साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, April 14, 2023

बाबा साहब के सपनों का भारत और हम, हमारा उत्तरदायित्व-अखिलेश कुमार ’अरूण’

 

   जयन्ती विशेष   

आज हम बाबा साहब की 132 वीं जयंती मनाने जा रहे हैं। उनकी पहली जयंती और आज की जयंती में काफी अंतर देखने को मिलता है। आज से कुछ वर्ष पहले बाबा साहब की जयंती को मनाने वाला उनका अपना समाज था किन्तु आज सर्वसमाज उनकी जयंती को मनाता है, वर्तमान परिदृश्य में बाबा साहब का राजनीतिक ध्रुवीयकरण कर दिया गया है जो वोट बैंक में तब्दील हो चुके हैं। उनके सिद्धांत, शिक्षा, उपदेश सब राजनीति के आगे धूमिल होते जा रहें हैं। बाबा साहब को एक वर्ग विशेष से सम्बन्धित नहीं किया जाना चाहिए, उनको सभी मानें और मनाऐं क्योंकि उन्होंने भारत जैसे विशाल विभिन्नताओं वाले देश का संविधान लिखने में महती भूमिका निभाई है। इसलिए प्रत्येक भारतवाशी उनका कर्जदार है परन्तु यह कहाँ शोभा देता है कि जयंती बाबा साहब की मनाये और उन्ही के सिध्दान्तों, शिक्षाओं आदि को ताक़ पर रख दिया जाए।

 

बाबा साहब डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर सामाजिक रूप से अत्यन्त निम्न समझे जाने वाले वर्ग में जन्म लेकर भी जो ऊँचाई उन्होने प्राप्त की यह बात हम सबके लिये अत्यन्त प्रेरणादायी है। जो कार्य भगवान बुध्द ने 2500 वर्ष पूर्व शुरू किया था जिसके कर्णधार रहे संत रैदास, कबीर, ज्योतिबा फुले आदि, वही कार्य बड़ी लगन ईमानदारी व कड़ी मेहनत और विरोधियों का सामना करते हुये बाबा साहब दलित-अतिदलित,महिला-पुरूषों के लिये किए हैं। बाबा साहब नया भारत चाहते थे जिसमें स्वतंत्रता समता और बन्धुत्व हो जो हमें संविधान के रूप दिया, वह चाहते थे कि जब एक भारतीय दूसरे भारतीय से मिले तो वे उनको अपने भाई-बहन के समान देखें, एक नागरिक दूसरे के लिये प्रेम और मैत्री महसूस करे लेकिन भारतीय समाज में कुछ हद तक सुधर हुआ है किन्तु जिस भारत और भारतियों की कल्पना की गयी थी उसके विपरीत स्वतंत्रता, समता और बधुंत्व जो संविधान में लिखा है इसे राजनीति के बड़े-बड़े घाघ नेता  आज भी दलित-अतिदलित लोगों तक पहुँचने नहीं देते। जाति विहीन समाज की स्थापना के बिना स्वतंत्रता, समता और बधुंत्व का कोई महत्व नहीं है। बाबा साहब ने कहा था, “निःसंदेह हमारा संविधान कागज पर अश्पृश्यता को समाप्त कर देगा किन्तु यह 100 वर्ष तक भारत में वायरस के रूप में बना रहेगा। और आज हम संविधान लागू किये जाने से लेकर 73 वर्ष के बूढ़े भारत में निवास कर रहे हैं जहाँ हिन्दू-मुस्लिम, उंच-नीच, स्वर्ण-दलित, अतिदलित की राजनीति से ऊपर नहीं उठ सके हैं

 

यदि हिन्दू धर्म अछूतों का धर्म है तो उसको सामाजिक समानता का धर्म बनना होगा चर्तुवर्ण के सिध्दान्तों को समाप्त करना होगा चर्तुवर्ण और जाति भेद दलितों के आत्म सम्मान के विरूध्द हैं। उक्त कथन के साथ बाबा साहब हिन्दू धर्म में बने रहने के लिए जीवन के अंतिम समय तक प्रयासरत रहे किन्तु हिन्दू धर्म के ठेकेदारों ने ऐसा नहीं होने दिया परिणामतः बाबा साहब ने 24 अक्टूबर 1956 को अपने लाखो अनुयायियों की संख्या मे बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिए, अतः आज जिन लोगों कि जन-आन्दोलन में रूचि है उन्हे केवल धार्मिक दृष्टिकोण अपनाना छोड़ देना चाहिये तथा उन्हें सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण अपनाकर सामाजिक और आर्थिक पुर्ननिमार्ण के लिये अमूल्य परिवर्तन वादी कार्यक्रम पर जोर देना चाहिए बिना इसके दलित-अतिदलित लोगों की दसा में सुधार लाया जाना संभव नहीं है।

 

विश्व के महान विद्वानों की श्रेणी में अग्रणी बाबा साहब अम्बेडकर की यह युक्ति ‘‘सभी समस्याओं से मुक्ति का मार्ग राजनीतिक कुंजी है।’’ यथार्त सत्य है, जिसे प्राप्त करने के लिए पूरे जीवन संघर्षरत रहे। अपने समाज को हक दिलाने के लिए अपने परिवार को काल के मुंह मे ढकेल कर समाज के हक की लड़ाई लड़ते रहे। यह अधिकार, एकमात्र मत का अधिकार न होकर राजनैतिक अधिकार है जिसके बल पर किसी एक परिवार की नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में रह रहे उन सभी व्यक्तियों की अस्मिता का आधार है चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति, धर्म को मानने वाला हो। कोई एक देश ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के इतिहास को बदलने की ताकत रखता है। 24 जनवरी 1950 को संविधान पर अन्तिम रूप से आत्मार्पित हस्ताक्षर करते हुये बाबा साहब ने कहा था कि मैने आज रानी के पेट का आपरेशन कर दिया आज के बाद कोई राजा पैदा नहीं होगा। परन्तु दुःख इस बात का है कि इक्का-दुक्का को छोड़ दें तो वर्तमान राजनीति परिवारवाद के चलते उसी लीक पर जा चुकी है। जिसकी सम्पूर्ण जिम्मोदारी हम सब की है क्योंकि हम अपने मत के अधिकार का दुर्पयोग करते चले जा रहे हैं और एक के बाद परिवारवाद की राजनीति को बढ़ावा देकर वंशानुगत राजनीति का समर्थन कर रहे हैं । उत्तर प्रदेश के 2022  की राजनीति में परिवारवाद की राजनीति का भी असर रहा है, संसद और विधायक के बेटे-बेटियों को सत्ता सौंपते जा रहे हैं

दलितों-अतिदालितों और पिछड़ों के लिए बाबा साहब अपने शोधपत्रों-पत्रिकाओं, लेखों, सभा-संगोष्ठियों में जहाँ कहीं, जब भी मौका मिलता तब उनकी उक्ति गर्जते सिंह की गर्जना की भाँति गगन में प्रतिध्वनित हो उठती, ‘‘जाओ लिख दो तुम अपनी दीवारों पर कि हम इस देश की शासक जातियाँ हैं, हम उसी कौम के वंशज है जिसके समय में यह देश सोने कि चिड़िया कहलाता था।’’ वे सम्पूर्ण समस्याओं के समाधान की कुंजी पर एकाधिकार प्राप्त करने के लिये शिक्षित बनो, शिक्षित करो और संगठित रहो के नारा पर बल देते हुये कहते हैं कि तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का कल्याण इसी में है। अपने आत्म-सम्मान की जिन्दगी को जी सकोगे अन्यथा कि स्थिति में उस चैराहे पर खड़े भीखमंग्गे की तरह पूरे जीवन अपने अधिकारों की भीख मांगते रहोगे। राजनीतिक सत्ता का हस्तान्तरण होता रहेगा, सरकारें आती और जाती रहेंगी। तुम्हारी सुध तो दूर तुम पर कोई थूकेगा नहीं। बहुत नेकदिली किसी सरकार की सत्ता हुई भी तो तरस खाकर एक-आध धेला (आपका हक) फेंक देगा उससे क्या होने वाला  इससे अच्छा तो मौत को गले लगा लो गुलामों की जिन्दगी जिने से बेहतर है मरजाना।

उनका यह क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन 19वीं सदी के दूसरे दसक के मध्य से 6 वें दसक के मध्य, जीवन के अन्तिम क्षण 06 दिसम्बर 1956 तक चलता रहा फिर शनैः-शनैः खेल शुरू हुआ, लोकतांत्रिक शासन के आने पर राजनैतिक रोटी सेंकने का, पार्टियाँ आती-जाती रहीं। अपने हिसाब से वंचितों का शोषण जारी रहा। वोट का अधिकार मिला किन्तु उसका सही प्रयोग वंचितवर्ग आज तक नहीं कर सका। कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर। अलगाववाद, भ्रष्टाचार, दारू-मुर्गा और सब कुछ फ्री का चाहिए परिश्रम न करना पड़े आदि के नाम पर वोट देते रहे है । और उसी में अपने लोगों का मान-सम्मान खुशी तलाशते रहे और यह आज भी बदस्तूर जारी है। वंचितवर्ग कितना भी पढ़-लिख गया हो किन्तु मानसिक गुलामी और संकीर्णता का शिकार बना हुआ है।

शिक्षित बनों के नाम पर अधकचरे शिक्षा तक सिमित हो रह गए हैं, आज सामान्य परिवार के लोग अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पा रहे है क्योंकि शिक्षा का निजीकरण एक बड़ा अभिशाप है जहाँ शिक्षा इतनी महँगी हो गयी है और वहीँ दूसरी तरफ लोग-मंदिर मस्जिद की ओर दौड़ रहे हैं, कापी-किताबों से विमुख होते जा रहे भविष्य में आने वाली यह वर्तमान खेप देखिये क्या गुल खिलाती है, शांत मन से हम चिंतन करें तो पाएंगे कि जाति-धर्म के नाम पर संकुचित मानसिकता के युवा जो धर्म की राजनीति के शिकार हो चुके हैं वह आने वाले भारत के कल (भविष्य) को नफरत के सिवाय और कुछ नहीं दे सकते। वर्तमान भारत देश के लोकतान्त्रिक शक्ति का दुरपयोग देश के सत्ता धारी दल पुरे मनोयोग से कर रहे हैं उनके ऐजेण्डे से देश का विकास और लोगों की समस्या गायब है।

बाबा साहब की जयंती भी आज केवल और केवल वोट की राजनिति बनकर रह गयी है, बाबा साहब के जन्मदिवस पर वास्तव में हम भारतवासी उनके सिधान्तों और शिक्षाओं का सच्चे मन से संकल्प ले लें तो बदलते भारत की तस्वीर विश्व की इकलौती तस्वीर होगी जो हमें एक अलग पहचान दिला सकती है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हम और हमारी राजनीति हिंन्दू-मुस्लिम, असहिष्णुता, दलित कार्ड से ऊपर ही नहीं उठ पा रही है और यह तब-तक चलता रहेगा जब-तक भारत का हर एक नागरिक चाहे वह सवर्ण हो, अवर्ण (शूद्र) हो अपनी समाज और देश के प्रति जिम्मेदारी का अहसास नहीं करते तब तक बाबा साहब के सपनों के भारत का निर्माण असम्भव है, इसलिए हमें आज नहीं तो कल इस बात की प्रतिज्ञा लेनी होगी कि बाबा साहब के सपनों के भारत का निर्माण हमारी प्राथमिकताओं में से एक है और उसके निर्माण का हम आज संकल्प लेते हैं।

-अखिलेश कुमार अरूण
शिक्षा-{एल0एल0बी0, एम00 (राजनीति विज्ञान, प्रा0भा0 इतिहास, इतिहास, शिक्षाशास्त्र, हिंदी), एम0एड0, नेट(शिक्षाशास्त्र, राजनीति विज्ञानं}
मो0नं0-8127698147
ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर,
जिला-लखीमपुर खीरी उ0प्र0 262804
रचनात्मक उपलब्धि-समय-समय पर देश के  प्रतिष्टित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में गद्य व पद्य रचनाएं प्रकाशित होती रही हैंतथा दो  साझा काव्य (उजास और बाल-किलकारी) और एक लघुकथा संग्रह प्रकाशित हैं।

 

Thursday, April 13, 2023

शोषितों- वंचितों के लिए निर्भीकता की मिसाल-मसाल और विद्यार्थियों के लिए बेमिसाल आदर्श/प्रेरक व्यक्तित्व हैं,डॉ.बी.आर.आंबेडकर-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

महापुरुषों के आदर्श से साभार
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

           डॉ.भीम राव आंबेडकर एक ऐसे प्रेरणास्रोत हैं जो हर निराश,हताश और परेशान व्यक्ति की सामाजिक,धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति का मार्ग तैयार और आजीवन संघर्ष करते हुए दिखाई देते हैं। डॉ.आंबेडकर को यदि 20 वीं सदी का महानतम व्यक्ति की संज्ञा दी जाए तो अतिशयोक्ति नही होगी। जय भीम भी जय हिंद की तरह ही एक ऐसा नारा या उदघोष है जो हर वंचित- शोषित व्यक्ति के अंदर सतत संघर्ष के लिए एक अद्भुत असीम ऊर्जा और शक्ति का संचार करता है। भीषण विषम सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों और दुश्वारियों से गुजर कर उन्होंने जो मुकाम हासिल किया है,वह दुनिया की इतिहास में एक अमिट छाप है। उनके जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो भी पढेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी।
           हाथ में नीला झंडा लेकर जय भीम बोलने,नीला कपड़ा पहनने या मूंछ ऐंठने से कोई आंबेडकरवादी नही बन जाता है। आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा। जय भीम का नारा तभी बुलंद और सार्थक होगा जब बहुजन समाज के लोग आंबेडकर जी की वैचारिकी या दर्शन को व्यावहारिक जीवन में अर्थात आचरण में उतारेंगे। डॉ.भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा के सामने दीपक,मोमबत्ती और अगरबत्ती जलाकर केवल उनका उपासक ही नहीं बनना है, बल्कि उनकी विचारधारा का संवाहक भी बनना है अर्थात उनकी वैचारिकी को पूरी शिद्दत से खड़ा करना है। आंबेडकर जी खुद कहा करते थे कि मैं मूर्तियों और प्रतिमाओं में नहीं ,बल्कि क़िताबों में रहता हूँ। इसलिए आंबेडकरवादी बनने के लिए हर इंसान को उनकी वैचारिकी-दर्शन को पढ़कर आत्मसात करना होगा। बहुजनों को डॉ.आंबेडकर जी सवर्णों के सिर पर बैठने का ऐसा अद्भुत सिद्धांत या हथियार (संविधान और सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण व्यवस्था) देकर गए हैं जिसकी अकूत ताकत के साथ वह शान से सिर उठाकर चल सकता है। वह कहते थे "शिक्षा शेरनी का वह दूध है जिसे जो पिएगा वह दहाड़ेगा।" दलित समाज आज भी घोड़ी,बारात और चारपाई पर बैठने तक सिमटा और लड़ता हुआ दिखाई देता है। ऐसा वही कहते हैं जो दलित अशिक्षित और अज्ञानी हैं। डॉ आंबेडकर के बताए रास्ते पर चलकर ब्राह्मण जैसा बनने का प्रयास तो कीजिए। फिर देखिए आपको सिर पर बैठाने के लिए लोग लाइन लगाकर दिखेंगे।

            विद्यार्थी जीवन में जिस भीमराव को क्लास के बाहर बैठा दिया जाता था। वह बालक फिर भी किसी भी प्रकार की ग्लानि या अपमान महसूस न करते हुए अपने ज्ञान अर्जन के मार्ग पर पूरी हिम्मत और शिद्दत से चलता चला जाता है। कोलंबिया और लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसी दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं में एक साधारण परिवार का एक असाधारण बालक स्वयं को एक सच्चा विद्यार्थी/शोधार्थी सिद्ध करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है। आज उन्हें पूरी दुनिया में ज्ञान के प्रतीक अर्थात सिंबल ऑफ नॉलेज की संज्ञा से नवाज़ा जाता है। डॉ.आंबेडकर की शैक्षणिक ज्ञान की वजह से ही डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी -दर्शन को कोलंबिया विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल कर वहां के छात्रों को पढ़ाया और उन पर शोध कराया जा रहा है और हमारे देश में डॉ. आंबेडकर का बहुआयामी साहित्य और दर्शन लंबे समय तक आम लोगों के पास पहुंचने तक नही दिया गया। बहुजन समाज से निकले अन्य समाज सुधारकों और विचारकों की तरह डॉ.आंबेडकर को भी इतिहास के पन्नों में जानबूझकर इसलिए दबाए रखा गया जिससे देश का वंचित,शोषित और अशिक्षित एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग में सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक चेतना का संचार न हो सके। 
           सामाजिक छुआछूत के कारण डॉ.आंबेडकर को जिस समाज ने क्लास के बाहर बैठने के लिए मजबूर किया, उन्होंने उसी के बीच या उसके सिर पर बैठकर अपने अकूत ज्ञान की बदौलत पूरी निर्भीकता के साथ ऐसा संविधान रच दिया जिसमें कहीं भी किसी भी स्तर पर रंचमात्र भेदभाव,प्रतिक्रिया या बदले की भावना नहीं झलकती है। डॉ आंबेडकर बहुजन समाज को संविधान रूपी ऐसा मजबूत हथियार दे गए हैं जिसके बल पर वह बेधड़क बोल सकता है। वह अपने सामाजिक, राजनीतिक और अन्य हक लेने के साथ उनके लिए कानूनी और लोकतांत्रिक लड़ाई भी लड़ सकता है। डॉ.आंबेडकर की आज की हैसियत का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की विभिन्न पार्टियों के बैनर-पोस्टर-भाषण डॉ.आंबेडकर के नाम और चित्र के बिना अधूरे से लगते हैं। आज के दौर में राजनीतिक सत्ता के क्षितिज या कैनवस पर डॉ.आंबेडकर को इग्नोर करना असंभव सा हो गया है। यथास्थितिवादी सोच की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों के भी राजनीतिक आयोजन आंबेडकर के चित्रों से अछूते नही हैं। वर्तमान दौर की राजनीति में डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी या दर्शन एक अपरिहार्य विषय बन चुका है। देश के हर नागरिक को डॉ.की सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के मोटे-मोटे सिद्धांतों को जरूर पढ़ना चाहिए। आज के वैज्ञानिक और आर्थिक युग में यह दुर्भाग्य का विषय है कि समाज मे सोशल साइंस के विषय लेकर अध्ययन और शोध करने  वाले छात्र-छात्राओं का कमतर मूल्यांकन किया जा रहा है। आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर समाज का एक ऐसा भी वर्ग है जो यह कहता है कि आंबेडकर ने हमारी जिंदगी बर्बाद कर दी और दूसरा वर्ग गर्व से सीना ऊंचाकर कर जय भीम का उदघोष करते हुए शान से कहता है कि डॉ.आंबेडकर हमारे भगवान हैं, मसीहा हैं और मुक्तिदाता हैं। सामाजिक व्यवस्था के दो छोरों पर बैठे लोगों की इस सोच के भारी अंतर से डॉ.आंबेडकर की सार्थकता और प्रासंगिकता का सहज आभास किया जा सकता है। अंत में, हर परेशान और निराश इंसान के मसीहा डॉ.आंबेडकर की अक्षुण्ण स्मृतियों को सादर नमन!

मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए का परिष्कृत रूप मिले मौर्या और अखिलेश,उभर न जाये और क्लेश-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  राजनैतिक मुद्दा   

"बीएसपी के लावारिस पड़े 10-12% को अपने पाले में डॉ.आंबेडकर के नाम पर खींच सकती है,उसकी दलील शायद यह दी जा रही है कि अब बसपा सुप्रीमो राजनीतिक रूप से निष्क्रिय होकर नेपथ्य में जा चुकी हैं। मृग तृष्णा की तरह यह उनकी भूल है, क्योंकि राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धजीवियों का मानना है कि बदलते राजनीतिक परिवेश या प्रतिकूल राजनीतिक घटनाक्रम की आशंका वश यह आधार वोट बैंक शांत जरूर दिखता है, लेकिन लावारिस तो कतई नहीं कहा जा सकता है और न ही फ़िलहाल,उभरती वैकल्पिक दलित राजनीति में शिफ्ट होती दिख रही है।"
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
         वर्ष 1993 में सपा और बसपा गठबंधन की राजनीति को नई धार देने की नीयत से बसपा ने एक नारे को जन्म दिया था। यह नारा राजनीतिक रूप से इतना सफल रहा था कि गठबंधन सत्ता की कुर्सी तक जा पहुंचा था,किंतु अल्पायु में ही वह बुरी तरह राजनीतिक रूप से तितर बितर हो गया था जिसके परिणामस्वरूप बहुजन समाज दो धड़ों में बंट गया था और तब से यह बँटबारा 2007 तक अनवरत रूप से जारी रहा। एक धड़ा अनुसूचित जाति और अतिपिछड़ी जातियों का बना और दूसरा धड़ा शेष पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय की एकजुटता लेकर उभरा। 2007 में बहुजन समाज पार्टी सामाजिक समीकरण साधकर अकेले बहुमत के बल पर पांच साल तक यूपी सरकार चलाने में सफल रही,लेकिन सामाजिक विसंगतियों के पनपने से 2012 आते आते सामाजिक संगति के चलते सपा सत्तारूढ़ पार्टी पर भारी पड़ गया। भारी पड़ने के बहुत से सामाजिक और राजनीतिक बिंदु हैं। 2017 के चुनाव में राम मंदिर की लहर के चलते सामाजिक न्याय की लड़ाई के नाम पर उभरे दोनों दल सामाजिक-राजनीतिक बिखराव के चलते चुनावी जमीन पर बुरी तरह विफल रहे। 2022 के चुनाव में सपा ने अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन की कुछ सीमा तक भरपाई कर ली,लेकिन बसपा लगभग शून्य की अवस्था में चली गयी।

          2024 में लोकसभा चुनाव होना है, इसलिए सभी राजनीतिक दल कई तरह की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक कसरते करने में कोई कोर कसर नही छोड़ना चाहते हैं, भले ही उनकी किसी एक कसरत से राजनीतिक सेहत पर बुरा असर पड़ जाए, इस ओर उनका ध्यान कतई नहीं है। अयोध्या में बन रहे राम मंदिर का जनवरी2024 यानि लोकसभा चुनाव के सन्निकट उद्घाटन या जनता को समर्पित करने की बीजेपी की चुनावी राजनीति की योजना की बहुत पहले घोषणा हो चुकी है। बीजेपी के लिए राम मंदिर या हिंदुत्व का मुद्दा बेहद मुफ़ीद साबित हुआ है। अर्थात बीजेपी धर्म या हिंदुत्व की पिच पर खेलने और जीतने में अपने को सर्वाधिक सेफ और कम्फर्ट जोन में मानकर चलती हैं, क्योंकि देश का ओबीसी हिंदुत्व या धर्म के नाम पर अपनी असली राजनीतिक पहचान बहुत जल्दी भूल जाता है। ओबीसी हिंदुत्व का सबसे मजबूत और बड़ा संवाहक माना जाता है।

          इधर हाल में, धार्मिक ग्रंथ राम चरित मानस की कुछ सामाजिक रूप से अपमान करती चौपाइयों और प्रसंगों पर बिहार की राजनीतिक धरती से उठी चिनगारी धीरे धीरे युपी की राजनीतिक धरती पर भी उसकी राजनीतिक आग की गर्माहट देखने को मिल रही है। बिहार के एक मंत्री के मुंह से निकली यह चिंगारी सपा के एक नेता के मुंह मे ऐसी घुसी कि उसके निकलने और उसकी लौ का असर थमने का नाम नहीं ले रही है। राजनीतिक फायदे की नीयत से इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए सपा नेता ने अपने कॉलेज में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की आदमकद की मूर्ति स्थापित कर उसका उद्घाटन और अनावरण सपा अध्यक्ष से कराकर बीएसपी के आधार वोट बैंक में सेंध लगाने का एक अप्रत्याशित राजनीतिक उपक्रम कर डाला जिसमे 1993 में हुए गठबंधन के राजनीतिक नारे का पूरी ऊर्जा के साथ जबरदस्त उदघोष हुआ जिसके राजनीतिक गलियारों में तरह तरह के निहतार्थ निकाले जा रहे हैं। कुछ लोगों का विश्लेषण है कि कभी बसपा में लंबे अरसे तक रहे सपा नेता मान रहे हैं कि बीएसपी के लावारिस पड़े 10-12% को अपने पाले में डॉ.आंबेडकर के नाम पर खींच सकती है,उसकी दलील शायद यह दी जा रही है कि अब बसपा सुप्रीमो राजनीतिक रूप से निष्क्रिय होकर नेपथ्य में जा चुकी हैं। मृग तृष्णा की तरह यह उनकी भूल है, क्योंकि राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धजीवियों का मानना है कि बदलते राजनीतिक परिवेश या प्रतिकूल राजनीतिक घटनाक्रम की आशंका वश यह आधार वोट बैंक शांत जरूर दिखता है, लेकिन लावारिस तो कतई नहीं कहा जा सकता है और न ही फ़िलहाल,उभरती वैकल्पिक दलित राजनीति में शिफ्ट होती दिख रही है। दलित चिंतकों का मानना है कि बीएसपी के शांत पड़े मजबूत वोट बैंक को लावारिस समझना एक बड़ी राजनीतिक नासमझी  सिद्ध हो सकती है। सपा नेता द्वारा लगभग 30 साल पुराना नारा लगाए जाने पर बसपा सुप्रीमो ने ट्विटर के माध्यम से कड़ी आपत्ति जताई  है। उधर बीजेपी और उसके कुछ धार्मिक हिन्दू संगठनों द्वारा सपा नेता पर एफआईआर दर्ज कर क़ानूनी कार्रवाई किये जाने की चर्चा जोरों पर है। नारे पर मचे बवाल पर सपा अध्यक्ष शायद यह समझकर चुप्पी साधे हों कि मौर्य के नारे से जितना दलितों से राजनीतिक लाभ मिल सकता है,वह मिल जाने दिया जाय। सामाजिक न्याय के चिंतकों का यह भी मानना है कि सपा के लिए मौर्या एसेट के बजाय कहीं लाइबिलिटी न बन जाये जिसको चुकाने में सपा को भारी कीमत चुकानी पड़े!

             2024 की राजनीति के दृष्टिगत विपक्षी दलों को धार्मिक ग्रंथों,हिंदुत्व और श्री राम से जुड़े मुद्दों,प्रतीकों और स्थलों पर पूरी तरह चुप्पी साधने का वक्त और समझदारी है,क्योंकि इस तरह के सारे बिंदु बीजेपी के लिए बेहद मुफ़ीद साबित होते देखे गए हैं। सामाजिक न्याय, बेरोजगारी, निजीकरण से सिकुड़ते आरक्षण और उसके फलस्वरूप धीमी/कमजोर होती डॉ.आंबेडकर की सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा और प्रक्रिया,शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था, किसानों की एमएसपी की गारंटी, भ्रष्टाचार, पीएम के 2014 के चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान लगातार कही गई झूठी बातों, आवारा पशुओं से  अनवरत हो रही आम आदमी की  जान-माल की हानि, मीडिया और संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका और ईडब्ल्यूएस आरक्षण से उपजे सामाजिक और राजनैतिक सवालों जैसे कालेलकर आयोग और मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर ओबीसी के राजनीतिक आरक्षण और एससी-एसटी के अधूरे राजनीतिक आरक्षण के साथ प्रोमोशन में आरक्षण और ओबीसी की उसकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण सीमा बढ़ाने, 69000 प्राथमिक शिक्षक भर्ती में अथाह आरक्षण घोटाला, पुरानी पेंशन योजना(ओपीएस)की बहाली और जाति आधारित जनगणना के मुद्दों पर सड़क से लेकर सदन तक एकजुट होकर लड़ने की जरूरत है।
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प्रो.नन्द लाल वर्मा........9415461224......लखीमपुर-खीरी।

Tuesday, April 11, 2023

समसामयिक मुद्दों पर रंग बिखेरती सौरभ की "बेरंग"-नृपेन्द्र अभिषेक नृप

 पुस्तक समीक्षा

हिन्दी साहित्य की दुनिया में अपनी पहचान बना चुके बहुमुखी प्रतिभा के धनी लखीमपुर खीरी निवासी, सुरेश सौरभ जी की कलम लघुकथाओं के साथ-साथ कविताओं, कहानियों और व्यंग्य लेखन में भी काफ़ी लोकप्रिय हो रही है। सुरेश जी अक्सर समसामयिक मुद्दों पर लिखते ही रहते हैं और देश के प्रसिद्ध समाचार पत्रों में छपते रहते हैं। उनकी रचनाएं यथार्थ का सच्चा आईना होती हैं, जो समाज के वंचित तबकों के लिए हक और हुकूक की वकालत करतीं रहतीं हैं।
       हाल ही में सुरेश सौरभ का लघुकथा संग्रह "बेरंग" प्रकाशित हो कर चर्चित हो रहा है, जिसमें उन्होंने समसामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर लघुकथाओं को संग्रहीत किया है। समाज में निरंतर पनप रही बुराइयों का भी उन्होंने सुंदर शब्दांकन किया है। लेखक ने पुस्तक में सरल एवं ओजस्वी भाषा शैली प्रस्तुत की है। संदेशप्रद लघुकथाओं के‌ इस संग्रह में कुल 78 लघुकथाएं संग्रहीत है।
      पुस्तक का नामकरण संग्रह की लघुकथा 'बेरंग' पर किया गया है, जिसमें लेखक ने हिंदुओं के प्रसिद्ध त्यौहार होली को विषय बनाया है। इस लघुकथा में लेखक ने होली के बहाने, महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहारों को मनौवैज्ञानिक ढंग से दर्शाया है।वे लिखते हैं. 'होली एक समरसता का त्योहार है। प्रेम और धार्मिक सौहार्द को बढ़ाता है।... कुछ आवारा शोहदों ने इसे बिलकुल घिनौना बना दिया है।... ऐसे होली को बेरंग करने वाले कथित लोगों से बचने की वे सीख देते हैं। सजग करते हैं।
    'बौरा' लघुकथा में लेखक ने एक मूक बधिर की प्रेम कथा को लिखा है, जिसमें वह अपनी प्रेमिका से मिलते हुए पकड़ा जाता है। समाज प्रेमिका को निर्दोष मान कर छोड़ देता है लेकिन बौरा जो कि मूक बधिर था, अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं बोल सकता था, उसे जेल भेज दिया जाता है। उन्होंने इस लघुकथा में समाज की दोहरी मानसिकता को दिखाया है, जिसमें समाज प्रेम का दुश्मन बन बैठा है और उसकी नजर में प्रेमी युगल में, एक दोषी तो दूसरा निर्दोष दिख जाता हैं।
      एक बेटी को शादी के बाद ससुराल जाना पड़ता है और सारी जिंदगी वहीं रहना पड़ता है, अपने माँ और पिता से बहुत दूर। इस विषय पर सुरेश जी ने ' पीड़ाओं के पक्षी' लघुकथा लिखी है। एक छोटी सी बच्ची को जब पता चलता है कि उसे बड़ी होकर ससुराल जाना पड़ेगा, तो वो रोने लगती है। समाज के बनाये इस रस्म-रीति से वह अंजान है, छोटी बेटी को इसमें कुछ भी, ठीक नहीं लग रहा है क्योंकि जो बेटी अपने माँ-बाप की गोद में खेल कर बड़ी होती है, उसे एक दिन उनसे ही बिछड़ कर जाना पड़ता है। यह कथा मार्मिक है जो बेटी के प्रति मां-बाप के प्रेम और करूणा को दर्शाती है।
      आज का मानव अपने अहम की लड़ाई में एक-दूसरे के देशों पर हमला करने से बाज नहीं आता है। रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले को, विषय बना कर लिखी गई लघुकथा 'कुत्ते कीव के' में लेखक ने दो कुत्तों के वार्तालाप के माध्यम से कीव की अव्यवथा को दिखाया है। इसके अलावा लघुकथा 'रूस लौट न सके' में भी एक पक्षी को ले कर यूक्रेन के लोगों के कराहते जीवन को लेखक ने बरीकी से बयां किया है। वे लघुकथा 'युद्ध नहीं बुद्ध' के द्वारा शांति का संदेश देते हैं, तो वहीं लघुकथा 'बारूद की भूख ' में बम के धमाके से चीख़ते मजबूर प्रवासी लोगों के आँसूओं को  दर्शाते हैं। 
       इस पुस्तक में समाज के  सामाजिक, साम्प्रदायिक एवं बाह्य आडम्बरों पर लेखक ने गहरी चोटें कीं है।'कर्मकांड',  तेरा-मेरा मजहब' , 'बेकारी' , 'भरी जेब' , 'अनकहे आँसू' , 'ठेकेदारों का ठिकाना' जैसी लघुकथाओं के माध्यम से सुरेश जी ने समाज की विविधताओं भरे जीवन को  बेहतरीन ढंग  से लिखा है। लघुकथाओं में भाषा शैली और विषय की विविधताओं ने पुस्तक में चार चाँद लगा दिए है, जो कि  पाठकों को पढ़ने के लिए उत्सुक कर रही है। उन्हें लुभा रही है। वास्तव में यह पुस्तक गागर में सागर भर रही है, जिसमें 78 लघुकथाओं ने संग्रह 'बेरंग' में विविध रंग बिखेरें हैं।

समीक्षक : नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक : बेरंग
लेखक: सुरेश सौरभ
प्रकाशक: श्वेत वर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 200 रुपये।
मो- 99558 18270

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