साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, June 09, 2021

बिरसा मुंडा (1875- 1900)-आदिवासियत का नेतृत्व

 

  -09 जून, 1900 स्मृति दिवस विशेष  



आदिवासी या अनार्य शब्द प्रचलन में तब आया जब विदेशी आर्य भारत में आए तब यहाँ के मूलनिवासी द्रविड़ों की पहचान आदिवासी या अनार्य के रूप में बनती चली गयी। आदिवासी शदियों से जल जंगल जमीन का मालिक रहा है। उनके कीमती प्राकृतिक उत्पादनों की मलकियत को हड़पने के लिए हर युग में उन्हें विदेशी आक्रांताओं के षडयंत्रो का शिकार होना पड़ा है। धूर्त किस्म के लोगों ने सीधे साधे आदिवासियों को धार्मिक पाखण्डों में उलझाकर उनके जल जंगल जमीन को लूटने का षड्यंत्र रचा है क्योंकि प्रकृति का जो दोहन करना था, आदिवासी प्रकृति-पूजक होता है उसी का परिणाम है कि आज सम्पूर्ण विश्व ग्लोबलवार्मिक जैसी समस्या से जूझ रहा है, इतना होते हुए भी प्रकृति का दोहन लगातार जारी है। उदहारण स्वरूप झारखण्ड, छतीसगढ़, उड़ीसा मध्यप्रदेश आदि राज्यों में सरकारें अपने लाभ के लिए आदिवासियों का खून बहाने में भी संकोच नहीं करते

 

इसी कड़ी में जब अंग्रेजों का राज आया तो पादरियों ने आदिवासियों के हाथों में बाइबल थमाकर उनके जंगलों से खनिज पदार्थ और कीमती लकड़ियों को लूटा। आज वही कार्य लोकतंत्र में मनुवादी सरकारें कर रही हैं। आज आरएसएस आदिवासियों की मूल पहचान को मिटाने के लिए उन्हें वनवासी कहती है। उनकी मूल संस्कृति को मिटाकर उन्हें हिंदुत्व के दायरे में ला रही हैं। उनके जंगलों में जाकर हिन्दू देवी देवताओं के मंदिर बनवा रही है, हनुमान चालीसा बंटवाई जा रही है। उन्हीं के वोट से सरकार बनाकर उनके जल जंगल जमीन को छीनकर कॉरपरेट घरानों का कब्जा करवाया जा रहा है।

 

आदिवासियों की विरासत को बचाने के लिए बिरसा मुंडा का योगदान अतुलनीय है। आदिवासियों के सबसे बड़े आदर्श बिरसा मुंडा हैं उन्हें धरती आभा माना जाता है वे आदिवासियों के भगवान हैं। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहतु गाँव में हुआ था।

 


भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण के चक्र व्यूह से मुक्ति दिलाने के लिए तीन स्तरों पर उन्हें संगठित करना आवश्यक समझा।

 


पहला सामाजिक स्तर पर ताकि आदिवासी-समाज अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखंड के पिंजरे से बाहर आ सके।

दूसरा था आर्थिक स्तर पर सुधार ताकि आदिवासी समाज को जमींदारों और जागीरदारों के आर्थिक शोषण से मुक्त किया जा सके।

तीसरा राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित करना। चूंकि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी। बिरसा ने अबुआ दिशुम अबुआ राजयानि हमारा देश, हमारा राजका नारा दिया।

उलगुलान !  उलगुलान !!  उलगुलान !!! उलगुलान यानी आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी का संघर्ष।

 

आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए उन्होंने अंग्रेजो को लगान देने और उनका हुक्म मानने से इन्कार कर दिया। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आदिवासी फ़ौज के रूप में संघठित हो गए जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सीधा युद्ध छेड़ दिया।

 

अतः आदिवासियों को भड़काने के आरोप में बिरसा मुंडा को सन 1900 में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 2 साल की सजा हो गई। 9 जून 1900 अंग्रेजो द्वारा उन्हें जेल में एक धीमा जहर दिया गया। अंततः मात्र 25 वर्ष की उम्र में उनकी मौत हो गई। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा जाता है।

 

निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि बिरसा मुंडा सही मायने में पराक्रम की दृष्टि से तत्कालीन युग के एकलव्य और सामाजिक जागरण की दृष्टि से महात्मा ज्योतिबा फूले हैं।

-सोशल मीडिया से साभार तथा उचित जगह पर सम्पादन

ऐसे में बापू किसकी प्रतिमा के आगे बैठकर प्रायश्चित करते ?

 

अजय बोकिल
  एक विमर्श  

यह शायद इस सदी की सबसे ज्यादा चौंकाने वाली खबरों में से एक थी कि महात्मा गांधी की पड़पोती आशीष लता को दक्षिण अफ्रीका एक अदालत ने धोखाधड़ी के मामले में सात साल की सजा सुनाई। धोखाधड़ी की यह भारतीय रूपयों में करीब सवा तीन करोड़ की होती है। अगर रकम की ही बात हो तो जिस भारत में 14 हजार करोड़ की बैंक धोखाधड़ी करने वाले मेहुल चोकसी और नीरव मोदी तथा 9 हजार करोड़ की धोखाधड़ी कर विदेश भागने वाले विजय माल्या की तुलना में आशीष लता के घोटाले की रकम तो कुछ भी नहीं है। लेकिन दक्षिण अफ्रीका की न्याय व्यवस्था शायद ज्यादा चुस्त दुरूस्त है। एक भारतीय के नाते हमें यह खबर इसलिए क्षुब्ध करने वाली है कि आशीष लता उस बापू की पड़पोती है, जिसने जीवन भर सत्य के प्रयोग किए, जो सत्य की रक्षा के लिए लड़ा और सत्य के लिए जिया। समूचे गांधी परिवार ने इस खबर को‍ किस रूप में लिया, यह अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन इतना तय है कि गांधीउपनाम होना या उससे रक्त सम्बन्ध होना सच्चरित्रता की गारंटी नहीं है। 

 

इस देश में गांधीउपनाम से अमूमन दो परिवारों को ही लोग जानते हैं। पहले स्वयं राष्ट्रपिता यानी मोहनदास करमचंद गांधी और दूसरा है देश का शीर्ष राजनीतिक गांधी परिवार।पूर्व प्रधानमंत्री श्री मती इंदिरा गांधी के पति फीरोज जहांगीर का असल उपनाम घांडी था। वो पारसी थे। लेकिन कहते हैं कि  महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने अंग्रेजी में अपने नाम की स्पेलिंग घांडीसे बदलकर गांधीकर ली थी। जवाहरलाल नेहरू के बाद से ही यह गांधी परिवार कांग्रेस पार्टी की धुरी बना हुआ है। स्व. इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया और अब राहुल गांधी तक का सफर तो हमें अच्छे से पता है। उनके चारित्रिक बदलाव और प्रतिबद्धता का ग्राफ भी हमारे सामने है, लेकिन महात्मा गांधी के वंशज असलीगांधियों के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते। सिवाय इक्का-दुक्का नामो के, जैसे इला गांधी, गोपाल कृष्ण गांधी या तुषार गांधी आदि। गांधी परिवार के सभी लोग, जो अब दुनिया के कई देशों में फैले हैं, मोटे तौर पर अपने प्रेरणा पुरूष बापू के विचारों के इर्द गिर्द ही जिंदगी जीते रहे हैं। लेकिन यह कोई मठवादी परंपरा नहीं है। कुछ ‍परिजन समाज सेवा और मानव सेवा से जुड़े हैं तो कुछ किताबें लिख रहे हैं। यानी जो जहां भी हैं, ‘गांधीउपनाम की आभा उन्हें किसी न किसी रूप में प्रकाशित करती रहती है।

 

आशीष लता रामगोबिन भी उन्हीं महात्मा गांधी की पड़पोती हैं और दक्षिण अफ्रीका में रहती हैं। गांधीजी के चार बेटों में से मणिलाल 1917 में वापस दक्षिण अफ्रीका लौट गए थे और बाद में वहीं रहे। उन्हें गांधी के आज्ञाकारी बेटों में गिना जाता था। मणिलाल ‍दक्षिण अफ्रीका में बापू द्वारा स्थापित फिनिक्स आश्रम में रहते थे और इंडियन अोपिनियननामक द्विभाषी ( अंग्रेजी व गुजराती) पत्र का संपादन करते थे। उनका निधन भी बापू की हत्या के 9 साल बाद दक्षिण अफ्रीका में हुआ। उन्हीं मणिलाल की एक बेटी हैं, इला गांधी रामगोबिन। ख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता इला ने मेवा रामगोबिन से शादी की थी। इला की बेटी है 56 वर्षीय आशीष लता रामगोबिन।

 

यूं बापू के वशंज भी कभी-कभार विवादों में घिरते रहे हैं, लेकिन कोई धोखाधड़ी के आरोप में जेल जाएगा, यह सोचना भी वैसा ही है कि जैसे सेना में भर्ती होने गया कोई जवान अचानक किसी आंतकी संगठन में शामिल हो जाए। आशीष लता पर आरोप था कि उन्होंने एक  उद्योगपति एस.आर. महाराज के साथ कारोबार में धोखाधड़ी की। कोर्ट ने पाया कि एसआर महाराज ने लता को कथित रूप से भारत से एक ऐसी खेप के आयात और सीमा-शुल्क के क्लियरिंग के लिए 62 लाख रैंड ( अफ्रीकी मुद्रा)  दिए थे, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। इसमें उन्हें लाभ का एक हिस्सा देने का भी वादा किया गया था। यह मामला वर्ष 2015 का है। उस वक्त दक्षिण अफ़्रीका के राष्ट्रीय अभियोजन प्राधिकरण (एनपीए) के ब्रिगेडियर हंगवानी मूलौदजी ने कहा था कि आशीष लता ने संभावित निवेशकों को यकीन दिलाने के लिए कथित रूप से फर्जी चालान और दस्तावेज़ दिए थे कि भारत से लिनेन के तीन कंटेनर आ रहे हैं।‍ तब लता को 50 हजार रैंड ( दक्षिण अफ्रीकी मुद्रा) की जमानत पर रिहा किया गया था।

आशीष लता ने 'न्यू अफ़्रीका अलायंस फ़ुटवेयर डिस्ट्रीब्यूटर्स' के निदेशक एसआर महाराज से अगस्त 2015 में मुलाक़ात की थी। महाराज की कंपनी कपड़े, लिनेन, जूते-चप्पलों का आयात, निर्माण और बिक्री करती है। उनकी कंपनी प्रॉफिट मार्जिन के तहत दूसरी कंपनियों की आर्थिक मदद भी करती है।

 

लता ने महाराज को भरोसा दिलाया कि भारत से  मंगवाए लिनेन के 3 कंटेनरों को साउथ अफ्रीकन हॉस्पिटल ग्रुप नेट केयरको डिलीवर करना है। इसके लिए उन्हें पैसों की जरूरत है। लता ने महाराज को नेट केयर कंपनीसे जुड़े दस्तावेज भी दिखाए। इस पर महाराज ने लता के साथ डील कर पैसे दे दिए। जबकि हकीकत में लिनेन का कोई कंटेनर भारत से नहीं आया। इस फर्जीवाड़े का पता चलने के बाद महाराज की कंपनी के डायरेक्टर ने लता के खिलाफ कोर्ट में केस दायर कर दिया। जिस पर फैसला अब हुआ है। गौरतलब है कि आशीष लता 'इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर नॉन-वायलेंस' नामक एक गैर सरकारी संगठन के एक प्रोग्राम की संस्थापक और कार्यकारी निदेशक थीं, जिन्होंने ख़ुद को पर्यावरण, सामाजिक और राजनीतिक हितों का ध्यान रखने वाली कार्यकर्ता बताया था। लेकिन हकीकत में वो यह सब फर्जीवाड़ा  कर रही थीं। लता ऐसा क्यों कर रही थीं? क्या उन्हें अपने गांधी परिवार से रक्त सम्बन्धों का ध्यान नहीं था? यदि था तो धोखाधड़ी के इस कृत्य से बापू के नाम पर लगने वाले बट्टे का उन्होंने कभी विचार किया भी था या नहीं, कहना मुश्किल है।

 

दरअसल हर वंश या कुल में एक दो कीर्ति पुरूष/ महिला ही होते/होती हैं। बाकी पीढि़यां केवल उनके पुरूषार्थ की जुगाली और विरासत की रोटियां खाकर जिंदा रहती हैं और यदा-कदा इतराती रहती हैं। क्योंकि उच्च और असाधारण आदर्शों के लिए जीना, अपने उसूलों पर डटे रहना और समूची मानवता के लिए खुद को समर्पित कर देना एवरेस्ट की उस चढ़ाई जैसा है, जिसका रास्ता भी खुद ही बनाना होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो महामानवों के वंशज सामान्य मनुष्य ही होते हैं, आम गुण-दोषों से युक्त और जीवन को इच्छाअों और मोह के वशीभूत जीते हुए। बापू को हम महामानव की तरह पूजतें हैं, लेकिन ईश्वर का अंशावतार माने जाने वाले राम और कृष्ण के वंशजों की भी इतिहास रचने या उसे आगे बढ़ाने में कोई विशेष भूमिका रही हो,  हमें याद नहीं है। इस दृष्टि से आशीष लता का चरित्र एक आम इंसान और कुटिलताअों को जिंदगी की अनिवार्य शर्त मानने वाली महिला का चरि‍त्र है। ऐसे लोगों के लिए अपने कुल के आदर्श पुरूष का महान चरित्र भी किसी सजे मंच के बैक ड्राॅप से ज्यादा अहमियत नहीं रखता।

 

यहां एक सवाल जरूर मन को मथता है ‍कि आज अगर बापू जिंदा होते ( हालांकि उनके एक बेटे ने बापू के जीते जी उनसे बगावत कर दी थी) तो इस घटनाक्रम पर क्या सोचते? अपने मूल्यों और नैतिक आदर्शो की वास्तविकता को किस चश्मे से देखते? अपने अहिंसा के अडिग आग्रह ( बापू की निगाह में भ्रष्टाचार भी हिंसा ही होती) को किस तराजू पर तौलते? छल बल से परे आत्म बल से साधारण इंसान को भगवान बनाने के अपने आध्यात्मिक प्रयोग का औचित्य किस रूप में आकते? इस बारे में सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। हम लोग तो अमूमन अतंर्द्वद्व और आत्मग्लानि के मौकों पर बापू की प्रतिमा के आगे मौन धरकर आत्म‍‍शुद्धि के लिए बैठ जाते हैं। लेकिन बापू अपनी पड़पोती की यह खबर पढ़कर किसकी प्रतिमा के आगे और कैसे प्रायश्चित करते ? क्योंकि आशीष लता का कृत्य तो सत्यनिष्ठा में ही सुरंग लगाने जैसा है। क्या यह दीया तले अंधेरे जैसी स्थिति नहीं  है? आप क्या सोचते हैं? 

 

(वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मप्र-9893699939)

बिरसा मुंडा-श्यामकिशोर बेचैन

 बिरसा मुंडा का उलगुलान विद्रोह


जन्म-15 नवम्बर 1875,  मृत्यु-9 जून 1900 पर विशेष, भावपूर्ण आदरांजलि,नमन .

बिरसा मुंडा के  साथी  सहयोगी  भोले-भाले थे।

यही लाडले  अंग्रेजों से  टक्कर  लेने  वाले थे।।

 

आदिवासियों ने मुंडा को जाना  था पहचाना था।

परमहितैषी अपना केवल बिरसा कोही माना था।।

 

क्योंकि सबके लिए प्राण संकट मे अपने डाले थे।

यही लाडले अंग्रेजों से टक्कर   लेने   वाले थे।।

 

जाने कितने साथी रण में लड़ते-लड़ते मरे कटे।

आधुनिक हथियार नहीं थे लेकिन पीछे नहीं हटे।।

 

जाने किस ढाँचे  मे उसने सैनिक अपने ढाले थे।

यही लाडले अंग्रेजों से टक्कर  लेने   वाले  थे।।

 

अंग्रेजों से लड़ते  लड़ते बिरसा  मुंडा  जेल  गए।

अंग्रेजो ने जहर दिया बेचैन जान पर खेल गए ।।

 

वीर बहादुर बिरसा मुंडा सचमुच  के  रखवाले थे।

यही  लाडले  अंग्रेजों  से टक्कर  लेने  वाले थे।।

 

श्यामकिशोर बेचैन

पता-संकटा देवी बैंड मार्केट लखीमपुर खीरी

Tuesday, June 08, 2021

सुरेश सौरभ की "वर्चुअल रैली"-अखिलेश कुमार अरुण

वर्चुअल रैली (पुस्तक समीक्षा)

समीक्षक-अखिलेश कुमार अरुण

पुस्तक का नाम-वर्चुअल रैली

लेखक-सुरेश सौरभ

लेखक का पता-निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी

प्रकाशक-इंडिया बुक प्राईवेट लिमिटेड नोएडा दिल्ली

आईएसबीएनः 978-93-86330-77-2

प्रथम संस्करण-2021

मूल्य- 160.00 रुपये

पृष्ठ-104

वर्चुअल रैलीसुरेश सौरभ के द्वारा लिखित लघुकथाओं का एक चर्चित संग्रह है। आप ने लेखन में लगभग 15-20 वर्षों का समय गुजारा है। आप के साहित्यिक अनुभवों और प्रयोगों का सार है यह पुस्तक, आप से हमारा परिचय सर्वप्रथम आप के साहित्य के माध्यम से ही हुआ। इस कोरोना काल में आप की पुस्तक वर्चुअल रैलीहमें प्राप्त हुई। यह पुस्तक पढ़ते समय,हमारी सरसरी निगाह से पढ़ने की आदत में यकायक स्थिरता आती गई। फिर एक-एक रचनाओं को तसल्ली से पढ़ता ही चला गया। ऐसा लगा इसमें संकलित रचनाएँ उन सबकी  हैं ,जो हमारे आस-पास मध्यम और गरीब मजदूर तबका है, जो अपने उदरपूर्ति और परिवार की आवश्यकतों को पूरा करने के लिए दूर देश-प्रदेश जा बसता है। उसके जीवन में कौन-कौन सी समस्याएँ-दुष्वारियाँ आतीं हैं और उसका सामना वह कैसे? किन परिस्थितियों में करता है? यह सच्ची यथार्थ की तस्वीर सौरभ जी की लघुकथाओं मिलेगी। बिना किसी ठोस तैयारी के शासन का फ़रमान, संपूर्ण लॉकडाउन, उधर नेता वर्चुअल रैली में लगे हुए हैं, देश के आम जनमानस की तताम दुष्वारियों की खबर से बेखर अपने में मस्त।

 वर्चुअल रैलीलघुकथा संग्रह को, कोरोना से लड़ने वाले योद्धाओं को समर्पित करते हुए लेखक महोदय ने यह जता दिया है कि यह पुस्तक देश-प्रदेश के जनमानस की आवाज को उनके प्रतिनिधित्व के रूप में बुलंद कर रही हैं। मानवीयता और मानवीय संवेदनाओं को परत दर परत कुरेदती हुई यह रचनाएँ जन-सामान्य की एक मुखर ललकार सरीखी हैं।

इस लघुकथा संग्रह में कुल 71 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं परदेशी बहन की राखीसे लेकर कन्टेनमेंट जोन में प्रेम तक  सभी लघुकथाएँ पठनीय और संग्रहणीय बन पड़ी हैं। इस पुस्तक के पाठक होने के नाते मैंने इसके पाठकीय सफ़र में वर्चुअल रैली, प्यास, मजदूर, हाय! कोरोना, बहुरुपिया, दौलत, भूख और योग, दो शराबी, बिकाऊ मॉल, एक आत्मा की चिट्ठी, पुनर्जन्म, पंडित जी का प्रायश्चित, आदि लघुकथाएँ कायदे से पढ़ी हैं, ऐसा लगता है, यह मेरे देश की जनता की आत्मा से निकली हुई सच्ची आवाज है, और उस आवाज में, कोरोना काल में, लॉकडाउन से उपजी हुई पीड़ा और कुंठा को सहज ढंग से प्रस्तुत करने का कार्य लेखक ने अपनी लेखनी की ईमानदार स्याही से कागजों पर उकेरा है। जहाँ मानवता ख़त्म होती है, वहीं उसे रेखांकित करने का सफल और सार्थक प्रयास  लेखक ने किया गया है।

इन लघुकथाओं को पढ़ते हुए इसके कथानकों ने हमारे मन को बहुत अन्दर तक झकझोर दिया, कहीं-कहीं मन अधीर हो उठता है तो कहीं मन खिन्न हो जाता है। अपने देश के जिम्मेदारों के प्रति, एक आत्मा की चिट्ठीशीर्षक से संकलित लघुकथा में एक पात्र के माध्यम से लेखक लिखतें हुए कहते हैं कि सैकड़ों किलोमीटर के सफ़र ने मुझे भूख, प्यास, थकन और टूटन ने तोड़कर रख दिया है......और मैं टूटकर सड़क पर बिखर गई.......फिर रुदन और सिर्फ रुदन।... रोटी, दौलत, आशियाना, तार, माँ की पेंशन, हाय! कोरोना आदि लघुकथाएँ दिल-दिमाग और मन को विचलित कर जाती हैं। इस संग्रह की लघुकथाएँ साहित्य जगत की अमूल्य  धरोहर साबित होंगी, ऐसा मुझे विश्वास है।

(6 जून 2021 को प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे, मध्य प्रदेश)

अखिलेश कुमार अरुण


ग्राम-हजरतपुर, जिला-लखीमपुर(खीरी)

उ०प्र० 262701

विश्व महासागर दिवस-श्याम किशोर बेचैन

 8 जून 

है अद्भुत अनमोल स्वच्छता

आसपास    करके   देखो

गागर  में  सागर  भरने का

इक प्रयास   करके   देखो ।।

 

सागर अपनी विशालता का

जिक्र भी कभी नहीं करता

जलस्तर   घटने  बढ़ने  का

फिक्र भी कभी नहीं करता ।।

 

हे मानव तुम भी कुछ ऐसा

काम  खास  करके  देखो

गागर  में सागर  भरने का

इक  प्रयास  करके  देखो ।।

 

शीतलता  चंद्रमा  से ले लो

और ऊर्जा लो प्रभाकर से

ऊंचाई  अंबर   से  ले  लो

और   गहराई   सागर   से ।।

 

रत्नाकर होकर भी खुद में

ही  निवास  करके  देखो

गागर में  सागर भरने का

इक  प्रयास  करके देखो ।।

 

सागर हो या महासागर हो

कोई  गुमान  नहीं  करता

हे  मानव   तुमसे   ज्यादा

कोई अभिमान नही करता ।।

 

ऐसा  ही  बेचैन  चैन , तुम

भी  तलाश  करके  देखो

गागर में  सागर  भरने का

इक  प्रयास  करके  देखो ।।

 


पता-लखीमपुर खीरी

मो 7985752201

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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