साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, November 17, 2021

मैं कौन हूं?........-अखिलेश कुमार अरुण

   कविता   

मुझसे कोई पूछता है-
अखिलेश कुमार अरुण
मैं कौन हूं,
क्या काम करता हूं,
मेरी पहचान क्या है?
प्रतिभा तो है।
किंतु प्रतिभा की कदर कहां, 
अब बेमोल है-
क्योंकि!
प्रतिभा अपनी पहचान के लिए-
दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर है।
निरुत्तर सा मैं ठगा का ठगा रह जाता हूं!
कभी मैं पढ़ता था,
अब भी मैं पढ़ता हूं
कभी डिग्री और मार्कसीट के लिए
अब नौकरी नहीं, 
एक पहचान के लिए-
मान-सम्मान और अभिमान के लिए
कि लोग कहे,
देखो यह सरकारी नौकर है,
इसकी महीने की आमद है
किस्तों को भरता हुआ
रिश्तों से दूर-
अपनों से नज़र बचाता हुआ
कहीं कोई मांग न ले
रिश्तों में दरार न हो-
क्योंकि हम तो बंधुआ मजदूर हैं
घर से आफिस, आफिस से घर
एक दिन की छुट्टी भी,
हमारे लिए हमारी नहीं है
पेशगी है बड़े साहब की-
हिदायत के साथ, "जाओ बुलाने पर आ जाना।"
बच्चे भी मुंह ताकते हैं
साथ घूमने के लिए-
लम्बे सफ़र पर जाने के लिए,
समय है पर पैसा नहीं, पैसा है और समय नहीं
क्योंकि मैं सरकारी नौकर हूं
या बेरोजगार, 
नौकरी के लिए तड़पता- 
बंधुआ मजदूर बनने को बेताब, 
मेरी एक पहचान बने, 
मैं ग़ुलाम हूं, 
सरकारी नौकर कहो या बंधुआ मजदूर।
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प्रकाशित  हिंदी मिलाप (हैदराबाद ) २९.११.२०२१ और इंदौर समाचार (मध्य प्रदेश) २०.११.२०२१

ग्राम-हजरतपुर,पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर-खीरी उ०प्र० २६२८०४
मोबाइल-8127698147

Tuesday, October 19, 2021

बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करती है लघु फ़िल्म कबाड़ी-डॉ.शैलेष गुप्त 'वीर'


सुरेश सौरभ की लघुकथा कबाड़ी पर बनी लघु फ़िल्म। शिव सिंह सागर ने किया है इस लघु फ़िल्म का निर्देशन
जिस प्रकार वर्तमान में साहित्य में लघु विधाएँ बहुत तेज़ी से लोकप्रिय हो रही हैं, ठीक उसी प्रकार लघु फ़िल्में भी दर्शकों को बहुत रास आ रही हैं। छोटी-छोटी कहानियाँ और लघुकथाओं पर बनी ये फ़िल्में समाज में एक सार्थक संदेश छोड़कर जाती हैं और बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करती हैं। यदि कम में अधिक बात हो जाये, तो फिर विस्तार की क्या आवश्यकता है और यही साबित कर रही हैं लघु विधाएँ और लघु फ़िल्में। 

लखीमपुर के चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ की लघुकथा #कबाड़ी पर बनी लघु फ़िल्म #कबाड़ी यही साबित करती है। तेज़ी से बदल रहे परिवेश में मूल्य और संस्कार कहीं खोते जा रहे हैं। यहाँ तक कि विरासत भी आज के मनुष्य को बोझ लगने लगी है। वह वही विरासत सँभालना चाहता है, जिसका आर्थिक मूल्य हो। पैसे की ताक़त के आगे सारी चीज़ें गौड़ हो गयी हैं। मनुष्य की सोच बेहद संकुचित हो गयी है। सब कुछ पैसा, पैसा, पैसा। 'कबाड़ी' के माध्यम से समाज को यही संदेश दिया गया है। धरोहर पुरखों की निशानी होती है। वे पूर्वज, जिन्होंने हमको बहुत कुछ सौंपा है और हम उनकी बची हुई निशानियाँ भी नहीं सँभाल सकते हैं। 'कबाड़ी' में बाप-दादाओं की 'ख़रीदी हुई' और अब 'पड़ी हुई' पुस्तकों को वह व्यक्ति बेकार समझता है और उन्हें रद्दी के भाव बेच देना चाहता है। उसकी दृष्टि में इन पुस्तकों का वर्तमान में कोई मूल्य नहीं है। सच तो यह है कि पुस्तकों का मूल्य हमेशा रहता है जब तक कि पढ़ने वाले के अन्दर ललक होती है और जानने वाला कुछ जानना चाहता है। सात मिनट से भी कम समय की इस फिल्म में सीधा-सीधा सार्थक एवं पुष्ट संदेश दिया गया है। कबाड़ी, जिसके बाप-दादाओं का दिया हुआ तराज़ू आज भी सही-सलामत कार्य कर रहा है, वह नहीं बदलना चाहता और टोकने पर स्पष्ट कहता है कि नहीं, मैं इसे नहीं बदल सकता। कहीं न कहीं किताबें बेचने वाले को बहुत अन्दर तक झकझोर देता है और उसके भीतर गहरा क्षोभ उत्पन्न होता है। वह वास्तविकता से रूबरू होता है। अपनी विरासत कबाड़ के भाव बेचने से मना कर देता है। 

यह लघु फ़िल्म देखने वाले के मस्तिष्क पर सीधा असर करती है। इसे अवश्य देखना चाहिए। ऐसे प्रयासों को प्रोत्साहित करना हम सबका दायित्व है। जयन्त फ़िल्म्स इन्टरटेनमेन्ट, फतेहपुर के बैनर तले बनी इस लघु फ़िल्म 'कबाड़ी' का निर्देशन युवा निर्देशक शिव सिंह सागर ने किया है। महेन्द्र सिंह यादव, प्रतिभा पाण्डेय, वसीक़ सनम, बेबी साहू के शानदार अभिनय से सजी इस लघु फ़िल्म के निर्माता जयन्त श्रीवास्तव हैं। लेखक सुरेश सौरभ की लिखी 'कबाड़ी' लघुकथा पर बनी इस लघु फ़िल्म की पटकथा शिव सिंह सागर एवं वसीक़ सनम की है। इसे अंजली स्टूडियो यूट्यूब चैनल पर इस लिंक [ https://youtu.be/omcjTSsRrRo] पर क्लिक करके देखा जा सकता है।

सम्पर्क: 
24/18, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)
पिनकोड- 212601
वार्तासूत्र : 9839942005
ई-मेल : doctor_shailesh@rediffmail.com

सुरेश सौरभ कृत 'पक्की दोस्ती' एक बाल कथा संग्रह-मुकेश कुमार सिन्हा

कृति:               पक्की दोस्ती (बाल कथा संग्रह)

कृतिकार:            सुरेश सौरभ
प्रकाशकः            श्वेतवर्णा प्रकाशन
                   232, बी 1, लोक नायक पुरम
                   नई दिल्ली-110041    
पृष्ठः 64            मूल्यः 80/-
समीक्षकः            मुकेश कुमार सिन्हा
 

       बाल साहित्य का सृजन चुनौती भरा काम है। रचनाकार को बच्चाबनना पड़ता है, ‘बच्चाकी तरह सोचना पड़ता है, समझना पड़ता है। यदि बाल साहित्य के सृजन के क्रम में रचनाकार बच्चानहीं बनते हैं, तो उनकी लेखनी सार्थक नहीं मानी जा सकती है। परिपक्व कलम जब बच्चों के लिए लिखेगी, तो निश्चित तौर पर बच्चों को समझने में परेशानी होगी और बच्चों के लिए यह अरुचि का विषय हो जायेगा। बच्चों के मनोभाव की जब तक परख नहीं होगी, मुश्किल होगा बच्चों के लिए कुछ लिख पाना!

हम प्रायः देखते हैं कि परिपक्व कलम बच्चों के लिए लिखती तो है, मगर रचनाएँ बाल मन की सोच से दूर हो जाती है। जो कलम बच्चों के लिए सोचे और समझे, वैसी कलम की कृति को पढ़कर बच्चे झूम उठते हैं। यूँ कहिए कि कृतिको हाथों में लेकर बेहद चाव से पढ़ने को बैठ जाते हैं। जब तक अक्षर-अक्षर न पढ़ लें, चैन नहीं मिलता है मन को!

बच्चों के लिए लिखना जरूरी है। बच्चों की रुचि के अनुसार लिखना हर साहित्यकार का धर्म है। साहित्यकार सही राह दिखाते हैं। समाज में उनकी भूमिका अग्रगण्य है। वो जो लिखते हैं, समाज उसी का अनुकरण करता है, इसलिए साहित्यकार की जवाबदेही बढ़ जाती है।

बच्चों का मन बेहद कोमल होता है। बच्चों को जिस रूप में ढाल दिया जाये, ढल जाते हैं। इसलिए, साहित्यकार की नैतिक जिम्मेदारी है कि वो बच्चों के लिए वैसी रचना का सृजन करें, जिससे उनका मन-मस्तिष्क स्वस्थ हो। बच्चों को अपने कर्तव्यों का बोध हो। देश प्रेम की भावना मन में जगे। ऊँच-नीच और अमीरी-गरीबी की सोच से ऊपर उठकर सबको गले लगायें। निडर बनें, साहसी हों। पढ़ाई की अहमियत को समझें। खेलें-कूदें। रचनात्मक गतिविधियों में भाग लें, बड़ों का सम्मान करें। लक्ष्य के प्रति वफादार हों।

       है न मुश्किल भरा काम! बावजूद साहित्यकार अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं। साहित्य के प्रति बच्चों की अभिरुचि सुखद है, किंतु मोबाइल और कम्प्यूटर युग में उसे साहित्य, खासकर किताब के साथ जोड़े रखना चुनौती है। यदि बच्चों की रुचि के अनुसार रचनाएँ रचीं जाये, तो इस चुनौती का मुकाबला डटकर किया जा सकता है।

       बच्चों की रुचि के अनुसार रचनाएँ गढ़ना समय की माँग है, ताकि भारत का भविष्य सुरक्षित हाथों में हो। भविष्यको सशक्त बनाने का बीड़ा साहित्यकारों ने उठा लिया है। साहित्यकारों की लंबी सूची में एक नाम है-सुरेश सौरभ, जिनकी कलम चौदह साल की उम्र से ही लेखन में सक्रिय है। लघुकथा, उपन्यास, हास्य-व्यंग्य से होते हुए उनकी कलम बच्चों के लिए भी लिखती है। दस साल पहले बाल कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ-'नंदू सुधर गया'। पुनः उनकी कलम पक्की दोस्ती’ (बाल कथा संग्रह) लेकर हाजिर है, जिनमें 19 कहानियाँ हैं।

       लेखक सुरेश सौरभ बच्चों को कहते हैं-जब भी आपको मौका मिले, तो बाल साहित्य अवश्य पढे़ं, इससे न सिर्फ़ आज का भविष्य मज़बूत होगा बल्कि वर्तमान भी सुदृढ़ होगा।वो बच्चों को समझाते हैं-बहुत से लोग कहते हैं कि कविता-कहानी पढ़ने से समय नष्ट होता है, पर यह सरासर ग़लत है, इससे कल्पना शक्ति तेज और भाषा शैली प्रखर होती है, साथ ही जीवन जीने की असली कला भी पता चलती है।

       प्रस्तुत संग्रह में संग्रहित कहानियों की भाषा बेहद सरल है। कहानियों के माध्यम से बच्चों को शिक्षा दी गयी है। बच्चों को जंगली जानवर वाले पात्र बेहद पसंद होते हैं। बच्चों की रुचि का ख्याल करते हुए कहानीकार ने जानवरों के माध्यम से अच्छी-अच्छी बातें कहने की कोशिश की है, जो बच्चों को किताब से जोड़ती है।

       ममतामयी माँ बच्चों को कभी भी मुसीबत में पड़ने नहीं देतीं। अपनी जान की परवाह किये बगैर माँ शत्रुओं से बच्चों को बचाती हैं। माँ की बहादुरीमें लेखक ने स्पष्ट इशारा किया कि माँ हर मुसीबत में ढाल बन जाती हैं। ऐसे में क्या माँ के प्रति हमारा कोई कर्तव्य नहीं बनता है? माँ की आँखों में आँसू न आये, इसका ख्याल जरूरी है।

       बच्चों को चाहिए कि वो बड़ों की बात मानें। बड़ों की बातों को नहीं मानने से हम दुविधा में पड़ जाते हैं, अपना ही नुकसान कर बैठते हैं। चुन्नू-मुन्नू को माँ-पिता की बातों को नहीं मानने और झूठ बोलने का जब फल मिला, तब उसे एहसास हुआ। हमें शैतानियाँ नहीं करनी चाहिए। माना हम नादान हैं, तो क्यों न कोई काम करने से पहले बड़ों से पूछ लें। यही नसीहत है चुन्नू-मुन्नू की शैतानीमें।

       मोटू राम को सुई ऐसे थोड़ी ही लगी। सर्दी में आइसक्रीम खाइएगा, तो क्या होगा? इसलिए बड़ों की बातों को हर हाल में माननी चाहिए। माता-पिता थोड़े बुरा चाहेंगे। माँ-पिता सदैव अपनी औलाद की बेहतरी ही चाहते हैं।

       राहुल को उसकी माँ ने कितनी अच्छी बात कही-

बेटे! यह बुद्धिमानी नहीं, बल्कि बेईमानी से कमाया गया धन है। इससे न सिर्फ़ बुद्धि क्षीण होती है, बल्कि व्यक्ति की कलई खुलने पर जगहँसाई भी होती है। फिर वह न घर का रहता है न घाट का।

जाने-अनजाने में औलाद गलती कर बैठता है। ऐसे वक्त में माता-पिता की जवाबदेही बनती है कि वो अपनी औलादों को समझाएं। छोटी-छोटी बुरी आदतों का खामियाजा फिर भविष्य में भुगतना पड़ता है। हम समय रहते बच्चों को बुरी आदतों से मुक्ति दिला सकते हैं। आवारागर्दी करने पर डम्पू की माँ ने डम्पू को समझाया था-

बेटा सुधर जाओ तो अच्छा है। आज हमने तुम्हें बचा लिया, पर हर बार तुम्हें कहाँ-कहाँ बचाती फिरूँगी। अपने चरित्र, अपने भविष्य के तुम खुद भाग्य विधाता हो।

डम्पू का चालान कट गयामें नसीहत है कि हमें आवारागर्दी नहीं करनी चाहिए। यातायात के नियमों का पालन करना चाहिए। लाइसेंस, कागजात, हेलमेट के साथ-साथ गाड़ी चलाने के लिए बालिग होना आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं करते हैं, तो दंडित होना लाजिमी है।

       चोर पकड़ा गयामें सत्य की जीत हुई है। माना राहुल को परेशानी हुई। अपनी बेगुनाही साबित करने में मशक्कत झेलनी पड़ी, किंतु अंततः वह बेगुनाह साबित हुआ। यह कहानी हमें शिक्षा देती है कि हमें सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। समस्याएँ आती हैं, इसलिए घबराने की जरूरत नहीं है, बल्कि उससे मुकाबला करने की दरकार है। बच्चों को एक नसीहत-

बेटा जीवन में जो भी समस्या आए उसका सही समाधान निकालना चाहिए। समस्याओं से बाधाओं से मुँह मोड़कर जितना भागोगे उतनी ही तुम्हारे गले पड़ेगी। समझे बेटा राहुल।

आज की पीढ़ी मेहनत करना ही नहीं चाहती है। यदि करना भी चाहती है, तो बस रस्मअदायगी। और, लाभ अधिक पाना चाहती है। शाॅर्टकट तरीके से ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है, उसके लिए सतत मेहनत की जरूरत है। क्या कोई एक दिन में सफल हो सकता है? क्या कोई एक दिन में गायक बन सकता है? यह तो कल्लू की नादानी ही थी, जिसकी वजह से उसे बेइज्जती उठानी पड़ी। गुरु ने मना किया, लेकिन वो कहाँ माना? इसलिए, हमें गुरु की हर बातें माननी चाहिए और सफलता का तरीका बिल्कुल भी शाॅर्टकट न हो।

मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है। मेहनत से इतर प्राप्त फल फीका लगता है। वो तो शुक्र है रामू का, जिसने चिंकू को पुलिस के हवाले नहीं किया और सुधरने का मौका दिया। चिंकू भी समझ गया कि मेहनत और ईमानदारी से कमाकर खाने में जो सुख है, वह अन्यत्र नहीं है। यदि ईमानदारीपूर्वक मेहनत की जाये, तो हम क्या नहीं कर सकते हैं? चोरी से प्राप्त पकवान से अच्छा है सूखी रोटी खाना। कहानी मेहनत का सुखबच्चों को सही राह दिखाती है।

नकल करना बुरी बात है, यह कोई नकलची सोनू से सीखे। वो न नकल करता, न उसकी ऐसी दशा होती। लेखक ने नकलची सोनूमें नकल न करने की नसीहत तो दी ही है, साथ ही आयुर्वेद के सेवन की वकालत भी की है। यह सच है कि हम आयुर्वेद से दूर भाग रहे हैं, लेकिन जब अंग्रेजी दवाइयाँ नहीं थी, तो आयुर्वेद ही एकमात्र सहारा था। नयी पीढ़ी यह जान और समझ ले।

बच्चों को निडर होना चाहिए। उसे ऐसा माहौल देने की जरूरत है, ताकि वो बहादुर कहलाये। कमजोर, आलसी और डरपोक का कौन नाम लेता है? भगत, राजगुरु, सुखदेव, सुभाष आज भी प्रेरणापुंज हैं। जो बहादुर होते हैं, उस पर दुनिया नाज करती है। हमें ऐसा होना चाहिए कि हर कोई यह कहने को मचल उठे कि मैं ऐसा बहादुर बेटा पाकर स्वयं को धन्य समझता हूँ, जिसने माँ-बाप का नाम पूरी दुनिया में रोशन कर दिया।बहादुर हो तो अभिनंदन जैसा, जो आज बच्चों के सुपरहीरोहैं। शौर्यता और वीरता का परिचय देने वाले अभिनंदन की जांबाजी को लेखक ने मैं अभिनंदन बनना चाहता हूँमें प्रस्तुत किया है। अभिनंदन जैसा होना आसान नहीं है। हाँ, उनसे प्रेरणा लेकर उन-सा बनने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए।

       क्या हम पशु के बिना रह सकते हैं? क्या हम नदी-पेड़ और तालाब के बिना रह सकते हैं? नहीं न, फिर हम प्रकृति और खूबसूरत बस्ती में आग क्यों लगा रहे हैं? यह केवल पंक्ति नहीं, बल्कि दर्द है और मानव जाति को संभल जाने की नसीहत-

       देखो चिंकू की मम्मी अब हम यहाँ शहर में नहीं रहेंगे। पहले तो इन शहरी लोगों ने पेड़ काट-काट कर हमारे घोंसले उजाड़े और जब हम कहीं इनकी बेकार जगहों पर घोंसला बनाकर सुकून से रहते हैं तो वहाँ भी ये हमारा जीना हराम कर देते हैं। चलों अब हम ऐसी जगह चलें जहाँ ये निर्दयी मनुष्य न हों। फिर तीनों चल पड़े। दूर आशियाने की तलाश में...।

माना कबूतर चिंकू के परिवार की तलाश पूरी हो जाये, लेकिन यह गंभीर बात है। हम मनुष्यता को क्यों छोड़ रहे हैं? हमने दानवी प्रवृति क्यों अपना रखा है? मनन करने की आवश्यकता है। काश! हम संभल जायें। ऐसी बस्ती तैयार की जाये कि कबूतर भी साँस ले और बाज भी। केवल बाज का राजन हो!

हमें कभी कमजोर को नहीं सताना चाहिए, उसका उपहास नहीं उड़ाना चाहिए। वक्त सबका फिरता है। वक्त से ज्यादा कोई बलवान नहीं। वक्त का ही कमाल है कि नन्दू सुधर गया, अन्यथा शरारत करने से वो कहाँ बाज आता? एक सीख है कि अगर कोई मुसीबत में हो, तो उसकी मदद करनी चाहिए, चाहे वो दोस्त हो अथवा दुश्मन। हर पीड़ित-परेशान प्राणी की मदद करना दूसरे प्राणियों का कर्तव्य है। ऐसा करने से शत्रु का भी हृदय परिवर्तन हो जायेगा, उसे जरूर अफसोस होगा कि मैं जिन पर अत्याचार करता रहा, आज वही लोग मेरी जिंदगी बचा रहे हैं।

बच्चों के मन की अभिलाषा है-पापा जल्दी आ जाना। यह भावुक कर देने वाली कहानी है। बिट्टू पापा को चिट्ठी लिखने बैठती है। पत्र में वह दिल की सारी बातें लिख डालती है। पापा से नयी फ्राॅक की अपेक्षा करती है, अच्छी मिठाई लाने को कहती है। साइकिल की जिद पर अड़ी है। पिता से नाराजगी भी है। यह कहानी पत्र शैली में है। मोबाइल के जमाने में अब कहाँ कोई पत्र लिखता? पत्र में प्यार हुआ करता है, अपनत्व का भाव हुआ करता है। सोचनीय विषय है कि वर्तमान पीढ़ी को कहाँ मालूम कि अंतर्देशीय पत्र और पोस्टकार्ड क्या होता है?

पत्र लेखन की शैली को बढ़ावा देने की जरूरत है, ताकि इस शैली को लुप्त होने से बचाया जा सके। पहले हाल-चाल जानने का एकमात्र माध्यम था पत्र, लोग बड़ी बेचैनी से पत्र का इंतजार किया करते और चाव से एक-एक शब्द पढ़ते। अब इसका अभाव है। पत्र लेखन से भाषा मजबूत होती है, बड़ों के प्रति सम्मान का भाव जगता है, इसे बचाये रखना हमारी जवाबदेही है। साहित्यकार ने शिद्दत से अपना फर्ज निभाया है।

बच्चे कई बार सोचने को विवश कर देते हैं, बड़ों का हृदय परिवर्तन कर देते हैं। बबली के पिता को चिढ़ हो गयी थी, उसे खुलेआम चंदा माँगते देख। दरअसल, वो सुनामी पीड़ितों की मदद के लिए चंदा इकट्ठा कर रही थी। बबली की भावना को लेखक ने यूँ लिखा-

...आप हजारों रुपये अकेले दे सकते हैं, पर जिस धन में दया और धर्म न हो, वह धन किसी काम का नहीं होता। पैसों से आप किसी की भावनाएँ, संवेदनाएँ नहीं खरीद सकते। लोगों के दिलों में दया और दान की भावनाएँ जीवित रहे, तभी समाज के संस्कारों की गाड़ी सुचारू रूप से चल सकेगी।

निश्चित तौर पर मुसीबत में फँसे लोगों के लिए चिंता होनी चाहिए। हम चिंता नहीं करेंगे, तो कौन करेगा? समाज को नसीहत देती पंक्ति-

आप जैसे प्रेम को दौलत से खरीदने वालों ने ही हिन्दुस्तान की तमाम आबादी को भूखों मरने के लिए छोड़ रखा है, अगर आप जैसा हर हिन्दुस्तानी एक रुपये रोज़ किसी भूखे के लिए निकाल दे तो कोई भूखा आत्महत्या न करे और न कोई गरीब लाइलाज होकर बीच सड़क पर तड़प-तड़प कर न मरे।

संजीदा लेखक की एक और संजीदगी से भरी पंक्ति देखिए-

सबकी ज़िन्दगी की चरखी में कितनी लम्बी डोर है किसी को नहीं पता, पर जीते जी हर आदमी को कुछ ऐसा नेक काम कर लेना चाहिए जिससे अंतिम सफ़र का रास्ता सुकून से कट जाए।

पक्की दोस्तीसंदेश छोड़ रही है। आखिर धर्म को लेकर भेदभाव क्यों? नये मास्टर साहेब की दृष्टि से भेदभाव के बादल का छँटना स्वाभाविक था। रामानंद के पिता ने ठीक ही कहा नये मास्टर साहेब से-

'आप एक गुरु हैं और गुरु का दर्जा भगवान से भी बढ़कर होता है और भगवान की नज़र में न कोई हिन्दू होता न कोई मुसलमान। उसकी नज़र में सभी एक समान हैं। फिर आपकी नज़र में भेदभाव क्यों?'

कलाम और रामानंद शास्त्री की दोस्ती में नये मास्टर साहेब ने दरार डालने की भरसक कोशिश की, मगर उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया। जात-पात और धर्म में भेदभाव का सिलसिला अब समाप्त होना चाहिए। यह दंश है, जिससे बचना हमारा फर्ज है। जात-धर्म के फेरे में पड़कर हम उन्नति की राह में दीवार खड़ी कर रहे हैं, इसलिए इस दीवार को ढाहने की जरूरत है। दीवार को ढाहने की दिशा में यह कहानी बेहतरीन भूमिका निभा रही है।

गलती तो अध्यापक रामकृष्ण अय्यर ने भी की। हालाँकि उन्हें पश्चाताप हुआ तब, जब उनकी नजर में आवारा-निकम्मा लड़का गणित में पूरे के पूरे अंक प्राप्त किये। उन्हें अफसोस हुआ और खुले मंच से यह बात कही। इतने बड़े़ शिक्षक होकर भी अध्यापक रामकृष्ण ने अफसोस जताया, फिर हम अपनी गलती पर माफी माँगने में संकोच क्यों करते हैं? हमें तुरंत जजनहीं बनना चाहिए, बल्कि स्थिति-परिस्थिति की जानकारी ले लेनी चाहिए।

पढ़ाई बहुत जरूरी है। चिम्पू की शादीकहानी शिक्षा जागरूकता को लेकर रची गयी है। समाज में अनपढ़ों को ठग लिया जाता है, क्योंकि उनके पास न अक्षर का ज्ञान होता है और न ही अंकों का। चिम्पू भी वैसा ही था, लेकिन जब पढ़-लिख गया, तो उसे मैनेजरी की नौकरी मिल गयी। चिम्पू के पास जब अक्षर ज्ञान नहीं था, तो उसकी हालत क्या थी? इस पंक्तियों से समझा जा सकता हैै-

पापा आजकल समाज में अनपढ़ों की न कोई बात होती है, न औकात। जब मैं अनपढ़ था, तब अक्सर पढ़े-लिखे मुझे बेवकूफ और भोंदू समझते थे और बात करने से ऐसे कतराते थे, जैसे मुझे कोई छूत की बीमारी हो। तभी मैंने निर्णय किया कि अब पूर्ण साक्षर बनकर ही दम लूंगा।

सरकार ने अनपढ़ों को विद्यालयों से जोड़ने के लिए योजनाएँ बना रखी हैं। मध्याह्न योजना, छात्रवृति, पोशाक योजना, साइकिल योजना उदाहरण है, ऐसा इसलिए ताकि हर कोई पढ़ सके। पढ़ाई का जीवन में अहम् योगदान है, इसलिए पढ़ना जरूरी है। भले दो रोटी कम खाइए, लेकिन स्कूल जरूर जाइए।

युद्ध में कभी भी किसी को कमतर आँकना नहीं चाहिए। युद्ध को जीतने के लिए बल के साथ-साथ बुद्धि चाहिए। यदि चील बुद्धिमता का परिचय देती, तो उसकी हार नहीं होती, किंतु उसने धामन को कमजोर समझने की भूल कर बैठी और उसे पराजित होना पड़ा। इसलिए, युद्ध में हमेशा सजग रहने की आवश्यकता है।

सरल और सहज भाषा में रची गयी कहानियों में प्रवाहमयता है। बच्चे जब कहानियों को पढ़ेंगे, तो उबेंगे नहीं। कहानियाँ केवल मनोरंजन नहीं करती, बल्कि संदेश छोड़ती है। ऐसे में कहा जा सकता है कि सुरेश सौरभ की लेखनी से उपजी कहानियाँ बच्चों को अच्छा नागरिक बनने की सलाह दे रही है। सच पूछिए, यदि बच्चों को सही पटरीपर ला दिया जाये, तो भारत का भविष्य सशक्त और उज्ज्वल होगा। बच्चों को सही राह दिखाती है सुरेश सौरभ की पक्की दोस्ती

सिन्हा शशि भवन कोयली पोखर,
गया-823001
चलितवार्ताः 9304632536

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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