असल मुद्दे बनाम सीएबी, सीएए
और एनआरसी
-अखिलेश कुमार ‘अरुण’
साथियों बहुत दिनों
के बाद लेखनी को हाथ लगाया है. पिछले साल दो साल से लेखन कर्म से विरत रहा हूँ. जिसके
ढेर सारे कारण थे उनका उल्लेख करना आवश्यक जान नहीं पड़ता है. किन्तु अब हमें हमारा
लेखकीय धर्म धिक्कार रहा है अब और नहीं.........देश विषम परिस्थियों से गुजर रहा
है. विद्वान् साथियों की राय-मशविरा को कोई स्वीकारने वाला नहीं है. फेसबूकिया,
व्हाट्सएप्प युनिवर्सिटियों के ज्ञानियों की भरमार हो चली है. उनके ज्ञान पर खीझ
भी आती है और गुस्सा भी. जो किताबों को देखकर ही नाक-भौं सिकोड़ते हैं वह भी अपने लेखन
की सत्यता के रिफरेन्स के लिए किताबों लम्बी-चौड़ी लिस्ट उदाहरण के तौर पर चिपका
देते है. ऐसा जान पड़ता है कि हमने अब तक जो भी पढ़ा-लिखा है वह सब व्यर्थ गया. ऐसी
पढाई-लिखाई किस काम की जहाँ पर अधूरी जानकारी ही, दी जाती रही है.
अब आते हैं हम अपने
असल मुद्दे पर जहाँ एक तरफ हमारा देश बेरोजगारी, भुखमरी, शिक्षित बेरोजगारी,
मंहगाई, व्यापारी वर्ग मंदी, कार्पोरेट घराना आदि सस्याओं से जूझ रहा है. देश की
जीडीपी अन्तराष्ट्रीय स्तर पर औंधे मुहं लुढ़कते जा रही है. अपने देश के लोगों का
भविष्य खतेरे में है. जनता त्राहिमाम् कर रही है. वहां देश की सत्तासीन सरकार CAB
(सिटिजनशिप अमेंडमेंट बिल) NRC (नेशनल रजिस्टर फॉर सिटिजन) और CAA (सिटिजनशिप
अमेंडमेंट एक्ट) को भुनाने में लगी हुई है.
जगह-जगह जनांदोलन उग्र रूप लेता जा रहा
है. हठधर्मिता दोनों तरफ हाबी है जनता लागू नहीं होने देने के पक्ष में है और सरकार
लागू करने के पक्ष में है. लोक प्रशासन जिसकी लाठी उसकी भैंस होकर रह गयी है. खूब
लाठी-डंडे, आंसू गैस के गोले बरसाए जा रहे हैं. मेरे इस आर्टिकल लिखे जाने तक १७
लोग इस आन्दोलन की भेंट चढ़ चुके हैं. उपद्रवी अपने आस-पास के लोगों को आन्दोलन की
आंड़ लेकर क्षति पहुंचा रहे हैं दुकान, कार, टैम्पों खिडकियों-दरवाजे के शीशे तोड़े
जा रहे हैं. पुलिस के भेष में उपद्रवी हेलमेट लगाये लाठी-डंडों से लैस अपने आकाओं
के सह पर शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को भड़काने का काम कर रहें हैं. लखनऊ में एक
प्रदर्शनकारी के मरने पर जब उसका पोस्टमार्टम रिपोर्ट आता है तो उसमें 32 बोर की
गोली मिलती है, इस तरह के कारतूश का प्रयोग उत्तर प्रदेश की पुलिस तो करती नहीं है
तब यह गोली चलने वाला कौन था? शांतिपूर्ण प्रदर्शन जहाँ गुलाब के फूल लिए लोगों पर
लाठियां भांजती पुलिस,
कपिल मिश्रा के NRC और CAA समर्थक प्रदर्शन का स्वागत करती
है जहाँ जोर-शोर से नारा लगाया जा रहा है, “देश के गद्दारों को गोली मारों शालों
को” इसका उल्लेख करना यहाँ इसलिए आवश्यक बन पड़ता है कि प्रसाशन भी धर्म के नशे
में चूर है. अगर ऐसा नहीं था तो क्या हुआ उन भारतीय दंड संहिता के धाराओं का,
धारा 153 A- धर्म, जाति समुदाय के आधार
पर शत्रुता भड़काने की कोशिश, धारा 295-लोगों में खौफ़ पैदा करना, धारा 295A शांति भंग करना. और धारा 144. पुलिस क्यों मूक दर्शक बनी हुई थी इस भड़काऊ नारे के साथ
दौड़ लगाती भीड़ पर. कहीं-कहीं पर सोशल मिडिया पर वायरल होती वीडियो में पुलिसकर्मी
सरकारी सम्पतियों को तोड़-भोड़ रहे हैं, पेट्रोल डाल कर आग लगा रहे है. इसकी क्या
जरुरत है पुलिसकर्मी ऐसा करने के लिए क्यों मजबूर हैं. उन्हें ऐसा करते हुए उनका
ज़मीर उन्हें क्यों नहीं ललकारता, प्रशासन का भय क्यों नहीं है? या पुलिस पर उपरी आदेश है.
नागरिकता संसोधन बिल
के प्रोटेस्ट में जो नेता-अभिनेता, लेखक आ रहा है उसको प्रसाशन महत्त्व नहीं दे
रहा है. विश्व प्रसिद्द इतिहासकार रामचंद्र गुहा केवल तख्ती लिए खड़े थे उनकी
गिरफ़्तारी चर्चा का विषय बनी हुई है. सुशान्त सिंह सावधान इंडिया एपिसोड से इसलिए
बाहर कर दिए जाते हैं कि वह इस बिल का समर्थन नहीं करते है. कंगना रानौत फ़िल्मी
जगत पर तंज कसती हैं कि शीशे के सामने घंटो बस रूप निहारने में व्यस्त हैं देश के भूत-भविष्य
से उनका कोई मतलब ही नहीं है.
पिछले तीन-चार दिनों
से दैनिक जन-जीवन अस्त-व्यस्त है. स्कूल-कालेज और विश्वविद्यालय में एक-एक दिन करके अघोषित छुट्टियों में साल के
बचे-खुचे दिन बीते जा रहे हैं. सेमेस्टर परीक्षाओं का सेड्युल बिगड़ा जा रहा है.
छात्रों पर देशद्रोही होने का आरोप लगाया जा रहा है. जो जहाँ मिल रहा है वहां
दौड़ा-दौड़ा कर पीटा जा रहा है. एक वीडियो में साफ देखने को मिल रहा है की घर के अंदर
से खींच कर पुलिस कुछ व्यक्तियों को वेतहाशा मारे जा रही है.
आखिर क्या खास है इसमें
जिसको लागू करने के लिए सरकार पूरे मनोयोग से पिल पड़ी है. विद्वान वर्ग सरकार से
सवाल करता है कि इस समय क्या जरुरत थी इस बिल की? यही सवाल अंजना ओम कश्यप के
द्वारा इंटरव्यू में दिल्ली के मुख्यमंत्री कजरीवाल भी करते है. जिम्मेदारों को उत्तर
देते न सूझता है, बस एक ही रट लगाये हैं चाहे जो भी कुछ हो जाये लागू करके रहेंगे.
भारत लोकतान्त्रिक देश है अंग्रेजों का गुलाम नहीं जहाँ दमनकारी नीतियों का पालन
किया जा रहा है. केंद्र और राज्य सरकारों ने देशद्रोह की परिभाषा को ही बदल कर
रख दिया है उसकी नजर में सरकर की आलोचना करना ही देशद्रोह है. लोकतांत्रिक देश में
पूर्ण बहुमत की सरकार ही उसका दुर्भाग्य है. विपक्ष का दबाब होता तो सत्ता के
नशे में चूर सरकार पर अंकुश बना रहता. यह बिल इसलिए भी बुरा है क्योंकि वर्तमान
परिवेश में इसका स्वरुप धार्मिक हो गया है संविधान की अंतरात्मा पर सवाल खड़ा करता
है. भारतीय संविधान सभी धर्मों का सम्मान करता है परिणामतः यह धर्मनिरपेक्ष है अतः
किस आधार पर अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान करेगा. तथा उनको इस बिल के दायरे में
लायेगा.
नागरिक संसोधन बिल
पर बस इतना ही कहा जा सकता है कि इसका भी वही हर्ष होगा जो नोटबंदी, कालाधन, हर
साल दो करोड़ रोजगार आदि का हुआ है. केंद्र सरकार अपने साढ़े पांच साल की शासन की
असफलताओं को छिपाने के लिए देश के आम नागरिकों की भावनओं से खेल रही है. राहत
इन्दौरी की रचना का उल्लेख किये बिना नहीं रह पाउँगा-
सरहदों पर बहुत तनाव है क्या?
कुछ पता करो चुनाव है क्या?
खौफ़ बिखरा है दोनों सम्तों में,
तीसरी सम्त का दबाव है क्या?
यह पंक्तिया अपने
में बहुत कुछ संजोये हुए है. पूरी राजनीतिक परिद्रश्य का निचोड़ है. देश में जहाँ
कहीं चुनाव होता है. कुछ न कुछ जरुर भुनाया जाने लगता है. बस अब देखना यह है की
राजनीति के धुरंधर अपने को सत्ता में बनाये रखने के लिए देश को किस हद तक ले जाते
है.
इन्कलाब
जिंदाबाद जय जन
जय भारत
-अखिलेश कुमार ‘अरुण’