साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, July 09, 2025

बहुजन समाज का संविधान बनाम सनातन-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

 
~~सूक्ष्म विश्लेषणात्मक अध्ययन~~ 

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
       पिछड़े वर्ग के लोगों ने यदि विगत 75 वर्षों में संविधान का अनुच्छेद 340 पढ़कर उसे अच्छी तरह समझ लिया होता और सरकार द्वारा इस अनुच्छेद को समझाया गया होता तो वे आज मस्ज़िद के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने का काम कदापि न करते और न ही अपनी शिक्षा और रोजगार छोड़कर कांवड़ या अन्य किसी धार्मिक यात्रा में शामिल होते,बल्कि वे अपने आरक्षण (सरकारी शिक्षा - नौकरियों और राजनीति) जैसे संवैधानिक अधिकारों के बारे में जागरूक होकर उन्हें हासिल करने और देश की राज व्यवस्था में अपना यथोचित हिस्सा लेने के लिए लड़ रहे होते! हनुमान चालीसा का पाठ राम भक्त हनुमान जी की स्तुति या भक्ति में किया जाता है। मस्जिद के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने या पढ़वाने का निहितार्थ या औचित्य क्या है,इसे गंभीरता से समझने की जरूरत है! पिछले कुछ सालों में सत्ता और समाज के एक वर्ग विशेष और कथित सांस्कृतिक संगठन से उपजी एक राजनीतिक पार्टी द्वारा हिंदुत्व की राजनीति के उद्देश्य से ओबीसी को संविधान के अनुच्छेद 370 के बारे में खूब बताया और समझाया गया और यदाकदा विशेषकर चुनावी मौसम में आज भी उसकी जानबूझकर खूब चर्चा की जाती है। संविधान का अनुच्छेद 370 अनुच्छेद 340 के बाद आता है, लेकिन ओबीसी को कभी अनुच्छेद 340 के बारे में न तो बताया गया और न ही उसमें निहित उद्देश्यों को समझाया गया और न ही आज के दौर में भी सत्ता द्वारा ओबीसी के सामाजिक और शैक्षणिक उन्नयन के लिए बनाये गए अनुच्छेद 340 की राजनीतिक मंचों पर न तो बात होती है और न ही उसकी विस्तृत व्याख्या या विश्लेषण होता है। यदि विगत और वर्तमान सरकार द्वारा ओबीसी को  अनुच्छेद 340 की विस्तृत जानकारी दी गई होती तो उसे काका कालेलकर - मंडल आयोग और उनके द्वारा ओबीसी के उन्नयन हेतु सरकार को दी गई सिफारिशों के बारे में भी जानकारी हो जाती! न तो सरकार द्वारा और न ही सामाजिक-राजनीतिक संगठनों द्वारा ओबीसी के आम आदमी को इन सभी विषयों के बारे में न तो बताया गया और न ही समझाया गया जिसकी वजह से दलित और वंचित समाज के लोग अपने अधिकारों को छोड़,धार्मिक मुद्दों से उबर नहीं पाए। वे संविधान के बजाय सनातन या धर्म को महत्व देते रहे और समाज का एक वर्ग विशेष उनका आरक्षण का हक खाकर देश की व्यवस्था में 80% पर आज भी काबिज़ हैं और धर्म के नाम पर उपजे और ओबीसी के बलबूते फलते- फूलते धंधे से सभी तरह के सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक लाभ ले रहा है। ओबीसी के लोग धर्म की अफ़ीम चाटते रहे और...........।
          1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह द्वारा ओबीसी के सामाजिक और शैक्षणिक उत्थान के लिए बने मंडल आयोग की सिफारिशों में से केवल एक सिफारिश (सरकारी नौकरियों में ओबीसी को 27% आरक्षण) लागू करने की घोषणा होते ही उसके खिलाफ देश की सड़कों पर एक खास वर्ग की अराजकता देखने को मिली और ओबीसी अपने आरक्षण के अधिकारों के लिए सड़कों पर न उतरें,हिंदुत्व और धर्म की राजनीति को धार देने के उद्देश्य से राम मंदिर के नाम पर प्रायोजित ढंग से गुजरात से रथ यात्रा निकाली गई जिससे ओबीसी अपने संवैधानिक अधिकारों को छोड़कर धर्म की ध्वजा उठाने में लग गई। इसी मुद्दे पर बीजेपी ने सरकार से अपना समर्थन वापस लेकर वीपी सिंह की सरकार गिरा दी थी। इसी बीच घोषित आरक्षण की संवैधानिक वैधता का मामला सुप्रीम कार्ट चला गया। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार द्वारा घोषित 27% आरक्षण को वैध तो ठहराया ,लेकिन मनुवादी सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस निर्णय आदेश में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तय कर दी और साथ में ओबीसी अभ्यार्थियों के लिए एक क्रीमी लेयर की एक आय सीमा तय कर दी जिसमें आने वाले ओबीसी अभ्यार्थियों को आरक्षण की परिधि से बाहर करने की साजिश रच दी, जबकि आरक्षण की वैधता संबंधी याचिका में इन बिंदुओं का कहीं जिक्र तक नहीं किया गया था। यदि यह 27% आरक्षण कुछ वर्षों तक लागू होने के बाद इस आरक्षण से जो क्रीमी लेयर वाला वर्ग तैयार हो होता,उस पर आय सीमा लगाते तो उचित कहा जा सकता था, लेकिन अभी आरक्षण लागू भी नहीं हो पाया,मनुवादियों ने अपनी बारीक बुद्धि लगाकर क्रीमी लेयर की सीमा तय कर ओबीसी को आरक्षण से पहले ही बाहर कर दिया,यह एक सोची समझी साजिश का हिस्सा था जिसे ओबीसी का सामाजिक राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग इसके निहितार्थ नहीं समझ पाया। जैसे ही ओबीसी शिक्षा में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करने की स्थिति में आया तो एनएफएस नाम की अत्याधुनिक तकनीक विकसित कर सभी आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को " नॉट फाउंड सूटेबल " घोषित कर ओबीसी और एससी-एसटी के मेरिटोरियस अभ्यर्थियों को चयन प्रक्रिया से बाहर करना शुरू कर दिया।
        शिक्षा में बढ़ती जागरूकता और भागीदारी के परिणामस्वरूप आरक्षित वर्ग के मेरिटोरियस अभ्यर्थियों के ओवरलैपिंग अर्थात अनारक्षित वर्ग में जगह हासिल करने से खीजकर उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग में 69000 शिक्षक भर्ती में ओबीसी और एससी के लगभग 20000 अभ्यर्थियों की आरक्षण से मिलने वाली नौकरी छीनकर उनकी जगह सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों को शिक्षक बना दिया गया जो विगत पांच वर्षों से अच्छी खासी तनख्वाह लेकर खुशहाल जीवन जी रहे हैं और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को ज़लालत की जिंदगी जीने के लिए यूपी सरकार द्वारा मजबूर कर दिया गया है। राष्टीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश और हाई कोर्ट (सिंगल और डबल बेंच) के निर्णय के बावजूद बीजेपी की यूपी सरकार ने उक्त भर्ती की संशोधित सूची जारी नहीं की गई जिसके फलस्वरूप सरकार ने सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों को सुप्रीम कोर्ट जाने का एक खुला अवसर दे दिया और आज की तारीख़ में यह मामला मनुवादी सुप्रीम कोर्ट में लंबित हो गया है। आरक्षित वर्ग की नौकरियां छीनकर सामान्य वर्ग के अभ्यर्थी शिक्षक बनकर हर महीने लगभग 60000रुपए वेतन लेकर एक खुशहाल जीवन जी रहे हैं और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं।
       ओबीसी और एससी-एसटी जनप्रतिनिधियों की विधानसभा और लोकसभा में पर्याप्त संख्या होने और सामाजिक न्याय के नाम पर बनी जातिगत पार्टियां जैसे ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा, अनुप्रिया पटेल (कुर्मियों) का अपना दल(एस) और डॉ. संजय निषाद की  निषाद पार्टी के सरकार में शामिल होने के बावजूद आरक्षित वर्गों के खुलेआम छीने जा रहे आरक्षण पर विधानसभा और लोकसभा में किसी जनप्रतिनिधि की जुबान तक नहीं खुलती सुनाई दी और यदि सुनाई भी दी तो "जितनी चाबी भरी राम ने, उतना चले खिलौना " जैसी स्थिति नजर आती दिखी। आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों द्वारा किए गए धरना-प्रदर्शन स्थल पर जाने और सहानुभूति जताने तक की हिम्मत किसी ओबीसी और एससी-एसटी के किसी जनप्रतिनिधि में नहीं दिखाई दी। वर्तमान में आजाद समाज पार्टी के नगीना लोक सभा सांसद चंद्रशेखर आजाद की धरना- प्रदर्शन स्थल पर उपस्थिति जरूर देखने को मिली थी।

Friday, July 04, 2025

युवा पीढ़ी की किताबों से बढ़ती दूरी और डिजिटल स्क्रीन की बढ़ती लत एक भयानक दौर-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
          कोरोना वायरस से उपजी आपात स्थिति से निपटने के लिए ऑनलाइन पढ़ने-पढ़ाने और डिजिटल बुक्स को क्लास रूम पढ़ाई के एक वैकल्पिक माध्यम के रूप में विकसित किया गया था, लेकिन अब उसने बहुत तेजी से अपने पैर पसारते हुए बहुत बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया है। आज हर जगह इंटरनेट की सुलभता के कारण विद्यार्थियों एवं पाठकों की डिजिटल किताबों तक पहुंच बहुत तेज़ी से बढ़ी है। दरअसल, छपी हुई किताबों की तुलना में इनकी कीमत बहुत सस्ती पड़ रही है। साहित्यकारों,शिक्षाविदों एवं मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि छपी पुस्तकों में कई तथ्य ऐसे पाए जाते हैं जो उन्हें  डिजिटल बुक्स से बेहतर साबित करती है।
         एक तथ्य है कि दिमागी स्वस्थता के लिए छपी किताबें पढ़ना बहुत जरूरी है। रचनात्मकता, एकाग्रता और स्मरण शक्ति (याददाश्त) जैसे गुण विकसित और समृद्ध करने में छपी हुई किताबों की बेहतर भूमिका मानी जाती है। स्मरण शक्ति एक मानसिक क्षमता है जिसके ज़रिए हम अपने अनुभवों को संग्रहीत करते हैं.ई-बुक्स पढ़ने से वह अनुभूति नहीं हो सकती है जो हाथ में किताब लेकर पढ़ने से होती है। इंटरनेट की बढ़ती खुमारी की वजह से अब पहले जैसी लाइब्रेरी विलुप्त होती जा रही हैं। तेजी से पैर पसारते व्यावसायिक रूप लेती शिक्षा व्यवस्था में पुस्तकों के बढ़ते बोझ, ट्यूशन कोचिंग और प्रतिस्पर्धा के बढ़ते दबाव की वजह से छात्रों के पास पाठ्यक्रम के अलावा समाज,साहित्य,अर्थव्यवस्था,राजव्यवस्था, राजधर्म, नैतिक शिक्षा जैसे विषयों की पुस्तकें पढ़ने के लिए वक्त नहीं बचता है। बढ़ती प्रतिद्वंदिता और माता-पिता की आकांक्षाओं और इच्छाओं के अनाबश्यक दबाव ने बच्चों को पहले से कई गुना ज्यादा व्यस्त रहने के लिए मजबूर कर दिया है। रही-सही कसर स्मार्टफोन और इंटरनेट की दुनिया ने कर दी है जिससे आज के साइंस एंड टेक्नोलॉजी के दौर में वैसी एकाग्रता,रचनात्मकता और कल्पनाशीलता नहीं पनप पा रही है जो छपी पुस्तकों से उपजती और पनपती है। 
          छपी हुई पुस्तकों से वर्तमान पीढ़ी की लगातार बढ़ती दूरी एक गंभीर सामाजिक समस्या बनती जा रही है, बल्कि यह कहें कि वह एक विकराल रूप धारण कर चुकी है। आज की युवा पीढ़ी पढ़ने के बजाय मनोरंजक रील्स और वीडियो देखना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। उपभोक्तावादी और भौतिकवादी संस्कृति की बढ़ती तेजी से बदलते सामाजिक-पारिवारिक परिदृश्य की वजह से अब जन्म दिन या किसी अन्य पारिवारिक/सामाजिक उत्सवों पर किताबों की जगह स्मार्टफोन या स्मार्टवाच उपहार देने की एक नई संस्कृति पैदा हो गई है। दो-तीन दशक पहले खाली वक्त में कॉलेज परिसरों और पुस्तकालयों में पुस्तकों के विभिन्न लेखकों एवं पुस्तकों की चर्चा होती थी,वह आज लगभग खत्म सी हो चुकी है। अब वहां इंटरनेट वीडियो और ओटीटी सीरीज की बात होती है। हर बच्चा और युवा अपने स्मार्टफोन पर व्यस्त दिखाई देता है।
         फरवरी माह में हर साल लगने वाले दिल्ली के पुस्तक मेले में अभी भी विभिन्न प्रतिष्ठित प्रकाशनों की भारी मात्रा में उपन्यास,कहानी और किस्सा कहानियों की पुस्तकें देखी और खरीदी जा रही हैं, लेकिन सवाल यह है कि कितने लोग इन किताबों को पढ़ने में रुचि रखते हैं या पढ़ते हैं। बड़े-बड़े लेखकों और साहित्यकारों की पुस्तकें खरीदने का एक नया फ़ैशन भी तेजी से उभर रहा है,लेकिन ज्यादातर ऐसी पुस्तकें लोगों की निजी लाइब्रेरी या ड्राइंग रूम में सजाकर उनके सामाजिक स्टेटस सिंबल तक सिमटती जा रही हैं। शेक्सपियर की "किताबें इंसान की सुख-दुख में सबसे बेहतर दोस्त" की कहावत की प्रासंगिकता आज भी कम नहीं हुई है,क्योंकि वे बिना किसी निर्णय या शर्त के साथ संगति, ज्ञान और भागने का साधन प्रदान करती हैं। वे आराम, मनोरंजन और ज्ञान का स्रोत हो सकती हैं, जो हमारे जीवन को अनगिनत तरीकों से समृद्ध करती हैं।यह विचार व्यक्त करता है कि किताबें एक करीबी दोस्त की तरह ही साहचर्य, ज्ञान और मनोरंजन प्रदान करती हैं। यह भावना व्यापक रूप से साझा की जाती है और अक्सर विभिन्न रूपों में व्यक्त की जाती है, जो हमारे जीवन में पुस्तकों की मूल्यवान भूमिका को उजागर करती है। किताबें आराम और मनोरंजन का स्रोत हो सकती हैं, खासकर अकेलेपन या ऊब के समय में। वे जीवन के विभिन्न पहलुओं में विशाल मात्रा में जानकारी, विभिन्न दृष्टिकोण और अंतर्दृष्टि तक पहुँच प्रदान करते हैं। किताबें हमारी कल्पना और रचनात्मकता को उत्तेजित करती हैं, जिससे हम विभिन्न दुनिया और परिदृश्यों का पता लगा सकते हैं। आज जरूरत है,अपने बच्चों को पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करने की। घर से लेकर स्कूल-कॉलेज तक एक सामाजिक एवं शैक्षणिक जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। बचपन में यदि बच्चों में किताबों से मोह भंग हुआ तो बड़ा होने पर वो पुस्तकों को हाथ भी नहीं लगाना पसंद नहीं करेंगे। 
        देश में आज भी अच्छी-अच्छी पुस्तकों से पुस्तकालय समृद्ध है, जहां विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों और साहित्यिक पुस्तकों का अपार भंडार है। पाठकों से वे आज सूनी पड़ी हुई है और ई-लाइब्रेरी में भीड़ दिखाई देती है। इस स्थिति में सुधार लाने के लिए समाज के सभी जागरूक तबकों और शैक्षणिक संस्थाओं को एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने की जरूरत है। आज साइंस एंड टेक्नोलॉजी के दौर में भी छपी पुस्तकें प्रासंगिक हैं,लेकिन अभिभावकों को अपने बच्चों में पढ़ने की आदत शुरू से ही डालना जरूरी है। स्कूल-कॉलेजों में इस कार्य के लिए एक अतिरिक्त क्लास रखा जा सकता है। युवा पीढ़ी की किताबों से लगातार बढ़ती दूरी हमारे भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता है। नियमित रूप से छपी पुस्तकें पढ़ने से याददाश्त बढ़ती,मजबूत होती है और एकाग्रता भी समृद्ध होती है।
            इंटरनेट पर देखी और पढ़ी गई विषय सामग्री लोग जल्दी भूल जाते हैं, ऐसा मनोवैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं का मानना है। इसके विपरीत छपी हुई पुस्तकों से पढ़ी गई सामग्री लंबे समय तक जहन में रहती है। किसी जमाने में इतिहास, भूगोल और साहित्य के बड़े-बड़े अध्याय तक याद कर लिए जाते थे। किताबें छात्रों में आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक रूप से समझने और सोचने की क्षमता पैदा और विकसित करती हैं और इसके साथ-साथ स्थापित रूढ़ियों, परंपराओं, मान्यताओं और धारणाओं पर सवाल करने के लिए एक जिज्ञासा भी पैदा करती हैं और प्रोत्साहित करती हैं। विषय को गहनता और गंभीरता पूर्वक समझने की क्षमता पैदा करती हैं। ब्रिटिश लेखक जॉर्ज ऑरवेल का वर्ष 1949 में प्रकाशित उपन्यास "1984" (नाइनटीन ऐटी फोर ) कल्पनाशीलता,रचनात्मकता,दूरदर्शिता,आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक सोच पैदा करने की प्रेरणा देने वाला एक बेहतरीन उदाहरण हो सकता है।
         शिक्षाविदों का मानना है कि आज के तनावयुक्त माहौल में छपी पुस्तकें एक बड़ी भूमिका अदा कर सकती हैं। किताबें भावनात्मक बुद्धिमत्ता के साथ सहानुभूति और संवेदनशीलता विकसित करने में बड़ी भूमिका निभाती है। छपी किताबें पढ़ने से मनुष्य की कल्पनाशीलता और सकारात्मक रचनात्मकता भी बढ़ती है, लेकिन ऐसा डिजिटल सिस्टम में नहीं होता है। मनोवैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं का मानना है कि बेतहाशा डिजिटल प्रभाव की वजह से पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों में संवेदनात्मक और भावनात्मक लगाव में कमी देखी जा रही है। अलग-अलग काल खंडों की पुस्तकें पढ़ने से उस परिवेश की विस्तृत जानकारी मिलती है और उनकी कल्पना शक्ति को प्रोत्साहित करती है। इसका एक अच्छा उदाहरण हैरी पॉटर सीरीज का दिया जा सकता है। इस पुस्तक के दिलचस्प पात्र उनकी जादुई दुनिया के किस्से विस्तार से पढ़कर छात्रों में उड़ान भरने की ललक पैदा कर देते हैं। आज भी दुनिया में इसके करोड़ों लोग दीवाने हैं। ऐसी किताबें पढ़ने से बच्चे सपने देखने के साथ खुद की काल्पनिक दुनिया की रचना करने की दिशा में भी प्रेरित होते हैं। छपी किताबें पढ़ने से बच्चों का शब्द भंडार बढ़ता है और मजबूत होता है। छात्र न केवल नए शब्दों से परिचित होते हैं,बल्कि उनके अनुसार उन्हें रचते भी हैं। छपी किताबों के अध्ययन से बच्चों का ज्ञान समृद्ध होता है। नए शब्द सीखने के लिए किताबों से बेहतर दूसरा कोई विकल्प या तरीका नहीं कहा जा सकता है।
           मनोवैज्ञानिक एवं शोधकर्ताओं का भी मानना है कि रात को बिस्तर पर सोने से पहले किताबें पढ़ना एक अच्छा साधन माना गया है। इससे सकून और शांति भरी नींद आती है और इसके विपरीत देर रात तक इंटरनेट या मोबाइल चलाने वाले लोगों की नींद में खलल पैदा होने की शिकायत आ रही है। मानसिक अवसाद से दूर रखने में किताबें काफी हद तक कारगर साबित हो रही है। मोबाइल की इलेक्ट्रॉनिक किरणों से एक तरीके से विकृति पैदा होने की बात को भी हमारे चिकित्सक,मनोवैज्ञानिक,शिक्षाविद और शोधकर्ता बता रहे हैं और उनका परामर्श है कि इंटरनेट और मोबाइल पर बेतहाशा बढ़ती निर्भरता और लत हमारे देश की युवा पीढ़ी को एक खोखली और अंधकारमय सुरंग की ओर धकेलती जा रही है। समय रहते यदि इस पर सामाजिक और सरकारी स्तर पर संयुक्त रूप से उचित प्रयास नहीं किए गए तो भविष्य में पैदा होने वाले संकटों की बेतहाशा मार की हम कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। इस गंभीर समस्या पर समाज के सभी तबकों और सत्ता प्रतिष्ठानों को गहन चिंतन-मनन कर कोई ठोस उपाय ढूंढ कर उसको धरातल पर साकार रूप देना होगा।

पढ़िये आज की रचना

बहुजन समाज का संविधान बनाम सनातन-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  ~~सूक्ष्म विश्लेषणात्मक अध्ययन~~  नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर) युवराज दत्त महाविद्यालय लखीमपुर-खीरी 9415461224.        पिछ...

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