साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Sunday, October 11, 2015

हाँ..हाँ....वही फूल (अखिलेश कुमार अरूण)

हाँ..हाँ....वही फूल जो कभी क्रान्ति का प्रतीक हुआ करता था, आज राष्ट्रपुष्प के पद पर भी संशय में अपने जीवन को व्यतित कर रहा है। सोते-जागते उसे डर है अपने आस्तित्व को लेकर कहीं उसका समूल नष्ट न हो जाये; कुछ वर्ष पहले उसकी एक पहचान थी दूधमुंहे बच्चे से लेकर युवा, बूढ़े सभी उसके यश का गान करते थे राष्ट्रीय क्या अन्तराष्ट्रीय स्तर हर जगह तो उसकी पूछ थी कितने को मानव जीवन का मूल्य बताया, कितने को बलिदानी का पाठ पढ़ाया फ्रासं की क्रान्ति को कोई कैसे भूल सकता है पूरा का पूरा हुजुम था उसके पीछे, इतने बड़े देश की असहाय जनता का नेतृत्व करने को मिला पर अपने फर्ज को भी पूरी ईमानदारी के साथ निभाया देखते ही देखते तख्तापलट हो गया पूरातन व्यवस्था को समाप्त कर नये साम्राज्यवाद को स्थापित किया गया। उस दिन को याद कर आँखों में चमक आ जाती है, अर्सों बीत गये अपने नाम को सुनने के लिये कुछ वर्ष पहले तक उसके नाम का भोंपू में एलाउंस हो जाया करता था पर अब तो वह....। अब उसे अपने पुर्नजीवन के आश की कोई किरण शेष नहीं बची दिख रही है। रूप यौवन का जो गुमान था सब का सब व्यर्थ हो गया, उसको अपने ही पवर्ग के सबसे छोटे भाई ने कहीं का नहीं छोड़ा बड़े ने आधार (पंक) दिया तब उसका यौवन निखरा इसके लिये आज भी उसका कृतघ्न है। पर उसे क्या मालूम था कि उसका ही छोटा भाई उसके परोपकार को भूलाकर उसकी जान पर बन बैठेगा जिसको मारे दूलार में उच्चारण के दो स्थान (नाशा और मुख) प्रदान किया। यह राष्ट्र के एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में पहला आक्रमण है। जिसकी शुध्दि लेने वाला कोई नहीं है। सबको अपनी-अपनी पड़ी सब अपने हित में ही सोचते हैं कभी-कभी उन लोगों का भी भूले-भटके नाम ले लेना चाहिए जो अपना सर्वस्व लुटा चुके होते हैं। पर संतोष होता है उसे वह तो ठहरा सजीव मूक प्राणी लेकिन जो बाचाल हैं उनकी तो गति उससे भी गयी गुजरी है। कोई बात नहीं नाच लो अत्याचार के ताण्डव का नंगा नाँच वह कोमल है पर कमजोर नहीं। लोगों में शाहु है पर चोर नहीं।। कुछ नहीं बोलता बिचारा इसीलिए बड़े-बड़े पोस्टर होर्डिगों के मध्य भाग से उसके विशाल स्वरूप् को बौना बना दिया गया इतने से भी संतोष नहीं हुआ तो उसे खिसकाकर एक कोने में पँहुचा दिया गया अब उसकी जगह पर नर आकृति ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है क्षण दर क्षण अपने जीवन को घुट-घुट कर जी रहा है उसकी बस इतनी सी ही तो गलती थी कि पिछले वर्ष की जंग में औंधें मुँह गिर गया उसकी कान्ति धूमिल पड़ गयी थी, देश की जनता प्रतीकात्मक न होकर व्यक्तिवादी हो गयी परन्तु इसमें गलती क्या सिर्फ उसकी ही थी, नहीं उन सबकी गलती है जो उसके साये में राजनीति के खेल को स्वतत्रं होकर खेला है। अब उसकी तुम सब लोगों के लिये ललकार है, “मत भूलो हम आज नहीं तो कल फिर चमकेगें पर तुम लोगों ने चुक किया तो जहाँ में नामों निशां नहीं होगा।” अब सीख लेने की बारी आप और हम सबकी है।

                                                                          अखिलेश कुमार अरूण लखीमपुर-खीरी

Friday, October 09, 2015

आख़िर आँखें खुल ही गयीं .......(A.K.ARUN)

आख़िर आँखें खुल ही गयीं .......

यह कथा न राजा की है और न रानी की और न ही मन बहलाने की यह कहानी व्यक्ति के जीवन की सार्थकता की सच्ची सहानुभूति है। एक किसान था जो हाड़-तोड़ दिन रात मेहनत करके अपने परिवार का जीवन यापन करता था तथा अपने बेटे को अच्छी तालीम दिलाने के लिये स्कूल के साथ-साथ ट्यूशन के अध्ययन हेतु मोटी रकम खर्च करता था अपने तरफ से जितना हो सकता उसके लिये वह कोई कसर बाकी न रखता परन्तु बेटे को तो जैसे नालायकी का भूत सवार था काॅपी-किताब और फ़ीस के लिये मिले रूपयों को नित नये-नये फैसन के कपड़ों मोबाइल आदि के लिये खर्च कर देता फिर अगले दिन आकर रूपये की माँग कर देता बाप बिचारा थोड़ी बहुत ना नुकुर के बाद रूपये का प्रबन्ध करता उसके लिये चाहे जो भी कुछ भी करना पड़े करता पर बेटे को तनिक भनक तक न लगने देता क्योंकि वह सोचता आज नहीं तो कल पढ़ लिखकर कुछ बनेगा तब अपना और अपने माँ-बाप का नाम रोशन करेगा।
एक दिन बेटे ने बाप से कुछ रूपये माँगे ट्यूशन फ़ीस देने के परन्तु फ़ीस जमा न कर अपने लिये एक बाजार से नया जाॅकेट लाया यह सोचकर कि पापा कुछ कहेगें तो बता देगें सुबह ट्यूशन के लिये जाते समय ठण्ढ से काँप जाता हूँ और पहले वाली जाॅकेट भी पुरानी हो गयी है उसमें हवा सीधे सीने पर सर-सर लगती है।
गये पहर रात को घर पहुँचा और माँ से पूछा, “ माँ बापू कँहा है?”
माँ चूल्हे पर रोटी सेंक रही थी फूंक मारते हुये बोली, “ बेटा खेत को गये हैं गेहूँ में पानी देने।”
फिर वहाँ से सीधे अपने कमरे में जाकर रजाई में गुमट गया। माँ ने खाना पकाकर बेटे को आवाज लगाया, “ बेटा अपने बापू को जाकर बुला ला खाना तैयार है।”
थोड़ी बहुत ना नुकुर के बाद कमरे से बाहर निकला जब खेत के तरफ बढ़ा तो माघ महिने की शीतलहर शरीर के सारे कपड़ों को बेधकर करेजा दहला दे रही थी खेत तक पहुँचते- पहुँचते तो मारे ठण्ढ के काँपने लगा बापू को आवाज लगाया खाने के लिये, “ बापू चलो खा....न..ा ...खा।
इतना सुनना था कि किसान ने कहा, “अरे! बेटे घर जाओ ठण्ढ लग जायेगी।
बस इतना ही सुनना था कि उसका आत्मा रो गया कुछ छड़ के लिये आवाक सन्न् रह गया खड़े-खड़े सोचने लगा कि बताओ खुद एक धोती पहने और एक बनियान जिस पर ढंग की एक साल भी नहीं है वे बापू हमारे इतने कपड़े लदे होने पर भी उन्हें ठण्ढ लगने का डर बिना अपने फिक्र किये और हम हैं कि इनकी कमाई को अनावश्यक खर्च कर रहे हैं मन-ही मन संकल्प लिया अब कुछ भी हो मैं अपने जीवन में कुछ करके रहुँगा।
बापू ने तब तक दुबारा आवाज दिया, “जाते क्यों नहीं हो...।”
उसके बाद वह लड़का अपने बापू से कभी रूपये माँगने का समर्थ न कर पाया अपने बल-बूते पर बनने का संकल्प लिया
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-अखिलेश कुमार अरूण

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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