजने  लगी है, 
युवाओं की टोली निकलने लगी है, 
बजा बैंड बाजा  थिरकने लगे सब, 
जयभीम जयभीम कहने लगे सब, 
 खुशी  से  मगन  है चाचा व चाची, 
 उनकी छोटी बिटिया जी भर के नाची, 
 ना डर है किसी को किसी का किसी से, 
 प्यार  से  मिल  रहे  लोग  सब  सभी से, 
चौदह  अप्रैल  सबसे  आला हुआ है। 
 लंदनपुर का जलवा निराला हुआ है। 

 आगे   चले  भीमराव   जी   की  झांकी, 
 साहू जी की झांकी बुद्ध फुले की झांकी, 
 हजारों   लोग  संग   चले   जा   रहे   हैं, 
 बाबा साहब की जय-जय कहे जा रहे हैं, 
 कोई पैदल चले कोई ट्राली पर बैठा, 
 कोई रूठा - रूठा  चले  ऐंठा - ऐंठा, 
 नई   साड़ी   पहन   इतराती   फिरें, 
 दादी बाबा को आंखें दिखाती फिरें, 
 महेंदर की बीवी जितेंदर की भाभी, 
 न  माने  किसी  की भरे खूब चाबी, 
 खुद  भी  वे  नाचे  नचावें सभी को, 
 गीत बाबासाहब के गवावें सभी को, 
 हर शख्स बस जयभीम वाला हुआ है। 
लंदनपुर  का  जलवा  निराला  हुआ है। 

दादी   व   पोती   का  लफड़ा  हुआ   है, 
आगे बैठइ की खातिर ये झगड़ा हुआ है, 
हँसि - हँसि मजा  सब  लिए जा रहे हैं, 
बुद्ध फूले की जय-जय किए जा रहे हैं, 
लड़िका डीजे का वॉल्युम फुल पर किए हैं, 
 मारे    खुशी   के   वै    मन    की किए हैं, 
कभी दौड़ि पीछे कभी आगे - आगे, 
 रैली  के मुखिया फिरें  भागे - भागे, 
 न  माने  किसी की करें जोरा - जोरी, 
 नीला गुलाल सब लगावें छोरा - छोरी, 
 नीला   झंडा   सभी   लहराते  फिरें, 
 हीरो माफिक वै रुतबा दिखाते फिरें, 
 बुरी नजर वालों का मुंह काला हुआ है। 
 लंदनपुर  का  जलवा  निराला  हुआ है। 

 पसीना - पसीना   नहाए     हैं   सब, 
 बैंड वाले का मिलिके थकाए हैं सब, 
संभाले न संभले ये भीम जी का रेला, 
फैल इसके आगे सब दुनिया का मेला, 
 बाबासाहब  के  दर्शन  करें ग्रामवासी, 
 उनके   लिए   बस  यही मथुरा काशी, 
 आरती   उतारे   उनकी   पुष्प चढ़ावें, 
 बाकी   सभी   का  वै शरबत पिलावें, 
मिला जो हमें सब इन्हीं की बदौलत, 
 कुर्बान चरणन मा इनके सब दौलत, 
 पूरे    बरस    वे     चिंतित    रहे हैं, 
 जो जुलूस में जाने से वंचित रहे हैं, 
 भीम जैसा न कोई रखवाला हुआ है। 
 लंदनपुर  का जलवा निराला हुआ है। 


 ग्राम- झाऊपुर लंदनपुर ग्रंट, तहसील गोला गोकर्णनाथ, 
जिला लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश। 
मोब 9415881883


Tuesday, April 12, 2022

शोषितों- वंचितों के लिए निर्भीकता की मिसाल और मसाल हैं और विद्यार्थियों के लिए बेमिसाल आदर्श/प्रेरक व्यक्तित्व हैं डॉ.आंबेडकर:नन्द लाल वर्मा

"उनकी जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो पढ़ेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी.....आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा।"
एन०एल० वर्मा
एसोसियेट प्रोफ़ेसर
(युवराज दत्त महाविद्यालय)
         डॉ.भीम राव आंबेडकर एक ऐसा महान व्यक्तित्व है जो हर निराश,हताश और परेशान व्यक्ति की सामाजिक,धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति का मार्ग तैयार करते हुए आजीवन संघर्ष करते हुए नजर आते हैं। डॉ.भीमराव आंबेडकर को यदि 20 वीं सदी का महानतम व्यक्ति की संज्ञा दी जाए तो अतिशयोक्ति नही होनी चाहिए। जय भीम जय हिंद की तरह ही एक ऐसा नारा या उदघोष है जो हर वंचित- शोषित व्यक्ति के अंदर सतत संघर्ष के लिए एक अद्भुत ऊर्जा और शक्ति का संचार करता है। भीषण विषम परिस्थितियों से गुजर कर उन्होंने जो मुकाम हासिल किया है,वह दुनिया की ऐतिहासिक में एक अद्भुत मिसाल है। उनकी जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो पड़ेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी।
 
           आज कथित आंबेडकरवादी यह कहते हुए सुनाई पड़ते हैं कि सवर्ण दलितों को घोड़ी पर बैठने और बारात चढ़ाने नहीं देते हैं, चारपाई पर बैठे नहीं देते हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि डॉ. आंबेडकर साहब को क्या वे ऐसा करने से रोक पाए थे? बिल्कुल नहीं। डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को तपाकर जिस दिन समाज के बीच जाओगे, घोड़ी और खटिया पर बैठने की तो बात दूर , पूरा सवर्ण समाज आपको पूरे सम्मान के साथ अपने सिर पर बैठाने के लिए उतावला दिखेगा। पहले आंबेडकर की तरह बनने का ईमानदारी से प्रयास और संघर्ष तो करके देखो! जो भी आंबेडकर की विचारधारा पर चलकर शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं, वे आज घोड़ी- चारपाई तो छोड़ो पूरी दुनिया मे हवाई जहाज से उड़ रहे हैं। सबसे पहले शिक्षित होकर आंबेडकर की तरह ज्ञानी बनो, फिर बताना देश के ब्राम्हण या सवर्ण तुम्हारे साथ कैसा सलूक करते हैं? केवल जय भीम बोलने या नीला कपड़ा पहनने या मूंछ ऐंठने से कोई आंबेडकरवादी नही हो जाता है। आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा। जय भीम का नारा तभी बुलंद और सार्थक होगा जब बहुजन समाज के लोग आंबेडकर जी की वैचारिकी या दर्शन को व्यावहारिक जीवन में अर्थात आचरण में उतारेंगे। डॉ.भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा के सामने दीपक,मोमबत्ती और अगरबत्ती जलाकर केवल उनका उपासक ही नहीं बनना है, बल्कि उनकी विचारधारा का संवाहक बनना होगा अर्थात उनकी वैचारिकी को खड़ा करना होगा। आंबेडकर जी खुद कहा करते थे कि मैं मूर्तियों और प्रतिमाओं में नहीं ,बल्कि क़िताबों में रहता हूँ। इसलिए आंबेडकरवादी बनने वाले हर इंसान को उनकी वैचारिकी-दर्शन को आत्मसात करना होगा और आंबेडकर जैसा विचारक - दार्शनिक बनकर उस पर आचरण करना होगा। बहुजनों को आंबेडकर जी  सवर्णों के सिर पर बैठने का ऐसा अद्भुत  सिद्धांत या हथियार (संविधान) देकर गए हैं जिसकी अकूत ताकत के साथ वह शान से सिर उठाकर चल सकता है। वह कहते थे "शिक्षा शेरनी का वह दूध है जिसे जो पिएगा वह दहाड़ेगा" और हम लोग अभी भी घोड़ी,बारात और चारपाई तक सिमटे हुए हैं। ऐसा वही कहते हैं जो दलित अशिक्षित और अज्ञानी हैं। ब्राह्मण जैसा बनने का प्रयास करिए और जैसे ही कोई सवर्ण या ब्राह्मण आपके सामने आए तो उसके सामने संस्कृत और मंत्रों का तेज-तेज उच्चारण कर पानी छिड़ककर ऐसे चिल्लाओ जिसे देखकर ब्राह्मण या सवर्ण देखकर भौचक रह जाए। ऐसा करने के लिए दलित समाज को तैयार करना होगा और फिर देखो तुम्हारी इस दशा को देखकर ब्राह्मण खुद न चिल्लाने लग जाए ,कि बाप रे बाप!


           एक शिक्षक बुद्ध जी थे जिनके किसी राज दरबार में प्रवेश करने पर राजा खुद सिंहासन से उतरकर नीचे मिलने आता था। ज्ञान या शिक्षा ऐसी शक्ति है जिसके सामने बड़ी-बड़ी हस्तियां झुकती हैं। इसलिए डॉ आंबेडकर की तरह शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने के लिए सतत प्रयास और अभ्यास करने की जरूरत है।

          आंबेडकर एक बात अच्छी तरह जान गए थे कि आखिर ब्राह्मण इतना शक्तिशाली और सम्मानित क्यों है अर्थात उनकी शक्ति का आधार क्या है? शक्ति का आधार है ज्ञान और ज्ञान का मतलब सूचना नहीं होता है बल्कि, तार्किकता के आधार पर विषय को कसौटी पर कसने की क्षमता और इसीलिए आंबेडकर ने शिक्षा के माध्यम से ज्ञान अर्जित करने में अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। दुनिया के नामी- गिरामी  विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में गहन अध्ययन और शोध कार्य किए। सारे धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन करने के पश्चात उनकी सच्चाई जानी और उसके बाद ही मनुस्मृति को जलाने का साहस जुटा पाए थे। जाति व्यवस्था में ऊंच-नीच का भाव गलत होता है। हम किसी भी चर्मकार या जुलाहे को उतने सम्मान की दृष्टि से नहीं देख पाते हैं जितना बाटा या वुडलैंड या अन्य किसी चमड़े के शोरूम के मालिक को या कपड़े बेचने वाले पूंजीपति को सम्मान देते हैं। ब्राह्मण केवल शिक्षा या ज्ञान की बदौलत ही श्रेष्ठ नहीं बन जाता है, बल्कि ज्ञान का दान करने से श्रेष्ठ बनता है। मान लीजिए कि किसी के पास अपार ज्ञान है और उसके ज्ञान से समाज के किसी व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होता है,तो समाज उसका सम्मान क्यों करेगा और उसे श्रेष्ठ क्यों समझेगा? ऐसा करने से ही धीरे-धीरे वह व्यक्ति या समाज श्रेष्ठ बनता चला जाता है। ब्राह्मणों को एक भ्रम हो गया कि ज्ञान की वजह से ही वे श्रेष्ठ है,ऐसा नहीं है।

        डॉ.आंबेडकर को क्लास के बाहर बैठा दिया जाता था और वह बालक फिर भी किसी भी प्रकार की ग्लानि या अपमान महसूस न करते हुए अपने ज्ञान अर्जन के मार्ग पर पूरी हिम्मत और शिद्दत से चलता चला जाता है। कोलंबिया और लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसी दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं में एक साधारण परिवार का एक असाधारण बालक स्वयं को एक सच्चा विद्यार्थी सिद्ध करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है और आज उन्हें  पूरी दुनिया में ज्ञान के प्रतीक अर्थात सिंबल ऑफ नॉलेज की संज्ञा से नवाज़ा जाता है। डॉ.आंबेडकर की शैक्षणिक ज्ञान की वजह से ही डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी -दर्शन को कोलंबिया विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल कर वहां के छात्रों को पढ़ाया और उन पर शोध कराया जा रहा है और हमारे देश में डॉ. आंबेडकर का बहुआयामी साहित्य और दर्शन लंबे समय तक आम लोगों के पास पहुंचने तक नही दिया गया। बहुजन समाज से निकले अन्य समाज सुधारकों और विचारकों की तरह डॉ. आंबेडकर को भी इतिहास के पन्नों में जानबूझकर इसलिए दबाए रखा जिससे देश का वंचित,शोषित और अशिक्षित एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग में सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक चेतना का संचार न हो सके। इसीलिए शिक्षित बनो और ज्ञानी बनो और ज्ञान को समाज में दान करो तभी आपको समाज में सम्मान मिलेगा और धीरे-धीरे श्रेष्ठता हासिल होती जाएगी।

          आज डॉ.आंबेडकर , गांधी और भगत सिंह देश के ही नहीं, बल्कि विश्व के महान आदर्श बन चुके हैं। आंबेडकर को  जिन लोगों ने क्लास के बाहर बिठाया उन्हीं के बीच या सिर पर बैठकर अपने अकूत ज्ञान के बदौलत पूरी निर्भीकता के साथ ऐसा संविधान रच दिया जिसमें कहीं भी किसी भी प्रकार का भेदभाव ,प्रतिक्रिया या बदले की भावना नहीं झलकती है। आज तक उनकी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक मानववादी संवैधानिक व्यवस्था या विचारधारा पर कोई सवालिया निशान लगाना तो दूर उसमें नुक़्ता चीनी तक लगाने का साहस नहीं जुटा  पाया है। बहुजन समाज को संविधान रूपी ऐसा अस्त्र डॉ आंबेडकर दे गए हैं जिससे वह बोल सकता है, अपने सामाजिक, राजनीतिक और अन्य हक लेने के साथ उनके लिए कानूनी और लोकतांत्रिक रूप से लड़ाई भी लड़ सकता है। डॉ.आंबेडकर की आज की हैसियत का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की विभिन्न पार्टियों के बैनर-पोस्टर-भाषण डॉ.आंबेडकर का नाम के बिना और नारे लगाए अधूरे से माने जाते हैं। आज के दौर में राजनीतिक सत्ता के क्षितिज या कैनवस पर डॉ.आंबेडकर को इग्नोर करना असंभव सा हो गया है। ब्राह्मणवादी सोच की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों के आयोजन भी बिना आंबेडकर के चित्र,विचारों और भाषण के बिना पूरे नही माने जाते हैं।
 
          हम कह सकते हैं कि वर्तमान दौर की राजनीति में आंबेडकर साहब की वैचारिकी या दर्शन एक अपरिहार्य विषय बन चुका है। देश के हर नागरिक को डॉ.की सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के मोटे-मोटे सिद्धांतों को जरूर पढ़ना चाहिए। आज के वैज्ञानिक और आर्थिक युग में यह दुर्भाग्य का विषय है कि समाज मे सोशल साइंस के विषय लेकर अध्ययन और शोध करने  वाले छात्र-छात्राओं का कमतर मूल्यांकन किया जा रहा है।
         आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर समाज का एक ऐसा वर्ग है जो यह कहता है कि आंबेडकर ने हमारी जिंदगी बर्बाद कर दी और दूसरा वर्ग दिल ठोककर जय भीम का उदघोष करते हुए कहता है कि डॉ.आंबेडकर हमारे भगवान हैं, मसीहा हैं और मुक्तिदाता हैं। समाज के दो छोरों पर बैठे लोगों की सोच के इस भारी अंतर से डॉ.आंबेडकर की सार्थकता और प्रासंगिकता का आभास किया जा सकता है। हम कह सकते हैं कि हर परेशान इंसान के मसीहा हैं, डॉ.आंबेडकर साहब!
पता-मोतीनगर कालोनी लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश 262701

Sunday, April 10, 2022

मध्यप्रदेश के अब ‘भेडि़या राज्य’ बनने के निहितार्थ...अजय बोकिल

अजय बोकिल
मध्यप्रदेश ‘टाइगर स्टेट’ तो पहले से था ही, अब ‘वुल्फ स्टेट’ यानी ‘भेडि़या राज्य’  भी बन गया है। यानी बीते कुछ सालों में राज्य में ‘भे़डि़यों की तादाद खासी बढ़ी है। जंगल के हिसाब से यह अच्छी और मानव समाज की दृष्टि से यह चिंताजनक खबर है। क्योंकि भौतिक रूप से भेडि़यों की संख्या के साथ साथ ‘भेडि़या प्रवृत्ति’ भी बढ़ रही है। भेडि़यों  का बढ़ना वन्य जीव संरक्षण के हिसाब से बेशक यह बड़ी उपलब्धिय है, लेकिन लाक्षणिक दृष्टि से इस कामयाबी पर गर्व करें या न करें, संवेदनशील मन तय नहीं कर पा रहा। 
बहरहाल, मध्यप्रदेश के वन विभाग द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अब देश के सबसे ज्यादा भेडि़ए बसते हैं। इसके पहले मप्र टाइगर, लेपर्ड (तेंदुआ), घडि़याल और वल्चर (गिद्ध) स्टेट का दर्जा हासिल कर चुका था। इसी चैनल को भेडि़ये आगे बढ़ाएंगे, यह उम्मीद जरा कम थी। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अब भेडि़यों की कुल संख्या 772 है। जबकि  राजस्थान में 532, गुजरात में 494, महाराष्ट्री में 396 तथा छत्तीसगढ़ में 320 भेडि़ए ही हैं। वन विभाग ने अपनी पोस्ट में मप्र को "वुल्फ स्टेट" लिखा है। यह अलग बात है कि इस खबर के दूसरे ही दिन यह शोक समाचार भी मिला कि इंदौर वहां अब दो भेडि़ए ही बचे हैं। 
मन में यह सवाल तो तब ही तरंगें ले रहा था कि जब मप्र में गिद्ध बढ़ रहे हैं तो भेडि़ए रेस मे पीछे क्यों छूट रहे हैं। क्योंकि दोनो का अपना प्राकृतिक और सांस्कृतिक महत्व है। गिद्धों की अपनी दृष्टि है और भेडि़यों की अपनी सृष्टि है। दोनो अपना काम करते रहते हैं, लोक लाज की चिंता नहीं पालते। यूं प्राणि शास्त्र के अनुसार भेडि़ए कुत्तों के पूर्वज हैं। रंगरूप में। लेकिन कुत्तों की तासीर वक्त के हिसाब से बदल गई। वो इंसानों के वफादार दोस्त हो गए। लेकिन भेडि़यों को जंगल ही रास आया। क्योंकि भेडि़या चरित्र पर उंगली उठाने वाला वहां कोई नहीं है। 
 वैसे मध्यप्रदेश में भेडि़यों की बढ़ती आबादी के पीछे वन विभाग द्वारा वन्य प्राणी संरक्षण के व्यापक प्रयास तो हैं ही कुछ प्रवृत्तिगत कारक भी हो सकते हैं, ‍जिनकी वजह में मप्र में भेडि़यों को पनपने का सर्वथा अनुकूल वातावरण मिल रहा है। मप्र में भेडि़यों की संख्या बढ़ने की खबर को टाइगरों ने किस रूप में लिया, यह अभी साफ नहीं है, क्योंकि भेडि़यों  को ‘जंगल का राजा’ तो क्या खुद महाबुद्धिमान समझने वाले मनुष्य भी अच्छे भाव में नहीं लेते। ‘भेडि़या’ होना ‘कुत्ता’ होने से भी ज्यादा खराब माना जाता है। इसका कारण भेडि़यों का स्वभाव और चरित्र है। वह चालाक होने के साथ साथ क्रूर भी है। यही कारण है कि शेर, सांप, बंदर और कुत्तों के अलावा हमारे यहां सबसे ज्यादा मुहावरे किसी पर बने हैं तो वो शायद भेडि़या ही है। फिर चाहे वो ‘भेडि़या धसान’ हो या ‘भेडि़या आया, भेडि़या आया’ की झूठी पुकार अथवा ‘भेड़ की खाल में भेडि़या’ होने की बात। भेडि़ए शिकार के लिए कुछ भी कर सकते हैं। भेडिया शब्द सुनते ही एक चालाक और अविश्वनीय प्राणी की तस्वीर आंखों में तैरने लगती है। यूं कहने को भेडि़ए इस दुनिया में आठ लाख साल से हैं। उन्हे कुत्तों  का पूर्वज माना जाता है। हालांकि कुत्तों ने खुद को इतना सुधार लिया कि वो मनुष्य के चहेते और वफादार प्राणियों में शामिल हो गए। लेकिन भेडि़यों ने ऐसी सकारात्मकता कभी नहीं दिखाई। वो केवल अपने झुंड के प्रति वफादार होते हैं। यहां तक कि मौका मिले तो कुत्तों को भी नहीं छोड़ते। पालतू पशुअों के साथ मौका लगे तो इंसान के बच्चों को भी उठा ले जाते हैं। भेडि़ये और कुत्ते के बीच एक बुनियादी फर्क यह है कि लड़ते समय भेडि़ए कुत्तों की तरह जोर-जोर से भौंकने में वक्त नहीं गंवाते। काम दिखाकर चुपचाप चलते बनते हैं। बीच में खबर आई थी कि राज्य के नौरादेही अभयारण्य में शेरों ने भेडि़यों को बेदखल कर ‍िदया है। सुनकर अच्छा लगा। लेकिन यही हाल रहा तो एक दिन मप्र में ‘भेडि़या अभ्यारण्य’ ( वुल्फ सेंक्चुरी) भी स्थापित करना पड़ सकता है।  
वन विभाग माने न माने, समाजशास्त्री 
इसकी प्रामाणिकता पर भले शक करें, लेकिन  सामाजिक हकीकत यह है कि राज्य में ‘भेड़ की खाल में भेडि़ये’ बढ़ रहे हैं। यानी दिखने में भले भोले हों, लेकिन कब काम दिखा दें, कहा नहीं जा सकता। ऐसे भेडि़यों की संख्या जीवन के हर क्षेत्र में ‍िदन दूनी बढ़ रही है। लेकिन इनकी कोई आधिकारिक  गणना नहीं होती। इन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है। 
यूं भेडि़ये जंगलों मे तो बढ़ ही रहे हैं, इंसानी बस्तियों में ‘मनुष्य की खाल में’ भी बढ़ रहे हैं। कुछ ऐसा ही हाल सोशल मीडिया का है। वहां सूचनाअों के मामले में ‘भेडि़या 
धसान’ का आलम है। फर्जी खबर भी पूरे इत्मीनान के साथ तमाम व्हाट्स ग्रुपो में एक सी आस्था के साथ डलती जाती है। हालांकि भेडि़या समाज में व्हाट्स एप ग्रुप नहीं होते। लेकिन मानव समाज में समाज सेवा का नया टोटका व्हाट्स एप ग्रुप चलाना है। इसमें कोई भी सूचना का आगा-पीछा देखने की जहमत नहीं उठाता। बल्कि कई बार तो झूठी खबर बिना पांव के ‘भेडि़या आया, भेडि़या आया’ की पुकार के माफिक दौड़ने लगती है। लेकिन असलियत का पता लगते ही खबर फारवर्ड करने वाला भेडि़यों का पूरा झुंड ही गायब हो जाता है। 
भेडि़यों के बारे में माना जाता है कि वो कभी किसी के सगे नहीं होते। उन्हें खुद से और अपने झुंड से मतलब होता है। शायद  इसीलिए मनुष्य ने उन्हें पालने की जुर्रत नहीं की। भेडि़यों की इमेज आदिकाल से ही खराब है। प्राचीन सभ्यताअों में भी भेडि़यों को नकारात्मकता का प्रतीक  माना गया है। हालांकि चीनी ज्योतिष में भेडि़ये को ‘स्वर्ग के द्वार का रक्षक’ कहा गया है। हमारे यहां वैदिक काल में भेडि़ये को रात्रि का प्रतीक बताया गया है तो तांत्रिक बौद्ध धर्म में भेडि़या कब्रिस्तान का रखवाला माना गया है। ईसप की कहानियों और बाइबल में भी भेडि़ये को खतरनाक प्राणी बताया गया है। रूडयार्ड किपलिंग ने मोगली के रूप में भेडि़ए द्वारा पाले गए एक बच्चे की कल्पना की है। 
बाॅलीवुड में भेडि़ये को केन्द्र में रखकर फिल्मे शायद ही बनी हो, लेकिन हाॅलीवुड में भेडि़या प्रवृत्ति पर दर्जनों फिल्में बनी हैं। मसलन ‘द वुल्फ आॅफ वाॅल स्ट्रीट’, काॅल आॅफ द वुल्फ’, क्राइंग वुल्फ आदि। यानी भेडि़ये के चरित्र में मनुष्य की काफी ‍िदलचस्पी रही है। लेकिन भेडि़ए इससे नावाकिफ हैं। उनकी तादाद और तासीर का दायरा बढ़ रहा है, वो इसी में खुश हैं। साथ में अपना मध्यप्रदेश भी। 
वरिष्ठ संपादक 
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में ‍िद. 5 अप्रैल 2022 को प्रकाशित)

Saturday, April 09, 2022

राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर-कँवल भारती

सन्दर्भ- बौद्धधर्म
कंवल भारती
प्रख्यात-दलित चिन्तक व साहित्यकार

 भारत में आधुनिक बौद्धधर्म तीन महान व्यक्तियों का ऋणी है। यानी, जिस बौद्धधर्म को ब्राह्मणवाद ने भारत की धरती से खदेड़ दिया था, उन्नीसवीं शताब्दी में उसका पुनरुद्धार तीन महान लोगों ने किया। ये महान लोग थे- अनागरिक धर्मपाल, महापंडित राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर। धर्मपाल श्री लंका के थे। वे 1891 में भारत आये थे और यहां सारनाथ और बोधगया की दुर्दशा देख कर उनके उद्धार के लिये यहीं रुक गये थे। उन दिनों बौद्धों के तीर्थ स्थल ब्राह्मण महन्तों के कब्जे में थे। लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ कर उन्होंने कई बौद्ध मन्दिरों को ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराये और बौद्धों को सौंपे थे। सारनाथ में उन्हीं के नेतृत्व में खुदाई कार्य किया गया था और उसी खुदाई के परिणाम स्वरूप आज के धम्मेख स्तूप का अस्तित्व सामने आया था। बोध गया का मन्दिर बौद्धों को सौंपे जाने की लड़ाई भी उन्होंने ही लड़ी थी, जो अभी तक जारी है। यही धर्मपाल जी 1893 में शिकागो में होने वाली विश्वधर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर गये थे। धर्मपाल जी दर्शन और इतिहास के लेखक नहीं थे, पर भारत में प्राचीन बौद्ध स्थलों को खोजने और उनका पुनरुद्धार करने का एक मात्र श्रेय उन्हीं को जाता है।
 आधुनिक भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार पर जब भी चर्चा चलती है, तो धर्मपाल जी का नाम राहुल और आंबेडकर से पहले आता है। धर्मपाल जी ने यदि बौद्ध स्तूपों, विहारों और मन्दिरों का उद्धार और निर्माण कराया, तो राहुल सांकृत्यायन को लुप्त बौद्ध साहित्य की खोज करने का श्रेय जाता है। उन्होंने तिब्बत की यात्रा की और वहां से 18 खच्चरों पर लाद कर बौद्ध साहित्य भारत लाये, जो पटना के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित है। यह साहित्य तिब्बती भाषा में है, जिसका उन्होंने संस्कृत और फिर हिन्दी में अनुवाद किया। आज हिन्दी में अधिकांश त्रिपिटक राहुल जी की ही देन है। यदि राहुल जी ने यह महत्वपूर्ण कार्य न किया होता, तो भारत में हिन्दी में बौद्ध साहित्य का सचमुच अभाव होता।
 लेकिन बौद्ध साहित्य और विहारों का तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक उनकी सुरक्षा के लिये आस्थावान बौद्ध समुदाय का अस्तित्व न हो। भारत में बौद्ध समुदाय के अभाव की पूर्ति डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने की। उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्धधर्म में धर्मान्तरण करके लाखों दलितों को बौद्धधर्म में दीक्षित होने की प्रेरणा दी। इसी प्रेरणा के परिणाम स्वरूप आज भारत में बौद्धों की संख्या एक करोड के लगभग है।
 
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 राहुल सांकृत्यायन सनातनी हिन्दू साधु (रामोदार स्वामी) के रूप में घुमक्कड़ी करते हुए, आर्य समाजी हो गये थे। एक आर्य समाजी के रूप में वे वेद और निराकार ईश्वर में सारी समस्याओं का हल देखते थे। इस सम्बन्ध में उनके विचार इस प्रकार थे- ‘‘उस समय मैं आर्य समाज के गर्मदली विचारों का समर्थक था, इसके सिवाय वेद के ईश्वरीय होने में किसी की आपत्ति को मैं सहन करने के लिये तैयार न था। वेद में रेल, तार, विमान की बातें मुझे सच्ची मालूम होतीं, यद्यपि अभी तक मैंने उनकी पूरी छानबीन न की थी। आर्य समाजी को अपने लिये हिन्दू कहना मैं शर्म की बात समझता था। आर्य धर्म हिन्दूधर्म से उतना ही दूर है, जितना ईसाई और इस्लामधर्म, यह मैं बराबर कहा करता। भारत पर आर्यधर्म का विशेष अधिकार है। उसकी उन्नति और स्वतन्त्रता आर्यधर्म और एक जातीयता की स्थापना से ही हो सकती है, इसके साथ मैं यह भी समझता था कि आज यद्यपि सभी धर्मानुयायियों का एक हो जाना असम्भव मालूम होता है, किन्तु आर्यधर्म की सत्यता को रोका नहीं जा सकता। विज्ञान के साथ कुछ झूठे विज्ञान भी संसार में खोटे सिक्कों की भांति चल रहे हैं, ऐसे ही झूठे विज्ञानों में डार्विन के विकासवाद को भी मैं समझता था। जब पंडित आत्माराम अमृतसरी की विकासवाद के खण्डन पर लिखी गयी पुस्तक मिली, तो मुझे बड़ी खुशी हुई।’’ वे आर्यसमाज के सिद्धान्त को ध्रुव सत्य और दयानन्द के एक-एक वाक्य को वेदवाक्य मानते थे।
 ये विचार 22 वर्ष के एक तरुण (1915) के थे, पर 27 वर्ष के होते-होते बौद्धधर्म को जानने की जिज्ञासा उनमें पैदा हो गयी थी। उन्हीं के शब्दों में, (1921) ‘‘आर्य समाज का प्रभाव रहने से सिद्धान्त में मैं द्वैतवादी हो रामानुज का समर्थक रहा। इसी दार्शनिक ऊहापोह में बौद्ध दर्शन के लिये अधिक जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी, रामानुज और शंकर की ओर से, अन्ततः वर्णाश्रम धर्म का श्राद्ध करके दार्शनिक खंडन द्वारा ही बौद्धों का विरोध किया जाता था। और दार्शनिक सिद्धान्तों में रामानुजीय शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, फिर बौद्ध दर्शन क्या है, इधर ध्यान जाना जरूरी था, और पूर्वपक्ष के तौर पर उद्धृत कुछ वाक्यों से मेरी तृप्ति नहीं हो सकती थी।’’
 यह जिज्ञासा और तृप्ति 34 वर्ष की अवस्था में तब पूरी हुई, जब वे (1927) लंका गये और वहां के विद्यालंकार विहार में 19 मास तक रहे। वहां उन्हें पाली त्रिपिटक में बुद्ध वचनों को पढ़ने का अवसर मिला। उस मनः स्थिति का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘फिर राख में छिपे अंगारों या पत्थरों से ढँके रत्न की तरह बीच-बीच में आते बुद्ध के चमत्कारिक वाक्य मेरे मन को बलात् अपनी ओर खींच लेते थे। जब मैंने कालामों को दिये गये बुद्ध के उपदेश- किसी ग्रन्थ, परम्परा, बुजुर्ग का ख्याल कर उसे मत मानो, हमेशा खुद निश्चय करके उस पर आरूढ़ हो- को सुना, तो हठात् दिल ने कहा- यहां है एक आदमी, जिसका सत्य पर अटल विश्वास है, जो मनुष्य की स्वतन्त्र बुद्धि के महत्व को समझता है। जब मैंने मज्झिम निकाय में पढ़ा- बेड़े की भाँति मैंने तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, वह पार उतरने के लिये है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिये नहीं; तो मालूम हुआ, जिस चीज को मैं इतने दिनों से ढूँढ़ता फिर रहा था, वह मिल गयी।’’
 अब ईश्वर और वेद भी उनसे छूट गये थे। मन की इस दशा पर उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘अब मेरे आर्य सामाजिक और जन्मजात विचार छूट रहे थे। अन्त में, इस सृष्टि का कर्ता भी है, सिर्फ इस पर मेरा विश्वास रह गया था। किन्तु अब तक मुझे यह नहीं मालूम था कि मुझे बुद्ध और ईश्वर में से एक को चुनने की चुनौती दी जायगी। मैंने पहिले पहिल कोशिश की, ईश्वर और बुद्ध दोनों को एक साथ ले चलने की, किन्तु उस पर पग-पग पर आपत्तियां पड़ने लगीं। दो-तीन महीने के भीतर ही मुझे यह प्रयत्न बेकार मालूम होने लगा। ईश्वर और बुद्ध साथ नहीं रह सकते, यह साफ हो गया, और यह भी स्पष्ट मालूम होने लगा कि ईश्वर सिर्फ काल्पनिक चीज है, बुद्ध यथार्थवक्ता हैं। तब, कई हफ्तों तक हृदय में एक दूसरी बेचैनी पैदा हुई- मालूम होता था, चिरकाल से चला आता एक भारी अवलम्ब लुप्त हो रहा है। किन्तु मैंने हमेशा बुद्ध को अपना पथप्रदर्शक बनाया था, और कुछ ही समय बाद उन काल्पनिक भ्रान्तियों और भीतियों का ख्याल आने से अपने भोलेपन पर हँसी आने लगी। अब मुझे डारविन के विकासवाद की सच्चाई मालूम होने लगी, अब मार्क्सवाद की सच्चाई हृदय और मस्तिष्क में पेबस्त जान पड़ने लगी।’’
 इस प्रकार राहुल जी 1915 से 1927 तक आर्य समाजी रहे। पर, लंका में रहते ही वे बुद्ध के अनुयायी हो गये थे। उनमें तिब्बत जाकर बौद्ध साहित्य को खोज कर लाने की भी जिज्ञासा पैदा हो गयी थी। अतः तिब्बत में सवा वर्ष बिताने के बाद, जब वे 1930 में दूसरी बार लंका गये, तो वे विधिवत उपसम्पदा लेकर बौद्धधर्म में प्रब्रजित हो गये थे। अपनी प्रब्रज्या का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘उपसम्पदा के लिये कांडी जाने से पहले विद्यालंकार विहार में नायकपाद के उपाध्यायत्व में मेरी प्रब्रज्या (22 जून) हुई। मैं लंका में रामोदार स्वामी के नाम से प्रसिद्ध था, और लंका छोड़ने से पूर्व ही अपने गोत्र को जोड़कर अपने को रामोदार सांकृत्यायन बना चुका था। मैं समझता था, यही नाम बना रहेगा, क्योंकि इस नाम से मैं साहित्यिक क्षेत्र में अवतीर्ण हो चुका था, किन्तु प्रब्रज्या संस्कार शुरु होने के चन्द ही मिनट पहले नायकपाद की आज्ञा हुई नये नामकरण की। समय होता, तो मैं समझाने की कोशिश करता, किन्तु अब कुछ करना आज्ञा भंग होता। नाम शायद एकाध और पेश किये गये थे, किन्तु मैंने रामोदार के ‘रा’ की साम्यता के देखते हुए राहुल नाम का प्रस्ताव किया और वह स्वीकृत हुआ। इस प्रकार राहुल सांकृत्यायन के नाम से मैं प्रब्रजित (श्रामणेर) हुआ।’’
 ऊपर राहुल जी का वक्तव्य बताता है कि उन्हें बुद्ध के दर्शन ने इतना प्रभावित किया कि न केवल डार्विन के विकासवाद में उनको सच्चाई नजर आने लगी थी, बल्कि माक्र्सवाद की सच्चाई भी उनके हृदय और मस्तिष्क में पेबस्त जान पड़ने लगी थी। उस समय तक वे समाजवादी व्यवस्था के महत्व को समझने लगे थे और बद्ध उन्हें स्वतन्त्रता, समानता और करुणा (भ्रातृत्व) के समर्थक एवं जनतन्त्र के पक्षधर के रूप में दिखायी देने लगे थे। वे बुद्ध के प्रजातांत्रिक विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए थे। उन्होंने एक जगह लिखा है- ‘‘बुद्ध का जन्म एक प्रजातन्त्र (शाक्य) में हुआ था, और मृत्यु भी एक प्रजातन्त्र (मल्ल) ही में हुई। प्रजातन्त्र प्रणाली उनको कितनी प्रिय थी, यह इसी से मालूम है कि अजातशत्रु के साथ अच्छा सम्बन्ध होने पर भी उन्होंने उसके विरोधी वैशाली के लिच्छवियों की प्रशंसा करते हुए राष्ट्र को अपराजित रखने वाली (ये) सात बातें बतलायीं- (1) बराबर एकत्रित हो सामूहिक निर्णय करना, (2) निर्णय के अनुसार कर्तव्य को एक हो करना, (3) व्यवस्था (कानून और विनय) का पालन करना, (4) वृद्धों का सत्कार करना, (5) स्त्रियों पर जबरदस्ती नहीं करना, (6) जातीय धर्म का पालन करना, (7) धर्माचार्यों का सत्कार करना।’’
 लेकिन राहुल मार्क्सवादी दर्शन का भी इस काल में बराबर अध्ययन कर रहे थे और बुद्ध का विचार-स्वतान्त्रय इस अध्ययन में उनकी सहायता कर रहा था। इसलिये, उन्होंने बौद्धधर्म का द्वन्द्वात्मक अध्ययन किया और वे मार्क्सवाद की ओर मुड़ गये। हालांकि, बुद्ध और उनके धर्म के प्रति उनका अनुराग कभी खत्म नहीं हुआ था, पर भिक्षुवेश उन्होंने त्याग दिया था। भदन्त बोधानन्द के प्रति अपने संस्मरण लेख में इसका जिक्र उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘त्रिपिटक में कुछ अधिक प्रवेश करते ही वेद, ईश्वर और आर्यसमाज ने साथ छोड़ दिया, मैं अनीश्वरवादी नास्तिक बन गया। बुद्ध और उनकी शिक्षाओं के प्रति मेरा अनुराग हो गया। उसके बाद तो कोई धर्म मुझे आकृष्ट नहीं कर सका। बुद्ध से अगली मंजिल में मार्क्स मुझे मिले। भौतिकवाद मेरा दर्शन हो गया। पर, बुद्ध के मधुर व्यक्तित्व का आकर्षण मेरे मन से कभी नहीं गया।’’
 राहुल की जीवन-यात्रा एक स्थान या एक विचार पर स्थिर रहने वाली नहीं थी। वे ऐसे प्रगतिशील थे, जो खूंटे से बँधकर नहीं रह सकते थे। अतः बौद्धधर्म के प्रति अपने लगाव के भविष्य को वे जानते थे। इसलिये, जब अनागारिक धर्मपाल ने उन्हें धर्म प्रचारक बनाने के लिये उन पर दबाव डालने के लिये कई पत्र लिखे, तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उस स्थिति का वर्णन करते हुए उन्होंने अपनी ‘जीवन यात्रा’ में लिखा है- ‘‘कोई समय था कि जब मैं धर्मप्रचारक बनने का तीव्र अनुरागी था, लेकिन अब अवस्था बिल्कुल बदल गयी थी। बौद्धधर्म के साथ भी मेरा कच्चे धागे का ही सम्बन्ध था। हाँ बुद्ध के प्रति मेरी श्रद्धा कभी कम नहीं हुई। मैं उन्हें भारत का सबसे बड़ा विचारक मानता रहा हूँ और मैं समझता हूँ कि जिस वक्त दुनिया के धर्म का नामोनिशान न रह जायगा, उस वक्त भी लोग बड़े सम्मान के साथ बुद्ध का नाम लेंगे।’’ उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘मैंने उनके वचनों को पढ़ने के बाद समझा कि वह भी दुनिया के साम्यवादी बनने का सपना देखते थे।’’
 राहुल ने बुद्ध के धर्म का बेड़े की तरह पार उतरने के लिये ही उपयोग किया। वे विचारों से मार्क्सवादी हो चुके थे, पर अभी भिक्षुवेश उन्होंने नहीं त्यागा था। उसका उपयोग उन्होंने लन्दन, नेपाल और बौद्ध देशों की यात्राओं के लिये किया और उसके बाद भिक्षुवेश भी त्याग दिया था।
 वे सामन्तवाद और पूंजीवाद की चक्की में पिस रही आम जनता की मुक्ति के दृष्टिकोण से धर्म को देखने लगे थे। इस दृष्टिकोण से बौद्धधर्म के भी अनेक सिद्धांतों से भी उनकी असहमति बन गयी थी। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बुद्ध तत्कालीन समाज व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे। उनका मत था कि ‘‘(बुद्ध ने) दुःख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये, राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों, सारी दुनिया को झगड़ते मरते-मारते देख भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की।’’
 बुद्ध के क्षणिकवाद के दर्शन से राहुल जी सहमत थे, पर उनकी टिप्पणी थी कि इस क्षणिकवाद को उन्होंने समाज की आर्थिक व्यवस्था पर लागू नहीं किया था। वे इसका कारण बताते हैं कि ऐसा उन्होंने राजाओं और सेठों को अप्रसन्न करने के उद्देश्य से नहीं किया। वे लिखते हैं- ‘‘पुरोहित वर्ग के कूटदंत, सोणदंत जैसे धनी प्रभुताशाली ब्राह्मण उनके (बुद्ध के) अनुयायी बनते थे, राजा लोग उनकी आवभगत के लिये उतावले दिखायी पड़ते थे। उस वक्त का धन कुबेर व्यापारी-वर्ग तो उससे भी ज्यादा उनके सत्कार के लिये अपनी थैलियाँ खोले रहता था, जितने कि आज के भारतीय महासेठ गाँधी के लिये। दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत के साथ व्यापार के महान केन्द्र कौशाम्बी के तीन भारी सेठों ने तो विहार बनवाने में होड़ सी कर ली थी। सच तो यह है कि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने सहायता की। यदि बुद्ध तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ जाते, तो यह सुभीता कहाँ से हो सकता था।’’

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 लेनिन के इस सिद्धान्त को कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है या उसे निजी मामला होना चाहिए, हम आम आदमी पर तो लागू कर सकते हैं, पर विशिष्ट व्यक्ति पर इस सिद्धान्त को लागू नहीं किया जा सकता और लागू किया जाना चाहिए भी नहीं, क्योंकि विशिष्ट व्यक्ति या वह व्यक्ति, जिससे लाखों करोड़ों लोग प्रेरणा लेते हों, जिसके अनुयायी हों, अगर वह धर्मगुरु नहीं है और दुनिया को बदलने की शिक्षा देता है, तो वह, धर्म को अपना निजी मामला नहीं बना सकता। राहुल सांकृत्यायन एक धर्मगुरु या धर्मप्रचारक की भूमिका त्याग कर दुनिया को बदलने की भूमिका में उतरे थे, तो धर्म को देखने की उनकी दृष्टि वही नहीं रह गयी थी, जो एक सनातनी और आर्य समाजी प्रचारक की होती है। वे लाखों दीन-दुखियों के हित में धर्म के सिद्धान्तों को अलौकिक नहीं, लौकिक आधार पर परखने लगे थे। इसलिये जनता के सामाजिक और आर्थिक शोषण पर जीवित रहने वाले धर्म उनके लिये घृणास्पद थे।
 डा. आंबेडकर भी धर्म को अछूतों की दृष्टि से देखते थे। वे हिन्दूधर्म का विरोध इसी आधार पर करते थे कि वह सामाजिक अलगाववाद का समर्थन करता है और मानवता के एक विशाल समुदाय को समस्त मानवाधिकारों से वंचित रखता है। वे दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार करने की शिक्षा देने वाले हिन्दूधर्म को धर्म के नाम पर कलंक मानते थे। उन्होंने लिखा है, ‘‘अछूतों की समस्या का सीधा सम्बन्ध हिन्दुओं के सामाजिक व्यवहार से है। अस्पृश्यता तभी मिटेगी, जब हिन्दू अपनी मनोवृत्ति बदलेंगे। समस्या यह है कि वह कौन सा तरीका है, जिससे हिन्दू जीवन-शैली को भुला दें। यह कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं है कि कोई समूचा राष्ट्र अपनी बंधी-बंधाई जीवन-शैली को त्याग दे। हिन्दू जिस जीवन-शैली के आदी हैं, वह ऐसी है, जिसे उनका धर्म प्रमाणित करता है। अतः उनकी जीवन-शैली को बदलना उनके धर्म को बदलने जैसा ही है।’’
 यहां आंबेडकर स्पष्ट रूप से इस मत के हैं कि हिन्दूधर्म को सुधारा नहीं जा सकता, उसे छोड़ा जा सकता है। उन्होंने हिन्दूधर्म में सुधार के लिये लम्बे समय तक संघर्ष किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली और अन्ततः उन्हें हिन्दूधर्म को छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी। उन्होंने 1935 में (15 अक्टूबर) बम्बई में कहा, ‘‘हमने अभी यह तय नहीं किया है कि कौन सा धर्म हम अपनायेंगे, पर यह हमने तय कर लिया है कि हिन्दूधर्म हमारे लिये अच्छा नहीं है।’
 यह निर्णय आंबेडकर ने कवीठा काण्ड के प्रतिरोध में लिया था। पूना-पैक्ट के तीन साल बाद 1935 में यह काण्ड हुआ। बम्बई सरकार ने उस समय सार्वजनिक स्कूलों में अछूतों के बच्चों को प्रवेश देने के आदेश जारी किये थे। 8 अगस्त 1935 को कवीथा गांव के अछूत अपने चार बच्चों को स्कूल में दाखिल कराने के लिये ले गये। इसके विरोध में सभी हिन्दुओं ने अपने बच्चों को स्कूल से हटा लिया और रात में घात लगा कर अछूतों की बस्ती पर डंडों, भालों और तलवारों से हमला कर दिया। बाद में हिन्दुओं ने सभी अछूतों का सामाजिक बहिष्कार भी कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि अछूत पीने के पानी तक के लिये तरस गये। इसके विरुद्ध अछूतों ने मजिस्ट्रेट के यहां मुकदमा दायर कर दिया। इस घटना ने अछूतों में दहशत भर दी। वल्लभ भाई पटेल हिन्दुओं को यह समझाने गये कि वे अछूतों पर जुल्म न करें, पर उन्होंने उनकी एक न सुनी। गांधी जी ने अछूतों को यह सलाह दी कि वे गांव छोड़ दें। इस प्रकार, इस संघर्ष में अछूतों को ही दबाया गया। आंबेडकर लिखते हैं कि जब भी हिन्दू अराजकता पर उतर आते हैं, तो अछूत हमेशा ही असहाय हो जाते हैं।
 आंबेडकर की घोषणा की प्रतिक्रिया में गांधी ने नासिक में कहा कि धर्म कोई मकान या वस्त्र नहीं है, जिसे बदला जा सके, धर्म आदमी का जरूरी अंग है। इसका उत्तर आंबेडकर ने इन शब्दों में दिया, ‘‘मैं गांधी जी से सहमत हूँ कि धर्म जरूरी है, परन्तु मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि आदमी को अपने उस पुश्तैनी धर्म से चिपटा रहना चाहिए, जो उसके लिये घृणास्पद हो, अपमानजनक हो और उसे आगे बढ़ने की कोई प्रेरणा न देता हो।’’ उन्होंने आगे कहा कि कवीथा में जो हुआ, वह अनोखी घटना नहीं है, वह हिन्दुओं के पुश्तैनी धर्म में मौजूद व्यवस्था पर आधारित है। इस धर्म को दलितों को छोड़ना ही होगा।
 राहुल के सामने उनका कोई जातीय समाज नहीं था, जिसे वे बदलना चाहते थे। वे ब्राह्मण थे, पर ब्राह्मणों को सुधारने या उनकी मुक्ति के (किसी कार्यक्रम के) दायित्व से मुक्त थे। किन्तु आंबेडकर इस दायित्व से मुक्त नहीं थे। उनके सामने उनका विशाल अछूत समाज था, जिसे हिन्दुओं और उनके धर्म ने मानवीय गरिमा और अधिकारों से वंचित करके रखा था। इसलिये, आंबेडकर आरम्भ से ही इस खोज में रहे कि धर्म का अर्थ क्या है, हिन्दूधर्म से अछूत समुदाय का क्या सम्बन्ध है? और कोई दूसरा धर्म उनकी स्थिति को बदल सकता है या नहीं?
 राहुल भले ही यह नहीं देख सके थे कि ब्राह्मण हिन्दूधर्म और उसकी व्यवस्था को क्यों पसन्द करते थे और क्यों उसमें कोई सुधार नहीं चाहते थे? किन्तु, आंबेडकर ने यह अच्छी तरह देख लिया था कि हिन्दुओं की वर्णव्यवस्था ब्राह्मणों के लिये स्वर्ग की व्यवस्था है, जिसमें वे सबसे श्रेष्ठ और सबसे पूज्य बने हुए हैं। वे यह भी देख रहे थे कि हिन्दू अछूतों पर इसलिये अत्याचार नहीं करते हैं कि वे क्रूर हैं, बल्कि इसलिये करते हैं, क्योंकि उनका धर्म उन्हें ऐसा करने की शिक्षा देता है। एक स्थान पर आंबेडकर ने लिखा है, ‘‘हिन्दू चाहे स्त्री हो या पुरुष, वह जो कुछ करता है, धर्म के अनुसार करता है। वह खाता धर्म के अनुसार है, पीता धर्म के अनुसार है, नहाता धर्म के अनुसार है, पहनता धर्म के अनुसार है, उसका जन्म धर्म के अनुसार होता है, विवाह धर्म के अनुसार होता है और धर्म के अनुसार ही उसे जलाया जाता है। उसके सारे कार्य धर्मानुसार होते हैं। धर्मनिरपेक्षता के दृष्टिकोण से ये काम गलत हो सकते हैं, पर ये इसलिये पापपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि ये धर्म द्वारा स्वीकृत हैं। इसलिये यदि कोई हिन्दू पाप का अभियुक्त होता है, तो वह गर्व से कहता है कि यदि मैं पाप करता हूँ तो पाप भी धर्म के अनुसार कर रहा हूँ।’’
 आंबेडकर अपने अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि अछूतों के लिये हिन्दूधर्म इसलिये अमानवीय है, क्योंकि अछूत हिन्दू समाज के अंग नहीं हैं। दूसरे शब्दों में वे हिन्दूधर्म के बाड़े से बाहर के हैं। आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘हिन्दुओं और अछूतों के बीच क्या सम्बन्ध है, इसकी सटीक व्याख्या बम्बई के एक सम्मेलन में सनातनी हिन्दुओं के नेता ऐनापुरे शास्त्री ने की है। उन्होंने कहा कि हिन्दुओं के साथ अछूतों का सम्बन्ध वैसा ही है, जैसा किसी मनुष्य का उसके जूतों के साथ होता है। आदमी जूते पहनता है, इस दृष्टि से वह मनुष्य के साथ है और कहा जा सकता है कि वह मनुष्य के हैं। लेकिन जूते शरीर का अंग नहीं है, क्योंकि जिन दो चीजों को किसी इकाई से अलग किया जा सकता है, उन्हें उस इकाई का अंग नहीं कहा जा सकता।’’
 आंबेडकर की दृष्टि में यह एक अत्यन्त सटीक उपमा थी। उनके पास इसका मजबूत आधार भी है। उनके अनुसार, अछूत वर्णव्यवस्था के अंग नहीं है। वे उसके बाहर के हैं, अर्थात् अवर्ण हैं। वे लिखते हैं, ‘‘हिन्दू विधान के निर्माता मनु ने अपने नियम में कहा है कि वर्ण केवल चार हैं और पांचवाँ वर्ण नहीं होगा। मनु अछूतों को उस भवन में प्रवेश दिलाने को तैयार नहीं थे, जिसे प्राचीन हिन्दुओं ने वर्णव्यवस्था में विस्तार कर उसे पांच वर्णों के लिये बनाना चाहा था। मनु ने अछूतों को वर्ण-बाह्य कहकर वर्णव्यवस्था से बाहर रखा है। आदिम और जरायम पेशा जातियों के विरुद्ध हिन्दू समाज में प्रवेश के लिये कोई निश्चित वर्जना नहीं है। वे कालान्तर में उसके सदस्य बन सकते हैं। फिलहाल वे हिन्दू समाज से जुड़े हैं और उसके बाद वे उसमें घुलमिल सकते हैं तथा उसका अंग बन सकते हैं। लेकिन अछूतों की स्थिति अलग है। हिन्दू समाज में उनके विरुद्ध निश्चित वर्जना है। उसके सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्हें अलग-थलग ही रहना होगा और वे हिन्दू समाज का अंग न हैं और न बन सकते हैं।’’ वे अन्यत्र कहते हैं हिन्दू भी यह जानते हैं कि अछूत उनके समाज के अंग नहीं हैं। यही कारण है कि हिन्दुओं में नैतिक दृष्टि से अछूतों के प्रति कोई चिन्ता या ममत्व नहीं होता है।’’
 आंबेडकर की सबसे बड़ी चिन्ता थी कि अछूत अनेकों जातियों-उपजातियों में विभाजित हैं और उनके बीच मौजूद सामाजिक भेदभाव उन्हें एक नहीं होने देता। हिन्दू समाज में ब्राह्मण एक वर्ग है, क्षत्रिय एक वर्ग है और वैश्य एक वर्ग है। प्रत्येक वर्ग में अनेक जातियाँ होने के बावजूद उनके बीच सामाजिक अलगाव नहीं है, वरन् रोटी-बेटी का सम्बन्ध है। इनमें से प्रत्येक वर्ग में अपनी ही जाति में विवाह वर्जित है। (मिश्रा-मिश्रा में नहीं, शुक्ला में विवाह करेगा।) किन्तु यही वर्ण चेतना शूद्रों और अछूतों में नहीं है, जिसके कारण उनमें सामाजिक एकता का सदैव अभाव रहता है।
 इसलिये आंबेडकर ऐसे धर्म की तलाश में थे, जो निम्न जातियों को एक वर्ग में संगठित कर दे और उनका सांस्कृतिक विकास करे। वे इस मत के नहीं थे, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं कि धर्म समाज के लिये आवश्यक नहीं है। वे जीवन और सामाजिक आचरण के लिये धर्म को आवश्यक मानते थे। वे कहते थे कि धर्म अफीम नहीं है, जैसा कि कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है। पर, वे धर्म के नाम पर पाखण्ड को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे। वे कहते थे कि आदमी सिर्फ रोटी खाकर जीवित नहीं रह सकता। उसके पास एक मन भी है, जिसे विचार के लिये आहार चाहिए। यह आहार उसे धर्म से ही मिलता है। धर्म ही उसे आशावादी बनाता है और आगे बढ़ने की शक्ति देता है। उनकी दृष्टि में धर्म और दासता दो परस्पर विरोधी चीजें थीं। कोई भी धर्म, जो आदमी को दास बनाता है, वह उनके लिये धर्म नहीं था।
 आंबेडकर ने अपने सिद्धान्त के आधार पर सभी धर्मों पर विचार किया- न केवल ईसाई और इस्लाम धर्मों पर, बल्कि आर्य समाज और सिख धर्म के बारे में भी। मई 1936 में कोलम्बो से एक इटैलियन बौद्ध भिक्षु लोकनाथ ने भारत आकर आंबेडकर से भेंट की और उन्हें इस बात पर सहमत करने की कोशिश की कि यदि अछूत लोग बौद्धधर्म ग्रहण कर लेते हैं, तो वे समाज में नैतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से उच्चतर स्तर प्राप्त कर लेंगे। यद्यपि आंबेडकर ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया था, पर बौद्धधर्म के प्रति उनमें सम्मान का भाव पहले ही से था।
 इस विषय पर आंबेडकर का अध्ययन निरन्तर चल रहा था। वे अस्पृश्यता के उद्गम के ऐतिहासिक आधार को भी देखना चाहते थे, ताकि जिस धर्म को वे स्वीकार करें, उसमें अछूतों की ऐतिहासिक संगति भी बैठ सके। शीघ्र ही उन्होंने अपना एक लम्बा साक्षात्कार ‘दि बाम्बे क्रानिकल’ को दिया, जो उसके 24 फरवरी 1940 के अंक में प्रकाशित हुआ। इस साक्षात्कार में उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि वैदिक काल में और उसके बाद शताब्दियों तक अस्पृश्यता का अस्तित्व नहीं मिलता है। इसका उद्गम बहुत बाद में हुआ और इसका सम्बन्ध बौद्धधर्म के बाद परिवर्तनों से पैदा हुई परिस्थितियों से है। उन्होंने उस युग का उल्लेख किया, जब कुछ लोग अपने ऋषि आधारित जीवन के लिये एक जगह बस गये थे, पर बहुत से दूसरे लोग अपने पशुओं के चारे के लिये जगह-जगह घूमते रहते थे। बसे हुए किसानों को अपनी भूमि, मकान और फसल की सुरक्षा घुमन्तु लोगों से करनी होती थी। इससे बचने और शान्ति पूर्ण जीवन जीने के लिये उन्होंने कुछ घुमन्तु लोगों की सेवाएं लीं। उन्हें कुछ जमीनें और घर देकर गांव के बाहर बसा दिया और उनको गांव की सुरक्षा का काम सौंप दिया। वे पीढि़यों तक इस काम को करते रहे। गांव के भीतर और गांव के बाहर किनारों पर रहने वाले इन लोगों के बीच सामान्य मानवीय सम्बन्ध थे- किसी तरह की अस्पृश्यता नहीं थी। तब, अस्पृश्यता कैसे पैदा हुई? आंबेडकर कहते हैं कि इसके लिये भारत में बौद्धधर्म के उदय को देखना होगा।
 आंबेडकर के अनुसार, भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब बौद्धधर्म ने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था। देश की जनता और सारा व्यापारी वर्ग बौद्धधर्म में चला गया था। ब्राह्मणवाद का पतन हो गया था, जो शताब्दियों से राज कर रहा था। बुद्ध ने तीन शिक्षाएं दीं- सामाजिक समानता की, वर्णव्यवस्था के उन्मूलन की और अहिंसा के सिद्धान्त की, जिसमें धर्म के नाम पर पशु बलि वर्जित थी। आंबेडकर ने कहा कि उस समय तक ब्राह्मण शाकाहारी नहीं हुए थे, वे गौओं और अन्य पशुओं की बलि देते थे और उनका मांस खाते थे। जब बुद्ध ने बलि का निषेध किया और गाय को ऋषि और दूध के लिये उपयोगी पशु बताते हुए उसकी सुरक्षा की शिक्षा दी, तो जनता ने उसे अपना लिया। तब, ब्राह्मणों के सामने शाकाहारी बनने के सिवा कोई चारा नहीं था।
 आगे आंबेडकर लिखते हैं कि ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को बौद्धधर्म में जाने से रोकने के मकसद से उन्हें समानता का दर्जा देने की पेशकश की और दोनों ने मिलकर वैश्य और शूद्रों को रोकने के लिये उन दो पुलिस वालों की तरह काम किया, जो कैदी के दोनों तरफ खड़े होकर उसे भागने से रोकते हैं। अब गाय पवित्र हो गयी थी और उसकी बलि देने की प्रथा समाप्त हो गयी थी। बहुत सारी बुद्ध शिक्षाएं हिन्दूधर्म में समाहित कर लीं गयी थीं। जो जनता बौद्धधर्म में चली गयी थी, वह भी धीरे-धीरे वापिस आने लगी थी। बुद्ध की जो सबसे बड़ी शिक्षा ब्राह्मणों ने स्वीकार नहीं की, वह थी समानता की शिक्षा और वर्णव्यवस्था का उन्मूलन। पर, उन्होंने यह जरूर किया कि कुछ समय के लिये क्षत्रियों को अपने समान दर्जा दिया और ब्राह्मण देवताओं को हटा कर उनके स्थान पर क्षत्रिय देवताओं को स्थापित कर उनके साथ अन्य समयानुकूल समझौते कर लिये।
 आगे आंबेडकर कहते हैं, न तो बुद्ध ने और न ब्राह्मणों ने मृतक पशु के मांस को खाने पर रोक लगायी थी। रोक सिर्फ जीवित गाय का वध करने पर थी। पर, आज के अछूतों का एक बड़ा अपराध यह है कि वे गरीबों में सबसे गरीब और सामाजिक रूप से सबसे निचले स्तर के होने के कारण बौद्धधर्म में लम्बे समय तक बने रहे और मृतक पशु का मांस खाते रहे। उनको सुधारने के लिये एक बड़ी शक्ति की जरूरत थी, जो उनके लिये लम्बे समय तक काम करती। पर ऐसा कोई काम तो नहीं हुआ, उलटे, सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता उन पर लागू कर दी गयी।
 आंबेडकर का निष्कर्ष था कि उनकी मृतक गाय का मांस खाने की आदत ही उनके शोषण का कारण बनी। यही वह चीज थी, जिससे स्वाभाविक रूप से हिन्दुओं को उनसे घृणा हुई। इसी वजह से उस पूरे वर्ग पर अस्पृश्यता थोप दी गयी। यह वास्तव में वह दण्ड था, जो ब्राह्मणों ने उन्हें बौद्धधर्म में बने रहने के लिये दिया था, जबकि अन्य लोगों ने बौद्धधर्म छोड़ दिया था। आंबेडकर कहते हैं कि इसलिये शिक्षा और स्वतन्त्रता तथा सामाजिक समानता के सभी आधुनिक विचारों के बावजूद आज तक अस्पृश्यता बनी हुई है।
 आंबेडकर ने अपने इस शोध को ‘दि अनटचेबिल्स’ नाम से प्रकाशित कराया, जो अछूतपन के ऐतिहासिक आधार को रेखांकित करने वाली एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह सिद्ध करने के बाद कि आज के अछूत किसी समय बौद्ध थे, उनका बौद्धधर्म में जाने का रास्ता आसान हो गया था। अतः आंबेडकर ने 2 मई 1950 को नयी दिल्ली में, बुद्ध जयन्ती के अवसर पर भारत के अछूतों से बौद्धधर्म ग्रहण करने की अपील की। इस अपील पर दूसरे दिन 15 अछूतों ने दिल्ली में बौद्धधर्म ग्रहण किया। इस अवसर पर, डा. आंबेडकर ने हिन्दी में तीस मिनट का संक्षिप्त व्याख्यान दिया, जिसमें उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत में पुनः बौद्धधर्म का उदय होगा। उन्होंने आगे कहा कि न राम और न ही कृष्ण बुद्ध का मुकाबला करते हैं, बुद्ध के बराबर कोई भगवान नहीं है और न आगे ऐसा कोई महान धर्मगुरु और शास्ता पैदा होगा। 6 जून 1950 को उन्होंने कोलम्बो में कहा, ‘‘यह आम धारणा बन गयी है कि बौद्धधर्म भारत से लुप्त हो गया है। मैं मानता हूँ कि यह भौतिक रूप में लुप्त हुआ है, पर एक अमूर्त (बौद्धिक) शक्ति के रूप में यह अभी भी अस्तित्व में है।’’
 आंबेडकर ने देश के बहुत से भागों में जाकर अछूतों की सभाएं कीं और उन्हें बौद्धधर्म के विषय में जानकारी दी। उन्होंने स्वयं को पूरी तरह बौद्धधर्म के विस्तार के लिये समर्पित कर दिया था। अन्ततः उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को विजया दशमी के दिन नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ पूज्य महास्थविर चन्द्रमणि जी के नेतृत्व में बौद्धधर्म की दीक्षा ली और भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार का झण्डा गाड़ दिया। बाद में, उन्होंने बाइबिल और कुरान की तरह बौद्धों के लिये भी एक धर्मग्रन्थ की रचना की, जो ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नाम से प्रसिद्ध है।

4
 हमने देखा कि राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर दोनों बौद्धधर्म तक पहुंचे, पर अलग-अलग रास्तों से और अलग-अलग कारणों से। राहुल भारत में बौद्ध समाज नहीं बना पाये। पर, आंबेडकर ने इसी कमी को पूरा किया। लेकिन इस बात को लेकर दोनों एक मत थे कि बौद्धधर्म हिन्दूधर्म का अंग नहीं है। राहुल की दृष्टि में बौद्ध हिन्दू नहीं थे। किन्तु, बुद्ध के जीवन, सिद्धान्तों और दर्शन के सम्बन्ध में दोनों विद्वानों के विचार समान नहीं हैं। उदाहरण के लिये आंबेडकर ने बुद्ध के जीवन और दर्शन को उसी रूप में स्वीकार नहीं किया, जिस रूप में वह परम्परा में मौजूद था। किन्तु, राहुल काफी हद तक परम्परा में प्रचलित बुद्ध के जीवन-दर्शन को ही स्वीकार करते हैं। बुद्ध के जन्म की इस कहानी पर राहुल और आंबेडकर एक मत हैं कि बुद्ध ने अपने जन्म के बारे में सोच कर यह तय किया कि कपिलवस्तु में राजा शुद्धोधन मेरे पिता होंगे और मेरी माता महामाया नामक देवी होंगी। तब उन्होंने महामाया को स्वप्न में आकर बताया कि क्या तुम मेरी माता बनना स्वीकार करोगी? उसका उत्तर था, बड़ी प्रसन्नता से। और उसी समय बोधिसत्त्व ने महामाया के गर्भ में प्रवेश किया।
 लेकिन बुद्ध के गृहत्याग की कहानी पर राहुल के विचार परम्परागत हैं, जबकि आंबेडकर उसको तर्क की कसौटी पर कसते हैं और उसके मूल में राजनैतिक कारण मानते हैं। राहुल का वही (परम्परागत) मत है- ‘‘वृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित (संन्यासी) के चार दृश्यों को देखकर उनकी (सिद्धार्थ की) संसार से विरक्ति पक्की हो गयी और एक रात वह चुपके से घर से भाग निकले।’’ राहुल सांकृत्यायन भी घर छोड़कर भागे थे, अपने पिता, माँ और ब्याहता किसी का भी मोह उन्होंने नहीं पाला था। पर, आंबेडकर को बुद्ध का इस तरह पलायन करना ठीक नहीं लगा था। यह उनके गले भी नहीं उतरा था। वे लिखते हैं- ‘‘जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रव्रज्या (गृहत्याग) ग्रहण की, उस समय उनकी आयु 29 वर्ष की थी। यदि सिद्धार्थ ने इन्हीं तीन दृश्यों (वृद्ध, रोगी और मृतक) को देखकर प्रव्रज्या ग्रहण की, तो यह कैसे हो सकता है कि 29 वर्ष की आयु तक सिद्धार्थ ने कभी किसी बूढ़े, रोगी तथा मृत व्यक्ति को देखा ही न हो? ये जीवन की ऐसी घटनाएं हैं, जो रोज ही सैकड़ों, हजारों की संख्या में घटती रही हैं और सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु होने से पहले भी इन्हें देखा ही होगा। इस परम्परागत मान्यता को स्वीकार करना असम्भव है कि 29 वर्ष की आयु होने तक सिद्धार्थ ने एक बूढ़े, रोगी और मृत व्यक्ति को देखा ही नहीं था और 29 वर्ष की आयु होने पर ही प्रथम बार देखा। यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती।’’
 डा. भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है कि वृद्ध, रोगी और मृत व्यक्ति को देखकर गृहत्याग की मान्यता ‘‘वे अट्टकथाएँ हैं, जिन्हें बुद्धघोष तथा अन्य आचार्यों ने भगवान बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद परम्परागत सिंहल अट्टकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पाली भाषा में लिखा।’’ उनके अनुसार त्रिपिटक के किसी भी ग्रन्थ में गृहत्याग के इस कथानक का कहीं उल्लेख नहीं है।
 आंबेडकर ने परम्परागत मान्यता के विरुद्ध ‘खुद्दक निकाय’ के ‘सुत्तनिपात’ के अट्ठकवग्ग में अत्तदण्डसुत्त की इन गाथाओं को बुद्ध के गृहत्याग का आधार बनाया- ‘‘शस्त्र धारण भयावह लगा। मुझमें वैराग्य उत्पन्न हुआ, यह मैं बताता हूँ। अपर्याप्त पानी मैं जैसे मछलियां छटपटाती हैं, वैसे एक-दूसरे से विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर मेरे मन में भय उत्पन्न हुआ। चारों ओर का जगत असार दिखायी देने लगा, सब दिशाएं काँप रही हैं, ऐसा लगा और उसमें आश्रय का स्थान खोजने पर निर्भय स्थान नहीं मिला, क्योंकि अन्त तक सारी जनता को परस्पर विरुद्ध हुए देखकर मेरा जी ऊब गया।’’
 आंबेडकर का मत है कि शाक्यों और कोलियों में रोहिणी नदी के पानी को लेकर झगड़े होते थे। शाक्य संघ ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध का प्रस्ताव पारित किया, जिसका सिद्धार्थ गौतम ने विरोध किया। शाक्य संघ के नियम के अनुसार बहुमत के विरुद्ध जाने पर दण्ड का प्राविधान था। संघ ने तीन विकल्प रखे-(1) सिद्धार्थ सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लें, (2) फांसी पर लटक कर मरने या देश छोड़कर जाने का दण्ड स्वीकार करें या (3) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिये राजी हों। संघ का बहुमत सिद्धार्थ के विरुद्ध था। सिद्धार्थ के लिये सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेने की बात को स्वीकार करना असम्भव था। अपने परिवार के सामाजिक बहिष्कार पर भी वह विचार नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने दूसरे विकल्प को स्वीकार किया और वे स्वेच्छा से देश त्याग कर जाने के लिये तैयार हो गये।
 राहुल सांकृत्यायन ने इसी परम्परागत मान्यता के साथ लिखा कि सिद्धार्थ गौतम ने अपनी पत्नी और बच्चे को सोता हुआ छोड़कर चुपके से गृहत्याग किया था। किन्तु, आंबेडकर इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार, उन्होंने पूरी तरह अपने पिता शुद्धोधन, अपनी माता प्रजापति गौतमी और पत्नी यशोधरा से सहमति और अनुमति लेकर घर से अभिनिष्क्रमण किया था। राहुल ने सिद्धार्थ की परिवार-विमुखता को गम्भीरता से नहीं लिया, शायद इसलिये कि वे स्वयं भी परिवार-विमुख थे। पर, आंबेडकर ने इसे बहुत गम्भीर प्रश्न माना था। उनकी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति, जो परिवार-विमुख है, समाज-विमुख भी होगा, वह समाज-उन्मुख नहीं हो सकता। इसलिये आंबेडकर ने इस बात को रेखांकित करना ज्यादा जरूरी समझा कि सिद्धार्थ जैसा जनवादी और जागरूक व्यक्ति परिवार-विमुख कैसे हो सकता है? वह परिवार के सदस्यों को धोखा देकर घर छोड़ ही नहीं सकते थे। इस तरह के विश्वासघात की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती थी। आंबेडकर ने लिखा है कि जब सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु छोड़ा, तो अनोमा नदी तक जनता उनके पीछे-पीछे आयी थी, जिसमें उनके पिता शुद्धोधन और उनकी माता प्रजापति गौतमी भी उपस्थित थे।

 वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ) में पंच वर्गीय ब्राह्मण भिक्षुओं को दिया गया बुद्ध का पहला धर्मोपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र’ के नाम से विख्यात है। इसमें बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी है। पहला आर्य सत्य ‘दुख है’, दूसरा आर्य सत्य ‘दुख का कारण है’, तीसरा आर्य सत्य ‘दुख का निरोध है’, और चौथा आर्य सत्य ‘दुख निरोध का उपाय है।’ दुख सत्य की व्याख्या करते हुए बुद्ध ने कहा है- ‘‘जन्म भी दुख है, बुढ़ापा भी दुख है, मरण, शोक, रूदन, मन की खिन्नता, हैरानगी दुख है। अप्रिय से संयोग भी, प्रिय से वियोग भी दुख है, इच्छा करके जिसे नहीं पाता, वह भी दुख है। संक्षेप में पांचों उपादान स्कन्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) दुख हैं।’’ बुद्ध ने दुख का कारण तृष्णा को माना है और तृष्णा के निरोध (विनाश) को दुख का निरोध कहा है। तृष्णा से उपादान (वासना) पैदा होती है, उपादान से जन्म, जन्म से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक आदि पैदा होते हैं। दुख-निरोध का मार्ग है, आर्य आष्टांगिक मार्ग, जो ये हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयत्न, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।
 राहुल और आंबेडकर दोनों ने चार आर्य सत्यों पर अपने-अपने ढंग से विचार किया है। बुद्ध ने दुख सत्य की जो लौकिक-अलौकिक व्याख्या की है, उसे उसी रूप में राहुल ने भी स्वीकार नहीं किया है और आंबेडकर ने भी। राहुल लिखते हैं, ‘‘यहां उन्होंने (बुद्ध ने) दुख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों सारी दुनिया को झगड़ते, मरते-मारते देख कर भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की। उनके मतानुसार मानो, काँटों से बचने के लिये सारी पृथ्वी को तो नहीं ढका जा सकता है, हाँ अपने पैरों को चमड़े से ढाँक कर काँटों से बचा जा सकता है। वह समय भी ऐसा नहीं था कि बुद्ध जैसे प्रयोगवादी दार्शनिक सामाजिक पापों को सामाजिक चिकित्सा से दूर करने की कोशिश करते। तो भी, वैयक्तिक सम्पत्ति की बुराइयों को वह जानते थे, इसीलिये जहाँ तक उनके अपने भिक्षु-संघ का सम्बन्ध था, उन्होंने उसे हटा कर भोग में पूर्ण साम्यवाद स्थापित करना चाहा।’’
 राहुल ने बुद्ध के दुख-विनाश के मार्ग की भौतिकवादी व्याख्या की है। उनके अनुसार, ‘‘बुद्ध तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ इसलिये नहीं गये, क्योंकि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने उनकी सहायता की थी।’’
 किन्तु डा. आंबेडकर ने इस तरह की भौतिक व्याख्या नहीं की है। उनका मत है कि बुद्ध ने परिनिर्वाण के बाद बुद्ध वचनों में ब्राह्मणों ने भारी हेर-फेर की है। उन्होंने बुद्ध और उनके वचनों को अपने अनुकूल बनाने का काम इसलिये किया, ताकि आम जनता के लिये वे दुष्कर हो जायें। उन्होंने बुद्ध वचनों को ही अलौकिक नहीं बनाया, वरन् बुद्ध को भी लोकोत्तर सत्ता का रूप दिया। जैसा कि भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है, ‘‘भगवान बुद्ध के बारे में एक बात बड़े ही विश्वास के साथ कही जा सकती है कि वे कुछ नहीं थे, यदि उनका कथन बुद्धिसंगत, तर्क-संगत नहीं होता था। आंबेडकर ने इसी आधार पर बुद्ध वचनों को स्वीकार किया। उन्होंने स्वयं लिखा है कि जब हम पाली ग्रन्थों के आधार पर बुद्ध का जीवन चरित्र लिखने का प्रयास करते हैं, तो हमें यह कार्य सहज प्रतीत नहीं होता और उनकी शिक्षाओं की सुसंगत अभिव्यक्ति तो और भी कठिन हो जाती है। वे लिखते हैं कि बुद्ध की चर्या का लेखा-जोखा हमारे सामने कई ऐसी समस्याएं पैदा करता है, जिनका निराकरण यदि असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। इसलिये, उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि उन समस्याओं पर खुल कर विचार किया जाय। ऐसी उन्होंने चार समस्याओं को रेखांकित किया, जिनमें हम पहली समस्या बुद्ध के गृहत्याग पर ऊपर चर्चा कर चुके हैं। दूसरी समस्या चार आर्य सत्यों से उत्पन्न होती है। इस समस्या पर विचार करते हुए आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘जीवन स्वभावतः दुख है, यह सिद्धान्त जैसे बुद्धधर्म की जड़ पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है। यदि जीवन भी दुख है, मरण भी दुख है, पुनरुत्पत्ति भी दुख है, तब तो सभी कुछ समाप्त है। न धर्म ही किसी आदमी को इस संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही। यदि दुख से मुक्ति ही नहीं है तो फिर धर्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी आदमी को दुख से मुक्ति दिलाने के लिये क्या कर सकते हैं, क्योंकि जन्म ही स्वभावतः दुखमय है? ये चारों आर्यसत्य, जिनमें प्रथम आर्यसत्य ही दुख-सत्य है, अबौद्धों द्वारा बौद्धधर्म ग्रहण किये जाने के मार्ग में बड़ी बाधा है। ये उनके गले आसानी से नहीं उतरते। ये सत्य मनुष्य को निराशावाद के गढ़े में ढकेल देते हैं। ये सत्य बुद्ध के धम्म को एक निराशावादी धर्म के रूप में उपस्थित करते हैं।’’आंबेडकर चार आर्यसत्यों को बुद्ध की मूल शिक्षा के विपरीत और परवर्ती भिक्षुओं द्वारा किया गया प्रक्षिप्तांश मानकर पूरी तरह अस्वीकार कर देते हैं।
 आंबेडकर की तीसरी समस्या आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को लेकर है। किन्तु, पहले हम यह देखेंगे कि इस सम्बन्ध में राहुल सांकृत्यायन का मत क्या है? बुद्ध अनात्मवादी और अनीश्वरवादी थे। अर्थात् वे आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते थे। इस सम्बन्ध में ‘प्रतीत्य-समुत्पाद’ (क्षणिकवाद) बुद्ध का बहुत ही क्रान्तिकारी दर्शन है। पर, राहुल लिखते हैं, ‘‘तो भी इस क्रान्तिकारी दर्शन ने अपने भीतर से उन तत्वों (धर्म) को हटाया नहीं था, जो समाज की प्रगति को रोकने का काम देते हैं। पुनर्जन्म की यद्यपि बुद्ध ने नित्य आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में आवागमन के रूप में मानने से इनकार किया था, तो भी दूसरे रूप में परलोक और पुनर्जन्म को माना था। जैसे इस शरीर में जीवन विच्छिन्न प्रवाह (नष्ट-उत्पत्ति-नष्ट-उत्पत्ति) के रूप में एक तरह की एकता स्थापित किये हुए है, उसी तरह वह शरीरान्त में भी जारी रहेगा। पुनर्जन्म के दार्शनिक पहलू को और मजबूत करते हुए पुनर्जन्म का पुनर्जन्म प्रतिसन्धि के रूप में किया अर्थात् नाश और उत्पत्ति की संधि (श्रृंखला) से जुड़कर जैसे जीवन-प्रवाह इस शरीर में चल रहा है, उसी तरह उसकी प्रतिसन्धि (जुड़ना) एक शरीर से अगले शरीर में होती है। अविकारी ठोस आत्मा में पहले के संस्कारों को रखने का स्थान नहीं था, किन्तु क्षणपरिवर्तनशील तरल विज्ञान (जीवन) में उसके वासना या संस्कार के रूप में अपना अंग बनकर चलने में कोई दिक्कत न थी। क्षणिकता सृष्टि की व्याख्या के लिये पर्याप्त थी, किन्तु ईश्वर का काम संसार में व्यवस्था, समाज में व्यवस्था (शोषित को विद्रोह से रोकने की चेष्टा) कायम करना भी है। इसके लिये बुद्ध ने कार्य के सिद्धान्त को और मजबूत किया। आवागमन, धनी-निर्धन का भेद उसी कर्म के कारण है, जिसके कर्ता कभी तुम खुद थे, यद्यपि आज वह कर्म तुम्हारे लिये हाथ से निकला तीर है।’’
 राहुल आगे लिखते हैं, ‘‘बुद्ध के प्रतीत्य-समुत्पाद को देखने पर, जहां तत्काल प्रभुवर्ग भयभीत हो उठता, वहां प्रतिसंधि और कर्म का सिद्धान्त उन्हें बिल्कुल निश्चिन्त कर देता था। यही वजह थी, जो कि बुद्ध के झण्डे के नीचे हम बड़े-बड़े राजाओं, सम्राटों, सेठ-साहूकारों को आते देखते हैं, और भारत से बाहर लंका, चीन, जापान, तिब्बत में तो उनके धर्म को फैलाने में राजा सबसे पहले आगे बढ़े। वे समझते थे कि यह धर्म सामाजिक विद्रोह के लिये नहीं, बल्कि सामाजिक स्थिति को स्थापित रखने के लिये बहुत सहायक साबित होगा।’’ राहुल ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था। इसलिये उन्होंने कहा, ‘‘वर्गदृष्टि से देखने पर बौद्धधर्म शासक वर्ग के एजेन्ट की मध्यस्थता जैसा था, वर्ग के मौलिक स्वार्थ को बिना हटाये वह अपने को न्याय-पक्षपाती दिखलाना चाहता था।’’
 डा. आंबेडकर ने बौद्धधर्म का अध्ययन इस दृष्टि से नहीं किया था। उनका देखने का नजरिया यह था कि बौद्धधर्म का उदय, उसका विकास और प्रभाव ब्राह्मणवाद के लिये घातक था। इसलिये, बौद्धधर्म को विकृत करने का काम ब्राह्मणवाद की विजय के लिये उन ब्राह्मणों ने किया, जो छद्म रूप से बौद्धधर्म में चले गये थे। आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त भी उन्हीं छद्म बौद्धों की देन हैं। इसलिये आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व से इनकार किया। लेकिन साथ ही उन्होंने कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त का भी समर्थन किया है। प्रश्न पैदा हो सकता है कि आत्मा ही नहीं, तो कर्म कैसा? आत्मा ही नहीं, तो पुनर्जन्म कैसा? ये सचमुच टेढ़े प्रश्न हैं। बुद्ध ने ‘कर्म’ तथा ‘पुनर्जन्म’ शब्दों का प्रयोग किन विशिष्ट अर्थों में किया है? क्या बुद्ध ने इन शब्दों का किन्हीं ऐसे विशिष्ट अर्थों में प्रयोग किया, जो अर्थ उन अर्थों से सर्वथा भिन्न थे, जिन अर्थों में बुद्ध के समकालीन ब्राह्मण इन शब्दों का प्रयोग करते थे? यदि हां, तो वह अर्थभेद क्या था? अथवा, उन्होंने उन्हीं अर्थों में इन शब्दों का प्रयोग किया, जिन अर्थों में ब्राह्मण जन इनका प्रयोग करते थे? यदि हां, तो क्या ‘आत्मा’ के अस्तित्व को अस्वीकार करने तथा ‘कर्म’ और ‘पुनर्जन्म’ के सिद्धान्त को मान्य करने में भयानक असंगति नहीं है?’’
 आंबेडकर ने कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है, पर उसे कर्म के हिन्दू सिद्धान्त से अलग रखा है। उनका कहना है कि कर्म का बौद्ध सिद्धान्त और कर्म का हिन्दू सिद्धान्त न एक है और न एक हो सकता है। उन्होंने इस शाब्दिक मायाजाल से सावधान रहने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनके अनुसार, कर्म का हिन्दू सिद्धान्त शरीर से पृथक एक आत्मा पर निर्भर करता है, शरीर मरता है तो आत्मा उसके साथ नहीं मरती। आत्मा फुर्र से उड़ जाती है। किन्तु, बुद्ध के कर्म के सिद्धान्त का सम्बन्ध मात्र कर्म से है और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से।
 आबेडकर ने बुद्ध के पुनर्जन्म के सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की है, ‘‘बुद्ध के अनुसार चार भौतिक पदार्थ हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। जब शरीर का मरण होता है, तो क्या वे भी मर जाते हैं? बुद्ध ने कहा कि ‘नहीं’। आकाश में जो समान भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप से विद्यमान हैं, वे उनमें मिल जाते हैं। इस विद्यमान राशि में से जब इन चारों भौतिक पदार्थों का पुनर्मिलन होता है, तो पुनर्जन्म होता है।’’ आगे आंबेडकर इस प्रश्न पर विचार करते हुए कि क्या मृत आदमी का ही पुनर्जन्म होता है, लिखते हैं, ‘‘यदि मृत आदमी के देह के सभी भौतिक अंश पुनः नये सिरे से मिलकर एक नये शरीर का निर्माण कर सकें, तभी यह मानना सम्भव है कि उसी आदमी का पुनर्जन्म हुआ। यदि भिन्न-भिन्न मृत शरीरों के अंशों के मेल से एक नया शरीर बना, तो यह पुनर्जन्म तो हुआ, लेकिन यह उसी आदमी का पुनर्जन्म नहीं हुआ।’’ इस प्रकार, आंबेडकर ने बुद्ध के कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को खारिज नहीं किया, वरन् उसकी वैज्ञानिक व्याख्या की, अलौकिक व्याख्या से बचते हुए, जो त्रिपिटक के ग्रन्थों में मिलती है।
 राहुल और आंबेडकर की वैचारिक असमानताएं इस कारण से हैं कि राहुल ने एक मार्क्सवादी आलोचक के रूप में धर्म की व्याख्या की है। वे इतिहास के आलोचक थे और भारत में समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करने के स्वप्न-द्रष्टा। किन्तु, डा. आंबेडकर इतिहास के आलोचक के साथ-साथ इतिहास के निर्माता भी थे। भारत में बौद्धधर्म का पुनरुद्धार और बौद्ध समाज का निर्माण उनकी सबसे बड़ी चिन्ता थी। बीसवीं सदी की वैज्ञानिक विचारधारा और मार्क्सवादी आर्थिक व्याख्याओं की चुनौतियाँ भी उनके सामने थीं। राहुल धर्म को मनुष्य के लिये अनावश्यक कह सकते थे, पर आंबेडकर, जो बौद्धधर्म के पुनरुद्धारक होने जा रहे थे, धर्म को अनावश्यक कैसे ठहरा सकते थे? उन्होंने धर्म की भी धर्म, अधर्म और सद्धर्म के रूपों में व्याख्या की और बुद्ध वचनों को भी, जो विकृत हो चुके थे, झाड़-पोंछ कर तर्कसंगत और वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। वे एक विशाल मानव समुदाय को अधार्मिक बनाये जाने के पक्ष में नहीं जा सकते थे। नैतिक दृष्टि से भी किसी समुदाय का धर्म-विमुख होना उनके लिये अनुचित था। वे बौद्धधर्म को एक क्रान्ति मानते थे। उनके अनुसार, ‘‘यह उतनी ही महान क्रान्ति थी, जितनी कि फ्रान्स की क्रान्ति थी। यद्यपि यह धार्मिक क्रान्ति के रूप में आरम्भ हुई, तथापि यह धार्मिक क्रान्ति से बढ़कर थी। यह सामाजिक और राजनैतिक क्रान्ति बन गयी थी।’’ वे लिखते हैं कि इस क्रान्ति के महत्व को तभी समझा जा सकता है, जब क्रान्ति से पहले के भारतीय समाज की भयानक स्थिति और सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से निकृष्ट, विलासिता में डूबे हुए बुद्धकालीन आर्य समुदाय का चित्र आपके सामने होगा।

सन्दर्भ-ग्रन्थ 
 1. अंधकार में ज्योति (अनागरिक धर्मपाल का जीवनवृत्त तथा उपदेश), लेखक-महास्थविर संघरक्षित, नौरफोक (इंगलैण्ड), अनुवादक- कँवल भारती, प्रकाशक-त्रिरत्न ग्रन्थमाला, पुने, संस्करण: 1991 (प्रथम)
 2. मेरी जीवन यात्रा, प्रथम खण्ड, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1946, 
 3. वही, द्वितीय खण्ड, संस्करण 1950,
 4. दर्शन-दिग्दर्शन- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1998,
 5. जिनका मैं कृतज्ञ- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण-1957 
6.. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-7, 9,10,14, डा. आंबेडकर प्रतिष्ठान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली, 
7. सोर्स मेटेरियल आन डा. बाबा साहेब आंबेडकर एण्ड दि मूवमेन्ट आफ दि अनटचेबुल्स, वाल्यूम-1, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, बम्बई, संस्करण प्रथम, दिसम्बर 6, 1982, 
8. डा. बाबा साहेब आंबेडकर- राइटिंगस एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-12, एजूकेशन डिपार्टमेंन्ट, महाराष्ट्र गर्वनमंन्ट, संस्करण पहला 1993, 
9. धनंजय कीर, आंबेडकरः लाइफ एण्ड मिशन, पापुलर प्रकाशन, बम्बई, दूसरा संस्करण, 1961, 
10.राहुल सांकृत्यायन की ‘बुद्धचर्या’ (भारतीय बौद्ध समिति, लखनऊ, संस्करण 1995) 
11. डा. आंबेडकर की पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’, समता प्रकाशन, नागपुर, 
12. ‘सुत्तनिपात’, मूलपाली तथा हिन्दी अनुवाद, भिक्षु धमरत्न, प्रकाशक महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, संस्करण प्रथम 1951, 
13.‘धम्मचक्कपवत्तन सुत्त’, अनुवाद एवं व्याख्या : कँवल भारती, बोधिसत्त्व प्रकाशन, रामपुर,

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