साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, May 21, 2021

चाय से शियासत तक

चाय से शियासत तक 


लेखक-अखिलेश कुमार 'अरुण'

आज अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस है जिसे 2005 से मनाया जा रहा है, इस दिन चाय दुनियाभर में सुर्खियों में रहती है। लेकिन आपको शायद ही पता हो की करीब दो साल पहले तक दुनियाभर में 15 दिसबंर को अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस मनाया जाता था और अब 21 मई को मनाया जाने लगा है। हैरान हो गए ना कि आखिर माजरा क्या है? तो बता दें कि इसके पीछे भारत की अहम भूमिका है। क्योंकि भारत ने ही चाय को उसका हक दिलाया है। दरअसल, दुनियाभर में चाय उत्पादक देश 2005 से 15 दिसंबर को हर साल अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस मनाते रहे हैं। क्योंकि तब तक इसे संयुक्त राष्ट्र की ओर से मान्यता नहीं दी गई थी। इसे लेकर भारत सरकार ने बड़ी पहल की और  2015 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के माध्यम से आधिकारिक तौर पर अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा। जिसे स्वीकार कर लिया गया तबसे यह 21 मई को मनाया जाने लगा गया। 
International Tea Day 2020 Date, History, Significance, And All You Need To  Know - International Tea Day 2020: जानिए, कैसे हुई अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस  की शुरुआत ?
विश्व के सभी पेय पदार्थों में से एक सबका पसंदीदा, हमारा तो पुछिए मत..... ऐसा समझ लिजिए चाय का और हमारा चोली दामन का साथ है....बस चाय है तो सब कुछ है....इस कोरोनाकाल में चाय की इमेज कुछ सुधर गई डाक्टरों ने कहा दिन में तीन-चार बार चाय पीजिये गले की खरास दूर होगी और मानसिक तनाव कम होगा। चाय की सारी भ्रांतियाँ धरी की धरी रह गई कोको कोला, पेप्सी, मिरांडा अब अब अपने दिन बहुरने के बाट जोह रहे हैं.....कभी चाय की  चुस्की कम बुराई ज्यादा गिनाई जा रही थी....चाय की इतनी छिछालेदर किसी भी देश के प्रधानमंत्रीत्व काल में  नहीं हुई जितनी की मोदी जी के २०१४ से चाय बेचने को लेकर की गई, बड़प्पन भी खूब हाथ लगा चाय बेचने वाले  अपने को प्रधानमंत्री का सहोदर मानने लगे थे।

GK Library - अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस * पूरी दुनिया में साल... | Facebook

चाय का अपना स्टेंडर्ड है अमीरों की चाय से लेकर गरीबों की चाय तक अपने कई रूपों में पी और पीलाई जाती है... काली चाय, भूरी चाय( दूध कम और परिवार लम्बा) पानी कम दूध की चाय, खालिस दूध की चाय, मसाला चाय, नींबू चाय, हरी चाय.....मने पुछिए मत भिन्न भिन्न वेराइटी में उपलब्ध है। इन सभी चायों में से हमें खलिश दूध की चाय बहुत अच्छी लगती है। बड़े होटलों का चाय पिने के लिए मौका तलाश रहा हूँ जिसमें चीनी,चाय,दूध और गरम पानी सब अलग-अलग होता है....कोई साथ देने वाली मिल जाए तब....आनंद लिया जायेगा।

किसी भी लोकतांत्रिक देश में सत्ता परिवर्तन में चाय की अहम भूमिका है.....चाय पर चर्चा तो सुने ही होंगे....नाम पर मत जाइए/चर्चा चाय पर नहीं होगी गली-नुक्कड़ की दुकानों से लेकर रेस्टोरेंट और सियासत की शतरंज तक चाय की आड़ में चर्चा देश के पंचवर्षीय भविष्य पर होता जहां से आप 70 साल बनाम 7 साल की बाउंड्री रेखा के इधर और उधर का सहज मूल्यांकन कर सकते हैं। इन 70 साल बनाम 7 साल में क्या खोया क्या पाया पर गंभीरता से बिचार किया जाय तो ऐसा समझ लीजिये सब कुछ चाय में चला गया.....अब देश के लिए बचा है तो बस  बाबा जी का ठुल्लू....सोचिये एक  गंभीरता से आपकी अंतरात्मा भी बोल उठेगी।
चाय का अहम रोल है व्यक्ति के जीवन में चाय की चुस्की से आप अपने पारिवारिक जीवन की शुरुआत करते हैं फिर तो पीना ही है....... चुस्की जम गई जीवन आनन्ददायक है नहीं तो.....? इसलिए चाय है तो आशिकों के लिए जान है/हम सबके लिए जहान है।

अखिलेश कुमार अरुण
21/05/2021

एक कविता ने दिलाई श्याम किशोर को वैश्विक पहचान (व्यक्तित्व)

एक कविता ने दिलाई श्याम किशोर को वैश्विक पहचान   (व्यक्तित्व)

 

कवि
कवि

साधारण सा व्यक्तित्व, साधारण से शहर के निवासी, साधारण सी शिक्षा, पर कृतित्व असाधरण। जी हां मैं बात कर रहा हूं, एक कविता के माध्यम अपनी वैश्विक पहचान बनाने वाले लखीमपुर उत्तर प्रदेश के कवि श्याम किशोर बेचैन की। आप ने वाट्सएप फेसबुक पर एक कविता कहीं न कहीं जरूर टहलती हुई देखी, पढ़ी होगी। यथा झाड़ू छोड़ो कलम उठाओ परिवर्तन आ जाएगा/शिक्षा को हथियार बनाओ परिवर्तन
आ जाएगा। 

इस कविता का वाचन बैचेन कई मंचों से कर चुके हैं और कई पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों में भी यह प्रमुखता से प्रकाशित हो चुकी है। इस कविता की लोकप्रियता इस हद तक हैं कि इसे कई सामाजिक संगठनों में सस्वर गायन किया जा रहा है। ’बेचैन’ अपनी कविता के कथानक और बिंब अपने आसपास के लोगों के बीच से उठातें हैं। गरीबों, किसानों महिलाओं व दलितों की जमीनी शोषण और सच्चाइयों के रेशे-रेशे में, अपनी कविताओं की गहन संवेदनाएं पिरोतें हैं। कविता की तरफ आप का झुकाव कब से हुआ? इस सवाल के जवाब में वे कहतें हैं,‘घर में बचपन से ही संगीत, साहित्य का माहौल था। पिता स्वर्गीय शंकर लाल 'रागी जी’ ने भारत खण्डे संगीत विद्यालय इलाहाबाद से संगीत शिक्षा प्राप्त की थी। रामायण महाभारत,वेद आदि धार्मिक ग्रन्थों का वह अध्ययन किया करते थे। संगीत की महफिलों में उनकी बड़ी कद्र थी। उनकी प्रेरणा से संगीत, साहित्य की बारीकियों को जानने समझने का प्रयास बचपन से करने लगा। सन 1985 से कीर्तनकारों के सम्पर्क में आया। रात्रि जागरण में एक कीर्तनकार के रूप में, पब्लिक के बीच में मेरी इन्ट्री हुई। आप क्या-क्या लिखतें है? इसके जवाब में 'बेचैन’ कहतें हैं, शुरूआत में भजन लिखता और गाता था, पर दलित चिंतक, वरिष्ठ साहित्यकार ओम प्रकाश वाल्मीकि जी का साहित्य पढ़ कर और लखीमपुर के कवि स्वः राजकिशोर पाण्डेय 'प्रहरी', फारूक सरल जी, अवधेश शुक्ल 'अवधेश' जी, सुरेश सौरभ आदि साहित्यकारों के सम्पर्क में आने के बाद गीत, गजल मुक्तक, छंद भी लिखने लगा। फिर मित्रों के सहयोग से मंचों से वाचन करने लगा।
   
 'बैचैन’ का एक कविता संग्रह ’वन्य जीव और वन उपवन’ नमन प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित हो चुका है और कई अन्य पुस्तकें अभी प्रकाशन की बाट जोह रहीं हैं। जब उनसे मैंने उनकी शिक्षा के बारे में पूछा, तो वह गुनगुनाते हैं.. मैं  अनपढ़  हूँ  पढ़ाई  में/ मुझे  बच्चा  समझ  लेना/अगर हो जाए कुछ अच्छा/तो अच्छा  समझ  लेना/मैं सच का साथ देने के लिए ’बेचैन’ रहता हूँ/नजर आ जाए सच्चाई तो /फिर सच्चा समझ लेना। प्रसिद्ध साहित्यकार, संजीव जायसवाल ’संजय’, डॉ0 निरूपमा अशोक,चंदन लाल वाल्मीकि, डाॅ0 सुरचना त्रिवेदी, आदि प्रबु़द्ध जनों एवं पाठकों को अपना प्ररेणा स्रोत 'बेचैन’ बतातें हैं, जो निरन्तर कविता लेखन के लिए इन्हें प्रोत्साहित करते रहतें हैं। कौन साहित्यकार सबसे अधिक पंसद है? इस बारे में वह कहतें हैं कि नाम बहुत है, पर कुछ ही गिना पाऊँगा, जिनमें महादेवी वर्मा, पंत, निराला,नीरज,निदा फाजली,मुनव्वर राना, राहत इंदौरी, नन्दी लाल ’निराश’।  
      पूरे देश में कई मिशनियों का हिस्सा बनी, देश-विदेश में सोशल मीडिया पर वायरल अपनी चर्चित कविता ’परिवर्तन’ हमारे आग्रह पर 'बेचैन’ सुनाते हैं।
  परिवर्तन
झाडू छोडों कमल उठाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।
शिक्षा को हथियार बना
परिवर्तन आ जाएगा ।।
दारू छोडों ज्ञान बढ़ाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।
हर कीमत पर पढ़ो पढ़ाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।।
मनुवादी साधु-संन्यासी
ढोंगी पाखंडी पंडे ।
जन्म-जन्म के दुश्मन हैं ये
मत थामो इनके झंडे ।।
समझ नहीं पाए जो अब तक
अब समझो इन के फंडे ।
इनको हमसे काम चाहिए
संडे हो या हो मंडे ।।
इनके झांसे में ना आओ
परिवर्तन आ जाएगा ।
शिक्षा को हथियार बनाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।।
अपनी कथनी और करनी में
खुद सुधार करना होगा ।
ठग विद्या करने वालों का
तिरस्कार करना होगा ।।
आज तथागत की बातों पर
फिर विचार करना होगा ।
घर-घर जाकर बाबा साहब
का प्रचार करना होगा ।।
तुम इतना ही करके दिखाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।
शिक्षा को हथियार बनाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।।
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
कोई प्यार नहीं करता ।
दलित अछूतों के बच्चों को
कोई दुलार नहीं करता ।।
दलितों का उज्ज्वल भविष्य
कोई स्वीकार नहीं करता ।
दलित महापुरुषों का भी
कोई सत्कार नहीं करता ।।
इनके आगे सर झुकाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।
शिक्षा को हथियार  बनाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।।
कहने को तैंतीस करोड़ है
लेकिन कोई नहीं अपना ।
कोई नहीं चाहता है कि
दलितों का सच हो सपना ।।
सपना अपना सच करने को
खुद आगे आना होगा ।
यही हकीकत है, हकीकत
सबको समझाना होगा ।।
बात यही सबको समझाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।
शिक्षा को हथियार बनाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।।
मानवता के धर्म को मानो
कर्म को ही मानो पूजा ।
मात् पिता से बढ़के जग में
देव नहीं कोई दूजा ।।
भला चाहते हो तो ऊंची
कर लो अपनी सीढ़ी को ।
संसद तक पहुंचा दो अपनी
आने वाली पीढ़ी को ।।
खुद अपनी तुम राह बनाओ
परिवर्तन आ जाएगा
शिक्षा को हथियार बनाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।।
आज भी गांवों में देखो
जिंदा हमैं बस मजबूरी में ।
नहीं गुजारा हो पाता है
गांवों की मजदूरी में ।।
हो अपना "बेचैन" कोई तो
थोड़ा फर्ज निभा देना ।
हो जाना गम में शरीक कुछ
कौम का कर्ज चुका देना ।।
तुम अपना कर्त्तव्य निभाओ
परिवर्तन आ जाएगा ।
शिक्षा को हथियार बनाओ
    परिवर्तन आ जाएगा ।।
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लेखक
-सुरेश सौरभ

-सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी यूपी
पिन-262701
मोः-7376236066
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

अमानवीयता (लघुकथा)

अमानवीयता   (लघुकथा)

34 Haryana police officers transferred in major reshuffle- The New Indian  Express
पति खामोश मुँह लटकाए बैठा था। पत्नी बोली,“क्या हुआ? आज जाना नहीं है क्या?
पति एकदम से फट पड़ा-नहीं! अब घर में ही पड़े-पड़े खाना है और मर जाना है। दुनिया के लिए छुट्टी है, पर हम पुलिस वालों के लिए नहीं, हमें तो बस मरना है ड्यूटी पर।
“बात क्या है,पूरी बात, बताओ तो सही?“
“क्या बताएँ?आंय!क्या बताएँ?अस्पताल नहीं? डाक्टर नहीं?दवाएँ नहीं? ऑक्सीजन नहीं? बस सेन्ट्रल विस्टा खा लो, स्टेडियम खा लो, और मंदिर खा लो, बच जाएँगे सब कोरोना से।लाइलाज लोग मर रहें हैं, उनके पास लाश फूँकने तक का पैसा नहीं?गंगा में शव बहाए जा रहे हैं। कुत्ते नोंच रहें हैं। अब तुम्हीं बताओ,जब उस लाश को कुत्ते नोंच रहे थे,दुनिया तमाशा देख रही थी,तब हम लोगों ने किसी तरह टायर-फायर से उसे जला दिया, तो हमारे ही ऊपर हाकिम हावी है। कह रहा है, तुम ने अमानवीता की, इसलिए निलंबित।“
“हाकिम को देखना चाहिए क्या सही है, क्या गलत?
“सब अंधे-बहरे हो गए हैं। हाकिम को मोर नचाने से फुरसत कहाँ? जो हमारी और जनता की तकलीफों को समझे?
“अब क्या करोगे?“
“घर में बैठ कर भगवान का स्मरण करते हुए,अपनी अमानवीयता का पश्चाताप करेंगे।“
अब दोनों से खामोशी से मुँह लटकाए बैठे थे, उनके चेहरों से अपराध भाव टप-टप टपक रहा था। ऐसा लग रहा था, कोरोना से बेमौत मरने वालों के असल दोषी-दुश्मन वहीं हो।


 लेखक- सुरेश सौरभ


निर्मल नगर लखीमपुर खीरी
पिन-262701
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

Tuesday, May 04, 2021

इस बार ‘आम’ भी कुछ सहमा-सहमा सा है-अजय बोकिल

  क्लासिकल लेख  

गलवान घाटी मामले में चीन की शाब्दिक ठुकाईकरने वालों को इस बात का अंदाज नहीं है कि चीन हमे अब आम उत्पादन और निर्यात के क्षेत्र में भी कड़ी चुनौती दे रहा है। अभी हम आम की पैदावार और निर्यात के मामले में दुनिया में नंबर वन हैं। लेकिन चीन भी दूसरे नंबर पर आ चुका है। हालांकि इस साल कोरोना वायरस ने हमारे आम को रसहीनबना दिया। लाॅक डाउन के चलते ज्यादातर आम पेड़ों पर ही सड़ गए। मई के दूसरे पखवाड़े में कुछ आम बाजारों में दिखना शुरू हुआ तो जून की बारिश ने उसे भी बेस्वाद-सा कर दिया। हमारे आमों की खासियत और रंगत बनी रहे, इसके लिए अब यूपी के आमों की कुछ और लोकप्रिय किस्मों के लिए जीआई टैग हासिल करने के प्रयास शुरू हो गए हैं। लेकिन भारतीय आमों का परचम दुनिया में फहराते रखने के लिए और गंभीर प्रयासों की जरूरत है।

सच कहें तो कोरोना की दहशत में लिपटी गर्मियां इस बार बिना आम के ही निकल गईं। होली के बाद से ही बादाम या और आम की अन्य दूसरी ‍िकस्मे बाजार में दस्तक देने लगती थीं, वह इस बार नदारद दिखीं। इसका एक कारण सर्दियों में मौसम की मार भी रही। जब बौर फल में बदलने लगा तो कोरोना उन्हें लील गया। लाॅक डाउन में सारे साधन बंद हो गए। आखिर आमको दाद देने अवामतो चाहिए। बाजार न होने से बहुत से आम उत्पादकों ने आम तोड़े ही नहीं। कई डाल पर ही सड़ गए तो जो बाजार में आए, तब तक काफी देर हो चुकी थी। यानी कोयल की कूक और आम की महक की जो जुगलबंदी रहती आई है, वह इस साल कोरोना के कहर में गुम हो गई। लिहाजा पूरा सीजन ही आम रस के बिना निकल गया। हालांकि अभी आम बाजार में ‍िमल रहा है, लेकिन वैसी बात नहीं है। वो रसीला आम विरल है, जो कलेजे को ठंडा करता आया है।

यूं इस साल आम के साथ अंगूर भी गर्मियों में बहुत कम दिखा, लेकिन आम की कमजोर मौजूदगी ने सबको बेचैन किया। इसलिए भी क्योंकि आम हमारे लिए केवल एक फल भर नहीं है। वह मांगल्य का प्रतीक भी है। न सिर्फ फल बल्कि आम की पत्तियां वंदनवार के लिए जरूरी हैं। आम की लकड़ी हवन में समिधा के रूप में काम आती है। कच्चा आम भी कई रूपों में खाया जाता है तो आम की छांव लू को शीतल करने का काम करती है। आम ‍इस देश में सदियों से होता रहा है। क्योंकि भारत ही आम का घर है। होली की मस्ती खत्म होते ही महकते आमों की

आमद शुरू हो जाती है। बाजार में बादाम, दशहरी, लंगड़ा, चैसा, हापुस आदि आम लोगों को ललचाने लगते हैं। वैसे आमों के नामकरण की भी दिलचस्प कहानी है। बनारस का लंगड़ाआम लंगड़ा क्यों कहलाता है, इस बारे में बहुतों को पता नहीं है। क्योंकि कोई फल लंगड़ाकैसे हो सकता है? इसके पीछे दास्तान ये है कि करीब ढाई सौ साल पहले बनारस के एक शिव मंदिर में एक साधु आम के दो पौधे लेकर आया। मंदिर से लगी जमीन में उसने ये आम पौधे लगा दिए और पुजारी से कहा कि इसका रहस्य किसी को न बताए। कुछ साल बाद उनमें आम लगने लगे। बात राजा तक पहुंची और जल्द ही इस पौधे की कलमे कई जगह लगीं। लोगों को यह आम खूब पसंद आया। जो साधु ये पौधे लेकर आया था, वो लंगड़ा था। इसलिए आम भी लंगड़ाकहलाने लगा। इसी तरह दशहरी आम वास्तव में लखनऊ के पास स्थि‍त दशहरी गांव की उपज है। कहते हैं कि चैसा का नामकरण शेरशाह सूरी ने मुगल बादशाह हुमायूं को हराने की खुशी में किया था। रत्नागिरी का अल्फांजो पुर्तगाली अपने साथ लेकर आए थे। आजकल हाइब्रिड वेरा‍यटियो के नाम भी सुंदर-सुंदर नाम रखे जाते हैं। जैसे कि आम्रपाली, गुलाब खस वगैरह।

पूरी दुनिया के आम उत्पादन का 40 फीसदी केवल भारत में होता है। हम सबसे बड़े आम निर्यातक भी हैं। एपीडा के अनुसार भारत ने साल 2018-19 में 406.45 करोड़ रुपए का 46510.23 मीट्रिक टन आम निर्यात किया था। जबकि पिछले साल देश में 2 करोड़ 10 लाख टन आम पैदा हुआ था, लेकिन इस साल 10 लाख टन कम पैदावार हुई बताई जाती है। देश में आम की डेढ़ हजार से ज्यादा किस्में पैदा होती हैं। स्वाद के मामले में भारतीय आमों की बात ही अलग है। वैसे आम और मानसून का भी अजीब रिश्ता है।

हापुस और बादाम जैसे आम लू में भी गर्मी से लोहा लेते हैं, लेकिन प्री मानसून की फुहारें पड़ते ही वो गर्मी से मुकाबला करने वाली अग्रिम चैकियों से पीछे हट जाते हैं। उनकी जगह दशहरी, लंगड़ा, चैसा, तोतापरी आदि आम लेते हैं। इसके अलावा रसीला सफेदा भी मोर्चा संभाल लेता है। आजकल देसी चूसने वाले आम कम मिलते हैं। वरना कुछ बरस पहले तक रस का आम ही आम रस का स्रोत हुआ करता था। क्योंकि आम का शेक भी बनता है, यह लोगों को पता न था। इस बार लाॅक डाउन के चलते बड़ी तादाद में आम न तो बाजारों में और न ही घरों तक पहुंच पाया। ऐसे में आम की तमाम किस्मों को जीआई टैग दिलवाने के प्रयास तेज हो गए हैं। लखनऊ के सेंट्रल इंस्टीट्यूट फार सबट्रापिकल हार्टिकल्चर ( सीआईएसएच) ने अब बनारसी लंगड़ा, चैसा और रटौल आमों की खास किस्मों के जीआई ( ज्यो‍ग्राफिकल इंडिकेशन) टैग हासिल करने की कोशिशें तेज कर दी है। जीआई टैग उन उत्पादों को दिया जाता है जो किसी क्षेत्र विशेष में पैदा होते हैं और उनकी स्थानीय पहचान इससे संरक्षित होती है। इसके पूर्व जीआई टैग पाने वालों में लखनऊ का दशहरी आम रत्नागिरी का अल्फांजो ( हापुस), गुजरात के गीर और महाराष्ट्र के मराठवाडा में होने वाला केसर, आंध्र प्रदेश का बंगनापल्ली, भागलपुर का जर्दालू, कर्नाटक का अप्पामिडी और बंगाल के मालदा के हिमसागर शामिल है। जी आई टैग मिलने से इन आमों को बेहतर दाम मिलते हैं, साथ ही इस क्षेत्र के उत्पादकों का इस पर एकाधिकार रहता है।

अब बात चीन की। तकरीबन हर तरह के प्राणियों का भक्षण करने वाले चीनियों को आम का स्वाद पहले पता न था। कहते हैं कि 1968 में पहली बा र पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री सैयद शरीफुददीन पीरजादा चीन यात्रा पर जाते समय खास आम की 40 पेटियां बतौर तोहफा साथ ले गए थे। चीनी नेता माओ त्से दंग को ये आम बेहद भाए। उन्होंने इन्हें मजदूर नेताओं को भिजवा दिया। इसके बाद चीन में भी आम पैदा होने लगा। अब वही चीन हमे आम उत्पादन और निर्यात के मामले में खुली चुनौती दे रहा है। हालांकि भारतीय आम गुणवत्ता और साख के मामले में बहुत आगे हैं। लेकिन निर्यात के जो इन्फ्रास्ट्रक्चर और लॉजिस्टिक्स चीन के पास हैं वैसे भारत के पास वे नहीं हैं। यहां तक कि फिलीपींस भी इस क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ रहा है। ये देश आमों की नई प्रजातियां विकसित कर रहे हैं। वहां आम पर काफी शोध और अनुसंधान हो रहा है। इसके विपरीत हमारे देश में आम पर शोध और अनुसंधान करने वाला एकमात्र संस्थान है लखनऊ का सेंट्रल इंस्टीट्यूट फाॅर सबट्रापिकल हार्टिकल्चर। वह भी केवल आम के लिए नहीं है। इस क्षेत्र में कुछ काम निजी क्षेत्र में जरूर हो रहा है।

कहते हैं कि आम ऐसा फल है, जो आम के साथ अपनी गुठलियों के दाम भी दिलवा जाता है। लेकिन उसके लिए आमों का ठीक से संवर्द्धन, देखभाल और व्यापक अनुसंधान की जरूरत होती है। भारतीय आम सचमुच फलों का राजाबना रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम आम को भी खासकी तरह लें। क्योंकि आम स्वदेशीका भी हरकारा है। उसका स्वाद, रंग, रस, मंगल भाव और आर्थिक मू्ल्य यूं ही कायम रहे,इसके लिए जरूरी है कि सरकार इसे पूरी गंभीरता से ले। कम से कम ये बाजार तो चीन हमसे छीन न सके।

(वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मप्र-9893699939)

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चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

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