साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Sunday, December 19, 2021

अच्छे दिन-सुरेश सौरभ


लघुकथा

बेटी खामोश उदास बैठी थी। मां ने उसे देख पूछा-क्या हुआ बेटी बड़ी जल्दी लौट आई।
बेटी मां के गले से लगकर फूट पड़ी-सरवर डाउन था। इसलिए आज सीटैट स्थगित।
'उस दिन टेट का पेपर लीक हुआ था। आज सीटैट स्थगित, लगता है । यह सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती‌।'
अब तो बेटी और बिलखने लगी।
मां ने उसे संभलते हुए कहा-चिंता न कर, भगवान और अपनी मेहनत पर भरोसा कर, एक न एक दिन, अच्छे दिन जरूर आएंगे। 
बेटी भड़क गई-खाक में जाएं तुम्हारे अच्छे दिन, इस शब्द से मुझे सख़्त नफरत हो गई है।.. और लंबे-लंबे डग भरते हुए वह दूसरे कमरे में चली गई।
पीछे से उसे गुस्से में जाता देख, मां खीझ में बुदबुदाई-जब वोट दिया है तो झेलना ही पड़ेगा। और रोकर या हंसकर कहना पड़ेगा, 'अच्छे दिन आएंगे।'


पता-निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

तिकुनियां हत्याकांड: एक राजनीतिक विश्लेषण और संभावनाएं-नन्द लाल वर्मा (एशोसिएट प्रोफेसर)

राजनीतिक विश्लेषण

तिकुनिया कांड लखीमपुर खीरी

एन.एल.वर्मा (एशो.प्रोफेसर)
             सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज की निगरानी में लखीमपुर-खीरी के तिकुनियां हत्याकांड की जांच करने वाली एसआइटी के खुलासे और स्थानीय मीडिया के साथ सार्वजनिक रूप से बदसलूकी और अमर्यादित भाषा-शैली अपनाने के बावजूद केंद्र सरकार आरोपी के पिता गृह राज्य मंत्री को मंत्रिमंडल से हटाने में क्यों देरी कर या डर रही है? ऐसा तो नही है, कि देश मे दिल्ली के बॉर्डरों पर एक साल से अधिक चले किसान आंदोलन की तरह राजनीतिक विपक्षी पार्टियों, पत्रकारों और स्थानीय किसान संगठनों के दबाव में सरकार अपने मंत्री को बर्खास्त करने में राजनैतिक बेइज्जती या हार समझती हो और एक साल बाद अचानक मोदी जी नोटबन्दी और लॉक डाउन की तर्ज़ पर देश के किसानों के लिए गये अपने त्याग और तपस्या की कमी की दुहाई देते हुए सिख समाज के पावन पर्व पर तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा कर सिख समाज की धार्मिक भावनाओं से राजनैतिक फ़ायदा उठाने का उपक्रम करते दिखाई पड़ जाते हैं। कहीं, मोदी जी ऐसे ही अवसर की तलाश में तो नहीं हैं? और उपयुक्त अवसर मिलते ही मंत्री जी की बर्खास्तगी की घोषणा करते हुए अचानक एक दिन टीवी पर दिखाई पड़ जाएं!देश का सर्वश्रेष्ठ राजनैतिक मदारी किसी भी समय कोई भी चमत्कार कर सकता है। लेकिन एक बात समझ से परे है कि एक गृह राज्य मंत्री केंद्र सरकार के लिए किस मजबूरी का सबब बना हुआ है?

            एक साल से अधिक चले किसान आंदोलन से उपजे जनाक्रोश से बीजेपी को भारी राजनैतिक नुकसान होता दिख रहा था, लखीमपुर खीरी के तिकुनियां हत्याकांड में उनके गृह राज्य मंत्री के बेटे और उनकी संलिप्तता की खबरें गोदी मीडिया को छोड़कर सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चैनलों के माध्यम से पूरे देश में छायी रहीं और निष्पक्ष जांच के लिए मोदी सरकार से मांग की जाती रही कि निष्पक्ष जांच के लिए आरोपी के पिता गृह राज्य मंत्री को तत्काल पद से बर्खास्त किया जाए। लेकिन, सब तरफ से उठते भारी विरोध-आक्रोश,मांग और विधानसभा-लोकसभा में शोर-शराबे के बावजूद मोदी सरकार मंत्री को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त नही कर पा रहे हैं। तिकुनियां कांड से हो रहे सियासी नुकसान का अनुमान और आँकलन करने में शीर्ष नेतृत्व विफल हो सकता है किंतु,स्थानीय बीजेपी संगठन और उसके आनुषंगिक संगठन तो इस कांड की असलियत,भयावहता और राजनैतिक संवेदनशीलता की गंभीरता को तो अच्छी तरह से समझते होंगे ? मंत्री जी की बर्खास्तगी के मुद्दे पर स्थानीय मीडिया भी जनपेक्षाओं पर उतना खरा उतर नही पा रहा था जितना आम आदमी को मीडिया से उम्मीद होती है। संयोग या दुर्योग से मंत्री जी का स्थानीय मीडिया कर्मियों के साथ किए गए अमर्यादित आचरण ने वह कमी भी पूरी कर दी। मंत्री के इस दुर्व्यवहार से आक्रोशित स्थानीय मीडिया भी मंत्री जी की बर्खास्तगी की मुहिम में अब सक्रिय होता दिख रहा है। मंत्री द्वारा मीडिया कर्मियों के साथ किया गया दुर्व्यवहार आम आदमी के लिए सोने में सुहागा सिद्ध हो सकता है। अब देखना यह है कि स्थानीय मीडिया के साथ हुई बदसलूकी राष्ट्रीय स्तर पर कितना जोर पकड़ पाती है? तिकुनियां कांड में मंत्री के बेटे की गिरफ्तारी और एसआइटी की जांच आने के बाद मंत्री जी की बौखलाहट से उनकी अपनी राजनीतिक फजीहत होने के साथ साथ पार्टी की भी लगातार फ़ज़ीहत और छीछालेदर हो रही है। भारी राजनैतिक नुकसान की अनदेखी कर आख़िर, वे कौन से कारण और परिस्थितियां हैं जिनके अदृश्य भय से स्थानीय और शीर्ष राजनीतिक संगठन के जिम्मेदार मौन धारण किए हुए हैं? अपवाद स्वरूप, कुछेक को छोड़कर तिकुनियां हत्याकांड पर गृह राज्य मंत्री से बीजेपी के स्थानीय लोगों और संगठनों द्वारा बनाई गई दूरी एक राहत भरा राजनैतिक संदेश जरूर देता हुआ नजर आ रहा है। कहीं ,उन्हें यह डर तो नही सता रहा है कि तिकुनियां कांड की लपटों से वे भी राजनैतिक रूप से झुलस न जाएं? एक स्थानीय बीजेपी विधायक जी उस सभा मे मौजूद थे जिसमें अपने संबोधन के दौरान मंत्री जी ने विधायक, सांसद और मंत्री बनने से पूर्व अपनी..... पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए किसानों को सुधर जाने की धमकी दी थी और विरोध स्वरूप किसानों द्वारा काले झंडे दिखाने पर कार में सफर करते हुए किसानों को ठेंगा दिखाकर चिढ़ाते हुए नज़र आये थे। तिकुनियां कांड की  तपिश के डर से वही विधायक जी सार्वजनिक रूप से अब पूरी तरह मंत्री जी से दूरी बनाये हुए दिख रहे हैं। लखीमपुर खीरी स्थित बजाज चीनी मिलों पर किसानों का बकाया गन्ना मूल्य के भुगतान कराने के लिए घड़ियाली आंसू बहाते हुए योगी जी से हाथ जोड़कर अनुरोध करने का सोशल मीडिया पर अपना वीडियो वायरल करते हुए मा. विधायक जी जनता की राजनैतिक संवेदनाओं को बटोरते हुए दिखाई दिए थे और उससे पूर्व देश मे एक साल से अधिक चले किसान आंदोलन की कठिनाइयों-दुश्वारियों को झेलने वाले किसानों और आंदोलन के दौरान शहीद हुए किसानों के परिवारों के प्रति संवेदनाएं प्रकट करने के लिए दो शब्द तक जुटाने में विधायक जी कहीं नही दिख रहे थे।

          तिकुनियां कांड में मंत्री जी  के बेटे की संलिप्तता की खबरें आते ही यदि मंत्री जी नैतिकता के आधार पर स्वयं इस्तीफा की पेशकश कर देते या शीर्ष नेतृत्व इस्तीफ़ा ले लेता तो उस स्थिति में एक जन संदेश तो यह जा ही सकता था कि अब कांड की जांच निष्पक्ष होने की संभावना है और मीडिया-विपक्षी दलों द्वारा इस्तीफे की मांग और जांच प्रभावित होने जैसे विषय अनाबश्यक तूल पकड़ने से बचा जा सकता था। इससे मंत्री जी की सामाजिक -राजनीतिक छबि धूमिल होने को कम किया जा सकता था और  राजनीति में आने से पूर्व उनकी सामाजिक और..... पृष्ठभूमि या इतिहास के अनाबश्यक खुलासे से भी बचा जा सकता था। समय रहते यदि ऐसा हो गया होता तो व्यक्तिगत और पार्टीगत राजनीतिक नुकसान को कम अबश्य किया जा सकता था। सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान और हस्तक्षेप की वजह से अब यह केस प्रशासनिक और न्यायिक स्तर पर अत्यंत गम्भीर और संवेदनशील बन चुका है,दोनों स्तर के जिम्मेदारों द्वारा फूंक फूंक कर कदम रखने के साथ पूरी सावधानी बरती जा रही है। किसी भी स्तर पर हुई चूक या लापरवाही के गम्भीर परिणाम आने की पूरी संभावनाएं भी हैं। मीडिया स्तर पर तो पहले ही यह हाई प्रोफाइल केस बन चुका था।

         तिकुनियां हत्याकांड से एक शालीन और सुशिक्षित स्थानीय विधायक की विरासत में मिली राजनीतिक फसल तात्कालिक रूप से जरूर नष्ट होती नज़र आ रही है ,लेकिन उसके लिए सबसे राहत भरी स्थिति यह हो सकती है कि विरासत में मिली राजनीतिक जमीन भविष्य में पूर्ण रूप से बंजर और वंचित होने से बच सकती है। तिकुनियां कांड निघासन समेत पूरे लखीमपुर खीरी की बीजेपी की राजनीतिक सफलता के लिए मट्ठा भी साबित हो सकता है।

          स्थानीय राजनैतिक गलियारों,बुद्धिजीवियों और आम जनता में यह चर्चा जोरों से सुनी जा सकती है कि मंत्री जी को हटाने में मोदी जी जितनी देर करेंगे, राजनैतिक नुकसान उतना ही अधिक होने की संभावना हैं। स्थानीय स्तर पर ऐसा भी अनुमान लगाया जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में लखीमपुर-खीरी की आठ विधान सभा क्षेत्रों में बीजेपी की सबसे ज्यादा दुर्गति निघासन विधानसभा क्षेत्र में ही होने की स्थिति नज़र आ रही है। एक आंकड़ा यह भी बताया जा रहा है कि लखीमपुर,गोला-गोकर्णनाथ,मोहम्मदी, निघासन और पलिया विधान सभा क्षेत्रों में सिख समाज की संख्या राजनैतिक रूप से निर्णायक भूमिका अदा करने की स्थिति में है।किसान आंदोलन और तिकुनियां कांड से सिख समाज बीजेपी से खाफी ख़फ़ा है और आगामी विधानसभा चुनाव में सामूहिक रूप से एकजुट होने की भी प्रबल संभावना जताई जा रही है। बीजेपी के शीर्ष और स्थानीय नेतृत्व को ज़मीनी स्तर की हकीकत को नजरअंदाज करना आगामी विधानसभा चुनाव में भारी पड़ सकता है। राजनीतिक गलियारों में एक यह भी सुगबुगाहट है कि राज्य स्तर पर बीजेपी के सहयोगी दल भी अब बीजेपी से कन्नी काटने की बाट जोह रहे हैं।  बीजेपी के कई स्थानीय विधायकगण समाजवादी पार्टी के स्थानीय और शीर्ष नेतृत्व से पाला बदलने के लिए संपर्क साध चुके हैं और आज भी संपर्क साधने के लिये हरसंभव प्रयास कर रहे हैं, ऐसी भी राजनैतिक गलियारों में चर्चा जोर शोर से है।

पता-लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश 262701

Saturday, December 18, 2021

भोजपुरी लोक-संगीत के पर्याय हैं भिखारी ठाकुर-अखिलेश कुमार अरुण

  व्यक्तित्व   

(दैनिक पूर्वोदय, आसाम और गुहावटी के सभी संस्करणों में २१ दिस्मबर २०२१ को प्रकाशित)

भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर का आज ही के दिन यानि 18 दिसंबर 1887 को नाई परिवार में जन्म हुआ था कबीर दास जी कि तरह यह भी शिक्षा के मामले में मसि कागद छुओ नहीं कलम गहि नहीं हाथ को स्पष्ट करते हुए  अपने गीतों में कहते हैं-

भिखारी ठाकुर

जाति के हजाम मोर कुतुबपुर ह मोकाम

छपरा से तीन मील दियरा में बाबु जी।

पूरुब के कोना पर गंगा किनारे पर

जाति पेशा बाटे विद्या नहीं बाबू जी।

इनकी साहित्य विधा व्यंग्य पर आधारित थी सटीक और चुटीले अंदाज में अपनी बात कह जाने की कला इनकी स्वयं की अपनी थी जिसकी कल्पना साहित्य का उत्कृष्ट समाजविज्ञानी भी नहीं कर सकता भोजपुरी के इस शेक्सपियर ने अपने लोकगीतों में जन-मानस की  आवाज को बुलंद करते हुए एक से बढकर एक कालजई रचनाओं को हम सब के बीच छोड़कर 10 जुलाई 1971 को इस दुनिया से रुख्सत हो गया. किन्तु भोजपुरी भाषी लोगों के बीच अजर और अमर हैं। भिखारी के साहित्य में बिदेशिया भाई-बिरोध, बेटी-बियोग या बेटि-बेचवा, कलयुग प्रेम, गबर घिचोर, गंगा स्नान (अस्नान), बिधवा-बिलाप, पुत्रबध, ननद-भौजाई, बहरा बहार, कलियुग-प्रेम, राधेश्याम-बहार, बिरहा-बहार, नक़ल भांड अ नेटुआ के एक अथाह संग्रह है। साल २०२१ इसलिए भी ख़ास हो जाता है कि इन्ही के मंडली (विदेशिया गायकी ग्रुप) के आखिरी लवंडा नाच करने वाले रामचंद्र माझी को पद्मश्री पुरुस्कार से नवाजा जाता है।

भोजपुरी नृत्य विधा में विदेशिया आज भी अपनी अलग पहचान रखती है वस्तुतः लोकमानस में विदेशिया का चलन अब धीरे-धीरे ख़तम हो चला है किन्तु भोजपुरी सिनेमा जगत में यह अपने नए स्वरूप में आज भी गयी और बजायी जाती है। विदेशिय के बारे में हमने सुन बहुत रखा था किन्तु पहला साक्षात्कार दिनेश लाल यादव  (निरहुआ) की भोजपुरी फिल्म विदेशिया (२०१२) से हुआ था इससे पहले विदेशिया के भावों को समेटे हुए एक फिल्म १९८४-१९९४ में भी आ चुकी थी , निरहुआ के इस फिल्म को देखने का अवसर शायद हमें २०१४ या १५ में मिला जिसमें निरहुआ घर-परिवार से दूर कोलकाता जैसे शहर में कमाने के लिए जाता है. प्रतीकात्मक तौर पर पत्नी की बिरह वेदना को उद्घाटित करने वाला यह नृत्य विधा अपने में कई भावों को सहेजे हुए है। एक गीत देखिये-

सईयां गईले कलकतवा ए सजनी

हथवा में छाता नईखे गोड़वा में जुतवा ए सजनी

कईसे चलिहें रहतवा ए सजनी.....

भिखारी ठाकुर का वह समय था जब देश अंग्रेजों का गुलाम था और भारत के पुरबी क्षेत्रों बंगाल-बिहार की जनता रोजी-रोटी के लिए घर-परिवार से सालोंसाल दूर रहकर कमाई करने के लिए जाया करते थे। उन्हीके वेदनाओं को प्रकट करने का यह सहज माध्यम था। कोयलरी के खान के मजदूरों की दशा, कलकत्ता में हाथ-गाड़ी वालों की दशा और वे जो मजदूरी के नाम पर मरिसस्, जावा, सुमात्रा जाकर ऐसा फंसे कि घूमकर अपने देश नहीं लौटे, उसमे से कुछ तो मर-बिला गए जो बचे सो वहीँ के होकर रह गए परिणामतः मरिसस् पूरा का पूरा भोजपुरी बोलने वालों से पटा पड़ा क्या? भोजपुरी वालों ने उसे बसाया ही है उनकी अपने मातृ-भूमि की व्यथा भी विदेशिया में देखने को मिलता है।

भिखारी ठाकुर क्रांतिकारी कलाकर रहे हैं जिन्होंने शोषितों-वंचितो की पीड़ा को अपने साहित्य का आधार स्वीकार किया है और उसी के अनुरूप गीत और नाटक की प्रस्तुति आजीवन देते रहे । वे कहते थे- "राजा महाराजाओं या बड़े-बड़े लोगों की बातें ज्ञानी, गुणी, विद्धान लोग लिखेंगे, मुझे तो अपने जैसे लोगों की बाते लिखनी है।" भिखारी ठाकुर की अपनी अलग विधा थी जिसे नाच/तमाशा कहा जाता था और है। जिन नाटकों में उन्होंने लड़कियों, विधवाओं, अछूत-पिछड़ों और बूढ़ों की पीड़ा को जुबान दी जिस कारण द्विज उनसे बेहद नफ़रत करते थे। अपनी तमाम योग्यता के बावजूद भिखरियाकहकर पुकारे जाने पर वो बिलबिला जाते। 'सबसे कठिन था जाति अपमाना", ‘नाई-बहार नाटक  में जाति दंश की पीड़ा उभर कर आमने आती है जो उनकी अपनी व्यथा थी। 

उस समय का समाजिक ताना-बाना भी उनके नाट्य साहित्य के लिए किसी उपजाऊ खेत से कम न था। उन दिनों दहेज से तंग आकर द्विजों में बेटी बेचने की प्रथा का  प्रचलन अपने चरम पर था। बूढ़े या बेमेल दूल्हों से शादी कर दी जाती थी। जिसके दो-दो हाथ करने की हिम्मत भिखारी ठाकुर ने दिखाई अपने जान की परवाह किये बगैर उन्होंने इसका खुला विरोध करते हुए बेटी बेचवाके नाम से नाटक लिखा। उन दिनों बिहार में यह नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि कई स्थानों पर बेटियों ने शादी करने से मना कर दिया और कई जगहों पर ग्रामीणों ने ही लड़की खरीदने वाले और बेमेल दूल्हों को गांव के बाहर खदेड़ दिया। इसी नाटक का असर था कि 1964 में धनबाद जिले के कुमारधुवी के लायकडीह कोलियरी में प्रदर्शन के दौरान हजारीबाग जिले के पांच सौ से ज्यादा लोगों ने रोते हुए सामूहिक शपथ ली कि वे आज से बेटी नहीं बेचेंगे। 

उनकी नाट्य मंडली में ज्यादातर कलाकार निम्न वर्ग से थे जैसे बिंद, ग्वाला, नाई, लोहार, कहार, मनसुर, चमार, माझी, कुम्हार, बारी, गोंड, दुसाध आदि जाति से थे। आज का भोजपुरी गीत-संगीत सबको मौका दिया चाहे वह कुलीन हो या निम्न किन्तु भिखारी ठाकुर का बिदेसिया गायन विधा निम्नवर्गीय लोगों का एक सांस्कृतिक आंदोलन के साथ-साथ अभिव्यक्ति का माध्यम थी जिसके चलते अपनी व्यथाओं को संगीत में पिरोकर जनजाग्रति का काम करते थे और अपमान के अमानवीय दलदलों से ऊपर उठकर इन उपेक्षित कलाकारों ने गीत-संगीत और नृत्य में अपने समाज के आँसुओं को बहने के लिए एक धार दी जो युगों-युगों तक उनको सींचता रहेगा।

अखिलेश कुमार अरुण
जय-भोजपुरी, जय-भिखारी।


पता-ग्राम-हजरतपुर, लखीमपुर-खीरी

मोबाइल-8127698147


अशोक दास पत्रकार के साथ बहुजन साहित्य के साधक संपादक भी हैं-

व्यक्तित्व
साभार-बहुजन एवं बहुजन हितैषी महापुरुष एवं महामाताएं फेसबुक पेज से 
अशोक दास (संपादक)
दलित-दस्तक, दास पब्लिकेशन
न्यूज-दलित दस्तक (यूट्यूब)


(जन्म-17 दिसंबर)
अशोक दास का जन्म बुद्ध भूमि बिहार के गोपालगंज जिले में हुआ। उन्होंने गोपालगंज कॉलेज से ही राजनीतिक विज्ञान में स्नातक (आनर्स) करने के बाद 2005-06 में देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान 'भारतीय जनसंचार संस्थान, जेएनयू कैंपस दिल्ली' (IIMC) से पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, हरियाणा से पत्रकारिता में एमए किया। 

वे 2006 से मीडिया में सक्रिय हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।

अशोक दास ने जब मीडिया का जातिवादी रवैया देखा तो उन्होंने अपनी पत्रिका निकालने ठान ली। उन्होंने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से 27 मई 2012 से ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। दलित मुद्दों और अभिव्यक्ति को संबोधित करती इस पत्रिका ने हिंदी पट्टी में अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है।

वे अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।

विषम से विषम परिस्थितियों में आप डिगे नहीं दलित पत्रकारिता को आपने एक नया आयाम दिया है। जन की बात को जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रिन्ट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर बिना एक दिन क्या एक पल नागा किए सक्रीय रहते हैं और देश-दुनिया की ख़बरें पहुंचाते रहते हैं। जुझारू और कर्मठ अपने कर्म के प्रति कर्तव्यनिष्ठ जो वंचित समाज की आवाज बनकर उनकी समस्याओं को जगजाहिर कर रहे हैं। 

प्रासंगिक : दलित पत्रकार होने का अर्थ

भडास4मीडिया के संपादक-संचालक यशवंत सिंह को ‘दलित दस्तक’ के संपादक बता रहे हैं कि वे पत्रकारिता में कैसे आये और उन्होंने मीडिया की मुख्यधारा को अलविदा क्यों कहा?-जून 2015

मैं बिहार के गोपालगंज जिले का रहने वाला हूं। आज जब सोचता हूं कि पत्रकारिता में कैसे चला आया तो लगता है कि हमने तो बस चलने की ठानी थी, रास्ते अपने आप बनते चले गए। पत्रकारिता में आना महज एक इत्तेफाक था। छोटे शहर में रहने का एक नुकसान यह होता है कि हमारे सपने भी छोटे हो जाते हैं क्योंकि हमारे परिवार, मित्रों के बीच बड़े सपनों की बात ही नहीं होती। सच कहूं तो मुझे एक बात शुरू से ही पता थी और वह यह कि मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी है। नौकरी करनी पड़ती है, जब इसकी समझ आयी तो मैंने मन ही मन तीन बातें तय कीं। एक, बंधी-बंधाई तनख्वाह वाली नौकरी नहीं करनी। दो, सुबह दस से शाम पांच बजे वाली नौकरी नहीं करनी और तीन, कोई ऐसा काम करना है, जिसमें मुझमें जितनी क्षमता हो, मैं उतना ऊंचा उड़ सकूं। मुझे ऐसी जिंदगी नहीं चाहिए थी जिसमें मैं सुबह दस बजे टिफिन लेकर ऑफिस के लिए निकलूं, बीवी बालकनी में खड़ी होकर बाय-बाय करे और शाम को खाना खाकर सो जाऊं। एक बेचैनी-सी हमेशा बनी रहती थी। मैंने कभी किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं किया। हां, लिखना बहुत पसंद था।

अखबार से लेकर किताबों तक – जो मिल जाये उसे पढऩे का शौक बचपन से था। मेरे जिले में जितनी भी किताबें उपलब्ध थी, सब पढ़ गया। एक दिन, ऐसे ही अखबार उलटते-पलटते हुए, आईआईएमसी के विज्ञापन पर नजऱ पड़ी। मैं साधारण ग्रेजुएट था और वहां दाखिले के लिए यही चाहिए था। दिल्ली में बड़े भाई राजकुमार रहते थे। उन्होंने फार्म भेज दिया और मैंने उसे भर दिया। तब तक मुझे भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) की मीडिया के क्षेत्र में धाक और रुतबे के बारे में कुछ पता नहीं था। पटना में लिखित परीक्षा देने के लिए बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में उम्मीदवार परीक्षा केंद्र आये। लगा कि यार कुछ तो है इस संस्थान में। लिखित परीक्षा पास करने के बाद इंटरव्यू के लिए दिल्ली से बुलावा आया। मुझे विश्वविद्यालय में पढऩे का कभी मौका नहीं मिला था इसलिए आईआईएमसी सपने जैसा लगा। इंटरव्यू में पास नहीं हो पाया लेकिन यह तय कर लिया कि अब तो यहीं पढऩा है। हां, लिखने का शौक शुरु से था। डायरी के पन्नों में अपनी भड़ास निकाला करता था। यह कुछ वैसा ही था जैसे कोई गायक बाथरूम में गाकर अपना शौक पूरा करता है। फिर, 2005-06 में आईआईएमसी में मेरा दाखिला हो गया। यह मेरे पत्रकार बनने की शुरुआत थी।

ऐसा नहीं है कि आईआईएमसी में दलितों के साथ भेदभाव नहीं था। मुझे वहां भी जातीय दुराग्रह का सामना करना पड़ा। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म तरीके का भेदभाव था जो तब तो मुझे समझ में नहीं आया लेकिन आज समझ पाता हूं। मसलन, मैंने महसूस किया कि कुछ ‘खास’ लोगों को आगे बढ़ाया जाता था। यहां विचारधारा को लेकर भी गोलबंदी थी – वामपंथी, दक्षिणपंथी आदि। तब तक तो मुझे विचारधारा के बारे में कुछ भी पता नहीं था। सब वहीं भेदभाव झेलते हुए सीखा। मेरे साथ जो हुआ, उसे ‘माइक्रो डिसक्रिमिनेशन’ कहा जा सकता है। जाति ने ‘अमर उजाला’ समेत कई अन्य मीडिया हाउसों में भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा। आईआईएमसी से निकलने के बाद मेरी सबसे पहली नौकरी ‘लोकमत’ ग्रुप में लगी। मेरी नियुक्ति महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हुई। जब तक मैं वहां रहा, मैंने झूठ बोलकर जाति के मसले से बचने की कोशिश की। एक डर, एक आशंका हमेशा बनी रहती थी। मुझे वहां घुटन होने लगी। लगता था कि कुछ बाहर आना चाहता है लेकिन आ नहीं पा रहा है। फिर मुझे ‘अमर उजाला’ (अलीगढ़, यूपी) में बतौर रिपोर्टर नौकरी मिल गई। यहां जाति का सवाल फिर मेरे सामने था। इस बार मैंने जवाबी हमला कर दिया। बिना किसी लाग-लपेट के बता दिया कि मैं दलित हूं। मुझे याद है कि हम दस नए लड़के एक साथ बैठे थे। सब सन्न रह गए। सब अलीगढ के लिए नए थे। एक-दूसरे के साथ शिफ्ट हो रहे थे लेकिन मुझे साथ रखने के लिए कोई तैयार नहीं था। बाद में संपादक के हस्तक्षेप के बाद मैं भी उनमें से एक के साथ रह पाया। लेकिन वहां कुछ दिन रहने के बाद मैं श्रीनारायण मिश्रा के साथ रहने लगा। वे उम्र में मुझसे बड़े थे और हम दोनों के बीच एक स्नेह का रिश्ता बन गया था। लोगों ने उसकी भी खूब खिंचाई की लेकिन उसने मेरा पक्ष लिया। वहां मृत्युंजय भैया ने भी बहुत साथ दिया। हां, जब पदोन्नति की बारी आई तो प्रधान संपादक शशि शेखर द्वारा नियुक्ति के समय किये गए वायदे के बावजूद, संपादक गीतेश्वर सिंह ने मेरा प्रमोशन नहीं किया। मुझे साथ रखने की सजा श्रीनारायण मिश्रा को भी मिली। उसका भी प्रमोशन नहीं हुआ, जबकि वो सभी से सीनियर और ज्यादा योग्य था। यह खुला भेदभाव था। दलित होने के कारण मेरे साथ और एक दलित का साथ देने के कारण श्रीनारायण मिश्रा के साथ। लेकिन मैं वहां कभी दबा नहीं। प्रमोशन नहीं होने के सवाल पर मैंने अपने संपादक की शिकायत दिल्ली में प्रधान संपादक तक से की और सबको सीधी चुनौती दी।

बाद में मैंने ‘अमर उजाला’ एक गुस्से, एक आवेग और एक वृहद सोच के कारण छोड़ दिया। मेरे दिल में गुस्सा था। यह प्रतिक्रिया थी, उस प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदभाव की, जिसका सामना मुझे वर्षों से करना पड़ रहा था। मैं अंदर ही अंदर सुलग रहा था। एक रात जब मैं कमरे पर आया तो टीवी पर राज ठाकरे के गुंडों द्वारा बिहार और यूपी के लोगों के साथ मारपीट की खबर चल रही थी। वे दृश्य परेशान करने वाले थे। मैंने विरोध करने की ठानी। मुझे नहीं पता था कि इससे कुछ होगा भी या नहीं लेकिन मैं चुप नहीं बैठना चाहता था। मैं विरोध करने के लिए, चिल्लाने के लिए, छटपटा रहा था और इस घटना ने मुझे मौका दे दिया। मैं अपने संपादक के पास गया और मुझे यह करना है, कहकर छुट्टी मांगी। उन्होंने कहा कि इस्तीफा दे दो। मैंने कहा कि आपको निकालना हो तो निकाल देना, मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। फिर मैं अलीगढ़ के ही चार अन्य छात्रों के साथ देश के तमाम विश्वविद्यालयों में राज ठाकरे के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाने के लिए निकल पड़ा। इसमें प्रेमपाल और अमित चौधरी ने काफी सहयोग किया। अलीगढ़, लखनऊ, बनारस (बीएचयू), गोरखपुर, पटना, मेरठ, दिल्ली (दिल्ली विवि, जेएनयू) आदि जगहों पर बीस दिनों तक घूमने के बाद दिल्ली में तकरीबन पांच सौ लड़कों के साथ रेलवे स्टेशन से जंतर-मंतर तक मार्च निकाल कर राष्ट्रपति और चुनाव आयोग को ज्ञापन सौंपा।

मेरे हस्ताक्षर अभियान को भड़ास4मीडिया डाट काम नाम की वेबसाइट ने कवर किया। तब तक मेरा आपसे (यशवंत सिंह) से परिचय हो गया था। मेरा हौसला बढ़ाने वालों में आप भी थे। इस अभियान के बाद मैंने अलीगढ़ छोड़ दिया और दिल्ली आ गया। तब तक नौकरी से मन हट गया था, कुछ अलग करने की चाह जाग गई थी। मैं भड़ास4मीडिया डाट काम के साथ काम करने लगा। दलितमत डाट कॉम का विचार वहीं से निकल कर आया। इस दौरान देवप्रताप सिंह, जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार और बौद्ध चिंतक आनंद जी के संपर्क में आया। इनसे मुलाकातों ने मेरी जिंदगी को दिशा दी। इस तरह ‘दलित दस्तक’ अस्तित्व में आयी।

हमारी वेबसाइट 12 देशों में पढ़ी जाती है। पत्रिका भी निरंतर आगे बढ़ रही है। हमें 30 महीने हो चुके हैं और हम दस हजार प्रतियाँ प्रकाशित कर रहे हैं। हमारा प्रसार देश के 15 राज्यों के 135 जिलों तक हो चुका है। यह सामूहिक प्रयास है और हमारी पूरी टीम ईमानदारी से लगी है। हमारे लिए यह एक मिशन है। डॉ. अंबेडकर, जोतिबा फुले और तथागत बुद्ध सहित तमाम बहुजन नायकों की विचारधारा को लोगों के बीच पहुंचाना और उन्हें दलित समाज के वर्तमान हालात के बारे में बताना ही हमारा मकसद है।

संदर्भ
1.अखिलेश कुमार अरुण
2.सोशल मिडिया
3.फारवर्ड प्रेस जून, 2015 अंक
https://www.forwardpress.in/2015/07/being-a-dalit-journalist_hindi/?amp
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=301204955352934&id=100063902943052

Friday, December 17, 2021

अशोक दास और दलित-दस्तक (मासिक-पत्रिका) बनाम दरकिनार किये गए लोग-अखिलेश कुमार अरुण

जन्मदिन विशेष

अशोक दास (संपादक)
दलित-दस्तक, दास पब्लिकेशन
न्यूज-दलित दस्तक (यूट्यूब)
       आज अशोक दास का जन्मदिन है। उन्हें बहुत-बहुत हार्दिक बधाइयाँ और असीम मंगलकामनाएँ बिहार के एक छोटे से गाँव से दिल्ली पहुँचकर IIMC जैसी महत्वपूर्ण संस्था से अशोक ने पत्रकारिता की पढ़ाई की। अशोक निजी करियर के लिए मीडिया के चकाचौंध में नहीं फँसे, बल्कि वंचित जमात के लिए अपना मीडिया शुरू करने का साहस दिखाया। यह आसान काम नहीं था। लेकिन अशोक के पास वैचारिक चेतना थी और 'पे बैक टू सोसाइटी' का जज़्बा भी। पहले 'दलित मत' की ऑनलाइन शुरुआत की, फिर 'दलित दस्तक' पत्रिका छापना शुरू किया, जो आज भी नियमित रूप से निकल रही है और बहुजन वैचारिकी की लोकप्रिय पत्रिका बन चुकी है। फिर 'नेशनल दस्तक' यू-ट्यूब चैनल शुरू करके बहुजन मीडिया के क्षेत्र में एक बड़ी कमी को पूरा किया। आज अशोक 'दलित दस्तक' का अपना यू-ट्यूब चैनल बेहतर तरीके से संचालित कर रहे हैं। तमाम सारी विपरीत आर्थिक परिस्थितियों से जूझते-लड़ते हुए अशोक बिना रुके, बिना थके अपने रास्ते में डटे हुए हैं। असहमति की हिम्मत भी रखते हैं और सच कहने का माद्दा भी। 'दास पब्लिकेशन' की शुरुआत करके अशोक ने बहुजन समाज में पुस्तक-कल्चर को बढ़ाने का संकल्प लिया है। हमारी शुभकामनाएँ हैं कि अशोक दास ऐसे ही वैचारिकी प्रतिबद्धता और समर्पण के साथ अंबेडकरी कारवां को आगे बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहें.
-डॉ.सुनील कुमार 'सुमन'
(असिस्टेंट प्रोफेसर)
वर्धा विश्वविद्यालय (महाराष्ट्र)
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        आज 17 दिसम्बर है सम्पादक महोदय आपके जन्मदिन पर आपको बहुत-बहुत मंगलकामनाएं, आप दीर्घायु और स्वस्थ रहें तथा समाज की आवाज को मुखर करते रहें। अशोकदास जी (संपादक-दलित दस्तक) एक नाम है आज के दौर में दरकिनार किए लोगों की आवाज का, आपके अदम्य साहस और दृढ़ आत्मविश्वास की हम खुले दिल से जितनी प्रशंसा करें वह कम है।

        विषम से विषम परिस्थितियों में आप डिगे नहीं दलित पत्रकारिता को आपने एक नया आयाम दिया है। जन की बात को जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रिन्ट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर बिना एक दिन क्या एक पल नागा किए सक्रीय रहते हैं और देश-दुनिया की उन खबरों को लोगों तक पहुंचाते हैं जिनको आज कि पत्तलकार मिडिया सिरे से ख़ारिज कर देती है, ऐसा कोई दिन हमें याद नहीं कि जब आपका व्हाट्सएप पर मैसेज न मिला हो, लेखन आदि से सम्बन्धित गाहे-बगाहे चर्चा भी हो जाती है आपका लेखकीय मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है किंतु दुःख इस बात का है कि हम अभी समय नहीं दे पा रहे हैं.. एकदिवसीय परीक्षाओं ने जीना हराम कर रखा है भविष्य अधर में लटका हुआ है इसलिए हम लेखन पर भी ध्यान नहीं दे पा रहे हैं।


        अपने समाज के सक्षम लोगों से अपील है कि आप जैसे जुझारू और कर्मठ अपने कर्म के प्रति कर्तव्यनिष्ठ जो वंचित समाज की आवाज बनकर उनकी समस्याओं को जगजाहिर कर रहे हैं उनका सहयोग तन-मन-धन से करें क्योंकि उत्कृष्ट साहित्य ही समाज का गौरवशाली इतिहास होता है और जिस कौम इतिहास नहीं होता उस समाज का आधार नहीं होता। दलित पत्रकारिता के आधार स्तंभों में गिनती की जाए तो आप #अशोकदास {दलित दस्तक (मासिक-पत्रिका), यूट्यूब चैनल (न्यूज चैनल) } दिल्ली से तो डी०के०भास्कर (डिप्रेस्ड एक्सप्रेस-मासिक पत्रिका) मथुरा से प्रकाशित कर रहे हैं कोरोना काल में जहां कादम्बिनी जैसी पत्रिकाएं बन्द हो गई वहां यह दोनों पत्रिकाएं सम्पादित हो रही हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस समाज के लिए यह पत्रिकाएं छपती हैं वह पत्र-पत्रिका पढ़ने से दूर रहता है पत्रिकाओं के आर्थिक सहयोग की बात ही अलग है। हमारे अभी कई मित्र सरकारी नौकरी पेशे में आए हैं किंतु साहित्य के नाम 50/60 रुपए खर्चने को कह दीजिए तो उनका साल का बजट गड़बड़ा जाता है पर एक बैठकी में हजार-पांच सौ का मदिरा-हवन हो जाएगा, गुटखा चबन सम्भव है। पत्र-पत्रिका नहीं पढ़ना है मत पढ़ो खरीद लो महिने की महिने और नाते-रिश्तेदारों, गली-मोहल्लों में बांट दो इतना तो किया जा सकता है न, नौकरी में आने के बाद वैसे भी कहां पढ़ाई-लिखाई होती है और गर्व से लोग कहते भी हैं कि अब पढ़ने में मन नहीं लगता का करेंगे पत्र-पत्रिका और उसकी सदस्यता और तो और पत्रिका के लिए विज्ञापन भी।

        ऐसी परिस्थिति में किसी पत्रिका का सम्पादन करना अपने आप में एक बहुत बड़ा और जिम्मेदारी का काम है मने केकरा पर करी सिंगार पुरुष मोर आन्हर!!! आपको पुनः जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई और मंगलकामनाएं।
जय भीम नमो बुद्धाय
अखिलेश कुमार अरुण
लखीमपुर-खीरी उप्र।


Wednesday, December 15, 2021

अनुवांशिकता -सुरेश सौरभ

लघुकथा

सुरेश सौरभ

बाजार से किताबों का गट्ठर लाया, उसे बैठक में रख, जैसे ही सुस्ताने के लिए कुर्सी पर वह पसरा, पत्नी ने उसकी एड़ी देखकर हैरत से कहा-कितनी बार आप की ऐड़ियों में क्रीम लगाया, पर यह तो फटती ही रहती हैै। दर्द  नहीं होता क्या आप के?

       "होता है,पर क्या करें?"-पति

       "इसलिए कहती हूँ कि हमेशा जूता पहना करें,पर आप मेरी सुनते कहाँ हैं, जब देखो तब चप्पलें ही पहन कर निकल लेते हैं-पत्नी कुढ़ कर बोलीं।

     "दरअसल मेरे पिता जी एक गरीब मजदूर थे, बड़ी मुश्किल से वह अपनी चप्पलें ही खरीद पाते थे, इसलिए हर मौसम में वह अपनी पुरानी-धुरानी चप्पलें ही पहन पाते थे।"

    "आप तो गरीब नहीं हैं, आप तो सरकारी अध्यापक हैं-पत्नी ने मुँह फेरकर कहा।

       "तुम जानती हो मैं कभी-कभी जूते भी पहन लेता हूँ, पर यह ऐड़ियां फटना बंद नहीं होती। लगता है, यह दर्द मुझे अनुवांशिक ही मिला है। यह दर्द महसूसते हुए, गरीबों मजदूरों के दर्द का आभास करता रहूँ,शायद इसलिए यह दर्द नहीं जाता,शायद इसलिए ये ऐड़ि़यां मेरी हमेशा फटती रहतीं हैं। शायद ईश्वर की यही इच्छा है।"

   अब पत्नी पति के करीब आई। पति की आँखों में झाँकने लगी-जहाँ कोई नमी तैर रही थी। अब वही नमी धीमे-धीमे पत्नी की आँखों में भी तैरने लगी। पत्नी ने भरेे गले से कहा-तुम्हारा यह शायद बड़ा प्यारा लगता है। और बहुत तकलीफ भी दिल को देता है।"

    अब पत्नी उन पुस्तकों को ताक रही थी, जिसे गरीब बच्चों को निःशुल्क देने के लिए उसके पति अपने पैसे से, बाजार से खरीद कर लाये थे।

     पति ने किताबों का वह गट्ठर उठाया। चप्पलें पहनीं और चल पड़ा। तब पत्नी ने टोका-तुम न सुधरोगे। पति ने पलटकर कर कहा-सरकारी स्कूल जा रहा हूँ,संसद नहीं?ज्यादा सूट-बूट में जाऊँगा, तो अपनी क्रीज़ ही बनाता रहूंगा। गरीब बच्चों को क्या पढाऊंगा।

  पत्नी उसे खाने का टिफिन पकड़ाते हुए उसकी फटी मैली ऐड़ियों की तरफ देखकर बोली-काश यह दर्द हर आदमी को मिलता ?

   ‘सबका को, यह सौभाग्य ईश्वर कहाँ देता-पलट कर पति ने कहा और लंबे-लंबे डग भरता चल पड़ा। जैसे भक्त अपने भगवान की तलाश में अधीरता से भागा चला जा रहा हो। 

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी पिन-262701

मो-7376236066

 

Tuesday, December 14, 2021

ज़ुकामी चाचा-संजीव जायसवाल संजय

 हास्य-कहानी
संजीव जायसवाल संजय

जुकामी चाचा का असली नाम क्या था यह तो अब उनको भी याद न होगा। किंतु उनके नाम की शोहरत का आलम यह था कि उनका मोहल्ला भी अब जुकामी चाचा के मोहल्ले के नाम से जाना जाने लगा था।
 दरअसल जुकाम के कारण उनकी नाक के दोनों छेंद नगरपालिका के गटर की तरह बारहों महीने उफनाया करते थे। इससे प्रभावित होकर मोहल्ले के एक खुराफाती बच्चे ने एक बार उन्हें ‘जुकामी चाचा’ कह दिया। लोगों को यह नाम इतना पसंद आया कि उनका यही नाम रख दिया गया। 

  जुकामी चाचा गुणों की खान थे। उनके किस गुण को गिनवाया जाये और किसको नहीं, यह तय कर पाना मुश्किल था। कंजूसी के क्षेत्र में तो जुकामी चाचा ने ऐसे-ऐसे रिकार्ड बनाये हैं कि ‘गिनीज़ बुक्स’ के एक से लेकर दस नंबर तक के रिकार्ड पर उन्हीं का कब्जा पक्का समझिये। अपनी कंजूसी के चलते उनका अक्सर तमाशा बन जाता लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। मोहल्ले के बड़े-बुजर्गो ने भी कई बार समझाया कि इतनी कंजूसी ठीक नहीं मगर जुकामी चाचा का कहना था कि पैसे बचाना कंजूसी नहीं बल्कि एक आर्ट है जो सबके बस की बात नहीं। पैसे बचाने के लिए उनके पास एक से बढ़कर एक नुस्खे थे।

  अब सिर के बालों को ही लीजये। ज्यादातर लोग इन्हें बढ़ाने के लिये पहले मंहगे-मंहले तेलों और शेम्पुओं पर पैसा खर्च करते हैं फिर उन्हें कटवाने के लिये भी पैसा बर्बाद करते हैं। जुकामी चाचा की नजर में यह पक्की मूर्खता थी। जब हर महीने बाल कटवा कर फेंकने ही हैं तो उन्हें बढ़ाने के लिये तेल और शेम्पू पर पैसा बर्बाद करने की क्या जरूरत? जुकामी चाचा का दावा था कि युगों-युगों से चली आ रही इस मूर्खता पर अब तक जितना पैसा बर्बाद हो चुका है उतने में देश की अर्थव्यवस्था सुधर सकती थी।

 जुकामी चाचा का रिकार्ड था कि बाल कटवाने के लिये उन्होंने आज तक एक चवन्नी भी खर्च नहीं की थी। वह उन्हें बढ़ने देते फिर मौके की तलाश में रहते। आस-पास के मोहल्ले में जब भी कोई आदमी उपरवाले का प्यारा होता वह झट से वहां मुंडन संस्कार करवाने पहुंच जाते। मातम-पुर्सी भी हो जाती और चार पैसे भी बच जाते। 

 एक बार कई महीनों तक आस-पास के मोहल्लों में भी किसी की मौत नहीं हुयी। इससे जुकामी चाचा के बाल और दाढ़ी झाड़ियों जैसे लंबे हो गये थे। उनमें पड़े जुओं ने खुजली मचा-मचा कर उनकी नाक में दम कर दिया था। बेचारे हर बीमार और बूढ़े को बड़ी हसरत से देखते किन्तु बुरा हो दिनो-दिन उन्नति हो रही मेडिकल सांईंस का जिसके चलते कई गंभीर मरीजों की अंतिम यात्रायें रद्द हो गयी थीं। वैसे कुछ मनचलों का मानना था कि यमदूत खुराफाती हो गये हैं। वे षरारतन जुकामी चाचा के मोहल्ले से किसी को बिदा नहीं करा रहे हैं।
 
 जुओं ने जुकामी चाचा के बालों में गदर काट रखी थी। खुजली के चलते बेचारों को न दिन में चैन मिलता था न रात में। लग रहा था कि पल्ले से खर्च कर मुंडन कराये बिना राहत न मिलेगी। अतः एक दिन मुटठी में 2 रूपये के सिक्के को थाम वह कल्लन नाई की दुकान की ओर चल पड़े। सोचा पुरानी ब्लेड से मुंडन करवा लेगें। मामला सस्ते में निबट जायेगा। 

 मगर इन्सान का सोचा हुआ सच कहां होता है। किस्मत की मार कि उस दिन कल्लन कहीं बाहर गया हुआ था और उसका बेटा झुल्लन सैलून संभाले हुये था। उसने जुकामी चाचा को देखते ही फर्शी सलाम ठोंका,‘‘अस्लाम, चचा मिंया अस्लाम। सुबह-सुबह तशरीफ का टोकरा लेकर कहां चल दिये?’’

 ‘‘सलाम वालेकुम। बरर्खुदार, वालेकुम सलाम। मैं कहीं जा नहीं रहा बल्कि तुम्हारी ही दुकान पर आ रहा हूं’’ जुकामी चाचा ने पूरे जोशो-खरोश से सलाम कबूल किया फिर अपनी सुराहीदार गर्दन को चक्करघिन्नी की तरह इधर-उधर घुमाते हुये बोले,‘‘ तुम्हारे वालिद साहब नजर नहीं आ रहे हैं?’’

 ‘‘वे बाहर गये हैं। अगर मुझ नाचीज़ के लायक कोई सेवा हो तो हुक्म करें। बंदा हाजिर है’’ झुल्लन ने कहा।

 ‘‘बेटा, क्या तुम मेरा मुंडन कर दोगे?’’ जुकामी चाचा ने हिचकिचाते हुये वहां आने का मकसद बताया।

 ‘‘आपने मेरी पाक दुकान पर अपने नापाक कदम....’’ झुल्लन ने आंखे मटकायीं।

  ‘‘क्या कहा?’’ जुकामी चाचा की त्योरियां चढ़ गयी।

  ‘‘माफ करना चचा, ये चमड़े की जुबान है, जरा फिसल गयी थी। मेरा मतलब था कि मेरी नापाक दुकान पर आपने अपने पाक कदम रख कर जो इज्जत बख्शी है उससे मेरा सिर फख्र से उंचा हो गया है’’ झुल्लन ने मुंह में भरी पान की पीक को निगला फिर किसी दरबारी की तरह झुकते हुये बोला,‘‘जिस काम को करने का शबाब मेरे बाप-दादा तक को नहीं मिला वह आप मुझे दे रहे हैं। मैं खुशी-खुशी कलम करूंगा आपका सिर।’’

 ‘‘मेरा सिर?’’ जुकामी चाचा चिहुंक कर पीछे हट गये। 

 ‘‘सिर नहीं, सिर के बाल’’ झुल्लन ने पिच्च से मुंह में भरा पान वहीं रखे कूड़ेदान में थूका फिर मुंह पोंछते हुये बोला,‘‘बुरा हो तंबाकू का। इसके कारण चमड़े की जुबान बार-बार फिसल जाती है। पर आप इत्मिनान रखिये। मैं ऐसा शानदार मुंडन करूंगा कि आप जिंदगी भर भूल न पायेगें।’’

 ‘‘बेटा, पैसे कितने लोगे?’’ जुकामी चाचा ने धड़कते दिल से पूछा।

 ‘‘आप घर के आदमी हैं। मुंडन करवाईये। बाद में वाजिब दाम लगा दूंगा’’ झुल्लन ने मंजे हुये नेता की तरह आष्वस्त किया।

 ‘‘भैया, हिसाब पहले से साफ रहे तो ज्यादा अच्छा रहता है’’ जुकामी चाचा ने अपना तर्जुबा बताया।

 ‘‘ठीक है। आप 502 रूपये दे दीजयेगा।’’

   ‘‘502 रूपये किस बात के?’’ जुकामी चाचा यूं उछले जैसे कहीं बम फट गया हो।

 ‘‘ दो रूपये मुंडन के और......’’ झुल्लन ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

 ‘‘बाकी 500 रूपये किस बात के?’’ जुकामी चाचा ने उसे घूरा।

 ‘‘आपकी बहती हुई बदबूदार नाक देख कर बाकी के जो ग्राहक भाग जायेगें 500 रूपये उसके हर्जाने के’’ झुल्लन ने पूर्ण गंभीरता के साथ कीमत का खुलासा किया।

 ‘‘लाहौल बिला कूबत। सत्यानाश हो इस बदलते जमाने का। आज कल के लौंडो में तमीज नाम की कोई चीज़ ही नहीं बची है। न उम्र का ख्याल, न पेशे का इखलाक और न मोहल्ले की अदब। जिसका चाहेगें पैजामा उतार कर सड़क पर उछाल देगें’’ जुकामी चाचा का पारा सीधे सातवें आसमान पर चढ गया।ं 

 ‘‘चचा, जरा मुहावरा तो ढंग से बोलिये। पैजामा नहीं पगड़ी उछाली जाती है और वह आप पहनते नहीं हैं’’दुकान पर बैठे एक ग्राहक ने टोंका। 

 ऐसा लगा जैसे बर्र के छत्ते पर हाथ रख दिया गया हो। जुकामी चाचा हत्थे से उखड़ गये। अपने हाथ झटक-झटक और लंबी गर्दन को उचका-उचका कर उन्होने झुल्लन और उस ग्राहक को इतना कोसा, इतना कोसा कि कोसने का वल्र्ड रिकार्ड भी टूट गया होगा।  

  कल्लन की दुकान के आस-पास मुफ्त का तमाशा देखने वालों की अच्छी खासी भीड़ जमा हो गयी थी। कुछ लोगों ने तो बकायदा जुकामी चाचा के एक्षन की वीडियो भी बना ली। थोड़ी देर बाद जब जुकामी चाचा के इंजिन की बैटरी डिस्चार्ज होने लगी तब वे बड़बड़ाते हुये घर लौट पड़े। 

  कल्लन की दुकान से थोड़ा आगे जहां से गली घूमती है वहीं चुन्नू पनवाड़ी की दुकान है। संयोगवश आज उसका बेटा मुन्नू वहां बैठा था। उसने जुकामी चाचा को उछलते-कूदते आते देखा तो उसका दिल भी मचल उठा। उसने पान का बीड़ा उठाया और जुकामी चाचा की ओर बढ़ाते हुये बोला,‘‘चचा, लगता है किसी मरदूद ने सुबह-सुबह आपका दिल दुखा दिया है। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताईयेगा।’’ 

 पान वह भी मुफ्त का! जुकामी चाचा ने लपक कर उसे मुंह में दाबा फिर पूरा किस्सा बता कर झुल्लन को कोसने लगे।

 ‘‘यह तो खुल्लम-खुला डकैती का मामला है। अगर वह मुझसे इतने पैसे मांगता तो मैं तो पुलिस में रिपोर्ट लिखा देता’’ मुन्नू ने समझाया।

 ‘‘मैनें सोंचा मोहल्ले का बच्चा है। पुलिस के चक्कर में फंस कर झेल जायेगा इसलिये छोड़ दिया’’ जुकामी चाचा ने दरियादिली दिखायी।  

 ‘‘खैर, जो हुआ सो हुआ। मैं बिल्कुल सस्ते में आपके मुंडन का जुगाड़ करवा दूंगा’’ मुन्नू ने सांत्वना दी फिर किसी शुभ-चिन्तक की तरह पूछा,‘‘पैसे कितने हैं आपके पास?’’

 ‘‘दो रूपये’’ जुकामी चाचा ने मुट्ठी खोल कर दो का सिक्का दिखाया।

 ‘‘ये तो बहुत ज्यादा हैं’’ मुन्नू ने दो का सिक्का लेकर अपने गल्ले में डाला फिर माचिस की एक डिब्बी और डेढ़ रूपये के सिक्के जुकामी चाचा के हाथ पर रखते हुये बोला,‘‘इसे ले जाईये आपका काम हो जायेगा।’’

 ‘‘ये क्या है?’’ जुकामी चाचा ने पलकें झपकायीं।

 ‘‘डेढ़ रूपये से मिट्टी का तेल खरीद कर बालों में लगा लीजये। फिर माचिस दिखा दीजयेगा, सेकेंडो में सारे बाल साफ हो जायेगें। उसके बाद वे दोबारा निकलेगें भी नहीं। हमेशा-हमेशा के लिए झंझट खत्म हो जाएगा’’ मुन्नू ने पूर्ण गंभीरता के साथ मुंडन का आसान रास्ता समझाया। 

 दोस्ती की आंड़ में दुश्मनी? जुकामी चाचा का गुस्सा सांतवे आसमान के भी उस पार जा पहुंचा। वे दांत पीसते हुये वह मुन्नू की ओर लपके। वह उछल कर भागा। अब मुन्नू आगे-आगे और जुकामी चाचा पीछे-पीछे। घंटो तमाशा चला। मगर जुकामी चाचा मुन्नू को छू तक नहीं पाये। आखिर में थक-हार कर वे घर लौट आये।
 
 मुंडन भी नहीं हुआ और अट्ठनी मुफ्त में चली गयी। अब बचे हुये डेढ रूपये में मुंडन कैसे करवाये जाये? जुकामी चाचा काफी देर तक दिमागी घोड़े दौड़ाते रहे। अचानक एक जबरदस्त आईडिया दिमाग में आया तो वे खुशी से उछल पड़े।

 ‘‘वाह जुकामी, वाह! तू तो बड़ा समझदार है’’ उन्होने खुद की पीठ थपथपायी फिर खिड़की से बाहर झंाका। दोपहरी के कारण सड़क पर सन्नाटा छाया हुआ था। 

 अपनी टांगो से सड़क नापते हुये वे अपने लक्ष्य की ओर चल दिये। पहला मोहल्ला, दूसरा मोहल्ला, तीसरा मोहल्ला और चौथा मोहल्ला पार करते हुये वह दो घंटे में शहर के बाहरी हिस्से में बस रही एक नयी कालोनी में पहुंच गये। वहां उन्हें कोई नहीं पहचानता था।

 बस स्टैंड के पास बने पब्लिक टेलीफोन बूथ पर सन्नाटा पसरा हुआ था। जुकामी चाचा ने एक रूपये का सिक्का टेलीफोन में डालते हुये पुलिस चौकी का नंबर मिलाया,‘‘एक खूंखार आतंकवादी साधुओं की तरह दाढ़ी और बाल बढ़ाये नयी कालोनी में टहल रहा है। उसे पकड़ कर उसका मुंडन करवाईये तो आप पहचान जायेगें। उसकी फोटो कई बार टी.वी. पर दिखायी जा चुकी है।’’

 ‘‘आप कौन बोल रहे हैं और आपको यह सब कैसे पता?’’ उधर से आवाज आयी।

 ‘‘मैं पुलिस का शुभचिन्तक हूं। जल्दी कीजये वरना वह आतंकवादी कोई वारदात करके निकल जायेगा और आप टापते रह जायेगें’’ जुकामी चाचा ने डपटा और फोन काट दिया।

 इसके बाद वे इत्मिनान से कालोनी में टहलने लगे। थोड़ी ही देर में पुलिस ने उन्हें घेर लिया। जुकामी चाचा ने भागने का नाटक किया। अपनी तोंद संभालते हुये दरोगा ने उन्हें दौड़ाया तो फिसल कर गिर पड़ा लेकिन उसके सिपाहियों ने जुकामी चाचा को दबोच कर जीप में लाद लिया। दरोगा को काफी चोट आयी थी इसलिये वह रास्ते भर ताव खाता रहा।

 पुलिस चैकी का मुंशी एक नाई को पहले से ही पकड़ लाया था। दरोगा ने उसे जुकामी चाचा का मुंडन करने का आदेश दिया।

 शहर के सारे नाई जुकामी चाचा को पहचानते थे। उसने बताने की कोशिश की,‘‘हुजूर, यह तो.....’’

 ‘‘हम जानते हैं कि यह कौन है। तू बस चुपचाप इसका मुंडन कर’’ दर्द से कराहते हुये दरोगा ने नाई को डपटा।

 नाई चुपचाप जुकामी चाचा का मुंडन करने लगा। सिर घुटने के बाद उनकी दाढ़ी-मूंछ भी साफ हो गयी पर कोई भी पुलिस वाला उनके चेहरे का मिलान टी.वी. पर दिखायी गयी फोटुओं से नहीं कर सका।

 ‘‘अबे, जल्दी बता कौन है तू?’’ दरोगाा ने चिंघाड़ते हुये पूछा।

 ‘‘हुजूर, मैं तो जुकामी चाचा हूं’’ जुकामी चाचा ने इत्मिनान से नाक सुड़कते हुये बताया।

 ‘‘अबे पुलिस से झूठ बोलता है। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि तू खूंखार आतंकवादी है। बता अब तक कितने कत्ल किये हैं?’’ दरोगा बुक्का फाड़ कर चीखा।

 ‘‘हुजूर, यह कोई आतंकवादी नहीं बल्कि वाकई में जुकामी चाचा ही हैं। लगता है आप लोगों को कोई गलतफहमी हुयी है’’ नाई ने हिम्मत बटोरते हुये मुंह खोला।

 ‘‘तू इसे कैसे जानता है?’’ दरोगा ने उसे घूरा।

 ‘‘पूरा शहर जानता हैं कि आज तक बाल कटवाने के लिये इस महाकजूंस ने एक धेला भी खर्च नहीं किया है। यह सिर्फ किसी के मौत पर ही मुंडन करवाते हैं मगर बहुत दिनों से इनके आस-पास के मोहल्लों से भी कोई आदमी उपर नहीं गया है इसीलिये इनके दाढ़ी और बाल इतने बड़े हो गये थे’’ नाई ने खुलासा किया।

 ‘‘तूने यह बात पहले क्यों नहीं बतायी?’’ दरोगा गुस्से से भड़क उठा।

 ‘‘सरकार, मैने तो कोशिश की थी पर आपने ही डपट दिया था’’ नाई ने कहा फिर मुस्कराते हुये बोला,‘‘लगता है कि जुकामी चाचा ने आज भी मुफ्त में ही मुंडन करवाने का जुगाड़ कर लिया है।’’

 बात दरोगा की समझ में आ गयी। उसकी खोपड़ी का फ्यूज उड़ गया और वह जुकामी चाचा की गर्दन दबोच कर चीख उठा,‘‘कमीने, पुलिस से मजाक करता है। जेल में सड़ा दूंगा तुझे।’’

 ‘‘हुजूर, वहां खाना तो मुफ्त का मिलेगा?’’ जुकामी चाचा ने अपनी आंखो को टिमटिमाते हुये पूछा।

 दरोगा का आज तक ऐसे आदमी ने कभी पाला नहीं पड़ा था। वह समझ गया कि ऐसे महाकंजूस से उलझना बेकार है। अतः जुकामी चाचा की गर्दन छोड़ उनकी कमर पर लात जमाते हुये दहाड़ा,‘‘भाग जा यहां से। दोबारा अगर आस-पास भी नजर आया तो टांगे तोड़ दूंगा।’’

 जुकामी चाचा सरपट भाग लिये। एक लात जरूर खानी पड़ी थी लेकिन मुंडन होने के साथ-साथ अट्ठन्नी भी बच गयी थी। अतः सौदा बुरा नहीं था। 

 मोहल्ले में पहुंच कर उन्होंने नमक-मिर्च लगा कर इस किस्से का बयान किया तो किसी भले आदमी ने इसको कहानी बना कर एक पत्रिका में छपवा दिया। जुकामी चाचा को जब पता लगा तो उनकी छाती और चौड़ी हो गयी। मोहल्ला स्तर से बढ़ कर उनका कद अब राष्ट्रीय स्तर का हो गया था। वह क
ई दिनों तक खुशी से झूमते रहे। वह बात दीगर है कि मोहल्ले के भले आदमी शर्मशार होते रहे कि उनकी मूर्खताओं के चलते शहर में पूरे मोहल्ले की बदनामी हो रही है।
यह कहानी 'पायस' पत्रिका के दिसंबर 2021 के अंक में प्रकाशित हुई है!

पता- लखनऊ उत्तर प्रदेश

Monday, December 13, 2021

आंदोलन खत्म-संघर्ष और संवैधानिक मूल्यों की जीत-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

आम-जन की बात में आज की चर्चा, किसान बनाम सरकार-चुनावी हिसाब-किताब अभी बाकी है
N.L.Verma Asst Pro.

            केंद्र सरकार द्वारा कथित किसानों के हित में पारित तीन कृषि कानूनों के विरोध से उपजा और एक साल से अधिक चला इतिहास में दर्ज हो चुका किसान आंदोलन सरकार से बनी सहमति के बाद सत्ता को आंदोलन का पाठ पढ़ाने और घुटनों के बल लाकर अब किसानों की घर वापसी शुरू हो गयी है। एक साल बाद मोदी को ये कानून माफी के साथ वापस लेने पड़े। मेरे विचार से यह एक विश्व रिकॉर्ड हो सकता है कि किसी सरकार द्वारा पारित कानून एक दिन भी लागू नही हो पाया और सरकार को क़ानून रद्द करने पड़े हों। साहित्य की भाषा मे यदि कहा जाए तो यह आंदोलन या लड़ाई दीये और तूफान के बीच थी जिसमे दीये की जीत हुई है। दीयों द्वारा तूफान को पराजित करने जैसी स्थिति दिखाई दी है। जो कृषि क़ानून किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के नाम पर थोपने के प्रयास किये जा रहे थे और उनको न हटाने की कसमें खायी जा रही थीं। जागरूक किसानों और उनके संगठनों ने सामूहिक शक्ति और सूझ से इन कानूनों की गंभीरता और हक़ीक़त समझकर घर-परिवार छोड़कर आन्दोलन करते हुये जब सड़कों पर विरोध कर रहे थे तो तो सरकार के प्रतिनिधियों ने उन्हें मवाली,विद्रोही,राजनीतिक विपक्षियों की साजिश, आतंकवादी, राष्ट्र द्रोही,आढ़तियों के दलाल और न जाने क्या- क्या कहकर किसानों और उनके नेताओं के चरित्र पर कीचड़ उछालने के अनगिनत राजनीतिक प्रयास और प्रयोग किये गए। फिर भी देश का अन्नदाता सड़कों पर डटा रहा और अंततः तानाशाही का रवैया अपनाने वाली सरकार को झुककर माफी मांगने के लिए विवश होना पड़ा। क़ानून रद्द होने की खबर देश के किसानों के लिए एक बेहद रोमांचकारी और राहतभरी हो सकती है। मोदी सरकार द्वारा एक साल बाद तीनों क़ानूनों को आखिर,अचानक रद्द क्यों करना पड़ा ? क्या केंद्र सरकार को पांच राज्यों की चुनावी आहट और संभावित खतरे को भांपते हुए डैमेज कंट्रोल करने की रणनीति के तहत यह कदम उठाना पड़ा है? राजनीतिक गलियारों और विश्लेषकों में चर्चा है कि बीजेपी नही चाहती थी कि किसान आंदोलन के चलते पांच राज्यों के विधान  सभाओं के चुनाव हों। बीजेपी रणनीतिकारों का मानना था कि उस स्थिति में अधिकतम नुकसान होने की संभावना थी। कानूनों की वापसी से खत्म हुए आंदोलन से अब बीजेपी उस संभावित हानि को कम करने या डैमेज कंट्रोल करने की स्थिति में आती महसूस कर रही है।
 

          
            किसानों के इस आंदोलन से जो कुछ हासिल हुआ है, वह सब किसानों को ही हासिल हुआ और बीजेपी को कुछ भी हासिल नही हुआ है, बल्कि यह कह सकते हैं कि बीजेपी ने किसान आंदोलन पर अपनाए गए अपने तानाशाही रवैये से वश खोया ही खोया है। किसानों के इस आंदोलन की शक्ति के सामने झुकती नजर आयी सरकार के चाल- चलन से संवैधानिक व्यवस्थाओं की स्थितियां और अधिक जीवंत व शक्तिशाली उभरती नज़र आई हैं और लोकतांत्रिक तानाशाही सरकारों को एक बड़ी नसीहत मिली है कि अब देश में सामान्य जनमानस को प्रभावित करने वाले निर्णयों से पहले जनता की राय भी लेना जरूरी है। लोकतंत्र में जनता की असहमति और विरोध-प्रदर्शनों की अहमियत का दुःखद एहसास भी सरकार को हो गया होगा! इस प्रकार के आंदोलनों से आम आदमी और सरकारों को व्यापक सीख लेनी चाहिए। इस किसान आंदोलन की लम्बी अवधि और सफलता का आंकलन और विश्लेषण किया जाए तो मेरे अनुसार इसको शुरू से लेकर अंत तक गैरराजनीतिक बनाये रखा जाना सबसे बड़ी उपलब्धि रही है। किसी भी पक्ष या विपक्ष को मंच साझा करने नही दिया गया,क्योकि पूर्व में किये गए आंदोलनों में विपक्ष के नेता मंच पर किसानों की हमदर्दी लूटकर राजनीतिक फायदा उठा लिया करते थे और किसान ठगा सा रह जाता था। विपक्षी राजनीतिक फायदा उठाकर सत्ता का लाभ उठाते रहे और किसानों के मुद्दे भूलाते चले जाने की संस्कृति के अभ्यस्त होते गए और किसानों के दर्द कम करने के बजाय उनके दर्द बढ़ाते चले गए। सरकार को किसानों के प्रति यदि कोई सम्मान या सहानुभूति है तो सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को मद्देनजर अविलंब एक स्पष्ट किसान नीति बनाकर उसकी घोषणा करे। भारत एक कृषि प्रधान देश है और भारत के किसानों को " किसान सम्मान राशि " के बजाय उसके खून-पसीने से कमाई गयी फसलों की सम्मानजनक राशि (मूल्य) कानूनी गारंटी के साथ मिलने की व्यवस्था सुनिश्चित हो। एक साल से अधिक चले इस शांतिपूर्ण किसान आंदोलन में शामिल किसान और उनके संगठनों की सामूहिक रूप से बेहद सूझबूझ भरे नेतृत्व की जितनी प्रशंसा की जाए,वह कम ही होगी!

            सर्दी,गर्मी,बरसात और फिर सर्दी, सरकार द्वारा खड़ी की गयी तरह-तरह बाधाओं और दी गयी संज्ञाओं की मार झेलते हुए एक साल से अधिक अनवरत संशय और आशंकाओं के बीच ढीठ और जिद्दी सरकार के खिलाफ डटकर मुकाबला करना किसी युद्ध से कम नही आंका जा सकता है। निःसंदेह, आज देश का किसान विजयी भाव से आह्लादित होगा और होना भी चाहिए! आज देश के किसानों ने यह अहसास करा दिया है कि जनता द्वारा चुनी गई लोकतांत्रिक सरकारों का अराजकता,निरंकुशता और तानाशाही भरा रवैया भविष्य में बर्दाश्त नही किया जाएगा और किसानों से पंगा न लेने की परोक्ष रूप से धमकी भी नज़र आती दिखी। इस आंदोलन और तानाशाह सरकार से एक बड़ा संदेश निकलकर बाहर आया कि भले ही देश की अर्थव्यवस्था के हिसाब से कृषि का योगदान छोटा हो, किंतु देश की राजनीति में किसानों और उनके सरोकारों को नज़रअंदाज़ या दरकिनार करना किसी भी सरकार के लिए अब आसान नही होगा और यह भी आभास करा दिया कि सत्ता या सरकार की उम्र निश्चित होती है किंतु आंदोलनों की कोई उम्र नही होती है। आने वाली पीढ़ियों के लिए यह किसान आंदोलन उसी इतिहास के संदर्भ मे देखा जाएगा जैसा किसान आंदोलन सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ हुआ था।
         

यूपी के लखीमपुर खीरी के तिकुनियां कांड की आग की राख अभी ठंडी नही हुई है। बीजेपी के चुनावी रथ को इस सुलगती आग की राख  की झुलस से भी बचना मुश्किल होगा! लखीमपुर खीरी में बजाज ग्रुप की चीनी मिलों पर किसानों के बकाये गन्ना भुगतान की समस्या और उसके खिलाफ संघर्षरत क्षेत्रीय किसानों की आवाज भी आग में घी डालने का काम करती नज़र आ रही है।

         अब देखना यह होगा कि बीजेपी देश-विदेश से काला धन निकालने के लिए की गई नोटबन्दी, कोरोना काल मे की गई अचानक लॉक डाउन और उससे उपजी आम जनता बेवशी ,कृषि कानूनों,कॉरपोरेट घरानों के लिए बेहताशा निजीकरण व्यवस्था  और सरकारी नौकरियों में ओबीसी और एससी-एसटी के संवैधानिक आरक्षण की हकमारी, कोरोना काल में स्वास्थ्य-चिकित्सा की अव्यवस्थाओं से हुई बेहिसाब मौतों-बेरोजगारी,महंगाई और किसानों की फसल की एमएसपी पर हुई खरीदारी और उसके भुगतान की दुर्गति के जरिये अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन और विश्वास की कितनी भरपाई करने में सफल होती है? यह भी आंकलन करने का विषय होगा कि राम मंदिर,कश्मीर का अनुच्छेद 370 और 35ए,प्रलोभनकारी मुफ्त राशन-किसान सम्मान निधि,सबका विकास-सबका साथ और सबका विश्वास, हिन्दू राष्ट्रवादी-धार्मिक राजनीति,स्वच्छता मिशन,महिला सशक्तिकरण,बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के मुद्दे जनता के ऊपर कितने समय और सीमा तक प्रभावकारी साबित होते हैं ?
पता-लखीमपुर-खीरी...9415461224

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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