साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, February 08, 2022

खत नहीं आते-रमाकान्त चौधरी

संस्मरण के बहाने
रमाकांत चौधरी
"क्या हुआ है आजकल खत का आना बंद है, डाकिया मर गया या डाकखाना बंद है" आशिकों की ये शायरियां या पंकज उधास का "गीत चिट्ठी आई है, आई है चिट्ठी आई है"  यह सब बातें गुजरे जमाने की लगती हैं।  एक समय होता था, जब दूर गए साजन की चिट्ठी का सजनी  या फिर सजनी के मायके जाने पर साजन उस तरफ निगाहें रखता था जिधर से डाकिया खाकी वर्दी में कंधे पर झोला लटकाए, साइकिल की घंटी टनटनाता हुआ आता दिखाई पड़ता था। जैसे ही डाकिया सामने से गुजरता और आवाज तक न देता था, तो फिर मन में बहुत गुस्सा आता  कि क्या उन्हें एक चिट्ठी भी लिखने की फुर्सत नहीं है ।  कई-कई दिन इंतजार में गुजर जाते थे और तब डाकिए से पूछना पड़ता था, काका अबकी मेरी चिट्ठी नहीं आई क्या? और अचानक डाकिया झोले से निकाल कर जब चिट्ठी देता तो फिर खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। आंखों में खुशी के आंसू छल छला पड़ते थे और फिर वह चिट्ठी साजन या सजनी की होती तो बात ही कुछ अलग होती, पढ़ने का आनंद ही कुछ अलग होता, एक-एक शब्द इत्मिनान से कई-कई बार पढ़ा जाता और हर एक शब्द पर होठों की मुहर लगाई जाती, फिर सीने से लिपटाया जाता। उसके बाद उठती कलम और कागज ,खत का जवाब लिखने के लिए। प्रेमियों का तो अंदाज ही सबसे जुदा होता था, उनकी चिट्ठी ले जाने के लिए तो उनका डाकिया भी अलग यानी निजी होता था। और उनकी चिट्ठी के ऊपर लिखा होता था 'चला जा पत्र चमकते-चमकते, मेरे महबूब से कहना नमस्ते-नमस्ते' या फिर 'पढ़ने वाले पत्र छुपा के पढ़ना, तुझे कसम है मेरी जरा मुस्कुरा के पढ़ना, वह खत वाकई प्रेमी-प्रेमिका छुपा के पढ़ते थे, अपने महबूब की निशानी समझकर किताबों में छुपा कर रखते थे। जब प्रेमियों का बिछोह होता तो आशिकों की जुबां पर यह शायरी 'जवाबे खत नहीं आता लहू आंखों से जारी है, न जीते हैं न मरते हैं अजब किस्मत हमारी है'  मचलने लगती थी। कई-कई बार तो ऐसा भी होता था कि खत के सहारे ही सारी जिंदगी प्रेम अथवा दोस्ती चलती रहती थी दो दोस्त या प्रेमी कभी एक दूसरे की शक्ल से ताउम्र परिचित नहीं हो पाते थे किंतु विचारों का आदान-प्रदान खतों के जरिए ही होता था। खत पाने का या फिर खत भेजने का जो आनंद था वह जुबान से बयां कर पाना संभव ही नहीं है। 

जब किसी मां का बेटा या फिर सजनी का साजन देश की रक्षा के लिए सीमा पर लड़ने जाता था और वहां से जब चिट्ठी लिखता था,  वह दृश्य जब शाम गोधूलि के वक्त डाकिया चिट्ठी लेकर आता था। जब मोहल्ले वाले सुनते की फौजी की चिट्ठी आई है तो सभी उसका हाल पता जानने के लिए इकट्ठे हो जाते कि क्या लिखा है? कैसा है फौजी? फिर डाकिया बाबू उस चिट्ठी को खोलकर पढ़ता तो सबसे पहले ही लिखा होता 'पूजनीय माता-पिता को सादर चरण स्पर्श' उस वक्त माता-पिता की आंखें खुशी से भर जाती, सीना फूलकर गदगद हो जाता। तत्पश्चात तमाम बातें लिखी होती, फिर मोहल्ले में बच्चों से लेकर बूढ़ी ताई तक का हाल-चाल अगले जवाबी खत में लिखने के लिए लिखा होता। उस वक्त सभी मोहल्ले वाले खुशी से फूले नहीं समाते थे। और फिर खतों का सिलसिला न थमने की गति से चलता रहता था।

नई तकनीकी के विकास से जहां पर हालचाल जानने के लिए इंतजार नहीं करना पड़ता है, वहीं पर सम्मानजनक शब्दों का विलोपन होता चला गया है। खतों में जहाँ पुत्र अपने माता-पिता को 'पूजनीय सादर चरण स्पर्श'  व अपनी पत्नी को 'मेरी प्यारी प्राण प्रिया' इत्यादि शब्दों को प्यार के साथ लिखता था, उसकी  जगह अब सिर्फ नमस्ते और हाय-हेलो ने ग्रहण कर ली है। नई तकनीक ने वह प्यार, मोहब्बत, बेचैनी, बेकरारी, इंतजार सब का विलोपन कर दिया अब किसी को फुर्सत कहां है जो चिट्ठी लिखने वाला झंझट का काम करें। बेटा फौज में है तो माता-पिता से बात करने की आवश्यकता ही नहीं है, पत्नी के पास ही सारी जानकारियां पहुंच जाती हैं और फिर माता-पिता बहू से ही बेटे का हाल मालूम कर लेते हैं। भाई बहनों का प्यार भी चिट्ठी में बंद होता था, बहन के घर जब चिट्ठी भाई की पहुंचती तो वह फूले नहीं समाती थी।अब नई तकनीक ने वह भी रीति खत्म कर दी।  अब तो प्रेमी प्रेमिकाओं का रूठना  मनाना मोबाइलों के सहारे होता है। पहले जो बात लबों से नहीं हो पाती थी वह खतों के जरिए हो जाती थी, किंतु अब उसकी जगह एसएमएस यानी शॉर्ट मैसेज संदेश ने ले ली है। शॉर्ट होने के कारण उस पर दिल के हालात पूर्णतया बयां नहीं किये जा सकते। इसका परिणाम यह होता है कि शॉर्ट मैसेज संदेश के चक्कर में प्यार भी शॉर्ट होता चला गया  और एक दिन ऐसा भी आता है कि मोबाइल पर ही प्यार की आहूति चढ़ जाती है ।  नए सिम की तरह नया प्रेमी भी आ जाता है । रही डाकिया बाबू की बात तो वह सिर्फ सरकारी चिट्ठियां ढोते हैं जो किसी बैंक से कर्ज जमा करने हेतु भेजी जाती हैं या फिर किसी मोहकमे  में रिक्त पदों हेतु फार्म भरे जाते हैं, उनकी रजिस्ट्री रिटर्न इत्यादि ।  अब किसी को किसी की चिट्ठी का इंतजार नहीं होता है। अब तो बस इतना है कि कब किसकी घंटी बज जाए और जेब से निकलकर छोटा सा इंस्ट्रूमेंट किस समय कान से चिपक जाए और कब कोई भयानक दुर्घटना घटित हो जाए किसी को कुछ नहीं पता। इस छोटे से इंस्ट्रूमेंट ने जहां एक और लंबे इंतजार को खत्म करके फेस टू फेस बात करने जैसी सुविधा प्रदान की है वहीं पर वह खत पढ़ने का, लिखने का, सीने से छुपाने का आनंद खत्म कर दिया है। अब पत्नी अपने  जाते हुए पति से ये शायद कभी ना कहेगी कि 'जाते हो परदेस पिया, जाते ही खत लिखना।'
पता- गोला गोकर्णनाथ, लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश 2622701

Tuesday, February 01, 2022

यादों के गुलाब-सुरेश सौरभ

लघुकथा

-सुरेश सौरभ 
कुछ पुरानी किताबों को हटाते-संभालते हुए, एक डायरी उसके हाथ में आ गई । ताजे गुलाबों की खुशबू पूरे कमरे में फैल गई।कालेज के दिनों की यादों से उसका अंग-अंग थिरक उठा। बूढ़ी रगो में रक्त का संचार बढ़ गया। तभी अपनी बेटी पर उसकी नजर गई, वह इठलाते-बलखाते हुए किसी से फोन पर बातें कर रही थी, उसके गालों पर बढ़ती गुलाबी रंगत को देख, मुंह बिसूर कर वह दहाड़ा-किसका फोन है?
बेटी ने फौरन फोन काट दिया। उसे होश न रहा ,पापा जी कब सामने है आ गए।
कि... कि किसी का नहीं... हकलाते हुए, संभलते हुए।
वह डायरी पटक कर बोला -तेरे गुलाबी गाल बता रहे हैं किसका फोन था। बेटी सहम गई।... टिन्न.. एक लवली गुलाबी इमोजी मैसेंजर पर आई। वह देख पाती, इससे पहले पापा बोले-मुझे गुलाबी रंग और गुलाबों से सख्त नफरत है समझी ...
चट-चट-चट.. तेजी से चप्पलें चटकाते हुए चल पड़े। ‌बेटी हैरत से उन्हें जाते देख रही थी, गालों पर उगी, अपनी गुलाबी रंगत तो समझ में आ रही थी, पर गुलाबों से सख्त नफरत.. के मर्म को वह न समझ पा रही थी।

मो०निर्मल नगर
लखीमपुर खीरी  पिन-262701
मो,-7376236066




भूल -सुरेश सौरभ

  (लघु कथा)
सुरेश सौरभ 
"मम्मी तुम्हें  कितनी बार समझाया है कि दो परांठे ही बांधा करो, पर तुम हो कि तीन-चार ठूंस-ठूंस कर बांध देती हो",जल्दी-जल्दी टिफिन बस्ते में रखते हुए, खींजते हुए, मोहित बोला। फिर सामने खड़े स्कूल रिक्शे में बैठ कर, मम्मी से बाय-बाय करने लगा। रिक्शा चल पड़ा। जाते रिक्शे को देख, मम्मी मुस्कुराई फिर बुदबुदाई-क्योंकि मेरी भी मां अनपढ़ थी, और तेरी पढ़ी-लिखी मां भी अनपढ़ है, इसलिए गलती से परांठे गिन नहीं पाती।

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश
मो-7376236066
पिन-262701

चोट-सुरेश सौरभ

(लघुकथा)

सुरेश सौरभ
‘‘चटाक! चटाक!...
‘‘साले दिखाई नहीं पड़ता।’’
‘‘चटाक! चटाक!..
‘‘तेरी माँ की..... देख कर नहीं मोड़ता।’’
‘‘चटाक! चटाक!...
‘‘साले जब इधर भीड़ थी तो क्यों लेकर आया इधर?’’
‘‘चटाक! चटाक! चटाक!...
‘‘कितना भी मारो गरियाओ, पर तुम लोग बाज नहीं आते?’’
शाम। टूटा-थका-हारा घर आकर वह बैठा गया। 
‘‘चटाक! चटाक!चटाक... कोई तमीज नहीं? जब कह दिया, पैसे नहीं, फिर भी इतने पैसे इनको दो, ये चाहिए वो चाहिए।...उं उं...उं..ऽ..ऽ.ऽ छोटा बच्चा रोये जा रहा था।
 ‘‘क्या बात है, क्यों मार रहीं है इसे?’’ 
‘‘कोई काम सुनता नहीं ऊपर से जो भी कोई ठेली खोमचा वाला निकले, तो जिद, ये चाहिए वो चाहिए।...बच्चा रोये जा रहा था।.... चुपता है या नहीं चुपता है... हुंह ये ले..ये ले..चटाक चटाक...
अब वह अपने गाल सहलाने लगा, पत्नी को करूण नेत्रों से देख, बेहद मायूसी और नर्मी से बोला-अब न मार बच्चे को, चोट मुझे भी लग रही है रे! लग रहा हम रिक्शे वालों की पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे ही मार खाती बतेगी।
अब पत्नी, अपने पति रिक्शे वाले को हैरत से एकटक देख रही थी। रो तो बच्चा रहा था, पर उसकी आँखों में आँसू न थे। लेकिन उसकी और उसके रिक्शे वाले पति की आँखों में आँसू डबडबा आए थे।

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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