साहित्य
- जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
- लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
Sunday, December 19, 2021
अच्छे दिन-सुरेश सौरभ
तिकुनियां हत्याकांड: एक राजनीतिक विश्लेषण और संभावनाएं-नन्द लाल वर्मा (एशोसिएट प्रोफेसर)
Saturday, December 18, 2021
भोजपुरी लोक-संगीत के पर्याय हैं भिखारी ठाकुर-अखिलेश कुमार अरुण
व्यक्तित्व
(दैनिक पूर्वोदय, आसाम और गुहावटी के सभी संस्करणों में २१ दिस्मबर २०२१ को प्रकाशित)
भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर का आज ही के दिन यानि 18 दिसंबर 1887 को नाई परिवार में जन्म हुआ था कबीर दास जी कि तरह यह भी शिक्षा के मामले में मसि कागद छुओ नहीं कलम गहि नहीं हाथ को स्पष्ट करते हुए अपने गीतों में कहते हैं-
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भिखारी ठाकुर |
जाति के हजाम मोर कुतुबपुर ह मोकाम
छपरा से तीन मील दियरा में बाबु जी।
पूरुब के कोना पर गंगा किनारे पर
जाति पेशा बाटे विद्या नहीं बाबू जी।
इनकी साहित्य विधा व्यंग्य पर आधारित थी सटीक और चुटीले
अंदाज में अपनी बात कह जाने की कला इनकी स्वयं की अपनी थी जिसकी कल्पना साहित्य का
उत्कृष्ट समाजविज्ञानी भी नहीं कर सकता। भोजपुरी के इस शेक्सपियर ने अपने लोकगीतों में जन-मानस की आवाज को बुलंद करते हुए एक से
बढकर एक कालजई रचनाओं को हम सब के बीच छोड़कर 10 जुलाई 1971
को इस दुनिया से रुख्सत हो गया. किन्तु भोजपुरी भाषी लोगों के बीच
अजर और अमर हैं। भिखारी के साहित्य में बिदेशिया भाई-बिरोध,
बेटी-बियोग या बेटि-बेचवा, कलयुग प्रेम, गबर घिचोर, गंगा स्नान (अस्नान), बिधवा-बिलाप,
पुत्रबध, ननद-भौजाई, बहरा बहार, कलियुग-प्रेम, राधेश्याम-बहार, बिरहा-बहार, नक़ल
भांड अ नेटुआ के एक अथाह संग्रह है। साल २०२१ इसलिए भी ख़ास हो जाता है कि इन्ही के मंडली (विदेशिया गायकी ग्रुप)
के आखिरी लवंडा नाच करने वाले रामचंद्र माझी को पद्मश्री पुरुस्कार से नवाजा जाता
है।
भोजपुरी नृत्य विधा में विदेशिया आज भी अपनी अलग पहचान रखती है वस्तुतः
लोकमानस में विदेशिया का चलन अब धीरे-धीरे ख़तम हो चला है किन्तु भोजपुरी सिनेमा
जगत में यह अपने नए स्वरूप में आज भी गयी और बजायी जाती है। विदेशिय के बारे में
हमने सुन बहुत रखा था किन्तु पहला साक्षात्कार दिनेश लाल यादव (निरहुआ) की भोजपुरी फिल्म विदेशिया (२०१२) से हुआ था इससे पहले विदेशिया के भावों को समेटे हुए एक
फिल्म १९८४-१९९४ में भी आ चुकी थी , निरहुआ के इस फिल्म को
देखने का अवसर शायद हमें २०१४ या १५ में मिला जिसमें निरहुआ घर-परिवार से दूर
कोलकाता जैसे शहर में कमाने के लिए जाता है. प्रतीकात्मक तौर पर पत्नी की बिरह
वेदना को उद्घाटित करने वाला यह नृत्य विधा अपने में कई भावों को सहेजे हुए है। एक
गीत देखिये-
सईयां गईले कलकतवा ए सजनी
हथवा में छाता नईखे गोड़वा में जुतवा ए सजनी
कईसे चलिहें रहतवा ए सजनी.....
भिखारी ठाकुर का वह समय था जब देश अंग्रेजों का गुलाम था और भारत के पुरबी क्षेत्रों बंगाल-बिहार की जनता रोजी-रोटी के लिए घर-परिवार से सालोंसाल दूर रहकर कमाई करने के लिए जाया करते थे। उन्हीके वेदनाओं को प्रकट करने का यह सहज माध्यम था। कोयलरी के खान के मजदूरों की दशा, कलकत्ता में हाथ-गाड़ी वालों की दशा और वे जो मजदूरी के नाम पर मरिसस्, जावा, सुमात्रा जाकर ऐसा फंसे कि घूमकर अपने देश नहीं लौटे, उसमे से कुछ तो मर-बिला गए जो बचे सो वहीँ के होकर रह गए परिणामतः मरिसस् पूरा का पूरा भोजपुरी बोलने वालों से पटा पड़ा क्या? भोजपुरी वालों ने उसे बसाया ही है उनकी अपने मातृ-भूमि की व्यथा भी विदेशिया में देखने को मिलता है।
भिखारी ठाकुर क्रांतिकारी कलाकर रहे हैं जिन्होंने शोषितों-वंचितो की पीड़ा को अपने साहित्य का आधार स्वीकार किया है और उसी के अनुरूप गीत और नाटक की प्रस्तुति आजीवन देते रहे । वे कहते थे- "राजा महाराजाओं या बड़े-बड़े लोगों की बातें ज्ञानी, गुणी, विद्धान लोग लिखेंगे, मुझे तो अपने जैसे लोगों की बाते लिखनी है।" भिखारी ठाकुर की अपनी अलग विधा थी जिसे नाच/तमाशा कहा जाता था और है। जिन नाटकों में उन्होंने लड़कियों, विधवाओं, अछूत-पिछड़ों और बूढ़ों की पीड़ा को जुबान दी जिस कारण द्विज उनसे बेहद नफ़रत करते थे। अपनी तमाम योग्यता के बावजूद ‘भिखरिया’ कहकर पुकारे जाने पर वो बिलबिला जाते। 'सबसे कठिन था जाति अपमाना", ‘नाई-बहार’ नाटक में जाति दंश की पीड़ा उभर कर आमने आती है जो उनकी अपनी व्यथा थी।
उस समय का समाजिक ताना-बाना भी उनके नाट्य साहित्य के लिए किसी उपजाऊ खेत से कम न था। उन दिनों दहेज से तंग आकर द्विजों में बेटी बेचने की प्रथा का प्रचलन अपने चरम पर था। बूढ़े या बेमेल दूल्हों से शादी कर दी जाती थी। जिसके दो-दो हाथ करने की हिम्मत भिखारी ठाकुर ने दिखाई अपने जान की परवाह किये बगैर उन्होंने इसका खुला विरोध करते हुए ‘बेटी बेचवा’ के नाम से नाटक लिखा। उन दिनों बिहार में यह नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि कई स्थानों पर बेटियों ने शादी करने से मना कर दिया और कई जगहों पर ग्रामीणों ने ही लड़की खरीदने वाले और बेमेल दूल्हों को गांव के बाहर खदेड़ दिया। इसी नाटक का असर था कि 1964 में धनबाद जिले के कुमारधुवी के लायकडीह कोलियरी में प्रदर्शन के दौरान हजारीबाग जिले के पांच सौ से ज्यादा लोगों ने रोते हुए सामूहिक शपथ ली कि वे आज से बेटी नहीं बेचेंगे।
उनकी नाट्य मंडली में ज्यादातर कलाकार निम्न वर्ग से थे जैसे बिंद, ग्वाला, नाई, लोहार, कहार, मनसुर, चमार, माझी, कुम्हार, बारी, गोंड, दुसाध आदि जाति से थे। आज
का भोजपुरी गीत-संगीत सबको मौका दिया चाहे वह कुलीन हो या निम्न किन्तु भिखारी
ठाकुर का बिदेसिया गायन विधा निम्नवर्गीय लोगों का एक सांस्कृतिक आंदोलन के
साथ-साथ अभिव्यक्ति का माध्यम थी जिसके चलते अपनी व्यथाओं को संगीत में पिरोकर
जनजाग्रति का काम करते थे और अपमान के अमानवीय दलदलों से ऊपर उठकर इन उपेक्षित
कलाकारों ने गीत-संगीत और नृत्य में अपने समाज के आँसुओं को बहने के लिए एक धार दी
जो युगों-युगों तक उनको सींचता रहेगा।
अखिलेश कुमार अरुण |
पता-ग्राम-हजरतपुर, लखीमपुर-खीरी
मोबाइल-8127698147
अशोक दास पत्रकार के साथ बहुजन साहित्य के साधक संपादक भी हैं-
Friday, December 17, 2021
अशोक दास और दलित-दस्तक (मासिक-पत्रिका) बनाम दरकिनार किये गए लोग-अखिलेश कुमार अरुण
अशोक दास (संपादक) दलित-दस्तक, दास पब्लिकेशन न्यूज-दलित दस्तक (यूट्यूब) |
Wednesday, December 15, 2021
अनुवांशिकता -सुरेश सौरभ
लघुकथा
सुरेश सौरभ |
बाजार से किताबों का गट्ठर लाया, उसे बैठक में रख, जैसे ही सुस्ताने के लिए कुर्सी पर वह पसरा, पत्नी ने उसकी एड़ी देखकर हैरत से कहा-कितनी बार आप की ऐड़ियों में क्रीम लगाया, पर यह तो फटती ही रहती हैै। दर्द नहीं होता क्या आप के?
"होता है,पर क्या करें?"-पति
"इसलिए कहती हूँ कि हमेशा जूता
पहना करें,पर आप मेरी सुनते कहाँ हैं, जब देखो तब चप्पलें ही पहन कर
निकल लेते हैं-पत्नी कुढ़ कर बोलीं।
"दरअसल मेरे पिता जी एक गरीब
मजदूर थे, बड़ी मुश्किल से वह अपनी चप्पलें ही खरीद पाते थे, इसलिए हर मौसम में वह अपनी पुरानी-धुरानी चप्पलें ही पहन
पाते थे।"
"आप तो गरीब नहीं हैं, आप तो सरकारी अध्यापक हैं-पत्नी ने मुँह फेरकर कहा।
"तुम जानती हो मैं कभी-कभी जूते
भी पहन लेता हूँ, पर यह ऐड़ियां फटना बंद नहीं होती। लगता है, यह दर्द मुझे अनुवांशिक ही मिला है। यह दर्द महसूसते हुए, गरीबों मजदूरों के दर्द का आभास करता रहूँ,शायद इसलिए
यह दर्द नहीं जाता,शायद इसलिए ये ऐड़ि़यां मेरी हमेशा फटती रहतीं हैं। शायद
ईश्वर की यही इच्छा है।"
अब पत्नी पति के करीब आई। पति की आँखों में झाँकने लगी-जहाँ
कोई नमी तैर रही थी। अब वही नमी धीमे-धीमे पत्नी की आँखों में भी तैरने लगी। पत्नी
ने भरेे गले से कहा-तुम्हारा यह शायद बड़ा प्यारा लगता है। और बहुत तकलीफ भी दिल को
देता है।"
अब पत्नी उन पुस्तकों को ताक रही थी, जिसे गरीब बच्चों को निःशुल्क देने के लिए उसके पति अपने
पैसे से, बाजार से खरीद कर लाये थे।
पति ने किताबों का वह गट्ठर
उठाया। चप्पलें पहनीं और चल पड़ा। तब पत्नी ने टोका-तुम न सुधरोगे। पति ने पलटकर कर
कहा-सरकारी स्कूल जा रहा हूँ,संसद नहीं?ज्यादा सूट-बूट में जाऊँगा, तो अपनी क्रीज़ ही बनाता
रहूंगा। गरीब बच्चों को क्या पढाऊंगा।
पत्नी उसे खाने का टिफिन पकड़ाते हुए उसकी फटी मैली ऐड़ियों
की तरफ देखकर बोली-काश यह दर्द हर आदमी को मिलता ?
‘सबका को, यह सौभाग्य ईश्वर कहाँ देता-पलट कर पति ने कहा और लंबे-लंबे डग भरता चल पड़ा। जैसे भक्त अपने भगवान की तलाश में अधीरता से भागा चला जा रहा हो।
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी पिन-262701
मो-7376236066
Tuesday, December 14, 2021
ज़ुकामी चाचा-संजीव जायसवाल संजय
ई दिनों तक खुशी से झूमते रहे। वह बात दीगर है कि मोहल्ले के भले आदमी शर्मशार होते रहे कि उनकी मूर्खताओं के चलते शहर में पूरे मोहल्ले की बदनामी हो रही है।
Monday, December 13, 2021
आंदोलन खत्म-संघर्ष और संवैधानिक मूल्यों की जीत-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
यूपी के लखीमपुर खीरी के तिकुनियां कांड की आग की राख अभी ठंडी नही हुई है। बीजेपी के चुनावी रथ को इस सुलगती आग की राख की झुलस से भी बचना मुश्किल होगा! लखीमपुर खीरी में बजाज ग्रुप की चीनी मिलों पर किसानों के बकाये गन्ना भुगतान की समस्या और उसके खिलाफ संघर्षरत क्षेत्रीय किसानों की आवाज भी आग में घी डालने का काम करती नज़र आ रही है।
पढ़िये आज की रचना
मौत और महिला-अखिलेश कुमार अरुण
(कविता) (नोट-प्रकाशित रचना इंदौर समाचार पत्र मध्य प्रदेश ११ मार्च २०२५ पृष्ठ संख्या-1 , वुमेन एक्सप्रेस पत्र दिल्ली से दिनांक ११ मार्च २०२५ ...

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नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर) युवराज दत्त महाविद्यालय लखीमपुर-खीरी ✍️विगत कुछ वर्षों से हमारे देश की इतिहास को फिल्मों के माध...