साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Saturday, April 09, 2022

राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर-कँवल भारती

सन्दर्भ- बौद्धधर्म
कंवल भारती
प्रख्यात-दलित चिन्तक व साहित्यकार

 भारत में आधुनिक बौद्धधर्म तीन महान व्यक्तियों का ऋणी है। यानी, जिस बौद्धधर्म को ब्राह्मणवाद ने भारत की धरती से खदेड़ दिया था, उन्नीसवीं शताब्दी में उसका पुनरुद्धार तीन महान लोगों ने किया। ये महान लोग थे- अनागरिक धर्मपाल, महापंडित राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर। धर्मपाल श्री लंका के थे। वे 1891 में भारत आये थे और यहां सारनाथ और बोधगया की दुर्दशा देख कर उनके उद्धार के लिये यहीं रुक गये थे। उन दिनों बौद्धों के तीर्थ स्थल ब्राह्मण महन्तों के कब्जे में थे। लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ कर उन्होंने कई बौद्ध मन्दिरों को ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराये और बौद्धों को सौंपे थे। सारनाथ में उन्हीं के नेतृत्व में खुदाई कार्य किया गया था और उसी खुदाई के परिणाम स्वरूप आज के धम्मेख स्तूप का अस्तित्व सामने आया था। बोध गया का मन्दिर बौद्धों को सौंपे जाने की लड़ाई भी उन्होंने ही लड़ी थी, जो अभी तक जारी है। यही धर्मपाल जी 1893 में शिकागो में होने वाली विश्वधर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर गये थे। धर्मपाल जी दर्शन और इतिहास के लेखक नहीं थे, पर भारत में प्राचीन बौद्ध स्थलों को खोजने और उनका पुनरुद्धार करने का एक मात्र श्रेय उन्हीं को जाता है।
 आधुनिक भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार पर जब भी चर्चा चलती है, तो धर्मपाल जी का नाम राहुल और आंबेडकर से पहले आता है। धर्मपाल जी ने यदि बौद्ध स्तूपों, विहारों और मन्दिरों का उद्धार और निर्माण कराया, तो राहुल सांकृत्यायन को लुप्त बौद्ध साहित्य की खोज करने का श्रेय जाता है। उन्होंने तिब्बत की यात्रा की और वहां से 18 खच्चरों पर लाद कर बौद्ध साहित्य भारत लाये, जो पटना के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित है। यह साहित्य तिब्बती भाषा में है, जिसका उन्होंने संस्कृत और फिर हिन्दी में अनुवाद किया। आज हिन्दी में अधिकांश त्रिपिटक राहुल जी की ही देन है। यदि राहुल जी ने यह महत्वपूर्ण कार्य न किया होता, तो भारत में हिन्दी में बौद्ध साहित्य का सचमुच अभाव होता।
 लेकिन बौद्ध साहित्य और विहारों का तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक उनकी सुरक्षा के लिये आस्थावान बौद्ध समुदाय का अस्तित्व न हो। भारत में बौद्ध समुदाय के अभाव की पूर्ति डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने की। उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्धधर्म में धर्मान्तरण करके लाखों दलितों को बौद्धधर्म में दीक्षित होने की प्रेरणा दी। इसी प्रेरणा के परिणाम स्वरूप आज भारत में बौद्धों की संख्या एक करोड के लगभग है।
 
2
 राहुल सांकृत्यायन सनातनी हिन्दू साधु (रामोदार स्वामी) के रूप में घुमक्कड़ी करते हुए, आर्य समाजी हो गये थे। एक आर्य समाजी के रूप में वे वेद और निराकार ईश्वर में सारी समस्याओं का हल देखते थे। इस सम्बन्ध में उनके विचार इस प्रकार थे- ‘‘उस समय मैं आर्य समाज के गर्मदली विचारों का समर्थक था, इसके सिवाय वेद के ईश्वरीय होने में किसी की आपत्ति को मैं सहन करने के लिये तैयार न था। वेद में रेल, तार, विमान की बातें मुझे सच्ची मालूम होतीं, यद्यपि अभी तक मैंने उनकी पूरी छानबीन न की थी। आर्य समाजी को अपने लिये हिन्दू कहना मैं शर्म की बात समझता था। आर्य धर्म हिन्दूधर्म से उतना ही दूर है, जितना ईसाई और इस्लामधर्म, यह मैं बराबर कहा करता। भारत पर आर्यधर्म का विशेष अधिकार है। उसकी उन्नति और स्वतन्त्रता आर्यधर्म और एक जातीयता की स्थापना से ही हो सकती है, इसके साथ मैं यह भी समझता था कि आज यद्यपि सभी धर्मानुयायियों का एक हो जाना असम्भव मालूम होता है, किन्तु आर्यधर्म की सत्यता को रोका नहीं जा सकता। विज्ञान के साथ कुछ झूठे विज्ञान भी संसार में खोटे सिक्कों की भांति चल रहे हैं, ऐसे ही झूठे विज्ञानों में डार्विन के विकासवाद को भी मैं समझता था। जब पंडित आत्माराम अमृतसरी की विकासवाद के खण्डन पर लिखी गयी पुस्तक मिली, तो मुझे बड़ी खुशी हुई।’’ वे आर्यसमाज के सिद्धान्त को ध्रुव सत्य और दयानन्द के एक-एक वाक्य को वेदवाक्य मानते थे।
 ये विचार 22 वर्ष के एक तरुण (1915) के थे, पर 27 वर्ष के होते-होते बौद्धधर्म को जानने की जिज्ञासा उनमें पैदा हो गयी थी। उन्हीं के शब्दों में, (1921) ‘‘आर्य समाज का प्रभाव रहने से सिद्धान्त में मैं द्वैतवादी हो रामानुज का समर्थक रहा। इसी दार्शनिक ऊहापोह में बौद्ध दर्शन के लिये अधिक जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी, रामानुज और शंकर की ओर से, अन्ततः वर्णाश्रम धर्म का श्राद्ध करके दार्शनिक खंडन द्वारा ही बौद्धों का विरोध किया जाता था। और दार्शनिक सिद्धान्तों में रामानुजीय शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, फिर बौद्ध दर्शन क्या है, इधर ध्यान जाना जरूरी था, और पूर्वपक्ष के तौर पर उद्धृत कुछ वाक्यों से मेरी तृप्ति नहीं हो सकती थी।’’
 यह जिज्ञासा और तृप्ति 34 वर्ष की अवस्था में तब पूरी हुई, जब वे (1927) लंका गये और वहां के विद्यालंकार विहार में 19 मास तक रहे। वहां उन्हें पाली त्रिपिटक में बुद्ध वचनों को पढ़ने का अवसर मिला। उस मनः स्थिति का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘फिर राख में छिपे अंगारों या पत्थरों से ढँके रत्न की तरह बीच-बीच में आते बुद्ध के चमत्कारिक वाक्य मेरे मन को बलात् अपनी ओर खींच लेते थे। जब मैंने कालामों को दिये गये बुद्ध के उपदेश- किसी ग्रन्थ, परम्परा, बुजुर्ग का ख्याल कर उसे मत मानो, हमेशा खुद निश्चय करके उस पर आरूढ़ हो- को सुना, तो हठात् दिल ने कहा- यहां है एक आदमी, जिसका सत्य पर अटल विश्वास है, जो मनुष्य की स्वतन्त्र बुद्धि के महत्व को समझता है। जब मैंने मज्झिम निकाय में पढ़ा- बेड़े की भाँति मैंने तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, वह पार उतरने के लिये है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिये नहीं; तो मालूम हुआ, जिस चीज को मैं इतने दिनों से ढूँढ़ता फिर रहा था, वह मिल गयी।’’
 अब ईश्वर और वेद भी उनसे छूट गये थे। मन की इस दशा पर उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘अब मेरे आर्य सामाजिक और जन्मजात विचार छूट रहे थे। अन्त में, इस सृष्टि का कर्ता भी है, सिर्फ इस पर मेरा विश्वास रह गया था। किन्तु अब तक मुझे यह नहीं मालूम था कि मुझे बुद्ध और ईश्वर में से एक को चुनने की चुनौती दी जायगी। मैंने पहिले पहिल कोशिश की, ईश्वर और बुद्ध दोनों को एक साथ ले चलने की, किन्तु उस पर पग-पग पर आपत्तियां पड़ने लगीं। दो-तीन महीने के भीतर ही मुझे यह प्रयत्न बेकार मालूम होने लगा। ईश्वर और बुद्ध साथ नहीं रह सकते, यह साफ हो गया, और यह भी स्पष्ट मालूम होने लगा कि ईश्वर सिर्फ काल्पनिक चीज है, बुद्ध यथार्थवक्ता हैं। तब, कई हफ्तों तक हृदय में एक दूसरी बेचैनी पैदा हुई- मालूम होता था, चिरकाल से चला आता एक भारी अवलम्ब लुप्त हो रहा है। किन्तु मैंने हमेशा बुद्ध को अपना पथप्रदर्शक बनाया था, और कुछ ही समय बाद उन काल्पनिक भ्रान्तियों और भीतियों का ख्याल आने से अपने भोलेपन पर हँसी आने लगी। अब मुझे डारविन के विकासवाद की सच्चाई मालूम होने लगी, अब मार्क्सवाद की सच्चाई हृदय और मस्तिष्क में पेबस्त जान पड़ने लगी।’’
 इस प्रकार राहुल जी 1915 से 1927 तक आर्य समाजी रहे। पर, लंका में रहते ही वे बुद्ध के अनुयायी हो गये थे। उनमें तिब्बत जाकर बौद्ध साहित्य को खोज कर लाने की भी जिज्ञासा पैदा हो गयी थी। अतः तिब्बत में सवा वर्ष बिताने के बाद, जब वे 1930 में दूसरी बार लंका गये, तो वे विधिवत उपसम्पदा लेकर बौद्धधर्म में प्रब्रजित हो गये थे। अपनी प्रब्रज्या का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘उपसम्पदा के लिये कांडी जाने से पहले विद्यालंकार विहार में नायकपाद के उपाध्यायत्व में मेरी प्रब्रज्या (22 जून) हुई। मैं लंका में रामोदार स्वामी के नाम से प्रसिद्ध था, और लंका छोड़ने से पूर्व ही अपने गोत्र को जोड़कर अपने को रामोदार सांकृत्यायन बना चुका था। मैं समझता था, यही नाम बना रहेगा, क्योंकि इस नाम से मैं साहित्यिक क्षेत्र में अवतीर्ण हो चुका था, किन्तु प्रब्रज्या संस्कार शुरु होने के चन्द ही मिनट पहले नायकपाद की आज्ञा हुई नये नामकरण की। समय होता, तो मैं समझाने की कोशिश करता, किन्तु अब कुछ करना आज्ञा भंग होता। नाम शायद एकाध और पेश किये गये थे, किन्तु मैंने रामोदार के ‘रा’ की साम्यता के देखते हुए राहुल नाम का प्रस्ताव किया और वह स्वीकृत हुआ। इस प्रकार राहुल सांकृत्यायन के नाम से मैं प्रब्रजित (श्रामणेर) हुआ।’’
 ऊपर राहुल जी का वक्तव्य बताता है कि उन्हें बुद्ध के दर्शन ने इतना प्रभावित किया कि न केवल डार्विन के विकासवाद में उनको सच्चाई नजर आने लगी थी, बल्कि माक्र्सवाद की सच्चाई भी उनके हृदय और मस्तिष्क में पेबस्त जान पड़ने लगी थी। उस समय तक वे समाजवादी व्यवस्था के महत्व को समझने लगे थे और बद्ध उन्हें स्वतन्त्रता, समानता और करुणा (भ्रातृत्व) के समर्थक एवं जनतन्त्र के पक्षधर के रूप में दिखायी देने लगे थे। वे बुद्ध के प्रजातांत्रिक विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए थे। उन्होंने एक जगह लिखा है- ‘‘बुद्ध का जन्म एक प्रजातन्त्र (शाक्य) में हुआ था, और मृत्यु भी एक प्रजातन्त्र (मल्ल) ही में हुई। प्रजातन्त्र प्रणाली उनको कितनी प्रिय थी, यह इसी से मालूम है कि अजातशत्रु के साथ अच्छा सम्बन्ध होने पर भी उन्होंने उसके विरोधी वैशाली के लिच्छवियों की प्रशंसा करते हुए राष्ट्र को अपराजित रखने वाली (ये) सात बातें बतलायीं- (1) बराबर एकत्रित हो सामूहिक निर्णय करना, (2) निर्णय के अनुसार कर्तव्य को एक हो करना, (3) व्यवस्था (कानून और विनय) का पालन करना, (4) वृद्धों का सत्कार करना, (5) स्त्रियों पर जबरदस्ती नहीं करना, (6) जातीय धर्म का पालन करना, (7) धर्माचार्यों का सत्कार करना।’’
 लेकिन राहुल मार्क्सवादी दर्शन का भी इस काल में बराबर अध्ययन कर रहे थे और बुद्ध का विचार-स्वतान्त्रय इस अध्ययन में उनकी सहायता कर रहा था। इसलिये, उन्होंने बौद्धधर्म का द्वन्द्वात्मक अध्ययन किया और वे मार्क्सवाद की ओर मुड़ गये। हालांकि, बुद्ध और उनके धर्म के प्रति उनका अनुराग कभी खत्म नहीं हुआ था, पर भिक्षुवेश उन्होंने त्याग दिया था। भदन्त बोधानन्द के प्रति अपने संस्मरण लेख में इसका जिक्र उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘त्रिपिटक में कुछ अधिक प्रवेश करते ही वेद, ईश्वर और आर्यसमाज ने साथ छोड़ दिया, मैं अनीश्वरवादी नास्तिक बन गया। बुद्ध और उनकी शिक्षाओं के प्रति मेरा अनुराग हो गया। उसके बाद तो कोई धर्म मुझे आकृष्ट नहीं कर सका। बुद्ध से अगली मंजिल में मार्क्स मुझे मिले। भौतिकवाद मेरा दर्शन हो गया। पर, बुद्ध के मधुर व्यक्तित्व का आकर्षण मेरे मन से कभी नहीं गया।’’
 राहुल की जीवन-यात्रा एक स्थान या एक विचार पर स्थिर रहने वाली नहीं थी। वे ऐसे प्रगतिशील थे, जो खूंटे से बँधकर नहीं रह सकते थे। अतः बौद्धधर्म के प्रति अपने लगाव के भविष्य को वे जानते थे। इसलिये, जब अनागारिक धर्मपाल ने उन्हें धर्म प्रचारक बनाने के लिये उन पर दबाव डालने के लिये कई पत्र लिखे, तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उस स्थिति का वर्णन करते हुए उन्होंने अपनी ‘जीवन यात्रा’ में लिखा है- ‘‘कोई समय था कि जब मैं धर्मप्रचारक बनने का तीव्र अनुरागी था, लेकिन अब अवस्था बिल्कुल बदल गयी थी। बौद्धधर्म के साथ भी मेरा कच्चे धागे का ही सम्बन्ध था। हाँ बुद्ध के प्रति मेरी श्रद्धा कभी कम नहीं हुई। मैं उन्हें भारत का सबसे बड़ा विचारक मानता रहा हूँ और मैं समझता हूँ कि जिस वक्त दुनिया के धर्म का नामोनिशान न रह जायगा, उस वक्त भी लोग बड़े सम्मान के साथ बुद्ध का नाम लेंगे।’’ उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘मैंने उनके वचनों को पढ़ने के बाद समझा कि वह भी दुनिया के साम्यवादी बनने का सपना देखते थे।’’
 राहुल ने बुद्ध के धर्म का बेड़े की तरह पार उतरने के लिये ही उपयोग किया। वे विचारों से मार्क्सवादी हो चुके थे, पर अभी भिक्षुवेश उन्होंने नहीं त्यागा था। उसका उपयोग उन्होंने लन्दन, नेपाल और बौद्ध देशों की यात्राओं के लिये किया और उसके बाद भिक्षुवेश भी त्याग दिया था।
 वे सामन्तवाद और पूंजीवाद की चक्की में पिस रही आम जनता की मुक्ति के दृष्टिकोण से धर्म को देखने लगे थे। इस दृष्टिकोण से बौद्धधर्म के भी अनेक सिद्धांतों से भी उनकी असहमति बन गयी थी। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बुद्ध तत्कालीन समाज व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे। उनका मत था कि ‘‘(बुद्ध ने) दुःख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये, राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों, सारी दुनिया को झगड़ते मरते-मारते देख भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की।’’
 बुद्ध के क्षणिकवाद के दर्शन से राहुल जी सहमत थे, पर उनकी टिप्पणी थी कि इस क्षणिकवाद को उन्होंने समाज की आर्थिक व्यवस्था पर लागू नहीं किया था। वे इसका कारण बताते हैं कि ऐसा उन्होंने राजाओं और सेठों को अप्रसन्न करने के उद्देश्य से नहीं किया। वे लिखते हैं- ‘‘पुरोहित वर्ग के कूटदंत, सोणदंत जैसे धनी प्रभुताशाली ब्राह्मण उनके (बुद्ध के) अनुयायी बनते थे, राजा लोग उनकी आवभगत के लिये उतावले दिखायी पड़ते थे। उस वक्त का धन कुबेर व्यापारी-वर्ग तो उससे भी ज्यादा उनके सत्कार के लिये अपनी थैलियाँ खोले रहता था, जितने कि आज के भारतीय महासेठ गाँधी के लिये। दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत के साथ व्यापार के महान केन्द्र कौशाम्बी के तीन भारी सेठों ने तो विहार बनवाने में होड़ सी कर ली थी। सच तो यह है कि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने सहायता की। यदि बुद्ध तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ जाते, तो यह सुभीता कहाँ से हो सकता था।’’

3
 लेनिन के इस सिद्धान्त को कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है या उसे निजी मामला होना चाहिए, हम आम आदमी पर तो लागू कर सकते हैं, पर विशिष्ट व्यक्ति पर इस सिद्धान्त को लागू नहीं किया जा सकता और लागू किया जाना चाहिए भी नहीं, क्योंकि विशिष्ट व्यक्ति या वह व्यक्ति, जिससे लाखों करोड़ों लोग प्रेरणा लेते हों, जिसके अनुयायी हों, अगर वह धर्मगुरु नहीं है और दुनिया को बदलने की शिक्षा देता है, तो वह, धर्म को अपना निजी मामला नहीं बना सकता। राहुल सांकृत्यायन एक धर्मगुरु या धर्मप्रचारक की भूमिका त्याग कर दुनिया को बदलने की भूमिका में उतरे थे, तो धर्म को देखने की उनकी दृष्टि वही नहीं रह गयी थी, जो एक सनातनी और आर्य समाजी प्रचारक की होती है। वे लाखों दीन-दुखियों के हित में धर्म के सिद्धान्तों को अलौकिक नहीं, लौकिक आधार पर परखने लगे थे। इसलिये जनता के सामाजिक और आर्थिक शोषण पर जीवित रहने वाले धर्म उनके लिये घृणास्पद थे।
 डा. आंबेडकर भी धर्म को अछूतों की दृष्टि से देखते थे। वे हिन्दूधर्म का विरोध इसी आधार पर करते थे कि वह सामाजिक अलगाववाद का समर्थन करता है और मानवता के एक विशाल समुदाय को समस्त मानवाधिकारों से वंचित रखता है। वे दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार करने की शिक्षा देने वाले हिन्दूधर्म को धर्म के नाम पर कलंक मानते थे। उन्होंने लिखा है, ‘‘अछूतों की समस्या का सीधा सम्बन्ध हिन्दुओं के सामाजिक व्यवहार से है। अस्पृश्यता तभी मिटेगी, जब हिन्दू अपनी मनोवृत्ति बदलेंगे। समस्या यह है कि वह कौन सा तरीका है, जिससे हिन्दू जीवन-शैली को भुला दें। यह कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं है कि कोई समूचा राष्ट्र अपनी बंधी-बंधाई जीवन-शैली को त्याग दे। हिन्दू जिस जीवन-शैली के आदी हैं, वह ऐसी है, जिसे उनका धर्म प्रमाणित करता है। अतः उनकी जीवन-शैली को बदलना उनके धर्म को बदलने जैसा ही है।’’
 यहां आंबेडकर स्पष्ट रूप से इस मत के हैं कि हिन्दूधर्म को सुधारा नहीं जा सकता, उसे छोड़ा जा सकता है। उन्होंने हिन्दूधर्म में सुधार के लिये लम्बे समय तक संघर्ष किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली और अन्ततः उन्हें हिन्दूधर्म को छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी। उन्होंने 1935 में (15 अक्टूबर) बम्बई में कहा, ‘‘हमने अभी यह तय नहीं किया है कि कौन सा धर्म हम अपनायेंगे, पर यह हमने तय कर लिया है कि हिन्दूधर्म हमारे लिये अच्छा नहीं है।’
 यह निर्णय आंबेडकर ने कवीठा काण्ड के प्रतिरोध में लिया था। पूना-पैक्ट के तीन साल बाद 1935 में यह काण्ड हुआ। बम्बई सरकार ने उस समय सार्वजनिक स्कूलों में अछूतों के बच्चों को प्रवेश देने के आदेश जारी किये थे। 8 अगस्त 1935 को कवीथा गांव के अछूत अपने चार बच्चों को स्कूल में दाखिल कराने के लिये ले गये। इसके विरोध में सभी हिन्दुओं ने अपने बच्चों को स्कूल से हटा लिया और रात में घात लगा कर अछूतों की बस्ती पर डंडों, भालों और तलवारों से हमला कर दिया। बाद में हिन्दुओं ने सभी अछूतों का सामाजिक बहिष्कार भी कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि अछूत पीने के पानी तक के लिये तरस गये। इसके विरुद्ध अछूतों ने मजिस्ट्रेट के यहां मुकदमा दायर कर दिया। इस घटना ने अछूतों में दहशत भर दी। वल्लभ भाई पटेल हिन्दुओं को यह समझाने गये कि वे अछूतों पर जुल्म न करें, पर उन्होंने उनकी एक न सुनी। गांधी जी ने अछूतों को यह सलाह दी कि वे गांव छोड़ दें। इस प्रकार, इस संघर्ष में अछूतों को ही दबाया गया। आंबेडकर लिखते हैं कि जब भी हिन्दू अराजकता पर उतर आते हैं, तो अछूत हमेशा ही असहाय हो जाते हैं।
 आंबेडकर की घोषणा की प्रतिक्रिया में गांधी ने नासिक में कहा कि धर्म कोई मकान या वस्त्र नहीं है, जिसे बदला जा सके, धर्म आदमी का जरूरी अंग है। इसका उत्तर आंबेडकर ने इन शब्दों में दिया, ‘‘मैं गांधी जी से सहमत हूँ कि धर्म जरूरी है, परन्तु मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि आदमी को अपने उस पुश्तैनी धर्म से चिपटा रहना चाहिए, जो उसके लिये घृणास्पद हो, अपमानजनक हो और उसे आगे बढ़ने की कोई प्रेरणा न देता हो।’’ उन्होंने आगे कहा कि कवीथा में जो हुआ, वह अनोखी घटना नहीं है, वह हिन्दुओं के पुश्तैनी धर्म में मौजूद व्यवस्था पर आधारित है। इस धर्म को दलितों को छोड़ना ही होगा।
 राहुल के सामने उनका कोई जातीय समाज नहीं था, जिसे वे बदलना चाहते थे। वे ब्राह्मण थे, पर ब्राह्मणों को सुधारने या उनकी मुक्ति के (किसी कार्यक्रम के) दायित्व से मुक्त थे। किन्तु आंबेडकर इस दायित्व से मुक्त नहीं थे। उनके सामने उनका विशाल अछूत समाज था, जिसे हिन्दुओं और उनके धर्म ने मानवीय गरिमा और अधिकारों से वंचित करके रखा था। इसलिये, आंबेडकर आरम्भ से ही इस खोज में रहे कि धर्म का अर्थ क्या है, हिन्दूधर्म से अछूत समुदाय का क्या सम्बन्ध है? और कोई दूसरा धर्म उनकी स्थिति को बदल सकता है या नहीं?
 राहुल भले ही यह नहीं देख सके थे कि ब्राह्मण हिन्दूधर्म और उसकी व्यवस्था को क्यों पसन्द करते थे और क्यों उसमें कोई सुधार नहीं चाहते थे? किन्तु, आंबेडकर ने यह अच्छी तरह देख लिया था कि हिन्दुओं की वर्णव्यवस्था ब्राह्मणों के लिये स्वर्ग की व्यवस्था है, जिसमें वे सबसे श्रेष्ठ और सबसे पूज्य बने हुए हैं। वे यह भी देख रहे थे कि हिन्दू अछूतों पर इसलिये अत्याचार नहीं करते हैं कि वे क्रूर हैं, बल्कि इसलिये करते हैं, क्योंकि उनका धर्म उन्हें ऐसा करने की शिक्षा देता है। एक स्थान पर आंबेडकर ने लिखा है, ‘‘हिन्दू चाहे स्त्री हो या पुरुष, वह जो कुछ करता है, धर्म के अनुसार करता है। वह खाता धर्म के अनुसार है, पीता धर्म के अनुसार है, नहाता धर्म के अनुसार है, पहनता धर्म के अनुसार है, उसका जन्म धर्म के अनुसार होता है, विवाह धर्म के अनुसार होता है और धर्म के अनुसार ही उसे जलाया जाता है। उसके सारे कार्य धर्मानुसार होते हैं। धर्मनिरपेक्षता के दृष्टिकोण से ये काम गलत हो सकते हैं, पर ये इसलिये पापपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि ये धर्म द्वारा स्वीकृत हैं। इसलिये यदि कोई हिन्दू पाप का अभियुक्त होता है, तो वह गर्व से कहता है कि यदि मैं पाप करता हूँ तो पाप भी धर्म के अनुसार कर रहा हूँ।’’
 आंबेडकर अपने अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि अछूतों के लिये हिन्दूधर्म इसलिये अमानवीय है, क्योंकि अछूत हिन्दू समाज के अंग नहीं हैं। दूसरे शब्दों में वे हिन्दूधर्म के बाड़े से बाहर के हैं। आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘हिन्दुओं और अछूतों के बीच क्या सम्बन्ध है, इसकी सटीक व्याख्या बम्बई के एक सम्मेलन में सनातनी हिन्दुओं के नेता ऐनापुरे शास्त्री ने की है। उन्होंने कहा कि हिन्दुओं के साथ अछूतों का सम्बन्ध वैसा ही है, जैसा किसी मनुष्य का उसके जूतों के साथ होता है। आदमी जूते पहनता है, इस दृष्टि से वह मनुष्य के साथ है और कहा जा सकता है कि वह मनुष्य के हैं। लेकिन जूते शरीर का अंग नहीं है, क्योंकि जिन दो चीजों को किसी इकाई से अलग किया जा सकता है, उन्हें उस इकाई का अंग नहीं कहा जा सकता।’’
 आंबेडकर की दृष्टि में यह एक अत्यन्त सटीक उपमा थी। उनके पास इसका मजबूत आधार भी है। उनके अनुसार, अछूत वर्णव्यवस्था के अंग नहीं है। वे उसके बाहर के हैं, अर्थात् अवर्ण हैं। वे लिखते हैं, ‘‘हिन्दू विधान के निर्माता मनु ने अपने नियम में कहा है कि वर्ण केवल चार हैं और पांचवाँ वर्ण नहीं होगा। मनु अछूतों को उस भवन में प्रवेश दिलाने को तैयार नहीं थे, जिसे प्राचीन हिन्दुओं ने वर्णव्यवस्था में विस्तार कर उसे पांच वर्णों के लिये बनाना चाहा था। मनु ने अछूतों को वर्ण-बाह्य कहकर वर्णव्यवस्था से बाहर रखा है। आदिम और जरायम पेशा जातियों के विरुद्ध हिन्दू समाज में प्रवेश के लिये कोई निश्चित वर्जना नहीं है। वे कालान्तर में उसके सदस्य बन सकते हैं। फिलहाल वे हिन्दू समाज से जुड़े हैं और उसके बाद वे उसमें घुलमिल सकते हैं तथा उसका अंग बन सकते हैं। लेकिन अछूतों की स्थिति अलग है। हिन्दू समाज में उनके विरुद्ध निश्चित वर्जना है। उसके सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्हें अलग-थलग ही रहना होगा और वे हिन्दू समाज का अंग न हैं और न बन सकते हैं।’’ वे अन्यत्र कहते हैं हिन्दू भी यह जानते हैं कि अछूत उनके समाज के अंग नहीं हैं। यही कारण है कि हिन्दुओं में नैतिक दृष्टि से अछूतों के प्रति कोई चिन्ता या ममत्व नहीं होता है।’’
 आंबेडकर की सबसे बड़ी चिन्ता थी कि अछूत अनेकों जातियों-उपजातियों में विभाजित हैं और उनके बीच मौजूद सामाजिक भेदभाव उन्हें एक नहीं होने देता। हिन्दू समाज में ब्राह्मण एक वर्ग है, क्षत्रिय एक वर्ग है और वैश्य एक वर्ग है। प्रत्येक वर्ग में अनेक जातियाँ होने के बावजूद उनके बीच सामाजिक अलगाव नहीं है, वरन् रोटी-बेटी का सम्बन्ध है। इनमें से प्रत्येक वर्ग में अपनी ही जाति में विवाह वर्जित है। (मिश्रा-मिश्रा में नहीं, शुक्ला में विवाह करेगा।) किन्तु यही वर्ण चेतना शूद्रों और अछूतों में नहीं है, जिसके कारण उनमें सामाजिक एकता का सदैव अभाव रहता है।
 इसलिये आंबेडकर ऐसे धर्म की तलाश में थे, जो निम्न जातियों को एक वर्ग में संगठित कर दे और उनका सांस्कृतिक विकास करे। वे इस मत के नहीं थे, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं कि धर्म समाज के लिये आवश्यक नहीं है। वे जीवन और सामाजिक आचरण के लिये धर्म को आवश्यक मानते थे। वे कहते थे कि धर्म अफीम नहीं है, जैसा कि कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है। पर, वे धर्म के नाम पर पाखण्ड को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे। वे कहते थे कि आदमी सिर्फ रोटी खाकर जीवित नहीं रह सकता। उसके पास एक मन भी है, जिसे विचार के लिये आहार चाहिए। यह आहार उसे धर्म से ही मिलता है। धर्म ही उसे आशावादी बनाता है और आगे बढ़ने की शक्ति देता है। उनकी दृष्टि में धर्म और दासता दो परस्पर विरोधी चीजें थीं। कोई भी धर्म, जो आदमी को दास बनाता है, वह उनके लिये धर्म नहीं था।
 आंबेडकर ने अपने सिद्धान्त के आधार पर सभी धर्मों पर विचार किया- न केवल ईसाई और इस्लाम धर्मों पर, बल्कि आर्य समाज और सिख धर्म के बारे में भी। मई 1936 में कोलम्बो से एक इटैलियन बौद्ध भिक्षु लोकनाथ ने भारत आकर आंबेडकर से भेंट की और उन्हें इस बात पर सहमत करने की कोशिश की कि यदि अछूत लोग बौद्धधर्म ग्रहण कर लेते हैं, तो वे समाज में नैतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से उच्चतर स्तर प्राप्त कर लेंगे। यद्यपि आंबेडकर ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया था, पर बौद्धधर्म के प्रति उनमें सम्मान का भाव पहले ही से था।
 इस विषय पर आंबेडकर का अध्ययन निरन्तर चल रहा था। वे अस्पृश्यता के उद्गम के ऐतिहासिक आधार को भी देखना चाहते थे, ताकि जिस धर्म को वे स्वीकार करें, उसमें अछूतों की ऐतिहासिक संगति भी बैठ सके। शीघ्र ही उन्होंने अपना एक लम्बा साक्षात्कार ‘दि बाम्बे क्रानिकल’ को दिया, जो उसके 24 फरवरी 1940 के अंक में प्रकाशित हुआ। इस साक्षात्कार में उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि वैदिक काल में और उसके बाद शताब्दियों तक अस्पृश्यता का अस्तित्व नहीं मिलता है। इसका उद्गम बहुत बाद में हुआ और इसका सम्बन्ध बौद्धधर्म के बाद परिवर्तनों से पैदा हुई परिस्थितियों से है। उन्होंने उस युग का उल्लेख किया, जब कुछ लोग अपने ऋषि आधारित जीवन के लिये एक जगह बस गये थे, पर बहुत से दूसरे लोग अपने पशुओं के चारे के लिये जगह-जगह घूमते रहते थे। बसे हुए किसानों को अपनी भूमि, मकान और फसल की सुरक्षा घुमन्तु लोगों से करनी होती थी। इससे बचने और शान्ति पूर्ण जीवन जीने के लिये उन्होंने कुछ घुमन्तु लोगों की सेवाएं लीं। उन्हें कुछ जमीनें और घर देकर गांव के बाहर बसा दिया और उनको गांव की सुरक्षा का काम सौंप दिया। वे पीढि़यों तक इस काम को करते रहे। गांव के भीतर और गांव के बाहर किनारों पर रहने वाले इन लोगों के बीच सामान्य मानवीय सम्बन्ध थे- किसी तरह की अस्पृश्यता नहीं थी। तब, अस्पृश्यता कैसे पैदा हुई? आंबेडकर कहते हैं कि इसके लिये भारत में बौद्धधर्म के उदय को देखना होगा।
 आंबेडकर के अनुसार, भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब बौद्धधर्म ने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था। देश की जनता और सारा व्यापारी वर्ग बौद्धधर्म में चला गया था। ब्राह्मणवाद का पतन हो गया था, जो शताब्दियों से राज कर रहा था। बुद्ध ने तीन शिक्षाएं दीं- सामाजिक समानता की, वर्णव्यवस्था के उन्मूलन की और अहिंसा के सिद्धान्त की, जिसमें धर्म के नाम पर पशु बलि वर्जित थी। आंबेडकर ने कहा कि उस समय तक ब्राह्मण शाकाहारी नहीं हुए थे, वे गौओं और अन्य पशुओं की बलि देते थे और उनका मांस खाते थे। जब बुद्ध ने बलि का निषेध किया और गाय को ऋषि और दूध के लिये उपयोगी पशु बताते हुए उसकी सुरक्षा की शिक्षा दी, तो जनता ने उसे अपना लिया। तब, ब्राह्मणों के सामने शाकाहारी बनने के सिवा कोई चारा नहीं था।
 आगे आंबेडकर लिखते हैं कि ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को बौद्धधर्म में जाने से रोकने के मकसद से उन्हें समानता का दर्जा देने की पेशकश की और दोनों ने मिलकर वैश्य और शूद्रों को रोकने के लिये उन दो पुलिस वालों की तरह काम किया, जो कैदी के दोनों तरफ खड़े होकर उसे भागने से रोकते हैं। अब गाय पवित्र हो गयी थी और उसकी बलि देने की प्रथा समाप्त हो गयी थी। बहुत सारी बुद्ध शिक्षाएं हिन्दूधर्म में समाहित कर लीं गयी थीं। जो जनता बौद्धधर्म में चली गयी थी, वह भी धीरे-धीरे वापिस आने लगी थी। बुद्ध की जो सबसे बड़ी शिक्षा ब्राह्मणों ने स्वीकार नहीं की, वह थी समानता की शिक्षा और वर्णव्यवस्था का उन्मूलन। पर, उन्होंने यह जरूर किया कि कुछ समय के लिये क्षत्रियों को अपने समान दर्जा दिया और ब्राह्मण देवताओं को हटा कर उनके स्थान पर क्षत्रिय देवताओं को स्थापित कर उनके साथ अन्य समयानुकूल समझौते कर लिये।
 आगे आंबेडकर कहते हैं, न तो बुद्ध ने और न ब्राह्मणों ने मृतक पशु के मांस को खाने पर रोक लगायी थी। रोक सिर्फ जीवित गाय का वध करने पर थी। पर, आज के अछूतों का एक बड़ा अपराध यह है कि वे गरीबों में सबसे गरीब और सामाजिक रूप से सबसे निचले स्तर के होने के कारण बौद्धधर्म में लम्बे समय तक बने रहे और मृतक पशु का मांस खाते रहे। उनको सुधारने के लिये एक बड़ी शक्ति की जरूरत थी, जो उनके लिये लम्बे समय तक काम करती। पर ऐसा कोई काम तो नहीं हुआ, उलटे, सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता उन पर लागू कर दी गयी।
 आंबेडकर का निष्कर्ष था कि उनकी मृतक गाय का मांस खाने की आदत ही उनके शोषण का कारण बनी। यही वह चीज थी, जिससे स्वाभाविक रूप से हिन्दुओं को उनसे घृणा हुई। इसी वजह से उस पूरे वर्ग पर अस्पृश्यता थोप दी गयी। यह वास्तव में वह दण्ड था, जो ब्राह्मणों ने उन्हें बौद्धधर्म में बने रहने के लिये दिया था, जबकि अन्य लोगों ने बौद्धधर्म छोड़ दिया था। आंबेडकर कहते हैं कि इसलिये शिक्षा और स्वतन्त्रता तथा सामाजिक समानता के सभी आधुनिक विचारों के बावजूद आज तक अस्पृश्यता बनी हुई है।
 आंबेडकर ने अपने इस शोध को ‘दि अनटचेबिल्स’ नाम से प्रकाशित कराया, जो अछूतपन के ऐतिहासिक आधार को रेखांकित करने वाली एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह सिद्ध करने के बाद कि आज के अछूत किसी समय बौद्ध थे, उनका बौद्धधर्म में जाने का रास्ता आसान हो गया था। अतः आंबेडकर ने 2 मई 1950 को नयी दिल्ली में, बुद्ध जयन्ती के अवसर पर भारत के अछूतों से बौद्धधर्म ग्रहण करने की अपील की। इस अपील पर दूसरे दिन 15 अछूतों ने दिल्ली में बौद्धधर्म ग्रहण किया। इस अवसर पर, डा. आंबेडकर ने हिन्दी में तीस मिनट का संक्षिप्त व्याख्यान दिया, जिसमें उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत में पुनः बौद्धधर्म का उदय होगा। उन्होंने आगे कहा कि न राम और न ही कृष्ण बुद्ध का मुकाबला करते हैं, बुद्ध के बराबर कोई भगवान नहीं है और न आगे ऐसा कोई महान धर्मगुरु और शास्ता पैदा होगा। 6 जून 1950 को उन्होंने कोलम्बो में कहा, ‘‘यह आम धारणा बन गयी है कि बौद्धधर्म भारत से लुप्त हो गया है। मैं मानता हूँ कि यह भौतिक रूप में लुप्त हुआ है, पर एक अमूर्त (बौद्धिक) शक्ति के रूप में यह अभी भी अस्तित्व में है।’’
 आंबेडकर ने देश के बहुत से भागों में जाकर अछूतों की सभाएं कीं और उन्हें बौद्धधर्म के विषय में जानकारी दी। उन्होंने स्वयं को पूरी तरह बौद्धधर्म के विस्तार के लिये समर्पित कर दिया था। अन्ततः उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को विजया दशमी के दिन नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ पूज्य महास्थविर चन्द्रमणि जी के नेतृत्व में बौद्धधर्म की दीक्षा ली और भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार का झण्डा गाड़ दिया। बाद में, उन्होंने बाइबिल और कुरान की तरह बौद्धों के लिये भी एक धर्मग्रन्थ की रचना की, जो ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नाम से प्रसिद्ध है।

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 हमने देखा कि राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर दोनों बौद्धधर्म तक पहुंचे, पर अलग-अलग रास्तों से और अलग-अलग कारणों से। राहुल भारत में बौद्ध समाज नहीं बना पाये। पर, आंबेडकर ने इसी कमी को पूरा किया। लेकिन इस बात को लेकर दोनों एक मत थे कि बौद्धधर्म हिन्दूधर्म का अंग नहीं है। राहुल की दृष्टि में बौद्ध हिन्दू नहीं थे। किन्तु, बुद्ध के जीवन, सिद्धान्तों और दर्शन के सम्बन्ध में दोनों विद्वानों के विचार समान नहीं हैं। उदाहरण के लिये आंबेडकर ने बुद्ध के जीवन और दर्शन को उसी रूप में स्वीकार नहीं किया, जिस रूप में वह परम्परा में मौजूद था। किन्तु, राहुल काफी हद तक परम्परा में प्रचलित बुद्ध के जीवन-दर्शन को ही स्वीकार करते हैं। बुद्ध के जन्म की इस कहानी पर राहुल और आंबेडकर एक मत हैं कि बुद्ध ने अपने जन्म के बारे में सोच कर यह तय किया कि कपिलवस्तु में राजा शुद्धोधन मेरे पिता होंगे और मेरी माता महामाया नामक देवी होंगी। तब उन्होंने महामाया को स्वप्न में आकर बताया कि क्या तुम मेरी माता बनना स्वीकार करोगी? उसका उत्तर था, बड़ी प्रसन्नता से। और उसी समय बोधिसत्त्व ने महामाया के गर्भ में प्रवेश किया।
 लेकिन बुद्ध के गृहत्याग की कहानी पर राहुल के विचार परम्परागत हैं, जबकि आंबेडकर उसको तर्क की कसौटी पर कसते हैं और उसके मूल में राजनैतिक कारण मानते हैं। राहुल का वही (परम्परागत) मत है- ‘‘वृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित (संन्यासी) के चार दृश्यों को देखकर उनकी (सिद्धार्थ की) संसार से विरक्ति पक्की हो गयी और एक रात वह चुपके से घर से भाग निकले।’’ राहुल सांकृत्यायन भी घर छोड़कर भागे थे, अपने पिता, माँ और ब्याहता किसी का भी मोह उन्होंने नहीं पाला था। पर, आंबेडकर को बुद्ध का इस तरह पलायन करना ठीक नहीं लगा था। यह उनके गले भी नहीं उतरा था। वे लिखते हैं- ‘‘जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रव्रज्या (गृहत्याग) ग्रहण की, उस समय उनकी आयु 29 वर्ष की थी। यदि सिद्धार्थ ने इन्हीं तीन दृश्यों (वृद्ध, रोगी और मृतक) को देखकर प्रव्रज्या ग्रहण की, तो यह कैसे हो सकता है कि 29 वर्ष की आयु तक सिद्धार्थ ने कभी किसी बूढ़े, रोगी तथा मृत व्यक्ति को देखा ही न हो? ये जीवन की ऐसी घटनाएं हैं, जो रोज ही सैकड़ों, हजारों की संख्या में घटती रही हैं और सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु होने से पहले भी इन्हें देखा ही होगा। इस परम्परागत मान्यता को स्वीकार करना असम्भव है कि 29 वर्ष की आयु होने तक सिद्धार्थ ने एक बूढ़े, रोगी और मृत व्यक्ति को देखा ही नहीं था और 29 वर्ष की आयु होने पर ही प्रथम बार देखा। यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती।’’
 डा. भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है कि वृद्ध, रोगी और मृत व्यक्ति को देखकर गृहत्याग की मान्यता ‘‘वे अट्टकथाएँ हैं, जिन्हें बुद्धघोष तथा अन्य आचार्यों ने भगवान बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद परम्परागत सिंहल अट्टकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पाली भाषा में लिखा।’’ उनके अनुसार त्रिपिटक के किसी भी ग्रन्थ में गृहत्याग के इस कथानक का कहीं उल्लेख नहीं है।
 आंबेडकर ने परम्परागत मान्यता के विरुद्ध ‘खुद्दक निकाय’ के ‘सुत्तनिपात’ के अट्ठकवग्ग में अत्तदण्डसुत्त की इन गाथाओं को बुद्ध के गृहत्याग का आधार बनाया- ‘‘शस्त्र धारण भयावह लगा। मुझमें वैराग्य उत्पन्न हुआ, यह मैं बताता हूँ। अपर्याप्त पानी मैं जैसे मछलियां छटपटाती हैं, वैसे एक-दूसरे से विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर मेरे मन में भय उत्पन्न हुआ। चारों ओर का जगत असार दिखायी देने लगा, सब दिशाएं काँप रही हैं, ऐसा लगा और उसमें आश्रय का स्थान खोजने पर निर्भय स्थान नहीं मिला, क्योंकि अन्त तक सारी जनता को परस्पर विरुद्ध हुए देखकर मेरा जी ऊब गया।’’
 आंबेडकर का मत है कि शाक्यों और कोलियों में रोहिणी नदी के पानी को लेकर झगड़े होते थे। शाक्य संघ ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध का प्रस्ताव पारित किया, जिसका सिद्धार्थ गौतम ने विरोध किया। शाक्य संघ के नियम के अनुसार बहुमत के विरुद्ध जाने पर दण्ड का प्राविधान था। संघ ने तीन विकल्प रखे-(1) सिद्धार्थ सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लें, (2) फांसी पर लटक कर मरने या देश छोड़कर जाने का दण्ड स्वीकार करें या (3) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिये राजी हों। संघ का बहुमत सिद्धार्थ के विरुद्ध था। सिद्धार्थ के लिये सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेने की बात को स्वीकार करना असम्भव था। अपने परिवार के सामाजिक बहिष्कार पर भी वह विचार नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने दूसरे विकल्प को स्वीकार किया और वे स्वेच्छा से देश त्याग कर जाने के लिये तैयार हो गये।
 राहुल सांकृत्यायन ने इसी परम्परागत मान्यता के साथ लिखा कि सिद्धार्थ गौतम ने अपनी पत्नी और बच्चे को सोता हुआ छोड़कर चुपके से गृहत्याग किया था। किन्तु, आंबेडकर इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार, उन्होंने पूरी तरह अपने पिता शुद्धोधन, अपनी माता प्रजापति गौतमी और पत्नी यशोधरा से सहमति और अनुमति लेकर घर से अभिनिष्क्रमण किया था। राहुल ने सिद्धार्थ की परिवार-विमुखता को गम्भीरता से नहीं लिया, शायद इसलिये कि वे स्वयं भी परिवार-विमुख थे। पर, आंबेडकर ने इसे बहुत गम्भीर प्रश्न माना था। उनकी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति, जो परिवार-विमुख है, समाज-विमुख भी होगा, वह समाज-उन्मुख नहीं हो सकता। इसलिये आंबेडकर ने इस बात को रेखांकित करना ज्यादा जरूरी समझा कि सिद्धार्थ जैसा जनवादी और जागरूक व्यक्ति परिवार-विमुख कैसे हो सकता है? वह परिवार के सदस्यों को धोखा देकर घर छोड़ ही नहीं सकते थे। इस तरह के विश्वासघात की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती थी। आंबेडकर ने लिखा है कि जब सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु छोड़ा, तो अनोमा नदी तक जनता उनके पीछे-पीछे आयी थी, जिसमें उनके पिता शुद्धोधन और उनकी माता प्रजापति गौतमी भी उपस्थित थे।

 वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ) में पंच वर्गीय ब्राह्मण भिक्षुओं को दिया गया बुद्ध का पहला धर्मोपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र’ के नाम से विख्यात है। इसमें बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी है। पहला आर्य सत्य ‘दुख है’, दूसरा आर्य सत्य ‘दुख का कारण है’, तीसरा आर्य सत्य ‘दुख का निरोध है’, और चौथा आर्य सत्य ‘दुख निरोध का उपाय है।’ दुख सत्य की व्याख्या करते हुए बुद्ध ने कहा है- ‘‘जन्म भी दुख है, बुढ़ापा भी दुख है, मरण, शोक, रूदन, मन की खिन्नता, हैरानगी दुख है। अप्रिय से संयोग भी, प्रिय से वियोग भी दुख है, इच्छा करके जिसे नहीं पाता, वह भी दुख है। संक्षेप में पांचों उपादान स्कन्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) दुख हैं।’’ बुद्ध ने दुख का कारण तृष्णा को माना है और तृष्णा के निरोध (विनाश) को दुख का निरोध कहा है। तृष्णा से उपादान (वासना) पैदा होती है, उपादान से जन्म, जन्म से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक आदि पैदा होते हैं। दुख-निरोध का मार्ग है, आर्य आष्टांगिक मार्ग, जो ये हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयत्न, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।
 राहुल और आंबेडकर दोनों ने चार आर्य सत्यों पर अपने-अपने ढंग से विचार किया है। बुद्ध ने दुख सत्य की जो लौकिक-अलौकिक व्याख्या की है, उसे उसी रूप में राहुल ने भी स्वीकार नहीं किया है और आंबेडकर ने भी। राहुल लिखते हैं, ‘‘यहां उन्होंने (बुद्ध ने) दुख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों सारी दुनिया को झगड़ते, मरते-मारते देख कर भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की। उनके मतानुसार मानो, काँटों से बचने के लिये सारी पृथ्वी को तो नहीं ढका जा सकता है, हाँ अपने पैरों को चमड़े से ढाँक कर काँटों से बचा जा सकता है। वह समय भी ऐसा नहीं था कि बुद्ध जैसे प्रयोगवादी दार्शनिक सामाजिक पापों को सामाजिक चिकित्सा से दूर करने की कोशिश करते। तो भी, वैयक्तिक सम्पत्ति की बुराइयों को वह जानते थे, इसीलिये जहाँ तक उनके अपने भिक्षु-संघ का सम्बन्ध था, उन्होंने उसे हटा कर भोग में पूर्ण साम्यवाद स्थापित करना चाहा।’’
 राहुल ने बुद्ध के दुख-विनाश के मार्ग की भौतिकवादी व्याख्या की है। उनके अनुसार, ‘‘बुद्ध तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ इसलिये नहीं गये, क्योंकि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने उनकी सहायता की थी।’’
 किन्तु डा. आंबेडकर ने इस तरह की भौतिक व्याख्या नहीं की है। उनका मत है कि बुद्ध ने परिनिर्वाण के बाद बुद्ध वचनों में ब्राह्मणों ने भारी हेर-फेर की है। उन्होंने बुद्ध और उनके वचनों को अपने अनुकूल बनाने का काम इसलिये किया, ताकि आम जनता के लिये वे दुष्कर हो जायें। उन्होंने बुद्ध वचनों को ही अलौकिक नहीं बनाया, वरन् बुद्ध को भी लोकोत्तर सत्ता का रूप दिया। जैसा कि भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है, ‘‘भगवान बुद्ध के बारे में एक बात बड़े ही विश्वास के साथ कही जा सकती है कि वे कुछ नहीं थे, यदि उनका कथन बुद्धिसंगत, तर्क-संगत नहीं होता था। आंबेडकर ने इसी आधार पर बुद्ध वचनों को स्वीकार किया। उन्होंने स्वयं लिखा है कि जब हम पाली ग्रन्थों के आधार पर बुद्ध का जीवन चरित्र लिखने का प्रयास करते हैं, तो हमें यह कार्य सहज प्रतीत नहीं होता और उनकी शिक्षाओं की सुसंगत अभिव्यक्ति तो और भी कठिन हो जाती है। वे लिखते हैं कि बुद्ध की चर्या का लेखा-जोखा हमारे सामने कई ऐसी समस्याएं पैदा करता है, जिनका निराकरण यदि असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। इसलिये, उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि उन समस्याओं पर खुल कर विचार किया जाय। ऐसी उन्होंने चार समस्याओं को रेखांकित किया, जिनमें हम पहली समस्या बुद्ध के गृहत्याग पर ऊपर चर्चा कर चुके हैं। दूसरी समस्या चार आर्य सत्यों से उत्पन्न होती है। इस समस्या पर विचार करते हुए आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘जीवन स्वभावतः दुख है, यह सिद्धान्त जैसे बुद्धधर्म की जड़ पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है। यदि जीवन भी दुख है, मरण भी दुख है, पुनरुत्पत्ति भी दुख है, तब तो सभी कुछ समाप्त है। न धर्म ही किसी आदमी को इस संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही। यदि दुख से मुक्ति ही नहीं है तो फिर धर्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी आदमी को दुख से मुक्ति दिलाने के लिये क्या कर सकते हैं, क्योंकि जन्म ही स्वभावतः दुखमय है? ये चारों आर्यसत्य, जिनमें प्रथम आर्यसत्य ही दुख-सत्य है, अबौद्धों द्वारा बौद्धधर्म ग्रहण किये जाने के मार्ग में बड़ी बाधा है। ये उनके गले आसानी से नहीं उतरते। ये सत्य मनुष्य को निराशावाद के गढ़े में ढकेल देते हैं। ये सत्य बुद्ध के धम्म को एक निराशावादी धर्म के रूप में उपस्थित करते हैं।’’आंबेडकर चार आर्यसत्यों को बुद्ध की मूल शिक्षा के विपरीत और परवर्ती भिक्षुओं द्वारा किया गया प्रक्षिप्तांश मानकर पूरी तरह अस्वीकार कर देते हैं।
 आंबेडकर की तीसरी समस्या आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को लेकर है। किन्तु, पहले हम यह देखेंगे कि इस सम्बन्ध में राहुल सांकृत्यायन का मत क्या है? बुद्ध अनात्मवादी और अनीश्वरवादी थे। अर्थात् वे आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते थे। इस सम्बन्ध में ‘प्रतीत्य-समुत्पाद’ (क्षणिकवाद) बुद्ध का बहुत ही क्रान्तिकारी दर्शन है। पर, राहुल लिखते हैं, ‘‘तो भी इस क्रान्तिकारी दर्शन ने अपने भीतर से उन तत्वों (धर्म) को हटाया नहीं था, जो समाज की प्रगति को रोकने का काम देते हैं। पुनर्जन्म की यद्यपि बुद्ध ने नित्य आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में आवागमन के रूप में मानने से इनकार किया था, तो भी दूसरे रूप में परलोक और पुनर्जन्म को माना था। जैसे इस शरीर में जीवन विच्छिन्न प्रवाह (नष्ट-उत्पत्ति-नष्ट-उत्पत्ति) के रूप में एक तरह की एकता स्थापित किये हुए है, उसी तरह वह शरीरान्त में भी जारी रहेगा। पुनर्जन्म के दार्शनिक पहलू को और मजबूत करते हुए पुनर्जन्म का पुनर्जन्म प्रतिसन्धि के रूप में किया अर्थात् नाश और उत्पत्ति की संधि (श्रृंखला) से जुड़कर जैसे जीवन-प्रवाह इस शरीर में चल रहा है, उसी तरह उसकी प्रतिसन्धि (जुड़ना) एक शरीर से अगले शरीर में होती है। अविकारी ठोस आत्मा में पहले के संस्कारों को रखने का स्थान नहीं था, किन्तु क्षणपरिवर्तनशील तरल विज्ञान (जीवन) में उसके वासना या संस्कार के रूप में अपना अंग बनकर चलने में कोई दिक्कत न थी। क्षणिकता सृष्टि की व्याख्या के लिये पर्याप्त थी, किन्तु ईश्वर का काम संसार में व्यवस्था, समाज में व्यवस्था (शोषित को विद्रोह से रोकने की चेष्टा) कायम करना भी है। इसके लिये बुद्ध ने कार्य के सिद्धान्त को और मजबूत किया। आवागमन, धनी-निर्धन का भेद उसी कर्म के कारण है, जिसके कर्ता कभी तुम खुद थे, यद्यपि आज वह कर्म तुम्हारे लिये हाथ से निकला तीर है।’’
 राहुल आगे लिखते हैं, ‘‘बुद्ध के प्रतीत्य-समुत्पाद को देखने पर, जहां तत्काल प्रभुवर्ग भयभीत हो उठता, वहां प्रतिसंधि और कर्म का सिद्धान्त उन्हें बिल्कुल निश्चिन्त कर देता था। यही वजह थी, जो कि बुद्ध के झण्डे के नीचे हम बड़े-बड़े राजाओं, सम्राटों, सेठ-साहूकारों को आते देखते हैं, और भारत से बाहर लंका, चीन, जापान, तिब्बत में तो उनके धर्म को फैलाने में राजा सबसे पहले आगे बढ़े। वे समझते थे कि यह धर्म सामाजिक विद्रोह के लिये नहीं, बल्कि सामाजिक स्थिति को स्थापित रखने के लिये बहुत सहायक साबित होगा।’’ राहुल ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था। इसलिये उन्होंने कहा, ‘‘वर्गदृष्टि से देखने पर बौद्धधर्म शासक वर्ग के एजेन्ट की मध्यस्थता जैसा था, वर्ग के मौलिक स्वार्थ को बिना हटाये वह अपने को न्याय-पक्षपाती दिखलाना चाहता था।’’
 डा. आंबेडकर ने बौद्धधर्म का अध्ययन इस दृष्टि से नहीं किया था। उनका देखने का नजरिया यह था कि बौद्धधर्म का उदय, उसका विकास और प्रभाव ब्राह्मणवाद के लिये घातक था। इसलिये, बौद्धधर्म को विकृत करने का काम ब्राह्मणवाद की विजय के लिये उन ब्राह्मणों ने किया, जो छद्म रूप से बौद्धधर्म में चले गये थे। आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त भी उन्हीं छद्म बौद्धों की देन हैं। इसलिये आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व से इनकार किया। लेकिन साथ ही उन्होंने कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त का भी समर्थन किया है। प्रश्न पैदा हो सकता है कि आत्मा ही नहीं, तो कर्म कैसा? आत्मा ही नहीं, तो पुनर्जन्म कैसा? ये सचमुच टेढ़े प्रश्न हैं। बुद्ध ने ‘कर्म’ तथा ‘पुनर्जन्म’ शब्दों का प्रयोग किन विशिष्ट अर्थों में किया है? क्या बुद्ध ने इन शब्दों का किन्हीं ऐसे विशिष्ट अर्थों में प्रयोग किया, जो अर्थ उन अर्थों से सर्वथा भिन्न थे, जिन अर्थों में बुद्ध के समकालीन ब्राह्मण इन शब्दों का प्रयोग करते थे? यदि हां, तो वह अर्थभेद क्या था? अथवा, उन्होंने उन्हीं अर्थों में इन शब्दों का प्रयोग किया, जिन अर्थों में ब्राह्मण जन इनका प्रयोग करते थे? यदि हां, तो क्या ‘आत्मा’ के अस्तित्व को अस्वीकार करने तथा ‘कर्म’ और ‘पुनर्जन्म’ के सिद्धान्त को मान्य करने में भयानक असंगति नहीं है?’’
 आंबेडकर ने कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है, पर उसे कर्म के हिन्दू सिद्धान्त से अलग रखा है। उनका कहना है कि कर्म का बौद्ध सिद्धान्त और कर्म का हिन्दू सिद्धान्त न एक है और न एक हो सकता है। उन्होंने इस शाब्दिक मायाजाल से सावधान रहने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनके अनुसार, कर्म का हिन्दू सिद्धान्त शरीर से पृथक एक आत्मा पर निर्भर करता है, शरीर मरता है तो आत्मा उसके साथ नहीं मरती। आत्मा फुर्र से उड़ जाती है। किन्तु, बुद्ध के कर्म के सिद्धान्त का सम्बन्ध मात्र कर्म से है और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से।
 आबेडकर ने बुद्ध के पुनर्जन्म के सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की है, ‘‘बुद्ध के अनुसार चार भौतिक पदार्थ हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। जब शरीर का मरण होता है, तो क्या वे भी मर जाते हैं? बुद्ध ने कहा कि ‘नहीं’। आकाश में जो समान भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप से विद्यमान हैं, वे उनमें मिल जाते हैं। इस विद्यमान राशि में से जब इन चारों भौतिक पदार्थों का पुनर्मिलन होता है, तो पुनर्जन्म होता है।’’ आगे आंबेडकर इस प्रश्न पर विचार करते हुए कि क्या मृत आदमी का ही पुनर्जन्म होता है, लिखते हैं, ‘‘यदि मृत आदमी के देह के सभी भौतिक अंश पुनः नये सिरे से मिलकर एक नये शरीर का निर्माण कर सकें, तभी यह मानना सम्भव है कि उसी आदमी का पुनर्जन्म हुआ। यदि भिन्न-भिन्न मृत शरीरों के अंशों के मेल से एक नया शरीर बना, तो यह पुनर्जन्म तो हुआ, लेकिन यह उसी आदमी का पुनर्जन्म नहीं हुआ।’’ इस प्रकार, आंबेडकर ने बुद्ध के कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को खारिज नहीं किया, वरन् उसकी वैज्ञानिक व्याख्या की, अलौकिक व्याख्या से बचते हुए, जो त्रिपिटक के ग्रन्थों में मिलती है।
 राहुल और आंबेडकर की वैचारिक असमानताएं इस कारण से हैं कि राहुल ने एक मार्क्सवादी आलोचक के रूप में धर्म की व्याख्या की है। वे इतिहास के आलोचक थे और भारत में समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करने के स्वप्न-द्रष्टा। किन्तु, डा. आंबेडकर इतिहास के आलोचक के साथ-साथ इतिहास के निर्माता भी थे। भारत में बौद्धधर्म का पुनरुद्धार और बौद्ध समाज का निर्माण उनकी सबसे बड़ी चिन्ता थी। बीसवीं सदी की वैज्ञानिक विचारधारा और मार्क्सवादी आर्थिक व्याख्याओं की चुनौतियाँ भी उनके सामने थीं। राहुल धर्म को मनुष्य के लिये अनावश्यक कह सकते थे, पर आंबेडकर, जो बौद्धधर्म के पुनरुद्धारक होने जा रहे थे, धर्म को अनावश्यक कैसे ठहरा सकते थे? उन्होंने धर्म की भी धर्म, अधर्म और सद्धर्म के रूपों में व्याख्या की और बुद्ध वचनों को भी, जो विकृत हो चुके थे, झाड़-पोंछ कर तर्कसंगत और वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। वे एक विशाल मानव समुदाय को अधार्मिक बनाये जाने के पक्ष में नहीं जा सकते थे। नैतिक दृष्टि से भी किसी समुदाय का धर्म-विमुख होना उनके लिये अनुचित था। वे बौद्धधर्म को एक क्रान्ति मानते थे। उनके अनुसार, ‘‘यह उतनी ही महान क्रान्ति थी, जितनी कि फ्रान्स की क्रान्ति थी। यद्यपि यह धार्मिक क्रान्ति के रूप में आरम्भ हुई, तथापि यह धार्मिक क्रान्ति से बढ़कर थी। यह सामाजिक और राजनैतिक क्रान्ति बन गयी थी।’’ वे लिखते हैं कि इस क्रान्ति के महत्व को तभी समझा जा सकता है, जब क्रान्ति से पहले के भारतीय समाज की भयानक स्थिति और सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से निकृष्ट, विलासिता में डूबे हुए बुद्धकालीन आर्य समुदाय का चित्र आपके सामने होगा।

सन्दर्भ-ग्रन्थ 
 1. अंधकार में ज्योति (अनागरिक धर्मपाल का जीवनवृत्त तथा उपदेश), लेखक-महास्थविर संघरक्षित, नौरफोक (इंगलैण्ड), अनुवादक- कँवल भारती, प्रकाशक-त्रिरत्न ग्रन्थमाला, पुने, संस्करण: 1991 (प्रथम)
 2. मेरी जीवन यात्रा, प्रथम खण्ड, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1946, 
 3. वही, द्वितीय खण्ड, संस्करण 1950,
 4. दर्शन-दिग्दर्शन- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1998,
 5. जिनका मैं कृतज्ञ- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण-1957 
6.. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-7, 9,10,14, डा. आंबेडकर प्रतिष्ठान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली, 
7. सोर्स मेटेरियल आन डा. बाबा साहेब आंबेडकर एण्ड दि मूवमेन्ट आफ दि अनटचेबुल्स, वाल्यूम-1, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, बम्बई, संस्करण प्रथम, दिसम्बर 6, 1982, 
8. डा. बाबा साहेब आंबेडकर- राइटिंगस एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-12, एजूकेशन डिपार्टमेंन्ट, महाराष्ट्र गर्वनमंन्ट, संस्करण पहला 1993, 
9. धनंजय कीर, आंबेडकरः लाइफ एण्ड मिशन, पापुलर प्रकाशन, बम्बई, दूसरा संस्करण, 1961, 
10.राहुल सांकृत्यायन की ‘बुद्धचर्या’ (भारतीय बौद्ध समिति, लखनऊ, संस्करण 1995) 
11. डा. आंबेडकर की पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’, समता प्रकाशन, नागपुर, 
12. ‘सुत्तनिपात’, मूलपाली तथा हिन्दी अनुवाद, भिक्षु धमरत्न, प्रकाशक महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, संस्करण प्रथम 1951, 
13.‘धम्मचक्कपवत्तन सुत्त’, अनुवाद एवं व्याख्या : कँवल भारती, बोधिसत्त्व प्रकाशन, रामपुर,

Friday, April 08, 2022

आखिर अंबेडकर को पीएम के तौर पर देखने की बात कभी किसी ने क्यों नहीं की-पुण्य प्रसून बाजपेयी

    अम्बेडकर युग में अम्बेडकरी विमर्श  

नेहरु की जगह सरदार पटेल पीएम होते तो देश के हालात कुछ और होते । ये सवाल नेहरु या कांग्रेस से नाराज हर नेता या राजनीतिक दल हमेशा उठाते रहे हैं। *लेकिन इस सवाल को किसी ने कभी नहीं उठाया कि अगर नेहरु की जगह अंबेडकर पीएम होते तो हालात कुछ और होते ।* दरअसल अंबेडकर को राजनीतिक तौर पर किसीने कभी मान्यता दी ही नहीं। या तो संविधान निर्माता या फिर दलितों के मसीहा के तौर पर बाबा साहेब अंबेडकर को कमोवेश हर राजनीतिक सत्ता ने देश के सामने पेश किया । लेकिन इतिहास के पन्नों को अगर पलटे और आजादी से पहले या तुरंत बाद में या फिर देश के हालातों को लेकर अंबेडकर तब क्या सोच रहे थे और क्यों अंबेडकर को राजनीतिक तौर पर उभारने की कोई कोशिश हुई नहीं । और मौजूदा वक्त में भी बाबा साहेब अंबेडकर का नाम लेकर राजनीतिक सत्ता जिस तरह भावुक हो जाती है लेकिन ये कहने से बचती है कि अंबेडकर पीएम होते तो क्या होता ।
तो आईये जरा आंबेडकर के लेखन, अंबेडकर के कथन और अंबेडकर के अध्ययन को ही परख लें कि वह उस वक्त देश को लेकर वह क्या सोच रहे थे, जिस दौर में देश गढ़ा जा रहा था । तो संविधान निर्माता की पहचान लिये बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान की स्वीकृति के बाद 26 नवंबर 1949 को कहा “26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं । राजनीति में हम समानता प्राप्त कर लेंगे । परंतु सामाजिक-आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। राजनीति में हम यह सिद्दांत स्वीकार करेंगे कि एक आदमी एक वोट होता है और एक वोट का एक ही मूल्य होता है ।” 
अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण हम यह सिद्दांत नकारते रहेंगे कि एक आदमी का एक ही मूल्य होता है। कब तक हम अंतर्विरोधों का ये जीवन बिताते रहेंगे। कहाँ तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे ? बहुत दिनो तक हम उसे नकारते रहे तो हम ऐसा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में डाल कर ही रहेंगे । जितनी जल्दी हो सके हमें इस अंतर्विरोध को दूर करना चाहिये ।वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीडि़त है वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनीतिक लोकतंत्र के भवन को ध्वस्त कर देंगे। ” यानी संविधान के आसरे देश को छोड़ा नहीं जा सकता है बल्कि अंबेडकर असमानता के उस सच को उस दौर में ही समझ रहे थे जिस सच से अभी भी राजनीतिक सत्ता आंखे मूंदे रहती है या फिर सत्ता पाने के लिये असमानता का जिक्र करती है ।


*यानी जो व्यवस्था समानता की होनी चाहिये, वह नहीं है तो इस बात की कुलबुलाहट अंबेडकर में उस दौर में इतनी ज्यादा थी कि 13 दिसंबर 1949 को जब नेहरु ने संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यों पर प्रस्ताव पेश किया तो बिना देर किये अंबेडकर ने नेहरु के प्रस्ताव का भी विरोध किया । अंबेडकर की राइटिंग और स्पीचीज की पुस्तक माला के खंड 13 के पेज 8 में लिखा है कि आंबेडकर ने कितना तीखा प्रहार नेहरु पर भी किया। उन्होने कहा,  “समाजवादी के रुप में इनकी जो ख्याती है उसे देखते हुये यह प्रसताव निराशाजनक है । मैं आशा करता था, कोई ऐसा प्रावधान होगा जिससे राज्यसत्ता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय को यथार्थ रुप दे सके ।* उस नजरिए से मै आशा करता था कि ये प्रस्ताव बहुत ही स्पष्ट शब्दों में घोषित करे कि देश में सामाजिक आर्थिक न्याय हो । इसके लिये उघोग-धंधों और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा । जब तक समाजवादी अर्थतंत्र न हो तबतक मै नहीं समझता , कोई भावी सरकार जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय करना चाहती है वह ऐसा कर सकेगी ।”  
*अंबेडकर उन हालातों को उसी दौर में बता रहे थे जिस दौर में नेहरु सत्ता के लिये बेचैन थे और उसके बाद से बीते 70 बरस में यही सवाल हर नई राजनीतिक सत्ता पूर्व की सरकारों को लेकर यही सवाल खड़ा करते  सत्ता पाती रही है फिर आर्थिक असमानता तले उन्हीं हालातों में जाती है । यूं  तो ठीक दो बरस संसद में संविधान दिवस मनाये जाने के दौर को भी याद किया किया सकता है, जब 26 नवंबर 2015 को संविधान दिवस मनाते मनाते कांग्रेस हो या बीजेपी यानी विपक्ष हो या सत्तादारी सभी ने एक सुर में माना कि अंबेडकर जिन सवालों को संविधान लागू होने से पहले उठा रहे थे , वही सवाल संविधान लागू होने के बाद देश के सामने मुंह बाये खड़े हैं।*
*ये अलग बात है कि कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ने खुद को आंबेडकर के सबसे नजदीक खड़े होने की कोशिश संसद में बहस के दौरान की । लेकिन दोनो राजनीतिक दलों में से किसी नेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि आजादी के बाद अगर अंबेडकर देश के पीएम होते तो देश के हालात कुछ और होते ।* क्योंकि अंबेडकर एक तरफ भारत की जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खडे होकर देश की व्यवस्था को ठीक करने की सोच रहे थे । और दूसरा उस दौर में अंबेडकर किसी भी राजनेता से सबसे ज्यादा पढ़े लिखे व्यक्तियो में से थे । जो अमेरिकी विश्वविघालय में राजनीति और सामाजिक अध्ययन करने के साथ साथ भारत की अर्थ नीति कैसे हो इस पर भी लिख रहे थे। यानी अंबेडकर का अध्ययन और भारत को लेकर उनकी सोच कैसे दलित नेता के तौर पर स्थापना और संविधान निर्माता के तौर पर मान्यता के तहत दब कर रह गई ये किसी ने सोचा ही नहीं । क्योंकि जिस दौर में महात्मा गांधी हिन्द स्वराज लिख रहे थे और हिन्द स्वराज के जरीये संसदीय प्रणली या आर्थिक हालातों का जिक्र भारत के संदर्भ में कर रहे थे ।
उस दौर में अंबेडकर भारत की पराधीन अर्थव्यवस्था को मुक्त कराने के लिये स्वाधीन इक्नामिक ढांचे पर भी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में कह-बोल रहे थे । और भारत के सामाजिक जीवन में झांकने के लिये संस्कृत का धार्मिक पौराणिक और वेद संबंधी समूचा वाड्मंय अनुवाद में पढ़ रहे थे । और भोतिक स्थापनायें लोगों के सामने रख रहे थे । इसलिये जो दलित नेता आज सत्ता की गोद में बैठकर अंबेडकर को दलित नेता के तौर पर याद कर के नतमस्तक होते है , वह इस सच से आंखे चुराते हैं कि आंबेडकर ब्रहमण व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था से आगे अक सिस्टम मानते थे । और 1930 में उनका बहुत साफ मानना था कि ब्राह्मण सिस्टम में अगर जाटव भी किसी ब्राह्मण की जगह ले लेगा तो वह भी उसी अनुरुप काम करने लगेगा, जिस के अनुरुप कोई ब्राह्मण करता । 
अपनी किताब मार्क्स और बुद्द में आंबेडकर ने भारत की सामाजिक व्यवस्था की उन कुरितियों को उभारा भी और समाधान की उस लकीर को खींचने की कोशिश भी की जिस लकीर को गाहे बगाहे नेहरु से लेकर मोदी तक कभी सोशल इंजिनियरिंग तो कभी अमीर-गरीब के खांचे में उठाते हैं। *1942 में आल इंडिया रेडियो पर एक कार्यक्रम में अंबेडकर कहते है , भारत में इस समय केवल मजदूर वर्ग की सही नेतृत्व दे सकता है । मजदूर वर्ग में अनेक जातियों के लोग है जो छूत-अछूत का भेद मिटाती है । संगठन के लिये जाति प्रथा को आधार नहीं बनाते । उसी दौर में अंबेडकर अपनी किताब , ‘ स्टेट्स एंड माइनरटिज ” में राज्यों के विकास का खाका भी खिचते नजर आते है । जिस यूपी को लेकर आज बहस हो रही है कि इतने बडे सूबे को चार राज्यों में बांटा जाना चाहिये । वही यूपी को स्पेटाइल स्टेट कहते हुये अंबेडकर यूपी को तीन हिस्से में करने की वकालत आजादी से पहले ही करते है ।*
फिर अपनी किताब ‘ स्माल होल्डिग्स इन इंडिया ” में किसानों के उन सवालों को 75 बरस पहले उठाते हैं, जिन सवालों का जबाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है । अंबेडकर किसानों की कर्ज माफी से आगे किसानों की क्षमता बढाने के तरीके उस वक्त बताते है । जबकि आज जब यूपी में किसानों के कर्ज माफी के बाद भी किसान परेशान है । और कर्ज की वजह से सबसे ज्यादा किसानों की खुदकुशी वाले राज्य महाराष्ट्र में सत्ता किसानों की कर्ज माफी से इतर क्षमता बढाने का जिक्र तो करती है लेकिन ये होगा कैसे इसका रास्ता बता नहीं पाती । जबकि अंबेडकर ‘स्माल होल्डिग्स ” में सभी उपाय बताते हैं। और माना भी जाता है कि आंबेडकर ने नेहरु के मंत्रिमंडल में शामिल होने के बदले योजना आयोग देने को कहा था।
क्योंकि आंबेडकर लगातार भारत के सामाजिक – आर्थिक हालातों पर जिस तरह अध्ययन कर रहे थे , वैसे में उन्हें लगता रहा कि आजादी के बाद जिस इक्नामी को या जिस सिस्टम की जरुरत देश को है, वह उसे बाखूबी जानते समझते हैं। और अम्बेडकर ने उन्हीं सामाजिक हालातों की वजह से ही नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दिया, जिन परिस्थितियों को वह तब ठीक करना चाहते थे। 
*हिन्दू कोड बिल को लेकर जब संघ परिवार से लेकर , हिन्दु महासभा और कई दूसरे संगठनों ने सड़क पर विरोध प्रदर्शन शुरु किया । तो संसद में लंबी चर्चा के बाद भी देश की पहली राष्ट्रीय सरकार में भी जब आंबेडकर हिन्दू कोड बिल पर सहमत नहीं कर पाये तो 27 सितंबर 1951 को अंबेडकर ने नेहरु को इस्तीफा देते हुये लिखा “बहुत दिनों से इस्तीफा देने की सोच रहा था। एक चीज मुझे रोके हुये था, वह ये कि इस संसद के जीवनकाल में हिन्दूकोड बिल पास हो जाये । मैं बिल को तोड़कर विवाह और तलाक तक उसे सीमित करने पर सीमित हो गया थ। इस आशा से कि कम से कम इन्हीं को लेकर हमारा श्रम सार्थक हो जाये । पर बिल के इस भाग को भी मार दिया गया है । आपके मंत्रिमंडल में बने रहने का कोई कारण नहीं दिखता है । ”* 
दरअसल इतिहास के पन्नों को पलटिये तो गांधी, अंबेडकर और लोहिया कभी राजनीति करते हुये नजर नहीं आयेंगे बल्कि तीनों ही अपने-अपने तरह से देश को गढना चाहते थे । और आजादी के बाद संसदीय राजनीति के दायरे में तीनों को अपना बनाने की होड़ तो शुरु हुई लेकिन उनके विचार को ही खारिज कर दिया उनके जीवित रहते हुये उन्हीं लोगों ने किया जो उन्हे अपना बनाते या मानते नजर आये । इसलिये नेहरु या सरदार पटेल का जिक्र प्रशासनिक काबिलियत के तौर पर तो हो सकता है , लेकिन आजादी के ठीक बाद के हालात को अगर परखे तो उस वक्त देश को कैसे गढना है यही सवाल सबसे बडा था । लेकिन पहले दिन से ही जो सवाल सांप्रदायिकता के दायरे से होते हुये कश्मीर और रोजगार से होते हुये जाति-व्यवस्था और उससे आगे समाज के हर तबके की भागेदारी को लेकर सत्ता ने उठाये या उनसे दो चार होते वक्त जिन रास्तो को चुना। ध्यान दें तो बीते 70 बरस में देश उन्ही मुद्दो में आज भी उलझा हुआ है । और राजनीतिक सत्ता ही कैसे जाति-व्यवस्था के दायरे से इतर सोच पाने में सक्षम नहीं है ।
तो इस सवाल को तो अंबेडकर ने नेहरु के पहले मंत्रिमडल की बैठक में ही उठा दिया था । इसलिये *आंबेडकर पंचायत स्तर के चुनाव का भी विरोध कर रहे थे । क्योकि उनका साफ मानना था कि चुनाव जाति में सिमटेंगे ।* जाति राजनीति को चलायेगी और असमानता भी एक वक्त देश की पहचान बना दी जायेगी । जिसके आधार पर बजट से लेकर योजना आयोग की नीतियां बनेंगी . और ध्यान दें तो हुआ यही । अंतर सिर्फ यही आया है कि आंबेडकर आजादी के वक्त जब देश को गढने के लिये तमाम सवालों को मथ रहे थे तब देश की आबादी 31 करोड थी और आज दलितों की तादात ही करीब 21 करोड हो चली है । और शिक्षित चाहे 66 फ़ीसदी  हो लेकिन ग्रेजुएट महज 4 फ़ीसदी  है । इतना ही नहीं 70 फ़ीसदी  दलितों के पास अपनी कोई जमीन नहीं है । और 85 फ़ीसदी  दलितों की आय 5 हजार रुपये महीने से भी कम है । आबादी 16 फ़ीसदी  है लेकिन सरकारी नौकरियों में दलितों की तादाद महज 3.96 फ़ीसदी  है। और दलितों के लिये सरकार के तमाम मंत्रालयों का कुल बजट यानी उनकी आबादी की तुलना में आधे से भी कम है । 2016-17 में शिड्यूल कास्ट सब-प्लान आफ आल मिनिस्ट्रिज का महज 38,833 करोड दिया गया . जबकि आजादी के लिहाज से उन्हे मिलना चाहिये 77,236 करोड रुपये । पिछले बरस यानी 2015-16 में तो ये रकम और भी कम 30,850 करोड थी । 
यानी जिस नजरिये का सवाल *आंबेडकर आजादी से पहले और आजादी के ठीक बाद उठाते रहे । उन सवालों के आईने में अगर बाबा साहेब आंबेडकर को देश सिर्फ संविधान निर्माता मानता है या दलितों की मसीहा के तौर पर देखता है तो समझना जरुरी है कि आखिर आजतक किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी पीएम ने ये क्यों नहीं कहा कि अंबेडकर को तो प्रधानमंत्री होना चाहिये था।* क्योंकि ये बेहद महीन लकीर है कि महात्मा गांधी जन सरोकार को संघर्ष के लिये तैयार करते रहे और अंबेडकर नीतियों के आसरे जनसरोकार के संघर्ष को पैदा करना चाहते रहे। यानी देश की पॉलिसी ही अगर नीचे से उपर देखना शुरु कर देती तो अंग्रेजों का बना बनाया सिस्टम बहुत जल्द खत्म होता । यानी जिस नेहरु मॉडल को कांग्रेस ने महात्मा गांधी से जोडने की कोशिश की । और जिस नेहरु मॉडल को लोहिया ने खारिज कर समाजवाद के बीज बोने चाहे। इन दोनों को आत्मसात करने वाली राजनीतिक सत्ताओं ने आंबेडकर मॉडल पर चर्चा करना तो दूर आंबेडकर को दलितों की रहनुमाई तले संविधान निर्माता का तमगा देकर ही खत्म करने की कोशिश की । जो अब भी जारी है

Wednesday, April 06, 2022

श्रीलंका में शेर नही होते, उस तलवारधारी शेर के हाँथ में तलवार नहीं अब कटोरा है-मनीष सिंह रिबोर्न

Manish Singh Reborn की पोस्ट से........साभार सोशल मिडिया■ 
जी हां। 
श्रीलंका के जैविक इतिहास में कभी भी शेर नही पाए गए। न जिंदा, न फॉसिल्स... शेर तो वहां होते ही नही। 

एकमात्र शेर जो लंका में मिलता है, वह उसके झंडे पर है, वह भी उधार का। पहले पल्लव महेन्द्रवर्मन, और फ़िर जब चोल राजवंश, खासकर राजेन्द्र चोल ने अपनी नेवी के बूते सामुद्रिक अभियान शुरू कर, दक्षिण पूर्वी एशिया में अपनी सुप्रीमेसी स्थापित की, तब श्रीलंका पहला स्टॉप था। 

यह तलवारधारी शेर चोलो के झंडे में था। वही झण्डा थोड़े बदलावों के साथ, तब से चला आ रहा है। याने तमिल नस्ल श्रीलंका की बेस है। लेकिन जो सदियों पहले सिंहल गए, वो सिंहली हो गए। जो लेट से, याने 18 वी शताब्दी में गए। चाय बागानों में काम करने के लिए अंग्रेजो के बुलावे पर पहुचे। वो तमिल कहलाये। 

तमिल जब तलक मजदूर थे, दिक्कत नही हुई। जब अगली पीढियां मजबूत होने लगी, कमाने, बढ़ने लगी तो मूल निवासी चिंतित होने लगे। डिवाइड रूल वाले नेताओं को अवसर दिखा। अब दोनों पार्टी हिन्दू थी, तो लड़ाने का आधार भाषा बनी। 

सत्तर के दशक में सिंहली राजभाषा हुई। और तमिलो के हक, स्पेस, सम्मान पर चोट करना शुरू हुआ। नतीजे में वही हुआ, जो होना था- गृहयुद्ध। तो गृहयुद्ध हुआ, श्रीलंका दो टुकड़ों में टूटते टूटते बचा। श्रीलंका सरकार ने तमिलों से गृहयुद्ध जीत लिया।  लेकिन गृहयुद्ध जिताने वाला अब्राहम लिंकन नही था। जीत के बाद मेल मिलाप होना चाहिए। मगर नेता की नीति रही कि अब तो सिंहल में सिंहलियों की चलेगी। यह बात सिंहलियों को बड़ी प्रिय लगी। सबको जीत का नशा था, नेता को भी, जनता को भी। 

जनता नशे में हो, तो नेता महाबली हो जाता है। महाबली नेता ने, उसके परिवार ने जैसे चाहा, देश को हांका। प्रेस, विपक्ष, संसद.. जो बहस, चर्चा और सवालों से कोर्स करेक्शन करवाते हैं, समवेत नीतियां बनवाने में मददगार होते हैं।लेकिन दूसरी नजर से देखा जाए तो महाबली नेता की राह के रोड़े भी होते हैं। महाबली के खिलाफ खड़े दिखे, तो गद्दार भी करार दिये गए। तो जब महाबली प्रेस, विपक्ष, संसद का बघीया करण कर रहे थे, जनता खुश थी। बम्पर बहुमत से नेता का मन बढ़ा रही थी। असल मे अपने हाथ पैर काट रही थी। 

आज वही जनता सड़कों पर है। भूखी, अंधेरे में, खिसियाती और चिल्लाती। महाबली गो बैक के नारे लगा रही है। लेकिन वह मजबूत नेता इमरजेंसी लगाकर ठीक वही बर्ताव कर रहा गई, जो तमिलो के साथ किये जाने पर जनता ताली बजा रही थी। उसके पास न विपक्ष है, न प्रेस, न संसद। सबको तो जहर देकर उसी ने मारा है। अपनी लड़ाई उसे खुद लड़नी है। वो अब नेता से लड़ रही है और नेता उससे लड़ रहा है और वो झंडे वाला शेर... 
ध्यान से देखिए। उसके हाथ मे तलवार नही है कटोरा है। #श्रीलंका #vss

Tuesday, April 05, 2022

मेडिकल किडनैपिंग ये होती है... कैसे बचें और बचाएं अपनों को

  सोशल मिडिया से                                                                                           बुराई, मेडिकल लूट     
अभिनव वर्मा की माँ ,जो सिर्फ 50 बरस की थीं , पेट में दर्द उठा ,नज़दीक ही फोर्टिस अस्पताल बनेरघट्टा, बंगलौर है ! डा कनिराज ने माँ को देखा और अल्ट्रा साउंड कराने को कहा ! फोर्टिस में ही अल्ट्रा साउंड हुआ और डा कनिराज ने बताया कि गाल ब्लैडर में पथरी है ! एक छोटा सा ऑपरेशन होगा,माँ स्वस्थ हो जाएंगी ! अभिनव माँ को घर लेकर आ गए और पेन-किलर के उपयोग से दर्द खत्म भी हो गया !!
कुछ दिन बाद अभिनव वर्मा को फोर्टिस से फोन कर डा कनिराज ने हिदायत दी कि यूँ पथरी का गाल ब्लैडर में रहना खतरनाक होगा,अतः अभिनव को अपनी माँ का ऑपरेशन तुरंत करा लेना ज़रूरी है ! अभिनव जब अपनी माँ को फोर्टिस बंगलौर लेकर पहुचे तो एक दूसरे डॉक्टर मो शब्बीर अहमद ने अटेंड किया ,जो एंडोस्कोपी के एक्सपर्ट थे,उन्होंने बताया कि एहतियात के लिए ERCP करा ली जाय , डा अहमद को पैंक्रियास कैंसर का .05 % शक था ! अभिनव मजबूर थे, डॉक्टर भगवान होता है, झूठ तो नहीं बोलेगा, सो पैंक्रियास और गाल ब्लैडर की बायोप्सी की गई !! रिपोर्ट नेगेटिव आई मगर बॉयोप्सी और एंडोस्कोपी की प्रक्रिया के बाद माँ को भयंकर दर्द शुरू हो गया ! गाल ब्लैडर के ऑपरेशन को छोड़, माँ को पेट दर्द और इंटर्नल ब्लीडिंग के शक में ICU में पंहुचा दिया गया ! आगे पढ़ने के लिए धैर्य और मज़बूत दिल चाहिए !!
जब अभिनव की माँ अस्पताल में भर्ती हुई थीं तो लिवर,हार्ट,किडनी और सारे ब्लड रिपोर्ट पूरी तरह नार्मल थे ! डॉक्टरों ने बताना शुरू किया कि अब लिवर अफेक्टेड हो गया है, फिर किडनी के लिए कह दिया गया कि डायलिसिस होगा ! एक दिन कहा अब बीपी बहुत 'लो' जा रहा है तो पेस मेकर लगाना पड़ेगा, पेस मेकर लग गया मगर हालात बद से बदतर हो गए ! पेट का दर्द भी बढ़ता जा रहा था और शरीर के अंग एक-एक कर साथ छोड़ रहे थे ! अब तक अभिनव की माँ को फोर्टिस ICU में एक माह से ऊपर हो चुका था !
एक दिन डॉक्टर ने कहा कि बॉडी में शरीर के ऑक्सीजन सप्लाई में कुछ गड़बड़ हो गई अतः ऑपरेशन करना होगा ! ऑपरेशन टेबल पर लिटाने के बाद डॉक्टर, ऑपरेशन थिएटर के बाहर निकल कर तुरंत कई लाख की रकम जमा कराने को कहता है और उसके बाद ही ऑपरेशन करने की बात करता है ! अभिनव तुरंत दौड़ता है और अपने रिश्तेदारों ,मित्रों के सामने गिड़गिड़ाता है,रकम उसी दिन इकट्ठी कर फोर्टिस में जमा कराई गई,पैसे जमा होने के बाद भी डॉक्टर ऑपरेशन कैंसिल कर देते हैं !
हालात क्यों बिगड़ रहे हैं, इंफेक्शन क्यों होते जा रहे थे, डॉक्टर अभिनव को कुछ नहीं बताते ! सिर्फ दवा, ड्रिप, खून की बोतलें और माँ की बेहोशी में अभिनव स्वयं आर्थिक और मॉनसिक रूप से टूट चुका था ! डॉक्टरों को जब अभिनव से पैसा जमा कराना होता था तब ही वह अभिनव से बात करते थे ! 
माँ बेहोशी में कराहती थी ! अभिनव माँ को देख कर रोता था कि इस माँ को कभी -कभी हलके पेट दर्द के अलावा कोई तकलीफ न थी ! उसकी हॅसमुख और खूबसूरत माँ को फोर्टिस की नज़र लग गई थी ! 50 दिन ICU में रहने के बाद दर्द में कराहते हुए मां ने दुनिया से विदा ले ली ! खर्चा-अस्पताल का बिल रु 43 लाख ,दवाइयों का बिल 12 लाख और 50 यूनिट खून ! अभिनव की माँ की देह को शवग्रह में रखवा दिया गया और अभिनव को शेष भुगतान जमा कराने के लिए कहा गया और शव के इर्द गिर्द बाउंसर्स लगा दिए गए ! अभिनव ने सिर्फ एक छोटी सी शर्त रखी कि मेरी माँ की सारी रिपोर्ट्स और माँ के शरीर की जांच एक स्वतंत्र डॉक्टरों की टीम द्वारा कराइ जाए ! फोर्टिस ने बमुश्किल अनुमति दी !!!

रिपोर्ट आई ............... अभिनव वर्मा की माँ के गाल ब्लैडर में कभी कोई पथरी नहीं थी ..............!

सोशल मीडिया से साभार 

धुंधलाहट-नूतन सिंधु

   लघुकथा   
डॉ नूतन सिन्धु
नारनौल,  हरियाणा
मम्मी....मम्मी....रोते-रोते सिया अंदर आकर सुधा से लिपट गई....मम्मी मुझे माँ ने आज फिर से बुरी तरह से डांटा।पापा... पापा करके सिया और दहाड़े मारकर रोने लगी।हद हो गई इन ऑन्टी की ,कितनी दफा बच्ची को इसी तरह रुला चुकी हैं।सुधा के दिमाग में पिछली सब बातें एकदम से कौंध गईं... गुस्सा धीर-धीरे हावी होने लगा,आज तो उन्हें कुछ न कुछ खरी-खरी सुनानी ही होगी।वो पहले भी एक बार बड़े ही आदर के साथ उन्हें कहकर आ चुकी है कि आंटी आप तो खुद इन पीड़ाओं से गुजर चुकी हैं। बच्ची आपके घर आपकी पोती के साथ खेलकर अपना बचपन जीना चाहती है।सोचते -सोचते सुधा ने आंटी के घर की डोर बेल बजाई।उन्होंने ही गेट खोला।देखते ही बोली कि मना कर दिया था इसे,नहीं खेलेगी अभी आभा।सुधा ने कहा ,आपने इसे बुरी तरह से क्यों झिड़का, आराम से कह देतीं।गुस्से से आगबबूला होकर बोली... झिड़का...क्या कर लेगी।सुधा ने फिर भी खुद को संयमित कर कहा कि आप आराम से कह सकती हैं...मगर वो अपनी बदमिजाजी पर कायम रहते हुए अभद्रता से बोली चल यँहा से...आज के बाद मेरी बेटी आपके घर नहीं आएगी,कहकर सुधा अनमने मन से घर की ओर चल दी।सिया रोये जा रही थी।तुम क्यों जाती हो वँहा जब वो ऐसा व्यवहार करती हैं तो ? माँ से भी दुत्कार खाकर सिया बुरी तरह सुबकने लगी और बड़ी ही मासूमियत से कहने लगी ...पापा भी भगवान के पास चले गए और न ही मेरा कोई भाई-बहन,मैं किस के साथ खेलूं ?उसकी ये बातें सुधा का हृदय बेध गई।अक्सर जब सिया किसी के डांटने पर रोती तो ऊपर की तरफ मुंह कर अपने पापा को पुकारती,ये सब सुधा को और दुखी कर जाता।उसने झट से गोदी में उठाकर उसे गले से लगाकर खूब प्यार किया।घर आकर सुधा सोचने लगी कि मैंने हमेशा ऑन्टी की सब बातों को नजरअंदाज किया कि बहुत ही कम उम्र में पति की मृत्यु और बाद में इकलौते जवान बेटे को खो देने से वो कुंठित हो गई होंगी,इसीलिए वो ऐसा व्यवहार करती हैं,मगर इसके कारण बेटी को तो रोज नहीं रुला सकती।खैर ,सिया फिर भी बाहर-अंदर खेलने जाती रही।
                        सिया का जन्मदिन आने वाला था।छोटे से सेलिब्रेशन के हिसाब से सब बच्चों  के साथ आभा को भी बुलाया गया।आभा को छोड़ने ऑन्टी ही आई थीं....ऑन्टी ने आभा को अंदर जाने को कहा। 'आप भी आ जाइए' सुधा ने कहा।केक काटा जाने लगा तो सुधा की दीदी के बेटे ने कहा माँ आप साथ में आकर कटवाइए।वो आयीं और केक कटवाकर सिया को आशीर्वाद दिया।खाना-पीना होने पर कुछ बच्चों ने डांस-वांस किया।तभी आयशा बहुत जिद करने लगी कि ऑन्टी आप बहुत अच्छा डांस करती हैं,एक पुराने गाने पर कीजिये ना।अरे! नहीं बेटा ,आप सब बच्चे इंजॉय कीजिये...सुधा की ना-नुकर से सिया फिर रुआंसी हो गई.....मम्मी आप करोगी डांस।गाना बजने लगा.....परदेसिया....परदेसिया...ये सच है पिया..... पैर एकदम से तो नहीं उठे,मगर अपनी स्वाभाविकता को रोक भी नहीं पाए।थोड़ी देर में सुधा के अंदर की नृत्यांगना कुशलता के साथ थिरकने लगी।इसके बाद सुधा किचन को व्यवस्थित करने में लग गई,उधर बच्चे अब भी डांस कर रहे थे।ऑन्टी भी उन्ही के साथ थीं।पार्टी खत्म हुई,सब चले गए।
                             मम्मी एक बात बताऊँ आपको ! रात में सिया ने बेड पर लेटी सुधा के पास आकर कहा।हाँ बोलो,आप जब डांस कर रही थी तब माँ आपको देखकर रोये जा रही थी।क्या ! हाँ, मम्मी वो रो रही थी।सुधा हैरान रह गई कि उससे क्या गलती हो गई।क्यूँ बेटा ? सिया बोली...आप डांस कर के चली गई तो वो रोते-रोते कहने लगी कि छोरी के साथ राम ने न्याय नहीं किया और फिर से रोने लगी। सुधा स्तब्ध थी।सिया बोली , मम्मी,माँ की बातों का आज के बाद मैं कभी बुरा नहीं मानूँगी।सुधा मानो सोते से जगी हो,बेटी की बात सुनकर अब वो अवाक थी।माँ के निस्वार्थ आंसुओं ने बालमन की धुंधलाहट धो दी थी और शायद सुधा की भी।
इति
                  

Friday, April 01, 2022

भ्रष्टाचार का अंत नहीं-अखिलेश कुमार अरुण

व्यंग्य कहानी

अखिलेश कुमार अरुण
तकनिकी/उपसम्पादक
अस्मिता ब्लॉग
मेवालाल जी स्थानीय छुटभैये नेताओं में सुमार किये जाते हैं। उनकी पुश्तैनी नहीं अपनी पहचान है, जिसे अपने खून-पसीने की खाद-पानी को डालकर पल्लवित-पोषित किया है। हर एक छोटे-बड़े प्रस्तावित कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती है पर सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह किसी के खास नहीं और सबके खास हैं। ऊपर से कहीं-कहीं तो उनही उपस्थिति कुछ खास लोगों को खलने लगती है। इनकी उपमा उन लोगों के लिये राहु-केतु या काले नाग से कम की न होगी विचारे तिलमिला के रह जाते हैं पर कुछ कर नहीं पाते हैं। इनकी जान-पहचान आला-अफ़सरों से लेकर गाँव-घर के नेताओ से, सांसद तक है।

छोटी-बड़ी सभी चुनाव में हाथ आज़माते हैं, जीतने के लिये नहीं हारने के लिये ही सही एक पहचान तो बने, जहाँ जनता इनके खरे-खोटे बादों से तंग आकर चैथी-पाँचवीं जगह पर पहुँचा देती है, कुछ चुनावों का परिणाम तो ऐसा है कि जमानत जब्त करवा कर मुँह की खाये बैठे हैं। मानों वह चुनाव ही चिढ़कर मुँह फिरा लिया हो ‘क्या यार! हमारी भी रेपोटेशन की ह्वाट लगा देता है, सो इनका अब भविष्य में चुनाव जीतना तो मुष्किल ही है पर यह हार कहाँ मानने वालों में से हैं। समाजसेवी विचारधारा के हैं हर एक दुखिया का मदद करना अपना परम्कत्र्तव्य समझते हैं। और तो और इनका सुबह से शाम का समय समाज के कामों में ही गुजर जाता है। परिणामतः इनके तीन बच्चों में से कोई ढंग से पढ़-लिख न सके, गली-मोहल्ले, चैराहों की अब शान कहे जाते हैं।

इनका अपना स्वप्न यह है कि अपने जीवन काल में भारत से भ्रष्टाचार मिटा देना चाहते हैं। इस स्वप्न को साकार करने के लिये जहाँ कहीं जब भी मौका मिलता है अन्ना हजारे आन्दोलन के कर्णधार बन बैठते हैं। उन्हें अपना आदर्ष मानकर आन्दोलन करते हैं, भूख हड़ताल इनका अपना पसंदीदा आन्दोलन है, गले तक खाये-पीये हों वह अलग बात है, जिले का हर अधिकारी इनको अपने कार्यकाल में मुसम्मी, अनार का जूस पिला चुका होता है। उसका कार्यकाल क्यों न चार दिन का ही रहा हो, पहचान बनाने का उनका अपना यह तरीका अलग ही है।

अपने कार्यक्रमों में चीख-चीख कर चिल्लाते हैं न लेंगे न लेने देंगे यह हमारा नारा है। भाईयों-बहनों हम गरीब-मज़लुमों पर अत्याचार होने नहीं देंगे, ‘‘सत्य का साथ देना हमारा जन्मसिध्द अधिकार है।’’ इनका अपना सिध्दान्त है जिसे एक सच्चे वृत्ति के तरह धारण किये हुये हैं।

सेवा का चार्ज लेने के बाद यह मेरे सेवाकाल की दूसरी पोस्टिंग थी। विभाग में नये होने के चलते जगह बदल-बदल कर मुझे मेरे अपने क्षे़त्र में पारंगत किया जा रहा था। मुझसे मेरे विभाग को बड़ी आषा थी, जो मेरे से अग्रज थे वह तो नर्सरी का बच्चा समझकर हर एक युक्ति को सलीके से समझा देना चाहते थे। कक्षा में कही गई गुरु जी की बातंे एक-एक कर अब याद आ रहीं थी कि व्यक्ति को पूरे जीवन कुछ न कुछ सीखना पड़ता है, इसी में जीवन के पैतीस बंसत पूरे हो गये पता ही नहीं चला पर जो आज सीखने को मिला वह जीवन के किसी भी पड़ाव पर शायद भूल नहीं पाऊँगा।

मैं अपने काम में व्यस्त किसी मोटी सी फाईल में खोया था तभी एक आवाज आई, ‘नमस्ते बाबू जी।’

‘हाँ नमस्ते।’

‘पहचाना सर, मुझे। सफेद कुर्ता-पाजामें में एक फ़रिस्ता मुस्करा रहा था, शायद......... एक कुटिल मुस्कान।

मुझे पहचानने में देर न लगी, अरे! मेवालाल जी, आप?’

‘हाँ बाबू जी’ कहते हुये कुरसी पर आ विराजे, मैं श्रृध्दा से मन ही मन उनको नमन किया। और शब्दों में शालीनता का परिचय देते हुये कहा, ‘कहिये।’

बोले कुछ बोले बगैर, एक फाईल मेज पर सरकाते हुये मुस्करा रहे थे, ‘साहब देख लीजियेगा, मेरा अपना ही काम है।’

और अगले ही पल आॅफिस से जा चुके थे, कौतुहलवश फाईल खोलकर जल्दी से जल्दी देख लेना चाहता, आखिर काम क्या है? जिसे लेकर एक ईमानदार छवि का व्यक्ति मेरे सामने आया है। जिसमें गाँधी, अन्ना हजारे जैसे उन तमाम तपस्वियों की झलक दिखती है जो भ्रष्टाचार को मिटाने के लिये एक पैर पर खड़े रहते हैं। उसके लिये मेरा काम करना तो किसी बड़े यज्ञ में आहुति देने के समान है, मैं अपने छात्र जीवन में ऐसी ही क्रान्ति करना चाहता था। जहाँ भ्रष्टाचार का नाम नहो ऐसे मेरे देश की विष्व में पहचान बने। इसी विचारमग्नावस्था में फाईल को खोला तो लगा जैसे किसी ने मेरे स्वप्न पर एकाएक ताबड़तोड़ प्रहार कर दिये हों, उसमें से दो हजार के रुपये वाला गाँधी जी का चित्र बेतहासा मुझ पर हंसे जा रहा था।
(पूर्व प्रकाशित रचना 'भ्रष्टाचार' मरू-नवकिरण, राजस्थान से वर्ष 2018 और मध्यप्रदेश  से इंदौर समाचार पत्र में 4 अप्रैल 2022 को प्रकशित)

ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर(खीरी) उ प्र २६२८०४
दूरभाष-8127698147

Thursday, March 31, 2022

क्या काॅमेडी और कमेडियन सचमुच खतरे में है-अजय बोकिल


अजय बोकिल
दुनिया के प्रतिष्ठित 94 वें आॅस्कर अर्वाड्स समारोह में हाॅलीवुड के जाने-माने अभिनेता विल स्मिथ ने अपनी पत्नी के गंजेपन को लेकर मंच पर की गई टिप्पणी पर कमेडियन क्रिस राॅक को थप्पड़ मारने के बाद अब माफी जरूर मांग ली है। लेकिन सोशल मीडिया पर यह मुद्दा जिंदा है और इस ‘अभूतपूर्व’ वाकए’ पर फिल्म जगत दो भागों में बंट गया है। कुछ का मानना है कि स्मिथ की जगह और कोई भी होता तो वही करता जो स्मिथ ने किया तो कुछ अन्य का मानना है कि क्रिस ने जेनेट के गंजेपन पर महज मजाक किया था और उसे उसी रूप में लिया जाना चाहिए था। क्योंिक कमेडी का मकसद तंज के साथ मनोरंजन करना ही है। उसमें दुर्भावना को तलाशना सही नहीं है। इस बीच बाॅलीवुड के जाने-माने अभिनेता, पूर्व भाजपा सांसद और अच्छे कमेडियन परेश रावल ने स्मिथ-क्रिस प्रकरण पर ट्वीट किया कि आज पूरे विश्व में कमेडियन खतरे में हैं। फिर चाहे क्रिस राॅक हों या यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की। इसे कुछ और बढ़ा दें तो इनमें भारत के कमेडियन कुणाल कामरा और मुनव्वर फारूकी का नाम भी शामिल किया जा सकता है। थप्पड़ खाने वाले क्रिस तो मशहूर स्टैंड अप कमेडियन हैं। पूरे प्रकरण का निहितार्थ यही है कि अब दुनिया में मजाक करना भी खतरे से खाली नहीं रहा। लोगो की भावनाएं इतनी नाजुक और कांच के माफिक  हो गई हैं कि कब कहां, और किस वजह से किसकी भावना आहत हो जाए, कहा नहीं जा सकता। राजनीतिक, धार्मिक और नस्ली दुराग्रहों ने हंसी की उदात्त दुनिया को और तंग कर दिया है। अब तो खुद पर हंसना भी दूभर है। हालात ये हैं कि आप अगर हंसना- हंसाना भी चाहते हैं तो आपको‍ ‍िकसी एजेंडे के पोर्टल पर ही चलना होगा। वरना फांसी का फंदा आपके लिए तैयार है। 
गौरतलब है कि विल स्मिथ ने ‘किंग रिचर्ड’ में रिचर्ड विलियम्स की भूमिका के लिए अपना पहला सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ऑस्कर पुरस्कार जीता। पुरस्कार लेने जैसे ही स्मिथ मंच पर पहुंचे तो कॉमेडियन क्रिस रॉक ने उनकी पत्नी जेडा पिंकेट-स्मिथ के गंजेपन को लेकर चुटकुला सुनाया जिस पर स्मिथ भड़क गए और उन्होंने कॉमेडियन को थप्पड़ जड़ दिया।
बहुतों के मन में यह सवाल कौंध रहा है कि आॅस्कर अवाॅर्ड्स समारोह में मंच पर मौजूद क्रिस राॅक को विल स्मिथ की पत्नी के गंजेपन पर तंज करने की क्या जरूरत थी ? वो इससे बच भी सकते थे। क्योंकि विल की पत्नी जेडा पिंकेट का गंजापन की किसी दुसाध्य रोग के कारण है, शौकिया नहीं। लिहाजा यह कोई मजाक का विषय नहीं है। फिर भी क्रिस ने ये दुस्साहस क्यों किया ? किसी के जज्बात को आहत करना तो मजाक कमेडी नहीं हो सकती। हालांकि क्रिस के मजाक पर पहले तो स्मिथ ने महीन मुस्कान देकर अनदेखा करने की कोशिश की। लेकिन दूसरे ही क्षण उन्हें लगा कि यह उनकी पत्नी का अपमान है तो उनका पति धर्म जागा और उन्होंने ताड़ से क्रिस का गाल लाल कर दिया। इस हिंसक प्रतिक्रिया से भौंचक क्रिस ने कोई जवाबी कार्रवाई नहीं की। अलबत्ता यह अप्रत्याशित सीन देखकर दुनिया हैरान रह गई और विश्व भर में कमेडियनों के दुर्दिनों पर बहस शुरू हो गई। गनीमत यह रही कि इस थप्पड़ कांड में शामिल दोनो व्यक्ति अमेरिकी अश्वेत हैं, वरना यह घटना नस्ली संघर्ष का नया शोला भी बन सकती थी। 
घटना के दूसरे दिन विल स्मिथ ने अपने किए पर अफसोस करते हुए बाकायदा माफी नामे के रूप में एक चिट्ठी जारी की। उसमें उन्होंने लिखा कि ‘हिंसा किसी भी रूप में सही नहीं है। मैंने क्रिस के साथ जो किया, वह अस्वीकार्य है। मैं इसके लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगता हूं। उन्होंने यह भी कहा कि ‘प्यार आपको पागल कर देगा।‘ स्मिथ ने जो कहा उसका आशय ही था ‍िक उन्हें मंच पर ऐसा नहीं करना चाहिए था। बल्कि संयम बरतना था। उधर हर साल लाॅस एंजेल्स में आॅस्कर समारोह का आयोजन करने वाली संस्था एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसेज (एएमपीएएस) ने कहा कि अकादमी किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करती है। 
इस घटना पर अमेरिकी कमेडियन और  एक्ट्रेस कैथी ग्रिफिन ने विल स्मिथ पर निशाना साधते हुए लिखा- स्टेज पर चलते हुए जाना और कॉमेडियन को मारना, यह बहुत बुरा है। अब हमे इस बात की चिंता करना चाहिए कि कॉमेडी क्लबों और थिएटर्स में अगला विल स्मिथ कौन बनना चाहेगा? यहां असल मुद्दा काॅमेडी और कमेडियनों के वजूद पर मंडराते खतरे का है। हंसना और हंसाना मनुष्य को ईश्वर से मिली अनुपम देन है। वरना अन्य प्राणियों में तो केवल डाॅल्फिन ही हंसना जानती है और वो भी समुद्र में रहते हुए। ऐसा लगता है कि हमारे जीवन से उन्मुक्त हंसी का स्पेस खत्म होता जा रहा है। हंसने का अर्थ अब मजाक के बजाए मजाक उड़ाना या फिर प्रतिशोध भर हो ने लगा है। जबकि हंसना-गुदगुदाना समाज को स्वस्थ रखने की एक सांस्कृतिक औषधि रहती आई है। भारतीय परंपरा में भी लोक नाट्यो और प्रहसनो में एक विदूषक जरूर हुआ करता था, जो राजा से लेकर प्रजा तक और देवताअों से लेकर प्रकृति तक हर मुद्दे पर तंज किया करता था। लोग पेट पकड़कर हंसते थे। विदूषक के साहस की दाद देते और फिर सब भूल जाते थे। मजाक को मजाक की तरह ही लिया जाता था। 
अब मजाक पहले खांचो में फिट कर देखा जाता है। उसके हिसाब उसकी स्वीकार्यता अस्वीकार्यता और प्रतिक्रिया तय होती है। क्रिस ने तो विल की पत्नी पिंकेट के गंजेपन पर ही तंज किया था। लेकिन कमेडियन कई बार राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक व्यंग्य भी करते हैं। आज सबसे मुश्किल राजनीतिक- धार्मिक कमेडी करने वालो की है। उनका धंधा बंद होने की कगार पर है। वैसे भी इस तरह की कमेडी की गुंजाइश सिर्फ लोकतांत्रिक देशों होती है। धार्मिक कट्टरपंथी, तानाशाह और कठोर वामपंथी देशों में इसकी कोई जगह नहीं है। लेकिन अब लोकतांत्रिक देशों में भी मजाक को प्रतिशोध के चश्मे से ज्यादा देखा जाने लगा है। उदारता प्रति-उदारता के तराजू में तौली जाने लगी है। एक तरह से हंसना हंसाना भी रिमोट कंट्रोल से संचालित होने लगा है। हमारे ही देश में कुणाल कामरा की कमेडी में वामपंथी रूझान तलाशा गया तो मुनव्वर फारूकी के कई शो इसीलिए रद्द हो गए क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पंजाब में रद्द हुई रैली पर तंज किया था। बंगाल जैसे कुछ राज्यों में कार्टूनिस्ट भी सत्ताधीशों के निशाने पर रहे हैं। 
यूं कलाकार राजनीति में भी अपने झंडे गाड़े, ऐसा कम ही होता है। क्योंकि कला और राजनीति की संवेदनाएं अलग अलग होती हैं। उनके तकाजे और चुनौतियां भी जुदा जुदा होती हैं। राजनीतिज्ञ भले ‘कलाकार’ हों, लेकिन कलाकारों को राजनेता के रूप में कम ही स्वीकारा जाता है। इस लिहाज से यूक्रेनी जनता का स्टैंड अप कमेडियन जेलेंस्की को राष्ट्रपति चुनना असाधारण बात है। 
जेलेंस्की आक्रामक पुतिन से जिस तरह लोहा ले रहे हैं, वो भी हैरान करने वाला है। यह शायद एक कमेडियन की ‍जिजीविषा है। जेलेंस्की नाटो की शह पर यह सब कर रहे हैं या यूक्रेन की संप्रभुता के लिए लड़ रहे हैं यह बहस का विषय है, लेकिन यह सवाल मार्के का है कि क्या एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में यूक्रेन को अपनी नीति तय करने का अधिकार भी नहीं है ? यकीनन जेलेंस्की अभी जो कर रहे हैं, वो यकीनन काॅमेडी तो नहीं ही है। 
इसमें संदेह नहीं कि दुर्भावना काॅमेडी की आत्मा नहीं हो सकती। वह जज्बात को छूती हुई निकल जाती है, पर घाव नहीं करती। वो गुदगुदाती है, गला नहीं पकड़ती। सच्ची काॅमेडी इंसान को संकीर्णताअों से सेनेटाइज करती है। लेकिन सब ऐसा नहीं सोचते। उनका मानना है कि स्मिथ के हाथों थप्पड़ खाने के बाद क्रिस आइंदा किसी की भी बीवी पर तंज कसने पर दो बार सोचेंगे। भीड़ का न्याय यही कहता है। बावजूद इसके कि काॅमेडी कोई चरित्र हत्या नहीं है। विल स्मिथ ने भी पत्नी पर तंज करने वाले क्रिस को तुरंत सबक तो सिखाया, लेकिन बाद में उन्हें अहसास हुआ कि काॅमेडी का जवाब प्रति काॅमेडी तो हो सकता है, थप्पड़ नहीं हो सकता। थप्पड़ प्रकरण में भी अभिनेता स्मिथ का अफसोस जताना पति स्मिथ से आगे की पायदान पर रखता है। उन्होंने ऐसा किसी के दबाव में किया या फिर अंतरात्मा के कहने पर किया, कहना मुश्किल है। लेकिन ऐसा करके उन्होंने मानवता के उस गुण को जरूर बचा लिया है, जो मनुष्य को दूसरे प्राकणियों से अलग करता है। विवेकशीलता को प्रतिष्ठित करता है।  
वरिष्ठ संपादक 
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 31 मार्च 2022 को प्रकाशित)

Wednesday, March 30, 2022

भैया जी ने इण्टर के बाद एम.ए. किया-सुरेश सौरभ

(हास्य-व्यंग्य)  
सुरेश सौरभ

भैया जी को हल्के में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह हल्के नेता नहीं है। उनके भारी-भरकम शरीर की तरह उनका ज्ञान और विज्ञान भी बहुत भारी और भरकम है। जहां जाते हैं, बस वहीं अपनी अमिट छाप छोड़ कर चले आते हैं और चर्चा-ए-आम हो जाते हैं। बचपन में उन्होंने पहले कक्षा आठ पास किया था, बाद में लोगों के कहने पर कक्षा पांच भी पास कर लिया। मंचों पर वह अक्सर कहते थे, मैं वह एमए फर्स्ट डिवीजन पास हूं। उनकी लच्छेदार बातों पर लोगों को जब शक होने लगा, तब एक दिन विपक्षियों ने उनसे डिग्री मांगी, कहा, दिखाओ तब माने, फिर तो उन्होंने टालमटोली करनी शुरू कर दी। जब विरोधियों ने उनकी नाक में नकेल डाल कर बहुत परेशान करना शुरू किया, तो एक दिन बाकायदा उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके, अपने 'नक्षत्र विज्ञान' से एमए पास करने की डिग्री, उस समय की दिखाई जब नक्षत्र विज्ञान का कोर्स किसी विश्वविद्यालय में न था। जब इस पर, पत्रकारों ने उनसे सवाल उठाए तो वह बोले कि बस वही इतने काबिल छात्र थे जिनकी काबिलियत के दम पर फलां विश्वविद्यालय ने अकेले उनके लिए वह कोर्स चलाया था और फिर उनके कोर्स कम्पलीट करने के बाद, वह कोर्स बंद कर दिया। इसलिए उस समय वह डिग्री पाने वाले, वही एक मात्र छात्र हैं। यह भी बताया कि उन्होंने कि वह डिग्री जब हासिल की, तब इंटर के बाद डायरेक्ट एमए होता था। अब वह मंत्री पद पर रहते हुए खूब मन लगा कर, पढाई करके आगे बीए भी कर लेंगे। उनकी दूरदर्शी दृष्टि पर सभी अभिभूत हुए। आजकल वह नेता जी सत्ता की चाशनी दिन-रात चाटते हुए स्कूल कॉलेज के नौनिहालों को, युवकों को और देश की एडवाइजरी विभाग को अपने दुर्लभलतम ज्ञान से आलोकित करते हुए, अपने मन की बातों और विचारों से देश का बहुत उद्धार करने वाले सबसे टॉप क्लास के नेता बन चुकें हैं।


निर्मल नगर लखीमपुर खीरी पिन-262701
मो-7376236066

चाबी का गुच्छा-सुरेश सौरभ

    लघुकथाएं                                                                                                                                सुरेश सौरभ      
चाबी का गुच्छा

   रेंगते-रेंगते वो चाबी का गुच्छा उसकी पत्नी के पास पहुँचा। जिस पर लिखा था ‘आई लव यू मनोज।’ पत्नी ने हैरत से कहा-अरे! ये क्या?
      पति-कोंचिग की एक बच्ची ने दिया है।
      पत्नी-कैसे-कैसे बेवड़े बच्चे हैं आजकल के।
      पति-जैसे माँ-बाप होंगे वैसे बच्चे होंगे।
      पत्नी-आप तो गुरु हैं? गुरु तो पितातुल्य होता है...यह जलता सवाल पति के कलेजे पर धक्क से लगा। अब वह अपनी आँखे चुराते हुए, घर्र...ऽऽऽ..तुरन्त मोटर साइकिल स्टार्ट की...धप्प से बैठ, कालेज की ओर तेजी से चल पड़ा।
       निरुउत्तर हो, चोर आँखों से, पति को जाता देख, उसे अंदर तक सालता रहा, काफी देर तलक। अब सामने पड़ा, वह चाबी का गुच्छा उसकी आँखों में किसी किनकी सा खरक रहा था।...पर चुभन दिल में थी।

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रंगों के बहाने 

         होली एक समरसता का त्योहार है। प्रेम और धार्मिक सौहार्द को यह त्योहार बढ़ाता है।, ‘‘मम्मी! ओ मम्मी! आगे क्या लिखूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है?, अपनी नोटबुक पर निबंध लिखते हुए विवेक अधीरता से बोला, ‘‘आज ही यह होली पर निबंध पूरा करके ऑनलाइन एक कम्पीटीशन में भेजना है, पाँचवी कक्षा में पढ़ने वाला विवेक, अपनी माँ से जिद करके पूछ रहा था।
      अपने काम में लगी माँ से, जब यह सवाल विवेक ने किया, तो उसको जैसे शॉक सा लगा। बदरंग यादों के दरीचें पर्त-दर-पर्त खुलते चले गये।
       तब उसकी शादी का वह चौथा साल लगा था। उस दिन, होली का दिन था। पति कहीं काम से गये थे। सास भी कहीं गईं थीं। दो साल का विवेक अपने खेल में मस्त था। घर के काम में वह व्यस्त थी, तभी घर की कुंडी बजी। खिड़की से झांका तो रंग गुलाल से सराबोर उसके दूर के, रिश्ते के तीन देवर नमूदार हुए।. . हा.. हा.. हा.. भाभी दरवाजा खोलो.... अनुनय-विनय शुरू की...नहीं नहीं तुम्हारे भैया हैं नहीं हैं? फिर आना कभी? अरे! अरे! आप तो खामखा नाराज हो रहीं हैं। होली है, इतनी दूर से आएं हैं हम। भला आप के पैर छूए बगैर कैसे चलेे जाएँगे।...नहीं नहीं फिर आना कभी? घर में अभी  कोई नहीं है।... आप की कसम रंग बिलकुल नहीं लगाएंगे हम..बच्चों सा गिड़गिड़ाने लगे वे।
       स्त्री हृदय पिघल गया। दरवाजा खोला, चट-पट हुरियारे अंदर आ गये। हा हा हा... नहीं नहीं, देखो मैंने पहले मना किया था, रंग न लगाना, देखो रंग न लगाना बाकी सब ठीक है.. हमसे बुरा कोई न होगा.. झीनाझपटी-धींगामुश्ती शुरू हुई.. फिर एक ने दोनों हाथ पकड़े, एक ने पैर, गिरा दिया एक कमजोर चिड़िया को। फिर फिर रंग रंग रंग..। वह गिगिड़ाती रही, तड़पती रही, पैर छूने वाले, आशीर्वाद माँगने वाले, देवर अपनी भाभी के जिस्म के हर हिस्से की जबरदस्ती पैमाइश कर रहे थे. बहाना था रंग रंग रंग होली...होली... होली...
       ‘‘मम्मी! ओ मम्मी! कसके विवेक ने झिझोड़ा तो उसकी तंद्रा भंग हुई। यादों की गहरी चुभन टीस लिए वह बोली-लिखो इस समरता के त्योहार को कुछ लुच्चे लफंगे गंदा कर देते हैं। कुछ आवारा शोहदों ने इसे बिलकुल्ल घिनौना बना दिया है...इसलिए महिलाओं को होली में हुड़दंगियों  से बचना चाहिए.. विवेक निबंध पूरा करते हुए एक बारगी कनखियों से माँ को देखा। उनकी आँखों में जल की एक महीन रेखा न जाने क्यों उभरती चली आ रही थी, जिसे वह समझ पाने में अक्षम था।


-सुरेश सौरभ
निर्मलनगर लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

जल तुम्हें बचाना है-विकास कुमार

   कविता  

जीवन बचाना चाहते हों तो, इस मीठी जल को तुम्हे बचाना होगा।
खुद में सुधार लाकर हम सबको, अच्छी आदत को अपनाना होगा।।

जल को मानिए अमृत हमसब थोडा–थोडा सा करके प्रयोग करे।
वर्षा के जल को बचाकर हम जल संरक्षण का लोग उपयोग करें।।

नदियों में कूड़ा–कचरा न डाले, जल को प्रदुषित ना करना होगा।
जीवन बचाना चाहते हों तो, इस मीठी जल को तुम्हे बचाना होगा।।

नीर, वारी, तोय, सलिल कितने सारे अनेको नाम है इसके।
साधारण सा दिखता है कितने सारे महत्वपूर्ण काम है इसके।।

जल के महत्व को जो ना समझें, उसे भी एक दिन पछताना होगा।
जीवन बचाना चाहते हों तो इस मीठी जल को तुम्हे बचाना होगा।

जल भी एक सीमित साधन है, करते हमसब मिलकर आराधन है।
हर बूंद है कीमती जल की, यह भविष्य का ही सबसे बड़ा धन है।।

साधारण ना समझे इसको, विशेष रूप से इसको समझना होगा।
जीवन बचाना चाहते हों तो, इस मीठी जल को तुम्हे बचाना होगा।

         


      दाऊदनगर औरंगाबाद बिहार
       मो :– 8864053595


प्यारी सी तितली रानी-विकास कुमार

   बाल-कविता  
विकास कुमार

आई आई नई नवेली, रंग बिरंगे तितली रानी।
देखने में लगती है बहुत अच्छी और मस्तानी।।

देखने से लगे छोटी, लेकिन इसकी बड़ी कहानी।
जितनी सीधी लगती है, कही उससे ज्यादा शैतानी।।

इसके है छोटे–छोटे से बाल–बच्चे अच्छे दिवाने।
कोई इसकी चाल–चलन को भी नही पहचाने।।

कोई बोले तितली रानी, कोई बोले पंख उड़ान।
इसमे ओ जादू है जिससे भटकाये बच्चो का ध्यान।।

रंग बिरंगे पंख है मेरे, जिससे मैं समझाना चाहती हूं।
एसे ही जिवन के सुख दुख है जिसे मैं बताना चाहती हूं।।

उड़ तुम भी सकते हो मानव, जोर ताकत तुम लगाओ।
अपने इस हौसले को, मेरी तरह सब को तुम दिखाओ।।

               
दाऊदनगर, औरंगाबाद  बिहार

Wednesday, March 09, 2022

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस और महिलाओं पर पुरुषवादी, दकियानूसियत कहर के ख़िलाफ़ समाज का सच कुछ ऐसा है-नन्द लाल वर्मा (असोसिएट प्रोफेसर)

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष:
नन्द लाल वर्मा 
08मार्च,2022 
सत्ता और समाज का एक बड़ा तबका आज भी औरतों को उपभोग की वस्तु से ऊपर उठकर नहीं समझ पा रहा है। यह समाज की पुरातनी/पारंपरिक/दकियानूसी सोच या उसके माइंड सेट का परिचायक लगती है।आज महिलाओं के प्रति अन्याय,अश्लीलता,यौन शोषण/दुष्कर्म और उसके बाद जघन्य हत्या जैसी घटनाएं दिन प्रतिदिन जिस कदर बढ़ती जा रही हैं,उसके पीछे जो सबसे बड़ा सामाजिक कारण लगता है,वह शायद यह है कि जिनके साथ ऐसी घटनाएं घटित होती हैं,वे और उनके परिजन सामाजिक बदनामी के डर,जटिल/ असंवेदनशील/भ्रष्ट  प्रशासनिक और न्यायिक प्रक्रिया की वजह से चुप्पी साध लेना उनकी विवशता बन जाती है और समाज के जिम्मेदार लोग भी उन्हें चुप हो जाने की ही नसीहत देना ही उचित समझने लगते हैं। सभ्य और शिक्षित समाज का शिक्षक,साहित्यकार,बुद्धिजीवी और मां बाप क्यों नहीं बोल पा रहे हैं? समाज के जिम्मेदार लोगों को जहां सच बोलना चाहिए ,वे वहां बोल नहीं पा रहे हैं। आज के दौर में बुद्धिजीवियों में भी उचित अवसर पर सच बोलने का साहस खत्म होता जा रहा है। बड़ी बड़ी प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थाओं के जिम्मेदार, बुद्धिजीवी वर्ग,संसद में बैठी महिला सांसद,लोकतंत्र का प्रहरी और चौथा स्तंभ कहा जाने वाला देश का निष्पक्ष व स्वतंत्र मीडिया और यहां तक कि "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" का नारा देने वाली सत्तारूढ़ पार्टी के संवैधानिक पदों पर बैठे मर्द और महिलाएं तक भी नहीं बोल पा रहे हैं। आम आदमी सड़क पर उतर कर सही बात क्यों नहीं बोल पा रहा है,पूरा देश चुप क्यों है? महिला के हर सवाल या समस्या पर उसका खुद न बोलना और न ही किसी अन्य का बोलना या बोलने न देना,इस देश की परम्परा सी पनपती जा रही है।

      आज से लगभग नौ साल पहले निर्भया कांड पर आम लोग राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट तक सड़क पर उतर आए थे। अखबार और पत्रिकाओं से लेकर टीवी चैनलों पर खबरों की बाढ सी आ गई थी। जब संसद से लेकर न्यायपालिका तक हलचल हुई तो सज़ा का कानून बदला और सख्ती भी हुई और महिलाओं से जुड़े संवेदनशील मुद्दे राष्ट्रीय राजनीति की  मुख्यधारा में गंभीर चर्चा के विषय बनते देर नहीं लगी थी और उस समय ऐसा लगा था कि शायद अब लोगों की चुप्पी टूट रही है,किन्तु आठ साल बाद गार्गी कॉलेज की घटना पर ऐसा फिर लगा,कि अब फिर हम सब चुप क्यों हो गए हैं? चुप्पी सिर्फ न बोलने तक ही सीमित नहीं होती है,बल्कि यह एक अप्रत्यक्ष संदेश समेटे इस बात की धमकी भी होती है,कि देश में अभी भी मर्दों का ही राज चलता है।

         दिल्ली के गार्गी महिला कालेज में हुई शर्मनाक घटना ने देश के जिम्मेदार लोगों की कलई खोलकर रख दी है। छात्राओं के साथ ऐसी अश्लील घटनाएं हुई जिनकी सभ्य समाज में चर्चा करना ही अश्लीलता मानी जाती है। दिल को झकझोर देने वाली घटना की खबर कैंपस से बाहर प्रशासन और मीडिया तक न पहुंच पाना,वहां की जिम्मेदार प्राचार्य,कॉलेज प्रशासन और शिक्षिकाओं की असंवेदनीलता और कायरता या भय की एक बदसूरत बानगी देखते सिर शर्म से झुक जाता है। जेएनयू से पढ़ी लिखी देश की महिला वित्तमंत्री ने अपने 2020-21 के बजट के तीसरे सेगमेंट में इसी तरह की " केयरिंग सोसायटी" के निर्माण की संकल्पना की दुहाई देते हुए बजट सत्र में देश की जनता से संवाद क़ायम किया था। गार्गी जैसी घटना पर देश की मीडिया केंद्रित राजधानी जैसे शहर दिल्ली में आवाज तक न उठने के अत्यंत व्यापक व गंभीर निहितार्थ है,कि देश में आज भी महिलाओं की सामाजिक और राजनीतिक औकात में अपेक्षित बदलाव नहीं आ पाया है!"

          मेरे विचार से महिला अपराधों के विरुद्ध किसी भी सामाजिक या अन्य सार्वजनिक संगठनों द्वारा पीड़ितों की आवाज बनकर आंदोलन का रूप न दे पाना, अपराधियों के दुस्साहस को बढ़ाने जैसा ही है। देश की निष्पक्ष और स्वतंत्र कही जाने वाली मीडिया के बड़े हिस्से की वर्तमान स्थिति/भूमिका से समाज में एक अदृश्य भय या कायरता जैसी स्थिति पनपती नजर आती है। 

         "मेरे विचार से जिस देश का मीडिया निष्पक्षता निडरता और स्वतंत्रता के साथ एक सजग प्रहरी की भूमिका निभाता है,उस देश का लोकतंत्र और समाज के सभी अवयवों के सेहतमंद,सुरक्षित और सजग रहने की संभावनाएं बनी रहती है।

         समाज,प्रशासन और न्यायपालिका में किसी महिला के साथ हुए अपराध की सजा,उस अपराध की प्रकृति के हिसाब से नहीं,बल्कि अपराधी की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक हैसियत के हिसाब से तय होती है। "गरीब हुआ तो फांसी पर लटका दिया जाता है और यदि हैसियतदार/ओहदेदार हुआ तो बाहर आने पर उसका फूल मालाओं से स्वागत किया जाता है।"

          बीते कई सालो में इस विषमता और मर्दवादी सोच व व्यवस्था में महिलाओं को अपने लिए शिक्षा,नौकरी, पेशा/धंधा और आत्मसम्मान हासिल करने के लिए एक लंबा सफर तय करना पड़ा है और उन्हें आज भी कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है। महिलाओं द्वारा अपने लिए बोलना,संघर्ष और लड़ना सीख लेने के बावजूद, देश के मर्दों की मर्दानगी की स्क्रिप्ट अभी भी नहीं बदली है। वह बेशर्मी और अहंकार के साथ हर चौराहे पर अश्लीलता करता हुआ आज भी खड़ा नजर आता और लड़कियां शर्म और डर से झुकी हुई नजर आती हैं।बदले परिवेश में ऐसे मर्दों के लिए एक नई स्क्रिप्ट के लिखे जाने की आवश्यकता है। जाहिर है कि वे मर्द नहीं लिखेंगे,जिन्हे व्यवस्था में बेशर्म और बेलगाम अप्रत्यक्ष अनगिनत अदृश्य अधिकार प्राप्त है। समय आने पर "महिला अपराधों और अन्यायों के खिलाफ नई स्क्रिप्ट उन्हीं महिलाओं द्वारा लिखी जाएगी,जिन्हे ऐसे मर्दों की मर्दानगी से पीड़ित और अपमानित होकर जहर पीना पड़ता है और फिर समाज के ही जिम्मेदारों द्वारा उन्हें चुप रहने के लिए विवश किया जाता है या नसीहत दी जाती है।"
  लखीमपुर- खीरी उत्तर-प्रदेश।

पूछ रहा है घायल-रमाकान्त चौधरी एडवोकेट

मुद्दे की बात 

रमाकान्त चौधरी एडवोकेट
लोकतंत्र का हनन हुआ है तानाशाही जारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 

समता और समानता वाले केवल भाषण होते हैं। 
जनता को बहकाने के अच्छे आकर्षण होते हैं। 
भीमराव के सपनों का भारत लुटा दिखाई देता है। 
 नेहरू पटेल गांधी का सपना टुटा दिखाई देता है। 
प्रस्तावना रो देती उस दम  सारे एक्ट लजाते हैं। 
संविधान निर्माता को जब अनपढ़ गाली दे जाते हैं। 
ग़द्दारों द्वारा संविधान के जब पृष्ठ जलाये जाते हैं। 
उनके समर्थन के खातिर जयघोष कराये जाते हैं। 
कोई रेपिया संसद जा कर मंत्री पद पा जाता है। 
और माफिया गुंडा आ अधिकारी पर रौब जमाता है। 
एक अनपढ़ नेता के आगे  प्रशासन झुक जाता है। 
शोषित पीड़ित वंचित को तब न्याय नहीं मिल पाता है। 
पूछ रहा है घायल भारत इतनी क्यों लाचारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 

अन्न उगाने वालों पर ऐसी भी हुकुमत चलती है।
फसलों के दाम नही मिलते बदले में लाठी मिलती है। 
युवा घूमता परेशान है रोजगार को तरस रहा। 
हक हकूक की बात करे तो उस पर डंडा बरस रहा। 
बहू बेटियाँ नही सुरक्षित ये कैसी आजादी है। 
घर से बाहर गर निकले तो अस्मत की बर्बादी है। 
भारत की एकता पर ऐसे भी घाव बनाये जाते हैं। 
जाति धर्म का ताना देकर युद्ध कराये जाते हैं। 
माना धर्म का ज्ञान मिले तब मानव पूरा होता है। 
पर संविधान की शिक्षा बिन सब ज्ञान अधूरा होता है। 
लोकतंत्र का हत्यारा है वह भारत का दुश्मन है। 
मानवता को भूल गया जिसे संविधान से नफ़रत है। 
ऐसे लोगों पर भी क्यों सत्ता की चौकीदारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 
शोषित  पीड़ित वंचित कोई  साहस कर जाता है। 
अपनी मेहनत के बलबूते जब आगे बढ़ जाता है। 
देख तरक्की उसकी तब कुछ बंदे शोर मचाते हैं। 
मंचों पर  चिल्लाकर वे आरक्षण गलत बताते हैं। 
आरक्षण क्यों हुआ जरूरी प्रश्न खड़ा रह जाता है।
उनपर किसने जुल्म किये ये कोई नही बतलाता है। 
संविधान जब मिला देश को तब उनको
अधिकार मिला। 
अहसास हुआ जीने का उनको जीवन का आधार मिला। 
संविधान ने ही नारी को अधिकार बराबर दिलवाया। 
संविधान ने ही नारी को सम्मान बराबर दिलवाया। 
लोकतंत्र की उचित व्यवस्था से पहचाना जाता है। 
सर्वश्रेष्ठ  दुनिया  में  भारत इसीलिए कहलाता है। 
ऊंच नीच की फिर भारत में क्यों  फैली बीमारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 
जाने कितने शीश कटे थे तब भारत आजाद हुआ। 
एक हुए जो बँटे हुए थे तब भारत आजाद हुआ। 
सबने मिलकर जंग लड़ी थी तब भारत आजाद हुआ।
 खून की नदियाँ खूब बहीं थी तब भारत आजाद हुआ। 
कुर्बान किये माँओं ने बेटे  तब भारत आजाद हुआ। 
 बहनों ने रण में भाई भेजे तब भारत आजाद हुआ। 
दुल्हनों ने  सिंदूर दिये थे तब भारत आजाद हुआ।
पिता ने लख्ते जिगर दिये थे तब भारत आजाद हुआ। 
खून खराबा खूब हुआ था तब भारत आजाद हुआ। 
काशी काबा नही हुआ था तब भारत आजाद हुआ। 
माली बन कर की रखवाली देश के जिम्मेदारों ने। 
नींद त्याग कर इसे बचाया देश के पहरेदारों ने। 
आज लुट रहा अपना गुलशन कैसी पहरेदारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 

अश्फाक बोस बिस्मिल आजाद का प्यारा भारत कहाँ गया। 
राजगुरु, सुखदेव, भगत का प्यारा भारत कहाँ गया। 
सोने की चिड़िया कहलाने वाला भारत कहाँ गया। 
 दिनकर, पंत निराला वाला प्यारा भारत कहाँ गया। 
रहमान  हों शामिल राम के दर्द में ऐसा भारत कहाँ गया। 
राम बने हमदर्द रहीम के ऐसा भारत कहाँ गया। 
लहू बहे न धर्म के नाम पे ऐसा भारत कहाँ गया । 
मर जाए कोई शर्म के नाम से ऐसा भारत कहाँ गया। 
लहू बहाते बात - बात पे धर्म के ठेकेदार यहाँ। 
धर्म के नाम से पनप गए हैं कुछ गुंडे गद्दार यहाँ। 
मानवता को बेंच के सारे धर्म बचाने निकले हैं। 
वस्त्र नोच के भारत माँ के मान बचाने निकले हैं। 
अपनों की ही अपनों के प्रति ये कैसी गद्दारी है। 
संविधान के अनुच्छेदों पर चलती रोज कटारी है। 

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