साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, June 11, 2021

छोकरी के आगे गगनचुंबी शिक्षा व्यापारियों के हाथ -सुरेश सौरभ

  एक विमर्श शिक्षा के क्षेत्र में  

    छह साल की छोकरी/भर कर लाई टोकरी/टोकरी में आम हैं/नहीं बताती दाम है/दिखा-दिखा कर टोकरी/हमें बुलाती छोकरी..एनसीईआरटी के कक्षा एक के पाठ्यक्रम में लगी इस कविता पर काफी दिनों से बवाल मचा है, इस संदर्भ अपनी फेसबुक वाल पर फिल्म स्टार आशुतोष राणा लिखतें हैं एक तरफ़ हम हिंदी भाषा के गिरते स्तर और हो रही उपेक्षा पर हाय-तौबा मचातें हैं और दूसरी ओर इतने निम्न स्तर की रचना को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना देते हैं? ऐसी रचना को निश्चित ही पाठ्यक्रम में नहीं रखा जाना चाहिए क्योंकि जैसे सिंह की पहचान उसकी दहाड़ होती है, हाथी की पहचान उसकी चिंघाड़ होती है, वैसे ही मनुष्य की पहचान उसकी भाषा होती है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बच्चे राष्ट्र की आत्मा होतें हैं। यही हैं, जिनके मस्तिष्क में अतीत सोया हुआ है। यही हैं, जिनके पहलुओं में वर्तमान करवटें ले रहा है और यही हैं जिनके क़दमों के नीचे भविष्य के अदृश्य बीज बोये जातें हैं।

अगर हम चाहते हैं, हो क़दर हिंदी की पग-पग पर।

उठें जागें भरें हुंकार पहुँचा दें इसे नभ पर।

अगर भाषा मरी तो हम भी प्यारे बच नहीं सकते।

भले ही हो करोड़ों गुण, हम कुछ रच नहीं सकते।

महज़ भाषा नहीं, यह माँ हमारी हमको रचती है।

बचेगी लाज जब इसकी हमारी लाज बचती है।

-आशुतोष राना  

लखनऊ के वरिष्ठ बाल साहित्यकार जाकिर अली रजनीशइस कविता को बच्चों के मन की अनुकूल बतातें हैं। वही इस कविता के पक्ष में अपनी फेसबुक वाल पर उतरे, बाल साहित्यकार राम करन, के पक्ष पर कड़ी आपत्ति उठाते हुए जाने-माने लघुकथाकार चित्त रंजन गोप लुकाठीकहतें हैं, यह कविता अच्छी है, पर बच्चों के स्तर की नहीं। यानि इस आम की टोकरीकविता पर सोशल मीडिया में मचे बवाल पर कुछ लोग तो इस कविता के पक्ष में हैं तो कुछ इसकी भाषा और भाव पर दो अर्थी और अश्लीलता के आरोप लगा रहें हैं। इस कविता को लेकर साहित्यकारों, शिक्षा के नीति नियंताओं के मध्य सोशल मीडिया में घमासान जारी है, तो क्या ऐसे में यह जरूरी नहीं बन जाता है कि तमाम निजी स्कूलों-कालेजों में लगी पाठ्यक्रम से इतर जबदस्ती थोपी गई मंहगी तमाम निम्न स्तरीय पुस्तकों की चर्चा की जाए, उनकी कायदे से समीक्षा की जाए। संविधान के अनुसार धार्मिक शिक्षा देने की शिक्षालय में पाबंदी है, पर फिर भी कुछ अपने को नामचीन प्रगतिशील शत-प्रतिशत रिज़ल्ट देने का दंभ भरने वाले लाखों-हजारों की संख्या में संचालित स्कूलों,कालेजों में धार्मिक शिक्षा की व अन्य उजूल-फिजूल गैर जरूरी पाठ्येतर पुस्तकें लगीं हैं। लगभग चालीस सालों से अध्ययन-अध्यापन कार्य से जुड़े लखीमपुर के शिक्षाविद् सत्य प्रकाश शिक्षकसे जब इस बारे में मैंने बात की, तो उनका कहना है, जब सरकार ने निर्धारित पाठ्यक्रम तय कर रखा है, तब स्कूल कालेजों को पाठ्यक्रम से अलग की पुस्तकें नहीं लगानी चाहिए, इससे अभिभावकों की ही जेबें कटती हैं। मप्र के वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल का कहना है कि शिक्षण संस्थाओं में सरकार के मानक अनुसार ही बच्चों के लिए किताबें होनी चाहिए, अगर इसके विपरीत पाठ्यक्रम के साथ घटिया पुस्तकें चलाई जा रहीं हैं तो यह घोर  चिंता का विषय है।   युवा कवि और अधिवक्ता रमाकान्त चौधरी से जब मैंने इस बारे में बात की तब वह बेबाक कहते हैं कि पूरे देश में निजी शिक्षालय काली कमाई के गढ़ बन चुके हैं, नर्सरी के कोर्स पांच-पांच हजार तक के मिल रहें हैं। जिसमें भी बढ़िया पाठ्यक्रम की बात करना बेमानी है। हर निजी स्कूल की उसकी अपनी तय दुकान है, जहां से अभिभावकों की जेब कटनी तय है। विद्या भारती के एक स्कूल में पढ़ा रहे राहुल मिश्रा (बदला नाम) ने बताया कि पाठ्येतर पुस्तकें सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं हमारे लिए भी सिरदर्द बनी हुईं हैं, ऐसी पुस्तकों में इतने निम्न कोटि के लेखकों की क्लिष्ट रचनाएं रखीं गईं हैं, जो न तो बच्चों के मन के अनुकूल हैं, न मेरे, पर फिर भी जबरदस्ती बच्चों को घोट कर हमें पिलाना है। बस प्रबंधक प्रकाशक दुकानदारों की रिश्तेदारी हमेशा चलती रहे, इसलिए यह जरूरी है अभिभावकों की जेबें कटतीं रहें। शिक्षक और एक बेब पत्रिका अस्मिता के संपादन से जुड़े अखिलेश अरूण का इस बारे में कहना है कि आज छः साल की छोकरी कविता पर, तो खूब चर्चा हो रही है, पर स्वनामधन्य तमाम साहित्यकारों विद्वानों से अगर निजी स्कूलों में लगी पाठ्येतर सामग्री पर चर्चा करने को कहो तो उनकी जुबानें तालू से चिपक जातीं हैं। सरकारी गुणवक्ता युक्त पाठ्यक्रम के अतिरिक्त थोपी गई काली कमाई करने वाली पुस्तकों पर कौन चर्चा करेगा? हमारे नौनिहालों के भविष्य के साथ हो रहे खिलवाड़ पर यहां कोई चर्चा नहीं करना चाहता?

    कुल मिलाकर यह सच्चाई निकल कर आ रही हैं कि अंधाधुंध अवैध कमाई के  चक्कर में निजी स्कूल-कालेजों के तमाम प्रबंधक अथवा मालिक कमाई वाली ही पाठ्यक्रम से इतर पुस्तकें, निश्चित पाठ्यक्रम के साथ कमीशन बेस पर लगवातें हैं। जानकार कहते हैं, इसमें शासन-प्रशासन के बड़े आकाओं की मिलीभगत से इंकार नहीं किया जा सकता है। कमीशन का सारा खेला है। प्ले ग्रुप से लेकर इंटर कालेज तक के किसी भी प्राइवेट स्कूल-कालेज में आप चले जाएं और बच्चे का बस्ता उठाकर देख लें, आप को जमीनी सच्चाई पता चल जाएगी। आज सही अर्थों में काली कमाई करने वाले, फर्जी पुस्तकें पाठ्यक्रमों के साथ स्कूलों में लगाने वाले, सफेदपोशों पर चर्चा करने की नितान्त युगीन आवश्यकता है। अब वक्त आ चुका है कि शिक्षा की, किसिम-किसिम की दुकानों से करोड़ों की कमाई करने वाले माफियाओं की कारगुजारियों पर व्यापक चर्चा की जाए और परत दर परत उनकी सच्चाइयों को उधेड़ कर लोगों के सामने लाया जाए, ताकि अभिभावकों की जेबों को कटने से रोका जा सके और शिक्षा का स्वस्थ माहौल बनाया जा सके।



सुरेश सौरभ 

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश  

मो-7376236066

Thursday, June 10, 2021

कांग्रेसी ‘जम्बो कल्चर’ बनाम भाजपाई ‘महाजम्बो कल्चर’-अजय बोकिल

  राजनैतिक चर्चा   

अजय बोकिल

 

क्या सत्ता की मजबूरियां राजनीतिक संगठनों में जम्बो कल्चरको बढ़ावा देती हैं? अगर मध्य प्रदेश में प्रदेश भाजपा की नई  कार्यसमिति और प्रदेश कांग्रेस की तीन साल से चली आ रही प्रदेश कार्यसमिति को देखें तो इस सवाल का जवाब हांमें होगा। या यूं कहें कि राज्य के दो मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों में अब जम्बो कार्यसमिति को लेकर एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ लगी है। कमलनाथ के नेतृत्व वाली प्रदेश कांग्रेस कार्यकारिणी में तीन साल पहले जब 84 सदस्यों को शामिल किया गया था, तब भाजपाई उस पर हंसते थे। अब प्रदेश भाजपा की 403 सदस्यों वाली महाजम्बो कार्यसमितिके कांग्रेसी मजे ले रहे हैं। कांग्रेस ने कटाक्ष कर भाजपा को भारतीय जाति पार्टीतक बता दिया। लगता है ऐसी जम्बो कार्यसमितियों के गठन के पीछे भाव यही रहता है कि संगठन की रेल में सवार होने से कहीं कोई छूट न जाए। किसी कार्यकर्ता को यह अहसास न हो  कि सत्ता की मलाई उसे भले न मिल रही होलेकिन पार्टी के जनरल कोच में खुरचन तो उसके हिस्से में आई ही समझो। यानी संगठन की कार्यसमिति न हुई, राजनीतिक रेवड़ी का भंडारा हो गया, जहां सब को कुछ न ‍कुछ टिकाना जरूरी है। कुल मिलाकर एजडस्टमेंटकी यह आजमाई हुई वैक्सीनहै, जिसे हर पार्टी को लगाना ही पड़ती है, चाहे वह सिद्धांतो की कितनी ही बात करे।

भाजपा में पिछले साल शामिल हुए सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के भोपाल फेरे के ठीक पहले आधी रात को प्रदेश भाजपा कार्यसमिति की लिस्ट ‍जिस तरह आनन-फानन में जारी हुई, फिर वापस ली गई। संशोधन के बाद पुन: जारी हुई, उससे संदेश यही गया कि प्रदेश कार्यसमिति की यह बहुप्रतीक्षित सूची भी हड़बड़ी में ही बनाई और सुधारी गई है। यूं तो भाजपा सहित देश की हर राजनीतिक पार्टी जातीय गुणा भाग पर ही चलती है। लेकिन संगठन की घोषित सूचियों में सदस्यों की जाति के नाम का उल्लेख करने से अमूमन बचा जाता है, लेकिन प्रदेश भाजपा कार्यसमिति की पहली सूची सदस्यों के जातिगत उल्लेख के साथ लीक हो गई। गोया फलां जाति का होने से ही उसे संगठन में जगह मिली। और तो और जातियां लिखने में भी गल्तियां हुईं। बाद में उन्हें भी सुधारा गया। ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इसको लेकर कई चर्चाएं हैं। कहा जा रहा है कि सिंधिया के आने के पहले संगठन की सूची फाइनल करने का प्लान था ताकि बाद में एडजस्टमेंटसे पल्ला झाड़ा जा सके। यह भी कहा जा रहा है कि सूची तो पिछले साल दिसंबर में ही घोषित होनी थी पर कोविड के चलते उसमे देरी हुई। क्योंकि आलाकमान से हरी झंडी नहीं मिली। अब कार्यसमिति गठन के लिए कोविड की तीसरी लहर का इंतजार तो नहीं ही किया जा सकता था। लिहाजा ताबड़तोड़ लिस्ट जारी कर दी गई।

गौरतलब है कि प्रदेश भाजपा की पुरानी  प्रदेश कार्यसमिति वर्ष 2016 में तत्कालीन प्रदेश अध्ययक्ष स्व. नंदकुमार‍ सिंह चौहान के समय बनी थी। ऐसे में वर्तमान प्रदेश भाजपा अध्यतक्ष वी.डी. शर्मा से कार्यकर्ताअो को अपेक्षा थी कि वो अपनी नई कार्यकारिणी जल्द घोषित करेंगे। ध्यान रहे कि पुरानी कार्यसमिति भाजपा के प्रदेश में सत्ता पर काबिज रहते बनी थी। उस कार्यसमिति ने  पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य में सत्ता भाजपा के हाथ से जाती देखी और पिछले दरवाजे से वापस हाथ आते भी देखी। और ऐसा करने में संगठन ने भी सक्रिय भूमिका भी निभाई।  

इसकी तुलना अगर आज प्रतिपक्ष में बैठी कांग्रेस से करें तो वहां प्रदेश कार्यसमिति कमलनाथ की अध्य क्षता में 2018 में बनी थी, जो अब तक जारी है। उसमें 84 सदस्य हैं। इनमें 19 उपाध्यक्ष, 25 महामंत्री व 40 सचिव बनाए गए थे। इसमें पार्टी का गुटीय, जातीय व क्षेत्रीय संतुलन साधने की पूरी कोशिश की गई थी। इस कार्यसमिति ने बरसों बाद राज्य की सत्ता कांग्रेस के हाथ आते देखी तो सवा साल बाद फटी आंखो से सत्ता हाथ से फिसलते हुए भी देखी। यानी जिन हाथों ने राजदंड ग्रहण किया था, उन्हीं हाथो ने सत्ता का तर्पण भी कर डाला। तब कांग्रेस की इस  कार्यसमि‍ित को जम्बोकहकर भाजपाइयों ने मजाक उड़ाया था। उन्हें शायद पता नहीं था कि तीन साल बाद उनकी किस्मत में तो महाजम्बो कार्यसमिति लिखी है। 

कुलमिलाकर मध्यप्रदेश के राजनीतिक अखाड़े में असल मुकाबला इस बात को लेकर दिखता है कि किसकी कार्यसमिति ज्यादा बड़ी और भारी भरकम है। इस दौड़ में यकीनन भाजपा ने बाजी मार ली है। अंग्रेजी में जम्बोशब्द का अर्थ वृहदाकारया दैत्याकारहोता है। अब राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए दैत्यशब्द का प्रयोग ठीक नहीं है ( तासीर की बात न करें) इसलिए जम्बोशब्द ही ज्यादा शिष्ट लगता है।

सवाल पूछा जा सकता है कि राजनीतिक दलों की अपनी कार्यसमिकतियो को जम्बोबनाने के पीछे कौन-सी विवशताएं और फैक्टर काम करते हैं? जैसे-जैसे पार्टी आकार और असर में बड़ी होती जाती है, वह जम्बो कल्चरमें क्यों ढलने लगती है? इन प्रश्नो के उत्तर कुछ यूं  दिए जा सकते हैं। पहला तो यह कि कोई भी सियासी दल जैसे-जैसे आकार-प्रकार में बड़ा होता जाता है, उसके आंतरिक तनाव और दबाव भी उसी अनुपात में बढ़ते हैं। प्रबल सत्ताग्रह के चलते विचार, मू्ल्य, संस्कार, जैसे शब्द स्वत: ट्रेश में चले जाते हैं। सत्ता में आना, हरसंभव बने रहना और सत्ता का चरणोदक किसी न किसी रूप में कार्यकर्ताओं तक पहुंचाना ही परम उद्देश्य बन जाता है। या यूं कहें कि डिनर पार्टी में न बुला पाए तो कम से कम भंडारे का जनरल न्यौता तो मिल ही जाए। लिहाजा संगठन में भी अपने भरोसे के’, पसंदीदा, मजबूरी में शामिल किए लोगों के साथ-साथ गुटीय, जातीय व क्षेत्रीय समीकरणों का ध्यान भी रखना पड़ता है। इस कवायद का नतीजा कई बार यह होता है कि कमांडो टीमकब वानर सेनामें तब्दील हो जाती है, पता नहीं चलता। वैसे इस जम्बो फार्मूलेका प्रदेश की आबादी से कोई लेना-देना नहीं होता। अगर होता तो देश में सबसे ज्यादा 22 करोड़ जनसंख्या उत्तर प्रदेश की है, लेकिन वहां प्रदेश भाजपा कार्यसमिति में 323 सदस्य ही हैं, जबकि 8 करोड़ आबादी वाले मप्र की भाजपा कार्यसमिति में 403 सदस्य हैं, जिनमें 162 सदस्य, 218 विशेष आंम‍‍त्रित सदस्य और 23 स्थायी सदस्य हैं। यूपी में तो 8 माह बाद ही विधानसभा चुनाव है, लेकिन एमपी में चुनाव को अभी ढाई साल है। ऐसे में तर्क‍ दिया जा सकता है कि यह प्रदेश भाजपा की दूरदर्शिता है कि उसने अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी ( संगठन की दृष्टि से) अभी से शुरू कर दी है। 

यूं किसी भी राजनीतिक दल की कार्यसमिति घोषित होते ही पार्टी में असंतोष और नाराजी का गुबार उठता ही है। मसलन फलां को जगह नहीं मिली तो फलां को किस काबिलियत पर जगह मिली? चाहे वरिष्ठ हो या कनिष्ठ, भाषण झाड़ने वाला हो या दरी बिछाने वाला, हर कार्यकर्ता की उम्मीद रहती है कि कम से कम संगठन में तो कोई जगह उसे मिल जाए। ताकि वो अपनी गाड़ी पर कोई पदप्लेट तो लगा सके। प्रदेश भाजपा की नई कार्यसमिति पर भी सवाल उठ रहे हैं, लेकिन अध्यमक्ष को दूरंदेशी से काम लेना पड़ता है। सीमित विकल्पों में से ही चुनना पड़ता है। व्यक्तिगत राजी-नाराजी से संगठन का रथ आगे नहीं बढ़ता। किसी भी सत्तारूढ़ दल के अध्याक्ष के लिए यह और कठिन होता है। उधर कांग्रेस तो सदा सियासी जिम्नास्टिक्समें जीती आई है। वहां आंतरिक संतुलन की हर कोशिश नए असंतुलन को जन्म देती है। इसलिए जम्बो कल्चरवहां स्थायी संस्कृति में तब्दील हो चुका है। भाजपा में अभी तक ऐसा नहीं था।  लेकिन अब भाजपा ने भी संगठन में महाजम्बो कल्चर  की नींव रखकर कांग्रेस को एक नया हाथदिखाया है। आगे-आगे देखिए होता है क्या?

(वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मप्र-9893699939)

नेत्र हैं अनमोल-श्याम किशोर बेचैन

   10 जून विश्व नेत्र दान दिवस  

श्याम किशोर बेचैन


 नेत्र बड़े अनमोल हैं नेत्रों का भी मान करके देखो ।

नेत्र हीन लोगों को भी अपने समान करके देखो ।।

 

सुबह कामआ सकते हैंये शाम काम आसकते हैं ।

बाद तुम्हारे नेत्र यही निष्काम काम आ सकते हैं ।।

देखोगे , ना रहने पर भी  नेत्र दान  करके देखो ।

नेत्र हीन लोगों को भी अपने समान करके देखो ।।

 

मरने के  उपरांत नेत्र भी  मर जाते हैं जान से ।

लेकिन दानी नेत्र दान भी कर जाते हैं शान से ।।

अंधकार को कभी रोशनी भी प्रदान करके देखो ।

नेत्र हीन लोगों को भी अपने समान करके देखो ।।

 

नेत्र दान करने वाले सचमुच महान कहलाते हैं ।

किसीको अपने नैनोसे सारा जहांन दिखलाते हैं ।।

मुट्ठी में  बेचैन कभी  ये आसमान करके देखो ।

नेत्र हीन लोगों को भी अपने समान करके देखो ।।

पता-संकटा देवी बैंड मार्केट लखीमपुर खीरी

मो 7985752201

Wednesday, June 09, 2021

ग़ज़ल-ओमप्रकाश गौतम

मिसाल क्या दूं मैं जो , बेमिसाल थे बिरसा।

कमाल क्या कहूं जो , बाकमाल थे बिरसा ।

करूं सौ बार नमन मैं, तेरी शहादत को ।

पिता थे सुगना मां करमी, के लाल थे बिरसा।।

मिले तालीम हर एकआदिवासी को कैसे।

हर एक फिक्र का रखतेमलाल थे बिरसा ।।

 खिलाफ जुर्म के थे,  जो लड़े हुकूमत से ।

बेबस गरीब लाचारों की,  ढाल थे बिरसा ।।

जमीन जल तथा जंगल, से है मेरा नाता ।

लगाये नजर जो ऐसों के , काल थे बिरसा ।।

दिये हैं जान वतन के,  जो वास्ते गौतम ।

शहीदों में भी वो तो , चन्द्रभाल थे बिरसा।।

 


ओमप्रकाश गौतम (निरीक्षक)

उत्तर प्रदेश पुलिस 9936358262

खौफ़जदा हूँ मैं-राजरानी

             साहित्य के नवांकुर            

राजरानी
साहित्य की दुनिया में यह आपकी पहली रचना है, उज्जवल भविष्य की मंगलकामनाएं -अस्मिता ब्लॉग/पेज

 ये जिंदगी ना रूठ यूँ, तूं धारा है, तो मैं किनारा

ऐसे छोड़ के ना जा तूं, नदी में नाव बिन पतवारा।

 

तेरा जो बचपन मेरा था, मेरा बचपन तेरा है,

राहें भले अनेक थी किन्तु मंजिल मेरी एक थी

बचपन की रीत याद कर साथ-साथ चल जरा

ये जिंदगी ना रूठ यूँ, तूं धारा है, तो मैं किनारा।

 

दुनिया के रीति-नीति में, हमें भी साथ चलना है

इन कंकड़ो के डरकर मुझे राह न बदलना है

पीछे है तेरे कोई उसे भी साथ लेके चल जरा

ये जिंदगी ना रूठ यूँ, तूं धारा है, तो मैं किनारा।

 

जो अपने थे वे पराये हैं, तूं परायों में अपना

तूं हकीकत है आज भी मेरी, मैं तेरी कल्पना

खौफ़जदा हूँ मैं, इन दरिंदों से मुझे बचा जरा

ये जिंदगी ना रूठ यूँ, तूं धारा है, तो मैं किनारा।

 

पता-ग्राम-हजरतपुर, लखीमपुर खीरी उ०प्र०

 

ग़ज़ल ( नन्दी लाल)

नन्दी लाल
तमाम उम्र तमाशा हुआ    इसी के लिए।

तुम्हारे होंठ पर बिखरी हुई हँसी के लिए।।

रहेगा याद बहुत साल बेरुखी के लिए,

मसाला खूब मिला यार शायरी के लिए।।

हसीन ख्वाब ,सँजोए हुए खुशी के लिए,

उधार माँग कर लाया हूँ  जिंदगी के लिए।।

दिलों में प्यार का दीपक सदा जलाए रहे,

यह जरूरी नहीं है आज आदमी के लिए।।

मिटा दे लाख अँधेरे सभी राहों के यहाँ,

चिराग एक ही काफी है रोशनी के लिए।।

करो न और भरोसा बड़ा चालाक है वह,

खड़ा है द्वार पे दरबान तस्करी के लिए।।

बताएँ किस से कहें क्या क्या कहें कैसे कहें,

गए हैं भाग जो परदेस    कलमुही के लिए।।

छिनी मजदूर के हाथों की रोटियाँअब तो ,

बहुत निराश हो बैठा है खुदकशी के लिए।।

पता-गोला, लखीमपुर-खीरी

कोई हो जो साथ दे- अल्का गुप्ता

  साहित्य के नवांकुर 

अल्का गुप्ता

हर किस्सा जिंदगानी का अजीब सा  है

क्यूं कहता है कोई? तूं खुशनसीब सा है

ग़म में मुस्काना भी एक तरकीब सा है

कोई हो जो साथ दे!

 

उल्फत में, हाथ-स्पर्श  वो करीब सा है

दर्द अश्कों का मेरे यार  तरतीब सा है

ग़म में मुस्काना भी एक तरकीब सा है

कोई हो जो साथ दे!

 

नावाकिफ, अपना बेशक वह गरीब सा है

तन्हा नहीं दौर-ए-आज वह अदीब सा है

तकलीफ में साथ दे, दिल-ए-करीब सा है

कोई हो जो साथ दे!

पता-लखीमपुर खीरी उ०प्र०

ग़ज़ल (नन्दी लाल)

नन्दी लाल
एक खाने के बनेंगे चार खाने शाम तक।

भूल जायेंगे किए वादे सयाने शाम तक।।

आके चोटी से पसीना एड़ियां छूता है जब,

तब कहीं पाता है पट्ठा चार आने शाम तक।।

भोर है सो कर उठे हैं जो कहे सच मान लो,

याद आयेंगे कहीं फिर से बहाने शाम तक।।

पेट है या फिर किसी वैश्या का पेटीकोट है,

खा गए लाखों नहीं फिरभी अघाने शाम तक।।

देख लें जिसको वही मर जाए अपने आप में

और कितने कत्ल कर देंगे न जाने शाम तक।।

लूट  की हैं इसलिए वह  धूप से बचती रहें,

तान देंगे कुर्सियों पर   शामियाने शाम तक।।

नासमझ कुछ यार अपना दिल बदलते ही रहे,

रूप बदले  रंग बदले  और बाने शाम तक ।।

 

         पता-गोला गोकर्णनाथ खीरी

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

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